कोरोनावायरस
वुहान के नज़दीक पाए जाने वाले चमगादड़ की एक प्रजाति से किसी तरह एक अन्य मध्यवर्ती
प्रजाति से मनुष्यों में प्रवेश कर गया। लेकिन अभी तक किसी को नहीं पता कि यह
महामारी खत्म कैसे होगी। अलबत्ता, पूर्व की महामारियों से भविष्य के संकेत
मिलते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की महामारीविद और जीवविज्ञानी सारा कोबे और अन्य
विशेषज्ञों के अनुसार पूर्व के अनुभवों से पता चलता है कि आने वाला समय इस बात पर
निर्भर करता है कि रोगाणु का विकास किस तरह होता है और उस पर मनुष्यों की जैविक और
सामाजिक दोनों तरह की प्रतिक्रिया क्या रहती है।
वास्तव
में वायरस निरंतर उत्परिवर्तित होते रहते हैं। किसी भी महामारी को शुरू करने वाले
वायरस में इतनी नवीनता होती है कि मानव प्रतिरक्षा प्रणाली उन्हें जल्दी पहचान
नहीं पाती। ऐसे में बहुत ही कम समय में बड़ी संख्या में लोग बीमार हो जाते हैं।
भीड़भाड़ और दवा की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस संख्या में काफी तेज़ी से
वृद्धि होती है। अधिकतर मामलों में तो प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा विकसित एंटीबॉडीज़
लंबे समय तक बनी रहती हैं,
प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं और व्यक्ति से व्यक्ति में
संक्रमण को रोक देती हैं। लेकिन इस तरह के परिवर्तनों में कई साल लग जाते हैं, तब तक वायरस तबाही
मचाता रहता है। पूर्व की महामारियों के कुछ उदाहरण देखते हैं।
रोग
के साथ जीवन
आधुनिक
इतिहास का एक उदाहरण 1918-1919 का एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा प्रकोप
है। उस समय डॉक्टरों और प्रशासकों के पास आज के समान साधन उपलब्ध नहीं थे और स्कूल
बंद करने जैसे नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती थी कि उन्हें
कितनी जल्दी लागू किया जाता है। लगभग 2 वर्ष और महामारी की 3 लहरों ने 50 करोड़ लोगों को
संक्रमित किया था और लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मारे गए थे। यह तब समाप्त हुआ था जब संक्रमण से
उबर गए लोगों में प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षा पैदा हो गई।
इसके
बाद भी एच1एन1 स्ट्रेन कुछ हल्के
स्तर पर 40 वर्षों तक मौसमी वायरस के रूप में मौजूद
रहा। और 1957 में एच2एन2 स्ट्रेन की एक महामारी ने 1918 के
अधिकांश स्ट्रेन को खत्म कर दिया। एक वायरस ने दूसरे को बाहर कर दिया। वैज्ञानिक
नहीं जानते कि ऐसा कैसे हुआ। प्रकृति कर सकती है, हम नहीं।
कंटेनमेंट
2003 की सार्स महामारी का कारण कोरोनावायरस SARS-CoV
था। यह वर्तमान महामारी के वायरस (SARS-CoV-2) से काफी निकटता से
सम्बंधित था। उस समय की आक्रामक रणनीतियों, जैसे रोगियों को आइसोलेट करने, उनसे संपर्क में आए
लोगों को क्वारेंटाइन करने और सामाजिक नियंत्रण से इस रोग को हांगकांग और टोरंटो
के कुछ इलाकों तक सीमित कर दिया गया था।
गौरतलब
है कि यह कंटेनमेंट इसलिए सफल रहा था क्योंकि इस वायरस के लक्षण काफी जल्दी नज़र
आते थे और यह वायरस केवल अधिक बीमार व्यक्ति से ही किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित
कर सकता था। अधिकांश मरीज़ लक्षण प्रकट होने के एक सप्ताह बाद ही संक्रामक होते थे।
यानी यदि लक्षण प्रकट होने के बाद उस व्यक्ति को अलग-थलग
कर दिया जाता तो संक्रमण आगे नहीं फैलता था। कंटेनमेंट का तरीका इतना कामयाब रहा
कि इसके मात्र 8098 मामले सामने आए और सिर्फ 774 लोगों की ही मौत हुई। 2004 से
लेकर आज तक इसका कोई और मामला सामने नहीं आया है।
टीका
विशेषज्ञों
के अनुसार 2009 में स्वाइन फ्लू का वायरस 1918 के एच1एन1 वायरस के समान ही था। हम काफी भाग्यशाली रहे कि इसकी
संक्रामक और रोगकारी क्षमता बहुत कम थी और छह माह के अंदर ही इसका टीका विकसित कर
लिया गया था।
गौरतलब
है कि खसरा या चेचक के टीके के विपरीत, फ्लू के टीके कुछ वर्षों तक ही सुरक्षा
प्रदान करते हैं। इन्फ्लुएंज़ा वायरस जल्दी-जल्दी उत्परिवर्तित
होते रहते हैं,
और इसलिए इनके टीकों को भी हर साल अद्यतन करने और नियमित
रूप से लगाने की ज़रूरत होती है।
वैसे
महामारी के दौरान अल्पकालिक टीके भी काफी महत्वपूर्ण होते हैं। 2009 के वायरस के खिलाफ विकसित टीके ने अगले जाड़ों में इसके पुन: प्रकोप को काफी कमज़ोर कर दिया था। टीके की बदौलत ही 2009 का वायरस ज़्यादा तेज़ी से 1918 के
वायरस की नियति को प्राप्त हो गया। जल्दी ही इसे मौसमी फ्लू के रूप में जाना जाने
लगा जिसके विरुद्ध अधिकतर लोग संरक्षित हैं – या
तो फ्लू के टीके से या पिछले संक्रमण से उत्पन्न एंटीबॉडी द्वारा।
वर्तमान
महामारी
वर्तमान
महामारी की समाप्ति को लेकर फिलहाल तो अटकलें ही हैं लेकिन अनुमान है कि इस बार
पूर्व की महामारियों में उपयोग किए गए सभी तरीकों की भूमिका होगी – मोहलत प्राप्त करने के लिए सामाजिक-नियंत्रण, लक्षणों से राहत
पाने के लिए नई एंटीवायरल दवाइयां और टीका।
सामाजिक
दूरी जैसे नियंत्रण के उपाय कब तक जारी रखने होंगे यह तो लोगों पर निर्भर करता है
कि वे कितनी सख्ती से इसका पालन करते हैं और सरकारों पर निर्भर करता है कि वे
कितनी मुस्तैदी से प्रतिक्रिया देती हैं। कोबे का कहना है कि इस महामारी का नाटक 50 प्रतिशत तो सामाजिक व राजनैतिक है। शेष आधा विज्ञान का है।
इस
महामारी के चलते पहली बार कई शोधकर्ता एक साथ मिलकर, कई मोर्चों पर इसका
उपचार विकसित करने पर काम कर रहे हैं। यदि जल्दी ही कोई एंटीवायरल दवा विकसित हो
जाती है तो गंभीर रूप से बीमार होने वाले लोगों या मृत्यु की संख्याओं को कम किया
जा सकेगा।
स्वस्थ
हो चुके रोगियों में SARS-CoV-2 को निष्क्रिय करने
वाली एंटीबॉडीज़ की जांच तकनीक से भी काफी फायदा मिल सकता है। इससे महामारी खत्म तो
नहीं होगी लेकिन गंभीर रूप से बीमार रोगियों के उपचार में एंटीबॉडी युक्त रक्त का
उपयोग किया जा सकता है। ऐसी जांच के बाद वे लोग काम पर लौट सकेंगे जो इस वायरस को
झेलकर प्रतिरक्षा विकसित कर पाए हैं।
संक्रमण
को रोकने के लिए टीके की आवश्यकता होगी जिसमें अभी भी लगभग 1 साल
का समय लग सकता है। एक बात स्पष्ट है कि टीका बनाना संभव है। और फ्लू के वायरस की
अपेक्षा SARS-CoV-2 का टीका बनाना आसान
होगा क्योंकि यह कोरोनावायरस है और इनके पास मानुष्य की कोशिकाओं के साथ संपर्क
करके अंदर घुसने के रास्ते बहुत कम होते हैं। वैसे यह खसरे के टीके की तरह
दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान तो नहीं करेगा लकिन फिलहाल तो कोई भी टीका मददगार
होगा।
जब तक दुनिया के हर स्वस्थ व्यक्ति को टीका नहीं लग जाता, कोविड-19 स्थानीय महामारी बना रहेगा। यह निरंतर प्रसारित होता रहेगा और मौसमी तौर पर लोगों को बीमार भी करता रहेगा, कभी-कभार गंभीर रूप से। अधिक समय तक बना रहा तो यह बच्चों को छुटपन में ही संक्रमित करने लगेगा। बचपन में बहुत गंभीर लक्षण प्रकट नहीं होते और ऐसा देखा जाता है कि बचपन में संक्रमित बच्चे वयस्क अवस्था में फिर से संक्रमित होने पर उतने गंभीर बीमार नहीं होते। अधिकांश लोग टीकाकरण और प्राकृतिक प्रतिरक्षा के मिले-जुले प्रभाव से सुरक्षित रहेंगे। लेकिन अन्य वायरसों की तरह SARS-CoV-2 भी लंबे समय तक हमारे बीच रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/4B160AF6-5B13-4DEA-B8D20679284CC9FD_source.jpg?w=2000&h=1123&0E1A1816-14E4-40E9-87A1AF456A3FC538
लेख
की शुरुआत मैं एक गुज़ारिश के साथ करना चाहता हूं। हम अचानक ही मुश्किल और अनिश्चित
दौर से घिर गए हैं। अनजाने भविष्य का डर और आशंका बेचैनी पैदा कर रहे हैं। यह
सुनिश्चित करने के लिए कि इस डर को बढ़ाने में हमारा कोई योगदान ना हो,
हमें ध्यान देना चाहिए कि हम दूसरों के साथ कैसी जानकारी
साझा कर रहे हैं, खासकर सोशल मीडिया
और मैसेजिंग ऐप्स के ज़रिए। जब भी आप कुछ देखें या पढ़ें तो अपने आप से ये सवाल ज़रूर
करें: क्या
मुझे इस जानकारी पर भरोसा है? अगर यह जानकारी किसी
खास विषय से सम्बंधित है तो क्या मैं इसे परखने के लिए पर्याप्त जानकार हूं?
