कोविड-19 का तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव

सार्स-कोव-2 से संक्रमित रोगियों ने कई ऐसी तकलीफों का अनुभव किया है जिनका सम्बंध तंत्रिका तंत्र से हो सकता है। जैसे सिरदर्द, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द, थकान, सोचने-समझने में परेशानी, गंध/स्वाद महसूस न होना वगैरह। कुछ गंभीर स्थितियों में तो मस्तिष्क में सूजन और स्ट्रोक के मामले भी सामने आए हैं। स्पष्ट है कि यह वायरस तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन कैसे?

एक व्याख्या यह थी कि शायद ये प्रतिरक्षा तंत्र के अति सक्रिय होने के परिणाम हैं। लेकिन ऐसे भी मामले सामने आए जिनमें रोगियों में थकान और सोचने-समझने की दिक्कतें तो थीं किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली अनियंत्रित नहीं हुई थी। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ऐसे लक्षण प्रतिरक्षा प्रणाली के अति-सक्रिय होने के कारण हैं या फिर वायरस सीधे तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है। यह भी संभव है कि ये लक्षण वायरस द्वारा उत्पन्न शरीर-व्यापी सूजन के परिणाम हों।

इस सवाल की खोज करने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ डैलास के तंत्रिका विज्ञानी थिओडोर प्राइस ने ऐसे कुछ लक्षणों पर ध्यान दिया। इन लक्षणों में गले में खराश, सिरदर्द, शरीर-व्यापी दर्द और गंभीर खांसी शामिल है। खांसी तो तंत्रिकाओं की उत्तेजना से होती है। कुछ मरीज़ों ने रासायनिक संवेदना की क्षति भी बताई थी और इसकी संवेदना स्वाद तंत्रिकाओं के ज़रिए नहीं बल्कि दर्द-तंत्रिकाओं द्वारा प्रेषित की जाती है। जब मामूली रोगियों में भी ऐसे लक्षण दिखें तो लगता है कि संवेदी तंत्रिकाएं सीधे प्रभावित हो रही हैं।

कोशिका पर ACE2 ग्राही की उपस्थिति से पता चलता है कि कोई कोशिका सार्स-कोव-2 से संक्रमित होगी या नहीं। आरएनए अनुक्रमण से पता चला कि मेरु-रज्जू के बाहर पाए जाने वाली कुछ तंत्रिका कोशिकाओं पर ACE2 ग्राही उपस्थित होते हैं।     

ऐसे न्यूरॉन्स के सिरे शरीर की सतहों जैसे त्वचा और फेफड़ों सहित आंतरिक अंगों पर केंद्रित होते हैं। यहां से इनके लिए वायरस को ग्रहण करना आसान होता है। प्राइस के अनुसार तंत्रिका संक्रमण कोविड के उग्र और स्थायी लक्षणों में से एक है।

लेकिन टीम का कहना है कि तंत्रिका सम्बंधी लक्षणों के लिए तंत्रिकाओं का वायरस संक्रमित होना ज़रूरी नहीं है। संक्रमित रोगियों में काफी मात्रा में साइटोकाइन्स नामक प्रतिरक्षा प्रोटीन्स मिले हैं जो न्यूरॉन को प्रभावित कर सकते हैं।

एक अन्य अध्ययन में पता चला कि सार्स-कोव-2 का कोशिकाओं में प्रवेश करने का कारण केवल ACE2 ग्राही नहीं बल्कि एक अन्य प्रोटीन NRP1 भी है। चूहों पर किए गए अध्ययन से मालूम चला है कि NRP1 वायरस के स्पाइक प्रोटीन के संपर्क में आने के बाद उसे कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करता है। शायद यह एक सह-कारक के रूप में कार्य करता है।

इसके अलावा एक अन्य परिकल्पना है कि स्पाइक प्रोटीन NRP1 को प्रभावित करके रोगियों में नोसिसेप्टर्स को शांत कर सकता है जो संक्रमण की शुरुआत में दर्द-सम्बंधी लक्षणों को दबा देता है। यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 से प्रभावित व्यक्ति में संवेदनाहारी प्रभाव प्रदान करता है जिससे वायरस अधिक आसानी से फैल सकता है।

अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि कोविड-19 तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि तंत्रिका कोशिकाएं संक्रमित होती हैं या नहीं। न्यूरॉन्स को संक्रमित किए बगैर भी यह वायरस कोशिकाओं के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिलाएं भी शिकार करती थीं!

