यह
काफी हैरत की बात है कि जब आप किसी मीठे खाद्य पदार्थ में नमक डालते हैं तो उसकी
मिठास और बढ़ जाती है। और अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने मिठास में इस वृद्धि का
कारण खोज निकाला है।
भोजन
के स्वाद की पहचान हमारी जीभ की स्वाद-कलिकाओं में उपस्थित ग्राही कोशिकाओं से होती है। इनमें टी1आर समूह के ग्राही
दोनों प्रकार के मीठे, प्राकृतिक या
कृत्रिम शर्करा, के प्रति संवेदनशील
होते हैं। शुरू में वैज्ञानिकों का मानना था कि टी1आर को निष्क्रिय कर दिया जाए तो मीठे के
प्रति संवेदना खत्म हो जाएगी। लेकिन 2003 में देखा गया कि चूहों में टी1आर के जीन को ठप करने पर भी उनमें ग्लूकोज़
के प्रति संवेदना में कोई कमी नहीं आई। इस खोज से पता चला कि चूहों और संभवत: मनुष्यों में मिठास
की संवेदना का कोई अन्य रास्ता भी है।
इस
मीठे रास्ते का पता लगाने के लिए टोकियो डेंटल जूनियर कॉलेज के कीको यासुमत्सु और
उनके सहयोगियों ने सोडियम-ग्लूकोज़
कोट्रांसपोर्टर-1 (एसजीएलटी1) नामक प्रोटीन पर
ध्यान दिया। एसजीएलटी1 शरीर
के अन्य हिस्सों में ग्लूकोज़ के साथ काम करता है। गुर्दों और आंत में, एसजीएलटी1 ग्लूकोज़ को कोशिकाओं तक पहुंचाने के लिए
सोडियम का उपयोग करता है। यह काफी दिलचस्प है कि यही प्रोटीन मीठे के प्रति
संवेदनशील स्वाद-कोशिकाओं
में भी पाया जाता है।
इसके
बाद शोधकर्ताओं ने स्वाद कोशिकाओं से जुड़ी तंत्रिकाओं की प्रक्रिया का पता लगाने
के लिए ग्लूकोज़ और नमक के घोल को बेहोश टी1आर-युक्त चूहों की जीभ पर रगड़ा। यानी इस घोल
में एसजीएलटी1 की
क्रिया के लिए ज़रूरी सोडियम था। पता चला कि नमक की उपस्थिति होने से चूहों की
तंत्रिकाओं ने अधिक तेज़ी से संकेत प्रेषित किए बजाय उन चूहों के जिनके टी1आर ग्राही ठप कर दिए
गए थे और सिर्फ ग्लूकोज़ दिया गया था। गौरतलब है कि सामान्य चूहों ने भी चीनी-नमक को ज़्यादा तरजीह
दी लेकिन ऐसा केवल ग्लूकोज़ के साथ ही हुआ,
सैकरीन जैसी कृत्रिम मिठास के साथ नहीं।
यह
भी पता चला है कि जो पदार्थ एसजीएलटी1 की क्रिया को बाधित करते हैं,
वे टी1आर विहीन चूहों में ग्लूकोज़ संवेदना को खत्म कर देते हैं।
इससे यह पता लगता है कि एसजीएलटी1 ग्लूकोज़ की छिपी हुई संवेदना का कारण हो सकता है। संभावना
है कि इससे टी1आर
विहीन चूहों में ग्लूकोज़ की संवेदना बनी रही और सामान्य चूहों में मीठे के प्रति
संवेदना और बढ़ गई। एक्टा फिज़ियोलॉजिका में शोधकर्ताओं ने संभावना व्यक्त की
है कि शायद यह निष्कर्ष मनुष्यों के लिए भी सही है।
शोधकर्ताओं ने मीठे के प्रति संवेदनशील तीन प्रकार की कोशिकाओं के बारे में बताया है। पहली दो या तो टी1आर या एसजीएलटी1 का उपयोग करती हैं जो शरीर को प्राकृतिक और कृत्रिम शर्करा में अंतर करने में मदद करते हैं। एक अंतिम प्रकार टी1आर और एसजीएलटी1 दोनों का उपयोग करती हैं और वसीय अम्ल तथा उमामी स्वादों को पकड़ती हैं। लगता है, इनकी सहायता से कैलोरी युक्त खाद्य पदार्थों का पता चलता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/salt_1280p.jpg?itok=KMVjR1sp
वर्ष
2020 में
विज्ञान की तीनों विधाओं – चिकित्सा
विज्ञान, भौतिकी और रसायन
शास्त्र – में
युगांतरकारी अनुसंधानों के लिए आठ वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया है। उल्लेखनीय
बात यह है कि रसायन विज्ञान के दीर्घ इतिहास में पहली बार यह सम्मान पूरी तरह महिलाओं
की झोली में गया है और भौतिकी में भी एक महिला सम्मानित की गई है।
चिकित्सा
विज्ञान
चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए अमेरिकी वैज्ञानिकों
हार्वे जे. आल्टर, चार्ल्स एम. राइस तथा ब्रिटिश वैज्ञानिक माइकल हाटन को
संयुक्त रूप से दिया गया है। इनके अनुसंधान की बदौलत इस रोग की चिकित्सा संभव हुई
है। इन शोधार्थियों को इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए यह सम्मान करीब चार दशक बाद
मिला है; इस शोधकार्य से
भविष्य में लाखों लोगों को नया जीवन मिलेगा।
हेपेटाइटिस
ए और हेपेटाइटिस बी वायरसों का पता 1960 के मध्य दशक में लग चुका था। हेपेटाइटिस बी वायरस की खोज के
लिए 1976 में
ब्रॉश ब्लमबर्ग को नोबेल पुरस्कार मिला था। हार्वे ने 1972 में रक्ताधान प्राप्त मरीजों पर शोध के
दौरान एक और अनजाने संक्रामक वायरस का पता लगाया। उन्होंने अध्ययन के दौरान पाया
कि मरीज़ रक्ताधान के दौरान बीमार हो जाते थे। उन्होंने आगे चलकर बताया कि संक्रमित
मरीज़ों का ब्लड चिम्पैंज़ी को देने के बाद चिम्पैंजी बीमार हो गए। चार्ल्स राइस ने
शुरुआत में अज्ञात वायरस को ‘गैर-ए, गैर-बी’ नाम दिया।
माइकल
हाटन ने 1989 में
इस वायरस के जेनेटिक अनुक्रम के आधार पर बताया कि यह फ्लेवीवायरस का ही एक प्रकार
है। आगे चलकर इसे हेपेटाइटिस सी वायरस नाम दिया गया। चार्ल्स राइस ने 1997 में चिम्पैंज़ी के
लीवर में जेनेटिक इंजीनिरिंग से तैयार वायरस प्रविष्ट कराया और बताया कि इससे
चिम्पैंज़ी संक्रमित हुआ। इन तीनों वैज्ञानिकों के स्वतंत्र योगदान को एक साथ रखकर
हेपेटाइटिस सी रोग पर विजय मिली है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में सात करोड़ लोग हेपेटाइटिस सी वायरस से
पीड़ित हैं। लगभग चार लाख लोग हर साल मौत के मुंह में चले जाते हैं। मनुष्य में
लीवर कैंसर का मुख्य कारण हेपेटाइटिस सी वायरस है,
जिसकी वजह से लीवर प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ती है। एक बात और, हेपेटाइटिस सी से संक्रमित व्यक्ति में
लक्षण देर से प्रकट होते हैं और तब तक मरीज़ लीवर कैंसर की चपेट में आ चुका होता
है। हेपेटाइटिस सी वायरस का टीका अभी तक नहीं बन पाया है क्योंकि यह वायरस बहुत
