जलवायु परिवर्तन और असमानता – सोमेश केलकर

मैं पर्यावरण वैज्ञानिकों को एकाउंटेंट के रूप में देखना पसंद करता हूं। जब भी हम अर्थव्यवस्था या अपने जीवन स्तर के विकास के लिए पर्यावरण प्रतिकूल तरीके अपनाते हैं तो हम वास्तव में प्रकृति से कुछ ऋण ले रहे होते हैं। यह ऋण बढ़ता रहता है जब तक कि प्रकृति इसे वसूलने नहीं लगती। जब हम इस प्राकृतिक ऋण का भुगतान करने में असमर्थ होते हैं, तो प्रकृति वैश्विक तापमान में वृद्धि, प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि, समुद्र के स्तर में वृद्धि और हिमनदों के पिघलने जैसे उपाय करना शुरू कर देती है। पर्यावरण वैज्ञानिक कोशिश करते हैं कि इस ऋण का हिसाब रखें क्योंकि प्रकृति हमेशा ध्यान रखती है कि उसे कितनी वसूली करना है। आपको लगेगा कि जलवायु परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिकों के विचार जानना लाज़मी है लेकिन हमारे वैश्विक राजनेता ऐसा नहीं सोचते।

जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनेता इसे एक वैश्विक घटना के रूप में देखते हैं और सतही तौर पर देखें तो लगता है कि यह अमीर और गरीब दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है। लेकिन ऐसा नहीं है। इस लेख के माध्यम से हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जलवायु परिवर्तन और असमानता परस्पर सम्बंधित हैं। हम यह भी देखेंगे कि राष्ट्रों ने पृथ्वी को प्रदूषित करने के लिए किस तरह अनैतिक तौर-तरीकों का उपयोग किया है और कार्बन पदचिह्न चर्चाओं में अपना बचाव करने से पीछे भी नही हटे हैं।

जलवायु परिवर्तन व असमानता

कुछ देर के लिए भोपाल गैस त्रासदी वाली रात की कल्पना कीजिए। सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक संयंत्र में रखे गैस कंटेनरों से रिसी हानिकारक गैस ने अमीर और गरीब के बीच अंतर नहीं किया होगा। लेकिन जब आप रिसाव के बाद के परिणामों को देखेंगे तो आपको इस आपदा से हताहत होने वाले लोगों की संख्या में एक पैटर्न दिखाई देगा।

2-3 दिसंबर 1984 को हुई भोपाल गैस त्रासदी में कई मौतें हुईं। इसमें मरने वालों की संख्या के बारे में कोई सटीक जानकारी तो नहीं है लेकिन कुछ स्रोतों के अनुसार तत्काल मौतों का अनुमान लगभग 2-3 हज़ार का है। इस घटना का लोगों पर दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ा। कार्बाइड से निकलने वाली ज़हरीली गैस के संपर्क में आने से हज़ारों लोगों में श्वसन सम्बंधी समस्याएं, आंखों की बीमारियां और अन्य चिकित्सीय जटिलताएं विकसित हुईं। इनमें से कुछ भाग्यशाली लोग तो कुछ वर्षों में स्वस्थ हो गए जबकि अन्य के लिए ये चिकित्सीय जटिलताएं उनके जीवन की नई समस्याएं बन गईं। गैस रिसाव के कारण जल स्रोतों और मिट्टी में भी दीर्घकालिक पर्यावरणीय जटिलताएं उत्पन्न हुईं। इससे प्रभावित समुदायों के स्वास्थ्य और आजीविका पर भी दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा।

प्रभावितों का एक बड़ा हिस्सा गरीब या हाशिए पर रहने वाले समुदायों से है। त्रासदी के अधिकांश पीड़ित संयंत्र के आसपास की घनी आबादी वाली झुग्गियों में रहने वाले लोग थे। यहां मुख्य रूप से कम आय वाले परिवार रहते थे जिनके पास न तो रहने के लिए पर्याप्त आवास थे और न ही स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच। यही लोग इस त्रासदी से सबसे अधिक प्रभावित हुए। भोपाल गैस त्रासदी पर्यावरणीय अन्याय और हाशिए वाले समुदाय पर इसके असंगत प्रभाव का एक ज्वलंत उदाहरण है।

लेकिन औद्योगिक आपदा का जलवायु परिवर्तन से क्या सम्बंध है? वास्तव में भोपाल गैस त्रासदी (इससे प्रभावित लोगों के लिए) कई मायनों में सड़कों पर वाहनों में वृद्धि के कारण बढ़ते प्रदूषण के समान है। एक बार गतिशील होने पर इन दोनों ही परिस्थितियों को पलटना असंभव होता है। और सिद्धांतत: प्रदूषित हवा और कारखाने से हानिकारक गैस का रिसाव सारे लोगों को लगभग समान रूप से प्रभावित कर सकते हैं।

लेकिन वास्तव में जलवायु परिवर्तन का समूहों और क्षेत्रों पर अनुपातहीन प्रभाव पड़ता है। आम तौर पर निम्न-आय और हाशिए पर रहने वाले समुदायों तथा विकासशील देशों में रहने वाली असुरक्षित आबादी जलवायु परिवर्तन से अधिक गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इन समूहों के पास जलवायु परिवर्तन के से तालमेल बनाने और इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए संसाधन सीमित और बुनियादी ढांचा निम्न-स्तर का होता है। गैस त्रासदी के संदर्भ में यह सवाल ज़रूर उठता है कि उद्योग केवल वहीं स्थापित क्यों किए जाते हैं जहां गरीब लोग रहते हैं। क्या धनी लोग अपने आवासीय क्षेत्र में ऐसे उद्योग खोलने की अनुमति देंगे? यदि सही जानकारी हो तो भी क्या गरीबों के पास इसका विरोध करने या याचिका दायर करने के लिए अमीरों के समान ही सामर्थ्य होगी? यही सवाल जलवायु परिवर्तन और अमीर बनाम गरीब देशों तथा उनके निवासियों पर इसके प्रभावों की चर्चा करते समय भी किया जा सकता है।

इसमें एक सवाल संसाधनों तक असमान पहुंच का भी है। आय में असमानता और संसाधनों तक असमान पहुंच के बीच एक गहरा सम्बंध है; आम तौर पर उच्च आय वाले लोगों के पास जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए काफी संसाधन होते हैं। इसमें जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश, बीमा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच भी शामिल हैं। निम्न-आय वाले लोगों और समुदायों के पास इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन न होने के कारण वे सबसे अधिक असुरक्षित हैं।

निम्न-आय समूहों और यहां तक कि बड़े पैमाने पर गरीब राष्ट्रों को पर्यावरणीय अन्याय का सामना करना पड़ता है। वे हमेशा से पर्यावरण प्रदूषण और इससे होने वाले खतरों का अनुपातहीन बोझ उठा रहे हैं। काफी संभावना है कि ऐसे समुदाय पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक खतरों के करीब रहते हों, जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी में स्पष्ट नज़र आया। जलवायु परिवर्तन मौसम की चरम घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि करता है और मौजूदा पर्यावरणीय समस्याओं को बदतर बनाकर पर्यावरणीय अन्याय को भी बढ़ा देता है।

इस लेख में भोपाल गैस त्रासदी के कारण पानी और मिट्टी पर दीर्घकालिक प्रभाव का उल्लेख हुआ है। इस सम्बंध में स्वाभाविक सवाल है कि किसकी आजीविका मिट्टी और पानी की गुणवत्ता पर सबसे अधिक निर्भर करती है, उत्तर ‘निश्चित रूप से किसान!’ है। भारत जैसे देश में अधिकांश किसान छोटे और मझोले हैं। हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि पर्यावरण क्षति विभिन्न समूहों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है। दरअसल मृदा और जल प्रदूषण का एकमात्र उदाहरण भोपाल गैस त्रासदी नहीं है बल्कि दुनिया भर से निकल रहा औद्योगिक कचरा भी इस तरह की पर्यावरण क्षति करता है। जहां पानी और मिट्टी ज़हरीली हो, वहां के छोटे और मध्यम किसानों के लिए जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। कृषि, मत्स्य पालन और अन्य जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन आजीविका को बाधित कर सकता है। इन उद्योगों पर निर्भर निम्न आय वाले लोगों के पास नए और अधिक जलवायु-अनुकूलित नौकरियों की तरफ जाने के अवसर सीमित होते हैं। इसके परिणामस्वरूप नौकरियों की कमी और गरीबी में वृद्धि अवश्यंभावी है।

नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोतों से प्राप्त उर्जा तक पहुंच चिंता का एक और विषय है। नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोत काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके उपयोग से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आती है और यह जलवायु परिवर्तन को थामने का काम करता है। यहां भी कई निम्न आय वाले परिवारों के पास किफायती और स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों तक पहुंच की कमी है जिसके कारण उन्हें जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे जलवायु में परिवर्तन तेज़ होता है। स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच में समता से जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में मदद मिल सकती है।

जलवायु परिवर्तन में सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नियमन, नीति निर्माण और शासन-प्रशासन के उसके अधिकार असमानताओं को कायम रख सकते हैं। यदि नीति निर्माण के समय समता के सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा गया तो जलवायु नियम-कायदे जाने-अनजाने में अमीरों और गरीबों को भिन्न ढंग से प्रभावित करेंगे। इस संदर्भ में जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में कहा है कि “यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि सभी (जलवायु) नीतियों को ऐसे तैयार किया जाए जिससे समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्ति को भी लाभ हो।”

देशों द्वारा अपनाए जाने वाले अनैतिक तरीके

विश्व भर के राजनेता इन समाधानों से अच्छी तरह परिचित तो हैं लेकिन इन्हें अपनाने के लिए वे तैयार नहीं हैं। उनके हिसाब से विकास और पर्यावरणीय स्थिरता तराजू के दो विपरीत छोर हैं जिनमें से किसी एक की बलि चढ़ाए बगैर दूसरे को हासिल नहीं किया जा सकता। राजनीति का झुकाव हमेशा से ही दिखावे की ओर रहा है। इसलिए, कुछ राष्ट्र अपनी छवि चमकाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर संदिग्ध और आपत्तिजनक रणनीति का सहारा लेते हैं जबकि ‘विकास’ के अपने दृष्टिकोण से पर्यावरण को प्रदूषित करते चले जाते हैं।

कुछ देश तो ऐसे कार्यों में भी लिप्त हैं जिसे जलवायु कार्यकर्ता ‘ग्रीनवॉशिंग’ कहते हैं। इसका मतलब अपने पर्यावरणीय प्रयासों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना या झूठे दावे करना है। कई देश पर्यावरण संरक्षण में कोई ठोस कार्य किए बिना यह धारणा बनाने का प्रयास करते हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक और ज़िम्मेदार हैं। दुनिया भर की सरकारें ग्रीनवॉशिंग के तहत व्यापक स्तर पर जनसंपर्क अभियान, भ्रामक विज्ञापन जैसे तरीके अपनाती हैं।

