महामारी से उपजता मेडिकल कचरा – अली खान

कोरोना महामारी का खतरा लगातार कम हो रहा है, मगर इससे पैदा हुआ मेडिकल कचरा पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी दी है कि कोरोना महामारी से निपटने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चिकित्सा उपकरणों से इंसान और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा पैदा हो रहा है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, वैश्विक कोविड महामारी के दौरान जमा हुए हज़ारों टन अतिरिक्त कचरे ने कचरा प्रबंधन प्रणाली पर गंभीर दबाव डाला है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मौजूदा अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों में सुधार की सख्त ज़रूरत है।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, कोरोना महामारी के परिणामस्वरूप 2 लाख टन से भी अधिक मेडिकल कचरा जमा हो गया है। इसमें से अधिकांश प्लास्टिक के रूप में है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मार्च 2020 से नवंबर 2021 के बीच चिकित्सा कर्मियों की सुरक्षा के लिए लगभग 1.5 अरब पीपीई किट का निर्माण व वितरण किया गया था। इनका वजन लगभग 87,000 टन है। गौर करने वाली बात यह है कि यह मात्रा केवल संयुक्त राष्ट्र की एक प्रणाली के तहत वितरित उपकरणों की है; वास्तविक संख्या और मात्रा इससे कहीं अधिक है।‌ डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, इन उपकरणों और सुरक्षा किटों का अधिकांश भाग कचरे का हिस्सा बन गया। और तो और, निजी इस्तेमाल के लिए फेस मास्क इन अनुमानों में शामिल नहीं हैं।

इसके अलावा दुनिया भर में 14 करोड़ जांच किट प्रदान किए गए हैं, जिनमें 2600 टन प्लास्टिक और 7,31,000 लीटर केमिकल अपशिष्ट जमा होने का जोखिम है।

ध्यान दें कि कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में देश और दुनिया के कोने-कोने से स्वास्थ्य विभाग की गंभीर लापरवाहियां भी सामने आई थीं। देश में स्वास्थ्य विभाग की सबसे बड़ी लापरवाही कोरोना सैंपल लेने के बाद वीटीएम के वेस्टेज के निस्तारण की बजाय इसे प्रयोगशालाओं के बाहर खुले में फेंकने के रूप में सामने आई थी। यह सचमुच चिंताजनक थी। स्वास्थ्य विभाग द्वारा कोविड-19 की जांच में करोड़ों की संख्या में नमूने लिए गए। इन नमूनों में इस्तेमाल होने वाली वीटीएम का निस्तारण नहीं किया गया या इसे खुले में फेंका गया या कूड़े के ढेर में डाल दिया गया। इसका उचित निस्तारण बेहद ज़रूरी था। बता दें कि कोरोना के सैंपल आम तौर पर वायरल ट्रांसपोर्ट मीडियम यानी वीटीएम नामक लिक्विड में रखे जाते हैं। रिसाव से बचने के लिए इसे अच्छी तरह से पैक किया जाता है। इसके उपयोग के बाद मजबूत प्लास्टिक बैग के साथ निस्तारण किया जाना ज़रूरी होता है। दरअसल, वीटीएम का निस्तारण जैविक कचरे के हिसाब से करना होता है, लेकिन उदासीनता के चलते ऐसा नहीं हो पाया।

दरअसल, महामारी से पहले भी डब्ल्यूएचओ ने चेताया था कि एक-तिहाई स्वास्थ्य देखभाल केंद्र अपने कचरे का निपटान करने में सक्षम नहीं हैं। डब्ल्यूएचओ ने पीपीई के सोच-समझकर उपयोग, कम पैकेजिंग, इनके निर्माण में जैव-विघटनशील सामग्री के इस्तेमाल सहित कई उपायों का आह्वान किया है जो कचरे की मात्रा को कम करेंगे।

हज़ारों टन अतिरिक्त चिकित्सा कचरे ने अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को प्रभावित किया है और यह स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा है। इस संदर्भ में डब्ल्यूएचओ ने लोगों की जागरूकता पर भी बल दिया है। डबल्यूएचओ की जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य इकाई की तकनीकी अधिकारी डॉ. मार्गरेट मोंटगोमरी ने कहा है कि जनता को जागरूक उपभोक्ता भी बनना चाहिए। उन्होंने पीपीई किट के संदर्भ में कहा कि लोग ज़रूरत से ज़्यादा पीपीई किट पहन रहे हैं। डबल्यूएचओ का कहना है कि इस तरह के लगभग 87,000 टन मेडिकल किट बेकार हो गए हैं। दुनिया भर में संक्रमण की रोकथाम के लिए मास्क, पोशाकों, टीकों, जांच उपकरणों, सेनिटाइज़र आदि का अभूतपूर्व मात्रा में उत्पादन हुआ है। डबल्यूएचओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड से सम्बंधित अतिरिक्त कचरा चिकित्साकर्मियों और लैंडफिल के आसपास रहने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य और पर्यावरणीय जोखिम पैदा करता है। लिहाज़ा, दुनिया भर में मेडिकल कचरे के सुरक्षित निपटारे और पुनर्चक्रण के लिए नई तकनीकों एवं संसाधनों में निवेश की आवश्यकता है। अस्पतालों और प्रशासन के स्तर पर सक्रियता के साथ नागरिकों को जागरूक करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि मेडिकल कचरे में हो रहे लगातार इजाफे पर अंकुश लगाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न के जंगलों में पारा प्रदूषण

पेरू स्थित अमेज़न वर्षावन जैव विविधता से समृद्ध और अछूते वनों के रूप में जाने जाते हैं। 55 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले इन जंगलों में विभिन्न प्रजातियों के जीव-जंतु और वनस्पति पाई जाती हैं। लेकिन इसी जंगल में एक ऐसा ज़हरीला रहस्य छिपा है जो जैव विविधता के लिए खतरा बना हुआ है। हालिया शोध के अनुसार जंगल में ज़हरीले पारे का स्तर काफी अधिक है।

काफी समय से इन जंगलों में सोने का अवैध खनन किया जाता रहा है। इस खनन प्रक्रिया में भारी मात्रा में पारे का उपयोग किया जाता है जो सोना प्राप्त होने के बाद वाष्प के रूप में वातावरण में पहुंच जाता है। युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की जैव-रसायनज्ञ जैकी गेर्सन के अनुसार पारे की अत्यधिक मात्रा अब खाद्य जाल (फूड वेब) में प्रवेश कर चुकी है।       

गौरतलब है कि हाल के वर्षों में कोयला दहन को पीछे छोड़कर सोना खनन दुनिया के सबसे बड़े वायुजनित पारा प्रदूषण के स्रोत के रूप में उभरा है। इससे प्रति वर्ष 1000 टन पारा वातावरण में उत्सर्जित होता है जो मस्तिष्क व प्रजनन तंत्र के लिए काफी हानिकारक है। वास्तव में सोना निष्कर्षण में पारे का उपयोग एक सस्ता विकल्प है जिसमें पारे को अयस्क के घोल के साथ मिश्रित करने पर पारा सोने के साथ चिपक जाता है। इसके बाद पारे और सोने के मिश्रण को गर्म किया जाता है ताकि पारा वाष्प के रूप में अलग हो जाए।

इस तकनीक की मदद से पेरू के छोटे पैमाने के खनिकों ने मादरे दी दियोस नदी के किनारे के एक लाख हैक्टर से अधिक जंगल को उबड़-खाबड़ मैदान में बदल दिया है। वैज्ञानिकों ने पास के पोखरों और नदियों में पारे का पता लगाया है जिसने मछलियों को दूषित किया है। इन मछलियों का सेवन लोगों द्वारा किया जा रहा है। गौरतलब है कि पूर्व में किए गए अध्ययन में वनों की कटाई वाले क्षेत्र मादरे दी दियोस नदी के आसपास की मिट्टी में काफी कम स्तर में पारा पाया गया था। वैज्ञानिक यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहे थे कि बाकी पारा जाता कहां है।

