क्या 1.5 डिग्री से कम वृद्धि का लक्ष्य संभव है?

दुबई में चल रहे जलवायु सम्मेलन (कॉप-28) के संदर्भ में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हम पेरिस समझौते (2015) के लक्ष्य की दिशा में कारगर प्रगति कर रहे हैं। पेरिस समझौते में पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य रखा गया था। यह सम्मेलन इस प्रगति का मूल्यांकन करने का औपचारिक अवसर है।

वैसे तो विभिन्न सरकारें निवेश में वृद्धि एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत अपनाने के साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर रही हैं, लेकिन ये प्रयास काफी धीमी गति से हो रहे हैं।  अब तक की प्रगति पर एक नज़र डालते हैं और देखते हैं कि पेरिस समझौते के सपने को जीवित रखने के लिए क्या करना होगा।

बढ़ते तापमान की हकीकत

स्थिति काफी गंभीर है। पिछले एक दशक में ग्लोबल वार्मिंग की गति तेज़ हुई है। वर्ष 2022 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.3 डिग्री अधिक रहा था और एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2023 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.4 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहेगा। यह स्थिति एक दशक से भी कम समय में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने का संकेत देती है। इसके अलावा उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में चल रहे एल-नीनो प्रभाव वगैरह कम समय में तापमान पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं।

जलवायु मॉडलों का अनुमान है कि 2100 तक तापमान में औद्योगिक-पूर्व स्तर से 2.4-2.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर तत्काल अंकुश लगाने की आवश्यकता स्पष्ट है।

देरी के परिणाम

काफी लंबे समय से विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दों पर जल्द से जल्द कार्रवाई करने पर ज़ोर देते रहे हैं। तीन दशक पहले, 1992 में वैश्विक नेताओं ने तेज़ी से बदल रही जलवायु को नियंत्रित करने के लिए प्रतिबद्धता जताई थी। लेकिन हालिया रुझानों से पता चलता है कि उत्सर्जन की मौजूदा दर पांच वर्षों के भीतर वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ा देगी।

तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहने की 50 प्रतिशत संभावना बनाए रखने के लिए 2034 तक उत्सर्जन में सालाना 8 प्रतिशत की कमी करनी होगी, जो कि कठिन लगती है। तुलना के लिए, 2020 में महामारी के दौरान उत्सर्जन में मात्र 7 प्रतिशत की कमी देखी गई थी जब कामकाज लगभग ठप था।

कार्बन हटाने का मामला

उत्सर्जन को लेकर इस तरह की ढिलाई को देखते हुए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार करने से बचने के लिए विशेषज्ञ वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की वकालत करते हैं। इसे ऋणात्मक उत्सर्जन भी कहा जा रहा है। इसके लिए प्राकृतिक तरीके (जैसे जंगल लगाना या समुद्रों में ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड को सोखना) तथा औद्योगिक तरीके भी शामिल हैं। लेकिन जलवायु मॉडल वातावरण से कार्बन हटाने के तरीकों की मापनीयता और प्रभाविता को लेकर अनिश्चित हैं। और तो और, ऐसे किसी भी उपाय के साइड इफेक्ट भी होंगे।

इसके अलावा, इन समाधानों को लागू करने के लिए पर्याप्त निवेश और गहन शोध की आवश्यकता होगी, जिसकी संभावित लागत खरबों डॉलर तक हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार यदि इस तकनीक का उपयोग किया जाता है तो वैश्विक तापमान को महज़ 0.1 डिग्री सेल्सियस कम करने में 22 ट्रिलियन डॉलर खर्च होंगे। यह लागत पिछले साल विश्व भर की सरकारों और व्यवसायों द्वारा किए गए वार्षिक जलवायु व्यय से लगभग 16 गुना अधिक है। बेहतर तो यही होगा कि उत्सर्जन पर लगाम कसी जाए। फिर भी कई विशेषज्ञों का मत है कि कार्बन हटाने का उपाय अपनाना होगा।

उत्सर्जन पर अंकुश

महामारी के दौरान जीवाश्म ईंधन से होने वाले वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में कमी के बाद अब यह बढ़कर 37.2 अरब टन प्रति वर्ष के नए शिखर पर पहुंच गया है। दूसरी ओर, तमाम चुनौतियों के बावजूद नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन भी तेज़ी से बढ़ रहा है और दुनिया भर में पर्याप्त निवेश भी आकर्षित कर रहा है। इससे शायद जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो।

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार आने वाले वर्षों में वार्षिक जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन चरम पहुंच जाएगा जिसके बाद 2030 तक घटकर 35 अरब टन वार्षिक रह जाएगा। 2015 के स्तर से सालाना 7.5 अरब टन सालाना की यह कमी एक बड़े परिवर्तन की द्योतक है।

स्वच्छ बिजली

वैश्विक तापमान को कम रखने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बिजली ग्रिड में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए पारेषण व वितरण लाइनों का समन्वय बिजली उत्पादन की नई परियोजनाओं के साथ करना होगा। इस तरह से स्वच्छ ऊर्जा से संचालित एक संशोधित ग्रिड उत्सर्जन को आधा कर सकती है।

अलबत्ता, इसमें कई चुनौतियां हैं। इसके लिए नवीकरणीय और कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता 2050 तक लगभग 77 ट्रिलियन टेरावाट घंटे सालाना तक बढ़ाते हुए 2040 तक कोयला, गैस और तेल को लगभग पूरी तरह से समाप्त करना होगा। बड़ी चुनौती भारी उद्योग, विमानन, परिवहन, कृषि और खाद्य प्रणालियों जैसे क्षेत्र हैं। इसके अलावा, मीथेन जैसी अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से निपटना भी महत्वपूर्ण होगा।

ज़िम्मेदारियां और वित्तीय निवेश

ऐतिहासिक रूप से औद्योगिक राष्ट्र ही अधिकांश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के ज़िम्मेदार रहे हैं। अब चीन और भारत जैसे विकासशील देशों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। वैसे, चीन स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में गहन प्रयास कर रहा है, फिर भी ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दें, तो अन्य कम आय वाले देशों में काम काफी धीमी गति से चल रहा है।

गौरतलब है कि हाल के वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन भविष्य की वित्तीय प्रतिबद्धता स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने में तेज़ी और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए आवश्यक है।

निवेश में वृद्धि

पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में वृद्धि हुई है। वर्ष 2021 में 1.1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश वर्ष 2022 में 1.4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया। जलवायु सम्बंधी खर्च को 2035 तक लगभग 11 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ाने की आवश्यकता है।

सालाना 1 ट्रिलियन डॉलर की प्रत्यक्ष जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सहित विभिन्न स्रोतों से धन का नए ढंग से आवंटन एक अच्छा विकल्प है। लेकिन कमज़ोर समुदायों पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के कारण इन सब्सिडीज़ को खत्म करना एक बड़ी चुनौती है। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए विशेषज्ञ ठोस तथा तत्काल प्रयास और राजनीतिक दृढ़ संकल्प पर ज़ोर देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुबई जलवायु सम्मेलन की कुछ झलकियां

विश्व के प्रमुख तेल उत्पादक देश संयुक्त अरब अमीरात में इन दिनों वार्षिक जलवायु सम्मेलन चल रहा है जिसमें लगभग 200 देशों से आए एक लाख से अधिक लोग शिरकत कर रहे हैं। यहां जीवाश्म ईंधन का भविष्य और आपदाओं को रोकने व निपटने के लिए पर्याप्त धन प्रमुख मुद्दे हो सकते हैं। कूटनीतिज्ञों के अलावा, इस सम्मेलन में कई इलाकों के शासक, मुख्य जलवायु अधिकारी, फाइनेंसर और कार्यकर्ता भी शामिल हैं जो जलवायु परिवर्तन को कम करने और ग्रह के भविष्य की सुरक्षा के लिए निरंतर प्रयास कर रहे हैं। तो क्या इस सम्मेलन में होने वाली चर्चाओं से हम ग्रह को बचाने की कोई उम्मीद कर सकते हैं?

प्रमुख मुद्दे

यह सम्मेलन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करके जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों को रोकने पर केंद्रित है। हालांकि, कुछ सकारात्मक परिवर्तन के बावजूद, वैश्विक तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से लगभग 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की ओर अग्रसर लगता है, जो 2015 के पेरिस समझौते में निर्धारित महत्वाकांक्षी लक्ष्य का दुगना है। चीन और अमेरिका जैसे प्रमुख जीवाश्म ईंधन उपयोगकर्ताओं सहित कई देश, नवीकरणीय ऊर्जा और दक्षता में वृद्धि का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी ओर, कोयला, तेल और गैस उत्पादन को चरणबद्ध तरीके से बंद करने या कम करने के मामले में युरोपीय संघ और संयुक्त अरब अमीरात जैसे प्रमुख प्रदूषकों के बीच असहमति बनी हुई है। हालांकि, जीवाश्म ईंधन के निरंतर उपयोग ने जलवायु सम्बंधी आपदाओं को बढ़ा दिया है, फिर भी अधिकांश बातचीत सभी देशों को भविष्य की आपदाओं के प्रति सहनशील बनाने पर केंद्रित है। पिछले सम्मेलन में जलवायु प्रभावित देशों के लिए एक वित्तीय कोश की स्थापना की गई थी और विभिन्न राष्ट्रों ने इसमें योगदान के वायदे किए हैं।

वर्तमान सम्मेलन में सुल्तान अल-जबर का प्रस्ताव काफी महत्वपूर्ण रहा, जिसमें तेल और गैस कंपनियों से प्रमुख ग्रीनहाउस गैस मीथेन को लगभग खत्म करने का आग्रह किया गया है। हालांकि इस कदम के सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं, लेकिन यह उद्योगों में तेल और गैस दहन से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का जवाब नहीं है।

शब्दों का खेल

संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन शब्दजाल से भरे होते हैं, जिनमें ‘अभिलाषा’ और ‘लैंडिंग ज़ोन’ जैसे शब्द होते हैं जिनके बड़े निहितार्थ हो सकते हैं। यहां कुछ ऐसे ही शब्दों की चर्चा की गई है:

अभिलाषा (ambition): इन सम्मेलनों में अक्सर उपयोग किया जाने वाला यह शब्द ग्रह को गर्म करने वाले उत्सर्जनों को कम करने के लिए देशों की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापमान में वृद्धि की सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस तक निर्धारित की गई थी और सभी देशों को इस लक्ष्य के अनुरूप उपायों पर ज़ोर देना है।

पेरिस लक्ष्य (Paris goals): 2015 में सम्पन्न पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापमान वृद्धि पर अंकुश लगाना है जिसमें 2025 से पहले सर्वोच्च उत्सर्जन के बाद 2030 तक उत्सर्जन में 43 प्रतिशत की कमी और 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। वर्तमान स्थिति में यह लक्ष्य हासिल करना काफी मुश्किल प्रतीत हो रहा है।

अनुकूलन (adaptation): इसके कई मतलब हो सकते हैं: बाढ़ से सुरक्षा, सूखा-सह फसलें, या उच्च तापमान का मुकाबला करने वाले भवनों का निर्माण। इन सबके लिए धन की आवश्यकता है। इनकी सबसे अधिक ज़रूरत उन गरीब देशों को है जिन पर जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।

हानि और क्षति (Loss and Damage): इसका तात्पर्य जलवायु परिवर्तन के कारण कमज़ोर देशों को हुई ऐसी क्षति से है जिनके प्रति अनुकूलन नहीं किया जा सकता। इनमें से कई देशों का मानना है कि इस समस्या के सबसे अधिक ज़िम्मेदार औद्योगिक राष्ट्रों को गरीब देशों को उबरने में मदद करने के लिए धन उपलब्ध करना चाहिए। लेकिन अमेरिका सहित कई धनी देशों ने इसका लगातार विरोध किया है कि वे कानूनी रूप से इसके उत्तरदायी हैं।