कुछ राष्ट्र तो अस्पष्टता और जानकारी देने में देरी का सहारा लेते हैं। इसमें आम तौर वे अपने वास्तविक कार्बन पदचिह्न को ओझल रखने के लिए जटिल रिपोर्टिंग विधियों या नौकरशाही विलंब का सहारा लेते हैं।

अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश कार्बन व्यापार या कार्बन ट्रेडिंग के नाम से मशहूर तरीके का भी इस्तेमाल करते हैं। कार्बन ट्रेडिंग ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने की एक बाज़ार-आधारित पद्धति है। इसके तहत जिन देशों या संस्थानों के लिए उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं वे ऐसे संस्थानों से उत्सर्जन क्रेडिट खरीद सकते हैं जिन्होंने अपने निर्धारित लक्ष्य को हासिल कर लिया है और उनके पास उत्सर्जन की गुंजाइश बची है। कार्बन ट्रेडिंग के दो तरीके हैं।

1. कैपएंडट्रेड – इस प्रणाली के तहत सरकार एक किस्म के उद्योग के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा निर्धारित करती है। इसके बाद कंपनियों या उद्योगों को उत्सर्जन परमिट आवंटित किए जाते हैं। जो कंपनियां अपने आवंटित परमिट से अधिक उत्सर्जन करती हैं, उन्हें या तो अधिशेष परमिट वाली कंपनियों से अतिरिक्त परमिट खरीदने होंगे या फिर निर्धारित सीमा का अनुपालन करने के लिए उत्सर्जन में कमी करना होगा। इस तरह की व्यवस्था आम तौर पर राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर दिखती है।

2. ऑफसेटिंग कार्यक्रम – इसके तहत कंपनियों को अपने उत्सर्जन की भरपाई के लिए अन्य देशों या क्षेत्रों में उत्सर्जन में कमी के कार्यक्रमों में निवेश करने की अनुमति दी जाती है। इन प्रयासों के एवज में उन्हें विकास के नाम पर और अधिक प्रदूषण फैलाने की अनुमति मिलती है। ऑफसेटिंग परियोजनाओं में पुनर्वनीकरण, नवीकरणीय ऊर्जा विकास के प्रयास या लैंडफिल से मीथेन कैप्चर जैसी चीज़ें शामिल हो सकती हैं।

भारत सहित कई देश जीवाश्म ईंधन पर सबसिडी देते रहेंगे और साथ-साथ जलवायु लक्ष्यों के प्रति समर्थन और प्रतिबद्धता के बयान भी। इन देशों का मानना है कि ये उद्योग उनकी आर्थिक स्थिरता के लिए ज़रूरी हैं और वे कोई बड़ा बदलाव न करते हुए इन्हें क्रमश: खत्म करने के प्रयास करेंगे।

कई राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय जलवायु समझौतों में भी भाग लेते हैं जिनमें कानूनी रूप से बाध्यता का अभाव होता है। इससे उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में दिखावे के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य दर्शाने का मौका मिलता है। लेकिन सच तो यह है कि वे इन बड़े-बड़े महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता के बिना अपना काम चलाते जाते हैं।

कुल मिलाकर, हमारे पास असल मुद्दे का कोई जवाब नहीं है – हम जलवायु परिवर्तन के बारे में क्या कर रहे हैं, और खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में क्या हम सबसे कमज़ोर वर्ग के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं?

जलवायु परिवर्तन और असमानता को एक साथ संबोधित करने के लिए ऐसी नीतियां और रणनीतियां लागू करना होगा जो पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक समता दोनों को समान रूप से प्राथमिकता देती हों। इसमें कमज़ोर समुदायों में जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश करना, स्वच्छ ऊर्जा, भोजन और पानी तक पहुंच प्रदान करना और स्थायी आजीविका विकल्पों को प्रोत्साहित करना शामिल हो सकता है। इसके लिए पर्यावरण नीति का न्यायसंगत और समावेशी होना भी आवश्यक है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई अनिवार्य रूप से एक निष्पक्ष और अधिक न्यायसंगत दुनिया के लिए लड़ाई भी होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.imf.org/-/media/Images/IMF/FANDD/article-image/2019/December/walsh-index.ashx

देश को गर्मी से सुरक्षित कैसे करें

वैसे तो अभी जाड़े का मौसम आने वाला है लेकिन गर्मियां भी दूर नहीं हैं। और भारत की चिलचिलाती गर्मी नागरिकों के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है। बढ़ती गर्मी न सिर्फ असुविधा पैदा कर रही है बल्कि जानलेवा भी साबित हो रही है। निरंतर बढ़ते तापमान और अत्यधिक आर्द्रता के परिणामस्वरूप हीट स्ट्रोक (लू लगने) से मृत्यु की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।

पिछले वर्ष दी लैंसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2000-04 और 2017-21 के बीच गर्मी से मरने वाले लोगों की संख्या में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी क्षेत्रों पर हो रहा है जहां टार और कांक्रीट जैसी गर्मी सोखने वाली निर्माण सामग्री का भरपूर उपयोग हो रहा है।

विशेषज्ञों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग और तेज़ी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों के चलते यह जोखिम बढ़ने की संभावना है। अनुमान है कि 2025 तक भारत की आधी से अधिक आबादी शहरों में निवास करेगी। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी गरीबों पर होगा जो न एयर कंडीशनिंग का खर्च उठा सकते हैं और बाहर खुले में काम करते हैं। इस स्थिति को देखते हुए शोधकर्ता और नीति निर्माता अब इस बढ़ते संकट को समझने और इसके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न रणनीतियां विकसित कर रहे हैं।

ऐतिहासिक रूप से भारत में आपदा नियोजन प्रयास चक्रवातों और बाढ़ से निपटने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन वर्ष 2015 से राष्ट्रीय स्तर पर ग्रीष्म लहरों को प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में शामिल किया गया है। कुछ शहरों में शोधकर्ता आपातकालीन योजनाओं को बेहतर बनाने के लिए अधिकारियों के साथ ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने और शीतलता केंद्र खोलने पर विचार कर रहे हैं। कुछ शोधकर्ता तो घरों को ठंडा बनाने के लिए सस्ते तरीके भी आज़मा रहे हैं। कुछ अन्य शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि आसपास के तापमान पर भूमि उपयोग और वास्तुकला का प्रभाव समझकर शहरों के विस्तार के लिए समुचित डैटा जुटा सकें।

इसी तरह का एक प्रयास नागपुर में अर्बन हीट रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत शोधकर्ताओं द्वारा किया गया; 30 लाख की आबादी वाला यह शहर भारत के सबसे गर्म शहरों में से एक है।

तापमान के दैनिक पैटर्न से मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। कई अध्ययन दर्शाते हैं कि गर्म दिनों के साथ रातें भी गर्म रहें तो स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं क्योंकि ऐसा होने पर शरीर को गर्मी से कभी राहत नहीं मिलती है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि भारत में लगातार गर्म दिन और गर्म रातें आम बात होती जा रही हैं।

इसके साथ ही सामाजिक-आर्थिक कारकों और गर्मी के प्रति संवेदनशीलता के सम्बंध को भी समझने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के लिए गरीब लोग घर को ठंडा रखने के उपकरण खरीदने में सक्षम नहीं होते। यह भी संभव है कि बुज़ुर्गों को ऐसी बीमारियां होती हों जो उन्हें गर्मी के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं। कुछ क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति या स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है जो गर्मी से सम्बंधित बीमारी से निपटने में मदद कर सकते हैं। जैसे नागपुर के बाहरी इलाकों में लोगों के पास स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है।

टीम ने गर्मी के बारे में लोगों की समझ को भी महत्वपूर्ण माना है। पिछले साल ग्रीष्म लहर के दौरान शोधकर्ताओं ने पैदल लोगों से बातचीत की। 45 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी अधिकांश लोगों ने कम ही चिंता व्यक्त की क्योंकि उनके लिए इसमें कुछ नया नहीं है, मौसम तो हमेशा से ऐसा ही रहा है। यह काफी चिंताजनक है क्योंकि आम जनता को गर्मी से होने वाले जोखिमों के बारे में पर्याप्त समझ नहीं है। संभव है कि वे ग्रीष्म लहर से सम्बंधित चेतावनियों पर भी ध्यान नहीं देंगे। इस स्थिति में हीट एक्शन प्लान (एचएपी) तैयार करना और भी ज़रूरी हो जाता है।

मुख्य तौर पर एचएपी का उद्देश्य अधिकारियों को ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने के लिए तैयार करने और अस्पतालों एवं अन्य संस्थानों को सचेत करना है। इसके तहत अस्पतालों को गर्मी के मौसम में लू के रोगियों के इलाज के लिए कोल्ड वार्ड बनाने और बिल्डरों को अत्यधिक गर्म दिनों में मज़दूरों को छुट्टी देने का सुझाव दिया गया है।

एचएपी सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में स्थानीय वैज्ञानिक संस्थानों और गैर-मुनाफा संस्था नेचुरल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल (एनआरडीसी) द्वारा शुरू किया गया था। 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस योजना के तहत कम से कम 1190 लोगों की जान बचाई गई। आपदा प्रबंधन एजेंसी अब देश के 28 में से 23 राज्यों में एचएपी विकसित करने के लिए काम कर रही है।

अलबत्ता, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा एचएपी का कार्यान्वयन असमान रहा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस योजना में पर्याप्त धन की कमी है। इसके अलावा योजना के तहत निर्धारित सीमाएं स्थानीय जलवायु के अनुरूप नहीं हैं। कुछ क्षेत्रों में तो केवल दिन का उच्चतम तापमान ही अलर्ट के लिए पर्याप्त माना गया है। उदाहरण के लिए अहमदाबाद में प्रारंभिक अलर्ट के लिए सीमा 41 डिग्री सेल्सियस निर्धारित की गई है। लेकिन कई अन्य स्थानों पर, रात का तापमान या आर्द्रता भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि दिन का तापमान लेकिन इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है।

जैसे, मुंबई में अप्रैल माह में देर सुबह और बिना किसी छाया के आयोजित एक समारोह में 11 लोगों की लू से हुई मौतों ने अधिक सूक्ष्म और स्थान-आधारित चेतावनियों की आवश्यकता को रेखांकित किया है। उस दिन का अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस था, जो राष्ट्रीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा तटीय शहरों के लिए निर्धारित अलर्ट सीमा से 1 डिग्री सेल्सियस कम था। लेकिन गर्मी का प्रभाव आर्द्रता के कारण अधिक बढ़ गया था जिसे गर्मी चेतावनी प्रणालियों में अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। विडंबना यह है कि मुंबई सहित महाराष्ट्र में इस त्रासदी से सिर्फ 2 महीने पहले एचएपी अपनाया गया था। इसमें गर्म दिनों में बाहरी कार्यक्रमों को अलसुबह करने की सलाह दी गई थी।

एचएपी को बेहतर बनाने में मदद के लिए शोधकर्ता एक मॉडल योजना पर काम कर रहे है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार ढाला जा सके। साथ ही सभी शहरों की अधिक जोखिम वाली आबादी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक जोखिम मानचित्र का भी सुझाव दिया गया है।

