कोविड-19: नस्लवाद पर वैज्ञानिक चोला

कोविड-19 महामारी ने तमाम किस्म की गैर-वैज्ञानिक धारणाओं को जन्म दिया है। अमेरिका में इस बात ने काफी ज़ोर पकड़ा है कि कोविड-19 की वजह से मरने वालों में अश्वेत लोगों की तादाद बहुत ज़्यादा इसलिए है क्योंकि उनमें ऐसे जीन्स पाए जाते हैं, जो उन्हें कोरोनावायरस के प्रति दुर्बल बनाते हैं। फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के प्रोफेसर क्लेरेंस ग्रेवली ने मामले का विश्लेषण किया है। प्रस्तुत है उसका सार।

वैसे तो कोविड-19 पर हमारी समझ अभी भी काफी कम है फिर भी इस महामारी से जुड़े एक तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। एक अनुमान है कि 27 मई तक कोविड-19 से मरने वाले अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों की तादाद श्वेत-अमेरिकी लोगों की तुलना में 2.4 गुना अधिक थी। इस असमानता पर रोष स्वाभाविक था। इसके सही कारण (व्यवस्थागत असमानता और उत्पीड़न के चलते जैविक क्षति) पर ध्यान देने की बजाय कुछ लोगों ने इसका पूरा दोषारोपण अफ्रीकी अमरीकियों में उपस्थित एक अज्ञात जीन पर कर दिया जो उन्हें संक्रमण के प्रति दुर्बल बनाता है।

वास्तव में यह नस्लवादी विचार राजनेताओं, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों और अन्य लोगों से आता है कि कालापन लोगों को निहित रूप से रोगों के प्रति दुर्बल बनाता है। ऐसे विचार वैज्ञानिकों ने लैंसेट और हेल्थ अफेयर जैसी कई प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित भी किए हैं।

जीव विज्ञान का नस्लीय दृष्टिकोण न केवल गलत है बल्कि हानिकारक भी है। यदि अन्य प्राइमेट्स से तुलना की जाए तो मनुष्यों में बहुत ही कम आनुवंशिक विविधता नज़र आती है। कारण यह है कि मनुष्य हाल ही में अस्तित्व में आए हैं। जितनी विविधता दिखती है वह जेनेटिक नहीं बल्कि भौगोलिक कारणों से है। त्वचा के रंग के जीन और रोगों के प्रति दुर्बल बनाने वाले जीन्स में कोई सम्बंध नहीं है।

तो फिर हम ‘श्वेत’ और ‘अश्वेत’ लोगों में रक्तचाप, मधुमेह या कोविड-19 जैसी समस्याओं की संभावना में अंतर की बात कैसे करते हैं? कारण यह है मानव जीव शास्त्र मात्र जीनोम नहीं है। वास्तव में हमारा वातावरण, हमारे अनुभव और रोगों से संपर्क का हमारे शारीरिक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है जो हमारी आनुवंशिक संभावनाओं को साकार रूप देता है। सुनियोजित नस्लीय भेदभाव शारीरिक बनावट को उतना ही प्रभावित करता है जितना कि जीनोम। स्वस्थ भोजन तक सीमित पहुंच, विषैले प्रदूषकों से संपर्क, पुलिस की हिंसा का डर या नस्लीय भेदभाव के ज़ख्म किसी की भी उच्च रक्तचाप, मधुमेह और कोविड-19 जैसी गंभीर जटिलताओं से ग्रस्त होने की संभावना को बढ़ा सकते हैं।

बदकिस्मती से, यह दृष्टिकोण जीव विज्ञान में गायब ही रहा है। जैसे 2006 में हुआ तांग और सहयोगियों द्वारा ह्यूमन जेनेटिक्स में प्रकाशित एक पेपर को देखिए। इस पेपर में शोधकर्ताओं ने पारिवारिक रक्तचाप कार्यक्रम के डैटा का विश्लेषण किया। इस कार्यक्रम में यह देखने की कोशिश की गई थी कि क्या मेक्सिकन अमरीकियों और अफ्रीकी अमरीकियों में बॉडी मॉस इंडेक्स और रक्तचाप के आधार पर जेनेटिक वंशावली का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। इस अध्ययन का निष्कर्ष था कि अफ्रीकी और गैर-अफ्रीकी मूल के लोगों के बीच आनुवंशिक अंतर रक्तचाप को प्रभावित करते हैं, हालांकि पर्यावरणीय कारक शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण हों।

तांग के अध्ययन ने भी इस निराधार धारणा को हवा दी कि अफ्रीकी मूल के लोगों में रक्तचाप की समस्या होने की संभावना ज़्यादा है। और कोविड-19 से होने वाली मृत्यु दर में यह धारणा काफी महत्वपूर्ण हो गई है।

वेंडरबिल्ट युनिवर्सिटी में रसायन विज्ञान की प्रोफेसर रेना रॉबिन्सन बताती हैं कि अफ्रीकी अमरीकी लोगों में संभवत: ऐसे जेनेटिक कारक हैं जो उनको नमक के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं। यह रक्तचाप के लिए व्यापक रूप से फैलाई गई एक निराधार व अब खंडित संकल्पना है। इसमें कहा जाता है कि अटलांटिक दास व्यापार के दौरान कुछ ऐसी परिस्थितियां विकसित हुर्इं जिसने गुलाम अफ्रीकियों में नमक को बनाए रखने वाले जीनोटाइप को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रखा। गौरतलब है कि ह्रदय रोग और नस्ल के सम्बंधों के लिए आनुवंशिक कारक खोजने के लिए अरबों डॉलर खर्च किए गए थे लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया।        

तांग के अध्ययन में दो सामान्य त्रुटियां नज़र आती हैं जिनके चलते नस्लीय-आनुवंशिक सोच टिकी हुई है।

पहली, इस अध्ययन में अफ्रीकी जेनेटिक समूह और रक्तचाप के बीच सांख्यिकी रूप से कोई महत्वपूर्ण सम्बंध नहीं पाया गया। लेकिन तांग ने फिर भी यह निष्कर्ष निकाला जो उनके आंकड़ों से नहीं निकला था। वैज्ञानिक शोध के प्रस्तुतीकरण में यह समस्या बहुत बिरली नहीं है।

और दूसरी यह कि यदि उनकी टीम ने आनुवंशिक वंश और रक्तचाप के बीच सम्बंध पाया भी तो उन्होंने अकारण मान लिया कि इसका कारण कुछ अज्ञात जेनेटिक अंतर है जो

1. उच्च रक्तचाप के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाता है; और

2. वह अफ्रीकी मूल के लोगों में ज़्यादा पाया जाता है।

इन धारणाओं का न तो उन्होंने कोई परीक्षण किया और न ही इस वैकल्पिक संभावना पर विचार किया कि जैविक गुणधर्मों पर सामाजिक-सांस्कृतिक अंतरों का असर हो सकता है।  

तांग का अध्ययन सामने आने के कुछ समय बाद ही युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की एमी नॉन ने पारिवारिक रक्तचाप कार्यक्रम के आकड़ों पर दोबारा बारीकी से विचार किया। उन्होंने इस बार विश्लेषण में आनुवंशिक वंश और रक्तचाप के साथ-साथ शैक्षिक वर्षों (जो व्यवस्थित नस्लीय भेदभाव का एक जाना-माना परिणाम है) को भी शामिल किया। अमेरिकन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित इस विश्लेषण की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा के प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष के साथ रक्तचाप में औसतन 0.51 मि.मी. मर्क्यूरी की कमी देखने को मिली। जबकि आनुवंशिक वंश से इसका कोई सम्बंध नहीं था।  

कोविड-19 महामारी के दौर में इस अध्ययन से पता चलता है कि आनुवंशिक वंश का असर केवल हमारी मान्यताओं के कारण होता है। यदि हम किसी को ‘श्वेत’ या ‘अश्वेत’ के रूप में वर्गीकृत करते हैं तो इसके परिणामस्वरूप हम वही जैविक अंतर पैदा कर देते हैं जिसको हम मानना चाहते हैं। यह हमारे डीएनए में किसी गहरे अंतर के कारण नहीं बल्कि हमारी सामाजिक संरचनाओं और व्यवहार पर निर्भर करता है जो कुछ को तो महत्व देता है और अन्य को तुच्छ समझता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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छरहरे बदन का जीन

