इस वर्ष भौतिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है। इन तीनों ने स्वतंत्र रूप से काम करते हुए जटिल तंत्रों व परिघटनाओं के अध्ययन के तौर-तरीके विकसित किए और जलवायु को समझने के लिए मॉडल विकसित करने में मदद की।
प्रिंसटन विश्वविद्यालय, यू.एस. के स्यूकुरो मनाबे और मैंक्स प्लांक मौसम विज्ञान विभाग, जर्मनी के क्लॉस हैसलमान ने पृथ्वी के जलवायु सम्बंधी हमारे ज्ञान की बुनियाद रखी और दर्शाया कि हम मनुष्य इसे कैसे प्रभावित करते हैं। इटली के सैपिएंज़ा विश्वविद्यालय
के जियार्जियो पैरिसी ने बेतरतीब और अव्यवस्थित परिघटनाओं को समझने के क्षेत्र में क्रांतिकारी योगदान दिया।
जटिल तंत्र वे होते हैं जिनमें कई घटक होते हैं और वे एक-दूसरे के साथ कई अलग-अलग ढंग से परस्पर क्रिया करते हैं। ज़ाहिर है, इनका विवरण गणित की समीकरणों में नहीं समेटा जा सकता – कई बार तो ये संयोग के नियंत्रण में होते हैं।
जैसे मौसम को ही लें। मौसम पर न सिर्फ कई कारकों का असर होता है बल्कि कभी-कभी शुरुआती तनिक से विचलन से आगे चलकर असाधारण असर देखने को मिलते हैं। मनाबे, हैसलमान
और पैरिसी ने ऐसे ही तंत्रों-परिघटनाओं को समझने तथा उनके दीर्घावधि विकास का पूर्वानुमान करने में योगदान दिया है।
मनाबे धरती की जलवायु के भौतिक मॉडल की मदद से यह दर्शा पाने में सफल रहे कि कैसे वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता के साथ धरती का तापमान बढ़ता है। इसी काम को आगे बढ़ाते हुए हैसलमान ने वह मॉडल विकसित किया जिसमें मौसम और जलवायु की कड़ियां जोड़ी जा सकती हैं। उन्होंने ऐसे संकेतक भी विकसित किए जिनकी मदद से जलवायु पर मनुष्य के प्रभाव को आंका जा सकता है। मनाबे व हैसलमान द्वारा विकसित मॉडल से यह स्पष्ट हुआ कि धरती के तापमान में हो रही वृद्धि मूलत: मानव-जनित कार्बन डाईऑक्साइड की वजह से हो रही है।
इन दोनों से अलग पैरिसी ने अव्यवस्थित जटिल पदार्थों में पैटर्न खोज निकाले। उनकी खोज के फलस्वरूप आज हम भौतिकी के साथ-साथ गणित, जीव विज्ञान, तंत्रिका विज्ञान और मशीन लर्निंग जैसे क्षेत्रों में सर्वथा बेतरतीब पदार्थों और परिघटनाओं को समझ पा रहे हैं। (स्रोतफीचर्स)
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प्रतिष्ठित अंतरिक्ष दूरबीन हबल में लगभग एक महीने पहले
कंप्यूटर सम्बंधी गड़बड़ी आ जाने के कारण उसने काम करना बंद कर दिया था, अब यह फिर से काम करने लगी है। साइंस पत्रिका के अनुसार दूरबीन का
नियंत्रण ऑपरेटिंग पेलोड कंट्रोल कंप्यूटर से हटाकर बैकअप उपकरणों पर लाने के बाद
हबल दूरबीन के सभी उपकरणों के साथ पुन: संवाद स्थापित कर लिया गया है।
दरअसल 13 जून को हबल के विज्ञान उपकरणों को नियंत्रित करने वाला और इनकी सेहत
की निगरानी करने वाला पेलोड कंप्यूटर उपकरणों के साथ संवाद नहीं कर पा रहा था, इसलिए उसने इन्हें सामान्य मोड से हटाकर सुरक्षित मोड में डाल दिया था। हबल के
ऑपरेटरों को पहले तो लगा कि मेमोरी मॉड्यूल में गड़बड़ी हुई होगी जिसके चलते यह
समस्या हो रही है। लेकिन तीन में से एक बैकअप मॉड्यूल पर डालने के बावजूद भी
समस्या बरकरार थी। कई अन्य उपकरणों को भी जांचा गया लेकिन गड़बड़ी का कारण उनमें भी
नहीं मिला।
अंतत: यह निर्णय लिया गया कि पूरी की पूरी साइंस इंस्ट्रूमेंट कमांड एंड डैटा
हैंडलिंग (SIC&DH) युनिट को बैकअप पर डाल दिया
जाए,
पेलोड कंप्यूटर इस युनिट का ही एक हिस्सा है। मरम्मत दल ने
पहले पृथ्वी पर ही हार्डवेयर के साथ इस पूरी प्रक्रिया का अभ्यास किया और यह
सुनिश्चित किया कि ऐसा करने से दूरबीन को कोई अन्य नुकसान न पहुंचे। युनिट को जैसे
ही स्थानांतरित करना शुरू किया गया समस्या की जड़ पकड़ में आ गई। समस्या SIC&DH के पावर कंट्रोल युनिट में
थी। यह युनिट पेलोड कंप्यूटर को स्थिर वोल्टेज देता है और समस्या इस कारण थी कि या
तो सामान्य से कम-ज़्यादा वोल्टेज मिल रहा था या वोल्टेज का पता लगाने वाला सेंसर
गलत रीडिंग दे रहा था। चूंकि SIC&DH में अतिरिक्त पॉवर कंट्रोल युनिट भी होती है इसलिए पूरी युनिट को बैकअप पर
डाला जाना जारी रहा।
हबल मिशन कार्यालय के प्रमुख टॉम ब्राउन ने बताया कि SIC&DH के साइड ए पर हबल को सामान्य मोड में सफलतापूर्वक ले आया गया है। यदि सब कुछ सामान्य रहा तो इस सप्ताहांत तक हबल फिर से अवलोकन का अपना काम शुरू कर देगा। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में नासा ने शुक्र ग्रह पर दो यान भेजने की घोषणा है।
शुक्र हमारा पड़ोसी है और अत्यधिक गर्म है। इस मिशन का उद्देश्य यह समझना है कि
शुक्र ऐसा आग का गोला कैसे बन गया जहां लेड भी पिघल जाता है, पृथ्वी कैसे विकसित हुई और पृथ्वी पर जीवन योग्य परिस्थितियां कैसे बनीं?