ऐसा मानचित्र बड़ी आसानी से बनाया जा सकता है। इसमें  अधिक बुजुर्ग आबादी वाले या अनौपचारिक आवासों वाले इलाकों को चिंहित किया जा सकता है ताकि उन्हें विशेष चेतावनी मिल सके या पर्याप्त शीतलन केंद्रों की व्यवस्था की जा सके। नागपुर परियोजना के तहत एक जोखिम मानचित्र तैयार किया गया है जो यह बता सकता है कि ग्रीष्म लहर की स्थिति में किन इलाकों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

शोधकर्ताओं का मानना है कि एचएपी में केवल अल्पकालिक आपातकालीन सेवाओं के अलावा मध्यम से दीर्घकालिक उपायों पर भी काम किया जाना चाहिए। जैसे छाया प्रदान करने के लिए पेड़ लगाने के स्थान तय करना। एचएपी के तहत घरों के पुनर्निर्माण या भवन निर्माण नियमों में बदलाव के प्रयासों को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। शहरों को ठंडा रखने के लिए उनके निर्माण के तरीके बदलना होंगे। नागपुर की टीम ने शहर की ऐसी इमारतों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। लेकिन ऐसे घरों के निर्माण के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं है और इनके रख-रखाव का खर्च भी बहुत ज़्यादा होता है।

हाल के वर्षों में, आवास मंत्रालय ने जलवायु अनुकूल इमारतों के निर्माण के लिए विस्तृत दिशानिर्देश तैयार किए हैं। इसमें पारंपरिक वास्तुकला के कुछ सिद्धांत शामिल किए गए हैं। लेकिन ये दिशानिर्देश ज़्यादातर कागज़ों पर ही हैं। बिल्डर और स्थानीय सरकारें अपने तौर-तरीकों को बदलने में धीमी या अनिच्छुक लगते हैं।

वैसे, शहरों में रहने वाले कम आय वाले कई परिवारों के लिए नवनिर्मित, जलवायु-अनुकूल निवास में जाने की संभावना बहुत कम है। इसलिए मौजूदा घरों में ही कुछ परिवर्तन किया जा सकता है। सबसे सस्ता और जांचा-परखा तरीका छतों को सफेद परावर्तक पेंट से ढंकना है। एचएपी के तहत इस तकनीक का सबसे पहला उपयोग 2017 में अहमदाबाद में किया गया था। एक अध्ययन के अनुसार पेंट की हुई टीन की छत वाले घर बिना पेंट वाली छतों की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस ठंडे रहते हैं जबकि अधिक महंगी तकनीक का उपयोग करके घरों को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा किया जा सकता है।

2020 में, 15,000 कम आय वाले घरों तक कूल रूफ कार्यक्रम का विस्तार किया गया था। इस साल, जोधपुर ने इसी तरह की पहल की है। इसी तरह तेलंगाना ने 2028 तक 300 वर्ग किलोमीटर ठंडी छतें बनाने का संकल्प लिया है। मुंबई और अन्य शहरों में, सीबैलेंस नामक एक निजी फर्म गरीब परिवारों के लिए कम लागत वाली शीतलन तकनीकों का परीक्षण कर रही है।

इस तकनीक में घर को ठंडा रखने के लिए टीन की छत को एल्यूमीनियम पन्नी से ढंककर गर्मी से इन्सुलेशन दिया जाएगा। इन घरों में एक बड़ा परिवर्तन छत के थोड़ा ऊपर पुनर्चक्रित प्लास्टिक कचरे के पैनलों से निर्मित दूसरी छत बनाना है। रसोई की खिड़की के लिए सुबह के समय पैनलों को बंद करने की व्यवस्था होगी जिससे धूप को रोका जा सकेगा और रात में उन्हें फिर से खोलकर गर्मी को बाहर किया जा सकेगा।

फिलहाल तो एक गैर-सरकारी परोपकारी संस्था ने इन परिवर्तनों के लिए धन प्रदान किया है। लेकिन भारत में शीतलन संसाधनों के भुगतान के लिए पैसा एकत्रित करना एक चुनौती है। विशेष पेंट काफी महंगा है। पैसे बचाने के लिए कुछ लोगों ने अपनी छतों को साधारण सफेद पेंट से रंगने की कोशिश की है। लेकिन यह तापमान को उतना कम नहीं करता है।

वैसे कई अन्य समस्याएं भी हैं। जैसे मुंबई की बस्तियों में बेतरतीब बिजली के तारों से कुछ छतों पर शेडिंग पैनल स्थापित नहीं किए जा सकते। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि छत पर किए जाने वाले परिवर्तनों से वॉटरप्रूफिंग को नुकसान न पहुंचे। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता और इंजीनियर भारत के शहरों और उसमें भी सबसे कमज़ोर नागरिकों के लिए कूलिंग समाधान खोजने के लिए प्रयास कर रहे हैं। वर्तमान परिस्थितियों में कूलिंग कोई सुविधा नहीं बल्कि सामाजिक न्याय का मामला बन गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adl0080/abs/_20230929_nf_climate_india_sunset.jpg

सही दिशा में नहीं है वन व जैव विविधता कानूनों में संशोधन – भारत डोगरा

हाल ही में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 व जैव विविधता अधिनियम, 2002 में संशोधन किए गए हैं। सरकारी स्तर पर चाहे इन दो संशोधनों के पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है, किंतु पर्यावरण संरक्षण के अनेक विशेषज्ञ व आदिवासी हकदारी से जुड़े हुए अनेक जाने-माने कार्यकर्ता इन संशोधनों का अंत तक विरोध करते रहे। आखिर उनके विरोध का क्या कारण था?

वन संरक्षण कानून, 1980 को वन व पर्यावरण संरक्षण के भारत के प्रयासों में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर माना गया है। यह अधिनियम उस समय बना था जब भारत में पर्यावरण व वन रक्षा के प्रयास ज़ोर पकड़ रहे थे। इस अधिनियम के बनने के बाद वन क्षेत्र की रक्षा करने में यह कानून काफी हद तक सफल रहा। दूसरी ओर, वन अधिकार कानून बनने के दौर में आदिवासियों व वन समुदायों के वन अधिकारों की आवाज ने ज़ोर पकड़ा।

वास्तव में ये दोनों ही सही दिशा में कदम थे। एक ओर वन क्षेत्र का संरक्षण होना चाहिए तथा दूसरी ओर, आदिवासी-वनवासी समुदायों के वन अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए।

सबसे उचित तो यही है कि आदिवासी समुदायों के लिए ऐसी स्थितियां उत्पन्न की जाएं जिनके अंतर्गत उनकी टिकाऊ आजीविका को वनों की रक्षा से जोड़कर साथ-साथ आगे बढ़ाया जाए ताकि वनों की रक्षा भी हो व आदिवासी समुदायों की टिकाऊ आजीविका सुरक्षित रहे।

वन संरक्षण अधिनियम के इस वर्ष हुए संशोधन की मुख्य आलोचना यही है कि इन दोनों सार्थक उद्देश्यों की दृष्टि से यह सही दिशा में नहीं है। इस संशोधन के आधार पर देश के बहुत से जंगल संरक्षण के दायरे से बाहर आ जाएंगे तथा उद्योग, खनन व प्लांटेशन के लिए वन-भूमि को प्राप्त करने की संभावना पहले की अपेक्षा बढ़ जाएगी।

सरकार का कहना है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने के लिए जो बड़े पैमाने पर वृक्ष लगाने का कार्य है, वह इस संशोधन से बेहतर ढंग से हो सकेगा। पर हमें यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि इस तरह के कई प्लांटेशन जल्दबाज़ी में लगाए जा रहे हैं व इनमें व्यापारिक महत्व के पेड़ों पर व कभी-कभी तो एक ही प्रजाति के पेड़ों पर या मोनोकल्चर को महत्व दिया जाता है। बेशक ऐसा सभी प्लांटेशन परियोजनाओं में नहीं होता है पर प्रायः यही देखा गया है। पाम ऑयल के पेड़ों को भी भारत में तेज़ी से बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं जबकि अन्य देशों में इसके प्लांटेशन पर्यावरण क्षति के लिए चर्चित रह चुके हैं।

अतः प्लांटेशन और प्राकृतिक वन में जो बड़ा अन्तर है उसे स्पष्ट करना ज़रूरी है। यदि संशोधन से प्राकृतिक वन कम होते हैं तथा खनन, उद्योग आदि के लिए दे दिए जाते हैं और इनके स्थान पर प्लांटेशन बढ़ते हैं तो यह पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक ही माना जाएगा, चाहे वृक्षों की संख्या में कमी न हो।

इस संशोधन के बाद, विशेषकर हिमालय क्षेत्र में वन अधिक संकटग्रस्त हो गए हैं। गौरतलब है कि इस वर्ष चिपको आंदोलन के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं और इस आंदोलन का हिमालय के वनों की रक्षा में व इसके प्रति जन-जागृति उत्पन्न करने में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी वर्ष हिमालय में आपदाओं के बढ़ने के लिए भी पर्यावरण के विनाश को ज़िम्मेदार माना गया है।

जहां तक जैव-विविधता के संरक्षण का सवाल है, तो पेटेंट कानूनों को पौधों के संदर्भ में लागू करने से जो समस्याएं उत्पन्न हो गई थीं, उनके समाधान के लिए वर्ष 2002 का जैव विविधता अधिनियम बना था। इससे पहले अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इस प्रवृत्ति का बहुत विरोध हुआ था कि वे विकासशील व निर्धन देशों की जैव संपदा का बहुत दोहन करती रही हैं और पेटेंट कानून पारित होने के बाद यह दोहन बहुत अधिक बढ़ जाएगा। यहां तक कि नीम और हल्दी का जो परंपरागत औषधि उपयोग भारत में होता रहा था, उस पर भी विदेशी तत्व अपना पेटेंट अधिकार जताने लगे थे।

इस स्थिति में जैव-विविधता कानून, 2002 बनाकर विभिन्न पौधों व वृक्षों के व्यावसायिक उपयोग को नियमित व नियंत्रित करने का प्रयास किया गया था। दूसरी ओर, समुदायों के अधिकारों को भी निर्धारित किया गया था ताकि जो लाभ व्यावसायिक हित प्राप्त करते हैं उसमें वे समुदायों को भी भागीदारी दें। विदेशी अनुसंधानकर्ताओं व व्यवसायों की इस संदर्भ में ज़िम्मेदारी भी निर्धारित की गई थी।

हालांकि इस कानून का पालन इसकी भावना के अनुरूप नहीं हुआ था, फिर भी वर्ष 2016 के न्यायालय के निर्णय के आधार पर उम्मीद बंधी थी कि इसमें सुधार होगा। समुदायों को भी व्यावसायिक निकायों की आय का कुछ भाग प्राप्त होगा। दूसरी ओर, हाल का संशोधन व्यावसायिक हितों पर बंधन व जि़म्मेदारियों में ढील देने की दिशा में है। समुदायों के अधिकार इससे कम होते हैं। जबकि व्यावसायिक हितों द्वारा जैव विविधता के अधिक दोहन की संभावना बढ़ती है। अतः जैव विविधता की रक्षा के स्थानीय समुदायों की हकदारी की दृष्टि से यह संशोधन उचित नहीं है।