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीन का पता लगाया है जिसका उत्परिवर्तित रूप तो कैंसर का कारण बनता है लेकिन उसका सामान्य रूप व्यक्ति को अपने शरीर की ज़्यादा चर्बी को जलाकर छरहरा बने रहने में मदद करता है।

यह देखा गया है कि कुछ लोग खूब खाएं, जो मर्ज़ी खाएं, तो भी मोटे नहीं होते। आम तौर पर जब मोटापे की बात होती है तो ध्यान इस बात पर होता है कि व्यक्ति क्या व कितना खाता है। लेकिन सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित नया शोध बताया है कि मोटापे और छरहरेपन का नियंत्रण जेनेटिक स्तर पर भी होता है।

ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी जोसेफ पेनिंजर और उनके साथियों ने मोटापे के जेनेटिक आधार खोजने के प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने एस्टोनिया के जीनोम सेंटर में उन लोगों की जीनोम सम्बंधी जानकारी को खंगाला जो सबसे दुबले-पतले बताए गए थे। इसमें से उन्होंने उन लोगों को छांटकर अलग कर दिया जिनके बारे में कहा गया था कि उनमें भूख न लगने (एनोरेक्सिया) या ऐसी किसी अन्य दिक्कत थी जिसकी वजह से वे दुबले रह जाते हैं।

शेष छरहरे लोगों में उन्होंने जेनेटिक समानता के चिंह खोजना शुरू किया। इस संदर्भ में एक खास जीन ने उनका ध्यान आकर्षित किया – एक एंज़ाइम एनाप्लास्टिक लिम्फोमा काइनेज़ यानी ALK का जीन। यह तो पहले से पता था कि डीएनए के इस खंड का उत्परिवर्तित रूप कैंसर से सम्बंधित है। लेकिन मज़ेदार बात यह थी कि किसी ने नहीं सोचा था कि इसका सामान्य रूप क्या काम करता है।

तो पेनिंजर और उनके साथियों ने उत्परिवर्तित फल मक्खी और उत्परिवर्तित चूहों का निर्माण किया। वे यह दर्शाना चाहते थे कि जो जीन मनुष्यों को छरहरा रखता है वह मक्खियों और चूहों में भी वैसा ही असर दिखाता है। देखा गया कि ALK जीन की उपस्थिति की वजह से ये उत्परिवर्तित मक्खियां और चूहे दुबले बने रहते हैं, हालांकि वे कम तो बिलकुल नहीं खाते।

शोधकर्ताओं का मत है कि ALKजीन मस्तिष्क पर क्रिया करता है जिसके असर से मस्तिष्क वसा कोशिकाओं को ज़्यादा वसा जलाने का निर्देश देता है। चूंकि यह जीन मक्खियों, चूहों और मनुष्यों, सबमें कारगर होता है, इसलिए ऐसा लगता है कि यह जैव विकास के इतिहास में बहुत समय से मौजूद रहा है। यह दुबलेपन के अनुसंधान में नया अध्याय जोड़ सकता है।

वर्तमान में भी ऐसी दवाइयां उपलब्ध हैं, जो कैंसरकारी ALK की क्रिया को बाधित करती हैं। यानी ALK को औषधियों के लिए एक उपयुक्त लक्ष्य माना जाता है। तो हो सकता है कि इसके आधार पर हमें छरहरे बने रहने के लिए गोली मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)

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जीवाश्म पर अधिकार भू-स्वामि का

हाल ही में मोन्टाना के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने जीवाश्म विज्ञानियों को राहत दी है। कोर्ट ने फैसले में कहा है कि जीवाश्म कानूनी रूप से सोने-चांदी जैसे खनिजों से भिन्न हैं। इन पर आधिपत्य उसका होगा जिसकी भूमि पर वे मिले हैं, ना कि भूमि के नीचे के खनिज भंडार मालिकों का।

दरअसल, मामला पूर्वी मोन्टाना के भूभाग में साल 2006 में प्राप्त डायनासौर के दो जीवाश्मों से जुड़ा है। मरे दम्पति ने पूर्वी मोन्टाना में सेवरसन बंधुओं से ज़मीन खरीदी थी। उन्होंने निजी जीवाश्म खोजियों के साथ मिलकर उस भूखंड से टायरानेसौरस रेक्स के कंकाल सहित कई बड़ी खोजें कीं। जिसमें सबसे अनोखी खोज थी डायनासौर के कंकालों की एक जोड़ी, जिसे देखने पर लगता है कि वे दोनों लड़ते हुए मारे गए थे।

ज़मीन बेचते समय सेवरसन बंधु ने उक्त भूमि के नीचे दबे खनिज पर दो तिहाई मालिकाना हक अपने पास रखा था। इसलिए इस खोज के बाद उन्होंने इन जीवाश्म पर आंशिक मालिकाना हक का दावा किया। गौरतलब है कि यूएस के कुछ प्रांतों में भूमि का स्वामित्व और उसके नीचे दबे तेल, गैस या अन्य खनिजों का स्वामित्व अलग-अलग लोगों या संस्थाओं का हो सकता है। इस मामले में संघीय जिला अदालत ने मरे दम्पति के पक्ष में फैसला सुनाया। लेकिन सेवरसन बंधु की याचिका पर तीन सदस्यों की एक अदालत में दो सदस्यों ने कहा कि जीवाश्म पर अधिकार खनिज मालिकों का है। पुन: सुनवाई की गुहार लगाने पर अदालत ने सुनवाई के पहले मामला मोन्टाना सुप्रीम कोर्ट भेज दिया। शीर्ष अदालत ने पिछले फैसले को पलटते हुए कहा कि उसमें ‘जीवाश्म’ और ‘खनिज’ को एक श्रेणी में रखने की गलती की गई थी। शब्दों के सामान्य और व्यावहारिक अर्थ के अनुसार मरे दम्पति की भूमि पर प्राप्त डायनासौर के जीवाश्म खनिज नहीं हैं।

यह फैसला वैज्ञानिकों के लिए एक जीत है। वैज्ञानिकों की चिंता थी कि यदि जीवाश्मों को खनिज अधिकारों के साथ जोड़कर देखा जाएगा तो खुदाई करने की अनुमति प्राप्त करना मुश्किल हो सकता है और जो जीवाश्म पहले प्राप्त हो चुके हैं उनके मालिकाना हक पर भ्रम पैदा हो सकता है।

हालांकि 2019 में ही मोन्टाना विधायिका ने एक कानून पारित कर दिया था जिसके तहत कहा गया था कि जीवाश्म पर अधिकार भू-स्वामियों का होगा। अब कोर्ट का यह फैसला हक की इस जंग का अंतिम वार रहा।

इंडियाना युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी डेविड पॉली कहते हैं कि हालांकि यह फैसला अन्य राज्यों पर लागू नहीं होता लेकिन यह फैसला इस मायने में अहमियत रखता है कि यदि ऐसे मुद्दे फिर उठे तो इस फैसले को नज़ीर के तौर पर पेश किया जा सकता है।

इस फैसले से उक्त जीवाश्म की बिक्री का रास्ता साफ हो जाएगा जिसका अनुबंध मरे दम्पति ने एक म्यूज़ियम से किया है। इससे वैज्ञानिकों को एक और बड़ी राहत मिलेगी कि डायनासौर के जीवाश्म निजी संग्रहकर्ताओं के हाथ में जाने से बच जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19: न टीका चाहिए, न सामूहिक प्रतिरोध – मिलिंद वाटवे

मैंने पहले एक लेख में कहा था कि इस बात की प्रबल संभावना है कि वर्तमान महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस (SARS-Cov-2) का विकास इस तरह होगा कि उसकी उग्रता या अनिष्टकारी प्रवृत्ति कम होती जाएगी। मुझे ऐसी उम्मीद इसलिए है कि एक ओर तो लगभग सारे देश सारे ज्ञात कोरोना-पॉज़िटिव प्रकरणों में सख्त क्वारेंटाइन लागू कर रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर, हम बहुत व्यापक परीक्षण नहीं करवा पाएंगे, जिसका परिणाम यह होगा कि बहुत सारे प्रकरणों में लक्षण-रहित व्यक्तियों की जांच नहीं हो पाएगी। ये लोग घूमते-फिरते रहेंगे और वायरस को फैलाते रहेंगे।