इसका पता लगाने के लिए गेर्सन और उनके साथियों ने खनन के लिए निर्वनीकृत दो क्षेत्रों, खनन क्षेत्र से 50 किलोमीटर दूर के जंगल, और खनन क्षेत्र पर स्थित जंगल का अध्ययन किया। उन्होंने यहां से वर्षा जल, मिट्टी और पेड़ों की पत्तियों के नमूने एकत्रित किए। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार खदानों के आसपास के वनों में पारे की मात्रा 15 गुना अधिक थी (प्रति वर्ग मीटर मिट्टी में 137 माइक्रोग्राम) जो युरोप और उत्तरी अमेरिका के कोयला बिजली संयंत्रों के आसपास की मिट्टी की तुलना में काफी अधिक और चीन के औद्योगिक क्षेत्र के पारे के स्तर के बराबर है।  

इससे पता चलता है कि जंगल के पेड़ पारा-सोख्ता का काम कर रहे हैं। पत्तियां पारा मिश्रित धूल में से पारे की वाष्प को सोख लेती हैं। पत्तियों के गिरने या वर्षा से यह धातु मिट्टी में प्रवेश कर जाती है। वृक्षों के चंदोबे से प्राप्त पानी में लोस एमिगोस में अन्य स्थानों से दुगना पारा मिला।

इन नतीजों से यह भी लगता है कि पत्तियां और मिट्टी ज़हरीले पारे को अपने अंदर सोखकर इसके दुष्प्रभावों को कम करती है। इस तरह से वृक्षों में कैद पारे से वहां के लोगों और वन्यजीवों के लिए आम तौर पर कोई जोखिम नहीं होता है।     

फिर भी हवा में उड़ता पारा पानी में पहुंचकर जलीय बैक्टीरिया के संपर्क में आने पर मिथाइल मर्करी में परिवर्तित होकर घातक रूप ले सकता है। यह पारा जीव जंतुओं की कोशिकाओं में प्रवेश कर खाद्य जाल का हिस्सा बन जाता है। शोधकर्ताओं को वन्यजीवों में मिथाइल मर्करी की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। सान्गबर्ड की तीन प्रजातियों में 12 गुना अधिक पारा पाया गया। इसी तरह 10 में से 7 ब्लैक-स्पॉटेड बेयर आई पक्षी में इतना अधिक पारा मिला जो उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है। ज़ाहिर है यह फूड वेब में पारे के शामिल होने का संकेत देता है। (स्रोत फीचर्स)

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वृद्धावस्था में देखभाल का संकट और विकल्प – ज़ुबैर सिद्दिकी

विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।

यू.के. में 2017 में और उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके नियोक्ता भरते हैं।

कोविड-19 के दौरान वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।

लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की 25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएंगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।      

हालांकि भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।

मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।

गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।       

2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और व्यस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग अपने व्यस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है। 

वैसे, घर पर देखभाल की कुछ समस्याएं हैं। देखभाल का काम मुख्य रूप से महिलाओं के ज़िम्मे होता है और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है क्योंकि वे घर से बाहर काम करने नहीं जा पाती हैं।

यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।  

भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है लेकिन परिवार द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में बदलाव की दरकार है।

महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर निर्भर है।      

घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों (महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।

इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की दर कम है – वहां केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में नहीं रहते हैं जहां वे पैदा हुए थे। लेकिन वहां भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में, 25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएं अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर रहा है।   

इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई के तहत, 65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक कार्यों में मदद के लिए सेवाएं प्रदान करने तक हो सकती हैं।

एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा। हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता है।

यदि अप्रूवल बोर्ड दीर्घकालिक देखभाल की आवश्यकता नहीं देखता तो उन्हें ‘रोकथाम देखभाल’ की पेशकश की जा सकती है। इन सेवाओं में पुनर्वास और फिज़ियोथेरेपी शामिल हैं। रोकथाम सेवा इसलिए भी आवश्यक हो गई क्योंकि एलटीसीआई योजना की सफलता के चलते नामांकन की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई। वर्ष 2000 में जापान सरकार ने एलटीसीआई भुगतानों पर लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे जो 2017 में बढ़कर 7.02 लाख करोड़ हो गए। अनुमान है कि 2025 यह आंकड़ा 9.84 लाख करोड़ रुपए हो सकता है। खर्च कम करने के लिए सरकार ने 2005 में कुछ लाभों को कम कर दिया। 2015 में सक्षम लोगों के लिए 20 प्रतिशत भुगतान भी शामिल किया गया। सरकार ने प्रीमियम योगदान की उम्र घटाने की भी कोशिश की जिसका काफी विरोध हुआ।

कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का आकार समय के साथ बढ़ती ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालांकि, जापान ने जो समस्याएं एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें से कई समस्याएं अभी भी मौजूद हैं।

एक रोचक तथ्य यह है कि जहां 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।  

हालांकि, अभी भी जापान में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर

पृथ्वी पर जीवन के इतिहास के बारे में हमारी समझ विकसित करने में जीवाश्मों की एक बड़ी भूमिका रही है। जीवाश्मों से हमें जैव-विकास और पौधों एवं जीव-जंतुओं में अनुकूलन के महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इन साक्ष्यों की मदद से विभिन्न प्रजातियों के आपसी सम्बंध के बारे में भी जानकारी मिलती है। लेकिन एक हालिया अध्ययन बताता है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर है। इस विश्लेषण के अनुसार 97 प्रतिशत जीवाश्म सम्बंधी डैटा अमेरिका, जर्मनी और चीन जैसे उच्च और उच्च-मध्यम आय वाले देशों के वैज्ञानिकों से प्राप्त हुआ है।

इस अध्ययन में शामिल फ्राइडरिच एलेक्जे़ंडर युनिवर्सिटी की जीवाश्म वैज्ञानिक नुसाइबा रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड के उच्च आय वाले देशों के वैज्ञानिकों के पास संकेंद्रित होने की संभावना तो थी लेकिन इतने अधिक प्रतिशत की उम्मीद नहीं थी। रजा और उनकी टीम का मानना है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का अमीर देशों की ओर झुकाव जीवन के इतिहास के बारे में शोधकर्ताओं की समझ को प्रभावित कर सकता है। यह अध्ययन नेचर इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है।        

रजा और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन के लिए पैलियोबायोलॉजी डैटाबेस (पीबीडीबी) का उपयोग किया। पीबीडीबी में 80,000 शोध पत्रों से 15 लाख से अधिक जीवाश्म रिकॉर्ड शामिल हैं। टीम ने अपने अध्ययन में 1990 से 2020 के बीच पीबीडीबी में शामिल किए गए 29,039 शोध पत्रों का विश्लेषण किया है। इनमें से एक तिहाई से अधिक रिकॉर्ड अमेरिकी वैज्ञानिकों के पाए गए जबकि शीर्ष पांच में जर्मनी, यूके, फ्रांस और कनाडा के वैज्ञानिक शामिल थे। इस विश्लेषण में शोधकर्ताओं के अपने देश में पाए गए जीवाश्मों के साथ-साथ विदेशों में पाए गए जीवाश्म भी शामिल हैं।

आंकड़ों के मुताबिक अमेरिकी शोधकर्ताओं ने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय जीवाश्म दोनों पर लगभग समान रूप से काम किया जबकि युरोपीय देशों के वैज्ञानिकों ने अधिकांश जीवश्मीय अध्ययन विदेशों में किए हैं। जैसे, स्विट्ज़रलैंड के वैज्ञानिकों की 86 प्रतिशत जीवश्मीय खोजें विदेशों में की गई हैं।

विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि कई देशों में दशकों पहले खत्म हुए औपनिवेशिक सम्बंध आज भी जीवाश्म विज्ञान को प्रभावित कर रहे हैं। मोरक्को, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया में एक चौथाई से अधिक जीवाश्मीय अध्ययन फ्रांसीसी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए हैं। ये तीनों देश पूर्व फ्रांसीसी कॉलोनी रहे हैं। इसके अलावा, दक्षिण अफ्रीका और मिस्र में जीवाश्म का अध्ययन करने वाले 10 प्रतिशत शोध पत्रों में यूके के शोधकर्ता शामिल हैं जबकि तंज़ानिया के जीवाश्मों पर प्रकाशित 17 प्रतिशत शोध पत्र जर्मन वैज्ञानिकों के हैं।