इन दो अंतरिक्ष यान में से एक यान है DAVINCI+ (डीप एटमॉस्फियर वीनस इनवेस्टिगेशन ऑफ नोबेल गैसेस, कैमिस्ट्री एंड इमेजिंग)। यह शुक्र पर कार्बन डाईऑक्साइड और सल्फ्यूरिक एसिड
से संतृप्त विषाक्त बादलों की मोटी परत का अध्ययन करेगा। दूसरा यान है VERITAS (वीनस एमिसिविटी, रेडियो साइंस, इनसार, टोपोग्राफी
एंड स्पेक्ट्रोस्कोपी) जो शुक्र की सतह का विस्तृत नक्शा बनाएगा और इसका भूगर्भीय
इतिहास पता लगाएगा।
आकार और द्रव्यमान में शुक्र लगभग पृथ्वी के समान है। दूसरी ओर, पृथ्वी के विपरीत इसका वातावरण अत्यंत गर्म और दुर्गम है, लेकिन इस पर कभी हमारी पृथ्वी की तरह समशीतोष्ण वातावरण और समुद्र रहे होंगे।
शुक्र की परिस्थितियों में यह बदलाव कैसे आए, इसे
समझना यह समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है कि वास्तव में शुक्र और पृथ्वी में कितनी
समानता थी।
नासा के इस मिशन की घोषणा भूले-बिसरे ग्रह शुक्र में अंतरिक्ष विज्ञानियों की
बढ़ती दिलचस्पी के दौर में हुई है। अमेरिका का अंतिम शुक्र मिशन, मैजेलन,
वर्ष 1994 में समाप्त हुआ था। उसके बाद युरोप और जापान ने
अपने यान शुक्र पर भेजे, और पृथ्वी स्थित दूरबीनों की
मदद से ही वैज्ञानिक इस पर नज़र रखे हुए थे। लेकिन इतने अध्ययन के बावजूद भी शुक्र
के बारे में कई जानकारियां स्पष्ट नहीं हैं। जैसे शुक्र की सतह पर ज्वालामुखीय
गतिविधियों के प्रमाण मिले थे, लेकिन वहां वैसी टेक्टॉनिक
गतिविधियों का अभाव है जो पृथ्वी पर ज्वालामुखीय गतिविधियां चलाती है। इसके अलावा
शुक्र के वायुमंडल में फॉस्फीन गैस की उपस्थिति भी विवादास्पद रही है, जो वहां जीवन होने का संकेत हो सकती है।
संभवत: 2030 तक DAVINCI+
अंतरिक्ष यान शुक्र के लिए रवाना हो जाएगा। शुक्र पर पहुंचकर यह वहां के पृथ्वी की
तुलना में 90 गुना घने वायुमंडल मे उतरेगा, उतरते-उतरते
विभिन्न ऊंचाइयों पर हवा के नमूने लेगा और पृथ्वी पर जानकारियां भेजता रहेगा। ये
वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद करेंगी कि शुक्र कैसे विकसित हुआ था, और क्या इस पर कभी महासागर थे।
एक ओर, DAVINCI+ शुक्र के वायुमंडल का अध्ययन करेगा, वहीं VERITAS शुक्र की कक्षा में रहकर ही उसकी सतह का मानचित्रण करेगा। इससे प्राप्त चित्र, सतह के रसायन विज्ञान और स्थलाकृति के बारे में विस्तृत जानकारी शुक्र के भूगर्भीय इतिहास को समझने में मदद करेगी, और इस गुत्थी को सुलझाएगी कि शुक्र पर इतनी भीषण परिस्थितियां कैसे बनीं? (स्रोत फीचर्स)
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यह तो सब जानते हैं कि सख्तजान टार्डिग्रेड्स बहुत अधिक ठंड
और गर्मी दोनों बर्दाश्त कर सकते हैं। वे निर्वात में जीवित रह सकते हैं और
हानिकारक विकिरण भी झेल जाते हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि टार्डिग्रेड्स
ज़ोरदार टक्कर भी झेल लेते हैं, लेकिन एक सीमा तक। यह अध्ययन टार्डिग्रेड
द्वारा अंतरिक्ष की टक्करों को झेल कर जीवित बच निकलने की उनकी क्षमता और अन्य
ग्रहों पर जीवन के स्थानांतरण में उनकी भूमिका की सीमाएं दर्शाता है।
2019 में इस्राइली चंद्र मिशन, बेरेशीट, दुर्घटनाग्रस्त
हो गया था। इस इस्राइली यान के साथ गुपचुप तरीके से चांद पर सूक्ष्मजीव
टार्डिग्रेड्स (जलीय भालू, साइज़ करीब 1.5 मि.मी.) भेजे गए थे। लेकिन
चांद पर उतरते वक्त लैंडर और साथ में उसकी सारी सवारियां दुर्घटनाग्रस्त हो गर्इं।
टार्डिग्रेड्स चांद पर यहां-वहां बिखरे और यह चिंता पैदा हो गई कि वे वहां के
वातावरण में फैल गए होंगे। इसलिए क्वीन मेरी युनिवर्सिटी की अलेजांड्रा ट्रेस्पस
जानना चाहती थीं कि क्या टार्डिग्रेड्स इतनी ज़ोरदार टक्कर झेल कर जीवित बचे होंगे?