वायरस बड़ी आबादी तक पहुंचता है और इसकी उत्परिवर्तन की दर भी काफी अधिक होती है। इस वजह से तमाम परिवर्तित रूप उभरते रहेंगे। जो किस्में अधिक उग्र व अनिष्टकारी होंगी, वे गंभीर संक्रमण पैदा करेंगी, जिसके चलते ऐसे मरीज़ों की जांच होगी और उन्हें क्वारेंटाइन किया जाएगा।

दूसरी ओर, कम उग्र रूप लक्षण-रहित या हल्के-फुल्के लक्षणों वाले संक्रमण पैदा करेंगे, जो शायद स्क्रीनिंग और उसके बाद होने वाले क्वारेंटाइन से बच निकलेंगे। इसका मतलब है कि ये फैलते रहेंगे। वायरस की कई पीढियों, जो बहुत लंबी अवधि नहीं होती, में प्राकृतिक चयन कम उग्र रूपों को तरजीह देगा।

जहां वायरस सम्बंधी सारा अनुसंधान टीके के विकास, उसकी रोगजनक पद्धति या उपचार विकसित करने पर है, वहीं वायरस के जैव विकास पर कोई बात नहीं हो रही है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जैव विकास के लिहाज़ से सोचने की तालीम ही नहीं दी जाती। दूसरा कारण यह है कि उग्रता/अनिष्टकारी प्रवृत्ति को नापना संभव नहीं है। वायरस के डीएनए का अनुक्रमण करना, उसके द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स का अध्ययन करना, संक्रमित व्यक्ति में एंटीबॉडी खोजना वगैरह आसान है। शोधकर्ता आम तौर वही करते हैं, जो सरल हो, न कि वह जो वैज्ञानिक दृष्टि से ज़्यादा प्रासंगिक हो।

चूंकि आप उग्रता में परिवर्तन को आसानी से नाप नहीं सकते, इसलिए इस पर आधारित परिकल्पना की कोई बात भी नहीं करता। मैं इसे विज्ञान में ‘प्रमाण-पूर्वाग्रह’ कहता हूं। यदि किसी परिकल्पना को सिद्ध करने या उसका खंडन करने के लिए प्रमाण जुटाना मुश्किल हो, तो लोग उसके बारे में चर्चा करने से कतराते हैं, क्योंकि उसके आधार पर शोध पत्र तो तैयार नहीं हो सकता। महत्व इस बात का नहीं होता कि कोई परिकल्पना जन स्वास्थ्य के लिहाज़ से वैज्ञानिक महत्व रखती है या नहीं बल्कि इस बात का होता है कि क्या आप शोध पत्र प्रकाशित कर पाएंगे।

अलबत्ता, विश्व स्तर पर रोग प्रसार के रुझान और भारतीय परिदृश्य से भी निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि वायरस की उग्रता कम हो रही है। यद्यपि संक्रमण बढ़ रहा है, लेकिन समय के साथ मृत्यु दर लगातार कम हो रही है। पैटर्न पर नज़र डालिए। मध्य अप्रैल से, हालांकि प्रतिदिन नए संक्रमित व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है, लेकिन प्रतिदिन मौतों की संख्या कम हुई है।

यही भारत में भी दिख रहा है। दरअसल, भारत में रोगी मृत्यु दर (यानी कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या के अनुपात में मौतें) पहले से ही कम थी। और यह दर लगातार कम हो रही है, हालांकि प्रतिदिन कुल मौतों की संख्या में गिरावट आना शेष है।

मैंने यहां भारत में प्रतिदिन रिपोर्टेड पॉज़िटिव केसेस को प्रतिदिन रिपोर्टेड मौतों के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया है। यह ग्राफ उस दिन से शुरू किया है जिस दिन प्रतिदिन मृत्यु का आंकड़ा 50 से ऊपर हो गया था। यह सही है कि दिन-ब-दिन उतार-चढ़ाव दिखते हैं लेकिन फिर भी मृत्यु में लगातार कमी की प्रवृत्ति स्पष्ट है।

अब यदि हम एक सरल सी मान्यता लेकर चलें कि यही प्रवृत्ति जारी रहेगी, तो हम कह सकते हैं कि भारत में 35 दिनों में कोविड-19  साधारण फ्लू जितना खतरनाक रह जाएगा। ज़ाहिर है, यह सरल मान्यता थोड़ी ज़्यादा ही सरल है, क्योंकि ग्राफ लगातार एक सरीखा नहीं रहेगा।

दूसरी शर्त यह है कि केस-मृत्यु दर को मृत्यु दर के तुल्य नहीं माना जा सकता। किसी बढ़ती महामारी में केस-मृत्यु दर मृत्यु दर को कम करके आंकती है। 35 दिन का उपरोक्त अनुमान थोड़ा आशावादी हो सकता है। हो सकता है थोड़ा ज़्यादा समय लगे लेकिन दिशा तसल्ली देती है। मैंने अपने कुछ चिकित्सक दोस्तों से यह भी सुना है कि अब सघन देखभाल की ज़रूरत वाले मरीज़ों की संख्या भी कम हो रही है।

टीके के परीक्षण और बड़े पैमाने पर उत्पादन में कई महीने लग जाएगे और यह तत्काल उपलब्ध नहीं हो पाएगा। और शायद यह जन साधारण के लिए बहुत महंगा साबित हो।

भारत जैसे विशाल देश के लिए सामूहिक प्रतिरोध (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल करना दूर की कौड़ी है और यह शायद एक-दो सालों में संभव न हो।

लेकिन इन दोनों चीज़ों से पहले संभवत: जैव विकास इस वायरस की जानलेवा प्रवृत्ति से निपट लेगा। इसमें कोई शक नहीं कि हमें क्वारेंटाइन को जारी रखना होगा और लक्षण-सहित मरीज़ों की बढ़िया चिकित्सकीय देखभाल करनी चाहिए लेकिन लक्षण-रहित व्यक्तियों को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वही हमें बचाने वाले हैं। हमें एकाध महीने इन्तज़ार करके देखना चाहिए कि क्या यह भविष्यवाणी सही होती है या नहीं। यदि यह गुणात्मक या मात्रात्मक रूप से सही साबित होती है तो चिकित्सा विज्ञान के लिए अच्छी दूरगामी सीख होगी। उग्रता प्रबंधन की रणनीति सार्वजनिक स्वास्थ्य नियोजन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यह पहली या आखरी बार नहीं है कि कोई नया वायरस प्रकट हुआ है। ऐसा तो होता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु जैव विकास की गतिशीलता को समझना निश्चित रूप से ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)

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चमगादड़ हमारे दुश्मन नहीं हैं

रावनी फिल्मों से लेकर सांस्कृतिक चित्रणों में चमगादड़ को हमेशा से एक निराधार भय से जोड़कर दिखाया गया है। और अब कोविड-19 महामारी का मुख्य रुाोत होने के कारण चमगादड़ और भी बदनाम हुए हैं। ऐसे में हो सकता है कि चमगादड़ों को खत्म करने के प्रयास किए जाएं। तब चमगादड़ों का संरक्षण करना कठिन हो जाएगा, साथ ही उनसे मिलने वाले महत्वपूर्ण लाभों की रक्षा करना भी मुश्किल हो जाएगा। संभावना तो यह भी है कि चमगादड़ों के खात्मे से नई परेशानियों खड़ी हो जाएं।

वास्तव में चमगादड़ों की कुछ रोगाणुओं के प्रति बहुत आक्रामक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है, जिसकी वजह से वायरस और भी घातक रूप में विकसित हो जाते हैं। ऐसे में मनुष्यों में यदि इस तरह का कोई वायरस प्रवेश कर जाता है तो यह जानलेवा बन सकता है।

लेकिन यहां चमगादड़ों से मिलने वाले लाभों पर बात करना भी आवश्यक है। चमगादड़ हमारे जंगलों को पुनर्जीवित करते हैं और उर्वरक प्रदान करते हैं। ये 300 से अधिक प्रजातियों की फसलों का परागण करते हैं। ककाओ, कपास, मकई और अन्य पौधों को कीटों से बचाते हैं। कम विकसित देशों में कीटों का सफाया करते हैं। जब अमेरिका के कृषि क्षेत्रों में कीटों का सफाया करने वाले चमगादड़ों की संख्या में कमी हुई थी तब कृषि क्षेत्रों में वाइट-नोज़ सिंड्रोम से शिशु रुग्णता और मृत्यु दर में तेज़ी से वृद्धि हुई थी क्योंकि कीटों से निपटने के लिए हानिकारक कीटनाशकों का छिड़काव बढ़ा था। चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले कीटनाशक प्रतिरोधी मच्छरों का भी भक्षण करते हैं।