कुछ समय पहले दक्षिणी पेरू में 3925 मीटर की ऊंचाई पर स्थित विल्माया पटजक्सा नामक पुरातात्विक स्थल पर युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रैन्डी हास और उनके साथियों को छ: कब्रगाहों में लगभग 9000 साल पुराने मानव अवशेष मिले थे। इनमें से दो कब्रों में पत्थर के औज़ार मिले थे जो शिकार में उपयोग किए जाते थे। लेकिन इनमें से भी एक कब्र काफी दिलचस्प थी; इसमें पत्थर के 20 फेंककर इस्तेमाल करने वाले औज़ार और ब्लेड शव की जांघ के ऊपरी हिस्से के पास करीने से रखे हुए थे। ऐसा लगता था जैसे ये कमर पर किसी पाउच में रखे गए हैं। औज़ारों को देखकर लगता था कि शव किसी प्रमुख शिकारी का होगा। और मान लिया गया कि वह पुरुष ही रहा होगा।

लेकिन एरिज़ोना विश्वविद्यालय के जैव-पुरातत्वविद् जिम वाटसन ने गौर किया कि हड्डियां पतली और हल्की हैं, इस आधार पर उनका अनुमान था यह कोई महिला होगी। और अब हाल ही में हुआ अध्ययन इस अनुमान की पुष्टि करता है कि वास्तव में यह शव महिला का ही है।

अब तक यह माना जाता रहा है कि प्राचीन शिकारी-संग्रहकर्ता समूहों में शिकार का काम पुरुष किया करते थे और महिलाएं संग्रह किया करती थीं। और शायद ही कभी उनकी इस लैंगिक भूमिका में अदला-बदली हुई होगी। वर्तमान में मौजूद शिकारी-संग्रहकर्ता समूहों पर हुए अध्ययनों ने इस मान्यता को और भी पुख्ता किया था; जैसे वर्तमान तंजानिया के हदजा समूह और दक्षिणी अफ्रीका के सैन समूहों में पुरुष बड़े जानवरों का शिकार करते हैं और महिलाएं कंद, फल, मेवे और बीज इकट्ठा करती हैं। लेकिन साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन इस मान्यता को चुनौती देता और बताता है कि हमेशा से महिलाएं शिकार में सक्षम थीं और वास्तव में करती भी थीं।

प्राप्त कंकालों के लिंग निर्धारण के लिए शोधकर्ताओं ने एक नई विधि का उपयोग किया। उन्होंने पता लगाया कि दांत के एनेमल में एमिलोजेनिन नामक प्रोटीन का नर संस्करण मौजूद है या मादा। पाया गया कि 20 औज़ारों के साथ दफन शव महिला का था जिसकी उम्र 17-19 वर्ष के बीच होगी, औज़ारों के साथ मिली दूसरी कब्र पुरुष की थी जिसकी उम्र 25-35 वर्ष के बीच होगी। महिला कंकाल के दांतों में कार्बन और नाइट्रोजन के समस्थानिकों के अध्ययन से पता चला कि उसका आहार विशिष्ट शिकारी आहार था।