हटाना बनाम घटाना (phase-out या phase-down): वर्ष 2021 के ग्लासगो सम्मलेन में कोयले और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कमी या समाप्ति ने एक नई बहस बहस को शुरू किया था। भारत और चीन के आग्रह पर जीवाश्म ईंधन को ‘चरणबद्ध तरीके से हटाने’ (phase-out) के स्थान पर ‘चरणबद्ध तरीके से कम करने’ (phase-down) का उपयोग किया गया था अर्थात कोयले का उपयोग कम करना, न कि खत्म करना। इस बार भी जीवाश्म ईंधन को लेकर इसी तरह की बहस की उम्मीद है।

कार्बन हटाना (carbon removal): यह प्राकृतिक या तकनीकी उपायों से वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की बात है। प्राकृतिक रूप से वनों की बहाली या उनकी रक्षा करके ऐसा किया जा सकता है। इसी काम के लिए कुछ तकनीकें भी विकसित की गई हैं लेकिन अभी तक बड़े पैमाने पर लागू नहीं किया गया है। फिर भी हरित ऊर्जा समाधानों के पूरक के रूप में कार्बन को हटाना एक संभावित उपाय के रूप में देखा जा रहा है।

बेलगाम (Unabated) उत्सर्जन: इसका मतलब यह है कि जिन परियोजनाओं में कार्बन कैप्चर या प्रदूषण कम करने की तकनीक न हो वहां जीवाश्म ईंधन के उपयोग को बंद करना। जलवायु कार्यकर्ताओं का विचार है कि इस विचार के आधार पर संयुक्त अरब अमीरात जैसे जीवाश्म ईंधन उत्पादक देश अपना उत्पादन जारी रखेंगे।

राष्ट्रों द्वारा निर्धारित योगदान (nationally determined contributions): इसका अर्थ ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के प्रयासों में हर दशक में देशों द्वारा घोषित संकल्प जो बाध्यकारी न हों। हर 10 वर्ष में इनकी समीक्षा की जाएगी।

वैश्विक लेखाजोखा (Global stock take): यह जलवायु प्रतिबद्धताओं की प्रगति का आकलन करने के लिए पेरिस समझौते में निर्धारित एक मूल्यांकन व्यवस्था है। इस वर्ष आई पहली रिपोर्ट का निष्कर्ष था – हम मंज़िल से बहुत दूर हैं।

तनाव की स्थितियां

काफी समय से अमेरिका और चीन में चल रहे मतभेदों के बावजूद जलवायु मामलों में सहयोग के संकेत मिले हैं। यह संवाद मीथेन पर सौदेबाज़ी जैसी चर्चाओं में सहायक हो सकता है। लेकिन चीन से कोयले में कटौती की कोई संभावना नहीं है क्योंकि वह उसकी आर्थिक स्थिरता और उर्जा सुरक्षा का आधार है। सम्मेलन में व्यापार और औद्योगिक नीति से जुड़े तनाव उभर सकते हैं।

वैसे, सम्मेलन की शुरुआत में एक सकारात्मक निर्णय सामने आया है। जलवायु सम्बंधी आपदाओं से तबाह देशों के लिए एक फंड अपनाया गया जो एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। फिलहाल, एक अधिक चुनौतीपूर्ण उद्देश्य राष्ट्रों को जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए राज़ी करना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया भर में बांधों को हटाने में वृद्धि – हिमांशु ठक्कर

भी बड़े बांधों की उम्र सीमित होती है। क्या आपने कभी सोचा है कि एक बार बांध का उपयोगी जीवन समाप्त होने पर उसका क्या होता है? इसे हटाना होता है जिसे डीकमीशनिंग कहते हैं। डीकमीशनिंग का मतलब बांध और उससे जुड़ी संरचनाओं को पूरी तरह हटाने से है।

दुनिया के तीसरे सबसे बड़े बांध निर्माता के रूप में भारत के लिए यह एक बहुत ही प्रासंगिक सवाल है। यह मुद्दा इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि अब बड़े बांध न तो आवश्यक है और न ही व्यावहारिक। इसके अलावा अब बहती नदियों के महत्व को तेज़ी से सराहा जा रहा है।

यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि किसी बांध को बिना उचित रखरखाव के नदी पर बने रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इससे बांध के नीचे की ओर रहने वाले समुदाय और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बना रहता है।

नदियों को बहाल करने के लाभ

यहां यह समझना आवश्यक है कि बांधों से सिंचाई, पनबिजली, घरेलू और औद्योगिक जल आपूर्ति, जल भंडारण और बाढ़ प्रबंधन जैसे लाभ प्रदान करने का दावा तो किया जाता है लेकिन विश्व बांध आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांशत: ये लाभ वादों से कम होते हैं। और बांध की उम्र बढ़ने के साथ, इसके जलाशय में गाद भर जाने के कारण ये लाभ और भी कम हो जाते हैं। इसके अलावा, ये लाभ भारी लागत और व्यापक प्रतिकूल प्रभावों के साथ आते हैं।

इसलिए जब भी किसी बांध को हटाकर नदी का प्रवाह बहाल किया जाता है, तो यह बांध निर्माण से उत्पन्न कुछ प्रतिकूल प्रभावों उलट देता है। पुन: प्रवाहमान नदी के कुछ लाभों में मछलियों के आवागमन तथा नदी पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के साथ बांध के ऊपर व नीचे नदियों में पानी, गाद, रेत और पोषक तत्वों के प्रवाह की बहाली भी शामिल है। ऐसी नदियों के किनारे के समुदायों के लिए जल आपूर्ति और मछुआरों की आजीविका की भी बहाली होती है। इसका असर सांस्कृतिक कार्यों के लिए उपलब्ध पानी पर भी होता है। इस तरह से डीकमीशनिंग बांध के ऊपर व नीचे के इलाकों में और अधिक सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

बांध हटाने का मतलब नदी के निचले हिस्से में आपदाओं और बाढ़ के जोखिम में कमी और जलमग्न भूमि का पुन: उपलब्ध होना भी है। मुक्त प्रवाह वाली नदियां जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक लचीली होती हैं और जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन में मदद करती हैं। बहाल की गई नदियों से पानी की गुणवत्ता में भी सुधार होता है।

लिहाज़ा, समाज और अर्थव्यवस्था के लिए, बांध के जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आता है जब इसकी लागत, इससे प्राप्त होने वाले लाभ से कहीं अधिक हो जाती है; तब बांध को हटाना बेहतर होता है। इस बात का पता तभी चल सकता है जब समय-समय पर किसी बांध की लागत और लाभ के स्वतंत्र मूल्यांकन की प्रक्रिया की जाए। एक असुरक्षित बांध को बंद करना समाज और अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर होता है। फिलहाल भारत के पास बांधों को हटाने से सम्बंधित मुद्दों को लेकर कोई नीति या कार्यक्रम नहीं है।

योजना की ज़रूरत

बांध को हटाने की योजना बनाते समय यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि इसकी कुछ लागत तो आएगी ही। साथ ही नदी के पारिस्थितिकी तंत्र के प्रभावित होने की संभावना भी रहेगी। उदाहरण के लिए, बांध के पीछे जमी गाद के अचानक बहने से जलीय प्रजातियों के भोजन और अंडे देने के क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं। इसके अलावा, नदी में डूबी जड़ें और तने तलछट के नीचे दबकर घर्षण से क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। यदि जलाशय के जलग्रहण क्षेत्र में प्रदूषण स्रोत उपस्थित हैं तो नदी के प्रवाह के साथ दूषित तलछट स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर सकती है। ऐसे में बांध को हटाने के विकल्पों और रणनीतियों की योजना नदी की प्रकृति, उसके भूविज्ञान, पारिस्थितिकी, जलवायु और अन्य सम्बंधित पहलुओं के अध्ययन के आधार पर बनाई जानी चाहिए।

बांध क्यों हटाए जाएं?

किसी बांध को हटाने का निर्णय कई कारणों से लिया जा सकता है। जैसे-जैसे अधिक से अधिक बांधों को हटाया जा रहा है और इसके लाभ स्पष्ट हो रहे हैं, उम्मीद है कि विश्व स्तर पर बांधों को हटाने की गति में तेज़ी आएगी। कुछ कारणों की बात यहां की जा रही है।

  • असुरक्षित बांध: जब बांध आवश्यक स्पिलवे (अतिरिक्त पानी के निकलने का रास्ता) क्षमता से कम होने, गाद जमा होने, पुराने होने, क्षतिग्रस्त होने या नदी के बहाव को वहन न कर पाने के कारण असुरक्षित हो जाते हैं, तब बाढ़ या कोई अन्य आपदा आने से पहले इन्हें हटा देना समझदारी होगी। जलवायु परिवर्तन की स्थिति में वर्षा की तीव्रता, हिमनद-जनित झील के फटने, भूस्खलन या हिमस्खलन जैसी घटनाओं में वृद्धि बांधों को भी असुरक्षित बनाते हैं।
  • आर्थिक रूप से अव्यावहारिक बांध: घटे हुए लाभ, बढ़ी हुई लागत या इन दोनों के कारण बांध का रखरखाव करना बहुत महंगा हो सकता है। लागत में वृद्धि मुख्य रूप से पर्यावरणीय प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए नियामक शर्तों में वृद्धि, बांध से ऊपर व नीचे मछलियों के प्रवास, स्पिलवे क्षमता बढ़ाने के लिए नए निर्माण की आवश्यकता वगैरह के कारण हो सकती है। ऐसे मामलों में बांध को हटाने की लागत के बावजूद उसे हटा देना ही सस्ता होगा।

– ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना: उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बांधों के जलाशय मीथेन और कार्बन डाईऑक्साइड के जाने-माने स्रोत हैं। (कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में मीथेन लगभग 24 गुना अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है)। ये दोनों प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं। बांध को हटाकर हम ऐसे उत्सर्जन को भी रोक सकते हैं। इसके अलावा, बांधों को हटाने के बाद जलमग्न क्षेत्र के कुछ हिस्सों के पुन:वनीकरण और नदी को बाढ़ क्षेत्र और आर्द्रभूमि से जोड़कर नए कार्बन सोख्ता भी बनाए जा सकते हैं। इस प्रकार बांध हटाना जलवायु परिवर्तन को थामने और अनुकूलन रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हो सकता है।

बांध निर्माण के 100 वर्षों से भी अधिक अनुभव से पता चला है कि बांधों का जीवनकाल सीमित होता है। खराब डिज़ाइन जीवनकाल को कम कर सकती है, उनमें गाद जमा हो सकती है और उनका प्रदर्शन अपेक्षा से कम हो सकता है। इसके अलावा यह आसपास की आबादी के लिए जोखिम तो पैदा करता ही है, इससे नदियां और मछली पालन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

विश्व स्तर पर बांधों को हटाने की मुहिम

यूएसए बांध हटाने की परियोजनाओं में सबसे आगे है। वहां इस प्रक्रिया की शुरुआत कई संघीय कानूनों के साथ हुई। उदाहरण के लिए, 1968 के वाइल्ड एंड सीनिक रिवर एक्ट और 1969 के नेशनल एनवायरनमेंटल पॉलिसी एक्ट ने बांध निर्माताओं को नदियों के पारिस्थितिक लाभों को ध्यान में रखने के लिए मजबूर किया। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर 3 दशकों तक बांधों को हटाने की प्रक्रिया में काफी तेज़ी आई है। कोविड-19 महामारी के दौरान कमी आने से पहले तक प्रति वर्ष 100 से अधिक बांध हटाए गए। अमेरिकन रिवर्स के अनुसार, अमेरिका में अब तक 2025 बांध हटाए जा चुके हैं।