भविष्य में सार्स और एबोला के जोखिम को कम करने के लिए चमगादड़ों को नुकसान पहुंचने से रोगों का खतरा बढ़ सकता है। पूर्व में इस तरह के असफल प्रयास पेरू, युगांडा, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया में किए जा चुके हैं।          

लेकिन अभी भी यह सवाल बना हुआ है कि आने वाली महामारियों को कैसे रोका जा सकता है। चमगादड़ों के संरक्षण की आवश्यकता है, साथ ही उनके क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को कम करके संक्रमण से बचा जा सकता है। उदाहरण के लिए जंगलों के कम होने से फलभक्षी चमगादड़ों का प्रवास बांग्लादेश के खजूर के पेड़ों पर हुआ और देखते ही देखते वहां निपाह वायरस का संक्रमण शुरू हो गया। लेकिन अपने मूल निवास में रहते हुए चमगादड़ों द्वारा पालतू जानवरों में वायरस के फैलने की संभावना न के बराबर है।

ऐसे में बड़े पैमाने पर उनके प्राकृतिक वास की बहाली से हम चमगादड़ों का संपर्क मनुष्यों और पालतू जानवरों से कम कर सकते हैं। इसके अलावा हम कृत्रिम आवास और देशी फलों के वृक्षों को विशेष रूप से उनके लिए लगा सकते हैं। इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके व्यापार को सीमित या समाप्त करने पर विचार करना चाहिए। यह मनुष्यों से चमगादड़ों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क को रोकने का सबसे आसान तरीका है। 

सौभाग्य से हमारे पास इस तरह के वायरसों से निपटने के कुछ नए तरीके सामने आ रहे हैं। आधुनिक जीनोम अनुक्रमण विधियों से चमगादड़-वायरस सम्बंध के रहस्यमयी क्षेत्र में कुछ रास्ता साफ हुआ। हालांकि टीकों और आधुनिक तकनीकों पर काम करने के साथ यह भी आवश्यक है कि हम चमगादड़ों को संरक्षित करने, उनकी उपस्थिति को स्वीकार करने और उनसे मिलने वाले लाभों के संदेश को लोगों तक पहुंचाएं ताकि स्वास्थ्यप्रद भविष्य संभव हो सके।(स्रोत फीचर्स)

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आधा मस्तिष्क भी काम करता है! – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

‘सिर में भूसा भरा है क्या?’ ऐसे ताने अक्सर यह जताने वाले होते हैं कि मस्तिष्क नहीं है। सही भी है अगर मस्तिष्क नहीं है तो शरीर मुर्दे के समान बिस्तर पर पड़ा रहता है जैसा अक्सर ब्रोन डेथ के मामले में होता है। मस्तिष्क हमारी चेतना, विचार, स्मृति, बोलचाल, हाथ-पैरों की गति और हमारे शरीर के भीतर अनेक अंगों के कार्य को नियंत्रित करता है। कुछ लोगों को लगता है कि उनका मस्तिष्क जानकारियों से ठूंस-ठूंस कर भरा है और उसका इंच भर हिस्सा भी निकालकर अलग कर दिया जाए तो मस्तिष्क कार्य नहीं कर सकेगा। तो ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जिसके पास आधा मस्तिष्क हो। तो क्या वह सामान्य क्रियाकलाप कर सकेगा या ज़िंदा भी बचेगा?

हेनरी के जन्म के कुछ ही घंटों के पश्चात मां मोनिका जोन्स यह समझ गई थी कि उनका नवजात बेटा एक दुर्लभ और गंभीर न्यूरोलॉजिकल समस्या से पीड़ित है। हेनरी के मस्तिष्क का एक तरफ का हिस्सा असामान्य रूप से बड़ा था और उसे प्रतिदिन सैकड़ों मिर्गी जैसे दौरे पड़ते थे। दवाएं भी बेअसर लग रही थी। फिर डॉक्टरों के सुझाव से अनेक ऑपरेशन का दौर साढ़े तीन माह की उम्र में प्रारंभ हुआ और 3 साल का होते-होते हेनरी आधा मस्तिष्क विहीन हो गया।

मस्तिष्क के ऑपरेशन की प्रक्रिया कोई नई नहीं है। 1920 में पहली बार मस्तिष्क का ऑपरेशन किया गया था जिसमें मस्तिष्क का कैंसर युक्त हिस्सा निकालकर अलग कर दिया गया था। उसके बाद कई ऑपरेशन किए जा चुके हैं। यह ज्ञात है कि यदि किसी बच्चे का आधा मस्तिष्क बीमारियों के कारण ठीक से कार्य नहीं कर पाता है तो ऑपरेशन करके निकाल देने पर भी वह भला चंगा होकर पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना जैसे सामान्य कार्य कर लेता है। आधे मस्तिष्क को सही तरीके से कार्य करता देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हैं।

मोटे तौर पर आधे मस्तिष्क वाले ऐसे मरीज़ों में से 20 प्रतिशत तो वयस्क होकर सामान्य रोज़गार भी प्राप्त कर लेते हैं। शोध पत्रिका सेल रिपोट्र्स में प्रकाशित एक हालिया शोध से पता चलता है कि आधे मस्तिष्क में पुनर्गठन के कारण कुछ व्यक्ति पहले की तरह ठीक हो जाते हैं।

कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत संज्ञान वैज्ञानिक डॉरिट किलमैन कहते हैं कि मस्तिष्क बहुत ही लचीला यानी अपने कार्य को पुनर्गठित करने में सक्षम होता है। यह मस्तिष्क की संरचना में अचानक उत्पन्न हुए नुकसान की भरपाई भी कर सकता है। कुछ मामलों में नेटवर्क खो चुके हिस्से के कार्य को शेष मस्तिष्क पूरी तरह अपना लेता है।

उपरोक्त अध्ययन को आंशिक रूप से एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा वित्त पोषित किया गया। श्रीमती जोन्स और उनके पति ने यह संगठन ऐसे मरीज़ों की मदद के लिए बनाया था जो मिर्गी जैसे दौरे रोकने के लिए ऑपरेशन कराने के इच्छुक थे। अध्ययन के निष्कर्ष बड़े बच्चों में भी आधा मस्तिष्क निकालने के संदर्भ में उत्साहवर्धक हैं।

सेरेब्राम मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है। यह वाणि, विचार, भावनाएं, पढ़ने, लिखने और सीखने तथा मांसपेशियों के कार्यों को नियंत्रित करता है। इसका दायां भाग शरीर के बार्इं ओर की मांसपेशियों और बायां भाग शरीर के दार्इं ओर की मांसपेशियों को नियंत्रित करता है। यद्यपि सेरेब्राम के दोनों भाग (हेमीस्फीयर) दिखने में एक जैसे दिखते हैं किन्तु कार्य में एक-से नहीं होते। इसका बायां भाग उन कार्यों को भी करता है जिनमें तर्क लगते हैं जैसे विज्ञान और गणित की समझ। जबकि दायां भाग अन्य कार्यों के अलावा रचनात्मक और कला से सम्बंधित कार्यों को नियंत्रित करता है। सेरेब्राम के दोनों आधे भाग कार्पस केलोसम से जुड़े हुए होते हैं। मस्तिष्क का यह भाग ऊपर से सपाट न होकर कई दरारों एवं उभारों से मिलकर बनता है और अखरोट जैसी संरचना वाला होता है। राइट हेंडेड व्यक्तियों में सेरेब्राम का बायां भाग प्रभावी होता है तथा मुख्य रूप से भाषा की समझ, बोलने को नियंत्रण करता है।

ऐसे लोग जिनका हेमिस्फेरोक्टोमी (सेरेब्राम का आधा हिस्सा निकाल देने का ऑपरेशन) हुआ हो, सामान्य व्यक्ति की तरह ही दिखते और व्यवहार करते हैं। पर मेग्नेटिक रेसोनेन्स इमेजिंग (एम.आर.आई.) की रिपोर्ट बताती है कि उनके मस्तिष्क का आधा भाग बचपन में ही निकाल दिया गया था। यह ज्ञात होते ही ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्तियों का सामान्य कार्य करना असंभव है। खास कर जब इसकी तुलना ह्मदय जैसे किसी अंग से की जाए।