इन नतीजों से प्रेरित होकर शोधकर्ताओं ने अमेरिका के अन्य 107 पुरातात्विक स्थलों की 14,000 से 8000 वर्ष पुरानी 429 कब्रों की पुन: जांच की। शिकार करने वाले औज़ारों के साथ 10 महिलाओं और 16 पुरुषों की कब्र मिलीं। यह मेटा-विश्लेषण बताता है कि शुरुआत में शिकारी होने का आधार लैंगिक नहीं था।

लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि किसी व्यक्ति की कब्र में औज़ारों के मिलने का हमेशा यह मतलब नहीं होता कि वे उनका उपयोग भी करते होंगे, जैसे दो मादा शिशुओं की कब्र में भी औज़ार पाए गए थे। हो सकता है कि नर शिकारी अपना दुख व्यक्त करने के लिए औज़ार समर्पित करते हों।

बहरहाल, यह शोध जेंडर भूमिकाओं सम्बंधी विमर्श में नया आयाम तो जोड़ता ही है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 और भू-चुंबकत्व: शोध पत्र हटाया गया

ल्सवियर की एक पत्रिका में प्रकाशित एक पेपर में यह दावा किया गया था कि कोविड-19 रोग सार्स-कोव-2 वायरस से नहीं बल्कि चुंबकीय विसंगतियों के कारण हुआ है। यह पेपर 8 अक्टूबर को साइंस ऑफ दी टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशन के बाद से ही आलोचना का केंद्र रहा है। 29 अक्टूबर को इसे वेबसाइट से हटा लिया गया है।    

इस पेपर के प्रमुख लेखक और पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर मोसेज़ बिलिटी संक्रामक रोगों का अध्ययन करते हैं। दी साइंटिस्ट से चर्चा करते हुए वे बताते हैं कि इस अध्ययन की शुरुआत पिछले वर्ष हुई जब अचानक उनकी प्रयोशाला के चूहे बीमार हुए और उन्हें मारना पड़ा। बिलिटी ने चूहों के फेफड़ों तथा गुर्दों के ऊतकों में कुछ बदलाव देखे। बदलाव उन चोटों के समान थे जो मनुष्यों में वैपिंग (इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट से धूम्रपान) के कारण होते हैं।

मनुष्यों में वैपिंग के कारण होने वाली क्षति और प्रायोगिक चूहों, दोनों के फेफड़ों में आयरन ऑक्साइड पाया गया। बिलिटी के अनुसार मनुष्यों में आयरन ऑक्साइड वैपिंग के कारण जमा हुआ था जो किसी तरह से धरती के चुंबकीय क्षेत्र से क्रिया करता है। इसी के कारण चुंबकीय उत्प्रेरण की प्रक्रिया सक्रिय हो गई। दूसरी ओर चूहे में कमज़ोर प्रतिरक्षा के चलते आयरन की मात्रा अनियंत्रित होने के कारण ऐसे परिणाम सामने आए।     

बिलिटी के समूह ने इस वर्ष फरवरी और मार्च में उसी तरह और चूहों को मृत पाया। उन्होंने इस घटना को अमेरिका में कोविड-19 के बढ़ रहे मामलों के साथ जोड़कर देखा और बताया कि यह वसंत विषुव है जिसमें भू-चुंबकीय परिवर्तन होते हैं और यही इस रोग का मुख्य कारण है। पेपर में कहा गया था कि सार्स-कोव-2 तो वास्तव में मानव जीनोम में पहले से ही उपस्थित था जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन के साथ फिर से जागृत हो गया है। कोविड-19 तो चुंबकीय क्षेत्र द्वारा उत्प्रेरित अन्य रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण हुआ है।