यह जानने के लिए उनकी टीम ने लगभग 20
टार्डिग्रेड्स को अच्छे से खिला-पिलाकर फ्रीज़ करके शीतनिद्रा की अवस्था में पहुंचा
दिया, जिसमें उनकी चयापचय गतिविधि की दर महज़ 0.1 प्रतिशत रह गई।
फिर,
उन्होंने नायलॉन की
एक खोखली बुलेट में एक बार में दो से चार टार्डिग्रेड भरे और गैस गन से उन्हें कुछ
मीटर दूरी पर स्थित एक रेतीले लक्ष्य पर दागा। यह गन पारंपरिक बंदूकों की तुलना
में कहीं अधिक वेग से गोली दाग सकती है। एस्ट्रोबायोलॉजी में प्रकाशित
नतीजों के अनुसार टार्डिग्रेड लगभग 900 मीटर प्रति सेकंड (लगभग 3000 किलोमीटर
प्रति घंटे) तक की टक्कर के बाद जीवित रह सके,
और 1.14 गीगापास्कल
तक की ज़ोरदार टक्कर सहन कर गए। इससे तेज़ टक्कर होने पर उनका कचूमर निकल गया था।
तो बेरेशीट के दुर्घटनाग्रस्त होने पर
टार्डिग्रेड्स जीवित नहीं बचे होंगे। हालांकि लैंडर कुछ सैकड़ा मीटर प्रति सेकंड की
रफ्तार पर टकराया था, लेकिन टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि इससे 1.14 गीगापास्कल से
कहीं अधिक तेज़ झटका पैदा हुआ होगा, जो कि टार्डिग्रेड की सहनशक्ति से अधिक रहा
होगा।
ये नतीजे पैनस्पर्मिया सिद्धांत को भी
सीमित करते हैं, जो कहता है कि किसी उल्कापिंड या क्षुद्रग्रह की टक्कर के
साथ जीवन किसी अन्य ग्रह पर पहुंच सकता है। ऐसी टक्कर से उल्का पिंड में उपस्थित
जीवन भी प्रभावित या नष्ट होगा। यानी किसी उल्कापिंड के साथ पृथ्वी पर जीवन आने
(पैनस्पर्मिया) की संभावना कम है। कम से कम जटिल बहु-कोशिकीय जीवों का इस तरह
स्थानांतरण आसानी से संभव नहीं है।
वैसे ट्रैस्पस का कहना है कि स्थानांतरण
भले ‘मुश्किल’ हो, लेकिन असंभव भी नहीं है। पृथ्वी से उल्कापिंड आम तौर पर 11
किलोमीटर प्रति सेकंड से अधिक की रफ्तार से टकराते हैं;
मंगल पर 8 किलोमीटर
प्रति सेकंड की रफ्तार से। ये टार्डिग्रेड्स की सहनशक्ति से कहीं अधिक हैं। लेकिन
पृथ्वी या मंगल पर कहीं-कहीं उल्कापिंड की टक्कर कम वेग से भी होती है, जिसे
टार्डिग्रेड बर्दाश्त कर सकते हैं।
इसके अलावा, पृथ्वी से टक्कर के बाद चट्टानों के जो छोटे टुकड़े चंद्रमा की तरफ उछलते हैं, उनमें से लगभग 40 प्रतिशत की रफ्तार इतनी धीमी होती है कि टार्डिग्रेड जीवित रह सकें। यानी सैद्धांतिक रूप से यह संभव है कि पृथ्वी से चंद्रमा पर जीवन सुरक्षित पहुंच सकता है। कुछ सूक्ष्मजीव 5000 मीटर प्रति सेकंड का वेग झेल सकते हैं। उनके जीवित रहने की संभावना और भी अधिक है। (स्रोत फीचर्स)
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महाविस्फोट (बिग बैंग) के लगभग 1.5 करोड़ वर्ष बाद ब्रह्मांड
धीरे-धीरे ठंडा होना शुरू हुआ। इस दौरान विद्युत-चुंबकीय विकिरण सामान्य तापमान पर
आने लगा था। अमेरिकी भौतिक विज्ञानी एवी लोएब इस दौर को प्रारंभिक ब्रह्मांड का जीवन-योग्य
युग कहते हैं। लोएब के अनुसार यदि हम उस दौर में रहते होते तो हमें गर्मी के लिए
सूर्य की आवश्यकता नहीं होती बल्कि ब्रह्मांडीय पृष्ठभूमि विकिरण से प्राप्त गर्मी
ही हमारे लिए पर्याप्त होती।
तो क्या यह माना जाए कि जीवन की शुरुआत इतनी जल्दी हुई थी। बिग बैंग घटना के
बाद,
पहले 20 मिनट की गर्म और सघन परिस्थितियों में केवल
हाइड्रोजन और हीलियम के साथ मामूली मात्रा (10 अरब परमाणुओं में एक) में लीथियम भी
उपस्थित था। अपेक्षाकृत भारी तत्व नगण्य थे।
जीवन के लिए तो पानी और कार्बनिक यौगिकों का होना आवश्यक है। इनके अस्तित्व
में आने के लिए लगभग 5 करोड़ वर्ष और इंतज़ार करना पड़ा जब शुरुआती तारों में
हाइड्रोजन और हीलियम के संलयन से ऑक्सीजन और कार्बन का निर्माण हुआ। यानी जीवन की
शुरुआत के लिए प्रारंभिक अड़चन उपयुक्त तापमान नहीं बल्कि आवश्यक तत्वों की
उपलब्धता भी थी।
शुरुआत में भारी तत्वों की सीमित मात्रा को देखते हुए, जीवन
की शुरुआत कितनी जल्दी हुई होगी? गौरतलब है कि ब्रह्मांड के
अधिकांश तारे सूर्य से भी अरबों वर्ष पहले उपस्थित थे। तारों के निर्माण के इतिहास
के आधार पर लोएब और उनके सहयोगियों का अनुमान है कि सूर्य जैसे तारों के आसपास
जीवन की शुरुआत हाल के कुछ अरब वर्षों के दौरान हुई थी। अलबत्ता, भविष्य में बौने तारों (हमारे निकटतम पड़ोसी प्रॉक्सिमा सेंटॉरी जैसे) की
परिक्रमा करने वाले ग्रहों में जीवन की शुरुआत होती रह सकती है। ये सूर्य की तुलना
में सैकड़ों गुना अधिक समय तक जीवित रहेंगे। अंतत: शायद हमें प्रॉक्सिमा सेंटॉरी बी
जैसे तारों के आसपास रहने योग्य ग्रहों पर जाकर बस जाना होगा जो कई खरब वर्षों तक
जीवित रहने वाले हैं।
हमारी वर्तमान जानकारी के अनुसार पानी एकमात्र ऐसा पदार्थ है जो जीवन को सहारा
दे सकता है। लेकिन इसके बारे में हमें अधिक जानकारी नहीं है। क्या शुरुआती ब्रह्मांड
में कोई अन्य तरल पदार्थ मौजूद थे? मनस्वी लिंगम के साथ किए गए एक
अध्ययन में लोएब बताते हैं कि शुरुआती तारों के निर्माण के समय अमोनिया, मिथेनॉल और हाइड्रोजन सल्फाइड तरल अवस्था में उपस्थित थे जबकि इथेन और प्रोपेन
कुछ समय बाद तरल अवस्था में उपस्थित रहे। हालांकि जीवन की शुरुआत में इन पदार्थों
की उपयुक्तता के बारे में तो अभी कोई जानकारी नहीं है लेकिन इनका प्रायोगिक अध्ययन
किया जा सकता है। यदि भविष्य में हम संश्लेषित जीवन विकसित करने में सफल होते हैं
तो हम यह भी खोज कर सकते हैं कि क्या जीवन पानी के अलावा अन्य तरल पदार्थों में भी
उभर सकता है।