क्या दी गई जानकारी के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं?
क्या कहीं और भी यह बात कही गई है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) या स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में क्या कहता है?
क्या आपने व्हाट्सएप पर प्राप्त सरकारी आदेश का उनकी
आधिकारिक वेबसाइट पर जारी आदेश से मिलान किया है? यदि
थोड़ी भी शंका हो तो हमें संदेश साझा करने और आगे बढ़ाने से बचना चाहिए। वरना हम
लोगों को गलत जानकारी देंगे जो उन्हें जोखिम में डाल सकती है।
कोविड-19 महामारी कई लोगों के
लिए एक वरदान के रूप में आई है कि वे अपने अज्ञान को समझ व ज्ञान रूपी हथियार का
रूप देकर, प्राय: सांस्कृतिक गर्व का
मुलम्मा चढ़ाकर दुनिया के समक्ष पेश कर सकें। डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने कई लोगों को
विशेषज्ञ, विद्वान,
डॉक्टर और सर्वज्ञ बना दिया है। मोबाइल फोन और कुछ अन्य
माध्यमों के ज़रिए वे इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग बेतुकी और भ्रामक जानकारी
फैलाने में कर रहे हैं। इनमें कई बार ऐसी बकवास भी शामिल होती है जो आज़माने वालों
के लिए घातक हो सकती है।
कोरोनोवायरस
(SARS-CoV-2), कोविड-19 की शारीरिक महामारी
के साथ जुड़ी जानकारी की महामारी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। सबसे अधिक
बेतुकी बातें संक्रमण के इलाज और इससे बचाव के उपायों के बारे में कही जा रही हैं।
जिससे एक सवाल यह उठता है: गड़बड़
क्या है और ऐसा क्यों हो रहा है? सरल स्तर पर देखें
तो, सनसनीखेज़ सामग्रियां डर और उम्मीद के चलते
फैल रही हैं, और जीवित रहने के
लिए हमारे दिमाग की एक प्रवृत्ति खतरों को बड़े रूप में देखने की है। ऐसा अक्सर
महामारी, आपदाओं और युद्ध के
समय होता है। पर इस समय हालात को अधिक जटिल और खतरनाक बनाने वाले तीन कारक हैं: पहला,
इंटरनेट पर मौजूद असत्यापित अथाह ‘ज्ञान’ के भंडार तक आसान पहुंच;
दूसरा, डिजिटल मीडिया की
बदौलत प्रसार की तीव्र गति और आसान पहुंच; और
तीसरा, सामाजिक और राजनैतिक
ध्रुवीकरण जो साज़िश की परिकल्पनाओं को तथा भयंकर पक्षपाती अभिमान से भरे छद्म
वैज्ञानिक कथनों को जन्म देता है।
इनमें
सबसे प्रचलित हैं खांसी और ज़ुकाम या सामान्य प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए आज़माए
जाने वाले घरेलू नुस्खों का विस्तार। इनमें से कुछ उपाय तो गर्म पानी से गरारे
करने और गर्मागरम रसम पीने जैसे साधारण सुझाव हैं। इनका एक अन्य स्तर है स्व-परीक्षण;
जैसे एक संदेश कहता है कि यदि आप 10 सेकंड के लिए अपनी सांस रोक सकते हैं तो आप
संक्रमित नहीं हैं। इंटरनेट गलत सूचनाओं से भरा पड़ा है,
जिनसे आप चलते-चलते टकरा जाएंगे। गलत सूचनाओं तक संयोगवश पहुंचना कहीं
आसान है बनिस्बत प्रामाणिक जानकारी तक पहुंचने के, जिसे
खोजना पड़ता है और प्रामाणिकता को परखने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं।
गलत
सूचनाएं अक्सर आधिकारिक दिखने वाले दस्तावेज़ों और सील-ठप्पों के साथ पेश की जाती हैं। इनमें से
कुछ नामी पेशेवरों के हवाले से आती हैं; जैसे
एक प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट को यह कहते सुना गया था कि जिन व्यक्तियों में
संक्रमण के लक्षण दिख रहे हैं उन्हें, परीक्षण
किट की कमी के चलते, आठ दिनों के बाद ही
परीक्षण के लिए जाना चाहिए। इसके अलावा फेसबुक, ट्विटर
और सबसे कुख्यात व्हाट्सएप पर कई हास्यास्पद चीज़ें चल रही हैं। जैसे लहसुन
कोरोनावायरस को ठीक कर सकता है, या हर 15 मिनट में गर्म पानी
पीने से संक्रमण से बचा जा सकता है। सबसे अधिक रोमांचक सलाह शराब और गांजा का सेवन
करने की है; दावा है कि दोनों ही
वायरस को मार सकते हैं। अमेरिका में काफी प्रचलित सलाह है कि ‘चमत्कारी मिनरल घोल’ यानी ब्लीच वायरस का
सफाया कर सकता है। प्रसंगवश बता दें कि यह आपका भी सफाया हमेशा के लिए कर देगा।
मेसेजेस
ने इस विचार को भी बढ़ावा दिया है कि मास्क लगाने से वायरस से पूरी तरह सुरक्षित
रहा जा सकता है – यह
एक खतरनाक विचार है क्योंकि यह विचार एक मिथ्या आत्मविश्वास पैदा करता है और फिर
आपसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार करवाता है। इसके चलते उन लोगों के लिए मास्क की कमी भी
हो गई जिन्हें इनकी वाकई ज़रूरत थी। और अंत में, निश्चित
ही यह झूठी घोषणा थी कि सरकार ने पूरे इलाके में छिड़काव करके हवा में ही वायरस के
खात्मे का इंतजाम किया है।
यह
तब और भी चिंताजनक हो जाता है जब ये मूर्खतापूर्ण बातें आधिकारिक नीति बन जाती हैं: स्वास्थ्य मंत्रालय
सलाह देता है कि आयुर्वेदिक, यूनानी और
होम्योपैथिक उपचार कोरोनोवायरस के ‘लक्षणों से निपटने’ में मददगार हैं! जबकि इस तरह के दावों का रत्ती भर
वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। फिर भी ये सरकार की ओर से ज़ारी किए गए हैं। विशेषज्ञों
द्वारा इस पर आपत्ति उठाने पर मंत्रालय ने ‘स्पष्टीकरण’ दिया है कि यह सलाह ‘सामान्य’ वायरस संक्रमण के संदर्भ में जारी की गर्इं
है।
यदि
कोई इन ‘उपचारों’ को अपना ले तो
परिणाम भयावह होंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कोरोनोवायरस के इलाज के
लिए क्लोरोक्वीन और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के उपयोग की वकालत की है। जब उनसे इस
बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब दिया कि “मैं एक ऐसा आदमी हूं जो बहुत सकारात्मक सोच
रखता हूं, विशेष रूप से इन
दवाओं के मामले में। यह सिर्फ एक एहसास है, सिर्फ
एक एहसास है। मैं एक स्मार्ट आदमी हूं।”
इन
दवाओं की प्रभाविता के बारे में केवल कहे-सुने प्रमाण उपलब्ध हैं और इन्हें लेकर
परीक्षण चल रहे हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा पहले ही इस ‘उपचार’ की पैरवी ने मुश्किल
खड़ी कर दी है: इन
दवाओं की जमाखोरी से इनकी उपलब्धता उन लोगों के लिए कम हो गई है जिन्हें अन्य
बीमारियों के इलाज में इनकी ज़रूरत है। लोग कोरोनोवायरस से अपने को बचाने के लिए अब
खुद ही इन अत्यधिक ज़हरीली दवाओं का सेवन रहे हैं, जिसके
कारण एरिज़ोना और नाइजीरिया में मौतें भी हो चुकी हैं। इसी तरह के हालात भारत में
भी बन सकते हैं।
साज़िश
परिकल्पनाओं की भी कोई कमी नहीं है। एक प्रचलित बयान यह है कि कोरोनावायरस 5-जी मोबाइल तकनीक के
परिणामस्वरूप उपजा है; यह वायरस के माध्यम
से लोगों को बीमार करता है। मलेशियाई सरकार को अपने नागरिकों को आश्वस्त करना पड़ा
कि यह वायरस लोगों को रक्त-पिपासु दैत्य में नहीं बदलेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका में
दक्षिणपंथी लोगों ने सोशल मीडिया पर इस तरह की पोस्ट की बाढ़ लगा दी है कि
कोरोनावायरस ट्रम्प विरोधी हिस्टीरिया पैदा करने की और ‘देश को अस्थिर करने’ की साज़िश है। इस डर को हवा दी जा रही है कि
डब्लूएचओ ‘राष्ट्रों
को नियंत्रित कर रहा है और कई लोगों को मारने के लिए जबरन टीके लगाए जाएंगे।’ इसका एक परिणाम इस
रूप में सामने आ रहा है कि दक्षिण-पंथी रुझान वाले नागरिक इस महामारी को गंभीरता से नहीं ले
रहे हैं, और लापरवाही भरा
व्यवहार कर रहे हैं, जैसे बाहर खाना खाना
या हाथ मिलाना (यह
साबित करने के लिए कि वे सख्त हैं)।
ज़्यादा