वास्तव में जैव विविधता की रक्षा के प्रयास व्यापक स्तर पर मज़बूत करने चाहिए ताकि जैव विविधता की रक्षा हो व समुदायों के अधिकारों की संभावित क्षति को रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करेगी हाइड्रोजन – सुदर्शन सोलंकी

हाइड्रोजन एक ऐसा ईंधन है जो रॉकेट को अंतरिक्ष में पहुंचाने में काम आता है, लेकिन अब यह कारों में भी पेट्रोल, डीज़ल और सीएनजी का बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। पेट्रोल, डीज़ल और सीएनजी की कीमतों में लगातार वृद्धि और इनके प्राकृतिक भंडार सीमित होने के कारण कई देश अब अन्य विकल्‍प खोज कर रहे हैं और हाइड्रोजन एक बेहतर विकल्प के रूप में सामने आ रहा है।

हाइड्रोजन की रासायनिक ऊर्जा को ऑक्सीकरण-अवकरण अभिक्रिया द्वारा यांत्रिक ऊर्जा में बदला जाता है। यह एक ईंधन सेल में हाइड्रोजन और ऑक्‍सीजन के बीच अभिक्रिया कराकर किया जाता है। इस ईंधन का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे पर्यावरण में प्रदूषण नहीं फैलता है।

टोयोटा किर्लोस्कर मोटर ने इंटरनेशनल सेंटर फॉर ऑटोमोटिव टेक्नोलॉजी के साथ पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में भारत में पहला ऑल-हाइड्रोजन इलेक्ट्रिक वाहन मिराई लांच किया है। यह शुद्ध हाइड्रोजन से उत्पन्न होने वाली बिजली से चलेगा। यह शून्य कार्बन उत्सर्जन वाहन है क्योंकि इसके टेलपाइप से सिर्फ पानी निकलता है।

भारत में हाइड्रोजन नीति के तहत वर्ष 2030 तक ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन को प्रति वर्ष 50 लाख टन तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। भारत पेट्रोलियम, इंडियन ऑयल, ओएनजीसी और एनटीपीसी जैसी भारतीय कंपनियों ने इस दिशा में काम करना शुरू दिया है।

प्रकृति में हाइड्रोजन सबसे प्रचुर तत्व है लेकिन यह स्वतंत्र रूप में नहीं बल्कि अन्य तत्वों के साथ संयुक्त रूप में पाया जाता है जैसे पानी एक यौगिक है जिसमें हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक परमाणु आपस में जुड़े होते हैं।

हाइड्रोजन को नेचुरल गैस या बायोमास या पानी के विद्युत अपघटन से बनाया जाता है। आइसलैंड में हाइड्रोजन उत्पादन के लिए भू-तापीय ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है तो वहीं डेनमार्क में यह पवन ऊर्जा से बनाई जा रही है।

जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न होने वाले हाइड्रोजन को ग्रे हाइड्रोजन कहा जाता है जबकि अक्षय ऊर्जा स्रोतों से उत्पन्न हाइड्रोजन को ग्रीन हाइड्रोजन कहा जाता है।

हाइड्रोजन ईंधन सेल अधिक कारगर इसलिए है, क्योंकि यह रासायनिक ऊर्जा को सीधे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करती है। जबकि अन्य में पहले ताप ऊर्जा और फिर यांत्रिक ऊर्जा में बदला जाता है। हाइड्रोजन ईंधन सेल में ग्रीनहाउस गैसों की बजाय सिर्फ पानी और थोड़ी ऊष्मा उत्सर्जित होती है।

कुछ देशों में हाइड्रोजन ईंधन वाले वाहनों पर कम टैक्‍स लगता है। हाइड्रोजन चालित कारों की रेंज कहीं ज़्यादा होती है और इनका फिलिंग टाइम इलेक्ट्रिक कारों के मुकाबले काफी कम होता है। एक बार इसका टैंक फुल करने पर 482 कि.मी. से लेकर 1000 कि.मी. तक की दूरी तय की जा सकती है। एनवायर्नमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) ने हाल में होंडा क्लैरिटी की रेंज 585 कि.मी. दी है, जो किसी भी शून्य उत्सर्जन वाली गाड़ी के मामले में सबसे ज़्यादा रेंज है। होंडा के अनुसार क्लैरिटी का रीफ्यूल टाइम महज 3-5 मिनट है। कई देशों में अब हाइड्रोजन कार उपलब्‍ध हैं। इन्‍हें भारत में भी मंगाया जा सकता है।

हालांकि हाइड्रोजन ईंधन के लिए कई चुनौतियां भी है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसका उत्‍पादन अधिक महंगा है। इसके लिए प्लैटिनम जैसे दुर्लभ पदार्थों की आवश्यकता उत्प्रेरक के रूप में होती है जो अत्यधिक महंगा है। हाइड्रोजन गैस अत्‍यंत ज्‍वलनशील होती है। ऐसे में वाहन चलाने के दौरान दुर्घटना का खतरा हो सकता है। इसके अलावा हाइड्रोजन वाहनों के लिए फिलिंग स्‍टेशन की कमी है। ब्रिटेन जैसे देशों में भी अभी इनकी संख्‍या बहुत कम है।

वाहनों के लिए ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन और उपयोग से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता समाप्त होगी तथा वाहनों द्वारा होने वाले प्रदूषण से मुक्ति भी मिल सकेगी।(स्रोत फीचर्स)

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हिमनदों के पिघलने से उभरते नए परितंत्र

तेज़ी से बढ़ते वैश्विक तापमान का एक और बड़ा प्रभाव ऊंचे पहाड़ी (अल्पाइन) हिमनदों में देखा जा सकता है। हालिया अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन से विश्व भर के अल्पाइन हिमनद काफी तेज़ी से पिघल रहे हैं जिसके नतीजतन शताब्दियों से हिमाच्छादित भूमि के विशाल हिस्से उजागर हो सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इन उभरते हुए नए परितंत्रों का संरक्षण नई चुनौतियों के साथ-साथ नए अवसर भी देगा।

अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के बाहर वर्तमान में अल्पाइन हिमनद लगभग 6.5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। गर्मियों में ये हिमनद लगभग दो अरब लोगों के अलावा वैश्विक परितंत्र को जल आपूर्ति करते हैं। ज़ाहिर है इनके पिघलने से वैश्विक परितंत्र पर काफी प्रभाव पड़ेगा।

शोधकर्ताओं ने इसके प्रभाव को समझने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए एक जलवायु मॉडल तैयार किया जिसमें हिमनदों के पिघलने और सिमटने से खुलने वाले परितंत्र पर प्रकाश डाला गया है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सबसे आशाजनक स्थिति में भी इस सदी के अंत तक 1,40,500 वर्ग कि.मी. (झारखंड के बराबर) क्षेत्र उजागर हो सकता है। यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ज़्यादा रहा तो यह क्षेत्र इसका दुगना हो सकता है। सबसे अधिक प्रभाव अलास्का और एशिया के ऊंचे पहाड़ों पर पड़ने की संभावना है।

इस अध्ययन के प्रमुख और हिमनद वैज्ञानिक ज़्यां-बैप्टिस्ट बोसां ने इसे पृथ्वी के सबसे बड़े पारिस्थितिक परिवर्तनों में से एक निरूपित किया है। उनका अनुमान है कि नव उजागर क्षेत्र में से करीब 78 प्रतिशत भूमि और 14 प्रतिशत व 8 प्रतिशत हिस्सा क्रमश: समुद्री और मीठे पानी वाले क्षेत्र होंगे।

एक दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र में निर्मित नए प्राकृतवास महत्वपूर्ण होंगे जिनका संरक्षण करने की ज़रूरत होगी। पेड़-पौधे बढें़गे तो कार्बन भंडारण अधिक होगा, जो निर्वनीकरण की प्रतिपूर्ति कर सकता है और ऐसे जंतुओं को नए प्राकृतवास मिलेंगे जो कम ऊंचाई पर रहते हैं और बढ़ते तापमान से जूझ रहे हैं।

यह अध्ययन उन वैज्ञानिकों के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करेगा जो अनछुए स्थानों पर सूक्ष्मजीवों, पौधों और जंतुओं के प्रवास को समझने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब बात है कि इस अध्ययन में शामिल किए गए आधे से भी कम हिमनद क्षेत्र वर्तमान के संरक्षित क्षेत्रों में शामिल हैं। लिहाज़ा इस अध्ययन से इस भावी परिघटना के मद्देनज़र भूमि प्रबंधन को लेकर सरकारें भी नई चुनौतियों से निपट पाएंगी।

वैसे बोसां का कहना है कि  ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के प्रयास तत्काल किए जाएं तो वर्तमान हिमनदों का काफी हिस्सा बचाया जा सकता है। चूंकि वर्तमान में हम बढ़ते तापमान की समस्या से जूझ रहे हैं, इन उभरते परितंत्रों का संरक्षण और प्रबंधन न केवल जैव विविधता संरक्षण के लिए अनिवार्य है बल्कि जलवायु परिवर्तन के दूरगामी प्रभावों को कम करने का एक अवसर भी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्ति की कगार पर थार रेगिस्तान

ई सदियों से दक्षिण एशियाई मानसून ने भारत में जीवन को लयबद्ध किया है। इसके प्रभाव से हमेशा से पूर्वी क्षेत्र हरा-भरा रहा है जबकि पश्चिम में स्थित विशाल थार रेगिस्तान सूखा रहा है। इस जलवायु ने अनेकों सभ्यताओं और संस्कृतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अब इस जलवायु पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हालिया अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण वर्तमान मौसम के पैटर्न में परिवर्तन की संभावना है जिससे मानसून पश्चिम की ओर सरक रहा है। ऐसा ही चलता रहा तो मात्र एक सदी की अवधि में यह विशाल थार रेगिस्तान पूरी तरह से गायब हो सकता है।

इस परिवर्तन से एक अरब से अधिक लोग प्रभावित हो सकते हैं। स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशिएनोग्राफी के जलवायु वैज्ञानिक शांग-पिंग झी का विचार है कि इस अध्ययन का निहितार्थ है कि थार रेगिस्तान में बाढ़ें आएंगी जो पिछले वर्ष पाकिस्तान में आई भयंकर बाढ़ जैसी हो सकती हैं जिसमें 80 लाख लोग बेघर हो गए थे और लगभग 15 अरब डॉलर की संपत्ति का नुकसान हुआ था।

आम तौर पर ऐसा कहा जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण रेगिस्तान फैलेंगे, लेकिन इसके विपरीत थार रेगिस्तान के हरियाने संभावना है। इस पैटर्न को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दक्षिण एशिया के आधी सदी के मौसमी आंकड़ों का अध्ययन किया। एकत्रित डैटा में उन्होंने मानसूनी वर्षा को पश्चिम की ओर खिसकते पाया, इससे कुछ शुष्क उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में वर्षा में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है जबकि आर्द्र पूर्वी क्षेत्र में वर्षा में कमी आई है। अर्थ्स फ्यूचर में प्रकाशित भूपेंद्र यादव व साथियों के इस जलवायु मॉडल का अनुमान है कि मानसून के पश्चिम की ओर 500 किलोमीटर से अधिक खिसकने के कारण अगली सदी तक थार में लगभग दुगनी वर्षा होने लगेगी।