यूएसए में अधिकांश बांधों को फेडरल एनर्जी रेगुलेटरी कमीशन (एफईआरसी) या उसके राज्य समकक्ष द्वारा लायसेंस दिया जाता है। आम तौर पर इसकी अवधि 30 से 50 वर्षों की होती है। इस अवधि के अंत में बांध का पुनर्मूल्यांकन करने के बाद उन्हें सेवानिवृत्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सुरक्षा चिंताओं (भूकंपीय क्षति आदि) की स्थिति में बांधों का लायसेंस रद्द करने की आपातकालीन प्रक्रियाएं भी हैं। पुन: लायसेंसिंग प्रक्रिया में पर्यावरणीय आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से नई परिचालन शर्तों को अनिवार्य किया जाता है। इनमें न्यूनतम प्रवाह में वृद्धि, अतिरिक्त या बेहतर मछली सीढ़ी, आवधिक उच्च प्रवाह और तटवर्ती भूमि के लिए सुरक्षा उपाय शामिल हैं।

अमेरिकन रिवर्स के एक दस्तावेज़ के अनुसार “वर्ष 1999 में अमेरिका स्थित एडवर्ड्स बांध को हटाना एक निर्णायक मोड़ रहा जब पहली बार एफईआरसी ने किसी बांध को हटाने का आदेश दिया। इस बांध की लागत इसके लाभों से कहीं अधिक पाई गई थी। एडवर्ड्स बांध के हटने से एक समय की कल्पनातीत अवधारणा जीर्ण-शीर्ण ढांचे और नदियों को बहाल करने की समस्या से निपटने का एक कारगर उपाय साबित हुआ। इसके नतीजे में अब बांध सुरक्षा कार्यालय, मत्स्य पालन प्रबंधक, बांध मालिक और विभिन्न समुदाय बांधों के लाभों और प्रभावों पर दोबारा विचार कर रहे हैं। कई स्थानों पर बांधों को हटाने को सबसे अच्छा विकल्प माना जा रहा है जिससे पर्यावरण, समुदाय और अर्थव्यवस्था को महत्वपूर्ण लाभ मिल सकते हैं।”

अमेरिकन रिवर्स के अनुसार दो प्रांत – पेनसिल्वेनिया (कुल 364 बांध हटाए गए) और विस्कॉन्सिन (कुल 152 बांध हटाए गए) बांधों को हटाने में अग्रणी रहे हैं। उनकी इस सफलता का मुख्य कारण राज्य मत्स्य पालन और बांध सुरक्षा कार्यक्रमों के बीच नज़दीकी सहयोग है। इसके अलावा, वरमॉन्ट प्रांत ने 13 प्रतिशत राज्य नियंत्रित बांध हटाए हैं जो हटाए गए कुल राज्य नियंत्रित बांधों के अनुपात के लिहाज़ से सर्वाधिक है।

यूएसए में बांध हटाने की वकालत और इस कार्य का नेतृत्व करने वाले समूह अमेरिकन रिवर्स ने 2050 तक 30,000 बांधों को हटाने का लक्ष्य रखा है। गौरतलब है कि अमेरिकी संसद ने सबसे पहले 1972 के राष्ट्रीय बांध निरीक्षण अधिनियम के तहत बांधों की सूची बनाने के लिए आर्मी कोर ऑफ इंजीनियर्स को अधिकृत किया था। भारत में, बड़े बांधों की विश्वसनीय सूची बनाने के लिए ऐसा कोई कानून नहीं है।

यूएसए के राष्ट्रपति बाइडेन ने 2022 में इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट एंड जॉब्स एक्ट पर हस्ताक्षर किए जिसमें बांधों को हटाने तथा उनके पुनर्निर्माण और पुनर्वास के लिए 2.4 अरब डॉलर की राशि आवंटित की गई है। यह ध्यान देने वाली बात है कि बांध हटाने के लिए निवेश को अधोसंरचना सम्बंधी विधेयक में शामिल किया गया था। इन घोषणाओं से यह स्पष्ट होता है कि मुक्त बहने वाली नदियां अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक सुरक्षा और जीवन की गुणवत्ता के लिए महत्वपूर्ण हैं।

पर्यावरण समूहों के गठबंधन डैम रिमूवल युरोप के अनुसार, युरोप में भी बांध हटाने का काम ज़ोर पकड़ रहा है – 2022 में लगभग 325 बांध, पुलिया और अन्य नदी-अवरोधक संरचनाएं हटाई गई हैं। जुलाई 2023 में, युरोपीय संसद ने एक प्रकृति बहाली कानून के मसौदे को मंज़ूरी दी है जिसके तहत 2030 तक कम से कम 20,000 किलोमीटर नदियों को मुक्त प्रवाहित बनाने का लक्ष्य है। वर्ल्ड फिश माइग्रेशन फाउंडेशन के निदेशक हरमन वानिंगन के अनुसार यदि ऐसा कानून बन जाता है तो सभी युरोपीय देशों को इस बारे में विचार करना होगा।

1998 में, लॉयर सैल्मन मछली की सुरक्षा के लिए फ्रांस में ऊपरी लॉयर क्षेत्र की दो छोटी सहायक नदियों के बांधों को हटाया गया। इसी तरह गाद जमा होने के कारण जलाशय की क्षमता 50 प्रतिशत कम हो जाने के कारण 1996 में फ्रांस स्थित कर्नान्सक्विलेक में लेगुएर नदी पर निर्मित एक बांध को भी हटाया गया।

थाईलैंड में ग्रेट मेकांग नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी मुन नदी पर 1994 में निर्मित पाक मुन बांध से नीचे की ओर मत्स्याखेट और चावल की खेती करने वाले समुदायों के सामाजिक और पारिस्थितिक जीवन में उथल-पुथल के चलते बांध हटाने का अभियान शुरू किया गया था। 2001 में अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते थाई सरकार ने मत्स्य पालन तथा समुदायों पर इसके प्रभाव के अध्ययन के लिए एक साल तक बांध के द्वार खुले रखने की अनुमति दी थी।

दुनिया के सबसे बड़े कोप्को बांध को हटाने का काम नवंबर 2023 में कोप्को-2 बांध को हटाने के साथ शुरू किया गया है। 49 मीटर ऊंचे, 60 साल पुराने आयरन गेट बांध, और क्लैमथ बांध के दूसरे हिस्से को बंद करने का काम 2024 में फिर से शुरू किया जाएगा। 420 कि.मी. लंबी क्लैमथ नदी ओरेगॉन की पहाड़ियों से शुरू होकर पश्चिमी अमेरिका स्थित कैलिफोर्निया से होते हुए प्रशांत महासागर तक जाती है। इस नदी पर छ: बांध हैं, उनमें से 36 मीटर ऊंचा पहला बांध 1918 में बनाया गया था। इन छ: बांधों में से चार को हटाए जाने की उम्मीद है। 2024 के अंत में, मत्स्य प्रवास के लिए इसकी सहायक नदियों सहित लगभग 600 कि.मी. नदी को मुक्त कर दिया जाएगा।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार 2000 के दशक की शुरुआत में क्लैमथ नदी पर बांधों को हटाने की प्रक्रिया ऐसे समय में शुरू हुई थी जब कई बांध संघीय लाइसेंस की समाप्ति तिथि के करीब पहुंच रहे थे। इस दौरान जनजातियों, पर्यावरणविदों और मछुआरों के दबाव में एफईआरसी ने आदेश दिया था कि लायसेंस नवीनीकरण से पहले, बांधों में इस तरह का जीर्णोद्धार कार्य किया जाए ताकि मछलियां (सैल्मन) बांध के जलाशय में पहुंच सकें। सैकड़ों हज़ारों डॉलर की निर्माण लागत को देखते हुए बांध निर्माता कंपनी – पैसिफीकॉर्प – 2010 में बांधों को हटाने पर सहमत हुई। इससे दुनिया की सबसे बड़ी बांध हटाने की परियोजना बनाई गई जिसकी लागत 45 से 50 करोड़ डॉलर थी। इस परियोजना का वित्तपोषण कैलिफोर्निया राज्य और पैसिफीकॉर्प द्वारा किया गया।

चार लोअर क्लैमथ बांधों को सुरक्षित और कुशल तरीके से हटाने वाली संस्था क्लैमथ रिवर रिन्यूएबल कॉर्पोरेशन द्वारा 2 नवंबर 2023 को एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से घोषणा की गई कि कोप्को-2 बांध हटाने का काम पूरा हो गया है।

इन सभी प्रयासों से स्पष्ट होता है कि बांधों को हटाने में भी भारी लागत आ सकती है। ज़ाहिर है, जब भी कोई बांध प्रस्तावित किया जाता है तो इसको हटाने की लागत को भी बांध की लागत में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है। वैकल्पिक रूप से, हमें एक लायसेंसिंग नियमन प्रणाली की आवश्यकता है जो पुन: लायसेंसिंग के दौरान परियोजना निर्माता को इस लागत को वहन करने को बाध्य करे। दुर्भाग्य से भारत में इनमें से कोई भी कानून नहीं है। भारत में बांध परियोजनाओं को पर्यावरण सम्बंधी मंज़ूरी हमेशा के लिए दे दी जाती है जिसकी समय-समय पर कोई समीक्षा नहीं होती। न ही इमसें पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों का मूल्यांकन या इसकी मंज़ूरी में लागत, लाभ, प्रभाव या बांधों को हटाने की प्रक्रिया का कोई उल्लेख होता है। यहां बांधों को एक स्थायी निर्माण के रूप में देखने की धारणा है।

क्लैमथ बांध के जीर्णोद्धार समूह ने 90 स्थानीय प्रजातियों का एक बीज बैंक भी बनाया है जिन्हें बोया जाएगा। टीम लीडर के पास बांधों को हटाने के बाद पारिस्थितिक बहाली का काफी अनुभव है।

बांध हटाने के बाद

बांध हटाने के बाद योजनाबद्ध तरीके से मछुआरों और स्थानीय समुदायों की भागीदारी से जलग्रहण क्षेत्र और नदी के पारिस्थितिक तंत्र बहाली की जाती है। साइंस में प्रकाशित उपरोक्त लेख के अनुसार क्लैमथ बांध के हटने और आगे चलकर दुनिया भर के हज़ारों बांधों को हटाने के लक्ष्य के साथ भविष्य में अधिक तथा और बड़े प्रयासों की संभावना है। इस तरह की पारिस्थितिक बहाली के लिए सबसे पहले एक योजना की आवश्यकता होती है जो बांध हटाने की प्रक्रिया शुरू होने से बहुत पहले शुरू हो जाती है। ऐसी योजना बनाने और आगे चलकर क्रियान्वित करने में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया जाता है। इसमें न केवल चयनित देसी पौधों के साथ जलाशय-पूर्व क्षेत्र को आबाद किया जाता है बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि इसमें घुसपैठी पौधे न हों और पहले से उपस्थित पौधों को भी न हटाया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में बांध हटाने की नीति व कार्यक्रम की आवश्यकता – हिमांशु ठक्कर

ल शक्ति मंत्रालय की संसदीय समिति ने मार्च 2023 की 20वीं रिपोर्ट में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग से भारत में बांधों और सम्बंधित परियोजनाओं के व्यावहारिक जीवनकाल और प्रदर्शन का आकलन करने की व्यवस्था को लेकर सवाल किया था। वास्तव में इस सवाल का बांधों को हटाने के विचार पर सीधा असर पड़ता। लेकिन विभाग ने जवाब दिया था कि “बांधों के व्यावहारिक जीवनकाल और प्रदर्शन का आकलन करने के लिए कोई तंत्र नहीं है। और, बांध मालिकों की ओर से किसी भी बांध को हटाने के लिए कोई जानकारी/सिफारिश प्रस्तुत नहीं की गई है।”

