सौरमंडल में मंगल
ही इकलौता ऐसा ग्रह है जो पृथ्वी से कई समानताएं दर्शाता है। भविष्य में पृथ्वी से
बाहर मानव कॉलोनी बसाने के लिए यही ग्रह सबसे उपयुक्त नज़र आता है। इसके बारे में जानकारी
में वृद्धि के साथ वैज्ञानिकों और आम लोगों में इसके प्रति रुचि बढ़ी है।
लेकिन अभी भी इससे
जुड़े कई अहम सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं। जैसे, क्या कभी मंगल पर जीवन था, और अगर था तो किस रूप में था? क्या मंगल पर कभी पृथ्वी की तरह नदियां और सागर हिलोरे लेते
थे? एक लंबे अरसे से इस आखरी सवाल
का वैज्ञानिकों का जवाब ‘हां’
रहा है। और अब नेचर कम्यूनिकेशन में प्रकाशित शोध
पत्र के मुताबिक वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम को मंगल ग्रह पर एक अरब साल
पहले नदियों की मौजूदगी के नए और पुख्ता संकेत मिले हैं।
वैज्ञानिकों ने नासा
की दूरबीन से प्राप्त तस्वीरों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है। वैज्ञानिकों
ने तस्वीरों की सहायता से मंगल ग्रह के हेलास बेसिन नामक एक बहुत बड़े गड्ढे का एक 3-डी स्थलाकृति नक्शा बनाया। वैज्ञानिकों को एक पथरीले
पहाड़ की चोटी के पास गहरी तलछट जमा मिली है जो तकरीबन 200 मीटर ऊंची है। यह तलछट तेज़ बहती नदी की वजह से जमा हुई होगी।
इसकी चौड़ाई करीब डेढ़ किलोमीटर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हम फिलहाल वहां जाकर विस्तृत
जानकारी नहीं ले सकते मगर पृथ्वी की तलछटी चट्टानों (सेडीमेंटरी रॉक्स) से समानता के
चलते संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। इतने ऊंचे तलछटी निक्षेप बनने के लिए ज़रूरी है
कि वहां बड़ी मात्रा में तरल पानी बहता रहा हो।
इस शोध पत्र के प्रमुख
लेखक फ्रांसेस्को सेलेस का कहना है कि “यह वर्षों से पता है कि मंगल ग्रह पर अरबों वर्ष पहले बहुत-सी झीलें, नदियां और संभवत: महासागर भी रहे होंगे जो जीवन
के शुरुआती स्तर के अनुकूल रहे होंगे। आज मंगल के ध्रुवों पर बर्फ जमा है और उसमें
बहुत ज़्यादा धूल के तूफान आते हैं। लेकिन वहां की सतह पर तरल पानी की मौजूदगी के कोई
संकेत नहीं हैं। मगर 3.7 अरब साल पहले हालात
इतने विषम नहीं थे और हो सकता है कि तब वहां जीवन के अनुकूल परिस्थितियां मौजूद रही
हों। पृथ्वी पर तलछटी चट्टानों के अध्ययन से हम लाखों-अरबों साल पहले की स्थितियों
के बारे में जानने में सफल हुए हैं। अब हम मंगल ग्रह का अध्ययन कर पा रहे हैं जहां
पृथ्वी से भी पहले के समय की तलछटी चट्टानें पाई गई हैं।”
वैज्ञानिकों ने यह
भी पाया है कि इन तेज़ बहती नदियों ने इन चट्टानों को हजारों-लाखों साल पहले बनाया होगा।
इन चट्टानों में सूक्ष्मजीवी जीवन के प्रमाण हो सकते हैं और मंगल ग्रह के इतिहास के
बारे में बहुत-सी जानकारी हासिल हो सकती है।
बहरहाल, मंगल की खोजबीन निरंतर जारी है। नासा का इनसाइट लैंडर मंगल पर सफलतापूर्वक उतर चुका है और मंगल की भूगर्भीय बनावट का अध्ययन कर रहा है। वहीं क्यूरियोसिटी रोवर छह साल से अधिक समय से गेल क्रेटर की खोजबीन कर रहा है। और नासा का भावी मार्स 2020 रोवर और युरोपियन स्पेस एजेंसी का एक्समर्स रोवर, दोनों लॉन्च होने के बाद ऐसे रोवर मिशन बन जाएंगे, जिन्हें मुख्य रूप से लाल ग्रह पर अतीत के सूक्ष्मजीवी जीवन और नदियों, सागरों की मौजूदगी के संकेतों की तलाश के लिए बनाया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2019/03/27153622/osuga-valles.jpg?width=778
कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट
ऑफ टेक्नॉलॉजी के भूकंप विज्ञानी जोंगवेन ज़ान ने नववर्ष एक विचित्र अंदाज़ में मनाया।
उन्होंने नववर्ष के जश्न के दौरान बैंड की तेज़ ध्वनि से उत्पन्न कंपन को ज़मीन के नीचे
दबे प्रकाशीय तंतुओं की मदद से रिकॉर्ड किया।
गौरतलब है कि टीवी,
फोन और इंटरनेट के लिए प्रकाशीय तंतु केबल का उपयोग
होता है। इन महीन तारों का नेटवर्क शहरों में किसी पेड़ की जड़ों की तरह फैला है। इन
तारों के भीतर कांच के कई अत्यंत बारीक तंतुओं में प्रकाश की मदद से डैटा प्रसारित
किया जाता है। एक समय पर सारे तंतुओं का उपयोग नहीं होता। ऐसे ‘निष्क्रिय तंतुओं’
का उपयोग सस्ते भूकंप संवेदी के रूप में किया जा
सकता है।
ज़ान की टीम ने स्थानीय
अधिकारियों से 37 किलोमीटर लंबे केबल
के दो स्ट्रैंड उपयोग करने की अनुमति ली हुई थी। उन्होंने दोनों स्ट्रैंड के एक-एक
छोर पर लेज़र लगा दिया जो अवरक्त प्रकाश छोड़ता था। इनमें से अधिकांश प्रकाश तो फाइबर
के रास्ते आगे बढ़ा लेकिन कुछ हिस्सा फाइबर में नुक्स के कारण परावर्तित हो गया। शोधकर्ताओं
ने इस परावर्तित प्रकाश के वापिस पहुंचने के समय को भी अपने उपकरणों में दर्ज किया।
ज़ान के अनुसार फाइबर में खराबी के कारण प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
कई बार मापन करके
शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि के पहुंचने के समय में अंतर को देखा। इसके आधार पर वे बता
पा रहे थे कि कंपन कब प्रकाशीय तंतु के उस खंड को खींचकर थोड़ा लंबा कर देते हैं। उपकरणों
की मदद से फाइबर में एक मीटर खंड की लंबाई में एक अरबवें हिस्से के फैलाव का पता लगाया
सकता है। तो आपके पास हज़ारों संवेदी उपकरण मौजूद हैं।
इस तकनीक को डिस्ट्रिब्यूटेड
एकूस्टिक सेंसिंग कहते हैं और पूर्व में इसका उपयोग सेना द्वारा पनडुब्बियों को ताड़ने
में किया जाता था। अब इनका उपयोग हर उस काम में किया जा सकता जहां कंपन शामिल हैं,
जैसे भूकंप की निगरानी में।
अलबत्ता, ज़ान और अन्य शोधकर्ता भविष्य में इसके व्यापक उपयोग को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इसका उपयोग न केवल भूकंपों की निगरानी के लिए किया जा सकता है बल्कि ट्रैफिक पैटर्न को रिकॉर्ड करने, ज़मीन के नीचे दबी पाइप लाइन में रिसाव का पता लगाने और अनधिकृत प्रवेश का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। ज़ान का मानना है कि इस प्रणाली को लॉस एंजिलिस जैसे बड़े शहरों में निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है जहां पहले से हज़ारों किलोमीटर का फाइबर नेटवर्क मौजूद है। (स्रोत फीचर्स)