इसका मुख्य कारण हिंद महासागर का असमान रूप से गर्म होना है, जिससे कम दबाव का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र पश्चिम की ओर खिसकेगा जिससे बरसात में परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप भारत में शुष्क मौसम का प्रतीक थार रेगिस्तान सदी के अंत तक हरा-भरा हो सकता है। और तो और, यह वर्षा रिमझिम नहीं होगी बल्कि काफी तेज़ होगी जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। अलबत्ता, इस बदलाव का सदुपयोग भी किया जा सकता है। वर्षा जल का संचयन और भूजल भंडार रणनीतियों को मज़बूत करके थार के कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित किया जा सकता है। यह उस काल जैसा हो सकता है जब 5000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हुई थी। साथ ही, भारी बारिश से जुड़े कई खतरे भी होंगे। पाकिस्तान में हाल ही में आई विनाशकारी बाढ़ संभावित तबाही के संकेत देती है।

स्पष्ट है कि बदलते जलवायु क्षेत्रों की बारीकी से निगरानी करना होगी और घनी आबादी वाले क्षेत्रों में विशेष निगरानी ज़रूरी है जहां मामूली जलवायु परिवर्तन भी विनाशकारी परिणाम ला सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन के कारण समंदर हरे हो रहे हैं

हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 सालों में दुनिया के आधे से अधिक समंदर पहले से अधिक ‘हरे’ हो गए हैं और इसका कारण संभवत: बढ़ता तापमान है।

समंदरों का रंग कई कारणों से बदल सकता है। जैसे जब पोषक तत्व गहराई से ऊपर आते हैं तो इनके पोषण से पादप-प्लवक (फाइटोप्लांकटन) फलते-फूलते हैं। इन फाइटोप्लांकटन में हरा रंजक क्लोरोफिल होता है। तो, सागरों की सतह से परावर्तित सूर्य के प्रकाश की तरंग दैर्घ्य का अध्ययन करके यह पता चल सकता कि वहां कितना क्लोरोफिल मौजूद है, जिससे यह पता लग सकता है कि वहां शैवाल और पादप-प्लवक जैसे कितने जीव मौजूद हैं। सिद्धांतत: तो जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्रों का पानी गर्म होगा तो वहां की जैविक उत्पादकता बढ़नी चाहिए।

लेकिन सतही पानी में क्लोरोफिल की मात्रा साल-दर-साल काफी अलग-अलग हो सकती है, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले और बड़े प्राकृतिक उतार-चढ़ाव के कारण होने वाले बदलावों में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए ऐसा माना गया था कि समंदरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पहचानने के लिए लंबे समय का डैटा चाहिए होगा – कम से कम 40 साल का।

इसलिए साउथेम्प्टन स्थित नेशनल ओशेनोग्राफी सेंटर के महासागर और जलवायु विज्ञानी बी. बी. काइल और उनकी टीम ने नासा के एक्वा उपग्रह पर लगे सेंसर MODIS द्वारा जुटाए गए डैटा का विश्लेषण किया। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने समुद्र के रंग को ट्रैक करने के लिए सिर्फ हरे रंग की तरंग दैर्घ्य की बजाय परावर्तित होने वाले संपूर्ण स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया।

बीस साल के डैटा का विश्लेषण कर उन्होंने पाया कि महासागरीय सतह के 56 प्रतिशत हिस्से में उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं, और ये बदलाव ज़्यादातर भूमध्य रेखा से 40 अंश उत्तर और 40 अंश दक्षिण के बीच के समंदरों में दिखे हैं। पाया गया है कि समय के साथ महासागरों का पानी हरा होता जा रहा है। चूंकि इन क्षेत्रों में पूरे साल के दौरान मौसम बहुत अधिक नहीं बदलता इसलिए एक साल की अवधि में इस हिस्से के महासागरीय पानी का रंग भी बहुत अधिक नहीं बदलता। इसलिए इन क्षेत्रों में दीर्घकालिक सूक्ष्म परिवर्तन भी काफी स्पष्ट दिखते हैं।

क्या ये बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण हुए हैं, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने अपने अवलोकनों की तुलना एक ऐसे जलवायु मॉडल से की जो बताता है कि ग्रीनहाउस गैस बढ़ने पर समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में किस तरह के बदलाव आएंगे। तुलना में उन्होंने पाया कि मॉडल के नतीजे और उनके अवलोकन मेल खाते हैं।

अलबत्ता, वास्तविक कारण पता लगाना बाकी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि संभवत: यह समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि का सीधा प्रभाव नहीं है बल्कि कुछ और है। क्योंकि जिन जगहों पर रंग परिवर्तन हुआ है ये वे क्षेत्र नहीं हैं जहां तापमान बढ़ा है। अनुमान है कि यह शायद समुद्र में पोषक तत्वों के वितरण से जुड़ा मामला है। जैसे-जैसे सतह का पानी गर्म होता है, समुद्र की ऊपरी परतें अधिक स्तरीकृत हो जाती हैं। इस कारण पोषक तत्वों का सतह तक पहुंचना कठिन हो जाता है। सतहों पर पोषक तत्वों की कमी के कारण बड़े पादप-प्लवक की तुलना में छोटे पादप-प्लवक बेहतर फलते-फूलते हैं। इस तरह पोषक तत्वों की मात्रा में परिवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन ला सकता है, जो पानी के रंग में परिवर्तन में झलकता है।

बहरहाल इन नतीजों से नासा के अगले उपग्रह PACE – प्लैंकटन, एरोसोल, क्लाउड, ओशिएन इकोलॉजी – से उम्मीदें बढ़ गई हैं, जो कई तरंग दैर्घ्यों  पर समुद्र के रंग की निगरानी करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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बहुमंज़िला इमारतों में रहने के घाटे – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मारे ज़माने में गांवों में छोटे-छोटे घर होते थे और हम अपने पड़ोसियों को जानते थे। महिलाएं मिलनसार थीं और बच्चे एक साथ खेलते थे। लेकिन जब हम नौकरी के लिए शहर आ गए, और आबादी भी बढ़ने लगी तो हम अपार्टमेंट (फ्लैट्स) में रहे। ये अपार्टमेंट आम तौर पर दो-चार मंज़िला से बड़े नहीं होते थे, जिनमें एक हॉल, रसोई और बाथरूम होते थे। लेकिन तब भी अधिकांश मंज़िलों पर रहने वाले लोगों और उनके परिवारों के साथ हमारे व्यवहार थे, और हम स्थानीय सब्ज़ी वालों और किरानियों को भी जानते थे। लेकिन अफसोस कि शहरी आबादी बहुत अधिक बढ़ने के कारण लोग ऊंची-ऊंची इमारतों में रहने लगे, कंप्यूटर पर घर से काम (वर्क फ्रॉम होम) करने लगे, या काम पर जाने से मिलना-जुलना और साथ उठना-बैठना धीरे-धीरे खत्म हो गया है। बहुत हुआ तो हम अपनी मंज़िल पर रहने वाले परिवारों को जानते हैं। और हममें से अधिकांश लोग अपनी दैनिक ज़रूरतों की चीज़ें ज़ोमैटो और अमेज़ॉन जैसे ऐप्स से मंगाना पसंद करने लगे हैं!

बहुत अधिक आईटी कंपनियां और दवा कंपनियां होने से न सिर्फ मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद जैसे महानगरों में बल्कि मंझोले (टियर-टू) शहरों में भी 45 से 50 मंज़िला इमारतें बनने लगी हैं। इनमें रहने वाले लोग अपनी ही मंज़िल पर रहने वाले पड़ोसियों को भी नहीं जानते हैं। पहले के ज़माने की तुलना में अब पड़ोसियों के बीच मेलजोल बहुत कम हो गए हैं।

ऊंची इमारतों द्वारा जीवंतता खत्म करने के सात कारण  (7 reasons why high-rises kill livability) शीर्षक से स्मार्टसिटीज़डाइव में प्रकाशित एक लेख में इस तरह की जीवनशैली के घाटे के बारे में बताया गया है। मैं आगे उसका सारांश प्रस्तुत कर रहा हूं।

ऊंची इमारतें लोगों को सड़कों से दूर करती हैं। इनके निवासी पास के सब्ज़ी वालों और किराने वालों को नहीं जानते हैं, उन्हें सड़कों पर होने वाली हलचल और लोगों का जोश देखने को नहीं मिलता है; उन्हें इनके बारे में सिर्फ अखबारों और मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है। समाज के लिए ज़रूरी आपसी संपर्क खत्म हो गया है। लोग और समाज ही हैं जो जीवन को हसीन या उल्लासपूर्ण बनाते हैं। ऊंची इमारतों में रहने वाले अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं, बहुत हद तक अंतरिक्ष यात्रियों की तरह!

उच्च कार्बन प्रभाव

45 से 60 मंजिलों वाली ऊंची इमारतें ‘संभ्रातिकरण’ और असमानता को जन्म देती हैं, वहीं छोटी/मध्यम ऊंचाई की इमारतें लचीलापन और वहनीयता देती हैं। मेकिंग सिटीज़ लिवेबल इंटरनेशनल काउंसिल के डॉ. एस. एच. सी. लेनार्ड बताते हैं कि रियल एस्टेट डेवलपर्स आलीशान फ्लेट्स और अपार्टमेंट वाली ऊंची इमारतें बनाना पसंद करते हैं, जो उन्हें अधिक मुनाफा देती हैं। दूसरी ओर, चार-पांच मंज़िलों वाली छोटी इमारतें अधिक मानवीय होती हैं, और समाज और उसके बदलते लचीलेपन में गुंथी होती हैं। लेनार्ड बताते हैं कि फ्रांस के पेरिस शहर में इमारतें छह मंज़िल या 37 मीटर से अधिक ऊंची नहीं होती हैं; ये लोगों को हमेशा सड़कों से जोड़े रखती हैं और सड़क किनारे के दुकानदारों को सहारा देती हैं। ऊंची इमारतों की जीवनशैली घनी आबादी और लोगों की उतनी ही संख्या वाली छोटी इमारतों की जीवनशैली की तुलना में अपने पूरे जीवनकाल में ग्रीनहाउस प्रभाव अधिक पैदा करती हैं।

इस कड़ी में, 1971 में कनाडा जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित अपने पेपर में मनोवैज्ञानिक डॉ. डी. कैप्पन ने बताया था कि ऊंची इमारतें अपने रहवासियों को सड़कों पर चहलकदमी और व्यायाम करने के अवसरों और बच्चों को अपने आस-पड़ोस के दोस्तों के साथ खेलने के आनंद से वंचित कर देती हैं। वास्तव में, ऊंची इमारतें वहां रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं हैं। तो, आइए हम एम्पायर स्टेट बिल्डिंग या बुर्ज खलीफा बनाने की बजाय पेरिस जैसे घर बनाएं!(स्रोत फीचर्स)