ब्रह्मांड में जीवन की शुरुआत का पता लगाने का एक तरीका यह हो सकता है कि क्या
यह सबसे पुराने तारों के आसपास के ग्रहों पर शुरू हुआ था। ऐसे तारों पर हीलियम से
अधिक भारी तत्वों की कमी होने की उम्मीद की जा सकती है जिन्हें खगोलविज्ञानी
‘धातु’ कहते हैं (यह परिभाषा आम रासायनिक परिभाषा से थोड़ी अलग है और इसमें ऑक्सीजन
को धातु कहा जाता है)। धातु की कमी वाले तारे आकाशगंगा की परिधि में खोजे गए हैं
और ये ब्रह्मांड के शुरुआती तारे माने गए हैं। इन तारों में अक्सर प्रचुर मात्रा
में कार्बन दिखता है और इन्हें ‘कार्बन प्रचुर धातु विहीन’ (सीईएमपी) तारे कहा
जाता है। लोएब का मत है कि सीईएमपी के आसपास के ग्रह ज़्यादातर कार्बन से बने होते
हैं जिससे उनकी सतह पर प्रारंभिक जीवन का आधार मिल सकता है।
लिहाज़ा हम ऐसे ग्रहों की खोज कर सकते हैं जो सीईएमपी तारों के आसपास हैं और
अपने वायुमंडलीय संघटन में जीवन की उपस्थिति के कुछ साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। हम
इन तारों की उम्र के आधार पर यह अनुमान लगा पाएंगे कि ब्रह्मांड में जीवन की
शुरुआत कितनी पहले हुई होगी।
इसके साथ ही हम अंतर-तारकीय तकनीकी उपकरणों की उम्र का भी अनुमान लगा सकते हैं
जो पृथ्वी के नज़दीक चक्कर लगाते हुए दिखें या चंद्रमा से टकरा गए हों।
इसमें एक पूरक रणनीति अंतरिक्ष में प्रारंभिक दौर की सभ्यताओं के तकनीकी संकेतों की खोज करना भी हो सकती है। संचार संकेतों को भी खोजा जा सकता है लेकिन ऐसे संकेतों को यात्रा करने में अरबों वर्षों का समय लगता है और कोई भी सभ्यता इतनी धीमी गति से सूचनाओं के आदान-प्रदान में रुचि नहीं रखेगी। जीवन के संकेत हमेशा के लिए बने नहीं रहते हैं। खैर, अंतरिक्ष में जीवन जब मिलेगा, तब मिलेगा लेकिन तब तक हमें प्रकृति से मिले हुए अस्थायी उपहारों का जश्न मनाना चाहिए, लुत्फ उठाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले 20 वर्षों से अंतरिक्ष यात्रियों का घर –
अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) – कुछ अनोखे बैक्टीरिया का मेज़बान भी बन गया
है। स्पेस स्टेशन पर पाए गए चार बैक्टीरिया स्ट्रेन में से तीन के बारे में पूर्व
में कोई जानकारी नहीं थी। फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी जर्नल में
प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन बैक्टीरिया स्ट्रेन्स का उपयोग भविष्य में लंबी
अंतरिक्ष उड़ानों के दौरान पौधे उगाने के लिए किया जा सकता है।
गौरतलब है कि कई वर्षों से पृथ्वी से पूरी तरह से अलग होने से स्पेस स्टेशन एक
अनूठा पर्यावरण है। ऐसे में यह जानने के लिए तरह-तरह के प्रयोग किए गए हैं कि यहां
कौन-से बैक्टीरिया मौजूद हैं। पिछले 6 वर्षों में स्पेस स्टेशन के 8 विशिष्ट स्थानों
पर निरंतर सूक्ष्मजीवों और बैक्टीरिया की वृद्धि की जांच की जा रही है। इन स्थानों
में वह स्थान भी शामिल है जहां सैकड़ों वैज्ञानिक प्रयोग किए जाते हैं, पौधों की खेती का प्रकोष्ठ भी शामिल है और वह जगह भी जहां क्रू-सदस्य भोजन और
अन्य अवसरों पर साथ आते हैं। इस तरह सैकड़ों नमूने पृथ्वी पर विश्लेषण के लिए आए
हैं और कई हज़ार अभी कतार में हैं।
पृथक किए गए बैक्टीरिया के चारों स्ट्रेन मिथाइलोबैक्टीरिएसी कुल से
हैं। मिथाइलोबैक्टीरियम प्रजातियां विशेष रूप से पौधों की वृद्धि में और
रोगजनकों से लड़ने में सहायक होती हैं। हालांकि इन चार में से एक (मिथाइलोरुब्रम
रोडेशिएनम) पहले से ज्ञात था जबकि छड़ आकार के तीन अन्य बैक्टीरिया अज्ञात थे।
इनके आनुवंशिक विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने पाया कि ये बैक्टीरिया प्रजातियां मिथाइलोबैक्टीरियम
इंडीकम के निकट सम्बंधी हैं। अब इनमें से एक बैक्टीरिया का नाम भारतीय
जैव-विविधता वैज्ञानिक मुहम्मद अजमल खान के सम्मान में मिथाइलोबैक्टीरियम
अजमाली रखा गया है।
इस बैक्टीरिया के संभावित अनुप्रयोगों को समझने के लिए नासा जेट प्रपल्शन
लेबोरेटरी के वैज्ञानिक कस्तूरी वेंकटेश्वरन और नितीश कुमार ने इस शोध पर काम किया
है। वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि यह नया स्ट्रेन पौधों की वृद्धि में उपयोगी हो
सकता है। न्यूनतम संसाधनों वाले क्षेत्रों में यह जीवाणु मुश्किल परिस्थितियों में
भी पौधे के बढ़ने में सहायक होगा। पत्तेदार सब्ज़ियों और मूली को तो सफलतापूर्वक
अंतरिक्ष स्टेशन पर उगाया गया है लेकिन फसलों को उगाने में थोड़ी कठिनाई होती है।
ऐसे में मिथाइलोबैक्टीरियम इस संदर्भ में उपयोगी हो सकता है।
अभी इस बैक्टीरिया के सही उपयोग को समझने के लिए समय और कई प्रयोगों की ज़रूरत है। आईएसएस पर मिले ये तीन स्ट्रेन अलग-अलग समय पर और अलग-अलग स्थानों से लिए गए थे इसलिए आईएसएस में इनके टिकाऊपन और पारिस्थितिक महत्व का अध्ययन करना होगा। मंगल पर मानव को भेजा जाए, उससे पहले इस तरह के अध्ययन महत्वपूर्ण और ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स)
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गत 6 मार्च को एक 340 मीटर चौड़ा क्षुद्रग्रह एपोफिस पृथ्वी
के निकट से सुरक्षित निकल गया। अगली बार 2029 में यह पृथ्वी से मात्र 40,000
किलोमीटर दूर से गुज़रेगा। यह उस क्षेत्र के ठीक ऊपर से गुज़रेगा जहां उच्च-कक्षा
वाले उपग्रह चक्कर लगाते हैं। पहली बार खगोलविद इतने बड़े क्षुद्रग्रह को पृथ्वी के