कई मामलों में इन शोध कार्यों में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किया गया है। इस तरीके को आम तौर पर ‘पैराशूट विज्ञान’ कहा जाता है। रजा और उनकी टीम ने एक पैराशूट सूचकांक तैयार किया है जो यह दर्शाता है कि किसी देश का कितना जीवाश्मीय डैटा स्थानीय वैज्ञानिकों को शामिल किए बिना तैयार किया गया है। यह अनुपात म्यांमार और डोमिनिक गणराज्य में सर्वाधिक रहा। इन दोनों देशों में काफी मात्रा में एम्बर में संरक्षित जीवाश्म पाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है कि जीवाश्म विज्ञान पर अमीर देशों का अत्यधिक प्रभाव जीवन के इतिहास के बारे में एक विकृत दृष्टिकोण पैदा कर सकता है। पीबीडीबी जैसे संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि जीवाश्म रिकॉर्ड अनगिनत पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है। इनमें चट्टान की उम्र और उसका प्रकार शामिल है जिसमें जीवाश्म संरक्षित रह सकते हैं। लेकिन आम तौर पर जीवाश्म को एकत्रित करने वाले व्यक्ति के पूर्वाग्रहों पर कम ध्यान दिया जाता है। रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड को प्रभावित करने वाले भौतिक कारकों पर तो बात होती है लेकिन मानवीय कारकों के बारे में नहीं।

कुछ अन्य जीवाश्म विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हैं जो पैराशूट विज्ञान जैसी प्रवृत्तियों को उजागर कर सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि वैज्ञानिक ज्ञान को कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं रखना चाहिए और न ही इसे मुट्ठी भर देशों के शोधकर्ताओं द्वारा निर्मित किया जाना चाहिए। पैराशूट विज्ञान से न सिर्फ जीवाश्म विज्ञान प्रभावित होता है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी नुकसान होता है। जीवाश्म खोजें पर्यटकों को संग्रहालयों की ओर आकर्षित करके स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहायता प्रदान करती हैं। यदि विदेशी वैज्ञानिक इन जीवाश्मों को अपने देश ले जाते हैं तो स्थानीय लोग इनका लाभ नहीं प्राप्त कर पाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

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भू-जल में रसायनों का घुलना चिंताजनक – अली खान

हाल में जारी केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 18 राज्यों के 249 ज़िलों का भूजल खारा है, जबकि 23 राज्यों के 370 ज़िलों में मानक से अधिक फ्लोराइड पाया गया है। 21 राज्यों के 154 ज़िलों में आर्सेनिक की शिकायत है। इसी तरह 24 ज़िलों के भूजल में कैडमियम, 94 ज़िलों में लेड, 341 ज़िलों में आयरन और 23 राज्यों के 423 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा स्वीकार्य से अधिक मिली है। कृषि प्रधान राज्य उत्तर प्रदेश के 59, पंजाब के 19, हरियाणा के 21 और मध्य प्रदेश के 51 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई गई है।

बता दें कि इन ज़िलों में उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग और सिंचाई की अवैज्ञानिक तकनीक के चलते यह समस्या पैदा हो रही है। जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा पाचन क्रिया और सांस लेने की तकलीफ को बढ़ा रही है। संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय ने केंद्रीय भूजल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भूजल प्रदूषण का ब्यौरा दिया। इसके मुताबिक देश के चार सौ से अधिक ज़िलों के भूजल में घातक रसायन घुलने से पीने के स्वच्छ व शुद्ध जल का गंभीर संकट पैदा हो गया है। कई ज़िलों के भूजल में पहले से ही फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन और भारी धातुएं निर्धारित मानक से अधिक थीं, वहीं ज़्यादातर ज़िलों में नाइट्रेट और आयरन की मात्रा बढ़ रही है।

भूजल में नाइट्रेट बढ़ने के पीछे मानवजनित अतिक्रमण को ज़िम्मेदार बताया गया है। उल्लेखनीय है कि उन राज्यों के भूजल में नाइट्रेट ज़्यादा बढ़ रहा है जहां सघन खेती में उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग हो रहा है। भारी धातुओं और अन्य घातक रसायनों के जल में घुलने से पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। यदि समय रहते प्रदूषण की रोकथाम न की गई तो पेयजल संकट खड़ा हो जाएगा।

मालूम हो, प्राकृतिक संसाधन सीमित होते हैं और इनके असीमित उपयोग से संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के साम्राज्य का भयानक विनाश किया है। इसका परिणाम है कि पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भाग पर जल होने के बावजूद राष्ट्र संघ की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि विश्व की आधी आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। भारत में स्थिति और भी अधिक भयावह है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भूजल में नाइट्रेट की मात्रा का बढ़ना चिंताजनक है।

लोक सभा में लिखित उत्तर में मंत्रालय ने बताया कि 24 सितंबर 2020 की एक अधिसूचना के मुताबिक भूजल ‌की गुणवत्ता के लिए कई सख्त प्रावधान किए गए हैं। जिनमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करना और जलाशयों व नदियों में गंदा पानी डालने के सारे स्रोतों को बंद करना शामिल है। इसी अधिसूचना के तहत केंद्र व राज्य सरकारें संयुक्त रूप से जल जीवन मिशन का संचालन कर रहीं हैं ताकि लोगों को उनके घर तक नल से सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति की जा सके। गौरतलब है कि इस मिशन की शुरुआत अगस्त 2019 में की गई थी। इसके तहत वर्ष 2024 तक देश के सभी ग्रामीण घरों को जलापूर्ति सुनिश्चित की जानी है।

स्वास्थ्य संगठन के प्रतिवेदन के मुताबिक लगभग 80 फीसदी रोगों का कारण जल है। इसी प्रकार, आयुर्वेद के अनुसार जल कई रोगों का शामक है।

जानकारी के लिए बता दें कि नाइट्रेट नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बने हुए ऐसे यौगिक होते हैं जो कई खाद्य पदार्थों, विशेषतः सब्ज़ियों, मांस एवं मछलियों में पाए जाते हैं। वस्तुतः नाइट्रेट जैविक नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के अंतिम उत्पाद होते हैं। पानी में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता तथा मृदा कणों की कम धारण क्षमता के कारण अति सिंचाई या अति वर्षा से खेतों में से बहता पानी अपने साथ नाइट्रेट को भी बहाकर कुंओं, नालों एवं नहरों में ले जाता है। इस प्रकार मनुष्य और पशुओं के पीने का पानी नाइट्रेट प्रदूषित हो जाता है।

देश की जनसंख्या के लिए अनाज उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों का अधिकतम उपयोग हो रहा है। विगत वर्षों में देश में नाइट्रोजन उर्वरकों की खपत बहुत बढ़ी है। वैज्ञानिकों ने भूजल में बढ़ती हुई नाइट्रेट सांद्रता का प्रमुख कारण नाइट्रोजन उर्वरक को ही माना है। यह भी देखा गया है कि उर्वरकों के संतुलित उपयोग की अपेक्षा मात्र नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग की वजह से ऐसी स्थिति पैदा होती है।

पेयजल में नाइट्रेट की अधिक सांद्रता मानव, मवेशी, जलीय जीव तथा औद्योगिक क्षेत्र को भी प्रभावित करती है। वस्तुतः नाइट्रेट स्वयं स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है, परंतु इसके अपचयन से बने नाइट्राइट की वजह से इसकी अत्यल्प मात्रा भी घातक हो जाती है। नाइट्रेट जब जल या भोजन के माध्यम से शरीर मे प्रवेश करता है तो शरीर के जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित कर दिया जाता है जो एक सशक्त ऑक्सीकारक होता है। यह रक्त में हीमोग्लोबिन को मेट-हीमोग्लोबिन में बदल देता है, जिसके कारण हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता गंवा देता है। अत्यधिक रूपांतरण की स्थिति में आंतरिक श्वास-अवरोध हो सकता है जिसके लक्षण चमड़ी तथा म्यूकस झिल्ली के हरे-नीले रंग से पहचाने जा सकते हैं। इसे ब्ल्यू बेबी सिंड्रोम या साइनोसिस भी कहते हैं। छोटे बच्चों में यह रूपांतरण दुगनी गति से होता है। दूध पीते बच्चों की माताओं द्वारा उच्च नाइट्रेट युक्त जल पीने से दूध भी विषाक्त हो जाता है।

रूस के वैज्ञानिकों ने नाइट्रेट विषाक्तता के दुष्प्रभाव केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर भी देखे हैं। ये प्रभाव मात्र 105 से 182 मिलीग्राम प्रति लीटर नाइट्रेट सांद्रण पर ही दिखने लगते हैं। इसी प्रकार हृदय संवहनी तंत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखे गए हैं।