क्या ह्मदय को दो बराबर हिस्सों में बांटने पर वह कार्य कर पाएगा? बिलकुल नहीं। आप अपने मोबाइल को अगर दो हिस्सों में बांट दे तो यह काम नहीं करेगा। इस प्रकार मस्तिष्क के बहुत से कार्य ऐसे हैं जहां सेरेब्राम के दोनों भाग मिलकर कार्य करते हैं जैसे चेहरे की पहचान। परंतु हाथ हिलाने जैसे कार्य मस्तिष्क के एक भाग से होते हैं। एक मधुर संगीत के लिए गायक और अनेक वाद्य यंत्रों की जुगलबंदी ज़रूरी है। लगभग ऐसा ही मस्तिष्क के भागों का कार्य है। इस सबकी बजाय शोधकर्ताओं ने पाया कि सामान्य कनेक्शन की तुलना में आधे बचे मस्तिष्क ने बचे हुए कनेक्शन को मज़बूत किया और तंत्रिकाओं के बीच बेहतर तालमेल एवं संवाद बैठाया। यह बिल्कुल उस परिस्थिति के जैसा था जहां युगल गीत के कार्यक्रम में जोड़ीदार की अनुपस्थिति में एक ही गायक ने महिला एवं पुरुष दोनों की आवाज निकालकर गाना गाया हो। वैसे ही मस्तिष्क के भाग भी मल्टीटाÏस्कग यानी बहु-कार्य करने लगे थे।

शोधकर्ताओं के लिए ये परिणाम उत्साहजनक हैं और वे अभी भी इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं। लगभग 200 बच्चों में मस्तिष्क के ऑपरेशन करने वाले बाल न्यूरोलाजिस्ट डॉ. अजय गुप्ता कहते हैं कि मस्तिष्क परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालने में बेहद कामयाब रहता है। अक्सर हेमिस्फेरेक्टोमी के ऑपरेशन्स 4 या 5 वर्ष की आयु के बच्चों में बेहद सफल रहे हैं क्योंकि बड़े होने से पहले उनका मस्तिष्क कमियों की पूर्ति कर लेता है। यद्यपि दौरे पड़ने वाले वयस्क मरीज़ों में मस्तिष्क का ऑपरेशन अंतिम उपाय ही माना जाता है।

बच्चों में भी ये ऑपरेशन बेहद गंभीर होते हैं। मस्तिष्क के निकले हुए हिस्से में तरल भरने से लगातार सिर दुखने जैसी अवस्था बनी रहती है। ऑपरेशन के बाद बच्चे कमज़ोर हो जाते हैं और एक तरफ के हाथ-पैर पर नियंत्रण नहीं रह पाता है। इसके अलावा एक तरफ का दिखना बंद हो सकता है तथा आवाज़ किस दिशा से आ रही है यह बोध भी नहीं हो पाता है। बच्चे की शिक्षा के दौरान पढ़ने, लिखने और गणित पर ज़्यादा ध्यान देना होता है। वयस्क होते-होते ऐसे बच्चे मस्तिष्क के द्वारा मल्टी टास्किंग अपनाने के कारण सामान्य हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19: वैकल्पिक समाधान – भारत डोगरा

विश्व स्तर पर कोविड-19 के कारण कई देशों में लॉकडाउन लगने व इस कारण बढ़ते आजीविका संकट व अन्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत सहित विश्व के कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस वैश्विक संकट का सामना करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण वैकल्पिक सुझाव दिए हैं।

आठ वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में एक समीक्षा लेख कोविड-19 पेंडेमिक ए रिव्यू ऑफ दी करंट एविडेंस शीर्षक से लिखा है। इन वैज्ञानिकों में डॉ. प्रणब चटर्जी, नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी आठ वैज्ञानिक प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं। यह समीक्षा लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा गया है व विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।

ऊपर से आए आदेशों पर आधारित समाधान के स्थान पर इस समीक्षा लेख ने समुदाय आधारित, जन-केंद्रित उपायों में अधिक विश्वास जताया है। लॉकडाउन आधारित समाधान को एक अतिवादी सार्वजनिक स्वास्थ्य का कदम बताते हुए इस समीक्षा लेख ने कहा है कि इसके लाभ तो अभी अनिश्चित हैं, पर इसके दीर्घकालीन नकारात्मक असर को कम नहीं आंकना चाहिए। ऐसे अतिवादी कदमों का सभी लोगों पर सामाजिक, मनौवैज्ञानिक व आर्थिक तनाव बढ़ाने वाला असर पड़ सकता है जिसका स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। अत: ऊपर के आदेशों से जबरन लागू किए गए क्वारंटाइन के स्थान पर समुदायों व सिविल सोसायटी के नेतृत्व में होने वाले क्वारंटाइन व मूल्यांकन की दीर्घकालीन दृष्टि से कोविड-19 जैसे पेंडेमिक के समाधान में अधिक सार्थक भूमिका है।

आगे इस समीक्षा लेख ने कहा है कि ऊपर से लगाए प्रतिबंधों के अर्थव्यवस्था, कृषि व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल दीर्घकालीन असर बाद में सामने आ सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के तकनीकी व चिकित्सा समाधानों पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मज़बूत करने व समुदायों की क्षमता मज़बूत करने के जन केंद्रित उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इन वैज्ञानिकों ने कोविड-19 की विश्व स्तर की प्रतिक्रिया को कमज़ोर और अपर्याप्त बताते हुए कहा है कि इससे वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की तैयारी की कमज़ोरियां सामने आई हैं व पता चला है कि विश्व स्तर के संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी अभी कितनी अधूरी है। इस समीक्षा लेख ने कहा है कि कोविड-19 का जो रिस्पांस विश्व स्तर पर सामने आया है वह मुख्य रूप से एक प्रतिक्रिया के रूप में है व पहले की तैयारी विशेष नज़र नहीं आती है। शीघ्र चेतावनी की विश्वसनीय व्यवस्था की कमी है। अलर्ट करने व रिस्पांस व्यवस्था की कमी है। आइसोलेशन की पारदर्शी व्यवस्था की कमी है। इसके लिए सामुदायिक तैयारी की कमी है। ऐसी हालत में खतरनाक संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी को बहुत कमज़ोर ही माना जाएगा।

इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम तरीके से बचाना है तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो अपितु पहले से व आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। यदि ऐसी तैयारी विकसित होगी तो लोगों की कठिनाइयों व समस्याओं को अधिक बढ़ाए बिना समाधान संभव होगा।

इस समीक्षा लेख में दिए गए सुझाव निश्चय ही महत्वपूर्ण है व इन पर चर्चा भी हो रही है। मौजूदा नीतियों को सुधारने में ये सुझाव महत्वपूर्ण हैं। जन-केंद्रित, समुदाय आधारित नीतियां अपनाकर बहुत-सी हानियों और क्षतियों से बचा जा सकता है।

जर्मनी के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल माइक्रोबॉयोलॉजी एंड हाइजीन के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा. सुचरित भाकड़ी ने हाल ही में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने कोविड-19 के संक्रमण से निबटने के उपायों पर अति शीघ्र पुन: विचार करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि बहुत घबराहट की स्थिति में जो बहुत कठोर कदम उठाए गए हैं उनका वैज्ञानिक औचित्य ढूंढ पाना कठिन है। मौजूदा आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि किसी मृत व्यक्ति में कोविड-19 के वायरस की उपस्थिति मात्र के आधार पर इसे ही मौत का कारण मान लेना उचित नहीं है।

इससे पहले वैश्विक संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि कोविड-19 के विरुद्ध जो बेहद कठोर कदम उठाए गए हैं उनमें से कुछ बेहद असंगत, विवेकहीन और खतरनाक हैं जिसके कारण लाखों लोगों की अनुमानित आयु कम हो सकती है। इन कठेर कदमों का विश्व अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर हो रहा है जो अनगनित व्यक्तियों के जीवन पर बहुत बुरा असर डाल रहा है। स्वास्थ्य देखभाल पर इन कठोर उपायों के गहन प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं। पहले से गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीज़ों की देखभाल में कमी आ गई है या उन्हें बहुत उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। उनके पहले से तय ऑपरेशन टाल दिए गए हैं व ओपीडी बंद कर दिए गए हैं।