पास से गुज़रते हुए देखेंगे। इस घटना ने वैज्ञानिकों को ग्रह रक्षा प्रणाली का आकलन
करने का मौका दिया है। इसके अंतर्गत खगोलविद क्षुद्रग्रहों के मार्ग का आकलन करते
हुए पृथ्वी से टकराने की संभावना का पता लगाते हैं। एरिज़ोना विश्वविद्यालय के
प्लेनेटरी वैज्ञानिक विष्णु रेड्डी ने इस अवलोकन अभियान का समन्वय किया है। एपोफिस
ने इस बात को रेखांकित किया है कि खगोलविद नज़दीक से गुज़रने वाले क्षुद्रग्रहों के
बारे में कितना कुछ जानते हैं और क्या जानना बाकी है।
नासा द्वारा 1998 में क्षुद्रग्रह की खोज की व्यवस्थित शुरुआत से लेकर अब तक
वैज्ञानिकों ने 25,000 से अधिक नज़दीकी क्षुद्रग्रहों का पता लगाया है। वर्ष 2020
में क्षुद्रग्रह देखने की रिकॉर्ड घटनाएं दर्ज की गई हैं। कोविड-19 महामारी के
दौरान कई सर्वेक्षण कार्यक्रम बाधित होने के बाद भी खगोलविदों ने 2020 में अब तक
अज्ञात 2958 क्षुद्रग्रह सूचीबद्ध किए हैं।
इनमें से बड़ी संख्या का पता एरिज़ोना स्थित तीन दूरबीनों की मदद से कैटलिना
हवाई सर्वे द्वारा लगाया गया है। हालांकि पिछले वर्ष वसंत के मौसम में महामारी और
जून में जंगलों की आग के कारण कुछ समय के लिए संचालन बंद होने के बाद भी पृथ्वी के
निकट 1548 पिंडों का पता लगाया गया। इसमें 2020 सीडी3 नामक एक दुर्लभ क्षुद्रग्रह
भी देखा गया। यह ‘मिनीचंद्रमा’ लगभग तीन मीटर व्यास वाला एक छोटा क्षुद्रग्रह है।
यह पास से गुज़रते हुए अस्थायी रूप से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की गिरफ्त में आ गया
था। फिर पिछले वर्ष अप्रैल में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेदकर बाहर निकल गया।
इसके अलावा,
पिछले वर्ष हवाई स्थित Pan-STARS सर्वे टेलिस्कोप द्वारा 1152
क्षुद्रग्रहों का पता लगाया गया। इस खोज में 2020 एसओ नामक पिंड भी शामिल है जिसे
गलती से क्षुद्रग्रह मान लिया गया था। यह वास्तव में 1966 में नासा के चंद्रमा
मिशन के रॉकेट बूस्टर का शेष भाग था जो तभी से अंतरिक्ष में चक्कर काट रहा था।
गौरतलब है कि पिछले वर्ष खोजे गए क्षुद्रग्रहों में से लगभग 107 ऐसे थे जो
चंद्रमा से भी कम दूरी से गुज़रे हैं। इनमें से एक छोटा क्षुद्रग्रह, 2020 क्यूजी,
अगस्त में हिंद महासागर से लगभग 2950 किलोमीटर ऊपर से गुज़रा
था। इसने सबसे नज़दीक से गुज़रने का रिकॉर्ड बनाया था। लेकिन इसके तीन महीने बाद ही
2020 वीटी4 नामक एक छोटा क्षुद्रग्रह 400 किलोमीटर से भी कम दूरी से गुज़रा। हैरानी
की बात है कि गुज़र जाने के बाद 15 घंटे तक इसे देखा नहीं गया।
इन सभी खोजों से खगोलविद सौर मंडल की कैरम-नुमा प्रवृत्ति के प्रति अधिक जागरूक हो गए हैं। रेड्डी के अनुसार एपोफिस के हालिया अवलोकन इस बात के संकेत देते हैं कि कैसे विश्व भर के खगोलविद एक साथ काम करते हुए क्षुद्रग्रह से होने वाले खतरों का आकलन कर सकते हैं। ऐसी उम्मीद है कि आठ वर्ष बाद जब एपोफिस लौटकर आएगा तब तक वैज्ञानिकों के पास खतरनाक क्षुद्रग्रहों के बारे में अधिक विस्तृत जानकारी होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.pennlive.com/resizer/v54AXPKd7c4CP7tmtLReoWGaBi8=/1280×0/smart/cloudfront-us-east-1.images.arcpublishing.com/advancelocal/PPO3UTSKK5FLRO5KILR33MYYQY.jpg
विगत 9 फरवरी को संयुक्त अरब अमीरात का अल-अमल (यानी उम्मीद) ऑर्बाइटर मंगल पर पहुंच गया। किसी अरब राष्ट्र द्वारा किसी अन्य ग्रह पर भेजा गया यह पहला यान है। अल-अमल मंगल की कक्षा में चक्कर काटते हुए वहां के वायुमंडल और जलवायु का अध्ययन करेगा। यदि सभी प्रणालियां ठीक से काम करती रहीं तो यूएसए, सोवियत संघ, युरोप और भारत के बाद संयुक्त अरब अमीरात मंगल पर यान भेजने वाले देशों में शरीक हो जाएगा जबकि अमीरात ने अंतरिक्ष एजेंसी वर्ष 2014 में ही शुरू की है।
ऑर्बाइटर को कक्षा में प्रवेश कराने के लिए अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपक 30 मिनट
के लिए सक्रिय होंगे जो यान की रफ्तार को 1,21,000 किलोमीटर प्रति घंटे से कम करके
18,000 किलोमीटर प्रति घंटे पर लाएंगे, ताकि ऑर्बाइटर मंगल ग्रह
के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में पहुंच जाए। अगले कुछ महीनों में अल-अमल धीरे-धीरे
मंगल की कक्षा में एक अण्डाकार पथ अपना लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर कभी मंगल की सतह से
दूर (43,000 किलोमीटर) तो कभी पास (20,000 किलोमीटर) होगा। अब तक अन्य मिशन के
ऑर्बाइटर मंगल की सतह के बहुत करीब स्थापित किए गए हैं जिस कारण वे एक बार में
छोटे स्थान को देख पाते हैं। लेकिन अल-अमल ऑर्बाइटर एक ही स्थान पर विभिन्न समयों
पर नज़र रख सकेगा।
मंगल ग्रह के वायुमंडल की पड़ताल करने के लिए इस ऑर्बाइटर में तीन उपकरण हैं।
इनमें से दो उपकरण हैं इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर और अल्ट्रावायलेट स्पेक्ट्रोमीटर।
और तीसरा उपकरण,
इमेजिंग कैमरा, मंगल की रंगीन तस्वीरें
लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर से एकत्र डैटा से पता चलेगा कि मंगल पर चलने वाली आंधियों
की शुरुआत कैसे होती है और वे प्रचण्ड रूप कैसे लेती हैं। इसके अलावा यह जानने में
भी मदद मिलेगी कि अंतरिक्ष के मौसम में होने वाले बदलावों, जैसे
सौर तूफान के प्रति मंगल ग्रह का वायुमंडल किस तरह प्रतिक्रिया देता है। यह भी पता
चलेगा कि कैसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसें निचले वायुमंडल से निकलकर अंतरिक्ष में