कैल्टेक के भू-विज्ञानी जो किर्शविंक के अनुसार इस पेपर में कई बुनियादी त्रुटियां है। यह सही है शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र रासायनिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं लेकिन इसके लिए विसंगतियों का तीन-चार गुना अधिक होना ज़रूरी है। इसके अलावा इस अध्ययन में बिना किसी प्रायोगिक साक्ष्य के यह दावा किया गया है कि जेड तावीज़ के उपयोग से ऐसी विसंगतियों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। बिलिटी के अनुसार इसका उपयोग प्राचीन चीनी लोगों द्वारा उस समय किया जाता था जब भू-चुंबकत्व की स्थिति आज के समान थी। किर्शविंक जेड तावीज़ के चुंबकीय गुणों के वर्णन को गलत बताते हैं। इस तावीज़ में चुंबकत्व बहुत दुर्बल होता है जो कोई सकारात्मक परिणाम देने के लिए काफी नहीं है। 

इस अध्ययन की काफी आलोचना की जा रही है। कई वैज्ञानिकों ने इस पेपर को ‘छदम विज्ञान’ की संज्ञा दी है और निरस्त करने पर ज़ोर दिया है। इस पेपर के प्रकाशन-पूर्व समीक्षकों पर भी सवाल उठाए गए हैं। पिट्सबर्ग युनिवर्सिटी के प्रवक्ता ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इन्कार किया है लेकिन बिलिटी और सह-लेखक इस गलती की पूरी ज़िम्मेदारी ले रहे हैं। बिलिटी कहते हैं कि उनका उद्देश्य जन स्वास्थ्य अधिकारियों को नीचा दिखाना नहीं बल्कि आगे चर्चा और जांच के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत करना है। अब वे अकेले लेखक के रूप में, तावीज़ या पारंपरिक चीनी चिकित्सा का ज़िक्र किए बगैर, इसे पुन: प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी ने हटाया सैकलर परिवार का नाम

हाल ही में अमेरिकी न्याय विभाग द्वारा ओपिओइड महामारी में पर्ड्यू फार्मा कंपनी की भूमिका के लिए तीन अपराधिक मामलों में दोषी करार दिया गया है। दोषी पाए जाने के बाद न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के लैंगोन मेडिकल सेंटर ने अपने संस्थान, इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेजुएट बायोमेडिकल साइंसेज़ से पर्ड्यू फार्मा कंपनी के संस्थापक सैकलर परिवार का नाम हटाने का फैसला लिया है।

ओपियोइड महामारी में अफीमनुमा दर्द निवारक दवाओं (जिनकी आदत पड़ जाती है) के चिकित्सा में अति में उपयोग और दुरुपयोग ने कई समस्याओं को जन्म दिया था और इनका अधिक इस्तेमाल लाखों लोगों की मौत का कारण बना था। अफीमी दवाओं में सबसे अधिक लिखी जाने वाली दवाएं हैं मेथाडॉन, ऑक्सीकोडोन (जो ऑक्सीकोन्टीन नाम से बेची जाती है), और पाइड्रोकोडोन।

पर्ड्यू फार्मा कंपनी ऑक्सीकोन्टीन नामक दर्द निवारक दवा बनाती है। पर्ड्यू फार्मा ने देश से धोखा करने और  रिश्वतखोरी कानून का उल्लंघन करने के दोष में आठ अरब डॉलर के भुगतान का समझौता किया है। अलबत्ता, इस भुगतान से ना तो कंपनी के अधिकारी और ना ही सैकलर परिवार आरोप से मुक्त होगा, उन पर आपराधिक जांच जारी रहेगी।

एसोसिएटेड प्रेस को दिए गए बयान में न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के अधिकारियों का कहना है कि पर्ड्यू फार्मा से सैकलर परिवार का सम्बंध और अफीमी दवाइयों के उपयोग को अधिकाधिक प्रोत्साहित करने में पर्ड्यू फार्मा की भूमिका को देखते हुए हमें लगता है कि संस्थान के साथ उनका नाम जोड़े रखना संस्थान के मूल्यों और उद्देश्य से मेल नहीं खाता।