जल्दी-जल्दी
परिवर्तित हो जाता है।
भौतिक
शास्त्र
इस
साल का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से मिला है। ये
हैं – रोजर
पेनरोज़, रिनहर्ड गेनज़ेल और
एंड्रिया गेज। इन्होंने ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार व्याख्या की और हमारी समझ
के विस्तार में असाधारण योगदान दिया है।
पिछले
वर्ष 10 अप्रैल
को खगोल शास्त्रियों ने ब्लैक होल की एक तस्वीर जारी की थी। यह तस्वीर पूर्व की
वैज्ञानिक धारणाओं से पूरी तरह मेल खाती है। आइंस्टाइन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता
सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी।
ब्लैक
होल हमेशा ही खगोल शास्त्रियों के लिए कौतूहल का विषय रहा है। पहला ब्लैक होल 1971 में खोजा गया था। 2019 में इवेंट होराइज़न
टेलीस्कोप से ब्लैक होल का चित्र लिया गया था। यह हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में
स्थित है। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है,
जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता, प्रकाश भी नहीं।
नोबेल
पुरस्कार की घोषणा में बताया गया है कि रोजर पेनरोज़ को ब्लैक होल निर्माण की मौलिक
व्याख्या और नई रोशनी डालने के लिए पुरस्कार की आधी धनराशि दी जाएगी।
वैज्ञानिक
रिनहर्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज ने 1990 के दशक के आरंभ में आकाशगंगा (मिल्कीवे) के सैजिटेरिस-ए क्षेत्र पर शोधकार्य किया है। उन्होंने
विश्व की सबसे बड़ी दूरबीन का उपयोग कर अध्ययन की नई विधियां विकसित कीं। दोनों
अध्येताओं को आकाशगंगा के केंद्र में ‘अति-भारी सघन पिंड’ की खोज के लिए पुरस्कार दिया जाएगा।
एंड्रिया
गेज आज तक भौतिकी में पुरस्कृत चौथी महिला वैज्ञानिक हैं।
रसायन
विज्ञान
रसायन
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार फ्रांस की इमैनुएल शारपेंटिए और अमेरिका की जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त
रूप से दिया जाएगा। इन्होंने जीन संपादन की क्रिस्पर कॉस-9 तकनीक की खोज में अहम योगदान दिया है। यह
सम्मान खोज के लगभग आठ वर्षों बाद मिला है।
इमैनुएल
शारपेंटिए और जेनिफर डाउडना ने क्रिस्पर कॉस-9 जेनेटिक कैंची का विकास किया है। इसे जीन
संपादन का महत्वपूर्ण औज़ार कहा जा सकता है। इसकी सहायता से जीव-जंतुओं, वनस्पतियों और सूक्ष्मजीवों के जीनोम में
बारीकी से बदलाव किया जा सकता है, सर्वथा
नए जीन्स से लैस जीव विकसित किए जा सकते हैं।
जीनोम संपादन सर्वथा नया और रोमांचक विषय है। पिछले साल नवंबर में हांगकांग में आयोजित मानव जीनोम संपादन शिखर सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने जीन संपादन तकनीक से संपादित मानव भ्रूणों से पैदा हुए दो मादा शिशुओं का दावा कर सभी को अचंभित कर दिया था। जीनोम संपादन ने जीव विज्ञान में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया है। रोगाणु मुक्त और अधिक पैदावार देने वाली फसलों के बीज तैयार किए जा सकेंगे, आनुवंशिक रोगों की चिकित्सा हो सकेगी, कोविड-19 वायरस का कारगर टीका बनाने में मदद मिलेगी। जीनोम संपादन के ज़रिए ‘स्वस्थ और प्रतिभाशाली’ शिशु पैदा किए जा सकते हैं। और यह विवाद का विषय बन गया है जिसने कई नैतिक सवालों को जन्म दिया है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2020/10/05/science/05NOBEL-PRIZE-LIST01/05NOBEL-PRIZE-LIST01-jumbo.jpg?quality=90&auto=webp
रूबेला
वायरस अब तक अपने जीनस (रूबीवायरस) में एकमात्र सदस्य
था। हाल ही में रूबेला के परिवार में दो नए सदस्य जुड़ गए हैं। इनमें से एक वायरस
युगांडा के चमगादड़ों को संक्रमित करता है,
जबकि दूसरे ने जर्मन चिड़ियाघर में तीन अलग-अलग प्रजातियों के
जंतुओं की जान ली है और आसपास के चूहों में भी मिला है।
रूबेला
वायरस संक्रमण में सामान्यत: शरीर पर चकत्ते उभरते हैं और बुखार आता है। लेकिन गर्भवती
महिलाओं में यह गर्भपात व मृत-शिशु जन्म का कारण बनता है और शिशु जन्मजात रूबेला सिंड्रोम
से पीड़ित हो सकता है, जिससे बहरापन और आंख, ह्रदय और मस्तिष्क की समस्याएं होती हैं।
हालिया
अध्ययन में शोधकर्ता बताते हैं कि अतीत में ऐसा ही कोई वायरस जानवरों से मनुष्यों
में आया होगा, जिसने आज के रूबेला
वायरस को जन्म दिया। हालांकि दोनों नवीन वायरस में से कोई भी वायरस मनुष्यों को
संक्रमित नहीं करता, लेकिन चूंकि इनके
सम्बंधी वायरस, रूबेला, ने जानवरों से ही मनुष्यों में प्रवेश किया
है इसलिए संभावना है कि ये वायरस या अन्य ऐसे ही अज्ञात वायरस भी मनुष्यों में
प्रवेश कर जाएं।
विस्कॉन्सिन
विश्वविद्यालय के टोनी गोल्डबर्ग और एंड्रयू बेनेट को युगांडा के किबाले नेशनल
पार्क में साइक्लोप्स लीफ-नोज़
चमगादड़ में एक नया वायरस मिला था। इस वायरस को रूहुगु नाम दिया गया।
विश्लेषण में पाया गया कि रूहुगु वायरस के जीनोम की संरचना रूबेला वायरस के समान
है, और इसके आठ प्रोटीन
के 56 प्रतिशत
एमिनो एसिड रूबेला के एमिनो एसिड से मेल खाते हैं। दोनों वायरस में मेज़बान
प्रतिरक्षा कोशिकाओं के साथ जुड़ने वाला प्रोटीन भी लगभग समान पाया गया।
शोधकर्ता
जब इस नए वायरस की खोज की रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले थे तब उन्हें पता चला कि
फ्रेडरिक-लोफ्लर
इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता मार्टिन बीयर की टीम को गधे,
कंगारू और केपीबारा के मस्तिष्क के ऊतकों में रूबेला का एक
और करीबी वायरस मिला है, जिसे
रस्ट्रेला नाम दिया गया है। चिड़ियाघर में ये जानवर मस्तिष्क की सूजन, एन्सेफेलाइटिस,