पलायन कर जाती हैं। इसी प्रक्रिया से मंगल का पानी उड़ गया और अतीत की जीवन-क्षमता
को प्रभावित किया।
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक दिमित्र अत्री कहते हैं कि मंगल पर
भेजे गए पिछले प्रोब, जैसे नासा का मावेन, भी अच्छे थे लेकिन वे एक समय में एक छोटे क्षेत्र का ही डैटा जुटाते थे।
अल-अमल विहंगम अवलोकन करेगा।
संयुक्त अरब अमीरात को अपने मंगल मिशन से उम्मीद है कि यह इस क्षेत्र के
युवाओं को विज्ञान को करियर के रूप में अपनाने को प्रेरित करेगा।
इसी बीच, चीन का पहला मंगल यान तियानवेन-1 भी अपने ऑर्बाइटर, लैंडर और रोवर के साथ 10 फरवरी को मंगल ग्रह पर पहुंच गया। 18 फरवरी को नासा का परसेवरेंस रोवर जेज़ेरो क्रेटर के ठीक ऊपर था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/uae_1280p.jpg?itok=Yqt7N-Xs https://www.mbrsc.ae/application/files/8815/9351/4176/emm_logo_final.png
सर आइज़ैक न्यूटन के मशहूर गति के तीन नियमों की व्याख्या करने वाली और उनके मौलिक काम को प्रस्तुत करने वाली एक किताब को 37 लाख डॉलर (करीब 25 करोड़ रुपए) में नीलाम किया गया है। इसके साथ ही यह किसी ऑक्शन में बेची गई अब तक की सबसे महंगी मुद्रित वैज्ञानिक किताब बन गई है। प्रिंसिपिया मैथमैटिका नामक यह किताब साल 1687 में लिखी गई थी। इस किताब की बिक्री का काम देखने वाले नीलामी घर क्रिस्टीस ने उम्मीद की थी कि बकरी की खाल के कवर वाली इस किताब के 10 से 15 लाख डॉलर मिल जाएंगे। बोली लगाने वाले एक व्यक्ति ने इसे लगभग 37 लाख डॉलर में खरीद लिया। लाइव साइंस की खबर के अनुसार, प्रिंसिपिया मैथेमेटिका में न्यूटन के गति के तीन नियमों की व्याख्या की गई है। इसमें बताया गया है कि किस तरह से चीज़ें बाहरी बलों के प्रभाव में गति करती हैं। लाल रंग की इस 252 पेज की किताब की लंबाई नौ इंच और चौड़ाई सात इंच है। इनमें कई पन्नों पर लकड़ी के चित्र भी हैं। पुस्तक में एक मुड़ सकने वाली प्लेट भी है। पिछले 47 साल में न्यूटन के सिद्धांतों की एक ही अन्य मौलिक प्रति बेची गई है। उस प्रति को किंग जेम्स द्वितीय (1633-1701) को उपहार स्वरूप दिया गया था। उसे दिसंबर 2013 में क्रिस्टीस न्यूयॉर्क में 25 लाख डॉलर में खरीदा गया था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://thumbs-prod.si-cdn.com/vDBg2R4pc2DHkabowRC4eySOSrk=/fit-in/1600×0/https://public-media.si-cdn.com/filer/e6/a1/e6a17a66-bb80-4624-b2e7-4148867d7dbe/newtonsprincipia.jpg
विदा हो चुके वर्ष 2020 में कोविड-19 की विप्लवकारी चुनौतियों
से वैज्ञानिक बिरादरी में चिंता व्याप्त रही। साल के पूर्वार्द्ध में दुनिया भर की
सरकारों ने वैक्सीन के अभाव में ज़ोरदार जागरूकता अभियान चलाए, जिनके
परिणामस्वरूप लाखों जाने बचीं। उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिकों को वैक्सीन बनाने में
मिली सफलता से लोगों ने राहत की सांस ली।
कोविड-19 महामारी का असर आर्थिक,सामाजिक,वैज्ञानिक,शैक्षणिक और
सांस्कृतिक गतिविधियों पर पड़ा और अधिकांश आयोजन रियल से वर्चुअल प्लेटफार्म पर
शिफ्ट हो गए। विज्ञान प्रयोगशालाओं में शोध कार्यों और परियोजनाओं में रुकावट आ
गई। विज्ञान सम्मेलनों, बैठकों और संगोष्ठियों की जगह वेबिनारों का दौर शुरू हो
गया।
वर्ष 2020 विज्ञान जगत के इतिहास में
कोरोनावायरस परिवार के सातवें सदस्य सार्स-कोव-2 की विनाशकारी सक्रियता के लिए याद
रहेगा। अभी तक कोरोना वायरस परिवार में छह सदस्य (229 ई,
एनएल 63, ओसी
43, एचकेयू1, सार्स-कोव और मर्स-कोव) थे।
साल अंत होते-होते ब्रिटेन में इसी वायरस
का एक नया रूप (स्ट्रेन) सामने आ गया। बीते वर्ष कोविड-19 पर रिसर्च पेपर्स की बाढ़
आ गई और इसकी चुनौतियों से जूझने के लिए नवाचारों का विस्तार भी हुआ।
विज्ञान की प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय
पत्रिका साइंस द्वारा वर्ष 2020 की टॉप टेन रिसर्च स्टोरीज़ में प्रथम स्थान
कोरोनावायरस के विरुद्ध वैक्सीन की खोज और अनुसंधान कार्यों को मिला है। कोरोना
परिवार का नया वायरस सार्स-कोव-2 अपने रिश्तेदारों की तुलना में कहीं अधिक
संक्रामक साबित हुआ। यह वायरस चीन के वुहान प्रांत में संक्रमित लोगों के ज़रिए कई
देशों में फैल गया। न्यूज़ीलैंड ने अपने देश में वायरस को नियंत्रित करके विश्व के
सभी देशों को चकित कर दिया। न्यूज़ीलैंड की प्रधान मंत्री को इसके लिए नेचर
ने 2020 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में शामिल किया है। प्रथम स्थान विश्व
स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रोस एडहानोम गेब्रेयेसस को मिला है, जिन्होंने
तत्परतापूर्वक इसे महामारी घोषित कर सरकारों को सचेत कर दिया।
मार्च में सबसे पहले लॉकडाउन का प्रस्ताव
चीन की महामारी रोग विशेषज्ञ ली लंजुआन ने रखा था,
जिसे चीन सहित कई
देशों ने अपनाया। नेचर ने इस साल के दस विशिष्ट व्यक्तियों की सूची में ली
लंजुआन को भी सम्मिलित किया है। इस सूची में नेचर ने चीनी वैज्ञानिक झांग
योंग ज़ेन को भी स्थान दिया है जिनकी टीम ने सबसे पहले सार्स-कोव-2 का आरएनए
अनुक्रम ऑनलाइन उपलब्ध कराया था।
गुज़रे साल कई देश सार्स-कोव-2 की वैक्सीन
बनाने की स्पर्धा में शामिल रहे। आम तौर पर वैक्सीन विकसित करने में वर्षों लगते