सैकलर परिवार के वकील डैनियल कोनोली ने न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के इस फैसले की आलोचना की है। उनका कहना है कि जैसे ही पर्ड्यू कंपनी के दस्तावेज़ उजागर किए जाएंगे, स्पष्ट हो जाएगा कि कंपनी और कंपनी के निदेशक सदस्यों, सैकलर परिवार, ने हमेशा नैतिक और कानूनी रूप से कार्य किया है। न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी का जल्दबाज़ी में फैसला लेना निराशजनक है।

1980 में उक्त संस्थान की स्थापना के समय से ही सैकलर परिवार के नाम पर संस्थान का नाम रखा गया था। लेकिन संस्थान ने पिछली गर्मियों से इस परिवार से औपचारिक रूप से डोनेशन लेना बंद कर दिया है।

संस्थानों से सैकलर का नाम हटाने वालों में लूवरे और टफ्ट्स युनिवर्सिटी के बाद अब न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी भी शामिल हो गई है। विश्वविद्यालयों पर काफी समय से दबाव रहा है कि वे अपने संस्थानों से सैकलर परिवार का नाम हटाएं और उससे अतीत में प्राप्त धनराशि लौटा दें।(स्रोत फीचर्स)

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संपूर्ण लॉकडाउन के विकल्प

दुनिया भर के कई देश/शहर कोरोनावायरस की दूसरी लहर और एक के बाद एक लगते जा रहे दोबारा लॉकडाउन से गुज़र रहे हैं। संभवत: यह महामारी आने वाले कुछ महीनों या सालों तक बनी रहने वाली है। ऐसे में आर्थिक, सामाजिक और मनौवैज्ञानिक क्षति पहुंचाने वाली संपूर्ण तालाबंदी की बजाय अन्य प्रभावी और स्थायी विकल्प तलाशने की ज़रूरत है।

इस डिजिटल युग में दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा डैटा कोविड-19 के प्रसार को रोकने में मदद कर सकता है। विभिन्न स्रोतों से जुटाए गए डैटा की मदद से कोविड-19 के ‘सुपरस्प्रेडर स्थानों’ को पहचाना जा सकता है ताकि हम पूरे शहर या देश में तालाबंदी करने की बजाय, तालाबंदी की अन्य निभने योग्य रणनीति बना सकें या सिर्फ उन स्थानों की तालाबंदी करें जहां से कोविड-19 के फैलने की संभावना अधिक है।

लोगों की तरह कुछ स्थान भी अधिक संक्रमण फैलाने वाले ‘सुपरस्प्रेडर्स स्थान’ हो सकते हैं। शहरों में लगातार कुछ ना कुछ गतिविधि होती रहती है। जैसे शहरों से होकर लोग गुज़रते हैं, आते-जाते हैं, मिलते हैं। इसलिए शहर मानव संपर्क और बीमारी फैलाने के केंद्र होते हैं। छोटी-बड़ी हर तरह की बीमारी को फैलने से रोकने के प्रबंधन के लिए शहरों में लोगों की सामूहिक गतिविधियों की रूपरेखा और शहरों में लोगों के आने-जाने और शहरों से गुज़रने के पैटर्न को पहचानना-समझना ज़रूरी है।

अच्छी बात यह कि इन सुपरस्प्रेडर स्थानों की पहचान के लिए हमारे पास मानव आवागमन का काफी डैटा है। हांगकांग, पेरिस और सिंगापुर जैसे शहरों में बेहतर शहरी और आवागमन योजना के लिए पहले से ही परिवहन डैटा का व्यवस्थित तरीके से विश्लेषण किया जाता रहा है। और अब राइड-शेयरिंग सेवाओं, इंटरनेट से जुड़े डिवाइसेस (जैसे स्मार्ट लैम्पपोस्ट और स्मार्ट फोन) पर ट्रैफिक ऐप, और स्थान को टैग करती हुई सोशल मीडिया पोस्ट से मानव आवागमन के पैटर्न, सामूहिक गतिविधि और महामारी वाली जगहों को चिंहित करने में मदद मिल सकती है।