इस समिति ने यह भी बताया था कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा संकलित बड़े बांधों के राष्ट्रीय रजिस्टर के 2019 संस्करण के अनुसार भारत में 100 साल से अधिक पुराने 234 बांध हैं; कुछ तो 300 साल से अधिक पुराने हैं।

भारत में 100 साल से पुराने हटाए जा चुके बांधों की संख्या पर विभाग ने बताया था कि सीडब्ल्यूसी में उपलब्ध जानकारी के अनुसार, भारत में ऐसा कोई बांध हटाया नहीं गया है।

गौरतलब है कि बांधों को बनाए रखने के लिए भारी खर्च की आवश्यकता होती है, लेकिन भारत के संदर्भ में रखरखाव को लेकर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ऐसी स्थिति में बांध और भी अधिक असुरक्षित और हटाए जाने के लिए योग्य बन जाते हैं। लिहाज़ा, हमें बांधों को हटाने के लिए एक नीति और कार्यक्रम की तत्काल आवश्यकता है।

इस मामले में संसदीय समिति की सिफारिश है कि “भविष्य को ध्यान में रखते हुए, समिति विभाग को बांधों के जीवन और संचालन का आकलन करने के लिए एक कामकाजी तंत्र विकसित करने के उपयुक्त उपाय करने की सिफारिश करती है और राज्यों से उन बांधों को हटाने का आग्रह करती है जो अपना जीवनकाल पूरा कर चुके हैं और किसी भी विकट स्थिति में जीवन और बुनियादी अधोसंरचना के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकते हैं। समिति इस रिपोर्ट की प्रस्तुति से तीन महीने के भीतर विभाग द्वारा इस सम्बंध में उठाए गए कदमों की जानकारी चाहती है।” यदि इस मामले में सम्बंधित मंत्रालय या विभाग द्वारा कोई कार्रवाई की गई है तो उसकी जानकारी, कम से कम, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।

2021 में बांधों का वैश्विक अध्ययन करने वाले राष्ट्र संघ विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं के अनुसार भारत को अपने पुराने बांधों का लागत-लाभ विश्लेषण करना चाहिए और उनकी परिचालन तथा पारिस्थितिक सुरक्षा के साथ-साथ निचले इलाकों (डाउनस्ट्रीम) में रहने वाले लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए समय पर सुरक्षा समीक्षा भी करनी चाहिए। इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि भले ही बांधों को हटाने का काम हाल ही में शुरू हुआ है लेकिन यूएसए और युरोप में यह काफी गति पकड़ रहा है।

रिपोर्ट में कहा गया है: “जीर्ण व हटाए जा चुके बड़े बांधों के कुछ अध्ययनों से उस जटिल व लंबी प्रक्रिया का अंदाज़ा मिलता है जो बांधों को सुरक्षित रूप से हटाने के लिए ज़रूरी होती है। यहां तक कि एक छोटे बांध को हटाने के लिए भी कई वर्षों (अक्सर दशकों) तक विशेषज्ञों और सार्वजनिक भागीदारी के साथ लंबी नियामक समीक्षा की आवश्यकता होती है। बांधों की उम्र बढ़ने के साथ प्रोटोकॉल का एक ऐसा ढांचा विकसित करना ज़रूरी हो जाता है जो बांध हटाने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन कर सके और उसको गति दे सके।”

भारत में हटाने योग्य बांध

केरल की पेरियार नदी पर निर्मित मुलापेरियार बांध अब 130 साल से अधिक पुराना हो चुका है। केरल सरकार तो इस बांध को हटाने की वकालत कर रही है जबकि तमिलनाडु सरकार इससे असहमत है जबकि वह बांध का संचालन करती है और इससे होने वाले लाभ को तो प्राप्त करती है लेकिन आपदा की स्थिति में हो सकने वाले जोखिम में साझेदार नहीं है। केरल सरकार द्वारा 2006 और 2011 के बीच की गई हाइड्रोलॉजिकल समीक्षा का निष्कर्ष था कि मुलापेरियार बांध अधिकतम संभावित बाढ़ के लिहाज़ से असुरक्षित है। वर्ष 2015 में नए मुलापेरियार बांध के चरण I हेतु पर्यावरणीय मंज़ूरी के लिए केरल सरकार द्वारा पर्यावरण और वन मंत्रालय को भेजे गए प्रस्ताव में नए बांध के निर्माण के बाद पुराने बांध को तोड़ने का एक अनुच्छेद भी शामिल था। लेकिन अंतरराज्यीय पहलुओं को देखते हुए प्रस्ताव को मंज़ूरी नहीं मिली।

इसी तरह, बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से बार-बार पश्चिम बंगाल में गंगा नदी पर बने फरक्का बांध को हटाने की वकालत की है। उनके अनुसार गाद-भराव, जल निकासी में अवरोध, नदियों की वहन क्षमता में कमी और बिहार में बाढ़ की संवेदनशीलता में वृद्धि के कारण इस बांध को हटाना आवश्यक है। त्रिपुरा में किए गए अनेक शोध अध्ययन और पर्यावरण समूह त्रिपुरा स्थित डंबुर (या गुमटी) बांध को भी हटाए जाने के पक्ष में हैं। वास्तव में, त्रिपुरा में डंबुर बांध पर स्थापित क्षमता (15 मेगावाट) की तुलना में बिजली उत्पादन इतना कम है कि उत्तर-पूर्व पर विश्व बैंक के रणनीति पत्र (28 जून, 2006) में भी बांध को हटाने की सिफारिश की गई थी।

मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर महेश्वर बांध भी एक अच्छा उम्मीदवार है जो कोई लाभ नहीं दे रहा है, बल्कि इसके कई प्रतिकूल प्रभाव और जोखिम हैं।

अलबत्ता, भारत में पुराने, असुरक्षित और आर्थिक रूप से घाटे में चल रहे बांधों को हटाने की कोई नीति या कार्यक्रम नहीं है। पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा गठित पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (प्रोफेसर माधव गाडगिल की अध्यक्षता में) की रिपोर्ट में की गई महत्वपूर्ण सिफारिशों में से एक बांधों को हटाने की भी है। इस रिपोर्ट के बाद मंत्रालय द्वारा इस सम्बंध में कोई कदम नहीं उठाया गया है।

वैसे, प्रकृति ने स्वयं कुछ बांधों को हटाने का काम शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए, अक्टूबर 2023 की शुरुआत में, सिक्किम में तीस्ता नदी पर हिमनद झील के फटने से 1200 मेगावाट का 60 मीटर ऊंचा तीस्ता-3 बांध बह गया। फरवरी 2021 में एक बाढ़ ने उत्तराखंड के चमोली जिले में तपोवन विष्णुगाड बांध और ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना बांध को नष्ट कर दिया था। इसी तरह जून 2013 की बाढ़ में उत्तराखंड में बड़ी संख्या में बांधों को नुकसान और तबाही का सामना करना पड़ा था। हरियाणा में यमुना नदी पर बने ताजेवाला बैराज, उसके एवज में बनाए गए हथनीकुंड बैराज के चालू होने के बाद बाढ़ में बह गया था। अक्टूबर 2023 में, महाराष्ट्र-तेलंगाना सीमा पर गोदावरी नदी पर निर्मित मेडीगड्डा बैराज के छह खंभे डूब जाने से बांध को काफी नुकसान हुआ था। केंद्र द्वारा भेजी गई बांध सुरक्षा टीम ने बैराज के पूर्ण पुनर्वास की अनुशंसा भी की है। यदि हम असुरक्षित, अवांछित बांधों को हटाते नहीं हैं तो हमें ऐसी घटनाओं में वृद्धि का सामना करना पड़ सकता है जिससे समाज और अर्थव्यवस्था को बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

बदलती जलवायु और बांध से बढ़ता जोखिम

जलवायु परिवर्तन के कारण तीव्र वर्षा पैटर्न बांधों को और अधिक जोखिम भरा बना सकते हैं। ऐसे में इन्हें हटाना सबसे उचित विकल्प है। तीव्र वर्षा पैटर्न से अधिकतम वर्षा और बाढ़ की संभावना में वृद्धि हो सकती है। लेकिन बांधों और उनकी स्पिलवे क्षमता को इतनी अधिक बाढ़ के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया है। इसके लिए बांधों की स्पिलवे क्षमता को बढ़ाने के लिए उपचारात्मक उपायों की आवश्यकता होती है जो काफी महंगा होता है, जैसा कि ओडिशा में महानदी पर हीराकुड बांध पर किया जा रहा है। वास्तव में हीराकुड बांध स्वतंत्र भारत के बाद बने सबसे पुराने मिट्टी के बांधों में से एक है जिसकी सुरक्षा का तत्काल मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। यही स्थिति  दामोदर नदी के बांधों की भी है।

वास्तव में, सभी बड़े बांधों के लिए परिवर्तित डिज़ाइन की आवश्यकता है जिसमें बाढ़ का आकलन, बदले हुए वर्षा पैटर्न, बांधों की कम भंडारण क्षमता, लाइव स्टोरेज क्षमता में गाद संचय और डाउनस्ट्रीम में नदियों की कम वहन क्षमता को ध्यान में रखना आवश्यक है। इसके साथ ही बांध की सुरक्षा का आकलन करने के लिए इसकी तुलना स्पिलवे क्षमता से की जानी चाहिए। इसके बाद स्पिलवे क्षमता बढ़ाने की व्यवहार्यता और वास्तविकता के बारे में निर्णय लेने की आवश्यकता है। इसके बावजूद जहां यह संभव नहीं है वहां बांधों हटाने के लिए आकलन किया जाना चाहिए।

गौरतलब है कि बांध कोई प्राकृतिक समाधान नहीं हैं। जलवायु वैज्ञानिक हमें प्रकृति आधारित विकास और समाधान खोजने का सुझाव देते हैं। भारत समेत पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन, अन्याय, नदी, प्रकृति और जैव विविधता के नुकसान तथा बढ़ती आपदाओं जैसे कई परस्पर सम्बंधित संकटों का सामना कर रहा है। नदियां इन चुनौतियों से होकर बहती हैं, और इनकी बहाली एक शक्तिशाली प्रकृति आधारित समाधान हो सकता है। पारंपरिक आवश्यकताओं, आजीविका और सामान्य जीवन के लिए मुक्त बहने वाली नदियों की भी आवश्यकता है।

लिहाज़ा, भारत में पुराने, असुरक्षित और अवांछित बांधों के बढ़ते जखीरे से हमारे सामने आने वाले बढ़ते जोखिमों को देखते हुए तत्काल बांधों को हटाने के लिए एक नीति, योजना और कार्यक्रम की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन इस ज़रूरत को और भी अर्जेंट बना रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरणवाद के 76 वर्ष – सुनीता नारायण




यह लेख 16 अगस्त, 2023 को ‘डाउन टू अर्थ’ में मूलत: अंग्रेज़ी में ‘76 years of environmentalism’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

देश अपनी आज़ादी के 76वें साल का जश्न मना रहा है। इस मौके पर यह जायज़ा लेना उचित होगा कि पर्यावरण आंदोलनों ने देश की नीतियों और विकास को आकार देने में क्या भूमिका निभाई है।

पर्यावरण आंदोलन की तीन अलग-अलग राहें हैं जिन पर हम इतिहास में इनके पदचिन्ह देख सकते हैं।

पहली, जिसमें पर्यावरण आंदोलन ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए विकास रणनीति को परिभाषित करने में भूमिका निभाई है। दूसरी, जिसमें पर्यावरणीय अभियानों ने विकास परियोजनाओं का विरोध किया है और इस संघर्ष से कार्रवाई के लिए सर्वसम्मति उभरी है। तीसरी, पर्यावरणीय आंदोलन ने प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य के मामलों में नीतियों में बदलाव करने की ओर ज़ोर लगाया है।