के कारण मृत पाए गए थे। शोधकर्ताओं को यही वायरस चिड़ियाघर
के आसपास के जंगली चूहों में भी मिला था, लेकिन
चूहे ठीक-ठाक
लग रहे थे। इससे लगता है कि चूहे एक प्राकृतिक वाहक थे जिनसे वायरस चिड़ियाघर के
जानवरों में आया।
दोनों
नए वायरस की तुलना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि रूहुगु और रस्ट्रेला भी आपस में
सम्बंधित हैं, हालांकि रस्ट्रेला
की तुलना में रूहुगु वायरस रूबेला से अधिक समानता रखता है। दोनों टीम ने इस खोज को
संयुक्त रूप से नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया है।
रूबेला
से रूहुगु और रस्ट्रेला के बीच आनुवंशिक दूरी को देखते हुए शोधकर्ताओं को नहीं
लगता कि इन दोनों में से किसी भी वायरस ने इंसानों में छलांग लगाई है – लेकिन संभावना है कि
बारीकी से अध्ययन करने पर अन्य रूबीवायरस भी अवश्य मिलेंगे। वहीं अन्य शोधकर्ताओं
का मत है कि चूंकि रस्ट्रेला प्लेसेंटल और मार्सुपियल दोनों तरह के स्तनधारियों को
संक्रमित करने में सक्षम है और एक से दूसरी प्रजाति में सक्रिय रूप से छलांग लगा
रहा है, इसलिए वायरस का यह
लचीलापन परेशानी पैदा कर सकता है। हो सकता है कि यह वायरस चूहों से अन्य
स्तनधारियों में स्थानांतरित हो जाए, या
शायद मनुष्यों में भी आ जाए।
बहरहाल दोनों वायरस पर अधिक तफसील से अध्ययन की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/bat_1280p_1.jpg?itok=HR7iQN8K
मुक्त
भारत के कंप्यूटर विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान के वरिष्ठ प्रोफेसर वी. राजारामन ने हाल ही
में एक किताब लिखी है जिसका शीर्षक है: सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के प्रमुख आविष्कार (Groundbreaking Inventions in Information and Communication
Technology)।
इस किताब में उन्होंने पिछले कुछ समय में किए गए 15 आविष्कारों पर चर्चा की है। पिछले लेख में
मैंने इनमें से सात आविष्कारों पर चर्चा की थी। इस लेख में हम बाकी आठ आविष्कारों
पर चर्चा करेंगे।
पिछले
लेख में बताए गए सातवें नवाचार, कंप्यूटर
ग्राफिक्स, को याद करें।
कंप्यूटर ग्राफिक्स ने डिजिटल डैटा को एक नया मकाम दिया और कंप्यूटर डिसप्ले पर
डिजिटल डैटा का प्रदर्शन तस्वीरों और मूवीज़ के रूप में संभव बनाया। ग्राफिकल यूज़र
इंटरफेस (क्रछक्ष्) ने डिसप्ले पर मौजूद
किसी भी आइकॉन को इंगित करना और एक क्लिक में उसे खोलना संभव किया, जैसे पॉवर पॉइंट शुरू करना।
शुरुआत
कंप्यूटर ‘माउस’ से हुई थी जिसकी मदद
से कंप्यूटर डिसप्ले पर कर्सर को घुमाया-फिराया जा सकता था। और अब आधुनिक, हाथ में समाने वाले कंप्यूटरों में माउस की
जगह टच स्क्रीन कर्सर ने ले ली है।
यह
किताब इन आविष्कारों के आविष्कारकों के जीवन वृतांत और उनकी उपलब्धियों से भरपूर
है। साथ ही आविष्कारों के तकनीकी विवरण ‘बॉक्स आइटम’ के रूप में दिए गए हैं (किताब में 52 बॉक्स आइटम हैं)। इन्हें पढ़कर
छात्रों और भावी आविष्कारकों को अवश्य ही प्रेरणा मिलेगी।
अगला
महत्वपूर्ण आविष्कार है इंटरनेट का विकास। नि:संदेह यह 20वीं सदी के महानतम आविष्कारों में से एक
है। इसने ई-मेल
के ज़रिए संवाद करना, यूट्यूब वीडियो
देखना व कई अन्य एप्लीकेशन्स का उपयोग संभव बनाया,
जिन्हें आज हम मानकर चलते हैं।
दो
महत्वपूर्ण आविष्कारों से इंटरनेट का विकास हुआ। पहला,
बड़े डैटा को भेजने के पूर्व छोटे पैकेटों में तोड़ना। इसका
आविष्कार पॉल बारान और डोनाल्ड डेविस ने किया था। और दूसरा, ट्रांसमिशन कंट्रोल/इंटरनेट प्रोटोकॉल (च्र्क्घ्/क्ष्घ् प्रोटोकॉल) का मानकीकरण। इस प्रोटोकॉल ने मौजूदा
टेलीफोन इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करके दुनिया भर में फैले विभिन्न कंप्यूटर
नेटवक्र्स को आपस में जोड़ना संभव बनाया। च्र्क्घ्/क्ष्घ् प्रोटोकॉल विंटन सर्फ और रॉबर्ट कान
द्वारा बनाया गया था।
नौवां
आविष्कार है ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (क्रघ्च्)। क्रघ्च् किसी एक जगह (अ) से दूसरी जगह (ब) तक जाने के लिए हमें सबसे सही रास्ता खोजने
में मदद करता है। पहले नाविक आकाश में तारों की स्थिति देखकर स्थान और मार्ग का
पता लगाया करते थे। इसके बाद चुंबकीय दिशासूचक की खोज ने रास्ता ढूंढने में सहायता
की, और फिर मार्कोनी (या संभवत: जे.सी. बोस) द्वारा किया गया
बेतार रेडियो का आविष्कार इसमें सहायक बना। प्रो. राजारामन बताते हैं कि उपग्रहों के
प्रक्षेपण के बाद यह पता लग गया था कि कुछ उपग्रहों से प्रसारित संकेत, दुनिया में कहीं भी किसी वस्तु के अक्षांश, देशांतर और ऊंचाई के बारे में कुछ मीटर की
सटीकता से पता लगा सकते हैं। इस महंगी परियोजना की अगुवाई रोजर ईस्टन, ब्रोडफोर्ड पार्किंसन और इवान गेटिंग
द्वारा की गई थी, जो अमेरिकी रक्षा
विभाग द्वारा समर्थित थी।
दसवां
आविष्कार है वल्र्ड वाइड वेब (ज़्ज़्ज़्)। इस आविष्कार ने इंटरनेट का बुनियादी ढांचा मुफ्त उपलब्ध
कराया। इसकी बदौलत दुनिया भर के कंप्यूटरों में सहेजे गए अरबों (सार्वजनिक) दस्तावेज़ों का कोई
भी उपभोक्ता उपयोग कर सकता है। और यह मुख्य रूप से संभव हो सका टिम बर्नर्स-ली के कार्य से।
उन्होंने हाइपरटेक्स्ट मार्कअप लैंग्वेज (क्तच्र्ग्ख्र्) में लिखे गए दस्तावेज़ों को आपस में जोड़ने
के लिए हाइपरटेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल (क्तच्र्च्र्घ्) नामक प्रोटोकॉल बनाया था। प्रो. राजारामन बताते हैं: ‘ज़्ज़्ज़् इंटरनेट से
जुड़े कंप्यूटरों में सहेजा गया क्तच्र्ग्ख्र् भाषा में लिखा कंटेंट है, जिस तक क्तच्र्च्र्घ् का उपयोग करके पंहुचा
जा सकता है।’
वल्र्ड