फिर इस डैटा को कोविड-19 के प्रसार के ताज़ा आंकड़ों के आधार पर प्रोसेस किया जा सकता है। कोविड-19 के कुछ प्रभावी कारक भी पहचाने गए हैं। जैसे, खुली जगहों पर मेलजोल छोटे, बंद कमरों में मेलजोल की तुलना में कम जोखिम भरा है। मास्क पहनने और सामाजिक दूरी रखने की कारगरता से तो सभी सहमत हैं। बहरहाल कोविड-19 के प्रसार और मानव संपर्क की हमारी टूटी-फूटी समझ संक्रमण के फैलाव का विस्तृत नक्शा बनाने में हमारी प्रमुख चुनौती है।

इसलिए नए प्रमाण इकट्ठे किए जा रहे हैं ताकि संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण की योजनाएं बनाने, उन्हें परिष्कृत और सटीक करने के लिए स्थानीय सरकार और स्वास्थ्य विभागों के पास जानकारी उपलब्ध हो। इसके अलावा, शहरों की मानव गतिविधि और सामाजिक संपर्क वाले स्थानों को पहचानने वाले अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देने के लिए स्वस्थ वित्त-पोषण भी ज़रूरी है। शहरों को ऐसे स्रोत भी बनाने चाहिए जो मानव गतिविधि का डैटा जुटा सकें। इसके अलावा शहरों को, इस डैटा का सामाजिक हित के अनुसंधान में उपयोग करने के लिए कानूनी और तकनीकी व्यवस्था भी बनानी चाहिए।

मानव आवागमन और संपर्क के डैटा को कोविड-19 के डैटा के साथ जोड़कर सुपरस्प्रेडर स्थानों को पहचानकर नियंत्रित किया जा सकता है, और असुरक्षित लोगों के लिए बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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प्लैनेट-9 की तलाश में एक नई तकनीक का उपयोग

न दिनों खगोलविद दूरस्थ सौर मंडल की खोजबीन के लिए ‘शिफ्टिंग और स्टैकिंग’ तकनीक का पुनरीक्षण कर रहे हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि इसकी मदद से प्लूटो की कक्षा से परे के सौर मंडल को भी देखा जा सकता है।  

इस तकनीक में अंतरिक्ष दूरबीन को संभावित कक्षा के मार्गों पर धीरे-धीरे सरकाया (शिफ्ट किया) जाता है और इस तरह प्राप्त तस्वीरों की एक के ऊपर थप्पी (स्टैक) जमाई जाती है ताकि उनकी रोशनी को एक छवि में संकलित किया जा सके। इस तकनीक का उपयोग पहले भी हमारे सौर मंडल के ग्रहों के चंद्रमाओं की खोज करने के लिए किया जा चुका है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस तकनीक की मदद से प्लैनेट-9 यानी नौंवे ग्रह और अन्य दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकेगा। 

येल युनिवर्सिटी में खगोल शास्त्र की पीएचडी छात्र और इस अध्ययन की प्रमुख मैलेना राइस इस तकनीक को काफी महत्वपूर्ण मानती हैं। राइस और उनके सहयोगी ग्रेग लाफलिन ने नासा के ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट सर्वे सैटेलाइट (टीईएसएस) द्वारा ली गई छवियों को स्टैक किया है। गौरतलब है कि टीईएसएस का उपयोग पृथ्वी की कक्षा से बाह्र दुनिया का पता लगाने के लिए किया जाता है।  

एक परीक्षण में शोधकर्ताओं ने तीन अज्ञात नेप्च्यून-पार पिंडों के कमज़ोर संकेत शिफ्टेड और स्टैक्ड छवियों में देखे। ये पिंड नेपच्यून की कक्षा से परे सूर्य का चक्कर लगा रहे थे। इसके बाद वैज्ञानिकों ने आकाश की दो दूरस्थ पट्टियों की बेतरतीब खोज की। इस दौरान उन्होंने 17 नए नेप्च्यून-पार उम्मीदवार खोज निकाले।