आंदोलन की ‘प्रकृति’ जटिल है। पिछले 75 सालों में ये आंदोलन दो धाराओं में बंटकर काम करते रहे हैं – विकास के रूप में पर्यावरणवाद और संरक्षण के रूप में पर्यावरणवाद।

आंदोलन में यह विभाजन इसके जन्म के समय, 1970 के दशक में, भी नज़र आ रहा था। 1973 में, ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया गया था जो संरक्षण की पश्चिमी अवधारणा के अनुरूप प्रमुख प्रजातियों के संरक्षण हेतु अभयारण्यों हेतु भूमि चिन्हित करने के लिए था।

लगभग उसी समय, हिमालय के ऊंचे इलाकों में महिलाओं ने चिपको आंदोलन शुरू किया था, जिसमें उन्होंने पेड़ काटने (पेड़ों पर आरी-कुल्हाड़ी चलाने) का विरोध किया था। उनका आंदोलन संरक्षण के बारे में नहीं था; उन्हें जीवित रहने के लिए पेड़ों की आवश्यकता थी और इसलिए वे उन्हें काटने और उन्हें उगाने का अधिकार चाहते थे।

यह भेद हमारी नीतियों में भी झलकता है जो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उनके संरक्षण के बीच डोलती रहती हैं। और इन सब में, समुदायों के अधिकार उपेक्षित रहे हैं।

प्रोजेक्ट टाइगर वर्ष 2004 में तब पतन के गर्त में पहुंच गया था जब राजस्थान के सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के सभी बाघ शिकारियों की बलि चढ़ गए थे। तब, टाइगर टास्क फोर्स ने सुधार के लिए अजेंडा तय किया, जिसमें अभयारण्य की सुरक्षा को मज़बूत करना और टाइगर कोर ज़ोन वाले इलाकों से गांवों को अन्यत्र बसाना शामिल था। तब से जंगल में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि क्या स्थानीय समुदायों को इस संरक्षण प्रयास से कोई लाभ हो रहा है?

इसी प्रकार, चिपको आंदोलन ने देश को वन संरक्षण और वनीकरण के लिए प्रेरित किया। 1980 के दशक में वन संरक्षण कानून लागू किया गया था, जिसमें यह व्यवस्था थी कि केंद्र सरकार की अनुमति के बिना वन भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता है।

इस कानून ने कुछ हद तक वन भूमि उपयोग परिवर्तन की प्रवृत्ति को रोकने का काम किया है, लेकिन साथ ही इसने उन समुदायों को वनों से दूर कर दिया है जो इनकी रक्षा करते थे। आज सवाल यह है कि जंगल कैसे उगाएं, कैसे उन्हें काटें और दोबारा फिर उन्हें उगाएं ताकि भारत काष्ठ-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ सके और इस तरह बढ़ सके कि स्थानीय लोगों को इससे फायदा हो।

1980 के दशक में, नर्मदा नदी पर बांध बनाने की परियोजना ‘विनाशकारी’ विकास का चरमबिंदु था। यह परियोजना 1983 में साइलेंट वैली पनबिजली परियोजना को रोकने के निर्णय के बाद आई थी। साइलेंट वैली परियोजना केरल के उपोष्णकटिबंधीय जंगलों की समृद्ध जैव विविधता को बचाने के लिए रोकी गई थी।

नर्मदा परियोजना के मामले में भी मुद्दे वही थे – जंगलों की क्षति और विस्थापित गांवों का पुनर्वास। इस आंदोलन को बहुत सम्मान और निंदा दोनों मिलीं। लेकिन इस आंदोलन ने इस मुद्दे को बहुत अच्छे से उठाया कि नीति में और फिर सबसे महत्वपूर्ण रूप से क्रियांवयन में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।

1980 के दशक की इन हाई-प्रोफाइल परियोजनाओं के कारण 1990 के दशक में पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन करने और मंज़ूरी देने के ताम-झाम की स्थापना हुई। लेकिन संतुलन बनाने का उपरोक्त कार्य अभी भी अधबीच में है।

यह 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सूखा पड़ा था जिसने हमारे सहयोगी और पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल को जल प्रबंधन की मान्यताओं को फिर से देखने-समझने के लिए प्रेरित किया।

डाइंग विज़डम नामक पुस्तक में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में पारंपरिक जल प्रबंधन की तकनीकी प्रवीणता का दस्तावेज़ीकरण किया गया है। इसने विकेन्द्रीकृत और समुदाय-आधारित जल संरक्षण के विचार को उभारा, जिसके बाद आजीविका में सुधार करने और जहां बारिश होती है वहीं उस पानी को भंडारित करने के लिए जल निकायों के पुनर्जनन की दिशा में नीतिगत बदलाव हुए।

दिसंबर 1984 में आई औद्योगिक आपदा भोपाल गैस कांड – जिसमें यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस लीक हुई थी और मौके पर ही हज़ारों लोग मारे गए थे – के कारण औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए बने कानूनों में सुधार हुआ, और कुछ हद तक कंपनियों की तैयारियों में सुधार हुआ। लेकिन हमने उन लोगों को अब तक न्याय नहीं दिया है जो इसके चलते अब भी स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं और उनके पास आजीविका का अभाव है।

1990 के दशक में दिल्ली में स्वच्छ हवा के अधिकार के लिए लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई से बेहतर ईंधन के विकल्प मिले और प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है – दिल्ली ने स्वच्छ संपीड़ित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) को अपनाया।

लेकिन जैसे-जैसे सड़कों पर वाहन और प्रदूषण बढ़ाने वाले ईंधन का दहन (उपयोग) बढ़ा, वैसे-वैसे वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि हुई। अच्छी खबर यह है कि आज, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों के खिलाफ व्यापक अफसोस (या चिंता) है। बुरी खबर यह है कि हम परिवहन प्रणाली को बेहतर करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं – यानी उद्योग, बिजली या खाना पकाने में उपयोग होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन के उपयोग को थामने के कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं।

ऐसी और भी अन्य घटनाएं हैं जिन्हें पर्यावरण इतिहास डायरी में अवश्य दर्ज़ किया जाना चाहिए। हालांकि, भारत के पर्यावरण आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण लाभ वह आवाज़ है जो इसने देश के नागरिकों को दी है। यही आंदोलन की आत्मा है। दरअसल, पर्यावरणवाद का सरोकार तकनीकी सुधारों से नहीं है बल्कि लोकतंत्र को मज़बूत करने से है। (स्रोत फीचर्स)

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मौसम पूर्वानुमान में उपयोगी कृत्रिम बुद्धि

मौसम पूर्वानुमान के क्षेत्र में धीरे-धीरे क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। इन दिनों कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित मौसम पूर्वानुमान सटीक और बेहतर होते जा रहे हैं।

गौरतलब है कि कई दशकों से मौसम पूर्वानुमान सुपर कंप्यूटरों पर निर्भर रहे हैं। अत्यधिक ऊर्जा खपत वाले सुपरकंप्यूटरों से पूर्वानुमान लगाने के लिए इन्हें निरंतर चालू रखना होता है। लेकिन एआई के उद्भव ने इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है। विश्व की सबसे बड़ी मौसम पूर्वानुमान संस्था युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम-रेंज वेदर फोरकास्ट्स (ECMWF) ने हाल ही में एआई को अपनाया है और प्रायोगिक स्तर पर पूर्वानुमान करना शुरू किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार डेस्कटॉप पर मिनटों में तैयार किए गए एआई-जनित पूर्वानुमान सटीकता में पारंपरिक मॉडल के बराबर और कई मामलों में उससे भी बेहतर हैं।

एआई की इस क्षमता को देखते हुए गूगल डीप माइंड और हुवाई जैसी कंपनियां अधिक सटीक एआई मौसम मॉडल तैयार करने का प्रयास कर रही हैं। गूगल के ग्राफकास्ट और हुवाई के पंगु-वेदर ने दस दिनों का पूर्वानुमान तैयार करने में अभूतपूर्व क्षमताओं का प्रदर्शन किया है।

कंप्यूटेशन आधारित पारंपरिक मौसम मॉडल के विपरीत एआई मॉडल डीप लर्निंग पर आधारित हैं। ECMWF के 40 वर्षों के मौसम अवलोकनों और अल्पकालिक पूर्वानुमानों के व्यापक डैटासेट पर प्रशिक्षित ये एआई मॉडल वायुमंडल में हो रहे परिवर्तन के जटिल पैटर्न को समझते हैं। ग्राफकास्ट पेपर के मुख्य लेखक रेमी लैम ने मॉडल की दक्षता को पारंपरिक पूर्वानुमानों का एक तेज़, सटीक और व्यावहारिक विकल्प बताया है।

इन एआई मॉडलों पर काम कर रहे ECMWF शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि सीमित अवलोकन डैटा के साथ भी हुवाई का पंगु मॉडल प्रचलित मॉडल की दक्षता से मेल खाता है। इस तेज़ी से परिवर्तन के पीछे गूगल द्वारा तैयार किया गया वेदरबेंच है जो डैटा तक पहुंच को सरल बनाता है। इसके अलावा, रयान केसलर के व्यक्तिगत योगदान से उपजा मॉडल सरल लेकिन अत्यधिक प्रभावी 6-दिनी पूर्वानुमान प्रदान करने में सक्षम हैं।

एआई मौसम मॉडलिंग के लिए अगला कदम मौसम के एकाधिक पूर्वानुमान में है जिनके बीच से चयन किया जा सके। इसमें चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाओं के लिए पूर्वानुमान की सटीकता को बढ़ाया सकता है। ये मॉडल मौसम का पूर्वानुमान और एक्सास्केल कंप्यूटरों पर काम करने वाले उच्च-रिज़ॉल्यूशन वाले जलवायु मॉडल पर निर्भर हैं। ये शीघ्र परिणाम देंगे और जलवायु भविष्यवाणी में बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं।

बहरहाल मौसम के पूर्वानुमान का भविष्य अंतत: उपयोगकर्ता की प्राथमिकताओं पर निर्भर होगा। इसमें एआई-आधारित पूर्वानुमानों की सटीकता और एल्गोरिद्म-आधारित पूर्वानुमानों की समझ के बीच चयन करना होगा। फिलहाल उम्मीद है कि ये मॉडल उपयोगकर्ताओं को मौसम की घटनाओं को समझने में मदद करेंगे और पूर्वानुमान में सटीकता, दक्षता और विश्वसनीयता का एक अभूतपूर्व मिश्रण प्रदान करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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तापमान में रिकॉर्ड-तोड़ वृद्धि

वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है। पिछला वर्ष अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना जा रहा है। एक गैर-मुनाफा संगठन, क्लाइमेट सेंट्रल, द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष लगभग 7.3 अरब लोगों ने ग्लोबल वार्मिंग जनित तापमान वृद्धि का अनुभव किया जबकि एक-चौथाई आबादी को अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी।

इस रिपोर्ट के आधार पर क्लाइमेट सेंट्रल के एंड्रयू पर्शिंग के अनुसार यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस पर हमारी निर्भरता बनी रही तो आने वाले वर्षों में जलवायु प्रभाव और अधिक प्रचंड होंगे। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने नवंबर 2022 से अक्टूबर 2023 तक 175 देशों और 920 शहरों में दैनिक वायु तापमान पर मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन किया है। उन्होंने पाया कि इस अवधि में औसत वैश्विक तापमान औद्योगिक युग (1850-1900) से पहले के तापमान से औसतन 1.32 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। इसने 2015-2016 के 1.29 डिग्री सेल्सियस के रिकॉर्ड को पछाड़ दिया है।