येल युनिवर्सिटी प्रिवेंशन रिसर्च सेंटर के संस्थापक-निदेशक डॉ. डेविड काट्ज़ ने न्यूयार्क टाइम्स में 20 मार्च 2020 को प्रकाशित लेख इज़ अवर फाइट अगेंस्ट कोरोना वायरस वर्स देन द डिसीज़? में कहा है कि “मेरी गहन चिंता है कि सामाजिक व आर्थिक स्तर पर एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ रहा है और सामान्य जीवन लगभग समाप्त हो गया है, स्कूल व बिज़नेस बंद हैं, अनेक अन्य बड़े प्रतिबंध हैं – इसका कुप्रभाव लंबे समय तक ऐसा नुकसान करेगा जो वायरस से होने वाली मौतों से बहुत ज़्यादा होगा। बेरोज़गारी, निर्धनता और निराशा से जन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा।”

सेंटर फॉर इन्फेक्शियस डिसीज़ रिसर्च एंड पॉलिसी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय के निदेशक मिशेल टी. आस्टरहोम ने वाशिंगटन पोस्ट में 21 मार्च 2020 के फेसिंग कोविड-19 रिएलिटी ए नेशनल लॉकडाउन इज़ नो क्योर में कहा है कि “यदि हम सब कुछ बंद कर देंगे तो बेरोज़गारी बढ़ेगी, डिप्रेशन आएगा, अर्थव्यस्था लड़खड़ाएगी। वैकल्पिक समाधान यह है कि एक ओर संक्रमण का कम जोखिम रखने वाले व्यक्ति अपना कार्य करते रहें, व्यापार एवं औद्योगिक गतिविधियों को जितना संभव हो चलते रहने दिया जाए लेकिन जो व्यक्ति संक्रमण की दृष्टि से ज़्यादा जोखिम की स्थिति में हैं वे सामाजिक दूरी बनाए रखने जैसी तमाम सावधानियां अपना कर अपनी रक्षा करें। इसके साथ स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमताओं को बढ़ाने की तत्काल ज़रूरत है। इस तरह हम धीरे-धीरे प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी कर पाएंगे और हमारी अर्थव्यवस्था भी बनी रहेगी जो हमारे जीवन का आधार है।”

जर्मन मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. फ्रेंक उलरिक मोंटगोमेरी ने कहा है, “मैं लॉकडाउन का प्रशंसक नहीं हूं। जो कोई भी इसे लागू करता है उसे यह भी बताना चाहिए कि पूरी व्यवस्था कब इससे बाहर निकलेगी। चूंकि हमें मानकर यह चलना है कि यह वायरस तो हमारे साथ लंबे समय तक रहेगा, अत: मेरी चिंता है कि हम कब सामान्य जीवन की ओर लौट सकेंगे।”

वर्ल्ड मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लियोनिद इडेलमैन ने हाल ही में वर्तमान संकट के संदर्भ में कहा कि सम्पूर्ण लॉकडाउन से फायदे की अपेक्षा नुकसान अधिक होगा। यदि अर्थव्यवस्था बाधित होगी तो बेशक स्वास्थ्य रक्षा के संसाधनों में भी कमी आएगी। इस तरह समग्र स्वास्थ्य व्यवस्था को फायदे की जगह नुकसान ही होगा।

जाने-माने वैज्ञानिकों के इन बयानों का एक विशेष महत्व यह है कि अति कठोर उपायों के स्थान पर ये हमें संतुलित समाधान की राह दिखाते हैं। विशेषकर समुदाय आधारित व जन-केंद्रित समाधानों के जो सुझाव हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और उन पर अधिक ध्यान देना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पारंपरिक विश्वास और आज का विज्ञान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा अभियान के केंद्रीय प्रभारी मंत्री ने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) से संपर्क करके यह सुझाव दिया था कि परिषद कोरोनावायरस के संक्रमण (कोविड-19) के इलाज में गंगाजल के उपयोग पर शोध करे। इस पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्पष्ट किया कि इस सम्बंध में उपलब्ध डैटा इतना पुख्ता नहीं है कि इसके नैदानिक परीक्षण शुरू किए जा सकें और इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया – क्या बात है!

लाखों लोग गंगा नदी को दुनिया की सबसे पवित्र और पूजनीय नदी मानते हैं। समुद्र तल से 3.9 कि.मी. या 13,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित, हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर के गौमुख से निकलने के बाद, रास्ते में कई धाराओं का जल अपने में समाहित करते हुए, हरिद्वार के पास देवप्रयाग में आकर यह गंगा नदी कहलाती है। गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों – उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होते हुए 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं। गंगा के किनारे बसे लोग (ज़्यादातर हिंदू, लेकिन कुछ अन्य भी) इसे पूजते हैं, इसमें स्नान करते हैं, और पूजा और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए इसका जल अपने घरों में रखते हैं (गंगाजल विदेशों में बेचा भी जाता है जैसे कैलिफोर्निया की भारतीय दुकानों में मैंने खुद देखा है)। गंगा मैया के प्रति लोगों की श्रद्धा और भक्ति ऐसी ही है।

पवित्र और अपवित्र

यह दुर्भाग्य है कि सदियों से हरिद्वार क्षेत्र में ही मानव अवशिष्ट निपटान और व्यवसायिक कारणों से गंगा का जल प्रदूषित होता जा रहा है। एप्लाइड वॉटर साइंस पत्रिका में आर. भूटानिया और उनके साथियों ने 2016 में जल गुणवत्ता सूचकांक के संदर्भ में हरिद्वार में गंगा नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का आकलन शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसे पढ़कर निराशा ही होती है। गंगा के प्रदूषण पर सबसे ताज़ा अध्ययन न्यूयॉर्क टाइम्स के 23 दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस आलेख में आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा गंगा के संदूषण और इसमें हानिकारक बैक्टीरिया, जो वर्तमान में उपयोग की जाने वाली एंटीबयोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी भी हैं, की उपस्थिति के बारे में प्रस्तुत रिपोर्ट का सार प्रस्तुत किया गया है। दूसरे शब्दों में, जहां से गंगा बहना शुरू होती है ठेठ वहीं से  इसका जल (गंगाजल) मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जैसे-जैसे यह आगे बहती है कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा इसमें डाल दिया जाता है, जिससे इसके पानी की गुणवत्ता और सुरक्षा और भी कम हो जाती है। और, हाल ही में पुण्य नगरी वाराणसी की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान लॉकडाउन के दौरान गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में 40-50 प्रतिशत सुधार हुआ है (इंडिया टुडे, 6 अप्रैल 2020)।

हमने यह लौकिक अनाचार होने कैसे दिया? निश्चित रूप से, गंगा जल का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग श्रद्धालु हैं; यहां तक कि कई उद्योगों के प्रमुख या मालिक भी गंगा को पवित्र मानते होंगे। और तो और, समय-समय पर इसके जल का पूजा में उपयोग करते होंगे। लेकिन फिर भी वे इसे प्रदूषित करते हैं। (यहां यह ज़रूरी नहीं कि ‘लौकिक’ शब्द इन लोगों के विश्वास को नकारता है बल्कि यह लोगों के सांसारिक सरोकार दर्शाता है, और यह  ‘अच्छाई बनाम बुराई’ या ‘देवता बनाम शैतान’ का मामला नहीं है)। दरअसल, ‘इससे मुझे क्या फायदा होगा’ वाला रवैया लोकाचार की दृष्टि से (और शायद नैतिक रूप से भी) गलत है। इस दोहरेपन के चलते लगता नहीं कि गंगा मैया का भविष्य स्वच्छ और सुरक्षित है।

डॉल्फिनघड़ियाल से सीख

वापस विज्ञान पर आते हैं। जैसा कि उल्लेख है गंगा में अत्यधिक ज़हरीले रोगाणु (और हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट) मौजूद हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसमें रहने वाली मछलियों की 140 प्रजातियां, उभयचरों की 90 प्रजातियां, सरीसृप, पक्षी, और गंगा नदी की प्रसिद्ध डॉल्फिन और घड़ियाल (मछली खाने वाले मगरमच्छ) इस प्रदूषित पानी का सामना कर पाते हैं, खासकर अब, जब यह कोविड-19 वायरस से भी संदूषित है। क्या उनके पास विशेष प्रतिरक्षा है, और क्या वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने के लिए इनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाते हैं? यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे मानव की रक्षा के लिए अपनाया जाना चाहिए।