हैं और परीक्षण के तीन या चार चरणों से गुज़रना पड़ता है,
लेकिन 11 अगस्त को ही
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पहली वैक्सीन तैयार करने की घोषणा की और
पहला टीका उनकी पुत्री को लगाया गया।
इस वर्ष नीदरलैंड के कैंसर इंस्टीट्यूट के
वैज्ञानिकों ने मनुष्य के गले के ऊपरी हिस्से में नई लार ग्रंथियां खोजीं जिन्हें
नासा-ग्रसनी (ट्यूबेरियल) लार ग्रंथियां नाम दिया गया है। इस नए अंग का पता
प्रोस्टेट ग्रंथि के कैंसर पर रिसर्च के दौरान चला। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह
खोज कैंसर की चिकित्सा में मददगार होगी।
इसी वर्ष इस्राइल की तेल अवीव युनिवर्सिटी
के वैज्ञानिकों ने हेनेगुआ सालमिनिकोला परजीवी का पता लगाया, जिसमें
माइटोकॉण्ड्रियल जीनोम नहीं मिला। यह पहला बहुकोशिकीय जीव है, जो
पूरे जीवन ऑक्सीजन पर निर्भरता से मुक्त रहता है। इसे सांस लेने की आवश्यकता नहीं
होती। अध्ययनों में यह भी पता चला कि इसका विकास माइटोकॉण्ड्रिया वाले जीवों की
तरह हुआ था, लेकिन इसने धीरे-धीरे माइटोकॉण्ड्रिया गंवा दिया।
वैज्ञानिकों ने फास्ट रेडियो बर्स्ट
(एफआरबी) का पता लगा कर बड़ी उपलब्धि हासिल की। दरअसल ये संकेत हमारी निहारिका
(आकाशगंगा) के एक मैग्नेटर से आए थे। पहली बार 2007 में इन संकेतों को पकड़ा गया था, जो
केवल कुछ मिलीसेकेंड तक ही दिखाई दिए थे। नेचर ने इसे टॉप टेन की सूची में
सम्मिलित किया है।
वर्ष 2020 में नासा के सोफिया ने चंद्रमा
की सतह पर मौजूद क्रेटर क्लेवियस में पानी के अणु की खोज की। क्लेवियस पृथ्वी से
देखा जा सकने वाला गड्ढा है। यह चंद्रमा के दक्षिणी गोलार्द्ध पर स्थित है। यह खोज
दर्शाती है कि पानी चन्द्रमा के सिर्फ छायादार स्थानों पर ही नहीं, कई
स्थानों पर हो सकता है। अभी तक मान्यता थी कि चंद्रमा पर जल का तरल रूप नहीं है।
इस वर्ष जनवरी में विश्व के सबसे बड़े और
शक्तिशाली सोलर टेलीस्कोप डेनियल के. इनोय की सहायता से असाधारण तस्वीर ली गई, जिसमें
सूर्य की सतह मानव कोशिकाओं की संरचना की भांति दिख रही है। अनुसंधानकर्ताओं का
दावा है कि इस तस्वीर की सहायता से आगे चलकर सूर्य की सतह के बारे में नई
जानकारियां मिल सकती हैं। गैलीलियो टेलीस्कोप के बाद पृथ्वी से सूर्य के अध्ययन की
दिशा में यह बहुत बड़ी छलांग है।
इसी महीने पार्कर सोलर प्रोब यान सूर्य के
सबसे समीप पहुंचने वाला अंतरिक्ष यान बन गया। इसे नासा ने अगस्त 2018 में
प्रक्षेपित किया था। यह सूर्य से मात्र एक करोड 87 लाख किलोमीटर की दूरी पर था।
सूर्य से पृथ्वी की दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है। सोलर प्रोब सूर्य की सबसे बाहरी सतह
कोरोना के बारे में नई सूचनाएं भेजेगा।
इस वर्ष 15 नवम्बर को दुनिया का पहला निजी
अंतरिक्ष यान स्पेस एक्स अमेरिका के कैनेडी अंतरिक्ष केंद्र से चार अंतरिक्ष
यात्रियों को लेकर रवाना हुआ और 27 घंटे के सफर के बाद अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष
स्टेशन पहुंचा। अंतरिक्ष यात्रियों में तीन अमेरिका और एक जापान का है। यह स्पेस
एक्स की दूसरी मानव सहित उड़ान है। यह नासा का पहला मिशन है, जिसमें
अंतरिक्ष यात्रियों को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने के लिए किसी निजी
अंतरिक्ष यान की सहायता ली गई है।
इसी साल 6 फरवरी को अमेरिकी अंतरिक्ष
यात्री क्रिस्टीना कोच अंतरिक्ष में सबसे लंबे समय तक रहने वाली महिला का रिकॉर्ड
अपने नाम कर सुरक्षित पृथ्वी पर लौट आईं। क्रिस्टीना कोच ने 328 दिन
अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर गुज़ारे। उन्होंने छह बार अंतरिक्ष में चहलकदमी
भी की। उन्होंने बिना किसी पुरुष सहयोगी के अंतरिक्ष में चहलकदमी करके एक नया
अध्याय रचा।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अंतरिक्ष
यान ओसीरिस एक्स ने 20 अक्टूबर को चार वर्षों की लंबी यात्रा के बाद क्षुद्र ग्रह
बेनू का स्पर्श किया। यान के रोबोटिक हाथ ने क्षुद्र ग्रह के नमूने एकत्रित किए।
माना जाता है कि बेनू का निर्माण सौर मंडल के उद्भव के दौरान हुआ था। इससे
वैज्ञानिकों को सौर मंडल की आरंभिक अवस्था को समझने में मदद मिलेगी। साथ ही उन
तत्वों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी, जिनसे पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई।
अंतरिक्ष यान ओसीरिस रेक्स को सितंबर 2016 में रवाना हुआ था।
गुज़रे साल के अंत में जापान का अंतरिक्ष
यान हयाबुसा-2 पहली बार किसी क्षुद्र ग्रह पर उतर कर वहां से नमूने लेकर पृथ्वी पर
लौटा। हयाबुसा-2 का प्रक्षेपण 2014 में किया गया था।
दिसंबर में चीन का चंद्रयान चांग ई-5
चंद्रमा की सतह से नमूने लेकर सफलतापूर्वक पृथ्वी पर लौट आया। इस अभियान की शुरुआत
2004 में हुई थी। पिछले चार दशकों में चीन दुनिया का पहला देश है, जिसने
चंद्रमा के नमूने पृथ्वी पर लाने के प्रयास किए थे। इसी महीने चीन के लांग मार्च-8
रॉकेट ने पांच उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक विदाई दी।
वैज्ञानिकों ने मनुष्य में बुढ़ापे के जीन
और उसे रोकने की प्रक्रिया के अनुसंधान में सफलता प्राप्त की। पत्रिका स्टेम
सेल में प्रकाशित रिसर्च के अनुसार युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के डॉ. वॉन जू
ली के अनुसार बुढ़ापा मेसेन्काइमल स्टेम कोशिकाओं (एमएससी) की गतिविधियों में कमी