शोध में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक तापमान की संभावना दर्शाने के लिए क्लाइमेट शिफ्ट इंडेक्स का उपयोग किया। इसके परिणामों के अनुसार शुरुआत में इस भीषण गर्मी का सबसे अधिक खामियाज़ा दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और मलय द्वीपसमूह के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के निवासियों को भुगतना पड़ा है और समय गुज़रने के साथ इसका प्रभाव और अधिक भीषण होता गया।

जमैका, ग्वाटेमाला और रवांडा जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान वृद्धि चार गुना अधिक होने की संभावना है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि 37 देशों के 156 शहरों को लंबे समय तक अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी जिसमें ह्यूस्टन में रिकॉर्ड 22 दिनों तक गर्मी का सिलसिला जारी रहा जबकि जकार्ता, न्यू ऑरलियन्स, टैंगेरांग और क्विजिंग में लगातार 16 दिनों तक अत्यधिक गर्मी पड़ी।

गौरतलब है कि निरंतर बदलते जलवायु के दौर में अत्यधिक गर्मी सिर्फ असुविधाजनक नहीं बल्कि जीवन के लिए खतरा बन गई है। कई विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग को जारी रखना अधिकतर वैश्विक आबादी के बुनियादी मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। इसके अलावा, अप्रैल 2024 तक जारी रहने वाली अल नीनो घटना तापमान को और भी अधिक बढ़ाने के लिए तैयार है।

विशेषज्ञ विनाशकारी वृद्धि को रोकने के लिए जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए तत्काल और निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता बताते हैं। केन्या के मौसम विज्ञान विभाग के जॉयस किमुताई गंभीर प्रभावों और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में तेज़ी से कमी लाने के लिए आगामी कोप-28 जलवायु शिखर सम्मेलन में कुछ महत्वपूर्ण घोषणाओं की उम्मीद रखते हैं।

बहरहाल यह रिपोर्ट एक व्यापक चेतावनी है जो बताती है कि कैसे जलवायु परिवर्तन दुनिया के कोने-कोने को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या मांस खाना आवश्यक है?

गभग 25 लाख वर्षों से मनुष्य अपने पोषण के लिए मांस पर निर्भर रहे हैं। यह तथ्य जीवों की जीवाश्मित हड्डियों, पत्थर के औज़ारों और प्राचीन दंत अवशेषों के साक्ष्य से अच्छी तरह साबित है। आज भी मनुष्य का मांस खाना जारी है – भारत के आंकड़े बताते हैं कि यहां के लगभग 70 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में मांसाहार करते हैं और आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2023 में विश्व की मांस की खपत 35 करोड़ टन थी। वैसे कई अन्य देशों के मुकाबले भारत का आंकड़ा (सालाना 3.6 किलोग्राम प्रति व्यक्ति) बहुत कम है लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में मांस खाना, और इतना मांस खाना ज़रूरी है?

एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार मांस के सेवन ने हमें मनुष्य बनाने में, खास तौर से हमारे दिमाग के विकास में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज के समय में भी कई लोग इतिहास और मानव विकास का हवाला देकर मांस के भरपूर आहार को उचित ठहराते हैं। उनका तर्क है कि आग, भाषा के विकास, सामाजिक पदानुक्रम और यहां तक कि संस्कृति की उत्पत्ति मांस की खपत से जुड़ी है। यहां तक कि कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि मांस मनुष्य के लिए एक कुदरती ज़रूरत है, जबकि वे शाकाहार को अप्राकृतिक और संभवत: हानिकारक मानते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने इन धारणाओं को चुनौती भी दी है।

वास्तव में तो मानव विकास अब भी जारी है, लेकिन साथ ही हमारी आहार सम्बंधी ज़रूरतें भी इसके साथ विकसित हुई हैं। भोजन की उपलब्धता, उसके घटक और तैयार करने की तकनीकों में बदलाव ने महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। अब हमें भोजन की तलाश में घंटों भटकने की ज़रूरत नहीं होती और आधुनिक कृषि तकनीकों ने वनस्पति-आधारित आहार में काफी सुधार भी किया है। खाना पकाने की विधि ने पोषक तत्व और भी अधिक सुलभ बनाए हैं।

गौरतलब है कि पहले की तुलना में अब मांस आसानी से उपलब्ध है लेकिन इसके उत्पादन में काफी अधिक संसाधनों की खपत होती है। वर्तमान में दुनिया की लगभग 77 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि का उपयोग मांस और दूध उत्पादन के लिए किया जाता है जबकि ये उत्पाद वैश्विक स्तर पर कैलोरी आवश्यकता का केवल 18 प्रतिशत ही प्रदान करते हैं। इससे मांस की उच्च खपत की आवश्यकता पर महत्वपूर्ण सवाल उठता है।

हालिया अध्ययनों ने ‘मांस ने हमें मानव बनाया’ सिद्धांत पर संदेह जताया है। इसके साथ ही मस्तिष्क के आकार और पाचन तंत्र के आकार के बीच कोई स्पष्ट सम्बंध भी नहीं पाया गया जो महंगा-ऊतक परिकल्पना को चुनौती देता है। महंगा-ऊतक परिकल्पना कहती है कि मस्तिष्क बहुत खर्चीला अंग है और इसके विकास के लिए अन्य अंगों की बलि चढ़ जाती है और मांस खाए बिना काम नहीं चल सकता। 2022 में व्यापक स्तर पर किए गए एक अध्ययन में भी पाया गया है कि इस सिद्धांत के पुरातात्विक साक्ष्य उतने मज़बूत नहीं हैं जितना पहले लगता था। इस सम्बंध में हारवर्ड युनिवर्सिटी के प्रायमेटोलॉजिस्ट रिचर्ड रैंगहैम का मानना है कि मानव इतिहास में सच्ची आहार क्रांति मांस खाने से नहीं बल्कि खाना पकाना सीखने से आई है। खाना पकाने से भोजन पहले से थोड़ा पच जाता है जिससे हमारे शरीर के लिए पोषक तत्वों को अवशोषित करना आसान हो जाता है और मस्तिष्क को काफी अधिक ऊर्जा मिलती है।

दुर्भाग्यवश, हमारे आहार विकास ने एक नई समस्या को जन्म दिया है – भोजन की प्रचुरता। आज बहुत से लोग अपनी ज़रूरत से अधिक कैलोरी का उपभोग करते हैं, जिससे मधुमेह, कैंसर और हृदय रोग सहित विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। इन समस्याओं के कारण मांस की खपत को कम करने का सुझाव दिया जाता है।

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो मांस हमेशा से अन्य आहार घटकों का पूरक रहा है, इसने किसी अन्य भोजन की जगह नहीं ली है। दरअसल मानव विकास के दौरान मनुष्यों ने जो भी मिला उसका सेवन किया है। ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि मनुष्यों द्वारा मांस के सेवन ने नहीं बल्कि चयापचय में अनुकूलन की क्षमता ने मानव विकास को गति व दिशा दी है। मनुष्य विभिन्न खाद्य स्रोतों से पोषक तत्व प्राप्त करने के लिए विकसित हुए हैं। हमारी मांसपेशियां और मस्तिष्क कार्बोहाइड्रेट और वसा दोनों का उपयोग कर सकते हैं। और तो और, हमारा मस्तिष्क अब चीनी-आधारित आहार और केटोजेनिक विकल्पों के बीच स्विच भी कर सकता है। हम यह भी देख सकते हैं कि उच्च कोटि के एथलीट शाकाहारी या वीगन आहार पर फल-फूल सकते हैं, जिससे पता चलता है कि वनस्पति प्रोटीन मांसपेशियों और मस्तिष्क को बखूबी पर्याप्त पोषण प्रदान कर सकता है।

एक मायने में, अधिक स्थानीय फलों, सब्ज़ियों और कम मांस के मिले-जुले आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और ग्रह दोनों के लिए फायदेमंद हो सकता है। दरअसल हमारी अनुकूलनशीलता और मांस की भूख मिलकर अब एक पारिस्थितिकी आपदा बन गई है। यह बात शायद पूरे विश्व पर एक समान रूप से लागू न हो लेकिन अमेरिका जैसे देशों के लिए सही है जहां प्रति व्यक्ति मांस की खपत अत्यधिक है। 

यह सच है कि मांस ने हमारे विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन आज की दुनिया में यह आवश्यक आहार नहीं रह गया है। अधिक टिकाऊ, वनस्पति-आधारित आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए लाभकारी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन और असमानता – सोमेश केलकर

मैं पर्यावरण वैज्ञानिकों को एकाउंटेंट के रूप में देखना पसंद करता हूं। जब भी हम अर्थव्यवस्था या अपने जीवन स्तर के विकास के लिए पर्यावरण प्रतिकूल तरीके अपनाते हैं तो हम वास्तव में प्रकृति से कुछ ऋण ले रहे होते हैं। यह ऋण बढ़ता रहता है जब तक कि प्रकृति इसे वसूलने नहीं लगती। जब हम इस प्राकृतिक ऋण का भुगतान करने में असमर्थ होते हैं, तो प्रकृति वैश्विक तापमान में वृद्धि, प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि, समुद्र के स्तर में वृद्धि और हिमनदों के पिघलने जैसे उपाय करना शुरू कर देती है। पर्यावरण वैज्ञानिक कोशिश करते हैं कि इस ऋण का हिसाब रखें क्योंकि प्रकृति हमेशा ध्यान रखती है कि उसे कितनी वसूली करना है। आपको लगेगा कि जलवायु परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिकों के विचार जानना लाज़मी है लेकिन हमारे वैश्विक राजनेता ऐसा नहीं सोचते।

जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनेता इसे एक वैश्विक घटना के रूप में देखते हैं और सतही तौर पर देखें तो लगता है कि यह अमीर और गरीब दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है। लेकिन ऐसा नहीं है। इस लेख के माध्यम से हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जलवायु परिवर्तन और असमानता परस्पर सम्बंधित हैं। हम यह भी देखेंगे कि राष्ट्रों ने पृथ्वी को प्रदूषित करने के लिए किस तरह अनैतिक तौर-तरीकों का उपयोग किया है और कार्बन पदचिह्न चर्चाओं में अपना बचाव करने से पीछे भी नही हटे हैं।

जलवायु परिवर्तन व असमानता

कुछ देर के लिए भोपाल गैस त्रासदी वाली रात की कल्पना कीजिए। सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक संयंत्र में रखे गैस कंटेनरों से रिसी हानिकारक गैस ने अमीर और गरीब के बीच अंतर नहीं किया होगा। लेकिन जब आप रिसाव के बाद के परिणामों को देखेंगे तो आपको इस आपदा से हताहत होने वाले लोगों की संख्या में एक पैटर्न दिखाई देगा।

2-3 दिसंबर 1984 को हुई भोपाल गैस त्रासदी में कई मौतें हुईं। इसमें मरने वालों की संख्या के बारे में कोई सटीक जानकारी तो नहीं है लेकिन कुछ स्रोतों के अनुसार तत्काल मौतों का अनुमान लगभग 2-3 हज़ार का है। इस घटना का लोगों पर दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ा। कार्बाइड से निकलने वाली ज़हरीली गैस के संपर्क में आने से हज़ारों लोगों में श्वसन सम्बंधी समस्याएं, आंखों की बीमारियां और अन्य चिकित्सीय जटिलताएं विकसित हुईं। इनमें से कुछ भाग्यशाली लोग तो कुछ वर्षों में स्वस्थ हो गए जबकि अन्य के लिए ये चिकित्सीय जटिलताएं उनके जीवन की नई समस्याएं बन गईं। गैस रिसाव के कारण जल स्रोतों और मिट्टी में भी दीर्घकालिक पर्यावरणीय जटिलताएं उत्पन्न हुईं। इससे प्रभावित समुदायों के स्वास्थ्य और आजीविका पर भी दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा।