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फास्ट फूड हमारी भूख
शांत करने में मदद करता है। ऐसा ही जुगाड़ भंवरे भी करते हैं। जब मादा भंवरे शीतनिद्रा
(हाइबरनेशन) से जागते हैं तो उन्हें अपनी नई कॉलोनी बनाने के लिए ढेर सारे पराग और
मकरंद की ज़रूरत होती है। यदि भंवरे समय से पूर्व शीतनिद्रा से जाग जाते हैं तो पर्याप्त
मात्रा में पराग जमा करने के लिए आसपास पर्याप्त फूल नहीं खिले होते हैं। साइंस पत्रिका
में प्रकाशित शोध बताता है कि भंवरों ने इस समस्या का विचित्र समाधान खोजा है – वे
फूलों को जल्दी खिलाने के लिए पौधों की पत्तियों में छेद कर देते हैं और फूल वास्तव
में निर्धारित समय से कुछ सप्ताह पहले ही खिल उठते हैं।
ईटीएच ज़्यूरिच के
शोधकर्ताओं ने भंवरों में पौधों की गंध के प्रति प्रतिक्रिया सम्बंधी एक अध्ययन के
दौरान गौर किया था कि भंवरे पौधों की पत्तियों पर अर्ध-चंद्राकार छेद कर रहे हैं। पहले
तो शोधकर्ताओं को लगा कि वे पत्तियों का रस चूस रहे हैं। लेकिन भंवरे पत्तियों पर इतनी
देर नहीं ठहरे कि पर्याप्त रस ले सकें और ना ही वे पत्तियों का कोई हिस्सा अपनी कॉलोनी
में ले गए।
विचित्र अवलोकन यह
था कि जिन भंवरों की कॉलोनियों में कम भोजन उपलब्ध था उन्होंने पत्तियों में अधिक छेद
किए थे। इसके आधार पर शोधकर्ता सोचने लगे कि कहीं ये छेद फूलों को जल्दी खिलाने के
लिए तो नहीं किए जा रहे? यह तो पहले से पता
है कि कुछ पौधों में क्षति या तनाव के चलते फूल जल्दी खिलते हैं। लेकिन किसी ने यह
नहीं सोचा था कोई परागणकर्ता इस तरह से क्षति पहुंचाएगा।
माजरे को समझने के
लिए वैकासिक जीव विज्ञानी मार्क मेशर और उनके साथियों ने ग्रीनहाउस में प्रयोग किया।
पहले उन्होंने 3 तीन दिन से पराग
से वंचित भंवरों को राई (ब्रौसिका निग्रा) के दस पौधों पर छोड़ा। उन्होंने पाया कि भवंरों
ने हर पौधे में 5-10 छेद किए और इन पौधों
में औसतन 17 दिन बाद फूल खिल गए जबकि
जो पौधे भंवरों के संपर्क में नहीं आए थे उनमें औसतन 33 दिन बाद फूल खिले। टमाटर के पौधों पर दोहराने पर उनमें फूल
सामान्य से 30 दिन पहले खिल गए।
इसी कड़ी के अगले अध्ययन
के आधार पर लगता है कि भूख भवरों को पत्तियों में छेद करने को प्रेरित करती है क्योंकि
पराग ले चुके भंवरों की तुलना में पराग से वंचित भंवरों ने पत्तियों में चार गुना अधिक
छेद किए। और वसंत की शुरुआत में फूलों के खिलने के पहले, भंवरों ने पत्तियों में अधिक छेद किए लेकिन जैसे-जैसे वसंत आगे
बढ़ा और अधिक पराग मिलने लगा तो भंवरों ने पत्तियों में कम छेद किए। यह विचित्र व्यवहार
भंवरों की दो जंगली प्रजातियों में देखा गया।
क्या पत्तियों को
होने वाली क्षति-मात्र ही पौधों को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करती है? यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया
जिसमें उन्होंने पत्तियों में हू-ब-हू वैसे ही छेद बनाए जैसे भंवरे बनाते हैं। उन्होंने
पाया कि सामान्य पौधों की तुलना में इन पौधों में जल्दी फूल आ गए, लेकिन भंवरों द्वारा छेद किए गए पौधों की तुलना
में देर से फूल आए। इससे लगता है कि भंवरों की लार में ऐसे रसायन होते होंगे जो पौधे
को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करते हैं।
बहरहाल शोधकर्ता इस बात पर हैरान हैं कि भंवरों में यह व्यवहार कैसे विकसित हुआ होगा। ऐसा लगता नहीं कि भंवरे यह युक्ति सीखते होंगे क्योंकि उनका कुल जीवन बहुत छोटा होता है। और यदि यह जन्मजात है तो समझना मुश्किल है कि उनमें यह शुरू कैसे हुआ। (स्रोत फीचर्स)
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किसी
पौधे में मांस का चस्का विकसित होना काफी अजीब लगता है। लेकिन हाल ही में
मांसाहारी पौधों की तीन नज़दीकी प्रजातियों पर किए गए अध्ययन से पता चला है कि कुशल
आनुवंशिक फेरबदल ने उन्हें प्रोटीन युक्त भोजन को प्राप्त करने और पचाने की क्षमता
विकसित करने में मदद की है।
मांसाहारी
पौधों ने शिकार के लिए कई कुटिल तरीके विकसित किए हैं। जैसे कलश पादप (पिचर प्लांट) तो एक फिसलन भरे कलश
की मदद से कीड़ों को पकड़ता है जिसमें प्रोटीन को पचाने वाले एंज़ाइम होते हैं।
मांसाहारी पौधों की कुछ अन्य प्रजातियां हैं: वीनस
फ्लाईट्रैप (Dionaea
muscipula),
जलीय वॉटरव्हील प्लांट (Aldrovandavesiculosa), और
सनड्यू (Droseraspatulata)। ये गतिशील ट्रैप का उपयोग करते हैं। जैसे सनड्यू पर जब
कोई मच्छर बैठता है तो उस जगह को लपेट लिया जाता है। वीनस फ्लायट्रैप में विशेष
पत्तियां होती हैं जो कीड़े के बैठने पर बंद हो जाती हैं।
इन
गतिशील ट्रैप्स के विकास की खोजबीन के लिए युनिवर्सिटी ऑफ वुर्ज़बर्ग के
कम्प्यूटेशनल वैकासिक जीव विज्ञानी जोर्ग शुल्ट्ज़ और वनस्पति विज्ञानी रेनर
हेड्रिक व अन्य शोधकर्ताओं ने इन तीनों प्रजातियों के जीनोम की तुलना नौ पौधों के
जीनोम से की जिनमें मांसाहारी पिचर प्लांट के अलावा चुकंदर एवं पपीते जैसे साधारण
पौधे शामिल थे।
करंट
बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि मांस भक्षण करने वाली
इन प्रजातियों के जीनोम में लगभग 6 करोड़ वर्ष पुराने एक
साझा पूर्वज के जीनोम में दोहराव हुआ है। इस दोहराव ने जड़ों, पत्तियों और संवेदी
प्रणाली में उपयोग किए जाने वाले जीन की प्रतियों को मुक्त किया जो शिकार की पहचान
पचाने में काम आने लगीं। उदाहरण के लिए, मांसाहारी पौधों ने कुछ जीन्स, जिनका उपयोग जड़ों
द्वारा पोषक पदार्थों के अवशोषण के लिए होता था, को नए काम के लिए
तैनात किया – पचे हुए कीट से पोषक तत्व सोखने में।
शोधकर्ताओं के मुताबिक,
यह रोचक बात है कि जड़ों के जीन्स पत्तियों में अभिव्यक्त हो
रहे हैं।