नाइट्रेट के परिवर्तन से बना नाइट्राइट एन-नाइट्रोसो यौगिक बनाता है जो कैंसरकारी होते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि उच्च नाइट्रेट युक्त जल तथा पाचन तंत्र के कैंसर में गहरा सम्बंध है। कुल मिलाकर, जल में नाइट्रेट की बढ़ती मात्रा विभिन्न रोगों को न्यौता देती है।

जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा मवेशियों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। एक अध्ययन में गाय, भैंस, बकरी जैसे दुधारू मवेशियों में नाइट्रेट विषाक्तता देखी गई है। जई, बाजरा, मक्का, गेहूं, जौ, सूडान ग्रास तथा राई ग्रास ऐसे पौधे हैं जिनमें नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है। यदि चारे को ऐसी भूमि में उगाया जाए जिसमें कार्बनिक तथा नाइट्रोजन तत्व अधिक हों और नाइट्रोजन उर्वरक अधिक मात्रा में प्रयोग किए गए हों तो ऐसी स्थिति में चारे में नाइट्रेट विषाक्तता अधिक हो जाती है। नाइट्रेट विषाक्तता पशुओं में जठर आंत्र शोथ उत्पन्न करती है। चारागाह में चरते पशुओं की अचानक मृत्यु भी देखी गई है। तेज़ दर्द, लार-गिरना, कभी-कभी पेट फूलना तथा बहुमूत्रता जैसे लक्षणों के साथ रोग का एकाएक प्रकोप होता है। श्वास का तेज़ी से चलना तथा श्वास में कष्ट होेना, तेज़ नाड़ी, लड़खड़ाना एवं तापमान का कम हो जाना भी इस रोग के अन्य लक्षण हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज़्ज़तनगर (बरेली) के वैज्ञानिकों ने पाया है कि पैरा घास या अंगोला (ब्रैकिएरिया म्यूटिका) खाने से बछड़ों में अति तीव्र नाइट्रेट विषाक्तता और बकरियों में चिरकालिक नाइट्रेट विषाक्तता हो जाती है। देश के शुष्क क्षेत्रों में गर्मियों के दिनों में प्यासे पशु जब एक साथ अत्यधिक नाइट्रेट युक्त पानी पी लेते हैं तो उनमें नाइट्रेट विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है जो कभी-कभी उनकी मृत्यु का कारण भी बन जाती है। कई दुधारू पशुओं में नाइट्रेट युक्त पानी पीने से दुग्धस्राव में कमी एवं गर्भपात भी देखे गए हैं।

सवाल यह है कि जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा को कैसे कम किया जाए? जल में नाइट्रेट की उपस्थिति पर सरकारें गंभीर क्यों नहीं हैं? गौरतलब है कि जल राज्य सूची का विषय है। राज्य सरकारें जल में बढ़ते प्रदूषक तत्वों के प्रति ढिलाई बरत रही हैं। केंद्र सरकार का रवैया उदासीन रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पानी को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए। ऐसा होने पर व्यापक कार्य योजना विकसित करने में मदद मिलेगी। केंद्र और राज्यों के बीच सहमति से भूजल सहित जल का बेहतर संरक्षण, विकास और प्रबंधन संभव होगा।

जल में नाइट्रेट के कहर को देखते हुए इसके अधिक सांद्रण को कम किया जाना चाहिए। जल में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता के कारण इसका जल से अपनयन दुष्कर कार्य होता है। कृषि प्रधान देशों में नाइट्रेट प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन चुका है। वर्तमान में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर हमारे देश के 16 राज्यों के भूजल में नाइट्रेट का सांद्रण 45 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है। इनमें कई राज्यों के भूजल में कुल घुलनशील ठोस का मान भी अधिक है। पेयजल आपूर्ति में नाइट्रेट मुक्त जल प्राप्त करने हेतु वैकल्पिक विधियां अपनाए जाने की दरकार है। ऐसे क्षेत्रों में जहां जल में नाइट्रेट स्तर अधिक हो वहां नलकूप खोदकर जलापूर्ति करना, सपाट कुओं को चौड़ा करना अथवा अधिक गहराई से जल प्राप्त करने की कोशिशें होनी चाहिए। साथ ही जल संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सहयोग से डार्क ब्लॉक्स में स्थित गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों को चिंहित करने के लिए कारगर तंत्र विकसित करना चाहिए। सतही जल और भूमिगत जल स्रोतों में औद्योगिक कचरे की डंपिंग को कम करने और नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। साथ ही केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने जिन उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किए हैं, उनकी नियमित निगरानी के लिए एक व्यवस्था कायम की जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि प्रमाण पत्र में दर्ज शर्तों का पालन किया जा रहा है। सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडलों को उपयुक्त और प्रभावी निगरानी तंत्र गठित करना चाहिए। आज जल संरक्षण हमारा विशेष सरोकार होना चाहिए, जिससे इस समस्या को विकराल रूप धारण करने से रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन से सबसे बड़े मत्स्य-भंडार को खतरा

क्षिण-पूर्वी प्रशांत महासागर में पाई जाने वाली पेरूवियन एंकोवी नामक मछली आकार में छोटी लेकिन काफी महत्वपूर्ण जीव है। एक उंगली के बराबर इस मछली का सबसे अधिक शिकार किया जाता है जो वैश्विक मत्स्याखेट का लगभग 15 प्रतिशत तक होता है। इन अत्यधिक पौष्टिक मछलियों का अधिकांश उपयोग सैल्मन और अन्य व्यावसायिक मत्स्य प्रजातियों के भोजन के रूप में किया जाता है जिनकी कीमत अरबों डॉलर है। प्राचीन तलछट और जीवाश्मों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दर्शाया है कि किसी समय महासागरों की सतह के पानी के गर्म होने से इस मूल्यवान संसाधन का सफाया हो गया था। आशंका है कि वर्तमान जलवायु परिवर्तन के कारण एक बार फिर यह आपदा दोहराई जा सकती है। और यदि समुद्र ऐसे ही गर्म होते रहे तो समुद्री पक्षियों से लेकर समुद्री स्तनधारी शिकारियों के लिए एंकोवियों के बिना काफी कठिन समय होगा। इस स्थिति में कई प्रजातियों की विलुप्ति का जोखिम बढ़ जाएगा।      

शोधकर्ता लंबे समय से जंगली मछलियों की आबादी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे काफी चिंतित रहे हैं। गौरतलब है कि कुछ प्रजातियों को प्रजनन के लिए तापमान के एक निश्चित परास की आवश्यकता होती है। ज़्यादा सामान्य मुद्दा यह है कि जब पानी के तापमान में वृद्धि होती है तो उसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। इस स्थिति में छोटी मछलियों की तुलना में बड़ी मछलियों को अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है क्योंकि उन्हें तुलनात्मक रूप से अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है। यदि ये प्रजातियां आसानी से ठंडे पानी की ओर नहीं जा पाएंगी तो उनकी आबादियों में छोटी मछलियों की संख्या बढ़ेगी जो मत्स्योद्योग के लिए एक बड़ी समस्या बन जाएगा।

अभी भी यह कहना मुश्किल है कि इस बदलाव के पीछे जलवायु परिवर्तन ही एकमात्र कारण है। इसका एक कारण अत्यधिक मत्स्याखेट भी हो सकता है जो जाल से बच निकलने वाली छोटी मछलियों की संख्या वृद्धि को प्रेरित कर सकता है।

इस समस्या को गहराई से समझने के लिए कीएल स्थित क्रिश्चियन-अल्ब्रेक्ट युनिवर्सिटी के मत्स्य जीवविज्ञानी रेनाटो साल्वाटेची ने अत्यधिक मत्स्याखेट के शुरू होने से पहले की गर्म अवधि का अध्ययन करने का निर्णय लिया। मछली की आबादी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए उन्हें पेरू आदर्श स्थान लगा क्योंकि यहां समुद्र में तलछटीकरण की उच्च दर और प्रचुर मात्रा में मछलियों के कारण समुद्र तल में जीवाश्मों का अच्छा रिकॉर्ड मिलने की संभावना थी।