गहरे स्तर पर दक्षिणपंथी लोग “वायरस के कारण और उसकी उत्पत्ति के बारे में साज़िश-सिद्धांत पेश कर रहे
हैं, और इन मनगढ़ंत कहानियों का उपयोग
आप्रवासियों, अल्पसंख्यकों या
उदारवादी लोगों को बलि का बकरा बनाने हेतु कर रहे हैं।” चीनी मूल के अमेरिकी नागरिकों के साथ
दुव्र्यवहार की खबरें तो सामने आ भी चुकी हैं क्योंकि ट्रम्प ने “चीनी वायरस” शब्द प्रचलित कर
दिया है। भारत में भी, पूर्वोत्तर राज्यों
के नागरिकों पर इसी तरह के नस्लवादी हमले किए गए हैं। चीन को एक दैत्य साबित करने
के लिए कहा जा रहा है कि वह अपने ही नागरिकों के प्रति अमानवीय और क्रूर व्यवहार
कर रहा है, और ऐसी (झूठी) रिपोर्टें पेश की जा
रही हैं कि चीन संक्रमित लोगों को मार रहा है।
लेकिन
यह पुराना सवाल बरकरार है: लोग
इन बकवास बातों में क्यों आ जाते हैं? एक
अन्य लेख में इस बात की चर्चा की गई है कि कैसे क्राउडसोर्सिंग द्वारा बकवास भी ‘ज्ञान’ बन जाता है। मोटे
तौर पर कहा जाए तो विभिन्न कारणों से आबादी के एक बड़े हिस्से के लोगों में
समीक्षात्मक कौशल की कमी के चलते कितनी भी हास्यास्पद या बकवास बात ‘विश्वसनीय’ बन जाती है। सही
शिक्षा तक लोगों की पहुंच के अभाव और आधारभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों की जानकारी की
कमी के कारण उनके पास लगातार मिल रही इन सूचनाओं की वैधता जांचने का कोई तरीका
नहीं होता। इसके अलावा सवाल करने की मानसिकता की अनुपस्थिति,
जो वैज्ञानिक स्वभाव का अंतर्निहित हिस्सा है,
के कारण वे जो भी देखते, पढ़ते
और सुनते हैं उसकी गहन पड़ताल नहीं कर पाते।
यहां
स्पष्ट रूप से दो तरह के परिदृश्य हैं
पहली
श्रेणी उन लोगों की है जो तार्किकता से शुरुआत तो करते हैं लेकिन एक समय बाद
प्रामाणिक से दिखने वाले नकली दस्तावेज़ों या वैज्ञानिक लगने वाले तर्कों में फंस
जाते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण यह बयान है कि होम्योपैथी कोरोनोवायरस से लड़ने के
लिए सभी अद्भुत दवाएं उपलब्ध करा रही है। इस तरह के दावे वैसी ही भाषा शैली का
उपयोग करते हैं जैसी कि आधुनिक चिकित्सा में उपयोग की जाती है,
जिससे होम्योपैथी चिकित्सा बिल्कुल इसके समान और इसका
विकल्प लगने लगती है। यह उस छद्म विज्ञान को ढंक देती है जिस पर होम्योपैथी आधारित
है। कोरोनोवायरस महामारी के इलाज और उसके टीके सम्बंधी ये दावे इस संक्रमण के
खिलाफ अजेयता का भ्रम पैदा कर सकते हैं।
‘जनता कर्फ्यू’ के मामले में सोशल
मीडिया पर एक छद्म वैज्ञानिक व्याख्या काफी प्रचलित है: किसी एक स्थान पर कोरोनोवायरस 12 घंटे जीवित रहता है
और जनता कर्फ्यू 14 घंटे
का है। इसलिए सार्वजनिक स्थलों या बिंदुओं को, जहां
कोरोनावायरस पड़ा रह गया होगा, यदि 14 घंटे तक छुआ नहीं
जाएगा तो इससे कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी। यह ना केवल अजीबो-गरीब तर्क है बल्कि
यह वायरस के जीवन काल के तथ्य के आधार पर भी गलत है। इस प्रकार के कर्फ्यू वायरस
के संपर्क में आने में कमी ला सकते हैं, और
आपातकालीन उपायों के हिसाब से यह एक अच्छा कदम हो सकता है,
लेकिन यह नहीं होगा कि ‘कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी’।
व्हाट्सएप
पर एक और बेतुका तर्क दिया जा रहा है कि भारत के 130 करोड़ लोग यदि एक समय,
एक साथ ताली और शंख बजाएंगे तो इतना कंपन पैदा होगा कि
वायरस अपनी सारी शक्ति खो देगा। यदि कुछ ट्वीट्स की मानें तो ऐसा करके हमें पहले
ही बड़ी सफलता मिल चुकी है क्योंकि “नासा SD13 तरंग डिटेक्टर ने ब्राहृाण्ड स्तरीय ध्वनि
तरंग डिटेक्ट की हैं और हाल ही में बनाए गए बायो-सैटेलाइट ने दिखाया है कि कोविड-19 स्ट्रेन घट रहा है
और कमज़ोर हो रहा है” और
वह भी सामूहिक शंखनाद के कुछ मिनटों बाद।
इससे
ज़्यादा ऊटपटांग बात कोई हो नहीं सकती। दूसरी ओर, सामाजिक
दूरी का विचार, जिसे सरकारें जी-जान से बढ़ावा देने
में जुटी हैं, तब हवा में उड़ गया
जब कई लोग राजनेताओं के आव्हान से उत्साहित होकर संक्रमण से लड़ने वाले
कार्यकर्ताओं के सम्मान में लोग ताली-थाली बजाने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर एक साथ जमा हो
गए। लेकिन ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है, हम
वास्तव में अपने आसपास इन कार्यकर्ताओं को नहीं चाहते क्योंकि इनके संक्रमित होने
की संभावना है। मकान मालिकों ने एयरलाइन कर्मचारियों और यहां तक कि चिकित्सा
पेशेवरों को घर खाली करने को कहा है – यह काफी निराशाजनक स्थिति दिखती है कि हम दूसरों की ज़िंदगी
को महत्व नहीं देते हैं, उनकी भी जो संकट के
समय हमारी सेवा करते हैं। जिन लोगों को क्वारेंटाइन किया गया है उनके प्रति
सहानुभूति में कमी और उनकी निजता पर आक्रमण और भी शर्मनाक है।
हम
वास्तव में सबसे भौंडा इतिहास बनते देख रहे हैं
दूसरा,
हमारे यहां कई ऐसे लोग हैं जो निहित रूप से अंधविश्वासों और
अतार्किक विश्वासों के प्रति संवेदी हैं। इसके लिए विचित्र धार्मिकता से लेकर इन
विश्वासों को मानने वाली संस्कृति में परवरिश जैसे कई कारण ज़िम्मेदार हैं। इन
मामलों में ज्ञान और जानकारी बुज़ुर्गों, समुदाय
प्रमुखों और धार्मिक गुरुओं से आंख मूंदकर प्राप्त की जाती है,
उस पर सवाल नहीं उठाए जाते; दिमागों
को सवाल उठाने या प्रमाण खोजने के लिए तैयार नहीं किया जाता। इसलिए इन लोगों को जो
कुछ भी सूचनाएं मिलती हैं, उसे मान लेते हैं,
और इससे भी अधिक तत्परता से उन सूचनाओं को मान लेते हैं जो
किसी भी किस्म के अधिकारियों – राजनीतिक नेताओं, धार्मिक
हस्तियों – से
प्राप्त हुई हैं। ‘गो
कोरोना गो’ का
एक वीडियो बीमारी से लड़ने में एक आशावादी मनोस्थिति बनाने का अच्छा साधन हो सकता
है लेकिन यह वीडियो एक मुगालता भी पैदा करता है कि कोरोनोवायरस को जाप से,
खासकर सामूहिक जाप से भगाया जा सकता है।
कोरोनावायरस
सम्बंधी इस तरह की बेतुकी बयानबाज़ी करने वाले अधिकतर वे लोग हैं जो धार्मिक और
राष्ट्रवादी गौरव से भरे होते हैं। यह वक्त, जो
महान राजनीतिक ध्रुवीकरण और तीव्र सामाजिक आक्रोश का गवाह है,
ने सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आख्यानों से पूर्ण दंभ के
उग्रवादी रूप को जन्म दिया है।
इसी
के चलते, गोमूत्र का उपयोग
कीटाणुनाशक के रूप में किया जा रहा है और बिना सोचे-समझे लोगों पर इसका छिड़काव किया जा रहा है।
दक्षिणपंथी राजनेताओं का दावा है कि गोमूत्र और गोबर कोरोनोवायरस का इलाज कर सकते
हैं, और हवन वायरस को मार सकता है। इनमें से कुछ
ने विशेष सभाओं का आयोजन किया जहां आमंत्रित लोगों को गोमूत्र पीने के लिए दिया
गया। कई ज्योतिष हमें बताते हैं कि हम अस्तित्व के संकट का सामना क्यों कर रहे हैं,
और यह कब दूर होगा। एक अन्य दावा कहता है कि प्राचीन भारतीय
योग के श्वसन का तरीका कोरोनावायरस के संक्रमण से बचा सकता है,
और यह भी कि आयुर्वेदिक चिकित्सा में प्रयुक्त अश्वगंधा ‘मानव प्रोटीन से
कोरोना प्रोटीन को जुड़ने नहीं देगी।’ इंडोनेशिया में मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया है कि वजू
करना वायरस को मार सकता है।
जो
लोग इनमें से किसी भी कथन को गंभीरता से लेते हैं और मानते हैं कि उनके पास
कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए उपाय है तो हो सकता है कि वे खुद को और दूसरों को
गंभीर खतरे में डाल रहे हैं।