वाइड वेब पर कोई ‘जुम्ला’ लिखकर सम्बंधित
जानकारी/दस्तावेज़ों
को ढूंढा या हासिल किया जाता है जैसे: भारत के राज्यों की राजधानियां,
और इसके लिए हमें एक सॉफ्टवेयर की ज़रूरत पड़ती है। इस
सॉफ्टवेयर को हम सर्च इंजिन के रूप में जानते हैं,
यही ग्यारहवां नवाचार है। गूगल ऐसा ही सर्च इंजिन है। इसने
लैरी पेज और सेर्जी ब्रिान द्वारा विकसित एल्गोरिदम के दम पर बाज़ार पर कब्ज़ा कर
लिया है।
बारहवां
नवाचार है मल्टीमीडिया का डिजिटलीकरण और संक्षेपण। किसी टेक्स्ट, चित्र,
ऑडियो या वीडियो को प्रोसेस करने के लिए उसे 0 और 1 के डिजिटल रूप में
बदलना होता है। डिजिटल रूप में डैटा में 0 और 1 की संख्या बहुत अधिक होती है। डैटा में
ह्यास के बिना और किफायती ढंग से डैटा प्रसारित करने के लिए डैटा का संक्षेपण किया
जाता है। डैटा संक्षेपण के लिए कई एल्गोरिदम मौजूद हैं,
जिनके बारे में किताब में बोधगम्य तरीके से बताया गया है।
अगला
आविष्कार है मोबाइल कंप्यूटिंग। औद्योगिक,
वैज्ञानिक और चिकित्सा उपयोगों के लिए आरक्षित वायरलेस बैंड
को सरकार ने 1985 में
निरस्त कर दिया था और डैटा के संचार के लिए इसका उपयोग करने की अनुमति दी थी। इसकी
मदद से लैपटॉप ख्र्ॠग़् से बेतार जोड़े जा सकते हैं। बेतार प्रसारण के लिए प्रोटोकॉल
का मानकीकरण हुआ, जिसने वाईफाई को
जन्म दिया। इंटरनेट के उपयोग ने हमें व्हाट्सएप जैसे एप्लीकेशन्स दिए। और 3जी और 4जी मोबाइल सर्विस
आने से स्मार्ट फोन विकसित हुए।
चौदहवां
नवाचार है क्लाउड कंप्यूटिंग। क्लाउड कंप्यूटिंग यानी ज़रूरत के समय अन्यत्र उपलब्ध
कंप्यूटर संसाधन, खासकर डैटा स्टोरेज, और कंप्यूटिंग क्षमता का उपयोग करना।
अमेज़ॉन और गूगल जैसी कंपनियों ने अपने कंप्यूटिंग व्यवसाय के लिए विशाल कंप्यूटिंग
व्यवस्था बनाई हुई है। कोई भी ‘ज़रूरत के हिसाब’ से भुगतान करके इनकी इस कंप्यूटिंग क्षमता का उपयोग कर सकता
है। यह इंटरनेट के आगमन और इंटरनेट उपयोग की घटती कीमत से संभव हुआ है।
पंद्रहवां नवाचार है डीप लर्निंग। तंत्रिका वैज्ञानिक मैककुलोक और गणितज्ञ वाल्टर पिट्स ने मिलकर मानव मस्तिष्क के न्यूरॉन का मॉडल तैयार किया था। जेफ्री हिंटन और डेविड रुमेलहार्ट ने बहुस्तरीय तंत्रिका नेटवर्क कंप्यूटर पर सिमुलेट किया। विशाल डैटा की मदद से प्रशिक्षण देकर इस मॉडल को चेहरे और वाणी पहचान के लिए तैयार किया जा सकता है। यह आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का एक पहलू है, जिसे भविष्य की चालक-रहित कार बनाने जैसे कामों में उपयोग किया जाएगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images-na.ssl-images-amazon.com/images/I/51Ur-gIqG6L.SX327_BO1,204,203,200.jpg
पांच बड़े-बड़े ट्रक अमेरिका के उत्तरी केरोलिना में ब्लूबेरी
फार्म पर आकर रुकते हैं। तारपोलिन को हटाते ही एक के ऊपर एक जमे लगभग पांच सौ
डिब्बों में से भिनभिनाहट सुनाई पड़ती है। प्रत्येक डिब्बे में लगभग 20,000
मधुमक्खियां हैं। फार्म के मालिक ने इन एक करोड़ मधुमक्खियों को किराए पर बुलाया
है। मई का महिना यहां परागण का समय है और आसपास के सभी बागानों में मधुमक्खियों के
ट्रक आ रहे हैं।
7000 एकड़ के इस फार्म हाउस के सभी भागों
में मधुमक्खियों के ये डिब्बे, यानी मानव निर्मित छत्ते, रख
दिए जाते हैं। अगले कुछ सप्ताह ये मधुमक्खियां अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति के अनुसार
आसपास के इलाकों में अपना भोजन ‘पराग’ एकत्रित करने के लिए अपने छत्तों में से
निकलेंगी और इस क्रिया के दौरान फूलों को परागित भी करेंगी। फूलों का पराग एकत्रित
करके ये पुन: अपने-अपने दड़बे में आ जाती हैं। फिर उनका मालिक उन्हें एकत्रित करके
परागण के लिए कहीं और ले जाएगा।
तीन सप्ताह तक मधुमक्खियों को फार्म में
रखने के लिए प्रति डिब्बा 90 डॉलर का सौदा हुआ है। दोनों पक्षों के लिए सौदा बेहद
फायदेमंद है। बगैर मधुमक्खियों के ब्लूबेरी के फूल परागित नहीं होंगे और उनमें फूल
से बेरी नहीं बनेंगी और मधुमक्खी पालक को एक ट्रक के 45 हज़ार डॉलर प्रति सप्ताह
मिल जाएंगे।
यद्यपि मधुमक्खियों को हम स्वादिष्ट शहद
बनाने वाली मक्खियों के रूप में पहचानते हैं पर उनका एक महत्वपूर्ण काम परागण करना
है। पौधों में लैंगिक प्रजनन के लिए परागण आवश्यक है। शोध से पता चला है कि
मधुमक्खियां लगभग 16 प्रतिशत पुष्पधारी पौधों तथा 400 किस्म की फसलों का परागण
करती हैं। हमारे भोजन का 35 प्रतिशत केवल मधुमक्खियों और अन्य कीटों द्वारा किए गए
परागण से प्राप्त होता है।
मधुमक्खियां सामाजिक प्राणी हैं। एक छत्ते
में एक बहुत बड़ी रानी और हज़ारों श्रमिक और नर मधुमक्खियां होती हैं। इनमें से
अधिकांश श्रमिक होती हैं जो प्रजनन करने में असमर्थ होती हैं। श्रमिक मधुमक्खियों
का कार्य दूर-दूर उड़कर फूलों को खोजना, उनसे पराग कण एकत्रित करना, शत्रुओं
से छत्ते की रक्षा करना और रानी के बच्चों यानी इल्लियों का पालन-पोषण करना होता
है। छत्ते में रानी मधुमक्खी को पराग से निर्मित अत्यंत पोषक पदार्थ खाने को दिया
जाता है, जिसे ‘रॉयल जेली’ कहते हैं। इससे रानी लंबे समय तक जीवित
रहती है और उसका प्रमुख कार्य छत्ते का प्रबंधन और निरंतर अंडे देते रहना है। शोध
से ज्ञात हुआ है कि श्रमिक मधुमक्खियां यह निर्धारित कर सकती है कि कोई इल्ली
श्रमिक बनेगी या रानी।
परागण लैंगिक प्रजनन का महत्वपूर्ण अंग है।
अनेक पौधे परागण के लिए मधुमक्खियों और अन्य कीटों पर निर्भर करते हैं।
मधुमक्खियां तो परागण में निपुण होती हैं। परागण वह प्रक्रिया है जिसमें पौधों के
नर युग्मक (पराग कण), को मादा जननांग के वर्तिकाग्र पर डाल दिया जाता है। इस