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एक नदी का नाम और भू-राजनीति – जितेन्द्र ‘जीत’

हिमालय की एक नदी है, जो भारत के उत्तराखंड राज्य के उत्तर-पूर्वी हिस्से में काली और नेपाल के सुदूर पश्चिमी प्रदेश में महाकाली के नाम से जानी जाती है। पिछले दिनों मैंने एक शोध कार्य के सम्बंध में इस क्षेत्र में काफी समय गुज़ारा। यहां नदी के नामकरण और उसकी भू-राजनीति पर बात कर रहा हूं।

दियों का नामकरण सामान्यत: किसी पौराणिक कथा, धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक घटना, उसके स्रोत (जैसे ग्लेशियर, जंगल, झील आदि), उसकी विशेष भौगोलिक संरचना या किसी खास गुण के आधार पर होता है। जैसे, पिंडारी नदी और उसके स्रोत ग्लेशियर का नाम एक ही है। राजस्थान की बनास नदी ‘वन की आस’ (होप ऑफ दी फॉरेस्ट) कहलाती है। गौरीगंगा को उसका यह नाम उसके साफ पानी और सफेद पत्थरों के कारण मिला है।

कई बार एक ही नदी को अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। जब नदियां किसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा को लांघकर एक देश से दूसरे देश में प्रवेश करती हैं तब प्राय: नदियों के नाम बदल जाते हैं। जैसे, तिब्बत से निकलने वाली त्संग्पो नदी को चीनी लोग यारलुंग ज़न्ग्बो कहते हैं, भारत में इसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है और फिर आगे बांग्लादेश में यही जमुना हो जाती है। इसी प्रकार से नर्मदा नदी को स्थानीय लोग रेवा भी कहते हैं।

आइए, अब बात करते हैं काली-महाकाली नदी की। काली नदी एवं इसकी सहयोगी नदियों का अपवाह तंत्र भारत–नेपाल-तिब्बत की उच्च हिमालयी चोटियों (7000 मी.) से लेकर उपोष्ण कटिबंधीय तराई-मैदानी भाग (200 मी.) तक फैला है।

इस नदी की शुरुआत भारत, नेपाल और तिब्बत की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के जोड़ बिंदु यानी ‘त्रि-संधि’ के पास से होती है। यह क्षेत्र तीनों देशों के लिए बेहद सामरिक महत्व का है। यह काली नदी उत्तराखंड में पिथौरागढ़ जनपद के सुदूर उत्तर में शुरू होकर तराई में टनकपुर, बनबसा तक भारत और नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए बहती है। पूर्व में नदी का यह क्षेत्र नेपाल के ‘सुदूर पश्चिम प्रदेश’ के अंतर्गत आता है। नदी प्रवाह के उत्तर में लिपूलेख से आगे तकलाकोट, तिब्बत का क्षेत्र है। अब आते हैं इसके नामकरण पर। इसके नामकरण और प्रवाह तंत्र से जुड़े कुछ रोचक विवाद निम्नानुसार हैं।

नदी एक, नाम अनेक

काली नदी भारत-नेपाल की लगभग 230 कि.मी. अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए अपनी नदी घाटी (व्यास) को दोनों देशों में विभाजित करती है। माना जाता है कि महर्षि वेद व्यास ने यहां तपस्या की थी, इसलिए इस घाटी को यह नाम दिया गया। इस घाटी में भारत से लगे नदी के पश्चिमी किनारे पर इसे काली नदी और पूर्वी किनारे पर नेपाल में महाकाली नदी कहा जाता है। व्यास घाटी के बाद नदी किनारे पहला भारतीय नगर धारचूला आता है। नदी पार नेपाल में बसे नगर को भी दार्चुला कहा जाता है। आगे जौलजीबी में काली नदी के साथ गौरी नदी का संगम होता है। मध्य हिमालय में इस नदी घाटी को काली कुमाऊं का क्षेत्र कहा जाता है।

यह नदी जब हिमालय से निकल कर तराई क्षेत्र में आती है तो इसका नाम शारदा हो जाता है। तराई में टनकपुर और बनबसा बैराज के पास इसके पूर्वी (नेपाल) और पश्चिमी (भारत) दोनों किनारों से बिजली उत्पादन व सिंचाई के लिए नहरें निकाली गई हैं।

यहां तक काली-महाकाली नदी के कुछ और नाम भी हैं। जैसे, इसके बेहद तेज़ बहाव और खड़े ढाल के कारण इसे एक गुस्सैल नदी कहा जाता है। ग्लेशियर मोरैन (हिमोढ़) और जंगली कंटीली झाड़ियों को बहाकर लाने के कारण स्थानीय लोग इसे नचिती (कांटों भरी), कव्या (गुंजी के पास), कुरूप, अपवित्र और अशुभ नदी भी कहते हैं। स्कंदपुराण के मानसखंड में इसका ज़िक्र श्यामा नदी के रूप में हुआ है।

आगे यह नदी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार कर पहले पूर्ण रूप से नेपाल के महेंद्र नगर में महाकाली के नाम से बहती है। फिर थोड़ी दूरी तय कर दुबारा सीमा लांघकर भारत के उत्तरप्रदेश में प्रवेश करती है। शारदा नाम से भारत में बहते हुए यह नदी बहराइच के पास नेपाल से ही आने वाली घाघरा (कर्णाली) नदी से संगम करती है। संगम के बाद यह नदी घाघरा के रूप में आगे बढ़ती है।

आगे घाघरा जब अयोध्या पहुंचती है तो सरयू के नाम से जानी जाती है। अंत में बिहार के छपरा शहर के पास सरयू (अर्थात काली और घाघरा) गंगा में समा जाती है।

असली काली कौन है?

सन 1814–16 में भारत में राज कर रहे अंग्रेज़ों और नेपाल के गोरखाओं के बीच एक युद्ध हुआ था। फिर मार्च 1816 में गोरखा शासन और औपनिवेशिक सत्ता (ईस्ट इंडिया कंपनी) के मध्य सिगौली (बिहार) में एक संधि हुई। इस संधि में कई अन्य निर्णयों के साथ ही नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच की सीमा ‘काली-महाकाली’ नदी को निर्धारित किया गया। संधि करने वाले दोनों ही पक्ष इस नदी के सुदूर उद्गम और शुरुआती प्रवाह तंत्र से अनजान थे। संधि दस्तावेज़ों में भी नदी का कोई मानचित्र या स्पष्ट विवरण दर्ज नहीं किया गया था।

चूंकि संधि में नदी उद्गम और शुरुआती प्रवाह के सम्बंध में कोई पुख्ता जानकारी नहीं थी, इसलिए मुख्य धारा को लेकर विवाद होना तय था और बाद के वर्षों में यह आशंका सच हुई भी। हाल के कुछ वर्षों में असली काली नदी को लेकर यह विवाद बार-बार उठाया गया है।

भारत का मानना है कि कालापानी से गुंजी आने वाली पूर्वी धारा ही सिगौली संधि में वर्णित वास्तविक काली नदी है। साथ ही पश्चिमी धारा का नाम कुटी यंग्ती बताया जाता है। यह पश्चिम में स्थित लिम्पिया धुरा से शुरू होकर ज्यौलिंकंग, निकुर्च, कुटी, रौंगकोंग, नाबी, नपलच्यों और गुंजी होते हुए मनेला तक पहुंचती है। इस प्रकार सीमा निर्धारण के हिसाब से काली नदी के पश्चिम में स्थित इन सभी क्षेत्रों पर भारत का अधिकार है।

मगर नेपाल का मानना है कि चूंकि कुटी यंग्ती लंबाई और जल प्रवाह क्षमता दोनों ही तरह से काली से बड़ी है अत: असली काली नदी वही है। इसी कारण उपरोक्त लिम्पिया धुरा-लिपूलेख-गुंजी क्षेत्र नेपाल के हिस्से होना चाहिए। यह विवादित क्षेत्र 335 वर्ग कि.मी. का है। नक्शा क्रमांक 2 में इस विवादित क्षेत्र को दर्शाया गया है।

भारत का तर्क है कि भले ही कुटी यंग्ती अपेक्षाकृत रूप से लंबी और जल प्रवाह क्षमता में बड़ी है मगर वर्षों से धार्मिक आस्था, विभिन्न मिथक और लोगों का विश्वास काली नदी की धारा के साथ जुड़ा है। सदियों से चले आ रहे तिब्बत व्यापार और कैलाश-मानसरोवर तीर्थ यात्रा में यही काली नदी एक महत्वपूर्ण मार्ग उपलब्ध करवाती है। कुटी यंग्ती की अपेक्षा यह ज़्यादा सामरिक महत्व भी रखती है। इसलिए यही मुख्य काली नदी है।

आखिर दोनों में से किस धारा को असली काली नदी माना जाए: बड़ी और लंबी कुटी यंग्ती को या धार्मिक और विश्वास रूप से ज़्यादा विख्यात अपेक्षाकृत छोटी काली नदी को?

नक्शों की राजनीति

नवंबर 2019 में भारत ने जम्मू और कश्मीर एवं लद्दाख की स्थिति में बदलाव के बाद अपना नवीन आधिकारिक मानचित्र प्रकाशित किया। इस नए मानचित्र में उपरोक्त विवादस्पद क्षेत्र को पहले की ही तरह भारत का हिस्सा दिखाया गया था। फिर भारत द्वारा 8 मई 2020 को इस घाटी में सेना के लिए बीआरओ द्वारा सड़क निर्माण का उद्घाटन किया गया।

नेपाल सरकार ने दोनों ही घटनाओं पर स्पष्ट आपत्ति ज़ाहिर की। आपत्ति के साथ ही 20 मई, 2020 में नेपाल का भी एक नया आधिकारिक मानचित्र प्रकाशित किया गया, जिसे वहां की संसद ने 10 जून 2020 को मान्यता दे दी। नेपाल के इस नवीनतम मानचित्र में इस विवादित क्षेत्र को नेपाल का हिस्सा दर्शाया गया है। अर्थात कुटी यंग्ती और काली नदी के बीच का यह क्षेत्र दोनों देशों के मानचित्रों में अपना दिखाया गया है।

उत्तराखंड सरकार के पूर्व मुख्य सचिव व मूलत: व्यास घाटी के वासी नृपसिंह नपलच्याल का कहना है कि कुटी यंग्ती भारत की आंतरिक नदी है और लिपूलेख तथा लिम्पिया धूरा सदियों से तिब्बत (अब चीन) से हमारी निर्विवाद सीमा को बनाते हैं। तिब्बत का यह पारंपरिक मार्ग है। यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि कुटी ही काली है तब भी औपनिवेशिक शासक कालापानी–लिपूलेख को ही सीमा बनाते। यह तिब्बत व्यापार, तीर्थयात्रा और सदियों से प्रचलित मार्ग का तकाज़ा था। कुटी को कभी भी किसी नक्शे में सीमा की तरह नहीं दिखाया गया था। इस तरफ सिर्फ नक्शों के आधार पर बात करने वाले विद्वानों को ध्यान देना चाहिए। अगर सच सिर्फ नक्शों में छिपा होता तो दुनिया में कहीं सीमा विवाद नहीं होता।

इस प्रकार इस विवादित क्षेत्र के कुटी, नाबी और गुंजी गांव में रहने वाले स्थानीय ‘रं’ समुदाय के लोग असमंजस की स्थिति में हैं। उनके गांव भारत और नेपाल दोनों मानचित्रों में हैं, अत: कहीं किसी रोज़ उनकी नागरिकता तो नहीं बदल दी जाएगी? या यह केवल एक नक्शों की राजनीति भर है?