हमें
घेरती जा रही इस अज्ञानता के और भी अधिक भयावह और दीर्घकालिक प्रभाव हैं। आक्रामक
शाकाहार-श्रेष्ठता
के उन्माद में स्वनामधन्य ज्ञान उड़ेला जा रहा है: कोरोनावायरस की उत्पत्ति चीन के ‘मांस बाज़ार’ से हुई,
जहां मारे गए जंगली जानवरों की विभिन्न प्रजातियां एक साथ
होती हैं, जिससे वायरस एक
प्रजाति से होते हुए दूसरी प्रजाति और अंतत: मनुष्य में आ गया। यह बात मांसाहार की कटु
आलोचना के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। मांस खाने वालों को दोष देते हुए कतिपय
सभ्यता की श्रेष्ठता के दावे किए जा रहे हैं और सभ्यता के घोर अनुयायी मांग कर रहे
हैं कि चीनी राष्ट्रपति कोरोनावायरस की प्रतिमा से क्षमा याचना करें कि उन्होंने
मांस खाया। संक्रमित मटन बाज़ार दिखाने वाले वीडियो भावनाओं को और भड़का रहे हैं। इस
प्रकार कोरोनावायरस मांस खाने वालों के खिलाफ प्रकृति का प्रतिशोध बन गया है। इससे
भारत में मुर्गियों की कीमत बहुत कम हो गई है, और
यह उद्योग आर्थिक संकट झेल रहा है।
सिर्फ
अनुशंसित वेबसाइटों (जैसे
डब्ल्यूएचओ) से
जानकारी प्राप्त करने की सलाह और गुज़ारिश किसी भी तरह से लोगों को गलत सूचना मानने
और आगे बढ़ाने से रोक नहीं रही है। हमें यह याद रखना चाहिए कि बहुत सी गलत सूचनाएं
जानबूझकर बरगलाने के लिए प्रचारित की जाती हैं, अक्सर
दक्षिणपंथी सांस्कृतिक लोगों द्वारा। जब तक हम इस सूचना की महामारी के “प्रसार की शृंखला” को नहीं तोड़ेंगे तब
तक यह जारी रहेगी।
लिहाज़ा,
डिजिटल मीडिया कई मायनों में उन मासूम लोगों के लिए एक
उपहार है जो उनको बताई गई किसी भी बकवास पर, और
उसे रचने वालों पर यकीन कर लेते हैं। फेसबुक से लेकर यूट्यूब तक के तमाम
प्लोटफार्म, जिन पर कोई भी कुछ
भी कह या लिख सकता है, वास्तव में इन्हें
उपयोग करने वाले सर्वज्ञाताओें (चाहें नादान हों या किसी मत के) के लिए मुफ्त में उपलब्ध हथियार की तरह है
जिसे किसी पर भी चलाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि पहले के ज़माने में दुनिया में
किसी तरह की मूर्खता नहीं थी लेकिन मूर्खता को सर्वव्यापी बनाने के साधन अनुपस्थित
थे, जिससे किसी बेतुकेपन के निर्माण और प्रसार
की गति सीमित थी।
बड़ी टेक कंपनियां गलत सूचना के प्रसार को रोकने की कोशिश कर रही हैं लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे खुद के बनाए गए विशालकाय जाल को नियंत्रित कर पाएंगी। आधुनिक तकनीक और दुनिया के असमीक्षात्मक, रूढ़िवादी सोच की जुगलबंदी हमें यह याद दिलाती है कि जो समाज अंधविश्वास को बढ़ावा देता है वह छद्म विज्ञान में लौट जाता है और तार्किकता को कम करता है। इस परिस्थिति का उपयोग सांस्कृतिक और राजनीतिक लड़ाई में हथियार के रूप में किया जाता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/5ea89d09b67f3800075cd1ab/960×0.jpg?fit=scale
आज
जलवायु परिवर्तन और बढ़ते वैश्विक तापमान की समस्या और इसके कारणों से हम वाकिफ हैं
और इसे नियंत्रित करने के प्रयास में लगे हैं। अब तक इस समस्या के कारण को समझने
का श्रेय जॉन टिंडल को दिया जाता है। लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के
विज्ञान इतिहासकार जॉन पर्लिन का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की हमारी समझ की नींव
रखने का श्रेय युनिस फुट को जाता है। फुट ने कार्बन डाईऑक्साइड के ऊष्मीय प्रभाव
का अध्ययन किया था जो वर्ष 1856 में सूर्य की
किरणों की ऊष्मा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियां शीर्षक से प्रकाशित हुआ
था। जॉन टिंडल का कार्य तीन वर्ष बाद प्रकाशित हुआ था।
पर्लिन
बताते हैं कि 1856 में न्यूयॉर्क में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर
एडवांसमेंट ऑफ साइन्स की 10वीं वार्षिक बैठक
में फुट का पेपर प्रस्तुत किया गया था। तब महिलाओं को अपना काम प्रस्तुत करने की
अनुमति नहीं थी इसलिए उनके पेपर को एक अन्य वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया था। इसे
बैठक की कार्यावाही में नहीं बल्कि अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स में
एक लघु लेख के रूप में प्रकाशित किया गया था। अपने इस अध्ययन में उन्होंने नम और
शुष्क वायु, और
कार्बन डाईऑक्साइड,
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों पर सूर्य के प्रकाश का प्रभाव
देखा था। अध्ययन में फुट ने पाया कि सूर्य के प्रकाश का सर्वाधिक प्रभाव कार्बोनिक
एसिड गैस पर होता है। उनके अनुसार वायुमंडल में मौजूद इस गैस के कारण हमारी पृथ्वी
के तापमान में वृद्धि हुई होगी।
इस
बारे में 13 सितंबर के साइंटिफिक अमेरिकन के अंक
में वैज्ञानिक महिलाएं – संघनित
गैसों के साथ प्रयोग शीर्षक से एक लेख भी प्रकाशित हुआ था।
इसके एक साल बाद अगस्त 1857 में उन्होंने एक
अन्य अध्ययन प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने वायु पर बदलते दाब, ताप और नमी के
प्रभावों का अध्ययन किया और इसे वायुमंडलीय दाब और तापमान में होने वाले
परिवर्तनों से जोड़ा।
उन्होंने
कई आविष्कारों के पेटेंट के लिए आवेदन किए। अमेरिकी महिलाओं के मताधिकार और बंधुआ
मज़दूरी के खिलाफ आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही।
फुट के काम के बारे में पता चलने के बाद एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में काम कर रहे टिंडल अपने शोध प्रकाशन के समय फुट के काम से वाकिफ थे? पर्लिन का मत है कि टिंडल वाकिफ थे क्योंकि फुट के शोधपत्र की रिपोर्ट और सारांश कई युरोपीय पत्रिकाओं में पुन: प्रकाशित किए गए थे। रॉयल इंस्टीट्यूशन में अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स पत्रिका पहुंचती थी और नवंबर 1856 के जिस अंक में फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, उसी में वर्णांधता पर टिंडल का भी एक लेख छपा था। दी फिलॉसॉफिकल मैगज़ीन में भी फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, जिसके संपादक टिंडल थे। इसके अलावा, फुट के लेख का सार जर्मन भाषा में साल की महत्वपूर्ण खोज के संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ था। टिंडल जर्मन भाषा के जानकार थे। पर्लिन का कहना है कि फुट को उनके काम का श्रेय ना मिलने की पहली वजह तो यह हो सकती है कि वे ये प्रयोग शौकिया तौर पर करती थीं; दूसरा, उस वक्त तक अंग्रेज़ अपने को अमरीकियों से श्रेष्ठ मानते थे; और तीसरा, कि वह एक महिला थीं। टिंडल खुद महिलाओं के मताधिकार के विरोधी थे और महिलाओं का बौद्धिक स्तर पुरुषों से कम मानते थे। बहरहाल, पर्लिन का मत है कि फुट को जलवायु परिवर्तन की समझ की जननी के रूप में जाना जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://rosslandtelegraph.com/sites/default/files/newsimages/rosslandtelegraphcom/mar/eunice_newton_foote_climatescience.png
क्या
आपको कभी ऐसा आभास हुआ है कि जो दृश्य आप अभी देख रहे हैं वह पहले भी देख चुके हैं
या जो घटना अभी आपके साथ घट रही है हू-ब-हू
वही घटना आपके साथ पहले भी घट चुकी है। यदि आपने ऐसा महसूस किया है तो इस आभास को देजा
वू कहते हैं। देजा वू फ्रेंच शब्द है जिसका मतलब है ‘पहले देखा गया’। लेकिन देजा वू
का एहसास होता क्यों है?