साल्वाटेची ने 14 मीटर लंबे एक तलछट स्तंभ का अध्ययन किया। इसे 2008 में एक शोध पोत द्वारा निकाला गया था। इसमें 1,16,000 से 1,30,000 वर्ष पहले जमा तलछट थी। यह नमूना उस समय का था जब पृथ्वी आज की तुलना में गर्म जलवायु का अनुभव कर रही थी। उस तलछट बनने के समय समुद्री जल का तापमान और ऑक्सीजन की सांद्रता का पता लगाने के लिए उन्होंने छोटे समुद्री जीवों के जीवाश्मों में नाइट्रोजन समस्थानिकों का मापन किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि पानी आज की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म था और उसमें ऑक्सीजन की कमी थी। इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए साल्वाटेची ने यह पता लगाने का प्रयास किया कि उस समय पानी में किस प्रकार की मछलियां रहती थीं। इसके लिए उन्होंने दो वर्ष तक मछलियों की 1,00,000 से अधिक रीढ़ की हड्डियों के जीवाश्मों और अन्य अवशेषों का अध्ययन किया।

साल्वाटेची ने पाया कि पिछली शताब्दी में जमा तलछट में अधिकांश हड्डियां एंकोवी मछलियों की थीं। साइंस पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पूर्व की गर्म अवधि के दौरान लगभग 60 प्रतिशत मछलियां अन्य छोटी प्रजातियों की थीं। इसमें गोबी मछली के आकार की मछलियां शामिल थीं जो एंकोवी से छोटी थीं और कम ऑक्सीजन में रहने के लिए बेहतर अनुकूलित थीं। इसके अलावा पनामा लाइटफिश जैसी गहरे पानी की प्रजातियां थीं जो कम ऑक्सीजन में पनप सकती थीं।

एंकोवीज़ की तुलना में ये प्रजातियां मत्स्योद्योग के लिए मुफीद नहीं हैं। छोटे आकार के कारण छोटे छिद्र वाले जालों की आवश्यकता होगी जिन्हें साफ करना मुश्किल होता है। ये मछलियां झुंड में भी नहीं रहती हैं इसलिए जहाज़ों को बड़ी संख्या में शिकार पकड़ने के लिए लंबी यात्रा की आवश्यकता होगी और अधिक ईंधन की खपत होगी। और तो और, ये मछलियां एंकोवी की तुलना में कम पौष्टिक होती हैं। एंकोवी की घटती आबादी का मतलब सैल्मन जैसी मछलियों का आहार महंगा और कम पौष्टिक हो जाएगा जिससे कीमतों में वृद्धि होगी। एंकोवी मैकेरल और अन्य जंगली प्रजातियों को भी सहारा देती हैं। एंकोवी की घटती आबादी से ये प्रजातियां दुर्लभ हो जाएंगी और इनको पकड़ना भी एक बड़ी चुनौती होगा।

पूर्व में, पानी के गर्म होने की स्थिति में कुछ एंकोवी दक्षिण में ठंडे पानी की ओर जा सकती थीं जहां वे आसानी से प्रजनन कर सकती थीं। लेकिन ये दक्षिणी क्षेत्र बड़ी आबादी का निर्वाह नहीं कर सकते। पेरू का तटीय क्षेत्र स्थानीय धाराओं से पोषित होता है जहां अधिक गहराई से भोजन प्राप्त होता है।

साल्वाटेची के अनुसार एंकोवी को अन्य मछलियों का आहार बनाने की बजाय सीधे एंकोवी का सेवन करने से स्थिति में सुधार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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केन-बेतवा लिंक परियोजना के दूसरे पक्ष पर भी ध्यान दें – भारत डोगरा

दिसंबर में केन-बेतवा लिंक परियोजना को भारत सरकार की स्वीकृति मिल गई। इस परियोजना के विषय में सरकार का दावा है कि इससे सिंचाई, पेयजल व ऊर्जा के महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। पर संतुलित आकलन के लिए आवश्यक है कि परियोजना के सभी पक्षों पर समुचित ध्यान दिया जाए ताकि लगभग 44,000 करोड़ की इस महंगी परियोजना के लाभ-हानि पक्ष भली-भांति समझकर ही आगे बढ़ा जाए।

इस परियोजना में लगभग 21 लाख पेड़ कटने की बात सरकारी रिपोर्टों में स्वीकार की गई है तथा अच्छी गुणवत्ता के, सुरक्षित क्षेत्र के वनों के उजड़ने की बात है जिससे वन्य जीवों की बहुत क्षति होगी। हालांकि सरकार का दावा है कि वन्य जीवों की क्षति कम करने के प्रयास किए जाएंगे पर इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटने की स्थिति बहुत कष्टदायक है। एक-एक वृक्ष को बहुत उपयोगी माना जाता है। वैसे तो वृक्षों की कितनी ही तरह की देन है, पर जल-संरक्षण में उनका विशेष महत्त्व है तथा जलवायु बदलाव के इस दौर में उनकी कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है।

सरकारी पक्ष का कहना है कि बुंदेलखंड के जल संकट को दूर करने में इस परियोजना की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, पर बुंदेलखंड पर हुए अध्ययन तो बताते हैं कि यहां के जल संकट के बढ़ने का एक प्रमुख कारण वनों का उजड़ना है। इस स्थिति में जल संकट का समाधान ऐसी परियोजना से कैसे हो सकता हे जिसमें 21 लाख पेड़ कट रहे हों? विज्ञान शिक्षा केंद्र व आईआईटी दिल्ली के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि वन-विनाश से बुंदेलखंड का जल संकट विकट हुआ है।

इसके बावजूद सरकारी पक्ष का कहना है कि केन में अतिरिक्त पानी है और बेतवा में कम पानी है, अतः केन से बेतवा में पानी पहुंचाकर जल संकट का समाधान हो सकता है। यह दावा किन आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा है, यह अभी तक अपारदर्शिता के माहौल में स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर, स्थानीय लोग व कई विशेषज्ञ तक कह चुके हैं कि केन नदी में अतिरिक्त पानी नहीं है। इतना ही नहीं, हाल के वर्षों में रेत खनन के कारण केन नदी व उसकी सहायक छोटी नदियों की बहुत क्षति हुई है। उनकी जल धारण व प्रवाह क्षमता कम हुई है। यह समय केन नदी की रक्षा का है, उससे पानी कहीं और भेजने का नहीं है।

केन और बेतवा क्षेत्र एक दूसरे से लगे हुए हैं। उनमें प्रायः एक सा मौसम रहता है। सूखा पड़ता है तो दोनों में; अतिवृष्टि होती है तो दोनों में। ऐसी स्थिति में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जल भेजकर जल संकट दूर करने की बात बेमानी ही प्रतीत होती है।

केन-बेतवा लिंक परियोजना में बांध बनेगा, 230 कि.मी. की जोड़-नहर बनेगी तो लाखों पेड़ कटेंगे, लोग विस्थापित होंगे। सवाल यह है कि इस क्षति से बचते हुए ही क्यों न जल संकट का समाधान किया जाए। यह संभव भी है। बुंदेलखंड व आसपास का क्षेत्र चाहे आज जल संकट से त्रस्त है, पर यहां जल संरक्षण का समृद्ध इतिहास रहा है। बांदा, महोबा, चित्रकूट, टीकमगढ़, छतरपुर आदि स्थानों के ऐतिहासिक तालाब व जल संरक्षण-संग्रहण एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में हमारे सामने मौजूद हैं। इनसे पता चलता है कि स्थानीय स्थितियों के अनुसार उच्च गुणवत्ता का जल-संरक्षण कार्य कैसे होता है। इस ऐतिहासिक धरोहर का बेहतर रख-रखाव तो ज़रूरी है ही, इससे सीखते हुए बहुत से कम बजट व उच्च गुणवत्ता के जल-संरक्षण कार्य हाल के वर्षों में भी सफलता से आगे बढ़े हैं।

अतः हमें जल संकट समाधान के ऐसे उपायों की ओर ध्यान देना चाहिए जिनसे पर्यावरण, वन व जनजीवन की क्षति न हो, विस्थापन का त्रास न हो तथा साथ में जल संरक्षण का टिकाऊ कार्य भी आगे बढ़े। ऐसे विकल्प निश्चित रूप से उपलब्ध हैं। यह तथ्यात्मक स्थिति केवल केन-बेतवा लिंक परियोजना की ही नहीं है अपितु अनेक अन्य नदी-जोड़ योजनाओं की भी है। इस तरह की लगभग 30 परियोजनाएं समय-समय पर चर्चा का विषय रही हैं। हमें सभी विकल्पों पर विचार करते हुए ऐसा निर्णय लेना चाहिए जो देश के लिए सबसे हितकारी हो।