टीम का निष्कर्ष है कि इन तीन प्रजातियों में और कलश पादप में मांस भक्षण की प्रवृत्ति का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है। दरअसल, उनका कहना है कि पौधों में मांस भक्षण की उत्पत्ति कम से कम छह बार स्वतंत्र रूप से हुई है। वैसे, युनिवर्सिटी ऑफ बफैलो के पादप जीव विज्ञानी विक्टर अल्बर्ट इन दो स्वतंत्र उत्पत्तियों के पक्ष में डैटा को अपर्याप्त बताते हैं। उनके अनुसार शिकार के लिए कुछ आवश्यक जीन तो कलश पादप और इन तीन पौधों के साझा पूर्वज में उपस्थित थे। उनकी टीम अब अन्य दो सनड्यू पौधों का अनुक्रमण कर रही है ताकि स्थित को स्पष्ट किया जा सके। हेड्रिक को यह भी लगता है कि मांसाहार के जीन कई पौधों में पाए जाते हैं। अत: मांसाहार का मार्ग सबके लिए खुला है।(स्रोत फीचर्स)
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कुछ
लोगों का अनुभव है कि जब उनके कुत्ते किशोरावस्था में पहुंचते हैं तो वे अचानक
उनके हुक्म मानना बंद कर देते हैं। यह भी कहा जाता है कि किशोर उम्र के कुत्तों का
व्यवहार शिशु, वयस्क
या वृद्ध कुत्तों से भिन्न होता है। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक
ताज़ा अध्ययन बताता है कि मानव किशोरों की तरह कुत्ते भी किशोरावस्था के दौरान अति
संवेदनशील होते हैं।
न्यू
कासल युनिवर्सिटी की जीव व्यवहार विज्ञानी लुसी एशर बताती हैं कि मनुष्यों के साथ
कुत्तों के पिल्लों का लगाव बिल्कुल मानव शिशु जैसा होता है। लेकिन अधिकांश
मालिकों को लगता है कि कुत्तों की उम्र 8 महीने की (श्वान-किशोरावस्था) होने पर उनके कुत्तों का व्यवहार बदल जाता है। मानव किशोरों
की तरह किशोर कुत्ते भी अपने मालिकों की उपेक्षा और अवज्ञा करने लगते हैं। इस
व्यवहार पर मालिक तरह-तरह की प्रतिक्रिया
देते हैं: कुछ उन्हें सज़ा देते हैं, कुछ उपेक्षा करते
हैं, तो
कुछ उन्हें दूर भेज देते हैं।
किशोरावस्था
कैसे कुत्तों का व्यवहार बदलती है, यह जानने के लिए एशर और उनकी टीम ने 70 कुत्तों पर नज़र रखी। अध्ययनकर्ताओं ने उनके मालिकों को उनके
साथ लगाव और ध्यान खींचने वाले व्यवहार (जैसे मालिक से सटकर
बैठना या किसी व्यक्ति के प्रति विशेष लगाव) और उपेक्षित होने पर
व्यवहार (जैसे पीछे छूट जाने पर सिहरन या कंपकंपी) के आधार पर अंक देने को कहा। ये दोनों तरह के व्यवहार चिंता
और भय के द्योतक हैं।जिन पिल्लों को दोनों में से किसी भी एक पैमाने पर अधिक अंक
मिले थे उनकी किशोरावस्था भी जल्दी शुरू हुई (लगभग
5 माह की उम्र में) जबकि
कम अंक वाले पिल्लों की किशोरावस्था 8 माह की उम्र यानी
देर से शुरू हुई। यह देखा गया है कि जिन लड़कियों के अपने अभिभावकों से रिश्ते
अच्छे नहीं होते उनकी किशोरावस्था जल्दी शुरू हो जाती है। मनुष्यों की तरह, जिन कुत्तों के
उन्हें पालने वालों के साथ सम्बंध अच्छे नहीं थे उनके प्रजनन चक्र में अंतर आया।
यह भी देखा गया कि जो किशोर कुत्ते अपने पालकों के विछोह से दुखी थे उन्होंने अपने
पालकों की बात नहीं मानी जबकि अन्य व्यक्ति की बात मानी। यह व्यवहार मानव किशोरों
की असुरक्षा की भावना से मेल खाता है।
एक
अन्य अध्ययन में अध्ययनकर्ताओं ने अन्य 69 गाइड
कुत्तों का 5 महीने और 8 महीने
की उम्र के दौरान अध्ययन किया। उन्होंने उनके मालिक और एक अजनबी को उन्हें ‘बैठने’ का आदेश देने को
कहा। सभी पिल्ले जब पूर्व-किशोरावस्था में थे, तब वे दोनों
व्यक्तियों के आदेश पर तुरंत बैठ गए। लेकिन जब यही पिल्ले किशोरावस्था में पहुंचे
तो ‘बार-बार’ उन्होंने अपने पालक का आदेश मानने से इन्कार किया जबकि
अनजान व्यक्ति की बात मान ली। जिन कुत्तों का अपने मालिकों से सुरक्षात्मक रूप से
लगाव नहीं था उन्होंने अजनबियों के आदेश अधिक माने। यह व्यवहार भी मानव किशोरों की
याद दिलाता है।
285 गाइड कुत्तों पर किए गए एक अध्ययन के डैटा के आधार पर
शोधकर्ताओं का कहना है कि अन्य उम्र की तुलना में किशोर कुत्तों को ‘प्रशिक्षित’ करना अधिक मुश्किल
होता है।
टीम का मानना है कि किशोर कुत्तों और मानव किशोरों के व्यवहार में समानता को देखते हुए मनुष्यों में किशोरावस्था के अध्ययन के लिए कुत्ते अच्छे मॉडल हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://lsa.umich.edu/content/michigan-lsa/psych/en/news-events/all-news/faculty-news/dogs-get-difficult-when-they-reach-adolescence–just-like-human-/_jcr_content/featuredImage.transform/big/image.1589477354841.jpg
सांडा
पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पाई जाने वाली छिपकली है, जो मरुस्थलीय खाद्य शृंखला
में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परंतु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते
यह घोर संकट का सामना कर रही है।
सांडे
का तेल, भारत
के विभिन्न हिस्सों मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक
प्रचलित औषधि है। वैसे,
इस तेल का कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र है एवं इस तेल के
रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाए गए हैं। इस अंधविश्वास
के कारण इस जीव का बड़ी संख्या में अवैध शिकार किया जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप
सांडों की आबादी तेज़ी से घट रही है।
सांडा
के नाम से जाना जाने वाला यह सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क
प्रदेशों में पाई जाने वाली एक छिपकली है। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae
वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मज़बूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती है।
सांडा का अंग्रेजी नाम Spiny-tailed
lizard है जो इसे इसकी पूंछ पर पाए जाने वाले कांटेदार शल्क के
अनेक छल्लों की शृंखला के कारण मिला है।
विश्व
भर में सांडे की 20 प्रजातियां पाई जाती हैं। यह उत्तरी
अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं
उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क
प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली
इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम Saarahardiwickii है। यह मुख्यत: अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा एवं गुजरात के कच्छ ज़िले के शुष्क
घास के मैदानों में पाई जाती है। कुछ शोध पत्रों के अनुसार सांडे की कुछ छोटी
आबादियां उत्तर प्रदेश,
उत्तरी कर्नाटक तथा पूर्वी राजस्थान में भी पाई जाती हैं।
वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार सांडे का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय
गतिविधियों का परिणाम हो सकता है क्योंकि वन्य जीव व्यापार में अनेकों जीवों को
उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता है।
सांडे
की भारतीय प्रजाति में नर (40 से 49 से.मी.) सामान्यत: आकार में मादा (34 से 40 से.मी.) से बड़े होते हैं तथा
अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं। नर की पूंछ उसके शरीर की
लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर पर नुकीली होती है जबकि मादा की पूंछ शरीर की
लंबाई से छोटी तथा सिरे पर मोटी होती हैं।
पश्चिमी
राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पाई जाने वाली सांडे की
आबादी में त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान
की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के शल्क में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों
ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परंतु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में
ऐसा नहीं होता।
भारतीय
सांडे को भारत में पाई जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल
के नमूनों की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत: वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक
सीमित रहता है लेकिन शिशु सांडा वनस्पति के साथ कीटों, मुख्यत: भृंग,
चींटी, दीमक, एवं टिड्डों, का सेवन भी करते
हैं। बारिश में एकत्रित किए गए कुछ वयस्क सांडों के मल में भी कीटों का मिलना इनकी
अवसरवादिता को दर्शाता है।
मरुस्थल
में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए सांडे भी अन्य मरुस्थलीय जीवों के समान
भूमिगत मांद में रहते हैं। सांडे की मांद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार
समान होता है तथा यह अन्य मरुस्थलीय जीवों की मांद से अलग दिखाई पड़ती है। मांद
अक्सर टेढ़ी-मेढ़ी, सर्पिलाकार तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती है। मांद का आंतरिक तापमान बाहर की तुलना
में काफी कम होता है।
यह
छिपकली दिनचर होती है तथा मांद में आराम करते समय अपनी कांटेदार पूंछ से प्रवेश
द्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों, विशेषकर परभक्षी
जीवों, को
रोकने के लिए प्रवेश द्वार को मिट्टी से बंद भी कर देती है।
मांद
बनाना रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है। पैदा
होने के कुछ ही समय बाद सांडे के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ मांद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य
सरीसृपों के समान सांडे भी अत्यधिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिद्रा में
चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की चयापचय क्रिया को धीमी कर शरीर में संचित
वसा पर ही जीवित रहते हैं। वैसे कच्छ के घास के मैदानों में शिशु सांडों को
दिसम्बर-जनवरी में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका
कारण कच्छ में सर्दियों में तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता है।
सांडों
का प्रजनन काल फरवरी से शुरू होता है और छोटे शिशुओं को जून-जुलाई
तक घास के मैदानों में उछल-कूद करते देखा जा
सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय में भी ये छिपकलियां दिनचर बनी रहती हैं। गर्मी के
दिनों में तेज़ धूप खिलने पर ये दोपहर तक ही सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल
छाए रहें तो शाम तक भी सक्रिय रहते हैं।
सांडा
मरुस्थलीय खाद्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरामिड के सबसे
निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लायकोजन और वसा की अधिक मात्रा के चलते ये
रेगिस्तान में कई परभक्षी जीवों का प्रमुख भोजन हैं। सांडे को भूमि तथा हवा दोनों
तरफ से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल में पाए जाने वाले परभक्षी
जीवों की विविधता सांडों की बड़ी आबादी का ही परिणाम है। हैरियर और फाल्कन जैसे
शिकारी पक्षियों को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते देखा जा सकता है। बड़े शिकारी
पक्षी ही नहीं,
किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात सांडों का शिकार करने से
नहीं चूकते।
पक्षियों
के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इस उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत को प्राप्त
करने का अवसर नहीं गंवाते। थार रेगिस्तान में विषहीन दोमुंहा सांप (Red
sand-boa) अक्सर सांडे को मांद से बाहर खदेड़ते हुए
देखा जा सकता है। दोमुंहे द्वारा मांद में हमला करने पर सांडे के पास अपने पंजों
से ज़मीन पर मज़बूत पकड़ बनाने एवं मांद के संकरेपन के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय
नहीं होता। हालांकि सांडे को मांद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए
आसान काम नहीं होता लेकिन यह प्रयास व्यर्थ नहीं है क्योंकि एक सफल शिकार का इनाम
ऊर्जा युक्त भोजन होता है। शाम को सक्रिय होने वाली मरु-लोमड़ी
भी अक्सर सांडे को मांद से खोदकर शिकार करते देखी जा सकती है।
परभक्षी
जीवों की ऐसी विविधता के कारण सांडे ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके
विकसित किए हैं। हालांकि इसके पास कोई आक्रामक सुरक्षा प्रणाली तो नहीं हैं परंतु
इसका छलावरण, फुर्ती
एवं सतर्कता इसके प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सूखी घास के
समान होता है जो आसपास के परिवेश में अच्छी तरह घुल-मिल
जाता है।
यदि
छलावरण काम नहीं करता,
तो शिकारियों से बचने के लिए यह अपनी गति पर निर्भर रहता
है। सांडा की पीछे की टांगें मज़बूत तथा उंगलियां लंबी होती हैं जो इसे उच्च गति
प्राप्त करने में मदद करती है। इसके अलावा, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद
सतर्क रहती है,
विशेष रूप से जब शिशुओं के साथ हो। वयस्क छिपकली आगे के