जल धारा नदी कब बनती है

काली नदी से जुड़ा एक और रोचक किस्सा है उसका धारा से नदी बनना। हिमालय में शुरू होने वाली नदियां किसी एक बिंदु या स्रोत से उत्पन्न नहीं होती हैं। अपितु उनकी शुरुआत कई छोटी-बड़ी जल धाराओं के मेल से होती है। ये कई छोटी-बड़ी धाराएं मिलकर एक नदी का प्रवाह तंत्र विकसित करती हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि आप इन सम्मिलित धाराओं के मेल को नदी का नाम कब और किस स्थान पर देते हैं। खास कर तब जब वह नदी किसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण कर रही हो।

काली नदी को लेकर भी एक ऐसा ही विवाद कालापानी क्षेत्र में है। एक बुद्धिजीवी वर्ग का यह मानना है कि यदि भारत के तर्क अनुसार वर्तमान काली को ही वास्तविक काली नदी मान लिया जाए तो उसकी उत्पत्ति लिपूलेख ओम पर्वत के पास होती है। क्योंकि नदी की शुरुआती जलधाराएं वहीं से बनती हैं। इसलिए इन धाराओं के पूर्व का क्षेत्र नेपाल का और पश्चिमी क्षेत्र भारत के अधिकार में होना चाहिए, मगर ऐसा नहीं है। क्योंकि, भारत काली नदी की शुरुआत कालापानी से मानता है न कि लिपूलेख से। भारत वहां से आने वाली शुरुआती धारा को लिपूगाड़ कहता है। धार्मिक कारणों से अभी इसे काली नदी कहलाने का दर्जा प्राप्त नहीं है। लिपूगाड़, लिपूलेख और ओम पर्वत के आसपास के ग्लेशियरों का पानी लेकर आगे कालापानी स्थान पर पहुंचाती है। यहां लिपूगाड़ के दाएं किनारे पर कालीमाता का एक मंदिर स्थित है। मंदिर परिसर में एक ऐतिहासिक भू-जल स्रोत है। यहां इस भू-जल स्रोत से बहते पानी की एक छोटी जलधारा लिपूगाड़ में मिलती है। इस धारा और लिपूगाड़ के संगम के बाद इस प्रवाह को काली नदी नाम दिया जाता है। अर्थात कालापानी में काली मंदिर के इस भू-जल स्रोत को ही काली नदी का परम्परागत और आधिकारिक उद्गम स्थल माना गया है। हालांकि नदी प्रवाह का ज़्यादातर पानी पीछे लिपूलेख की तरफ से आ रहा है।

यह एक रोचक तथ्य है कि मंदिर के भू-जल स्रोत का थोड़ा-सा पानी मिलते ही लिपूगाड़, काली नदी में परिवर्तित हो जाती है। वैसे यह मामला भी भौगोलिक सिद्धांत से ज़्यादा धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक और सामरिक महत्व पर आधारित है। आगे इसी स्थान (कालापानी) से लेकर टनकपुर-बनबसा तक यह नदी भारत और नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा मानी जाती है।

वर्ष 1816 की सिगौली संधि के तहत ही गंडक नदी (नेपाल में नारायणी) को भी बिहार में भारत–नेपाल के बीच की अंतर्राष्ट्रीय सीमा बनाया गया था। वर्तमान में यह सुस्ता–चकधावा का क्षेत्र भी एक विवाद का विषय है। सीमा निर्धारण के समय सुस्ता नदी के दाएं तरफ वाला इलाका नेपाल में था। नदी द्वारा अपना प्रवाह मार्ग बदलने से अब यह नदी के बाएं तरफ आ गया है। इधर भारत का चकधावा (बिहार) गांव है। ऐसे ही स्थानीय लोगो के खेत भारत नेपाल के मध्य इधर-उधर होते रहे हैं।

देश के भीतर भी विभिन्न राज्यों के मध्य ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। सवाल यह है कि नदियों द्वारा दो देशों या राज्यों की सीमा निर्धारित करना कहां तक उचित है जबकि नदियों द्वारा अपना प्रवाह मार्ग बदलने से सीमाएं भी आगे–पीछे होने लगती हैं और दोनों क्षेत्रों के मध्य विवाद उत्पन्न होते हैं। 

लेकिन समस्या मात्र भूगोल की नहीं है। दोनों तरफ के स्थानीय ‘रं’ समुदाय के लोगों में इन तमाम घटनाओं पर मिले-जुले विचार हैं। हालांकि सदियों से, कितने ही आक्रान्ता शासक, अंग्रेज़ अधिकारी, राजतंत्र के राजा और लोकतंत्र के प्रतिनिधि आए और गए मगर दोनों तरफ के समुदायों के बीच विश्वास और शांति के सम्बंध बने रहे।

यदि यहां कुछ समय के लिए देशों की सीमाओं को भुला दिया जाए तो नदी के पूर्व और पश्चिम किनारों की बसाहटों में कोई भिन्नता नहीं मिलेगी। कालांतर में लोग खेतों की बुवाई और जानवरों की चराई के लिए आते–जाते रहे हैं। हमेशा ही दोनों तरफ के समुदायों में अच्छे रिश्ते और रास्ते कायम रहे है। यहां स्थित दर्जन भर झूला पुल दो भू-भागों के साथ-साथ ही दोनों तरफ के समुदायों के दिलों, समाज और संस्कृति को जोड़ने का काम भी करते रहे हैं।

वर्तमान में नेपाल के छांगरू और तिंकर गांव के स्थानीय लोग, काली–तिंकर नदी संगम के पास स्थित लकड़ी के सीतापुल द्वारा नदी को पार कर भारतीय सड़क के माध्यम से ही इन ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों से नेपाल के अन्य शहरों में आते-जाते हैं।

आज भी इस घाटी में भारत–नेपाल सीमा के दोनों तरफ परस्पर व्यापार और रोटी–बेटी के गहरे सम्बंध बने हुए हैं। स्थानीय लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने, शादी करने, मंदिरों में पूजा करने, जड़ी-बूटी एकत्र करने, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और रोज़गार आदि के लिए आसानी से इधर-उधर आते-जाते हैं। कुल मिलाकर इन्हें देश की सीमाएं बांटती है, और भूगोल एक करता है। इस नदी ने ही सदियों पुरानी ‘रं’ सभ्यता को आज भी बचाए रखा है।

इसलिए दोनों देशों को इस ‘नक्शेबाज़ी’ की बजाय खुल कर संवाद करना चाहिए। दोनों तरफ के स्थानीय समुदायों को भी इस संवाद प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहिए। बड़ा देश होने के नाते भारत, नेपाल की स्वायत्तता और संप्रभुता का सम्मान करते हुए इस बातचीत की शुरुआत नए सिरे से कर सकता है, इससे पहले कि यह कोई हिंसक जटिल समस्या बन जाए।(स्रोत फीचर्स)

लेख में प्रयुक्त नक्शे स्वयं लेखक द्वारा बनाए गए हैं।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महासागरों का प्रबंधन – डॉ. शैलेश नायक

जीवन की उत्पत्ति समंदर में हुई थी। यह अकेला सबसे प्रमुख कारण है कि क्यों समुद्री पर्यावरण की रक्षा की जानी चाहिए। समंदर हमें भोजन, ऊर्जा, खनिज संसाधन तो प्रदान करते ही हैं साथ ही ये जैव विविधता के भंडार भी हैं। ये मौसम और जलवायु को प्रभावित करते हैं और पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करते हैं। इसके अलावा यही समंदर जीवाश्म-ईंधन आधारित ऊर्जा के मुख्य स्रोत हैं और विश्व की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं। इस मायने में इनका रणनीतिक महत्व है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखते हुए यह कहना गलत न होगा कि भविष्य में हमारा विकास और समृद्धि समंदरों पर निर्भर रहेगी। इनके महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2012 में टिकाऊ विकास सम्बंधी सम्मेलन में हरित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाकर नीली अर्थव्यवस्था तक ले जाने पर ज़ोर दिया था। संयुक्त राष्ट्र ने महासागरों, सागरों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण को निर्वहनीय विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में शामिल किया है। समंदरों के विकास के महत्व को ध्यान में रखते हुए युनेस्को की संस्था इंटरनेशनल ओशियन कमीशन (आईओसी) ने वर्तमान दशक को ‘समुद्र विज्ञान दशक’ घोषित किया है ताकि उपरोक्त लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी विज्ञान उपलब्ध हो सके। भारत ने भी समुद्र-निर्भर अर्थव्यवस्था की महत्ता को स्वीकार किया है। नीली अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जिन प्रमुख मुद्दों को संबोधित करने की ज़रूरत है वे निम्नानुसार हैं।

टिकाऊ मत्स्य भंडार: 2050 तक वैश्विक जनसंख्या लगभग 9 अरब तक पहुंचने की संभावना है। इस स्थिति में पोषण के लिए समुद्री मत्स्य भंडार पर निर्भरता भी निश्चित रूप से बढ़ेगी। प्राथमिक और माध्यमिक उत्पादन में परिवर्तनों के कारण मछलियों के स्टॉक में कमी आ रही है जिससे तटीय समुदायों की आजीविका भी प्रभावित हुई है। इसके अलवा वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि से मछलियों की कई प्रजातियां ध्रुवों की ओर पलायन कर रही हैं। इस परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए भौतिक, जैविक और रासायनिक प्रक्रियाओं की समझ विकसित करना और आने वाले निकट भविष्य तथा दूरस्थ भविष्य में मछलियों के स्टॉक का पूर्वानुमान करने हेतु मॉडल विकसित करना अत्यंत आवश्यक है। इन मॉडलों की मदद से मत्स्याखेट को जैविक रूप से निर्वहनीय सीमाओं के भीतर रखा जा सकेगा।

तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण: मूंगा चट्टानें (कोरल रीफ), मैंग्रोव और समुद्री घास महत्वपूर्ण परितंत्र हैं और मत्स्य भंडार एवं अन्य बायोटा को बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। जलवायु परिवर्तन और इन्सानी गतिविधियों के कारण उनकी संरचना, कार्यों और दुर्बलताओं को समझना आवश्यक है। कोप-27 सम्मलेन के दौरान यूएई और इंडोनेशिया द्वारा शुरू किया गया मैंग्रोव एलायंस फॉर क्लाइमेट इस दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। समुद्री जीवन की जनगणना कार्यक्रम और उसके परिणामस्वरूप उभरे अंतर्राष्ट्रीय महासागर जैव-भौगोलिक सूचना तंत्र ने समुद्री जीवन की भरपूर जानकारी प्रदान की है। इस तरह के सर्वे समय-समय पर होते रहना ज़रूरी है।