अनेक विशेषज्ञों ने समय-समय पर रिपोर्ट तैयार कर, पत्र भेज कर, बयान जारी कर यह कहा है कि केन-बेतवा लिंक परियोजना व अन्य नदी-जोड़ परियोजनाओं के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं। सरकार को चाहिए कि वह इन सब पर उचित ध्यान देते हुए इनमें उठाए सवालों पर भी समुचित विचार करे ताकि अंत में वही निर्णय लिए जाएं जो व्यापक राष्ट्र हित में हों। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन सोखने के लिए समुद्र में उर्वरण

पादप-प्लवक अपने जलीय पर्यावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित कर लेते हैं इसलिए  सुझाव है कि यदि समुद्रों में कृत्रिम रूप से लौह तत्व उपलब्ध करा दिया जाए तो पादप-प्लवक तेज़ी से फले-फूलेंगे और अपनी वृद्धि के लिए अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखेंगे और वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में कमी आ सकती है। पर्यावरणविद इस रणनीति का विरोध कर रहे हैं और इसे भू-इंजीनियरिंग का उतावलापन बता रहे हैं।

लेकिन यह जल्द ही अमल में आ सकती है। पिछले हफ्ते समुद्र वैज्ञानिकों के एक पैनल ने कहा है कि इस तरह ‘लौह उर्वरण’ के प्रयोग ज़रूरी हैं, और यूएस से 29 करोड़ डालर खर्च करने का आह्वान किया है ताकि 1000 वर्ग किलोमीटर समुद्र में 100 टन लौह छिड़का जा सके।

पृथ्वी की बदलती जलवायु से निपटने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रयास चल रहे हैं। लेकिन कई वैज्ञानिकों का मानना है कि गंभीर जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए हमें नेगेटिव एमिशन टेक्नॉलॉजी का भी उपयोग करना चाहिए जो हवा से कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों को सोख लें। थलीय योजनाओं में तो अरबों डॉलर खर्च किए गए हैं, लेकिन इस मामले में समुद्र अपेक्षाकृत अछूते रहे हैं। वैसे तो समुद्र पहले ही मानव गतिविधियों से उत्सर्जित लगभग एक-तिहाई कार्बन सोख चुके हैं लेकिन वैज्ञानिकों को लगता है कि अभी और क्षमता बाकी है।

वैसे पैनल ने तटीय पारिस्थितिक तंत्रों के पुनर्वास, बड़े पैमाने पर समुद्री शैवाल उगाने, और समुद्र में गहराई से पोषक तत्व ऊपर लाकर प्लवक उत्पादन को बढ़ावा देने जैसे सुझाव भी दिए हैं। महंगे विकल्पों में बिजली की मदद से समुद्री जल से कार्बन डाईऑक्साइड निकाल कर ज़मीन में अंदर डालना; और चट्टानों के चूरे को समुद्र में फैलाकर इसे अधिक क्षारीय बनाकर कार्बन सोखने की क्षमता को बढ़ाना शामिल है।

लौह उर्वरण एक सस्ता विकल्प है। प्रकाश संश्लेषक प्लवक वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोख लेते हैं। उनके फलने-फूलने के लिए लौह तत्व उन्हें कई स्रोतों से मिलता है। लेकिन लौह की कमी के कारण उनकी वृद्धि में कमी आती है। अतिरिक्त लौह उनकी वृद्धि में मदद करेगा और वे अधिक कार्बन सोखेंगे। यह अंतत: समुद्र की गहराई में चला जाएगा और वहां सदियों तक पड़ा रहेगा।

लेकिन कई अगर-मगर हैं। जैसे, वास्तव में कितना अवशोषित कार्बन समुद्र में बना रहेगा? अन्य जीव इसका उपभोग करके इसे कार्बन डाईऑक्साइड के रूप में वापस उत्सर्जित कर सकते हैं। यह सवाल भी है कि इस प्रक्रिया की निगरानी कैसे की जाएगी?

कहा जा रहा है कि यदि कार्बन का 10 प्रतिशत भी गहराई में बना रहता है तो रणनीति कारगर होगी। लेकिन पिछले प्रयोगों के एक आकलन में देखा गया है कि इनमें से सिर्फ एक ने गहराई में कार्बन का स्तर बढ़ाया था। गौरतलब है कि अगले साल गर्मियों में भारत के इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन स्टडीज़ द्वारा अरब सागर के एक हिस्से में लौह की परत चढ़ी चावल की भूसी फैलाने की योजना है। (स्रोत फीचर्स)

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ज़हरीले रसायन वापस उगल रहा है समुद्र

कारखानों से निकले अपशिष्ट, जल उपचार संयंत्रों द्वारा नदियों में छोड़े गए दूषित जल ने पूरी दुनिया की मिट्टी और पानी को टिकाऊ यौगिकों, जिन्हें PFAS कहते हैं, से दूषित कर दिया है। वैज्ञानिक और नीति निर्माता चिंतित थे कि नदियों और पेयजल में पाए जाने वाले ज़हरीले रसायनों से कैसे छुटकारा पाया जाए? एक उम्मीद थी कि PFAS बहकर समुद्र में जाएंगे और वहीं थमे रहेंगे। लेकिन पता चला है कि समुद्री फुहार के साथ PFAS वापस हवा में फेंका जा रहा है।

आम समझ है कि समंदर हर चीज़ को हमेशा के लिए अपने में समा लेगा। यह नया अध्ययन चेताता है कि समुद्र के बारे में हमें अपना रवैया बदलना होगा।

PFAS नॉनस्टिक बर्तनों से लेकर फायर फाइटिंग फोम जैसी चीज़ों में उपयोग किए जाते हैं। ये पानी, गर्मी और तेल के अच्छे प्रतिरोधी होते हैं और इसलिए इनका काफी उपयोग होता है। PFAS के रासायनिक आबंध बहुत मज़बूत होते हैं जिसके चलते इन्हें ‘टिकाऊ रसायन’ कहा जाता है। प्रयोगशाला में हुए अध्ययनों में पता चला है कि PFAS जानवरों के लीवर और प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचा सकते हैं, और जन्मजात विकृतियों और मृत्यु का कारण बन सकते हैं। मनुष्यों में ये कैंसर और जन्म के समय कम वज़न का कारण बनते हैं।

शोधकर्ता जानते थे कि किनारों पर आकर टूटती लहरों से बनी धुंध प्रदूषकों को समुद्र से वायुमंडल में स्थानांतरित कर सकती है। सफेद, झागदार बुलबुलों में न सिर्फ हवा होती है बल्कि उनमें रसायनों की सूक्ष्म बूंदें भी होती हैं। स्टॉकहोम युनिवर्सिटी के मैथ्यू साल्टर ने समुद्री फुहार सिमुलेटर की मदद से दर्शाया था कि एरोसॉल की बूंदों में समुद्री जल की तुलना में 62,000 गुना अधिक PFAS हो सकते हैं। लेकिन यह पता नहीं था कि PFAS-युक्त समुद्री एरोसॉल वायुमंडल में पहुंचते हैं।

यह पता करने के लिए साल्टर और उनके साथियों ने नॉर्वे के दो समुद्र तटों से 2018 से 2020 तक समय-समय पर हवा के नमूने एकत्रित किए। एकत्रित नमूनों में प्रयोगशाला में PFAS और सोडियम आयनों के स्तर की जांच की, जो समुद्री फुहार एरोसॉल में मुख्यत: पाए जाते हैं।

एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि नमूनों में PFAS की मात्रा सोडियम के स्तर के लगभग बराबर थी – जो इस बात का संकेत है कि ये दोनों ही हवा में समुद्री फुहार के माध्यम से आए थे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि निष्कर्ष सुझाते हैं कि उनके नमूनों में PFAS की कुछ मात्रा समुद्री एरोसॉल के ज़रिए आई है। उनका अनुमान है कि 0.1 प्रतिशत से 0.4 प्रतिशत पीएफओएस (विशिष्ट तरह के PFAS) समुद्री स्प्रे एयरोसोल के ज़रिए हर साल वापस ज़मीन पर आ जाते हैं। चिंता की बात है कि हवाओं के ज़रिए PFAS सैकड़ों किलोमीटर दूर तक फैल सकते हैं और भोजन-पानी को दूषित कर सकते हैं। इससे यह भी समझने में मदद मिल सकती है कि वास्तव में PFAS ग्लेशियरों, आइस कैप्स और केरिबू में कितने टिकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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भूवैज्ञानिक धरोहर और जियो-उद्यान विधेयक – डी. एम. बैनर्जी