प्रक्रिया के उपरांत निषेचन होता है तथा फल और बीज बनते हैं। बहुत सारे पेड़-पौधों
में पराग कण हवा में बहकर परागण कर देते हैं। घास,
कोनिफर्स और पर्णपाती
पेड़ों में परागण हवा से हो जाता है। जिन पौधों में हवा द्वारा परागण नहीं होता है
वहां मधुमक्खियों तथा अन्य कीटों को फूलों के मीठे रस मकरंद द्वारा आकर्षित किया
जाता है।
जब मधुमक्खियां मीठे रस के लालच में आती
हैं तो उनके शरीर पर उपस्थित रोम से पराग कण चिपक जाते हैं और ये दूसरे पौधों के
फूलों के मादा जननांगों तक पहुंच जाते हैं। इस प्रकार पर परागण भी संभव हो पाता
है। फूलों और मधुमक्खियों का रिश्ता उद्विकास में इतना पुख्ता हो गया है कि कुछ
पौधे तो निषेचन के लिए निश्चित प्रजाति की मधुमक्खियों पर ही पूरी तरह से निर्भर
हो चुके हैं।
मधुमक्खियों का व्यवसाय
मधुमक्खी के छत्ते में रानी मधुमक्खी सबसे
महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा लगातार अंडे देने से ही श्रमिकों की संख्या
बढ़ती है जो इनके छत्तों के लिए बहुत आवश्यक है। श्रमिकों की संख्या दो कारणों से
घट सकती है। एक तो है पर्याप्त भोजन न मिलना और दूसरा है परजीवी। अगर श्रमिकों को
भोजन कम मात्रा में मिलता है तो वे जल्दी मरते हैं। कुछ प्रकार के परजीवी भी
मधुमक्खियों की कॉलोनी को तबाह करते हैं।
पिछले कुछ दशकों से कीटनाशकों के अत्यधिक
इस्तेमाल से भी लाभदायक कीटों की संख्या बेइन्तहा गिरी है। जलवायु परिवर्तन और
सूखा जैसे कुछ और खतरे भी मधुमक्खियों की संख्या को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका
अदा करते हैं। ये सभी किसानों और फार्म मालिकों की नींद उड़ा देते हैं। अगर फार्म
मालिकों के पास प्राकृतिक जंगली मधुमक्खियों की संख्या पर्याप्त न हो तो किराए की
मधुमक्खियां लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। किराए की मधुमक्खियां उत्पादन
को कई गुना बढ़ा सकती हैं। कैलिफोर्निया के आसपास ही लोगों ने पांच लाख छत्ते पाल
रखे हैं। जब बादाम के फूल खिलने का मात्र एक महीने का छोटा सा मौसम आता है तब बीस लाख
छत्तों की आवश्यकता होती है।
कैलिफोर्निया में बादाम का व्यापार इतना
समृद्ध हुआ है कि 1997 में 5 लाख एकड़ की तुलना में आज 15 लाख एकड़ भूमि पर बादाम के
वृक्ष लगे हैं। दुनिया भर में बादाम की आपूर्ति का 80 प्रतिशत भाग अकेला
कैलिफोर्निया से ही प्राप्त होता है। जब बादाम में फूल आते हैं तो देश भर के सारे
मधुमक्खी पालक व्यापारी छत्तों के डिब्बों को लेकर कैलिफोर्निया पहुंच जाते हैं।
बादाम के वृक्षों पर फूलों की बहार केवल एक महीने ही रहती है और यही समय है जब यह
पूरा क्षेत्र असंख्य मधुमक्खियों से घिरा रहता है। चूंकि बादाम की अच्छी फसल पूरी
तरह से मधुमक्खियों पर निर्भर करती है इसलिए मधुमक्खियों के स्वास्थ्य के लिए
वैज्ञानिकों की एक टीम जुटी रहती है।
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का उदाहरण हमें दक्षिण पश्चिम चीन के सेब और नाशपाती के बागानों में देखने को मिलता है। यहां कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग करने से प्रचुरता में पाई जाने वाली जंगली मधुमक्खियां अब पूरी तरह से समाप्त हो गई हैं। अब किसानों को फूलों से पराग कण एक प्याले में इकट्ठे करके प्रत्येक फूल को ब्रश से परागित करना पड़ता है। प्रत्येक किसान अथक परिश्रम करके केवल दो पेड़ों के सभी फूलों को एक दिन में परागित कर पाता है, जो मधुमक्खियों का समूह कुछ ही मिनटों में कर देता था। लागत बढ़ने से व्यापार घट गया है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://scx1.b-cdn.net/csz/news/800/2018/thefarmerwan.jpg
इन दिनों मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के पैथोलॉजिस्ट जेम्स
स्टोन कोविड-19 रोगियों के ह्रदय पर होने वाली क्षति की जांच कर रहे हैं। अपने
शुरुआती अध्ययन में उन्होंने पाया कि इन रोगियों के ह्रदय अधिक भारी, आकार
में बड़े और असमान है। हालांकि अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी कि ये परिवर्तन
सीधे-सीधे सार्स-कोव-2 संक्रमण के परिणाम हैं।
गौरतलब है कि महामारी की शुरुआत में कुछ
चिकित्सकों ने कोविड-19 रोगियों में ह्रदय की कुछ गंभीर समस्याएं देखी थीं जो
उनमें पहले नही थीं। ऐसे में कोविड-19 संक्रमण और ह्रदय की समस्याओं में कुछ सम्बंध
लगता है। उदाहरण के तौर पर शोधकर्ताओं ने 8 से 12 प्रतिशत कोविड-19 रोगियों में
मांसपेशीय संकुचन के लिए ज़िम्मेदार ट्रोपोनिन नामक प्रोटीन का उच्च स्तर देखा। यह ह्रदय
क्षति का संकेत है। ऐसे रोगियों की मृत्यु की संभावना भी अधिक रही। चीन के
चिकित्सकों ने कोविड-19 रोगियों में मायोकार्डाइटिस की समस्या देखी जिसमें सूजन के
कारण ह्रदय कमज़ोर हो जाता है और यह आम तौर पर किसी प्रकार के संक्रमण से सम्बंधित
होता है।
स्टोन और उनके सहयोगियों द्वारा युरोपियन
हार्ट जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मरने वाले 86 प्रतिशत रोगियों के
दिल में सूजन थी जबकि केवल तीन रोगियों में मायोकार्डाइटिस पाया गया। इनमें से कई
में अन्य प्रकार की ह्रदय समस्या पाई गर्इं। स्टोन का कहना है कि ट्रोपोनिन का
उच्च स्तर अन्य प्रकार की मायोकार्डियल क्षति के कारण है। गौरतलब है कि पूर्व में
कोविड-19 पर प्रकाशित पत्रों में इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की गई है।
क्योंकि 2003 की सार्स महामारी में रोगियों
के ह्रदय में मैक्रोफेज (एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिका जो सूजन की द्योतक होती
हैं) पाए गए थे, इसलिए इस बार भी शोधकर्ताओं ने इनकी उपस्थिति की उम्मीद की