पैरों के बल सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पर नज़र
रखती है। सांडा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढते हैं और मामूली-सी हलचल से ही खतरा भांप कर निकट की मांद मे भाग जाते हैं।
सांडे
अक्सर समूहो में रहते हैं तथा अपनी मांद एक-दूसरे से निश्चित
दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरों को मादाओं के लिए मुकाबला करते
देखा जा सकता है। नर अपने इलाके को लेकर सख्त क्षेत्रीयता प्रदर्शित करते हैं तथा
अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।
अवैध
शिकार एवं खतरे
अलबत्ता, मनुष्यों से सांडा
को बचाने में छलावरण,
गति और सतर्कता पर्याप्त प्रतीत नहीं होती हैं। सांडे के
इलाकों में इनके अंधाधुंध शिकार की घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं। इस छिपकली को
पकड़ने के लिए शिकारी भी कई तरीके इस्तेमाल करते हैं। सबसे सामान्य तरीके में सांडे
की मांद में गरम पानी भरकर या मांद को खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता
है।
एक
अन्य तरीके में शिकारी सांडे की मांद के प्रवेश द्वार पर एक रस्सी का फंदा लगा
देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब
सांडा अपनी मांद से बाहर निकलता है तो फंदा उसके सिर से निकलते हुए पैरों तक आ
जाता हैं तथा जैसे ही सांडा वापस मांद में जाने की कोशिश करता है, फंदा उसके शरीर पर
कस जाता है। फिर सांडे को पकड़कर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है ताकि वह भाग न
सके।
सांडे
को भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 2 में रखा गया है, जो इसके शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है।
यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
की संधि के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल है। हालांकि वन्य जीवों के व्यापार के
मुद्दे पर कार्यरत संस्था ट्राफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
में 1997 से 2001 के
बीच सांडों की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार में भारतीय सांडे का हिस्सा का मात्र
दो प्रतिशत था,
लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय स्तर पर शिकार के गंभीर खतरों
का सामना करना पड़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारतीय सांडे का छोटा हिस्सा
इसके कम शिकार का द्योतक नहीं है, अपितु इसकी अधिक स्थानीय खपत दर्शाता है।
हाल ही में बैंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार सांडे के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग है। पकड़े गए गिरोह का सम्बंध राजस्थान के जैसलमेर ज़िले से था, जहां पर सांडे अभी भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इस तरह के गिरोहों का नेटवर्क कितना फैला हुआ है, कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडों को अक्सर कई स्थानीय बाज़ारों में खुले बिकते भी देखा जाता है। प्रशासन की सख्ती के साथ-साथ आम जनता में जागरूकता सांडों के सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा भारतीय चीते के समान यह अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डॉक्यूमेंटरी में सिमटकर रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://res.cloudinary.com/roundglass/image/upload/c_fill,ar_1.1,g_auto/f_auto/v1577784356/roundglass/sustain/Spiny-tailed-lizard_Vipul-Ramaunj7-copy_uy6bxn.jpg
अक्सर
चींटियां खाने के सामान में चुपके से घुस जाती हैं और उसका नाश कर डालती हैं।
लेकिन चींटियों के घर में भी चोरी होती है। खसखस के आकार की चोरनी चींटी (थीफ एंट), अपने से बड़ी
चींटियों के बच्चों को अपना भोजन बनाती है। इकॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित
एक अध्ययन बताता है कि अन्य चींटी प्रजातियों को चोरनी चींटियों की इस हरकत की
इतनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, कि पूरी खाद्य शृंखला तहस-नहस हो जाती है।
उत्तरी
व दक्षिणी अमेरिका में चोरनी चींटियों की कई प्रजातियां हैं। अधिकांश भूमिगत रहती
हैं। ये चींटियां बड़ी चींटियों की बांबी में सुरंग बनाती हैं और अपने से 24 गुना तक बड़ी अन्य चींटियों के बच्चे चुराकर खा जाती हैं। वे
वयस्क चींटियों को दूर रखने के लिए उन पर ज़हरीला विष छिड़क देती हैं।
चोरनी
चींटियों के काफी संख्या में मौजूद होने के बावजूद, उनके छोटे आकार और
भूमिगत रहने के कारण वे अधिकतर वैज्ञानिकों के द्वारा उपेक्षित ही रही हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा के छात्र लियो ओहयामा देखना चाहते थे कि जब ये
चोरनी चींटियां न हों तो क्या होगा? इसके लिए उन्होंने स्टेट पार्क की रेतीली
मिट्टी में 18-18 वर्ग मीटर के 20 प्लॉट
तैयार किए। इनमें से 10 प्लॉटों में 14 महीनों तक हर महीने प्लास्टिक ट्यूब में कीटनाशक युक्त चारा
रखा। इस ट्यूब के निचले भाग में ऐसी जाली लगाई गई थी कि बड़ी चींटियां इस छेद से
अंदर ना जा पाएं।
उन्होंने
पाया कि कीटनाशक युक्त भोजन रखने से चोरनी चींटियों की संख्या में 71 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों की संख्या में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उन्होंने यह भी पाया कि अध्ययन के
दूसरे वर्ष में मई और जून के दौरान, जब चींटियों की संख्या सबसे अधिक होती है, चोरनी चींटियों की
संख्या में 82 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
ऐसा
लगता है कि चोरनी चींटियां कुछ ही प्रजातियों को अधिक लक्ष्य करती हैं। क्योंकि जब
चोरनी चींटियों की संख्या में कमी आई थी तब पिरामिड चींटी (Dorymyrmexbureni) की संख्या लगभग दुगनी हो गई थी, जबकि निशाचर
चींटियों (Nylanderiaarenivaga) की श्रमिक चींटियों की संख्या में 98 प्रतिशत
वृद्धि हुई थी। ओहयामा का कहना है कि ये नतीजे बताते हैं कि ये शिकार की
गतिविधियां अत्यधिक जटिल हैं और लंबे समय में विकसित हुई होंगी और इस दौरान कुछ
चींटियों ने बचाव के तरीके भी विकसित किए होंगे।