आने से होता है। नए शोध के अनुसार इसे दवाइयों और अन्य उपचारों के ज़रिए दूर किया
जा सकेगा। इसके लिए कोशिकाओं की रिप्रोग्रामिंग की जाएगी।
इसी वर्ष सऊदी अरब की किंग अब्दुल्ला
युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने सिंथेटिक त्वचा बना ली। इसकी विशेषता यह है कि यह
अपने-आप रफू हो जाती है। इसे ई-स्किन नाम दिया गया है। सिंथेटिक त्वचा का उपयोग
कृत्रिम अंगों के लिए भी किया जा सकता है।
माइकल फैराडे द्वारा बेंज़ीन की खोज के लगभग
200 वर्षों बाद रसायन विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं को इसकी जटिल इलेक्ट्रॉनिक
संरचना को स्पष्ट करने में सफलता मिली। टिमथी श्मिट के नेतृत्व में वैज्ञानिक दल
ने इसे सुलझाने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग का उपयोग किया था। 1930 के दशक से ही
रसायन शास्त्र के अध्येताओं के बीच बेंज़ीन की आधारभूत इलेक्ट्रॉनिक संरचना को लेकर
बहस होती रही है। हाल के वर्षों में बहस का महत्व और बढ़ गया था, क्योंकि
नवीकरणीय ऊर्जा और दूरसंचार तकनीक में इसकी अहम भूमिका सामने आई है।
21 दिसंबर को शनि और बृहस्पति ग्रहों का
दुर्लभ मिलन हुआ। इसे खगोल विज्ञान की बड़ी और ऐतिहासिक घटनाओं में शामिल किया गया।
लगभग आठ सौ वर्ष बाद दोनों ग्रह एक-दूसरे के बहुत करीब दिखे थे। दो खगोलीय पिंडों
के नज़दीक दिखने को ‘कंजंक्शन’ और शनि तथा बृहस्पति के इस तरह के मिलन को ‘ग्रेट कंजंक्शन’
कहते हैं। सन् 1623 में भी शनि और बृहस्पति एक-दूसरे के पास नज़र आए थे। बृहस्पति
12 वर्ष और शनि 29 वर्ष में सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। अब दोनों ग्रह साठ
वर्ष बाद मार्च 2080 में पुन: इतने समीप दिखेंगे।
विदा हो चुके वर्ष में चीन के वैज्ञानिकों
ने प्रकाश पर आधारित विश्व का पहला क्वांटम कंप्यूटर बनाने का दावा किया। यह
पारंपरिक सुपर कंप्यूटर की तुलना में कई गुना तेज़ है। क्वांटम कंप्यूटर की मदद से
कृत्रिम बुद्धि, चिकित्सा विज्ञान आदि क्षेत्रों में नई उपलब्धियां हासिल की
जा सकेंगी।
वर्ष 2020 को राष्ट्र संघ द्वारा
अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया था,
जिसका उद्देश्य पादप
जगत एवं उसके संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करना था।
विदा हो चुके साल में रोबोट का जन्मशती
वर्ष मनाया गया। विज्ञान कथाओं में रोबोट शब्द और विचार 1920 में सामने आया था।
पिछले दशकों में बुद्धिमान रोबोट बनाने की दिशा में जमकर अनुसंधान हुआ है।
बुद्धिमान रोबोट बनाने में कृत्रिम बुद्धि की अहम भूमिका है। बुद्धिमान रोबोट के
आगमन ने मनुष्य के सामने अवसरों और अस्तित्व की नई चुनौती खड़ी कर दी है।
वर्ष 2020 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों
में अमेरिका का वर्चस्व रहा। रसायन विज्ञान के इतिहास में पहली बार यह सम्मान
महिला वैज्ञानिकों के खाते में पहुंचा। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल हेपेटाइटिस सी
वायरस की खोज के लिए वैज्ञानिक हार्वे जे. आल्टर,
चार्ल्स एम. राइस तथा
माइकल हाटन को प्रदान किया गया। फिज़िक्स का नोबेल ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार
व्याख्या के लिए रॉजर पेनरोज़, राइनहार्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज़ को दिया
गया। रसायन शास्त्र का नोबेल इमैनुएल शार्पेची और जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त रूप
से प्रदान किया गया। इन्होंने जीन संपादन तकनीक क्रिस्पर कास-9 विधि की खोज में
विशेष योगदान किया है।
वर्ष 2020 में अमेरिकी विज्ञान कथा लेखक और
जैव रसायनविद आइज़ैक एसीमोव की जन्मशती मनाई गई। उन्होंने लोकप्रिय विज्ञान की अनेक
किताबें लिखी हैं तथा आई रोबोट सहित कई फिल्में भी बनाई हैं।
इसी वर्ष फरवरी में कंप्यूटर में जाने-माने
‘कट-कॉपी-पेस्ट’ कमांड के आविष्कारक लैरी टेस्लर का 74 वर्ष की आयु में निधन हो
गया। उन्होंने कंप्यूटर के यूज़र इंटरफेज़ के विकास में अहम भूमिका निभाई थी। दिसंबर
में संचार के क्षेत्र में वायरलेस कंप्यूटर नेटवर्क के जनक नार्मन अब्राामसन का
निधन हो गया। उन्हें प्रारंभिक वायरलेस नेटवर्क एएलओएच नेट बनाने का श्रेय जाता
है।
विलक्षण गणितज्ञ और नासा की महिला
वैज्ञानिक कैथरीन कोलमैन गोबल जॉनसन का 24 फरवरी को 101 वर्ष की आयु में निधन हो
गया। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष यात्राओं पर ले जाने और सुरक्षित वापसी
के लिए अपनी बेजोड़ विशेषज्ञता का परिचय दिया था। उन्हें नासा लूनर आर्बिटर और 1997
में वर्ष का गणितज्ञ सम्मान मिला था।
अलविदा हो चुके वर्ष में ईरान के
न्यूक्लियर साइंटिस्ट मोहसिन फखरीजादेह की उपग्रह द्वारा नियंत्रित हथियारों से
हत्या कर दी गई। फखरीजादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम की सबसे बडी शक्ति माना
जाता था।
विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों और विश्लेषणकर्ताओं के अनुसार विदा हो चुके वर्ष 2020 में मूल विज्ञान की कोख से निकली प्रौद्योगिकी अथवा प्रयुक्त विज्ञान का समाज में वर्चस्व और विस्तार दिखाई दिया और मूलभूत विज्ञान हाशिए पर रहा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://acs-h.assetsadobe.com/is/image//content/dam/cen/98/14/WEB/09814-cover5-corona.jpg/?$responsive$&wid=700&qlt=90,0&resMode=sharp2