जियोहेरिटेज यानी भूवैज्ञानिक धरोहर एक साधारण लेकिन वर्णात्मकशब्द है जो महत्वपूर्ण वैज्ञानिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और सौंदर्य से भरपूर भूगर्भीय स्थलों या क्षेत्रों पर लागू होता है। यह स्थल उन भूगर्भीय प्रक्रियाओं के बारे में विचित्र जानकारियां प्रदान करते हैं जिसने भूवैज्ञानिक संरचनाओं को जन्म दिया और उनको प्रभावित किया है। यह हमें पृथ्वी के संरक्षण और विकास के बारे में शिक्षित करते हैं। इन मूलभूत भूवैज्ञानिक विशेषताओं का सांस्कृतिक और/या विरासती महत्व भी हो सकता है। संक्षिप्त में, जियोहेरिटेज चट्टानों, मिट्टी और भू-आकृतियों में संरक्षित भूगर्भीय अतीत की धरोहर है। धरोहर का सिद्धांत वास्तव में एक सांस्कृतिक निर्माण है जो प्राकृतिक स्थलों या क्षेत्रों और उनके ऐतिहासिक उपयोग से सम्बंधित होता है। जियोहेरिटेज को भी जैव विविधता और सांस्कृतिक स्थलों के समान संरक्षण मिलना चाहिए। यह तो ज़ाहिर है कि सभी भूविज्ञानी इस बात से सहमत हैं कि भूविज्ञान एक दिलचस्प विषय है, लेकिन पृथ्वी पर भूगर्भीय विशेषताओं को आम जनता के लिए आकर्षक बनाना भी आवश्यक है जो पृथ्वी की विशेषताओं के महत्व से अनभिज्ञ हैं। आम लोगों को यह समझाना आवश्यक है जो समय और आयाम के भूवैज्ञानिक पैमाने के आदी नहीं हैं।

जियोपार्क या भूवैज्ञानिक उद्यान का सिद्धांत वर्ष 2000 में युरोप में विकसित किया गया था। 2004 में, यूनेस्को ने जियोपार्क्स को एकीकृत भौगिलिक क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भूवैज्ञानिक महत्व के कुछ स्थलों और भूदृश्यों को संरक्षण, शिक्षा और सतत विकास की समग्र अवधारणा के साथ प्रबंधित किया जाता है। दूसरे शब्दों में, जियोपार्क स्थानीय लोगों की भागीदारी के साथ भूवैज्ञानिक धरोहर की रक्षा के लिए बनाए गए स्थल होते हैं। इन स्थलों को आदर्श पारिस्थितिक पर्यटन स्थल के रूप में तैयार किया जाता है ताकि जियोहेरिटेज का संरक्षण हो सके और इस क्षेत्र के समुदाय को भी लाभ पहुंच सके। इसलिए, यह सतत विकास का एक महत्वपूर्ण तरीका है। नवंबर 2015 में, यूनेस्को ने इस सिद्धांत को समर्थन दिया (http://www.globalgeopark.org/News/News/9979.htm) और ‘यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क्स नेटवर्क’ को प्रमाणित करने और आधिकारिक भागीदार (अर्थ साइंस फॉर सोसाइटी, यूनेस्को; 7 जनवरी 2020 को पुन:प्राप्त) बनने का निर्णय लिया। इसका उद्देश्य प्रकृति के चमत्कारों के बारे में जागरूकता पैदा करना और लोगों को इस पृथ्वी के मोहक पहलुओं से जोड़ने में मदद करना है। वर्ष 2015 में, इंटरनेशनल युनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने एक संकल्प लिया जिसमें भू-विविधता को प्राकृतिक विविधता और प्राकृतिक धरोहर के एक अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया गया। इसके तहत भू-विविधता और भू-संरक्षण को भी जैव विविधता और प्राकृतिक संरक्षण का अभिन्न अंग माना गया। वर्तमान में 44 देशों में 169 यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क हैं, जिसमें से चीन में 41 जियोपार्क हैं। वहीं भारत में एक भी जियोपार्क नहीं है।

जियोहेरिटेज संरक्षण के एक अभिन्न अंग के रूप में, भू-पर्यटन एक स्थान के विशिष्ट भौगोलिक विशेषता यानी उसके पर्यावरण, सौंदर्य, संस्कृति और स्थानीय लोगों के हितों को बनाए रखता है और उसमें वृद्धि भी करता है। जियोपार्क्स न सिर्फ पर्यटन को बढ़ावा देते हैं बल्कि वे उस राज्य को भी वित्तीय संसाधन प्रदान करते हैं जहां वे स्थित हैं। इन स्थलों को विकसित करने से इस क्षेत्र के लोगों को होटल, परिवहन, स्मारिका, कलाकृति की दुकानों, आदि के रूप में आजीविका प्राप्त होती है। इसके अलावा, जियोपार्क्स में जियोहेरिटेज स्थल शोधकर्ताओं सहित शिक्षार्थियों के लिए अत्यधिक शिक्षाप्रद महत्व रखते हैं।

भू-पर्यटन में हम क्षेत्र के भूवैज्ञानिक महत्व पर ध्यान देते हैं जिसमें भूविज्ञानियों और पर्यटकों की वैज्ञानिक रूचि को आकर्षण के मुख्य विषय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। हम स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर पर प्रशासन का भी ध्यान आकर्षित करते हैं जिसमें भूविज्ञानियों की सहमति से संरक्षित स्थलों को परिभाषित करने, बढ़ावा देने, व्यवस्थित करने और रखरखाव के खर्चों में सहायता देने के लिए पर्याप्त कानूनी ढांचा निर्धारित किया जा सके।

जुलाई 2019 में, इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज (आईएनटीएसीएच) ने आंध्र प्रदेश पर्यटन विभाग, पुरातत्व और संग्रहालय विभाग और विशाखापटनम मेट्रोपोलिटन रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी के साथ मिलकर लोगों के बीच जियोहेरिटेज स्थलों पर जागरूकता पैदा करने के लिए अभियान चलाया और उस क्षेत्र में विभिन्न जियोपार्क्स को विकसित करने का प्रस्ताव रखा। आईएनटीएसीएच ने भूगर्भीय रूप से महत्वपूर्ण ऐसे कई स्थलों को चिन्हित और उनका दस्तावेज़ीकरण किया है जिन पर संरक्षण अधिकारियों को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। यह भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) द्वारा तैयार और प्रकाशित की गई बड़ी सूची के अतिरिक्त हैं जिसमें देशभर के 32 स्थलों का दस्तावेज़ीकारण किया गया है। हालांकि, 36वीं अंतर्राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक कांग्रेस 2020 (जो स्थगित हो गई है) के लिए तैयार किए गए स्टेटस पेपर में यह संख्या 40 हो गई है। जीएसआई ने 26 भूवैज्ञानिक स्थलों की पहचान राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारकों (एनजीएम) के रूप में की है। एक राष्ट्रीय संरक्षक के रूप में, यह जीएसआई का बाध्य कर्तव्य है कि वो भारत के जियोहेरिटेज स्थलों को या तो स्वयं या राज्य सरकार के उन अधिकारियों के सहयोग से निरूपण और रखरखाव का ध्यान रखें जो इसके वास्तविक मूल्य और भू-पर्यटन क्षमता से आश्वस्त हैं। हालांकि, जीएसआई इस कार्य के लिए राष्ट्रीय संरक्षक तो है ही लेकिन ऐसे स्थलों की सुरक्षा के लिए कानून की अनुपस्थिति में एजेंसी खुद को असहाय पाती है, विशेष रूप से जब इन स्थलों को स्थानीय लोगों या फिर विकास कार्य करने वाले आधिकारिक ठेकेदारों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। इनमें से अधिकांश स्थल राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड और उत्तर प्रदेश में स्थित हैं। भारत में संरक्षित पहली भूवैज्ञानिक वस्तु 1951 में पाई गई जब तमिलनाडु स्थित पेराम्बुर ज़िले की जीवाश्मित लकड़ी को एनजीएम घोषित किया गया। तेलंगाना स्थित आदिलाबाद ज़िले के प्राणहिता-गोदावरी घाटी में जीवाश्मित अंडे, अंडे के छिलके, कंकाल के अवशेष और मल (230 Ma) के रूप में भारतीय डायनासौर के बेहतरीन अवशेष सुरक्षित पाए गए। इसी तरह कोटा में पाए गए यह अवशेष 190 Ma पुराने जबकि गुजरात के जबलपुर, बाघ और खेरा ज़िलों के संग्रह 65 Ma पुराने हैं। विश्व प्रसिद्ध मांसाहारी राजसौरस नर्मडेनसिस नामक टायरानोसौरस रेक्स, मध्य भारत के नर्मदा क्षेत्र से सम्बंधित है। भारतीय उपमहाद्वीप को समृद्ध भूवैज्ञानिक धरोहर से नवाज़ा गया है। इन स्थलों को भूवैज्ञानिक स्मारकों और भूवैज्ञानिक उद्यानों के रूप में विकसित करके हम पूरे विश्व में भूवैज्ञानिक संपदा को प्रदर्शित करने में सबसे आगे हो सकते हैं। दुर्भाग्य से, इन स्थलों को भूवैज्ञानिक स्मारकों के रूप में घोषित किया जाना तो दूर, प्रकृति के इन चमत्कारों की सुरक्षा पर भी बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। अधिकांश स्थल तो बिना किसी सुरक्षा के उजाड़ पड़े हैं और ‘विकास’ कार्यों या फिर क्षति पहुंचने के कारण यह समय के साथ पूरी तरह खत्म हो जाएंगी। भारत के परिदृश्य के संरक्षण में जियोहेरिटेज को हमेशा से ही उपेक्षित किया गया है।            