युनिवर्सिटी ऑफ कॉनकॉरिडा के समुदाय पारिस्थितिकीविद ज़्यां-फिलिप लेसार्ड का सुझाव है कि इस प्रयोग को लंबे समय तक करके देखना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये प्रभाव लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके अलावा अध्ययन में सिर्फ चींटियों की संख्या, जो काफी बदलती रहती है, की बजाय कॉलोनी के घनत्व को देखना चाहिए था।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ant_1200p.jpg?itok=s91Y9nyU
विश्व
स्तर पर कोविड-19 के कारण कई देशों में लॉकडाउन लगने व इस
कारण बढ़ते आजीविका संकट व अन्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत सहित विश्व के
कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस वैश्विक संकट का सामना करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण
वैकल्पिक सुझाव दिए हैं।
आठ
वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च
में एक समीक्षा लेख कोविड-19 पेंडेमिक
– ए रिव्यू ऑफ दी करंट एविडेंस
शीर्षक से लिखा है। इन वैज्ञानिकों में डॉ. प्रणब चटर्जी, नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और
रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी आठ वैज्ञानिक
प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं। यह समीक्षा लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा गया है व
विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।
ऊपर
से आए आदेशों पर आधारित समाधान के स्थान पर इस समीक्षा लेख ने समुदाय आधारित, जन-केंद्रित उपायों में अधिक विश्वास जताया है। लॉकडाउन आधारित
समाधान को एक अतिवादी सार्वजनिक स्वास्थ्य का कदम बताते हुए इस समीक्षा लेख ने कहा
है कि इसके लाभ तो अभी अनिश्चित हैं, पर इसके दीर्घकालीन नकारात्मक असर को कम
नहीं आंकना चाहिए। ऐसे अतिवादी कदमों का सभी लोगों पर सामाजिक, मनौवैज्ञानिक व
आर्थिक तनाव बढ़ाने वाला असर पड़ सकता है जिसका स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
अत: ऊपर के आदेशों से जबरन लागू किए गए
क्वारंटाइन के स्थान पर समुदायों व सिविल सोसायटी के नेतृत्व में होने वाले
क्वारंटाइन व मूल्यांकन की दीर्घकालीन दृष्टि से कोविड-19 जैसे
पेंडेमिक के समाधान में अधिक सार्थक भूमिका है।
आगे
इस समीक्षा लेख ने कहा है कि ऊपर से लगाए प्रतिबंधों के अर्थव्यवस्था, कृषि व मानसिक
स्वास्थ्य पर प्रतिकूल दीर्घकालीन असर बाद में सामने आ सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय
पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के तकनीकी व चिकित्सा समाधानों पर ध्यान केंद्रित करते हुए
स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मज़बूत करने व समुदायों की क्षमता मज़बूत करने के जन
केंद्रित उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इन वैज्ञानिकों ने कोविड-19 की विश्व स्तर की प्रतिक्रिया को कमज़ोर और अपर्याप्त बताते
हुए कहा है कि इससे वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की तैयारी की कमज़ोरियां सामने आई
हैं व पता चला है कि विश्व स्तर के संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी अभी
कितनी अधूरी है। इस समीक्षा लेख ने कहा है कि कोविड-19 का
जो रिस्पांस विश्व स्तर पर सामने आया है वह मुख्य रूप से एक प्रतिक्रिया के रूप
में है व पहले की तैयारी विशेष नज़र नहीं आती है। शीघ्र चेतावनी की विश्वसनीय
व्यवस्था की कमी है। अलर्ट करने व रिस्पांस व्यवस्था की कमी है। आइसोलेशन की
पारदर्शी व्यवस्था की कमी है। इसके लिए सामुदायिक तैयारी की कमी है। ऐसी हालत में
खतरनाक संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी को बहुत कमज़ोर ही माना जाएगा।
इन
वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम
तरीके से बचाना है तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो
अपितु पहले से व आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। यदि ऐसी तैयारी
विकसित होगी तो लोगों की कठिनाइयों व समस्याओं को अधिक बढ़ाए बिना समाधान संभव
होगा।
इस
समीक्षा लेख में दिए गए सुझाव निश्चय ही महत्वपूर्ण है व इन पर चर्चा भी हो रही
है। मौजूदा नीतियों को सुधारने में ये सुझाव महत्वपूर्ण हैं। जन-केंद्रित, समुदाय आधारित नीतियां अपनाकर बहुत-सी हानियों और क्षतियों से बचा जा सकता है।
जर्मनी
के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल माइक्रोबॉयोलॉजी एंड हाइजीन के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा. सुचरित भाकड़ी ने हाल ही में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल को
एक खुला पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने कोविड-19 के
संक्रमण से निबटने के उपायों पर अति शीघ्र पुन: विचार
करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि बहुत घबराहट की
स्थिति में जो बहुत कठोर कदम उठाए गए हैं उनका वैज्ञानिक औचित्य ढूंढ पाना कठिन
है। मौजूदा आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि किसी मृत व्यक्ति में
कोविड-19 के वायरस की उपस्थिति मात्र के आधार पर इसे
ही मौत का कारण मान लेना उचित नहीं है।
इससे
पहले वैश्विक संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि कोविड-19 के
विरुद्ध जो बेहद कठोर कदम उठाए गए हैं उनमें से कुछ बेहद असंगत, विवेकहीन और खतरनाक
हैं जिसके कारण लाखों लोगों की अनुमानित आयु कम हो सकती है। इन कठेर कदमों का विश्व
अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर हो रहा है जो अनगनित व्यक्तियों के जीवन पर
बहुत बुरा असर डाल रहा है। स्वास्थ्य देखभाल पर इन कठोर उपायों के गहन प्रतिकूल
प्रभाव पड़े हैं। पहले से गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीज़ों की देखभाल में कमी आ गई है
या उन्हें बहुत उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। उनके पहले से तय ऑपरेशन टाल दिए
गए हैं व ओपीडी बंद कर दिए गए हैं।
येल
युनिवर्सिटी प्रिवेंशन रिसर्च सेंटर के संस्थापक-निदेशक