आम
तौर पर इस एहसास को रहस्यमयी और असामान्य माना जाता है। अलबत्ता,
इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने कई अध्ययन किए हैं।
प्रायोगिक तौर पर सम्मोहन और आभासी यथार्थ के इस्तेमाल से ऐसी स्थितियां उत्पन्न
की गई हैं जिनमें देजा वू का एहसास हो।
इन
प्रयोगों से वैज्ञानिकों का अनुमान था कि देजा वू एक स्मृति आधारित घटना
है। यानी देजा वू में हम एक ऐसी स्थिति का सामना करते हैं जो हमारी किसी
वास्तविक समृति के समान होती है। लेकिन उस स्मृति को हम पूरी तरह याद नहीं कर पाते
हैं तो हमारा मस्तिष्क हमारे वर्तमान और अतीत के अनुभवों के बीच समानता पहचानता
है। और हमें एहसास होता है हम इस स्थिति से परिचित हैं। इस व्याख्या से इतर,
अन्य सिद्धांत भी हैं जो यह समझाने का प्रयास करते हैं कि
हमारी स्मृति ऐसा व्यवहार क्यों करती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह हमारे मस्तिष्क
के कनेक्शन में घालमेल का नतीजा है जो लघुकालीन स्मृति और दीर्घकालीन स्मृति के
बीच गड़बड़ पैदा कर देता है। इसके फलस्वरूप, बनने
वाली नई स्मृति लघुकालीन स्मृति में बने रहने की बजाय सीधे दीर्घकालीन समृति में
चली जाती है। जबकि कुछ लोगों का कहना है कि यह राइनल कॉर्टेक्स के कारण होता है जो
मस्तिष्क में किसी स्मृति के नदारद होने पर भी कभी-कभी इसके होने के संकेत देता है। राइनल
कॉर्टेक्स मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो परिचित स्थिति महसूस होने के संकेत देता
है।
एक
अन्य सिद्धांत के अनुसार देजा वू झूठी यादों से जुड़ा मामला है,
ऐसी यादें जो वास्तविक महसूस होती हैं लेकिन होती नहीं। ठीक
सपने और वास्तविक घटना की तरह।
एक अन्य अध्ययन में 21 लोगों को देजा वू का एहसास कराया गया और उस समय उनके मस्तिष्क का fMRI की मदद से स्कैन किया गया। इस अध्ययन में दिलचस्प बात यह पता चली कि देजा वू के वक्त मस्तिष्क का स्मृति के लिए ज़िम्मेदार हिस्सा, हिप्पोकैम्पस, सक्रिय नहीं था बल्कि मस्तिष्क का निर्णय लेने वाला हिस्सा सक्रिय था। वैज्ञानिक अब तक देजा वू को स्मृति से जोड़कर देख रहे थे। इन परिणाम के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि देजा वू हमारे मस्तिष्क में किसी तरह के विरोधाभास को सुलझाने के लिए उत्पन्न होता होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.ytimg.com/vi/ut8mYGi0YRs/maxresdefault.jpg
किसी
प्रजाति के लिए हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस किसी अन्य प्रजाति को संक्रमित करने
के लिए काफी तेज़ी से विकसित हो सकते हैं। कोरोनावायरस इसका सबसे नवीन उदाहरण है।
एक जानलेवा बीमारी का जनक यह वायरस जानवरों से मनुष्यों में आ पहुंचा है और शायद
मनुष्यों से जानवरों में भी पहुंच रहा है।
इस
तरह के प्रजाति-पार
संक्रमण पशु पालन के स्थानों पर या बाज़ार में शुरू हो सकते हैं जहां संक्रामक
जीवों के संपर्क को बढ़ावा मिलता है। ऐसी परिस्थिति में विभिन्न रोगजनक
सूक्ष्मजीवों के बीच जीन्स का लेन-देन हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है सामान्य जंतु-मनुष्य संपर्क के
दौरान कोई सूक्ष्मजीव प्रजाति की सीमा-रेखा पार कर जाए।
जंतुओं
से मनुष्यों में पहुंचने वाले रोगों को ज़ुऑनोसेस कहा जाता है। इनमें 3 दर्ज़न से अधिक रोग
तो ऐसे हैं जो सिर्फ स्पर्श से हमें संक्रमित कर सकते हैं जबकि 4 दर्ज़न से अधिक ऐसे
हैं जो जीवों के काटने से हमें मिलते हैं। इनमें कुछ रोग ऐसे भी हैं जो मनुष्यों
से जीवों में पहुंचते हैं। यहां एक से दूसरी प्रजातियों में फैलने वाली कुछ
जानलेवा बीमारियों पर चर्चा की गई है।
नया
कोरोनावायरस
नए
कोरोनावायरस (SARS-CoV-2) की पहचान दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत के सी-फूड बाज़ार में हुई
थी। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि यह चमगादड़ से आया है। उस बाज़ार में चमगादड़
नहीं बेचे जाते थे, इसलिए वैज्ञानिकों
ने माना कि इस वायरस के मानवों में संक्रमण के पीछे एक अज्ञात तीसरा जीव होना
चाहिए। कुछ अध्ययनों के आधार पर कहा जा रहा है कि यह मध्यवर्ती जीव पैंगोलिन हो
सकता है। लेकिन नेचर पत्रिका के अनुसार अवैध रूप से तस्करी किए गए पैंगोलिन से
प्राप्त नमूने SARS-CoV-2 से इतना मेल नहीं
खाते हैं जिससे इसकी पुष्टि एक मध्यवर्ती जीव के रूप में की जा सके। इसके पूर्व के
अध्ययनों में सांपों को इसका संभावित स्रोत माना गया था लेकिन सांपों में
कोरोनावायरस के संक्रमण की पुष्टि नहीं की गई है।
इन्फ्लुएंज़ा
महामारियां
वर्ष
1918 में
इन्फ्लुएंज़ा ने कुछ ही महीनों में 5 करोड़ लोगों की जान ली थी। विश्व की एक-तिहाई आबादी को संक्रमित करने वाला यह
इन्फ्लुएंज़ा वायरस (H1N1) पक्षी-मूल का था। मुख्य रूप से बुज़ुर्गों और
कमज़ोर प्रतिरक्षा तंत्र वाले लोगों की जान लेने वाले साधारण फ्लू के विपरीत H1N1 ने युवा व्यस्कों
को अपना शिकार बनाया था। ऐसा लगता है कि बुज़ुर्गों में पिछले किसी H1N1 संक्रमण के कारण
प्रतिरक्षा उत्पन्न हुई थी, और इस वजह से 1918 की महामारी में उन
पर ज़्यादा असर नहीं हुआ।
H1N1 वायरस (H1N1pdm09) का नवीनतम हमला 2009 में हुआ था जिसमें
अमेरिका में 6.08 करोड़
मामले सामने आए थे और 12,496
लोगों की मौत हुई थी। विश्व भर में मौतों की संख्या डेढ़ से
पौने छ: लाख
के बीच थी। यह वायरस सूअरों के झुंड में उत्पन्न हुआ था जहां आनुवंशिक पदार्थ की
अदला-बदली
के दौरान इन्फ्लुएंज़ा वायरसों का पुनर्गठन हुआ। यह प्रक्रिया उत्तरी अमेरिकी और
यूरेशियन सूअरों में प्राकृतिक रूप से होती रहती है।
प्लेग
14वीं सदी में ब्लैक
डेथ के नाम से मशहूर इस एक बीमारी के सामने कई सभ्यताओं ने घुटने टेक दिए थे।
युरोप से लेकर मिस्र और एशिया तक अनगिनत लोग मारे गए थे। उस समय 36 करोड़ की आबादी वाले
विश्व में 7.5 करोड़
लोग मारे गए थे। प्लेग एक बैक्टीरिया-जनित रोग है जो यर्सिनिया पेस्टिस नामक बैक्टीरिया
के कारण होता है। यह बैक्टीरिया चूहों (और शायद बिल्लियों) में रहता है और संक्रमित पिस्सुओं के काटने
से मनुष्यों में फैल जाता है। यह एक जानलेवा रोग है और आज भी यदि इसका इलाज न किया
जाए तो जानलेवा होता है।
14वीं शताब्दी का
प्लेग जिस बैक्टीरिया के कारण फैला था वह गोबी रेगिस्तान में वर्षों तक निष्क्रिय
रहने के बाद चीन के व्यापार मार्गों के माध्यम से युरोप,
एशिया और अन्य देशों में फैल गया। इसके लक्षणों में बुखार,
ठण्ड लगना, कमज़ोरी,
लसिका ग्रंथियों में सूजन और दर्द शामिल हैं। कई समाजों को
इससे उबरने में सदियां लगी थीं।
दंश
से फैलते रोग
कई
जंतु-वाहित
बीमारियां जानवरों द्वारा काटने से फैलती हैं। मच्छरों द्वारा मानव शरीर में
परजीवी के संक्रमण से मलेरिया रोग काफी जानलेवा सिद्ध होता है। एक रिपोर्ट के
अनुसार मच्छरों के काटने से वर्ष 2018 में लगभग 22.8 करोड़ लोग संक्रमित हुए जबकि 40 लाख से अधिक लोगों की मौत हो गई। इनमें
सबसे अधिक संख्या अफ्रीकी देशों में रहने वाले बच्चों की थी।
मच्छरों
से फैलने वाले डेंगू बुखार से सालाना 40 करोड़ लोग संक्रमित होते हैं, जिनमें
से 10 करोड़
लोग बीमार होते हैं और 22,000
लोग मारे जाते हैं। यह रोग एडीज़ वंश के मच्छर द्वारा काटने
से होता है।
पालतू
प्राणि और चूहे
पालतू
प्राणियों से होने वाली बीमारियों में रेबीज़ सबसे जानी-मानी है। इससे हर वर्ष लगभग 55,000 लोगों की मृत्यु
होती है। इनकी सबसे अधिक संख्या एशिया और अफ्रीका के देशों में होती है। आम तौर पर
यह रोग संक्रमित पालतू कुत्ते के काटने से होता है हालांकि जंगली जानवरों में
रैबीज़ के वायरस पाए जाते हैं।
एक
और बीमारी है जो जानवर के काटे बगैर भी हो जाती है। चूहों जैसे प्राणियों में
मौजूद हैन्टावायरस उनके मल, मूत्र वगैरह में
होता है और यदि ये पदार्थ कण रूप में हवा में फैल जाएं तो वायरस सांस के साथ
मनुष्यों में पहुंच जाता है। यह मुख्य रूप से डीयर माइस से फैलता है। यह वायरस एक