सांस्कृतिक भवनों और जैव विविधता को संरक्षित करने के लिए पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक संरचना संरक्षण कानून 1958 और जैव विविधता कानून 2002 मौजूद हैं। लेकिन भूवैज्ञानिक संरचनाओं के संरक्षण के लिए ऐसा कोई कानून नहीं है जो राष्ट्र के प्राकृतिक धरोहर को स्थापित कर सके। यह स्थिति जीएसआई, भूवैज्ञानिक अध्ययनों में भाग लेने वाले अनुसंधान संस्थान और एक सदी से भी अधिक समय से भूविज्ञान पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों जैसे बड़े संस्थाओं के अस्तित्व में रहने के बावजूद है।

भूवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण जियोपार्क्स या जियोसाइट्स को संरक्षित करने के प्रस्ताव को विशुद्ध रूप से अकादमिक कहकर खारिज कर दिया जाता है। लोगों को उनके जीवन और उनके आसपास की चट्टानों, जीवाश्मों और संसाधनों के बीच घनिष्ठ सम्बंधों का एहसास कराना आसान नहीं है। यह एहसास कराना तभी संभव हो सकता है जब हम अपने बच्चों को प्राथमिक कक्षाओं तथा भूगर्भीय रूप से मनोहर स्थलों के आसपास रहने वाले ग्रामीणों को ऐसी विशेषताओं के महत्व से अवगत कराएंगे। अब तक, जियोहेरिटेज संरक्षण कानून लाने के सभी प्रयास विफल रहे हैं। 2007 में, दो उत्साही भूविज्ञानियों ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति को जियोहेरिटेज संरक्षण की खेदजनक स्थिति से काफी प्रभावित किया। राष्ट्रपति की पहल पर, भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस) के सचिव को इस मामले पर वैज्ञानिक चर्चा शुरू करने के लिए कहा। 26 फरवरी 2009 को भारत सरकार ने राष्ट्रीय विरासत स्थल आयोग विधेयक प्रस्तुत किया। इस विधेयक का मसौदा भारत सरकार के पर्यटन, परिवहन और संस्कृति मंत्रालय को भेजा गया। बिना किसी ठोस नतीजे के, 14 मार्च 2016 को पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) ने ऑन-रिकॉर्ड बताया कि 2009 का विधेयक एक बार फिर उच्च-स्तरीय समिति को भेजा गया जहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण, शहरी विकास बोर्ड और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार से परामर्श के बाद इस विधेयक को खारिज करने का निर्णय लिया गया और 31 जुलाई 2015 को इसे वापस ले लिए गया। यहां यह बताना आवश्यक है कि यह पूरा मामला पृथ्वी विज्ञान से सम्बंधित किसी भी मंत्रालय को नहीं भेजा गया जो भूवैज्ञानिक धरोहरों के प्राकृतिक संरक्षक हैं।                                                                                                         

इंडियन सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंटिस्ट्स, लखनऊ ने भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए) के तत्वावधान में इंटरनेशनल युनियन ऑफ जियोलाजिकल साइंसेज़ (आईयूजीएस) की राष्ट्रीय समिति के साथ संयोजन में नई दिल्ली स्थित अकादमी के परिसर में 6 और 7 अगस्त 2019 को विचार मंथन सत्र का आयोजन किया। जानकार और सक्रीय भूविज्ञानियों की टीम ने ‘कंज़रवेशन ऑफ जियोहेरिटेज साइट्स एंड डेवलपमेंट ऑफ जियोपार्क्स एक्ट- 2020’ नामक एक विस्तृत दस्तावेज़ तैयार किया। इस दस्तावेज़ में निम्नलिखित अध्याय रखे गए: जियोहेरिटेज स्थलों का संरक्षण, रखरखाव और पहुंच, राष्ट्रीय जियोहेरिटेज प्राधिकरण, प्राधिकरण की वार्षिक योजना, बजट, लेखा और ऑडिट, राज्य जियोहेरिटेज बोर्ड्स, और दंड एवं अपराध। इस व्यापक दस्तावेज़ को प्रधानमंत्री कार्यालय, सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार (पीएसए) और कई मंत्रालयों को भेजा गया।

इस संदर्भ में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री की ओर से जवाब में बताया गया कि एमओईएस, भारत सरकार के सचिव जियोहेरिटेज से सम्बंधित बैठकों का आयोजन कर सकते हैं। इस बैठक में खान मंत्रालय (एमओएम), भारत सरकार के प्रतिनिधि ने दावा किया कि यह विषय एमओएम के कार्यक्षेत्र में आता है। 1 अप्रैल 2020 को एमओएम के सचिव ने एक आंतरिक टास्क ग्रुप का गठन किया। इस ग्रुप के सदस्यों की वर्चुअल बैठक में विधेयक के मूल मसौदे के कुछ खंडों में संशोधन किया गया जिसे पूर्व में आईएनएसए की बैठक में तैयार किया गया था। इस नए विधेयक को जियोहेरिटेज कंज़र्वेशन और जियोपार्क्स डेवलपमेंट बिल 2020 का नाम दिया गया। पुनर्रीक्षण करने वाली टास्क फोर्स को सख्ती से आंतरिक रखा गया। तभी से बिल को अंतिम रूप देने में कोई प्रगति नहीं हुई है।

यह इंतज़ार काफी लंबा होता जा रहा है और विकास के नाम पर देश के कई भागों में जियोहेरिटेज स्थलों को नष्ट किया जा रहा है। पीएसए की अध्यक्षता में विश्वस्तरीय जीवाश्म भंडार/संग्रहालय स्थापित करने की महत्वकांक्षी योजना को एक साल से भी अधिक समय बीत चुका है लेकिन उसमें अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है। आईएनएसए में आयोजित आईयूजीएस राष्ट्रीय समिति द्वारा दिए गए सुझाव में जियोहेरिटेज स्थलों के संरक्षण और रखरखाव को संग्रहालय से सम्बंधित अभ्यास का अंश बनाया जाना चाहिए। अभी तक यह ज्ञात नहीं है कि इस सुझाव को संग्रहालय परियोजना की प्रस्तावित अधूरी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में शामिल किया गया है या नहीं। इन मुद्दों पर देश में भू-आकृतियों और भूविज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने सहित भूवैज्ञानिक विशेषताओं की सुरक्षा और संरक्षण के हितों को ध्यान देना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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