थी। यह काफी हैरानी की बात रही कि इस बार 21 में से 18 रोगियों के ह्रदय में
मैक्रोफेज पाए गए। आगे के विश्लेषण में उन्होंने पाया कि 3 रोगियों में
मायोकार्डाइटिस, 4 में दाएं निलय पर तनाव के कारण ह्रदय को क्षति और अन्य 2
में ह्रदय की वाहिकाओं में खून के थक्के पाए। यह स्पष्ट नहीं था कि रोगियों में इस
तरह की अलग-अलग ह्रदय सम्बंधी समस्याएं क्यों नज़र आ रही थीं।
चूंकि अधिकांश मामलों में ह्रदय में
मैक्रोफेज पाए गए इसलिए यह बता पाना मुश्किल है कि ऐसे कितने लोगों को
मायोकार्डाइटिस की समस्या एक अन्य कोशिका (लिम्फोसाइट) के कारण हुई है। जीवित
मरीज़ों के ह्रदय के इमेजिंग में दोनों कोशिका एक जैसी दिखाई देती हैं। शोधकर्ताओं
ने रोगियों के मेडिकल रिकॉर्ड की तलाश की ताकि समय रहते यह पता लगाया जा सके कि वे
किस प्रकार की समस्या से ग्रसित हैं। अस्पताल में मायोकार्डाइटिस ग्रसित 3 रोगियों
में ट्रोपोनिन स्तर अधिक और ईसीजी असामान्य पाया गया।
हालांकि स्टोन का ऐसा मानना है इन निष्कर्षों को रोगियों के बड़े समूहों पर परखने की आवश्यकता है ताकि इलाज का सबसे उचित तरीका अपनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/67969/hImg/39617/heart-banner-x.png
पश्चिमी प्रशांत महासागर और जापान के पूर्वी क्षेत्र में
मिनामि-तोरी-शिमा नाम का एक छोटा-सा टापू है। यह तिकोना टापू केवल सवा तीन वर्ग
कि.मी. में फैला है और आसपास एक अजीब दीवार के कारण इसका अधिकांश भाग समुद्र तल से
भी नीचे है। और तो और, यह निकटतम भूमि से भी हज़ार किलोमीटर दूर है। लेकिन यह
महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि यहां दुर्लभ मृदा तत्वों यानी रेयर अर्थ एलीमेंट्स
का भंडार है।
यह भी उतना ही मज़ेदार है कि उक्त भंडार
कहां स्थित है। दुर्लभ मृदा तत्व न तो इस टापू पर हैं और न ही टापू के अंदर दफन
हैं। दरअसल यह टापू एक जलमग्न पर्वत पर स्थित है और यह भंडार उस पर्वत के दक्षिण
में मछलियों के दांतों, शल्कों और हड्डियों के टुकड़ों पर जमा है। वास्तव में
मछलियों के जीवाश्म दुर्लभ मृदा तत्वों को फांसने वाले ‘जाल’ हैं। जापानी
वैज्ञानिकों के अनुसार ये ‘जाल’ इतने सक्षम हैं कि इस टापू के दक्षिण में 2500
वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की मिट्टी दुर्लभ मृदा तत्वों का इतना बड़ा भंडार है कि उससे
सैकड़ों वर्षों तक दुनिया की ज़रूरतों की आपूर्ति हो सकती है।
तो यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि ये कौन से
दुर्लभ मृदा तत्व हैं और इनकी हमें क्यों आवश्यकता है?
आज के प्रौद्योगिकी युग में ये दुर्लभ मृदा
तत्व कई मशीनों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। इन तत्वों का नवीकरणीय ऊर्जा के
उत्पादन, टीवी, स्मार्टफोन,
एलईडी, आधुनिक
दौर के विद्युत-र्इंधन संकर वाहनों, चिकित्सकीय और सैन्य तकनीकों में व्यापक
उपयोग किया जा रहा है। ऐसे में इनकी खपत काफी बढ़ गई है। संयोग से इन तत्वों की
अधिकांश खदानें चीन में हैं। देखा जाए, तो ये तत्व मात्रा के लिहाज़ से दुर्लभ नहीं
हैं लेकिन इन तत्वों के खनन योग्य भंडार काफी दुर्लभ हैं।
साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जापानी
वैज्ञानिक फिलहाल मिनामि-तोरी-शिमा और दक्षिण प्रशांत में इसी तरह के एक स्थल
मनिहिकी पठार के दक्षिण पूर्व में मत्स्य जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे ताकि यह
पता किया जा सके कि ये कितने पुराने हैं। साथ ही ऐसे जीवाश्मों के अन्य स्थलों की
भी तलाश कर रहे थे। पता चला कि ये जीवाश्म लगभग 3.4 करोड़ वर्ष पुराने हैं और
मिनामि-तोरी-शिमा पर इनकी उपस्थिति हिमयुग के दौरान निर्मित अंटार्कटिक बर्फीली
चादर का परिणाम है।
अंटार्कटिक के नीचे वाला पानी ठंडा रहा और इसी
वजह से अधिक सघन रहा। यह गर्म तथा कम सघन वाले पानी के नीचे-नीचे उत्तर की ओर बहने
लगा। यह निचला पानी अपेक्षाकृत सुस्त दक्षिणी समुद्र में हज़ारों वर्षों तक पोषक
तत्वों को संग्रहित करता रहा था और काफी लंबे समय के बाद उभरकर ऊपर आया। ऊपर से
धूप मिली तो जीवन फलने-फूलने लगा। यह प्रक्रिया लगभग एक लाख वर्ष तक चलती रही जब
तक कि अंटार्कटिका के आसपास संग्रहित पोषक तत्व खत्म नहीं हो गए। अंतत: जो बचा वे
थे दांत, हड्डियों के टुकड़े और शल्क जो पेंदे में जमा हो गए।
हड्डियां कैल्शियम और फॉस्फेट से बनी होती
हैं, और लगता है जीवाश्मित फॉस्फेट दुर्लभ मृदा तत्वों को काफी
अच्छे से बांध पाता है। इस अध्ययन के सह-लेखक जुनिचिरो ओह्टा के अनुसार पिछले 3.4
करोड़ वर्षों में जीवाश्म ने धीरे-धीरे मिट्टी में फंसे तरल पदार्थ से यिट्रियम, युरोपियम, टर्बीयम
और डिस्प्रोसियम को अच्छे से जमा किया है। हड्डियों के टुकड़े हो जाने की वजह से
सतह के बढ़े हुए क्षेत्रफल ने इस क्षमता को और बढ़ाया है। इसके परिणामस्वरूप यहां की
मिट्टी में 20,000 पीपीएम तक दुर्लभ मृद्दा तत्व उपस्थित हैं। यही कारण है कि मिनामि-तोरी-शिमा इतना खास है।
जापानी वैज्ञानिकों की टीम के अनुसार
मिनामि-तोरी-शिमा के दक्षिण में 1.6 करोड़ टन के दुर्लभ मृदा ऑक्साइड्स मौजूद हैं
जो वर्तमान उपभोग की दर के हिसाब से 420 से 780 वर्षों तक की आपूर्ति के लिए
पर्याप्त हैं। और सिर्फ मिनामि-तोरी-शिमा और मानिहिकी पठार ही नहीं बल्कि प्रशांत
महासागर में ऐसे सैकड़ों टापू हैं जहां दुर्लभ मृदा तत्वों के मिलने की संभावना
है।
ऐसा अनुमान है कि विभिन्न दुर्लभ मृदा
तत्वों की आपूर्ति में वृद्धि होने से ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकेगा जो