व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचरण नहीं करता है। इसके मुख्य लक्षणों में ठण्ड
लगना, बुखार, सिरदर्द
आदि शामिल हैं। वैसे तो यह बीमारी बिरली है लेकिन इसकी मृत्यु दर 36 प्रतिशत है।
एचआईवी./एड्स
सीडीसी
के अनुसार एड्स का वायरस (एचआईवी) मध्य अफ्रीका के एक
चिम्पैंज़ी से आया है। यह वायरस (मूलत: एसआईवी) मनुष्यों में इन जीवों के शिकार ज़रिए पहुंचा है। यह
मनुष्यों में इन जीवों के संक्रमित खून से आया जिसने मानवों में विकसित होकर
एचआईवी का रूप ले लिया। अध्ययनों के अनुसार यह मनुष्यों में 18वीं सदी से मौजूद है।
एचआईवी
प्रतिरक्षा तंत्र को तहस-नहस
कर देता है जिससे जानलेवा बीमारियों और कैंसर का रास्ता खुल जाता है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वर्ष 2018 में 7.7 लाख लोगों की मृत्यु एचआईवी के कारण हुई जबकि इसी वर्ष के
अंत तक 3.7 करोड़
लोग इससे संक्रमित पाए गए। एचआईवी संक्रमित लोगों में टीबी से मृत्यु दर काफी अधिक
होती है। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में शारीरिक तरल पदार्थ (जैसे खून,
स्तनपान, वीर्य,
योनि स्राव आदि) के आदान प्रदान से पहुंचता है।
मस्तिष्क
पर नियंत्रण
एक
विचित्र परजीवी टोक्सोप्लाज़्मा गोंडाई ने विश्व भर में लगभग 2 अरब लोगों को अपना शिकार बनाया है। यह
परजीवी शीज़ोफ्रीनिया का कारण होता है। इसका प्राथमिक मेज़बान बिल्लियां हैं। यह
रोगाणु बिल्ली की आंत में विकसित होते हैं। इसके अंडे बिल्ली के मल के साथ बाहर
आते हैं और इनके छोटे-छोटे
कण हवा के माध्यम से नाक के ज़रिए मनुष्यों में प्रवेश कर जाते हैं।
मनुष्य
में प्रवेश करने के बाद ये अंडे शरीर के उन अंगों में छिप जाते हैं जहां
प्रतिरक्षा तंत्र का अभाव होता है, जैसे मस्तिष्क,
ह्मदय, और कंकाल की
मांसपेशियां। इन अंगों में अंडे सक्रिय परजीवी टैकीज़ोइट में तबदील हो जाते हैं और
अन्य अंगों में फैलने व संख्यावृद्धि करने लगते हैं।
इनको
मस्तिष्क पर नियंत्रण करने वाला जीव इसलिए कहा जाता है क्योंकि इससे संक्रमित
चूहों में बिल्लियों का डर खत्म हो जाता है और वे बिल्लियों के मूत्र की गंध की ओर
आकर्षित होने लगते हैं। ऐसे में वे बिल्ली का आसान शिकार बन जाते हैं और परजीवी को
बिल्ली की आंत में पहुंचने का एक आसान रास्ता मिल जाता है।
मनुष्यों
में इनके संक्रमण का कोई खास लक्षण दिखाई नहीं देता है। हालांकि कुछ मामलों में
सामान्य फ्लू और लसिका नोड्स पर सूजन की शिकायत होती है जो कुछ हफ्तों से लेकर
महीनों तक रहती है। कभी-कभार
दृष्टि गंवाने से लेकर मस्तिष्क क्षति जैसी गंभार समस्याएं हो सकती हैं।
सिस्टीसर्कोसिस
सिस्टीसर्कोसिस
की समस्या फीता कृमि (टीनिया
सोलियम) के
अण्डों के शरीर में प्रवेश करने से होती है। इसका लार्वा मांसपेशियों और मस्तिष्क
में पहुंच कर गठान बना देता है। मनुष्यों में यह सूअर के मांस का सेवन करने से भी
पहुंचता है। यह छोटी आंत के अस्तर से जुड़कर दो महीनों में एक व्यस्क कृमि में
विकसित हो जाता है। इसका सबसे खतरनाक रूप मस्तिष्क में गठान के रूप में सामने आता
है। इसके लक्षणों में सिरदर्द, दौरे,
भ्रमित होना, मस्तिष्क
में सूजन, संतुलन बनाने में
समस्या, स्ट्रोक या मृत्यु
शामिल हैं।
एबोला
यह
रोग एबोला वायरस के पांच में से एक प्रकार के कारण होता है। यह मध्य अफ्रीका में
गोरिल्ला और चिम्पैंज़ियों के लिए एक बड़ा खतरा है। सीडीसी के अनुसार मनुष्यों में
यह चमगादड़ या गैर-मानव
प्राइमेट्स के द्वारा फैली है। इसकी पहचान पहली बार कांगो में एबोला नदी के किनारे
हुई थी। यह वायरस संक्रमित प्राणियों के रक्त या शरीर के अन्य तरल पदार्थों से
फैलता है। मनुष्यों के बीच यह निकट संपर्क से फैलता है।
इसके
लक्षण काफी भयानक होते हैं। अचानक बुखार, कमज़ोरी,
मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द,
और गले में खराश शुरुआती लक्षण हैं,
जिसके बाद उल्टी, दस्त,
शरीर पर दाने, गुर्दों
और लीवर की तकलीफ और कुछ मामलों में आंतरिक और बाहरी रक्तस्राव। मृत्यु दर 90 प्रतिशत तक हो सकती
है।
लाइम
रोग
यह रोग एक काली टांग वाले पिस्सू द्वारा मनुष्यों में बैक्टीरिया संक्रमण के कारण होता है। यह रोग मुख्य रूप से बोरेलिया बर्गडोरफेरी प्रजाति और कभी कभी एक अन्य प्रजाति बी. मेयोनाई से भी होता है। इसके लक्षणों में बुखार, सिरदर्द, थकान और त्वचा पर चकत्ते शामिल हैं। उपचार न किया जाए तो यह शरीर के जोड़ों से ह्मदय और तंत्रिका तंत्र तक फैल जाता है। हर वर्ष इसके लगभग 30,000 मामले सामने आते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.cdc.gov/onehealth/images/zoonotic-diseases-spread-between-animals-and-people.jpg
सूक्ष्मजीव
हमारे शरीर पर हर जगह, जैसे हमारे मुंह,
हमारी आंत में रहते हैं। इसी तरह हमारी जीभ पर भी लाखों
सूक्ष्मजीव रहते हैं। और अब सेल बायोलॉजी में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन
बताता है कि हमारी जीभ पर रहने वाले ये सूक्ष्मजीव यूं ही बेतरतीब नहीं बसते हैं
बल्कि वे अपनी तरह के सूक्ष्मजीवों के आसपास रहना पसंद करते है और अपनी प्रजाति के
आधार पर बंटकर अलग-अलग
समूहों में रहते हैं।
जीभ
पर इन सूक्ष्मजीवों की बसाहट कैसी है, यह
जानने के लिए मरीन बायोलॉजिकल लैबोरेटरी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी जेसिका मार्क
वेल्च और उनके साथियों ने पहले 21 स्वस्थ लोगों की जीभ को खुरचकर साफ किया। इसके बाद उन्होंने
बैक्टीरिया के विशिष्ट समूहों की पहचान करने के लिए उन पर अलग-अलग रंग के
फ्लोरोसेंट टैग लगाए, ताकि यह देख सकें कि
ये बैक्टीरिया जीभ पर ठीक-ठीक
कहां रहते हैं। उन्होंने पाया कि सभी बैक्टीरिया अपनी प्रजाति के एक मजबूत और
सुगठित समूह में रहते हैं।
माइक्रोस्कोप
से इन सूक्ष्मजीवों को देखने पर इनका झुंड एक सूक्ष्मजीवीय इंद्रधनुष जैसा दिखता
है। माइक्रोस्कोपिक तस्वीर में देखने पर पाया गया कि एक्टिनोमाइसेस
बैक्टीरिया जीभ के उपकला (या
एपिथिलीयल) ऊतक
के करीब पनपते हैं। रोथिया बैक्टीरिया अन्य समुदायों के बीच बड़ा समूह बना
कर रहते हैं। स्ट्रेप्टोकोकस प्रजाति के बैक्टीरिया जीभ के किनारे-किनारे एक पतली लकीर
बनाते हुए और महीन नसों के आसपास रहते हैं। इन तस्वीरों को देखकर अंदाज़ा लगाया जा
सकता है कि ये कॉलोनियां कैसे बसी और फली-फूली होंगी।
हालांकि डीएनए अनुक्रमण के ज़रिए वैज्ञानिक इस बारे में तो जानते थे कि हमारे शरीर में कौन से बैक्टीरिया रहते हैं लेकिन पहली बार जीभ पर रहने वाले सूक्ष्मजीवों के समुदाय का इतने विस्तार से अध्ययन किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि सूक्ष्मजीवों की विभिन्न प्रजातियां कहां जमा होती हैं और वे स्वयं को कैसे व्यवस्थित करती हैं, इस बारे में पता लगाकर बैक्टीरिया की कार्यप्रणाली के बारे में पता लगाया जा सकता है और देखा जा सकता है कि वे एक-दूसरे से कैसे संपर्क बनाते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://trendingnews365.in/wp-content/uploads/2020/03/tongue_1280p-750×375.jpg
जैसे-जैसे नए कोरोनोवायरस
का प्रकोप दुनिया में फैल रहा है, लोगों को हिदायत दी
जा रही है कि वे एक-दूसरे
से कम-से-कम 6 फीट दूर रहें,
अपने हाथों को धोते रहें और अपने चेहरे को छूने से बचें। और
लोग इन हिदायतों का पालन करने की कोशिश भी कर रहे हैं।
लेकिन
नाक-आंख
वगैरह में होने वाली खुजली नज़रअंदाज करने की हिदायत देना आसान है,
नज़रअंदाज़ करना नहीं। यहां तक हिदायत देने वाले भी इसके आवेग
में अपने को रोक नहीं पाते। 2015 में, अमेरिकन जर्नल ऑफ
इंफेक्शन कंट्रोल में
प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक संक्रामक रोग की रोकथाम के लिए प्रशिक्षित मेडिकल
स्कूल के छात्रों ने एक व्याख्यान के दौरान एक घंटे में 23 बार अपने चेहरे को छुआ।
तो
सवाल यह उठता है कि खुद को अपना चेहरा छूने से रोकना इतना मुश्किल क्यों है?