ऐसे ही कुछ दिलचस्प अवलोकन लामा, ऊंट और शार्क जैसे जानवरों की प्रतिरक्षा के अध्ययनों में सामने आए हैं। साइंस पत्रिका के 1 मई 2020 के अंक में मिच लेसली बताते हैं कि जीव विज्ञानियों ने लामा के रक्त और आणविक सुपरग्लू की मदद से वायरस से लड़ने का एक नया तरीका खोजा है। यह देखा गया है कि लामा, ऊंट और शार्क की प्रतिरक्षा कोशिकाएं लघु एंटीबॉडी छोड़ती हैं जो सामान्य एंटीबॉडी से लगभग आधी साइज़ की होती हैं। मुख्य बात यह है कि ये जानवर लघु एंटीबॉडी बनाते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में आसानी से संश्लेषित किया जा सकता है और वायरस के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस बारे में विस्तार से बताता एक शोध पत्र हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉल्फिन के संदर्भ में सी. सेंटलेग और उनके साथियों का पेपर अधिक प्रासंगिक है। यह अध्ययन भूमध्यसागर और अटलांटिक सागर के केनेरी द्वीप के डॉल्फिन्स पर किया गया है। भूमध्य सागर अत्यधिक प्रदूषित है जबकि केनरी द्वीप का पानी शुद्ध है।

मुझे लगता है कि हम इन अध्ययनों से सीख सकते हैं। गंगा नदी की डॉल्फिन और घड़ियालों पर शोध करके उनकी लघु-एंटीबॉडी की पहचान कर सकते हैं, उन्हें लैब में संश्लेषित कर सकते हैं, और इन्हें कोविड-19 और ऐसे अन्य वायरसों से मनुष्य की सुरक्षा के लिए अपना सकते हैं। हैदराबाद स्थित डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी प्रयोगशाला, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी में यह शोध किया सकता है।

संगम कैसे हो

उपरोक्त मंत्री के विपरीत आयुष मंत्रालय के प्रभारी मंत्री का अनुरोध है कि अश्वगंधा, मुलेठी, गिलोय और पॉलीहर्बल औषधि (जिसे आयुष 64 कहते हैं) की कोविड-19 के खिलाफ रोग-निरोधन की प्रभाविता जांचने के लिए एक नियंत्रित रैंडम अध्ययन करवाया जाए। यह अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि पर्याप्त प्रमाण हैं कि पारंपरिक जड़ी-बूटियों और पादप रसायनों में चिकित्सकीय गुण होते हैं, और दवा कंपनियां उनके सक्रिय रसायनों को खोजकर, संश्लेषित करके उपयोग करती हैं। बहुविद एम. एस. वलियाथन पिछले दो दशकों से आयुर्वेद चिकित्सकों, जैव रसायनविदों,कोशिका जीव विज्ञानियों, आनुवंशिकीविदों और नैनोप्रौद्योगिकीविदों के साथ मिलकर आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके पारंपरिक औषधियों के प्रभावों को परखने का काम कर रहे हैं। (जैसे आप उनका 1 मार्च 2016 के प्रोसीडिंग्स ऑफ दी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में प्रकाशित पदक व्याख्यान ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान : पहला दशक’ पढ़ सकते हैं। इसमें वे आधुनिक विज्ञान की मदद से आयुर्वेद पर किए गए प्रयोगों, और उनके प्रमाणित परिणामों के बारे में बताते हैं।) 2012 में प्लॉस वन पत्रिका में वी. द्विवेदी का ऐसा ही एक पेपर ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर मॉडल पर पारंपरिक आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभावों का चिकित्सीय अनुप्रयोगों से सम्बंध प्रकाशित हुआ था। तो इस तरह से परंपरा और आज के विज्ञान का संगम संभव, वे साथ आ सकते हैं।

आयुष शायद कोविड-19 से लड़ सकता है, गंगा जल तो मात्र इसे धारण कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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महामारी के अगले दो वर्ष

वैसे तो कोई नहीं जानता कि कोविड-19 महामारी के अगले अंकों में क्या होने वाला है लेकिन अधिकांश विशेषज्ञ सहमत हैं कि यह महामारी लगभग दो साल जारी रहेगी। युनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के शोधकर्ताओं द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में वर्ष 1700 से लेकर अब तक की 8 फ्लू महामारियों की जानकारी के साथ कोविड-19 महामारी का डैटा भी शामिल किया गया है। 

इस रिपोर्ट के अनुसार SARS-CoV-2 (नया कोरोनावायरस) इन्फ्लुएंज़ा के वायरस की एक किस्म तो नहीं है लेकिन इसमें और फ्लू महामारी के वायरसों के बीच कुछ समानताएं हैं। दोनों ही श्वसन मार्ग के वायरस हैं जिनकी लोगों में कोई पूर्व प्रतिरक्षा उपस्थित नहीं है। दोनों ही लक्षण-रहित लोगों से अन्य लोगों में फैल सकते हैं। लेकिन अंतर यह है कि कोविड-19 वायरस अन्य फ्लू वायरस की तुलना में अधिक आसानी से फैलता नज़र आ रहा है और SARS-CoV-2 संक्रमणों का एक ज़्यादा बड़ा हिस्सा लक्षण-रहित लोगों से फैलाव के कारण हो रहा है।

इसके आसानी से फैलने की क्षमता को देखते हुए लगभग 60 प्रतिशत से 70 प्रतिशत आबादी को प्रतिरक्षा विकसित करना होगा, तभी हम हर्ड इम्यूनिटी यानी झुंड प्रतिरक्षा से लाभांवित हो पाएंगे। हालांकि इसमें अभी काफी समय लगेगा क्योंकि अभी कुल आबादी की तुलना में बहुत कम लोग इससे संक्रमित हुए हैं।

रिपोर्ट में कोविड-19 के भविष्य को लेकर तीन संभावित परिदृश्य प्रस्तुत किए गए हैं।

परिदृश्य 1: इस परिदृश्य में, वर्तमान कोविड-19 तूफान के बाद कुछ छोटे-छोटे सैलाबों की शृंखलाएं आएंगी। ये दो साल की अवधि तक निरंतर आती रहेंगी और धीरे-धीरे 2021 तक खत्म हो जाएंगी।

परिदृश्य 2: एक संभावना यह है कि 2020 के वसंत में प्रारंभिक लहर के बाद सर्दियों के मौसम में एक बड़ा सैलाब उभरे, जैसा कि 1918 की फ्लू महामारी में हुआ था। हो सकता है इसके बाद एक-दो छोटी लहरें 2021 में भी सामने आएं।

परिदृश्य 3: कोविड-19 की शुरुआती वसंती लहर के बाद इसके संक्रमण की रफ्तार कम हो जाए और आगे कोई विशेष पैटर्न नज़र न आए।

रिपोर्ट के अनुसार नई लहरों का सामना करने के लिए समय-समय पर अलग-अलग क्षेत्रो में आवश्यकतानुसार नियंत्रण के उपाय करने होंगे और छूट देना होगा ताकि स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ न पड़े। फिलहाल जो भी परिदृश्य उभरकर आता हो, हमें कम से कम 18 से 24 महीनों तक कोविड-19 की सक्रियता के लिए तैयार रहना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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महामारी का अंत कैसे होगा

कोरोनावायरस वुहान के नज़दीक पाए जाने वाले चमगादड़ की एक प्रजाति से किसी तरह एक अन्य मध्यवर्ती प्रजाति से मनुष्यों में प्रवेश कर गया। लेकिन अभी तक किसी को नहीं पता कि यह महामारी खत्म कैसे होगी। अलबत्ता, पूर्व की महामारियों से भविष्य के संकेत मिलते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की महामारीविद और जीवविज्ञानी सारा कोबे और अन्य विशेषज्ञों के अनुसार पूर्व के अनुभवों से पता चलता है कि आने वाला समय इस बात पर निर्भर करता है कि रोगाणु का विकास किस तरह होता है और उस पर मनुष्यों की जैविक और सामाजिक दोनों तरह की प्रतिक्रिया क्या रहती है।    