प्रभावितों का एक बड़ा हिस्सा गरीब या हाशिए पर रहने वाले समुदायों से है। त्रासदी के अधिकांश पीड़ित संयंत्र के आसपास की घनी आबादी वाली झुग्गियों में रहने वाले लोग थे। यहां मुख्य रूप से कम आय वाले परिवार रहते थे जिनके पास न तो रहने के लिए पर्याप्त आवास थे और न ही स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच। यही लोग इस त्रासदी से सबसे अधिक प्रभावित हुए। भोपाल गैस त्रासदी पर्यावरणीय अन्याय और हाशिए वाले समुदाय पर इसके असंगत प्रभाव का एक ज्वलंत उदाहरण है।

लेकिन औद्योगिक आपदा का जलवायु परिवर्तन से क्या सम्बंध है? वास्तव में भोपाल गैस त्रासदी (इससे प्रभावित लोगों के लिए) कई मायनों में सड़कों पर वाहनों में वृद्धि के कारण बढ़ते प्रदूषण के समान है। एक बार गतिशील होने पर इन दोनों ही परिस्थितियों को पलटना असंभव होता है। और सिद्धांतत: प्रदूषित हवा और कारखाने से हानिकारक गैस का रिसाव सारे लोगों को लगभग समान रूप से प्रभावित कर सकते हैं।

लेकिन वास्तव में जलवायु परिवर्तन का समूहों और क्षेत्रों पर अनुपातहीन प्रभाव पड़ता है। आम तौर पर निम्न-आय और हाशिए पर रहने वाले समुदायों तथा विकासशील देशों में रहने वाली असुरक्षित आबादी जलवायु परिवर्तन से अधिक गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इन समूहों के पास जलवायु परिवर्तन के से तालमेल बनाने और इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए संसाधन सीमित और बुनियादी ढांचा निम्न-स्तर का होता है। गैस त्रासदी के संदर्भ में यह सवाल ज़रूर उठता है कि उद्योग केवल वहीं स्थापित क्यों किए जाते हैं जहां गरीब लोग रहते हैं। क्या धनी लोग अपने आवासीय क्षेत्र में ऐसे उद्योग खोलने की अनुमति देंगे? यदि सही जानकारी हो तो भी क्या गरीबों के पास इसका विरोध करने या याचिका दायर करने के लिए अमीरों के समान ही सामर्थ्य होगी? यही सवाल जलवायु परिवर्तन और अमीर बनाम गरीब देशों तथा उनके निवासियों पर इसके प्रभावों की चर्चा करते समय भी किया जा सकता है।

इसमें एक सवाल संसाधनों तक असमान पहुंच का भी है। आय में असमानता और संसाधनों तक असमान पहुंच के बीच एक गहरा सम्बंध है; आम तौर पर उच्च आय वाले लोगों के पास जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए काफी संसाधन होते हैं। इसमें जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश, बीमा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच भी शामिल हैं। निम्न-आय वाले लोगों और समुदायों के पास इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन न होने के कारण वे सबसे अधिक असुरक्षित हैं।

निम्न-आय समूहों और यहां तक कि बड़े पैमाने पर गरीब राष्ट्रों को पर्यावरणीय अन्याय का सामना करना पड़ता है। वे हमेशा से पर्यावरण प्रदूषण और इससे होने वाले खतरों का अनुपातहीन बोझ उठा रहे हैं। काफी संभावना है कि ऐसे समुदाय पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक खतरों के करीब रहते हों, जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी में स्पष्ट नज़र आया। जलवायु परिवर्तन मौसम की चरम घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि करता है और मौजूदा पर्यावरणीय समस्याओं को बदतर बनाकर पर्यावरणीय अन्याय को भी बढ़ा देता है।

इस लेख में भोपाल गैस त्रासदी के कारण पानी और मिट्टी पर दीर्घकालिक प्रभाव का उल्लेख हुआ है। इस सम्बंध में स्वाभाविक सवाल है कि किसकी आजीविका मिट्टी और पानी की गुणवत्ता पर सबसे अधिक निर्भर करती है, उत्तर ‘निश्चित रूप से किसान!’ है। भारत जैसे देश में अधिकांश किसान छोटे और मझोले हैं। हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि पर्यावरण क्षति विभिन्न समूहों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है। दरअसल मृदा और जल प्रदूषण का एकमात्र उदाहरण भोपाल गैस त्रासदी नहीं है बल्कि दुनिया भर से निकल रहा औद्योगिक कचरा भी इस तरह की पर्यावरण क्षति करता है। जहां पानी और मिट्टी ज़हरीली हो, वहां के छोटे और मध्यम किसानों के लिए जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। कृषि, मत्स्य पालन और अन्य जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन आजीविका को बाधित कर सकता है। इन उद्योगों पर निर्भर निम्न आय वाले लोगों के पास नए और अधिक जलवायु-अनुकूलित नौकरियों की तरफ जाने के अवसर सीमित होते हैं। इसके परिणामस्वरूप नौकरियों की कमी और गरीबी में वृद्धि अवश्यंभावी है।

नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोतों से प्राप्त उर्जा तक पहुंच चिंता का एक और विषय है। नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोत काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके उपयोग से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आती है और यह जलवायु परिवर्तन को थामने का काम करता है। यहां भी कई निम्न आय वाले परिवारों के पास किफायती और स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों तक पहुंच की कमी है जिसके कारण उन्हें जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे जलवायु में परिवर्तन तेज़ होता है। स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच में समता से जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में मदद मिल सकती है।

जलवायु परिवर्तन में सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नियमन, नीति निर्माण और शासन-प्रशासन के उसके अधिकार असमानताओं को कायम रख सकते हैं। यदि नीति निर्माण के समय समता के सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा गया तो जलवायु नियम-कायदे जाने-अनजाने में अमीरों और गरीबों को भिन्न ढंग से प्रभावित करेंगे। इस संदर्भ में जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में कहा है कि “यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि सभी (जलवायु) नीतियों को ऐसे तैयार किया जाए जिससे समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्ति को भी लाभ हो।”

देशों द्वारा अपनाए जाने वाले अनैतिक तरीके

विश्व भर के राजनेता इन समाधानों से अच्छी तरह परिचित तो हैं लेकिन इन्हें अपनाने के लिए वे तैयार नहीं हैं। उनके हिसाब से विकास और पर्यावरणीय स्थिरता तराजू के दो विपरीत छोर हैं जिनमें से किसी एक की बलि चढ़ाए बगैर दूसरे को हासिल नहीं किया जा सकता। राजनीति का झुकाव हमेशा से ही दिखावे की ओर रहा है। इसलिए, कुछ राष्ट्र अपनी छवि चमकाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर संदिग्ध और आपत्तिजनक रणनीति का सहारा लेते हैं जबकि ‘विकास’ के अपने दृष्टिकोण से पर्यावरण को प्रदूषित करते चले जाते हैं।

कुछ देश तो ऐसे कार्यों में भी लिप्त हैं जिसे जलवायु कार्यकर्ता ‘ग्रीनवॉशिंग’ कहते हैं। इसका मतलब अपने पर्यावरणीय प्रयासों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना या झूठे दावे करना है। कई देश पर्यावरण संरक्षण में कोई ठोस कार्य किए बिना यह धारणा बनाने का प्रयास करते हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक और ज़िम्मेदार हैं। दुनिया भर की सरकारें ग्रीनवॉशिंग के तहत व्यापक स्तर पर जनसंपर्क अभियान, भ्रामक विज्ञापन जैसे तरीके अपनाती हैं।

कुछ राष्ट्र तो अस्पष्टता और जानकारी देने में देरी का सहारा लेते हैं। इसमें आम तौर वे अपने वास्तविक कार्बन पदचिह्न को ओझल रखने के लिए जटिल रिपोर्टिंग विधियों या नौकरशाही विलंब का सहारा लेते हैं।

अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश कार्बन व्यापार या कार्बन ट्रेडिंग के नाम से मशहूर तरीके का भी इस्तेमाल करते हैं। कार्बन ट्रेडिंग ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने की एक बाज़ार-आधारित पद्धति है। इसके तहत जिन देशों या संस्थानों के लिए उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं वे ऐसे संस्थानों से उत्सर्जन क्रेडिट खरीद सकते हैं जिन्होंने अपने निर्धारित लक्ष्य को हासिल कर लिया है और उनके पास उत्सर्जन की गुंजाइश बची है। कार्बन ट्रेडिंग के दो तरीके हैं।

1. कैपएंडट्रेड – इस प्रणाली के तहत सरकार एक किस्म के उद्योग के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा निर्धारित करती है। इसके बाद कंपनियों या उद्योगों को उत्सर्जन परमिट आवंटित किए जाते हैं। जो कंपनियां अपने आवंटित परमिट से अधिक उत्सर्जन करती हैं, उन्हें या तो अधिशेष परमिट वाली कंपनियों से अतिरिक्त परमिट खरीदने होंगे या फिर निर्धारित सीमा का अनुपालन करने के लिए उत्सर्जन में कमी करना होगा। इस तरह की व्यवस्था आम तौर पर राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर दिखती है।

2. ऑफसेटिंग कार्यक्रम – इसके तहत कंपनियों को अपने उत्सर्जन की भरपाई के लिए अन्य देशों या क्षेत्रों में उत्सर्जन में कमी के कार्यक्रमों में निवेश करने की अनुमति दी जाती है। इन प्रयासों के एवज में उन्हें विकास के नाम पर और अधिक प्रदूषण फैलाने की अनुमति मिलती है। ऑफसेटिंग परियोजनाओं में पुनर्वनीकरण, नवीकरणीय ऊर्जा विकास के प्रयास या लैंडफिल से मीथेन कैप्चर जैसी चीज़ें शामिल हो सकती हैं।

भारत सहित कई देश जीवाश्म ईंधन पर सबसिडी देते रहेंगे और साथ-साथ जलवायु लक्ष्यों के प्रति समर्थन और प्रतिबद्धता के बयान भी। इन देशों का मानना है कि ये उद्योग उनकी आर्थिक स्थिरता के लिए ज़रूरी हैं और वे कोई बड़ा बदलाव न करते हुए इन्हें क्रमश: खत्म करने के प्रयास करेंगे।

कई राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय जलवायु समझौतों में भी भाग लेते हैं जिनमें कानूनी रूप से बाध्यता का अभाव होता है। इससे उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में दिखावे के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य दर्शाने का मौका मिलता है। लेकिन सच तो यह है कि वे इन बड़े-बड़े महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता के बिना अपना काम चलाते जाते हैं।

कुल मिलाकर, हमारे पास असल मुद्दे का कोई जवाब नहीं है – हम जलवायु परिवर्तन के बारे में क्या कर रहे हैं, और खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में क्या हम सबसे कमज़ोर वर्ग के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं?