लोग अक्सर दांतों की सफाई, बालों
को संवारने, मेक-अप करने जैसे कामों
के चलते अपना चेहरा छूते रहते हैं। दिनचर्या में शामिल चेहरा छूने की ये आदतें फिर
आपको निरुद्देश्य ढंग से चेहरा छूने को प्रेरित करती हैं,
जैसे आंखों को मसलना।
यह
प्रवृत्ति सिर्फ आदत की बात भी नहीं है। केनटकी सेंटर फॉर एन्गज़ाइटी एंड रिलेटेड
डिसऑर्डर्स के संस्थापक-निदेशक
और मनौवैज्ञानिक केविन चैपमैन लाइव साइंस में बताते हैं कि “यह इस बात को
सुनिश्चित करने की आदत है कि हम सार्वजनिक तौर पर कैसे दिख रहे हैं।” उदाहरण के लिए,
मुंह के आसपास भोजन के अंश लगे होना यह दर्शा सकता है कोई
व्यक्ति गंदा है या वह अपनी प्रस्तुति का ध्यान नहीं रखता है। अपने चेहरे को छूकर
लोग खुद को संवार सकते हैं और यह भी दर्शा सकते हैं कि वे स्वयं के प्रति जागरूक
हैं।
हालांकि
चेहरे को छूना कई लोगों में एक बुरी आदत बन जाती है जो चिंताग्रस्त लोगों में और
भी बुरी साबित हो सकती है। चैपमैन कहते हैं कि उच्च स्तर के न्यूरोटिज़्म वाले लोग
तनाव को कम करने के लिए दोहराव वाले व्यवहार करते हैं। जैसे नाखून चबाना या बालों
में हाथ फेरना वगैरह। यह व्यक्ति के जीवन को प्रभावित कर सकता है,
जैसे हो सकता है इसकी वजह से उसे अन्य लोगों के साथ जुड़ाव
बनाने में दिक्कत हो या वह शक्तिहीन या लज्जित महसूस करे। ब्रेन रिसर्च में
प्रकाशित एक छोटे नमूने पर किए गए अध्ययन के मुताबिक,
कम गंभीर स्तर पर, लोग
तनाव के समय में खुद को शांत रखने के लिए अपने चेहरे को छूते हैं।
रोग
नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के अनुसार, नए कोरोनावायरस से
संक्रमित होने का मुख्य कारण चेहरा छूना नहीं है। फिर भी,
सीडीसी नाक, मुंह या आंखों को ना
छूने की सलाह देता है क्योंकि यह वायरस इस तरह से फैलता है। और यदि आपने किसी
संक्रमित या दूषित सतह को छुआ है तो हाथों को साबुन और पानी से धोना या हैंड
सैनिटाइज़र का उपयोग करना कदापि ना भूलें।
चैपमैन बताते हैं कि जब लोग अपना चेहरा ना छूने के लिए सतर्क होते हैं तो संभावना होती है कि वे सामान्य से अधिक बार अपना चेहरा छू लें। जैसे किसी व्यक्ति को गुलाबी हाथी के बारे में ना सोचने को कहा जाए और वह तुरंत ही गुलाबी हाथी के बारे में सोचने लगता है। इस आदत को छोड़ने के लिए यह सोचें कि आप कब-कब अपना चेहरा छूते हैं, लेकिन यदि आप अपने आपको चेहरा छूते हुए पाएं तो खुद को इसकी सज़ा ना दें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/TqoSJcwDLpk36suHVNe9yJ-320-80.jpg
पिछले
हाल के समय में हिमालय क्षेत्र में हाईवे निर्माण व हाईवे को चौड़ा करने में हज़ारों
करोड़ रुपए का निवेश हुआ है, पर क्रियान्वयन में
कमियों, उचित नियोजन के अभाव
व आसपास के गांववासियों से पर्याप्त विमर्श न करने के कारण खुशहाली के स्थान पर
गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। अत: बहुत ज़रूरी है कि इन गलतियों को सुधारने के लिए असरदार
कार्रवाई की जाए ताकि विकास-मार्गों को विनाश मार्ग बनने से रोका जा सके।
इस
संदर्भ में दो सबसे चर्चित परियोजनाएं हैं उत्तराखंड की चार धाम परियोजना व हिमाचल
प्रदेश की परवानू-सोलन
हाईवे परियोजना। दोनों परियोजनाओं को मिला कर देखा जाए तो हाल के समय में हिमालय
के पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र में लगभग 50,000 पेड़ कट चुके हैं। एक बड़ा पेड़ कटता है तो
उससे आसपास के छोटे पेड़ों को भी क्षति पहुंचती है।
इन
दोनों परियोजनाओं के कारण अनेक नए भूस्खलन क्षेत्र उभरे हैं व पुराने भूस्खलन
क्षेत्र अधिक सक्रिय हो गए हैं। इस कारण यात्रियों को अधिक खतरे व परेशानियां
झेलनी पड़ रही हैं जबकि गांववासियों के लिए अधिक स्थायी संकट उत्पन्न हो गया है।
कुछ गांवों व बस्तियों का तो अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। परवानू-सोलन हाईवे के
किनारे बसे गांव मंगोती नंदे का थाड़ा गांव के लोगों ने बताया कि हाईवे के कार्य
में पहाड़ों को जिस तरह अस्त-व्यस्त किया है उससे उनका गांव ही संकटग्रस्त हो गया है।
सरकार को चाहिए कि उन्हें कहीं और सुरक्षित व अनुकूल स्थान पर बसा दे।
इसी
हाईवे पर सनवारा, हार्डिग कालोनी व
कुमारहट्टी के पास के कुछ स्थानों की स्थिति भी चिंताजनक हुई है। कुछ किसानों ने
बताया कि हाईवे चौड़ा करने के पहले उनसे जो भूमि ली गई उसका तो मुआवज़ा तो मिल गया
था पर हाईवे कार्य के दौरान जो भयंकर क्षति हुई उसका मुआवज़ा नहीं के बराबर मिला।
अनेक छोटे दुकानदारों को हटा दिया गया है।
इसी
तरह चार धाम परियोजना में भी अनेक किसानों व दुकानदारों की बहुत क्षति हुई है व कई
अन्य इससे आशंकित हैं। इस परियोजना से जुड़ा सबसे बड़ा संकट तो यह है कि इससे किसी
बड़ी आपदा की संभावना बढ़ रही है। इस परियोजना के क्रियान्वयन के दौरान बहुत बड़ी
मात्रा में मलबा नदियों में डाला गया है व इस कारण किसी भीषण बाढ़ की संभावना बढ़ गई
है।
इन
दोनों परियोजनाओं में अनेक सावधानियों की उपेक्षा की गई है। कमज़ोर संरचना के
संवेदनशील पर्वतों में भारी मशीनों से बहुत अनावश्यक छेड़छाड़ की गई। स्थानीय लोग
बताते हैं कि पहाड़ों को ध्वस्त किए बिना ट्रैफिक को सुधारना संभव था,
पर इस बात को अनसुनी करके पहाड़ों को भारी मशीनों से गलत ढंग
से काटा गया। स्थानीय लोगों से विमर्श नहीं हुआ। भू-वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों की सलाह की
उपेक्षा हुई। सड़क को ज़रूरत से अधिक चौड़ी करने की ज़िद से भी काफी क्षति हुई जिससे
बचा जा सकता था। लोगों की आजीविका, खेतों,
वृक्षों की किसी भी क्षति को न्यूनतम रखना है,
इस दृष्टि से योजना बनाई ही नहीं गई थी। मज़दूरों की भलाई व
सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। योजनाएं तैयार करने में पर्यटन,
तीर्थ व सुरक्षा की दुहाई दी गई,
पर भूस्खलनों व खतरों की संभावना बढ़ने से इन तीनों
उद्देश्यों की भी क्षति ही हुई है।
अत: समय आ गया है कि अब तक हुई गंभीर गलतियों को हर स्तर पर सुधारने के प्रयास शीघ्र से शीघ्र किए जाएं व हिमालय की अन्य सभी हाईवे परियोजनाओं में भी इन सावधानियों को ध्यान में रखा जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.manifestias.com/wp-content/uploads/2019/08/chardham-yatra-road-project.jpg
परिवर्तन
और बूढ़े होने की प्रक्रियाएं ही हैं जो हमें समय बीतने का एहसास कराती हैं। और समय
बीतने का एहसास न हो तो मानव विकास, कला
व सभ्यता काफी अलग होंगे।
प्रोसीडिंग्स
ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (पीएनएएस) में ए एंड एम विश्वविद्यालय,
एरिज़ोना स्टेट विश्वविद्यालय, चाइना
कृषि विश्वविद्यालय और स्कोल्वो विज्ञान व टेक्नॉलॉजी संस्थान के शोधकर्ताओं के एक
शोध पत्र में सजीवों में बुढ़ाने की प्रक्रिया की क्रियाविधि की एक समझ एक कदम आगे
बढ़ी है।
इस
कदम का सम्बंध कोशिकाओं में उपस्थित डीएनए के एक अंश से है,
जो कोशिकाओं के विभाजन और नवीनीकरण में भूमिका निभाता है।
यह घटक सबसे पहले ठहरे हुए पानी की एक शैवाल में खोजा गया था और आगे चलकर पता चला
कि यह अधिकांश सजीवों के डीएनए में पाया जाता है। पीएनएएस के शोध पत्र में टीम ने
खुलासा किया है कि यह घटक पौधों में कैसे काम करता है। धरती पर सबसे लंबी उम्र
पौधे ही पाते हैं, इसलिए इनमें इस घटक
की समझ को आगे चलकर अन्य जीवों और मनुष्यों पर भी लागू किया जा सकेगा।
सजीवों
में वृद्धि और प्रजनन दरअसल कोशिका विभाजन के ज़रिए होते हैं। विभाजन के दौरान कोई
भी कोशिका दो कोशिकाओं में बंट जाती हैं, जो
मूल कोशिका के समान होती हैं। यह प्रतिलिपिकरण कोशिका के केंद्रक में उपस्थित
डीएनए की बदौलत होता है। डीएनए एक लंबा अणु होता है जिसमें कोशिका के निर्माण का
ब्लूप्रिंट भी होता है और स्वयं की प्रतिलिपि बनाने का साधन भी होता है। डीएनए की
प्रतिलिपि इसलिए बन पाती है क्योंकि यह दो पूरक शृंखलाओं से मिलकर बना होता है। जब
ये दोनों शृंखलाएं अलग-अलग
होती हैं, तो दोनों में यह
क्षमता होती है कि वे अपने परिवेश से पदार्थ लेकर दूसरी शृंखला बना सकती हैं।
लेकिन
इसमें एक समस्या है। प्रतिलिपिकरण के दौरान ये शृंखलाएं लंबी हो सकती हैं या किसी
अन्य डीएनए से जुड़ सकती हैं। ऐसा होने पर जो अणु बनेगा वह अकार्यक्षम होगा और इस
तरह से बनने वाली कोशिकाएं नाकाम साबित होंगी। लिहाज़ा डीएनए में एक ऐसी व्यवस्था
बनी है कि ऐसी गड़बड़ियों को रोका जा सके। प्रत्येक डीएनए के सिरों पर कुछ ऐसी
रासायनिक रचना होती है जो बताती है कि वह उस अणु का अंतिम हिस्सा है। और डीएनए में
यह क्षमता होती है कि वह अपने सिरों पर यह व्यवस्था बना सके।