वास्तव में वायरस निरंतर उत्परिवर्तित होते रहते हैं। किसी भी महामारी को शुरू करने वाले वायरस में इतनी नवीनता होती है कि मानव प्रतिरक्षा प्रणाली उन्हें जल्दी पहचान नहीं पाती। ऐसे में बहुत ही कम समय में बड़ी संख्या में लोग बीमार हो जाते हैं। भीड़भाड़ और दवा की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि होती है। अधिकतर मामलों में तो प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा विकसित एंटीबॉडीज़ लंबे समय तक बनी रहती हैं, प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं और व्यक्ति से व्यक्ति में संक्रमण को रोक देती हैं। लेकिन इस तरह के परिवर्तनों में कई साल लग जाते हैं, तब तक वायरस तबाही मचाता रहता है। पूर्व की महामारियों के कुछ उदाहरण देखते हैं।

रोग के साथ जीवन

आधुनिक इतिहास का एक उदाहरण 1918-1919 का एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा प्रकोप है। उस समय डॉक्टरों और प्रशासकों के पास आज के समान साधन उपलब्ध नहीं थे और स्कूल बंद करने जैसे नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती थी कि उन्हें कितनी जल्दी लागू किया जाता है। लगभग 2 वर्ष और महामारी की 3 लहरों ने 50 करोड़ लोगों को संक्रमित किया था और लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मारे गए थे। यह तब समाप्त हुआ था जब संक्रमण से उबर गए लोगों में प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षा पैदा हो गई।

इसके बाद भी एच1एन1 स्ट्रेन कुछ हल्के स्तर पर 40 वर्षों तक मौसमी वायरस के रूप में मौजूद रहा। और 1957 में एच2एन2 स्ट्रेन की एक महामारी ने 1918 के अधिकांश स्ट्रेन को खत्म कर दिया। एक वायरस ने दूसरे को बाहर कर दिया। वैज्ञानिक नहीं जानते कि ऐसा कैसे हुआ। प्रकृति कर सकती है, हम नहीं।

कंटेनमेंट

2003 की सार्स महामारी का कारण कोरोनावायरस SARS-CoV था। यह वर्तमान महामारी के वायरस (SARS-CoV-2) से काफी निकटता से सम्बंधित था। उस समय की आक्रामक रणनीतियों, जैसे रोगियों को आइसोलेट करने, उनसे संपर्क में आए लोगों को क्वारेंटाइन करने और सामाजिक नियंत्रण से इस रोग को हांगकांग और टोरंटो के कुछ इलाकों तक सीमित कर दिया गया था।

गौरतलब है कि यह कंटेनमेंट इसलिए सफल रहा था क्योंकि इस वायरस के लक्षण काफी जल्दी नज़र आते थे और यह वायरस केवल अधिक बीमार व्यक्ति से ही किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित कर सकता था। अधिकांश मरीज़ लक्षण प्रकट होने के एक सप्ताह बाद ही संक्रामक होते थे। यानी यदि लक्षण प्रकट होने के बाद उस व्यक्ति को अलग-थलग कर दिया जाता तो संक्रमण आगे नहीं फैलता था। कंटेनमेंट का तरीका इतना कामयाब रहा कि इसके मात्र 8098 मामले सामने आए और सिर्फ 774 लोगों की ही मौत हुई। 2004 से लेकर आज तक इसका कोई और मामला सामने नहीं आया है।     

टीका

विशेषज्ञों के अनुसार 2009 में स्वाइन फ्लू का वायरस 1918 के एच1एन1 वायरस के समान ही था। हम काफी भाग्यशाली रहे कि इसकी संक्रामक और रोगकारी क्षमता बहुत कम थी और छह माह के अंदर ही इसका टीका विकसित कर लिया गया था।

गौरतलब है कि खसरा या चेचक के टीके के विपरीत, फ्लू के टीके कुछ वर्षों तक ही सुरक्षा प्रदान करते हैं। इन्फ्लुएंज़ा वायरस जल्दी-जल्दी उत्परिवर्तित होते रहते हैं, और इसलिए इनके टीकों को भी हर साल अद्यतन करने और नियमित रूप से लगाने की ज़रूरत होती है।

वैसे महामारी के दौरान अल्पकालिक टीके भी काफी महत्वपूर्ण होते हैं। 2009 के वायरस के खिलाफ विकसित टीके ने अगले जाड़ों में इसके पुन: प्रकोप को काफी कमज़ोर कर दिया था। टीके की बदौलत ही 2009 का वायरस ज़्यादा तेज़ी से 1918 के वायरस की नियति को प्राप्त हो गया। जल्दी ही इसे मौसमी फ्लू के रूप में जाना जाने लगा जिसके विरुद्ध अधिकतर लोग संरक्षित हैं – या तो फ्लू के टीके से या पिछले संक्रमण से उत्पन्न एंटीबॉडी द्वारा।  

वर्तमान महामारी

वर्तमान महामारी की समाप्ति को लेकर फिलहाल तो अटकलें ही हैं लेकिन अनुमान है कि इस बार पूर्व की महामारियों में उपयोग किए गए सभी तरीकों की भूमिका होगी – मोहलत प्राप्त करने के लिए सामाजिक-नियंत्रण, लक्षणों से राहत पाने के लिए नई एंटीवायरल दवाइयां और टीका।

सामाजिक दूरी जैसे नियंत्रण के उपाय कब तक जारी रखने होंगे यह तो लोगों पर निर्भर करता है कि वे कितनी सख्ती से इसका पालन करते हैं और सरकारों पर निर्भर करता है कि वे कितनी मुस्तैदी से प्रतिक्रिया देती हैं। कोबे का कहना है कि इस महामारी का नाटक 50 प्रतिशत तो सामाजिक व राजनैतिक है। शेष आधा विज्ञान का है।

इस महामारी के चलते पहली बार कई शोधकर्ता एक साथ मिलकर, कई मोर्चों पर इसका उपचार विकसित करने पर काम कर रहे हैं। यदि जल्दी ही कोई एंटीवायरल दवा विकसित हो जाती है तो गंभीर रूप से बीमार होने वाले लोगों या मृत्यु की संख्याओं को कम किया जा सकेगा।

स्वस्थ हो चुके रोगियों में SARS-CoV-2 को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडीज़ की जांच तकनीक से भी काफी फायदा मिल सकता है। इससे महामारी खत्म तो नहीं होगी लेकिन गंभीर रूप से बीमार रोगियों के उपचार में एंटीबॉडी युक्त रक्त का उपयोग किया जा सकता है। ऐसी जांच के बाद वे लोग काम पर लौट सकेंगे जो इस वायरस को झेलकर प्रतिरक्षा विकसित कर पाए हैं।  

संक्रमण को रोकने के लिए टीके की आवश्यकता होगी जिसमें अभी भी लगभग 1 साल का समय लग सकता है। एक बात स्पष्ट है कि टीका बनाना संभव है। और फ्लू के वायरस की अपेक्षा SARS-CoV-2 का टीका बनाना आसान होगा क्योंकि यह कोरोनावायरस है और इनके पास मानुष्य की कोशिकाओं के साथ संपर्क करके अंदर घुसने के रास्ते बहुत कम होते हैं। वैसे यह खसरे के टीके की तरह दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान तो नहीं करेगा लकिन फिलहाल तो कोई भी टीका मददगार होगा। 

जब तक दुनिया के हर स्वस्थ व्यक्ति को टीका नहीं लग जाता, कोविड-19 स्थानीय महामारी बना रहेगा। यह निरंतर प्रसारित होता रहेगा और मौसमी तौर पर लोगों को बीमार भी करता रहेगा, कभी-कभार गंभीर रूप से। अधिक समय तक बना रहा तो यह बच्चों को छुटपन में ही संक्रमित करने लगेगा। बचपन में बहुत गंभीर लक्षण प्रकट नहीं होते और ऐसा देखा जाता है कि बचपन में संक्रमित बच्चे वयस्क अवस्था में फिर से संक्रमित होने पर उतने गंभीर बीमार नहीं होते। अधिकांश लोग टीकाकरण और प्राकृतिक प्रतिरक्षा के मिले-जुले प्रभाव से सुरक्षित रहेंगे। लेकिन अन्य वायरसों की तरह SARS-CoV-2 भी लंबे समय तक हमारे बीच रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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