डॉ. डेविड काट्ज़ ने न्यूयार्क टाइम्स
में 20 मार्च 2020 को
प्रकाशित लेख इज़ अवर फाइट अगेंस्ट कोरोना वायरस वर्स देन द डिसीज़? में कहा है कि “मेरी गहन चिंता है कि सामाजिक व आर्थिक स्तर पर एवं
सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ रहा है और सामान्य जीवन लगभग समाप्त
हो गया है, स्कूल
व बिज़नेस बंद हैं,
अनेक अन्य बड़े प्रतिबंध हैं – इसका
कुप्रभाव लंबे समय तक ऐसा नुकसान करेगा जो वायरस से होने वाली मौतों से बहुत
ज़्यादा होगा। बेरोज़गारी,
निर्धनता और निराशा से जन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव
पड़ेगा।”
सेंटर
फॉर इन्फेक्शियस डिसीज़ रिसर्च एंड पॉलिसी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय के निदेशक मिशेल टी. आस्टरहोम ने वाशिंगटन पोस्ट में 21 मार्च 2020 के फेसिंग कोविड-19 रिएलिटी – ए
नेशनल लॉकडाउन इज़ नो क्योर में कहा है कि “यदि
हम सब कुछ बंद कर देंगे तो बेरोज़गारी बढ़ेगी, डिप्रेशन आएगा, अर्थव्यस्था
लड़खड़ाएगी। वैकल्पिक समाधान यह है कि एक ओर संक्रमण का कम जोखिम रखने वाले व्यक्ति
अपना कार्य करते रहें,
व्यापार एवं औद्योगिक गतिविधियों को जितना संभव हो चलते
रहने दिया जाए लेकिन जो व्यक्ति संक्रमण की दृष्टि से ज़्यादा जोखिम की स्थिति में
हैं वे सामाजिक दूरी बनाए रखने जैसी तमाम सावधानियां अपना कर अपनी रक्षा करें।
इसके साथ स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमताओं को बढ़ाने की तत्काल ज़रूरत है। इस तरह हम
धीरे-धीरे प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी कर
पाएंगे और हमारी अर्थव्यवस्था भी बनी रहेगी जो हमारे जीवन का आधार है।”
जर्मन
मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. फ्रेंक उलरिक
मोंटगोमेरी ने कहा है,
“मैं लॉकडाउन का प्रशंसक नहीं हूं। जो कोई भी इसे लागू करता
है उसे यह भी बताना चाहिए कि पूरी व्यवस्था कब इससे बाहर निकलेगी। चूंकि हमें
मानकर यह चलना है कि यह वायरस तो हमारे साथ लंबे समय तक रहेगा, अत: मेरी चिंता है कि हम कब सामान्य जीवन की ओर लौट सकेंगे।”
वर्ल्ड
मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लियोनिद इडेलमैन ने
हाल ही में वर्तमान संकट के संदर्भ में कहा कि सम्पूर्ण लॉकडाउन से फायदे की
अपेक्षा नुकसान अधिक होगा। यदि अर्थव्यवस्था बाधित होगी तो बेशक स्वास्थ्य रक्षा
के संसाधनों में भी कमी आएगी। इस तरह समग्र स्वास्थ्य व्यवस्था को फायदे की जगह
नुकसान ही होगा।
जाने-माने वैज्ञानिकों के इन बयानों का एक विशेष महत्व यह है कि अति कठोर उपायों के स्थान पर ये हमें संतुलित समाधान की राह दिखाते हैं। विशेषकर समुदाय आधारित व जन-केंद्रित समाधानों के जो सुझाव हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और उन पर अधिक ध्यान देना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn%3AANd9GcT3Gmz_ndw6iWR2_Kuh8cu7EVJWsHLpWV4D-U239BhZRYMycOPT&usqp=CAU
स्थानीय
स्तर पर समुद्री अखरोट के नाम से विख्यात कंघे जैसे आकार वाली गिजगिजिया या कॉम्ब
जेली (Mnemiopsisleidyi) जीव मूलत: उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक महासागर की वासी है। लेकिन हाल के दशकों
में मालवाहक जहाज़ों के बेलास्ट पानी (जहाजों को स्थिर
रखने के लिए भरे गए पानी) में सवार होकर ये
युरोपीय सागरों में फैल गई हैं। बाल्टिक सागर के पश्चिमी हिस्से में गर्मियों के
आखिर में इनकी आबादी में उछाल आता है और ये मछलियों के अंडे और लार्वा और छोटे
क्रस्टेशियन जीवों सहित समुद्री खाद्य शृंखला के आधार जीवों का खाकर सफाया कर
डालती है। लेकिन सर्दियों के लिए जमा करके रखने हेतु भी इन्हें ढेर सारा भोजन
चाहिए। कम्युनिकेशन बॉयोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार उस समय इनके
भोजन का सबसे बड़ा स्रोत उनकी अपनी संतानें होती हैं।
डेनमार्क
के नज़दीक फ्योर्ड क्षेत्र में इनके अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि ज़रूरत
पड़ने पर वयस्क कॉम्ब जेली अपनी ही प्रजाति के लार्वा को खा लेते हैं। इन अवलोकनों
के बाद शोधकर्ताओं ने कॉम्ब जेली पर प्रयोगशाला में अध्ययन किया और वहां भी उन्हें
यही परिणाम मिले।
गर्मियों
में अपनी ही संतानों को खाने की उनकी यह प्रवृत्ति इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर
सकती है कि क्यों गर्मियों के अंत में कॉम्ब जेली इतने अधिक लार्वा पैदा करती है, जबकि आने वाले जाड़े
में इन लार्वा के जीवित बचने की संभावना भी नहीं होती। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि
गर्मियों के अंत में बड़ी संख्या में लार्वा का भक्षण वयस्क कॉम्ब जेली को 2-3 हफ्ते का पोषण उपलब्ध कराता है। इस तरह उन्हें सर्दियों में
80 दिनों तक जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन
का भंडार मिल जाता है।
हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि वे पूरी तरह से इस ऊर्जा संतुलन को समझ नहीं पाए हैं। क्योंकि एक ओर तो वयस्क कॉम्ब जेली को लार्वा पैदा करने में बहुत ऊर्जा लगती है, और ये लार्वा सर्दियों में जीवित भी नहीं रह पाते। दूसरी ओर, ये लार्वा खाद्य शृंखला के निचले स्तर से काफी सारा भक्षण करके इन वयस्कों के लिए भोजन का स्रोत बन जाते हैं, जो वयस्कों को जाड़ों में काम आता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.particlenews.com/image.php?type=webp_1024x576&url=09UXls_0OzU6eLp00
कुछ
दिनों पहले राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा अभियान के केंद्रीय प्रभारी मंत्री ने भारतीय
चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) से
संपर्क करके यह सुझाव दिया था कि परिषद कोरोनावायरस के संक्रमण (कोविड-19) के इलाज में गंगाजल
के उपयोग पर शोध करे। इस पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्पष्ट किया कि इस
सम्बंध में उपलब्ध डैटा इतना पुख्ता नहीं है कि इसके नैदानिक परीक्षण शुरू किए जा
सकें और इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया – क्या
बात है!