हानिकारक शैवाल: लंबे समय से अत्यधिक भारी वर्षा से नदियों से बहकर आने वाले पानी में वृद्धि हुई है। इसके साथ आए पोषक तत्वों ने तटीय जल को संदूूषित किया है जिसकी वजह से हानिकारक शैवाल काफी तेज़ी से बढ़ गए हैं। परिणामस्वरूप व्यापक स्तर पर समुद्री जीवों की मृत्यु और रुग्णता में वृद्धि हुई है। ऐसे क्षेत्रों में मत्स्याखेट से बचने और पोषक तत्वों के प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु एक चेतावनी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है।

तटीय प्रदूषण: तटीय क्षेत्रों के बढ़ते हुए विकास के मद्देनज़र तटीय और समुद्री परितंत्र, पारिस्थितिकीय वस्तुओं एवं सेवाओं और मत्स्य पालन पर समुद्री कचरे (माइक्रोप्लास्टिक सहित) के वितरण के प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए। एक समग्र मॉडल विकसित किया जाना चाहिए जिसमें जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव, भूमि उपयोग नीति और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को शामिल किया गया हो। विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाओं को प्लास्टिक कचरे के उत्पादन, तट तक उनके पहुंचने और समंदरों में प्रवाह को लेकर अधिक समझ बनाने के लिए निवेश करना ज़रूरी होगा।

समंदरों से खनिज और मीठा पानी: तटीय और अपतटीय खनिज भंडार औद्योगिक और आर्थिक विकास के लिए आवश्यक टाइटेनियम, दुर्लभ मृदा धातु, थोरियम, निकल और कोबाल्ट जैसे कई महत्वपूर्ण खनिज प्रदान करते हैं। हालिया ‘हाई सी ट्रीटी’ के तहत इन संसाधनों का टिकाऊ उपयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इन्सानी गतिविधियों के नियमन का निर्णय लिया गया है। इसका लाभ सभी देशों के बीच समान रूप से साझा किया जाएगा। जैसे-जैसे तटीय क्षेत्रों की गतिविधियों में वृद्धि होगी वैसे-वैसे मीठे पानी की मांग भी बढ़ेगी। लक्षद्वीप में कई वर्षों से लो टेम्परेचर थर्मल डिसेलिनेशन (एलटीटीडी) तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। तटीय आबादी और विकास गतिविधियों के लिए एक करोड़ लीटर प्रतिदिन मीठे पानी का उत्पादन करने में सक्षम अलवणीकरण संयंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिए तकनीकी विशेषज्ञता के साथ-साथ वित्त और मानव संसाधनों में सामूहिक निवेश की ज़रूरत होगी।

समुद्री ऊर्जा: पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में वैकल्पिक और नए ऊर्जा स्रोत के रूप में समुद्री ऊर्जा पर विचार किया जा सकता है। गैस हाइड्रेट्स (बर्फ के समान मीथेन और पानी का क्रिस्टलीय रूप) की हालिया खोज आशाजनक रही है जिसके उपयोग के लिए उपयुक्त तकनीकों का विकास किया जा सकता है। इसके अलावा अपतटीय पवन फार्मों को बढ़ावा देते हुए बंदरगाहों पर आवश्यक अधोसंरचना स्थापित करने के प्रयास किए जाना चाहिए। इसके साथ ही समुद्री तापीय ऊर्जा और महासागरीय धाराओं के उचित उपयोग के लिए किए जाने वाले प्रयोगों को पर्याप्त समर्थन दिया जाना चाहिए।

तटीय पर्यटन: पिछले कुछ समय से सभी जी20 देशों के समुद्र तटों पर पर्यटन में काफी वृद्धि हुई है। इसको बढ़ावा देने के लिए भारत ‘ब्लू फ्लैग’ समुद्र तटों के प्रमाणन लिए सक्रिय प्रयास कर रहा है। ब्लू फ्लैग प्रमाणन फाउंडेशन फॉर एनवायर्नमेंटल एजुकेशन, कोपेनहेगन द्वारा उन तटों को दिया जाता है जहां सुंदर परिदृश्य, स्वच्छ जल, सुरक्षा और पर्यावरण के अनुकूल बुनियादी ढांचा उपस्थित है। इस प्रमाणन प्रक्रिया में पर्यावरण शिक्षा के साथ-साथ विकास को भी सुनिश्चित किया जाता है। अत: इस प्रमाणन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

खतरे की पहचान और प्रतिक्रिया तंत्र: जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण चक्रवात, तटीय शहरों में बाढ़, तटीय कटाव जैसी चरम घटनाओं में वृद्धि हुई है। चेतावनी प्रणाली और प्रतिक्रिया तंत्र में सुधार एक प्रमुख आवश्यकता है। औद्योगिक और बुनियादी ढांचे की रक्षा को ध्यान में रखते हुए आकस्मिक घटनाओं के प्रति कमज़ोर क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए।

छोटे द्वीपों का विकास: मीठे पानी की उपलब्धता छोटे द्वीपों की एक प्रमुख आवश्यकता है। लक्षद्वीप के छह द्वीपों पर पानी उपलब्ध कराने के लिए एलटीटीडी तकनीक का उपयोग किया गया है। इसके अलावा इन द्वीपों पर स्थानीय लोगों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्री खेती (मैरीकल्चर) और सजावटी मत्स्य पालन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

नौपरिवहन, उद्योग, बुनियादी ढांचा: बढ़ते व्यापार, नौपरिवहन और बुनियादी ढांचे के विकास को देखते हुए समुद्री परितंत्र पर दबाव बढ़ने की संभावना है। इसके लिए बंदरगाहों के विकास और नौपरिवहन (विद्युत चालित) के लिए सतत प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ावा देने की ज़रूरत है।

समुद्री प्रक्रियाओं को समझने, उनकी मॉडलिंग करने तथा मौसम, समुद्र की अवस्था और खतरों का पूर्वानुमान करने हेतु समुद्रों का अवलोकन (उपग्रह व अन्य साधनों से) बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसे पूर्वानुमान मानव जीवन की सुरक्षा तथा इन्सानी गतिविधियों को सुगम बनाने के लिए ज़रूरी हैं। महासागरों के निरंतर अवलोकन के लिए क्षमता निर्माण महत्वपूर्ण है।

ओशिएनोग्राफिक रिसर्च एंड इंडियन ओशियन ग्लोबल ओशिएन ऑबसर्विंग सिस्टम ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को हिंद महासागर का अध्ययन करने और समाज के भले के लिए नवीन ज्ञान प्राप्त करने का मंच प्रदान किया है।

पिछले एक दशक के दौरान जी20 फोरम में समुद्र से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती रही है। पूर्व में महासागरों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जी20 एक्शन प्लान ऑन मरीन लिटर (जर्मनी, 2017), ओसाका ब्लू ओशन विज़न (जापान, 2019), कोरल रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक्सलरेटर प्लेटफॉर्म (सऊदी अरब, 2020) और कंज़रवेशन, प्रोटेक्शन, रिस्टोरेशन एंड सस्टेनेबल यूज़ ऑफ बायोडायवर्सिटी (इटली, 2021) के माध्यम से महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा 2022 में इंडोनेशियाई अध्यक्षता के तहत ब्लू इकॉनॉमी पर चर्चा की शुरुआत भी की गई थी।

गौरतलब है कि नीली अर्थव्यवस्था को अपनाने में भारत अग्रणी रहा है। यह उचित ही है कि भारत की अध्यक्षता में जी20 ने एक स्थायी और जलवायु-अनुकूल नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने, पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली में तेज़ी लाने और जैव विविधता की समृद्धि को प्राथमिकता दी है। विचार यह है कि महासागरों के स्वस्थ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को संबोधित करते हुए समुद्री संसाधनों के टिकाऊ और समतामूलक आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले। यह संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्य-14 और भारत के नेतृत्व में पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक अभियान ‘मिशन LiFE’ (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) के अनुरूप ही है।

समुद्री अर्थव्यवस्था के विकास को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है – जैसे प्राकृतिक खतरे, जलवायु-प्रेरित मौसमी घटनाएं, समुद्र स्तर में वृद्धि, समुद्र का अम्लीकरण और इन्सानी गतिविधियों के प्रभाव। विकास के साथ-साथ पारिस्थितिक और आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तटीय क्षेत्रों का प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है। इन जोखिमों को समझने के लिए तटीय और समुद्री मानचित्रण करके उसके आधार पर विकास कार्यों की योजना बनाई जानी चाहिए।

नीली अर्थव्यवस्था के तहत व्यापक आर्थिक निर्णयों के लिए पर्यावरणीय डैटा आवश्यक है। वर्ष 2030 के बाद समुद्री पर्यावरण को सहारा देने के लिए बड़ा निवेश किए बिना महासागरों से आर्थिक विकास की संभावना काफी कम है। हमें महासागरों के लिए एक लेखा प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न डैटा स्रोतों को एक साथ लाया जा सके।

वर्ष 2030 के बाद जब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ज़्यादा नज़र आने लगेंगे तब अर्थव्यवस्था को संभालने और आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्र पर निर्भरता और अधिक बढ़ जाएगी। महासागरों का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने और नीली अर्थव्यवस्था की शुरुआत करने के लिए पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक डैटा सहित वैज्ञानिक डैटा को एकीकृत करके ‘डिजिटल महासागर’ को बढ़ावा देना आवश्यक है। जी20 देशों के लिए समुद्र विज्ञान और प्रौद्योगिकी का ज्ञान, साझेदारी की सर्वोत्तम प्रथाओं, वित्तीय संसाधनों को हासिल करने आदि के बारे में जानकारियां साझा करना काफी उपयोगी होगा। संसाधनों के टिकाऊ उपयोग के लिए एक संस्थागत ढांचा और संचालन व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए।

सभी हितधारकों, शोधकर्ताओं, उद्योगों, गैर-सरकारी संगठनों और नीति निर्माताओं सहित सरकारों के साथ प्रभावी संचार आवश्यक है ताकि इस तरह का विकास समाज के लिए प्रासंगिक बन सके। महासागरों का दायित्वपूर्ण प्रबंधन एक ऐसा निवेश है जिसका लाभ आने वाली पीढ़ियों को मिलेगा। यह मानव जाति के लाभ के लिए महासागरों और हमारे ग्रह के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दोहराने का एक अवसर है। वैश्विक समुदाय को ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के सिद्धांत के साथ ‘एक महासागर’ के लाभों को साझा करने के साथ ही पर्यावरण का संरक्षण भी सुनिश्चित करना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

इस आलेख का  मूल अंग्रेज़ी संस्करण 10 मई 2023 को करंट साइंस में प्रकाशित हुआ है और इसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति के साथ यहां प्रकशित किया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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