जीवाश्म र्इंधन से छुटकारा दिला सकते हैं। इन्हें आसानी से प्राप्त भी किया जा
सकता है। कीचड़ में पाए जाने के कारण इनमें युरेनियम और थोरियम जैसे रेडियोधर्मी
तत्वों का स्तर भी कम होगा। लेकिन एक समस्या भी है – जीवाश्म तीन मील से अधिक
गहराई पर मौजूद हैं, जहां अब तक का कोई भी व्यावसायिक खनन कार्य लाभदायक नहीं हो
पाया है। महासागरों में गहराई पर खनन से पर्यावरण को काफी क्षति की भी आशंका
है।
ट्रेंड्स इन इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरणीय असंतुलन को कम आंका जा रहा है। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि यह क्षेत्र बहुत छोटा है, और खनन से मिलने वाले फायदे पर्यावरणीय लागत से कहीं अधिक हैं। कुल मिलाकर, चाहे धरती पर हो या समुद्रों में, खनन को लेकर विवेकपूर्ण निर्णयों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/94856ADF-9FD3-498A-8381B0EDE8E58A99.jpg
पंजीकरण करना, फॉर्म भरना,
ई-मेल अकांउट खोलना
या अनुदान के लिए आवेदन करना, ये काम अधिकांश लोगों के लिए आसान हो सकते
हैं, लेकिन कुछ लोगों के लिए नहीं।
इंडोनेशियाई लोगों की तरह दुनिया के कई
समुदाय के लोगों का सिर्फ नाम होता है, उपनाम नहीं। लेकिन वेबसाइट के माध्यम से
कोई भी फॉर्म भरते वक्त या आवेदन करते वक्त आवेदक के लिए उपनाम भरना ज़रूरी रखा
जाता है, जब तक उपनाम ना लिखो तब तक फॉर्म सबमिट नहीं किया जाता। इन
हालात में, फॉर्म में उपनाम की खानापूर्ति के लिए कई लोग दोबारा अपना
नाम, ‘NA’
(लागू नहीं), ‘NULL’ (निरंक) या ऐसा ही कोई शब्द भर देते हैं।
अनुसंधान अनुदान पाने के लिए, फेलोशिप
आवेदन के समय, स्नातक कार्यक्रमों में दाखिले के वक्त या किसी शोधपत्र के
प्रकाशन में कई वैज्ञानिकों को भी इन्हीं स्थितियों का सामना करना पड़ता है। फार्म
भरे जाने के बाद वैज्ञानिकों को संस्थानों और पत्रिका के संपादकों को ई-मेल लिखकर
अपने नाम-उपनाम की इस स्थिति को स्पष्ट करना पड़ता है। लेकिन कभी वे स्पष्ट करना भूल
जाते हैं तो उन्हें भेजे पत्र में उपनाम की जगह भी उनका नाम ही लिख दिया जाता है
या ‘Dear NULL’ या ‘Dear NA’ से सम्बोधित किया जाता है। वह भी तब जब इन वैज्ञानिकों का आवेदन स्पैम मानकर
डैटाबेस से विलोपित न कर दिया जाए।
इस मुश्किल की वजह से कई इंडोनेशियाई वैज्ञानिकों
के कुछ ही शोधपत्र अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो पाए हैं या वे कुछ ही
सम्मेलनों में शामिल हो पाते हैं। लेकिन वैज्ञानिक समुदाय अब तक इस मुद्दे से पूरी
तरह से वाकिफ नहीं है। यह समस्या सिर्फ इंडोनेशियाई वैज्ञानिकों के साथ नहीं है
बल्कि एशिया के कई वैज्ञानिक भी ऐसी मुश्किलों का सामना करते हैं। जैसे दक्षिण
भारतीय लोग उपनाम के विकल्प के रूप में पिता का नाम लगाते हैं; जापानी, कोरियाई
और चीनी वैज्ञानिकों का नाम नामुनासिब तरीके से छोटा कर दिया जाता है, जो
भ्रम पैदा करता है।
इन अजीबो-गरीब सम्बोधनों से बचने के लिए कई
इंडोनेशियाई वैज्ञानिक अपना पारिवारिक नाम (उपनाम) तय करने को मजबूर हो जाते हैं
या कई एशियाई वैज्ञानिक पश्चिमी नामों को अपना लेते हैं। या ई-मेल अकाउंट खोलने
जैसे कामों में परिवार के किसी सदस्य का नाम इस्तेमाल कर लेते हैं। लेकिन इस तरह वैज्ञानिकों
के लिए सही नाम के साथ अपना वैज्ञानिक रिकॉर्ड बनाना मुश्किल है। लोग नकली उपनामों
को असली मानकर दस्तावेज़ या प्रमाण पत्र में लिख देते हैं। जब तक वैज्ञानिक स्थिति
स्पष्ट करते हैं तब तक दस्तावेज़ों पर वह नाम छप चुका होता है और उन्हें गलत नाम
वाले दस्तावेज़ स्वीकार करने पड़ते हैं। जैसे-जैसे डिजिटल दुनिया हावी हो रही है और
लिंक्डइन और रिसर्चगेट जैसी ऑनलाइन सेवाएं शक्तिशाली हो रही हैं, एकल
नाम वाले वैज्ञानिक दौड़ में पिछड़ते जा रहे हैं।
अब ज़रूरत है कि विज्ञान संस्कृति संवेदी बने। लेखकों की पहचान के लिए नाम की बजाय ORCID (ओपन रिसर्चर एंड कॉन्ट्रीब्यूटर) कोड जैसी विशिष्ट पहचान प्रणाली हो; पुष्टिकरण ई-मेल में सरनेम का आग्रह न हो; और अकादमिक जगहों पर उपनाम देना अनिवार्य ना हो।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-020-02761-z/d41586-020-02761-z_18416114.jpg
जलवायु परिवर्तन के साथ पेड़-पौधे और जीव-जंतु अपने इलाकों, प्रजनन
के मौसम या अन्य तौर-तरीकों में बदलाव करके खुद को इस परिवर्तन के अनुकूल कर रहे
हैं। अब ऐसा ही अनुकूलन फूलों में भी दिखा है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित
अध्ययन के अनुसार पिछले 75 वर्षों में बढ़ते तापमान और ओज़ोन ह्रास के साथ फूलों की
पंखुड़ियों के अल्ट्रावायलेट (यूवी) रंजकों में बदलाव आया है।
पंखुड़ियों पर यूवी किरणें सोखने वाले रंजक
मौजूद होते हैं, जो हमें तो नज़र नहीं आते लेकिन परागणकर्ताओं को आकर्षित
करते हैं और पौधों के लिए एक तरह से सनस्क्रीन का काम भी करते हैं। मनुष्यों की
तरह यूवी विकिरण फूलों के पराग के लिए भी हानिकारक होते हैं। पंखुड़ियों पर जितने
अधिक यूवी-अवशोषक रंजक होंगे, संवेदनशील कोशिकाओं तक यूवी किरणें उतनी कम
पहुंचेंगी।
क्लेम्सन युनिवर्सिटी के पादप
पारिस्थितिकीविद मैथ्यू कोस्की ने अपने पूर्व अध्ययन में पाया था कि जिन फूलों ने
यूवी विकिरण का सामना अधिक किया, उनमें यूवी-रंजक भी अधिक थे। ऐसा प्राय:
अधिक ऊंचाई या भूमध्य रेखा के निकट उगने वाले पौधों में होता है।
कोस्की जानना चाहते थे कि मानव गतिविधि की
वजह से ओज़ोन परत में हुई क्षति और बढ़ता तापमान क्या फूलों के यूवी-रंजकों को
प्रभावित करते हैं। यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका, युरोप