लाखों
लोग गंगा नदी को दुनिया की सबसे पवित्र और पूजनीय नदी मानते हैं। समुद्र तल से 3.9 कि.मी. या 13,000 फीट की ऊंचाई पर
स्थित, हिमालय
के गंगोत्री ग्लेशियर के गौमुख से निकलने के बाद, रास्ते में कई
धाराओं का जल अपने में समाहित करते हुए, हरिद्वार के पास देवप्रयाग में आकर यह गंगा
नदी कहलाती है। गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों – उत्तर
प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम
बंगाल से होते हुए 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर बंगाल की खाड़ी में
मिल जाती हैं। गंगा के किनारे बसे लोग (ज़्यादातर हिंदू, लेकिन कुछ अन्य भी) इसे पूजते हैं, इसमें स्नान करते हैं, और पूजा और अन्य
धार्मिक कार्यों के लिए इसका जल अपने घरों में रखते हैं (गंगाजल
विदेशों में बेचा भी जाता है जैसे कैलिफोर्निया की भारतीय दुकानों में मैंने खुद
देखा है)। गंगा मैया के प्रति लोगों की श्रद्धा और
भक्ति ऐसी ही है।
पवित्र
और अपवित्र
यह
दुर्भाग्य है कि सदियों से हरिद्वार क्षेत्र में ही मानव अवशिष्ट निपटान और
व्यवसायिक कारणों से गंगा का जल प्रदूषित होता जा रहा है। एप्लाइड वॉटर साइंस
पत्रिका में आर. भूटानिया और उनके साथियों ने 2016 में जल गुणवत्ता सूचकांक के संदर्भ में हरिद्वार में गंगा नदी
के पारिस्थितिकी तंत्र का आकलन शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसे पढ़कर निराशा ही
होती है। गंगा के प्रदूषण पर सबसे ताज़ा अध्ययन न्यूयॉर्क टाइम्स के 23 दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित
हुआ था। इस आलेख में आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा गंगा के संदूषण और इसमें
हानिकारक बैक्टीरिया,
जो वर्तमान में उपयोग की जाने वाली एंटीबयोटिक दवाइयों के
प्रतिरोधी भी हैं,
की उपस्थिति के बारे में प्रस्तुत रिपोर्ट का सार प्रस्तुत
किया गया है। दूसरे शब्दों में, जहां से गंगा बहना शुरू होती है ठेठ वहीं
से इसका जल (गंगाजल) मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जैसे-जैसे यह आगे बहती है कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा
इसमें डाल दिया जाता है,
जिससे इसके पानी की गुणवत्ता और सुरक्षा और भी कम हो जाती
है। और, हाल
ही में पुण्य नगरी वाराणसी की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान लॉकडाउन के दौरान
गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में 40-50 प्रतिशत सुधार हुआ
है (इंडिया टुडे, 6 अप्रैल
2020)।
हमने
यह लौकिक अनाचार होने कैसे दिया? निश्चित रूप से, गंगा जल का उपयोग
करने वाले अधिकतर लोग श्रद्धालु हैं; यहां तक कि कई उद्योगों के प्रमुख या मालिक
भी गंगा को पवित्र मानते होंगे। और तो और, समय-समय पर इसके जल का
पूजा में उपयोग करते होंगे। लेकिन फिर भी वे इसे प्रदूषित करते हैं। (यहां यह ज़रूरी नहीं कि ‘लौकिक’ शब्द इन लोगों के विश्वास को नकारता है बल्कि यह लोगों के
सांसारिक सरोकार दर्शाता है,
और यह ‘अच्छाई बनाम बुराई’ या ‘देवता बनाम शैतान’ का मामला नहीं है)। दरअसल, ‘इससे मुझे क्या फायदा होगा’ वाला रवैया लोकाचार की दृष्टि से (और
शायद नैतिक रूप से भी) गलत है। इस दोहरेपन
के चलते लगता नहीं कि गंगा मैया का भविष्य स्वच्छ और सुरक्षित है।
डॉल्फिन–घड़ियाल से सीख
वापस
विज्ञान पर आते हैं। जैसा कि उल्लेख है गंगा में अत्यधिक ज़हरीले रोगाणु (और हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट) मौजूद
हैं, लेकिन
आश्चर्य की बात है कि इसमें रहने वाली मछलियों की 140 प्रजातियां, उभयचरों की 90 प्रजातियां, सरीसृप, पक्षी, और गंगा नदी की प्रसिद्ध डॉल्फिन और घड़ियाल
(मछली खाने वाले मगरमच्छ) इस प्रदूषित पानी का सामना कर पाते हैं, खासकर अब, जब यह कोविड-19 वायरस से भी संदूषित है। क्या उनके पास विशेष प्रतिरक्षा है, और क्या वे ऐसे
रोगजनकों से लड़ने के लिए इनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाते हैं? यह एक ऐसा मुद्दा है
जिसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे मानव की रक्षा के लिए अपनाया
जाना चाहिए।
ऐसे
ही कुछ दिलचस्प अवलोकन लामा,
ऊंट और शार्क जैसे जानवरों की प्रतिरक्षा के अध्ययनों में
सामने आए हैं। साइंस पत्रिका के 1 मई 2020 के अंक में मिच लेसली बताते हैं कि जीव विज्ञानियों ने लामा
के रक्त और आणविक सुपरग्लू की मदद से वायरस से लड़ने का एक नया तरीका खोजा है। यह
देखा गया है कि लामा,
ऊंट और शार्क की प्रतिरक्षा कोशिकाएं लघु एंटीबॉडी छोड़ती
हैं जो सामान्य एंटीबॉडी से लगभग आधी साइज़ की होती हैं। मुख्य बात यह है कि ये
जानवर लघु एंटीबॉडी बनाते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में आसानी से संश्लेषित किया जा
सकता है और वायरस के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस बारे में
विस्तार से बताता एक शोध पत्र हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
डॉल्फिन के संदर्भ में सी. सेंटलेग और उनके
साथियों का पेपर अधिक प्रासंगिक है। यह अध्ययन भूमध्यसागर और अटलांटिक सागर के
केनेरी द्वीप के डॉल्फिन्स पर किया गया है। भूमध्य सागर अत्यधिक प्रदूषित है जबकि
केनरी द्वीप का पानी शुद्ध है।
मुझे
लगता है कि हम इन अध्ययनों से सीख सकते हैं। गंगा नदी की डॉल्फिन और घड़ियालों पर
शोध करके उनकी लघु-एंटीबॉडी की पहचान कर सकते हैं, उन्हें लैब में
संश्लेषित कर सकते हैं,
और इन्हें कोविड-19 और
ऐसे अन्य वायरसों से मनुष्य की सुरक्षा के लिए अपना सकते हैं। हैदराबाद स्थित
डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी प्रयोगशाला, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी
में यह शोध किया सकता है।
संगम
कैसे हो
उपरोक्त
मंत्री के विपरीत आयुष मंत्रालय के प्रभारी मंत्री का अनुरोध है कि अश्वगंधा, मुलेठी, गिलोय और पॉलीहर्बल
औषधि (जिसे आयुष 64 कहते
हैं) की कोविड-19 के
खिलाफ रोग-निरोधन की प्रभाविता जांचने के लिए एक
नियंत्रित रैंडम अध्ययन करवाया जाए। यह अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि पर्याप्त
प्रमाण हैं कि पारंपरिक जड़ी-बूटियों और पादप
रसायनों में चिकित्सकीय गुण होते हैं, और दवा कंपनियां उनके सक्रिय रसायनों को
खोजकर, संश्लेषित
करके उपयोग करती हैं। बहुविद एम. एस. वलियाथन पिछले दो दशकों से आयुर्वेद चिकित्सकों, जैव रसायनविदों,कोशिका जीव
विज्ञानियों, आनुवंशिकीविदों
और नैनोप्रौद्योगिकीविदों के साथ मिलकर आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके
पारंपरिक औषधियों के प्रभावों को परखने का काम कर रहे हैं। (जैसे
आप उनका 1 मार्च 2016 के प्रोसीडिंग्स
ऑफ दी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में प्रकाशित पदक व्याख्यान ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान : पहला
दशक’ पढ़ सकते हैं। इसमें वे आधुनिक विज्ञान की
मदद से आयुर्वेद पर किए गए प्रयोगों, और उनके प्रमाणित परिणामों के बारे में
बताते हैं।) 2012 में प्लॉस वन पत्रिका में वी. द्विवेदी का ऐसा ही एक पेपर ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर मॉडल
पर पारंपरिक आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभावों का चिकित्सीय अनुप्रयोगों से सम्बंध
प्रकाशित हुआ था। तो इस तरह से परंपरा और आज के विज्ञान का संगम संभव, वे साथ आ सकते हैं।
आयुष शायद कोविड-19 से लड़ सकता है, गंगा जल तो मात्र इसे धारण कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/cxc8i6/article31602048.ece/ALTERNATES/FREE_960/17TH-SCIGHARIAL