सिरे
पर स्थित इस व्यवस्था को टेलामेयर कहते हैं। यह वास्तव में उन्हीं इकाइयों से बना
होता है जो डीएनए को भी बनाती हैं। और यह टेलोमेयर एक एंज़ाइम की मदद से बनाया जाता
है जिसे टेलोमरेज़ कहते हैं। कोशिकाओं में किसी भी रासायनिक क्रिया के संपादन हेतु
एंज़ाइम पाए जाते हैं।
बुढ़ाने
की प्रक्रिया की प्रकृति को समझने की दिशा में शुरुआती खोज यह हुई थी कि कोई भी
कोशिका कितनी बार विभाजित हो सकती है, इसकी
एक सीमा होती है। आगे चलकर इसका कारण यह पता चला कि हर बार विभाजन के समय जो नई
कोशिकाएं बनती हैं, उनका डीएनए मूल
कोशिका के समान नहीं होता। हर विभाजन के बाद टेलोमेयर थोड़ा छोटा हो जाता है। एक
संख्या में विभाजन के बाद टेलोमेयर निष्प्रभावी हो जाता है और कोशिका विभाजन रुक
जाता है। लिहाज़ा, वृद्धि धीमी पड़ जाती
है, सजीव का कामकाज ठप होने लगता है और तब कहा
जाता है कि वह जीव बुढ़ा रहा है।
उपरोक्त
खोज 1980 में
एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न, कैरोल ग्राइडर और
जैक ज़ोस्ताक ने की थी और इसके लिए उन्हें 2009 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। अच्छी
बात यह थी कि इन शोधकर्ताओं ने एक एंज़ाइम (टेलोमरेज़) की खोज भी की थी जिसमें टेलोमेयर के विघटन
को रोकने या धीमा करने और यहां तक कि उसे पलटने की भी क्षमता होती है। टेलोमरेज़
में वह सांचा मौजूद होता है जो आसपास के परिवेश से पदार्थों को जोड़कर डीएनए का
टेलोमरेज़ वाला खंड बना सकता है। इसके अलावा टेलोमरेज़ में यह क्षमता भी होती है कि
वह पूरे डीएनए की ऐसी प्रतिलिपि बनवा सकता है, जिसमें
अंतिम सिरा नदारद न हो। इस तरह से टेलोमरेज़ विभाजित होती कोशिकाओं को तंदुरुस्त रख
सकता है।
टेलोमेयर
और टेलोमरेज़ की क्रिया कोशिका मृत्यु और कोशिकाओं की वृद्धि में निर्णायक महत्व
रखती है। वैसे किसी भी जीव की अधिकांश कोशिकाएं बहुत बार विभाजित नहीं होतीं,
इसलिए अधिकांश कोशिकाओं को टेलोमेयर के घिसाव या संकुचन से
कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन स्टेम कोशिकाओं की बात अलग है। ये वे कोशिकाएं होती हैं
जो क्षति या बीमारी की वजह से नष्ट होने वाली कोशिकाओं की प्रतिपूर्ति करती हैं।
उम्र बढ़ने के साथ ये स्टेम कोशिकाएं कम कारगर रह जाती हैं और जीव चोट या बीमारी से
उबरने में असमर्थ होता जाता है। दरअसल, कई
सारी ऐसी बीमारियां है जो सीधे-सीधे टेलोमरेज़ की गड़बड़ी की वजह से होती हैं। जैसे एनीमिया,
त्वचा व श्वसन सम्बंधी रोग।
इसके
आधार पर शायद ऐसा लगेगा कि टेलोमरेज़ को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजकर हम
वृद्धावस्था से निपट सकते हैं। लेकिन गौरतलब है कि टेलोमरेज़ का बढ़ा हुआ स्तर कैंसर
कोशिकाओं को अनियंत्रित विभाजन में मदद कर नई समस्याएं पैदा कर सकता है। अत: टेलोमरेज़ की
क्रियाविधि को समझना आवश्यक है ताकि हम ऐसे उपचार विकसित कर सकें जिनमें ऐसे साइड
प्रभाव न हों।
पीएनएएस के
शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि वैसे तो टेलोमरेज़ की भूमिका सारे जीवों में एक-सी होती है,
लेकिन यह सही नहीं है कि उसका कामकाजी हिस्सा भी सारे
सजीवों में एक जैसा हो। कामकाजी हिस्से से आशय टेलोमरेज़ के उस हिस्से से है जो
कोशिका विभाजन के दौरान डीएनए को टेलोमेयर के संश्लेषण में मदद देता है। इस घटक को
टेलोमरेज़ आरएनए (या
संक्षेप में टीआर) कहते
हैं। शोध पत्र में स्पष्ट किया गया है कि टीआर की प्रकृति को समझना काफी
चुनौतीपूर्ण रहा है क्योंकि विभिन्न प्रजातियों में टीआर की प्रकृति व संरचना बहुत
अलग-अलग
होती है।
टीम
ने अपना कार्य एरेबिडॉप्सिस थैलियाना नामक पौधे के टेलोमरेज़ के साथ प्रयोग और
विश्लेषण के आधार पर किया। एरेबिडॉप्सिस थैलियाना पादप वैज्ञानिकों के लिए पसंदीदा
मॉडल पौधा रहा है। शोध पत्र के मुताबिक अध्ययन से पता चला कि टीआर अणु में विविधता
के बावजूद इस अणु के अंदर दो ऐसी विशिष्ट रचनाएं हैं जो विभिन्न प्रजातियों में एक
जैसी बनी रही हैं। पिछले अध्ययनों से आगे बढ़कर वर्तमान अध्ययन में एरेबिडॉप्सिस
थैलियाना में टीआर का एक प्रकार पहचाना गया है जो संभवत: टेलोमेयर के रख-रखाव में मदद करता है और टेलोमेयर की एक उप-इकाई के साथ जुड़कर
टेलोमरेज़ की गतिविधि का पुनर्गठन करता है।
अध्ययन
में पादप कोशिका, तालाब में पाई जाने
वाली स्कम और अकशेरुकी जंतुओं के टीआर के तुलनात्मक लक्षण भी उजागर किए हैं। इनसे
जैव विकास के उस मार्ग का भान होता है जिसे एक-कोशिकीय प्राणियों से लेकर वनस्पतियों और
ज़्यादा जटिल जीवों तक के विकास के दौरान अपनाया गया है। इस मार्ग को समझकर हम यह
समझ पाएंगे कि टेलोमेयर के काम को किस तरह बढ़ावा दिया जा सकता है या रोका जा सकता
है।
टेलोमेयर घिसाव की प्रक्रिया अनियंत्रित कोशिका विभाजन को रोकने के लिए अनिवार्य है। इसी वजह से जीव बूढ़े होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जंतुओं की आयु चंद दशकों तक सीमित होती है। दूसरी ओर, ब्रिासलकोन चीड़ और यू वृक्ष हज़ारों साल जीवित रहते हैं। यदि हम यह समझ पाएं कि पादप जगत बुढ़ाने की प्रक्रिया से कैसे निपटता है, तो शायद हमें मनुष्यों की आयु बढ़ाने या कम से कम जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने का रास्ता मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i1.wp.com/www.innovationtoronto.com/wp-content/uploads/2018/07/HUMAN-AGEING-LONGEVITY-AND-LIFE-SPAN4.jpg?resize=700%2C364
ऐसा
कहते हैं कि तनाव के कारण लोगों के बालों का रंग उड़ जाता है,
बाल सफेद हो जाते हैं। कहा जाता है कि मुमताज़ महल की मृत्यु
के बाद शाहजहां के बाल एकाध हफ्ते में ही सफेद हो गए थे। इसी तरह फ्रांस की रानी
मैरी एंतोनिएट के बाल उस रात सफेद हो गए थे जिसके अगले दिन उनका सिरकलम किया जाना
था। तो क्या यह संभव है?
हारवर्ड
स्टेम सेल रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता मामले की तह तक पहुंचना चाहते थे। बात
को समझने के लिए या-चिए
ह्सू और उनके साथियों ने अपने सारे प्रयोग चूहों पर किए हैं लेकिन उन्हें लगता है
कि परिणाम मनुष्यों पर लागू होंगे।
सबसे
पहले उन्होंने उन स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया जो मेलेनोसाइट (मेलेनीन रंजक युक्त
कोशिका) का
निर्माण करती हैं। ये मेलेनोसाइट प्रत्येक बाल में मेलेनीन पहुंचाती हैं जिसका रंग
काला होता है। मेलेनोसाइट बनानी वाली स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान जाना स्वाभाविक था
क्योंकि मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं की तादाद में फर्क पड़ने से बालों के रंग पर असर
पड़ता है।
पहले
तो शोधकर्ताओं ने इन चूहों को उनके डील-डौल के हिसाब से तनाव दिया। जैसे उनके
पिंजड़ों को झुकाकर रखा गया या उनके सोने की जगह को गीला रखा गया या रात भर लाइटें
चालू रखी गर्इं। शोधकर्ताओं ने देखा कि तनाव के कारण वास्तव में चूहों के बाल सफेद
हो जाते हैं।
विचार
बना कि शायद इन चूहों में तनाव बढ़ने पर उनकी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं
मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं पर आक्रमण कर रही हैं, जिसकी
वजह से इन स्टेम कोशिकाओं की संख्या कम होने लगी है। लेकिन जिन चूहों में
प्रतिरक्षा कोशिकाएं नहीं थीं, उनके भी बाल सफेद
हुए। निष्कर्ष: तनाव
के कारण बाल सफेद होने में प्रतिरक्षी कोशिकाओं का हाथ नहीं है।
अगला
विचार आया कि संभवत: इसमें
कॉर्टिसोल की भूमिका होगी। कॉर्टिसोल वह प्रमुख हारमोन है जो तनाव के समय बनता है।
यह बालों पर भी असर डालता है। लेकिन प्रयोगों में देखा गया कि बाल सफेद उन चूहों
में भी हुए जिनकी कॉर्टिसोल बनाने वाली ग्रंथि निकाल दी गई थी। तो अब क्या?
इसके
बाद उनका ध्यान अनुकंपी तंत्रिका तंत्र पर गया। यही तंत्रिका तंत्र हारमोन के
प्रभाव से तनाव जनित व्यवहारों और ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया को अंजाम देता है। इन अनुकंपी तंत्रिकाओं के
सिरे हर रोम के आसपास लिपटे होते हैं। जब टीम ने चूहों में इन कनेक्शन को काट दिया
तो जल्दी ही चूहों के बाल सफेद हो गए।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उम्र के साथ बाल सफेद होने की प्रक्रिया में भी अनुकंपी तंत्रिकाओं की भूमिका है लेकिन शोधकर्ताओं का ख्याल है कि सफेद बालों की समस्या के संदर्भ में कुछ तो आशा जगी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ichef.bbci.co.uk/news/660/cpsprodpb/12034/production/_110608737_gettyimages-685775384.jpg