और ऑस्ट्रेलिया में पाई जाने वाली 42 अलग-अलग प्रजातियों के 1238 फूलों के वर्ष
1941 के संग्रह का अध्ययन किया। फिर विभिन्न समय पर एकत्रित किए गए इन्हीं
प्रजातियों के फूलों की पंखुड़ियों की यूवी-संवेदी कैमरे से तस्वीरें खींची। इस तरह
उन्होंने पंखुड़ियों में यूवी-रंजकों में आए बदलावों को देखा। इन बदलाव का मिलान
स्थानीय ओज़ोन स्तर और तापमान में बदलाव के डैटा के साथ किया।
पाया गया कि सभी स्थानों पर 1941-2017 के
बीच अल्ट्रावायलेट रंजकों में प्रति वर्ष औसतन 2 प्रतिशत वृद्धि हुई है। लेकिन
भिन्न-भिन्न बनावट के फूलों के यूवी-रंजकों में परिवर्तन में भिन्नता थी। मसलन, तश्तरी
आकार के बटरकप जैसे फूलों (जिनका पराग उजागर रहता है) में,जिन इलाकों में ओज़ोन में कमी हुई थी वहां
उनके यूवी-अवशोषक रंजकों में वृद्धि हुई और जिन स्थानों पर ओज़ोन में वृद्धि हुई थी
वहां ऐसे रंजकों में कमी आई। दूसरी ओर, कॉमन ब्लेडरवर्ट जैसे फूलों (जिनका पराग
उनकी पंखुड़ियों में छिपा होता है) में तापमान बढ़ने से यूवी-रंजकों में कमी आई, चाहे
फिर उस स्थान का ओज़ोन स्तर बढ़ा हो या कम हुआ हो।
पंखुड़ियों के भीतर छिपा पराग नैसर्गिक रूप
से यूवी विकिरण से सुरक्षित होता है। ऐसी स्थिति में पंखुड़ियों में मौजूद
यूवी-रंजकों की अतिरिक्त सुरक्षा ग्रीनहाउस की तरह कार्य करती है और गर्मी बढ़ाती
है। इसलिए जब फूल उच्च तापमान का सामना करते हैं तो पराग के झुलसने की संभावना
होती है। यदि पंखुड़ियों में कम यूवी-रंजक हों तो कम विकिरण अवशोषित होगा और ताप भी
कम रहेगा।
लेकिन यही यूवी-रंजक हमिंगबर्ड और मधुमक्खियों जैसे परागणकर्ताओं को आकर्षित भी करते हैं। अधिकांश परागणकर्ता उन फूलों पर बैठना पसंद करते हैं जिनकी पंखुड़ियों के किनारों पर यूवी-अवशोषक रंजक कम और बीच में अधिक हो। लेकिन यदि यूवी-अवशोषक रंजक बढ़े तो यह अंतर मिट जाएगा, नतीजतन परागणकर्ता ऐसे फूलों पर नहीं आएंगे। ये बदलाव पराग को तो सुरक्षित कर देंगे लेकिन परागणकर्ता दूर हो जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://thumbs-prod.si-cdn.com/tZYxg9LHYstecGHpqrqkWL83ljo=/fit-in/1600×0/https://public-media.si-cdn.com/filer/51/29/51299669-2c4c-41d2-8cb7-f0ed44b88795/bees-18192_1920.jpg
इन दिनों युरोपीय संघ पृथ्वी का ‘डिजिटल जुड़वां’ तैयार करने
की योजना पर काम कर रहा है। पृथ्वी के इस डिजिटल मॉडल की मदद से वायुमंडल, महासागर, बर्फ
और धरती की सटीक अनुकृति बनाकर बाढ़, सूखा या जंगलों की आग जैसी आपदाओं का समय
रहते पता लगाया जा सकेगा। डेस्टिनेशन अर्थ नामक इस प्रयास में मानव व्यवहार का भी
विश्लेषण किया जाएगा ताकि जलवायु सम्बंधी नीतियों के समाज पर असर का आकलन किया जा
सके। इस परियोजना के बारे में जल्दी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया जाएगा और अगले
साल तीन सुपरकंप्यूटर की मदद से फिनलैंड, इटली और स्पेन में शुरू किया जाएगा।
डेस्टिनेशन अर्थ वास्तव में युरोपियन सेंटर
फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ECMWF) के एक अनुसंधान कार्यक्रम ‘एक्स्ट्रीम अर्थ’ के रद्द होने
के बाद शुरू हुआ था। गौरतलब है कि युरोपीय संघ ने इस प्रमुख कार्यक्रम को रद्द तो
किया लेकिन इस विचार में रुचि बनाए रखी। इस बीच युरोप ने हाई-परफॉरमेंस कंप्यूटिंग
में 8 अरब युरो का निवेश किया और ऐसी मशीनों का निर्माण किया जो प्रति सेकंड एक
अरब-अरब गणनाएं करने में सक्षम हैं।
वर्तमान में उपयोग किए जाने वाले सबसे
सक्षम जलवायु मॉडल 9 किलोमीटर के विभेदन पर काम करते हैं। नया मॉडल केवल 1
किलोमीटर विभेदन पर काम कर सकता है। इसलिए इस मॉडल में एक स्थान के आंकड़ों के आधार
पर बड़े क्षेत्र के लिए एल्गोरिदम की मदद से अनुमान पर निर्भर नहीं रहना होगा। इसकी
बजाय यह ऊष्मा के वास्तविक संवहन के आंकड़ों पर काम करेगा जो बादलों और तूफानों के
निर्माण में महत्वपूर्ण होते हैं। इसके अलवा यह मॉडल बहुत बारीकी से महासागरों में
बनने वाले भंवरों का विश्लेषण कर सकता है जो गर्मी और कार्बन का परिवहन करते हैं।
जापान में 1 किलोमीटर के जलवायु मॉडल से तूफानों और भंवरों को सिमुलेट करके
अल्पकालिक बारिश का पता लगाया जाता है, जो वर्तमान मॉडलों से संभव नहीं था।
डेस्टिनेशन अर्थ में विस्तृत डैटा के आधार
पर पूर्वानुमान लगाए जा सकते हैं। इसके साथ ही मौसम और जलवायु से जुड़ी अन्य घटनाओं, जैसे
वातावरण में प्रदूषण, फसलों की वृद्धि, जंगलों की आग आदि का पता लगाया जा सकता है।
इन सभी जानकारियों से नीति निर्माताओं को यह अंदाज़ लग सकता है कि भविष्य में
जलवायु परिवर्तन किस तरह से मानव समाज को प्रभावित करेगा।
फिर भी सटीक अनुमान लगाना इतना आसान नहीं
होगा। इस मॉडल के सुपरकंप्यूटर पारंपरिक कंप्यूटर चिप्स के साथ-साथ ग्राफिकल
प्रोसेसिंग युनिट्स (जीपीयू) का उपयोग करते हैं जो जटिल गणना करने में सक्षम हैं।
जीपीयू मॉडल के घटकों को चलाने के साथ-साथ कृत्रिम बुद्धि के एल्गोरिदम भी विकसित
करते जाते हैं। ऐसे में पुराने जलवायु मॉडलों के साथ इसका तालमेल बैठा पाना थोड़ा
मुश्किल होगा। इसके साथ ही इस मॉडल से प्राप्त होने वाला डैटा भी एक बड़ी समस्या
होगी। जापानी टीम ने प्रयोग के लिए 1 किलोमीटर मॉडल को चलाया था तब उनको डैटा से
लाभदायक जानकारी हासिल करने में लगभग छ: माह का समय लग गया था।
इस मॉडल को और अधिक विकसित करने की आवश्यकता है। उम्मीद है कि इस मॉडल की मदद से भविष्य में लंबे समय के पूर्वानुमान न सही, कुछ हफ्तों और महीनों के पूर्वानुमान लगा पाना संभव होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_1002NID_Globe_online_0.jpg?itok=k7T2b6HT