जलवायु परिवर्तन और असमानता को एक साथ संबोधित करने के लिए ऐसी नीतियां और रणनीतियां लागू करना होगा जो पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक समता दोनों को समान रूप से प्राथमिकता देती हों। इसमें कमज़ोर समुदायों में जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश करना, स्वच्छ ऊर्जा, भोजन और पानी तक पहुंच प्रदान करना और स्थायी आजीविका विकल्पों को प्रोत्साहित करना शामिल हो सकता है। इसके लिए पर्यावरण नीति का न्यायसंगत और समावेशी होना भी आवश्यक है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई अनिवार्य रूप से एक निष्पक्ष और अधिक न्यायसंगत दुनिया के लिए लड़ाई भी होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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देश को गर्मी से सुरक्षित कैसे करें

वैसे तो अभी जाड़े का मौसम आने वाला है लेकिन गर्मियां भी दूर नहीं हैं। और भारत की चिलचिलाती गर्मी नागरिकों के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है। बढ़ती गर्मी न सिर्फ असुविधा पैदा कर रही है बल्कि जानलेवा भी साबित हो रही है। निरंतर बढ़ते तापमान और अत्यधिक आर्द्रता के परिणामस्वरूप हीट स्ट्रोक (लू लगने) से मृत्यु की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।

पिछले वर्ष दी लैंसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2000-04 और 2017-21 के बीच गर्मी से मरने वाले लोगों की संख्या में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी क्षेत्रों पर हो रहा है जहां टार और कांक्रीट जैसी गर्मी सोखने वाली निर्माण सामग्री का भरपूर उपयोग हो रहा है।

विशेषज्ञों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग और तेज़ी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों के चलते यह जोखिम बढ़ने की संभावना है। अनुमान है कि 2025 तक भारत की आधी से अधिक आबादी शहरों में निवास करेगी। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी गरीबों पर होगा जो न एयर कंडीशनिंग का खर्च उठा सकते हैं और बाहर खुले में काम करते हैं। इस स्थिति को देखते हुए शोधकर्ता और नीति निर्माता अब इस बढ़ते संकट को समझने और इसके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न रणनीतियां विकसित कर रहे हैं।

ऐतिहासिक रूप से भारत में आपदा नियोजन प्रयास चक्रवातों और बाढ़ से निपटने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन वर्ष 2015 से राष्ट्रीय स्तर पर ग्रीष्म लहरों को प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में शामिल किया गया है। कुछ शहरों में शोधकर्ता आपातकालीन योजनाओं को बेहतर बनाने के लिए अधिकारियों के साथ ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने और शीतलता केंद्र खोलने पर विचार कर रहे हैं। कुछ शोधकर्ता तो घरों को ठंडा बनाने के लिए सस्ते तरीके भी आज़मा रहे हैं। कुछ अन्य शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि आसपास के तापमान पर भूमि उपयोग और वास्तुकला का प्रभाव समझकर शहरों के विस्तार के लिए समुचित डैटा जुटा सकें।

इसी तरह का एक प्रयास नागपुर में अर्बन हीट रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत शोधकर्ताओं द्वारा किया गया; 30 लाख की आबादी वाला यह शहर भारत के सबसे गर्म शहरों में से एक है।

तापमान के दैनिक पैटर्न से मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। कई अध्ययन दर्शाते हैं कि गर्म दिनों के साथ रातें भी गर्म रहें तो स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं क्योंकि ऐसा होने पर शरीर को गर्मी से कभी राहत नहीं मिलती है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि भारत में लगातार गर्म दिन और गर्म रातें आम बात होती जा रही हैं।

इसके साथ ही सामाजिक-आर्थिक कारकों और गर्मी के प्रति संवेदनशीलता के सम्बंध को भी समझने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के लिए गरीब लोग घर को ठंडा रखने के उपकरण खरीदने में सक्षम नहीं होते। यह भी संभव है कि बुज़ुर्गों को ऐसी बीमारियां होती हों जो उन्हें गर्मी के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं। कुछ क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति या स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है जो गर्मी से सम्बंधित बीमारी से निपटने में मदद कर सकते हैं। जैसे नागपुर के बाहरी इलाकों में लोगों के पास स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है।

टीम ने गर्मी के बारे में लोगों की समझ को भी महत्वपूर्ण माना है। पिछले साल ग्रीष्म लहर के दौरान शोधकर्ताओं ने पैदल लोगों से बातचीत की। 45 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी अधिकांश लोगों ने कम ही चिंता व्यक्त की क्योंकि उनके लिए इसमें कुछ नया नहीं है, मौसम तो हमेशा से ऐसा ही रहा है। यह काफी चिंताजनक है क्योंकि आम जनता को गर्मी से होने वाले जोखिमों के बारे में पर्याप्त समझ नहीं है। संभव है कि वे ग्रीष्म लहर से सम्बंधित चेतावनियों पर भी ध्यान नहीं देंगे। इस स्थिति में हीट एक्शन प्लान (एचएपी) तैयार करना और भी ज़रूरी हो जाता है।

मुख्य तौर पर एचएपी का उद्देश्य अधिकारियों को ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने के लिए तैयार करने और अस्पतालों एवं अन्य संस्थानों को सचेत करना है। इसके तहत अस्पतालों को गर्मी के मौसम में लू के रोगियों के इलाज के लिए कोल्ड वार्ड बनाने और बिल्डरों को अत्यधिक गर्म दिनों में मज़दूरों को छुट्टी देने का सुझाव दिया गया है।

एचएपी सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में स्थानीय वैज्ञानिक संस्थानों और गैर-मुनाफा संस्था नेचुरल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल (एनआरडीसी) द्वारा शुरू किया गया था। 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस योजना के तहत कम से कम 1190 लोगों की जान बचाई गई। आपदा प्रबंधन एजेंसी अब देश के 28 में से 23 राज्यों में एचएपी विकसित करने के लिए काम कर रही है।

अलबत्ता, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा एचएपी का कार्यान्वयन असमान रहा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस योजना में पर्याप्त धन की कमी है। इसके अलावा योजना के तहत निर्धारित सीमाएं स्थानीय जलवायु के अनुरूप नहीं हैं। कुछ क्षेत्रों में तो केवल दिन का उच्चतम तापमान ही अलर्ट के लिए पर्याप्त माना गया है। उदाहरण के लिए अहमदाबाद में प्रारंभिक अलर्ट के लिए सीमा 41 डिग्री सेल्सियस निर्धारित की गई है। लेकिन कई अन्य स्थानों पर, रात का तापमान या आर्द्रता भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि दिन का तापमान लेकिन इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है।

जैसे, मुंबई में अप्रैल माह में देर सुबह और बिना किसी छाया के आयोजित एक समारोह में 11 लोगों की लू से हुई मौतों ने अधिक सूक्ष्म और स्थान-आधारित चेतावनियों की आवश्यकता को रेखांकित किया है। उस दिन का अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस था, जो राष्ट्रीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा तटीय शहरों के लिए निर्धारित अलर्ट सीमा से 1 डिग्री सेल्सियस कम था। लेकिन गर्मी का प्रभाव आर्द्रता के कारण अधिक बढ़ गया था जिसे गर्मी चेतावनी प्रणालियों में अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। विडंबना यह है कि मुंबई सहित महाराष्ट्र में इस त्रासदी से सिर्फ 2 महीने पहले एचएपी अपनाया गया था। इसमें गर्म दिनों में बाहरी कार्यक्रमों को अलसुबह करने की सलाह दी गई थी।

एचएपी को बेहतर बनाने में मदद के लिए शोधकर्ता एक मॉडल योजना पर काम कर रहे है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार ढाला जा सके। साथ ही सभी शहरों की अधिक जोखिम वाली आबादी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक जोखिम मानचित्र का भी सुझाव दिया गया है।

ऐसा मानचित्र बड़ी आसानी से बनाया जा सकता है। इसमें  अधिक बुजुर्ग आबादी वाले या अनौपचारिक आवासों वाले इलाकों को चिंहित किया जा सकता है ताकि उन्हें विशेष चेतावनी मिल सके या पर्याप्त शीतलन केंद्रों की व्यवस्था की जा सके। नागपुर परियोजना के तहत एक जोखिम मानचित्र तैयार किया गया है जो यह बता सकता है कि ग्रीष्म लहर की स्थिति में किन इलाकों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

शोधकर्ताओं का मानना है कि एचएपी में केवल अल्पकालिक आपातकालीन सेवाओं के अलावा मध्यम से दीर्घकालिक उपायों पर भी काम किया जाना चाहिए। जैसे छाया प्रदान करने के लिए पेड़ लगाने के स्थान तय करना। एचएपी के तहत घरों के पुनर्निर्माण या भवन निर्माण नियमों में बदलाव के प्रयासों को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। शहरों को ठंडा रखने के लिए उनके निर्माण के तरीके बदलना होंगे। नागपुर की टीम ने शहर की ऐसी इमारतों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। लेकिन ऐसे घरों के निर्माण के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं है और इनके रख-रखाव का खर्च भी बहुत ज़्यादा होता है।

हाल के वर्षों में, आवास मंत्रालय ने जलवायु अनुकूल इमारतों के निर्माण के लिए विस्तृत दिशानिर्देश तैयार किए हैं। इसमें पारंपरिक वास्तुकला के कुछ सिद्धांत शामिल किए गए हैं। लेकिन ये दिशानिर्देश ज़्यादातर कागज़ों पर ही हैं। बिल्डर और स्थानीय सरकारें अपने तौर-तरीकों को बदलने में धीमी या अनिच्छुक लगते हैं।

वैसे, शहरों में रहने वाले कम आय वाले कई परिवारों के लिए नवनिर्मित, जलवायु-अनुकूल निवास में जाने की संभावना बहुत कम है। इसलिए मौजूदा घरों में ही कुछ परिवर्तन किया जा सकता है। सबसे सस्ता और जांचा-परखा तरीका छतों को सफेद परावर्तक पेंट से ढंकना है। एचएपी के तहत इस तकनीक का सबसे पहला उपयोग 2017 में अहमदाबाद में किया गया था। एक अध्ययन के अनुसार पेंट की हुई टीन की छत वाले घर बिना पेंट वाली छतों की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस ठंडे रहते हैं जबकि अधिक महंगी तकनीक का उपयोग करके घरों को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा किया जा सकता है।

2020 में, 15,000 कम आय वाले घरों तक कूल रूफ कार्यक्रम का विस्तार किया गया था। इस साल, जोधपुर ने इसी तरह की पहल की है। इसी तरह तेलंगाना ने 2028 तक 300 वर्ग किलोमीटर ठंडी छतें बनाने का संकल्प लिया है। मुंबई और अन्य शहरों में, सीबैलेंस नामक एक निजी फर्म गरीब परिवारों के लिए कम लागत वाली शीतलन तकनीकों का परीक्षण कर रही है।

इस तकनीक में घर को ठंडा रखने के लिए टीन की छत को एल्यूमीनियम पन्नी से ढंककर गर्मी से इन्सुलेशन दिया जाएगा। इन घरों में एक बड़ा परिवर्तन छत के थोड़ा ऊपर पुनर्चक्रित प्लास्टिक कचरे के पैनलों से निर्मित दूसरी छत बनाना है। रसोई की खिड़की के लिए सुबह के समय पैनलों को बंद करने की व्यवस्था होगी जिससे धूप को रोका जा सकेगा और रात में उन्हें फिर से खोलकर गर्मी को बाहर किया जा सकेगा।

फिलहाल तो एक गैर-सरकारी परोपकारी संस्था ने इन परिवर्तनों के लिए धन प्रदान किया है। लेकिन भारत में शीतलन संसाधनों के भुगतान के लिए पैसा एकत्रित करना एक चुनौती है। विशेष पेंट काफी महंगा है। पैसे बचाने के लिए कुछ लोगों ने अपनी छतों को साधारण सफेद पेंट से रंगने की कोशिश की है। लेकिन यह तापमान को उतना कम नहीं करता है।

वैसे कई अन्य समस्याएं भी हैं। जैसे मुंबई की बस्तियों में बेतरतीब बिजली के तारों से कुछ छतों पर शेडिंग पैनल स्थापित नहीं किए जा सकते। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि छत पर किए जाने वाले परिवर्तनों से वॉटरप्रूफिंग को नुकसान न पहुंचे। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता और इंजीनियर भारत के शहरों और उसमें भी सबसे कमज़ोर नागरिकों के लिए कूलिंग समाधान खोजने के लिए प्रयास कर रहे हैं। वर्तमान परिस्थितियों में कूलिंग कोई सुविधा नहीं बल्कि सामाजिक न्याय का मामला बन गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adl0080/abs/_20230929_nf_climate_india_sunset.jpg