राइस के अनुसार इन 17 में से एक पिंड भी वास्तविक हुआ तो हमें बाह्य सौर मंडल की गतिशीलता और नौंवे ग्रह के संभावित गुणों को समझने में मदद मिल सकती है। वर्तमान में शोधकर्ता धरती स्थित दूरबीन से प्राप्त छवियों का उपयोग करके इन 17 पिंडों की पुष्टि करने का प्रयत्न कर रहे हैं। शोधकर्ताओं ने नेप्च्यून-पार पिंडों की विचित्र कक्षाओं से बाहरी सौर मंडल का अनुमान लगाया है। उनका निष्कर्ष है कि उस स्थान पर ढेर सारे छोटे-छोटे पिंड हैं और ये इस तरह झुंडों में व्यवस्थित है कि लगता है कि वहां कोई बड़ा पिंड स्थित है जिसकी वजह से यह स्थिति बनी है। यह पिंड पृथ्वी से 5-10 गुना बड़ा है और पृथ्वी की तुलना में सूर्य से सैकड़ों गुना दूर है। वैसे अन्य खगोल शास्त्रियों को लगता है कि यही प्रभाव छोटे-छोटे पिंडों के मिले-जुले असर से भी हो सकता है।

इस अध्ययन को दी प्लैनेटरी साइंस जर्नल ने स्वीकार कर लिया है। राइस ने अपने निष्कर्ष अमेरिकन एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी डिवीज़न फॉर प्लैनेटरी साइंसेज़ की ऑनलाइन आयोजित वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किया है।(स्रोत फीचर्स)

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अल्ज़ाइमर की संभावना बताएगी कृत्रिम बुद्धि

ल्द ही कृत्रिम बुद्धि किसी व्यक्ति में अल्ज़ाइमर होने के आसार के बारे में पहले ही पता लगा लेगी। आईबीएम की टीम ने लेखन में उपयोग किए गए शब्दों/वाक्यों के पैटर्न से अल्ज़ाइमर के शुरुआती संकेत पहचानने के लिए कृत्रिम बुद्धि को प्रशिक्षित किया है।

वैसे तो कई शोध दलों द्वारा मस्तिष्क स्कैन या शारीरिक जांच के डैटा का उपयोग करके अल्ज़ाइमर जैसी संज्ञानात्मक गड़बड़ियों की पूर्व-पहचान के लिए कृत्रिम बुद्धि को प्रशिक्षित किया जा रहा है। लेकिन यह अध्ययन इस मायने में अलग है कि इसमें प्रशिक्षण के लिए फ्रामिंगहैम हार्ट स्टडी का ऐतिहासिक डैटा लिया गया है। फ्रामिंगहैम हार्ट स्टडी वर्ष 1948 के बाद से अब तक लगभग तीन पीढ़ियों के 14,000 से अधिक लोगों के स्वास्थ्य पर नज़र रखे हुए है।

इस स्टडी में प्रतिभागियों से एक तस्वीर का वर्णन भी लिखवाया गया था। इन वर्णनों की सिर्फ डिजिटल प्रतियां उपलब्ध थी, हस्तलिखित मूल प्रतियां सहेजी नहीं गर्इं थीं।

अपने कृत्रिम बुद्धि मॉडल के प्रशिक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के द्वारा लिखे गए इन विवरणों का डिजिटल ट्रांस्क्रिप्शन कृत्रिम बुद्धि को पढ़ाया। इस तरह मॉडल ने संज्ञानात्मक क्षति के शुरुआती भाषागत लक्षणों को पहचानना सीखा। जैसे गलत वर्तनी, कुछ शब्दों का बार-बार उपयोग और व्याकरण की दृष्टि से जटिल वाक्यों की जगह सरल वाक्यों का उपयोग।

मॉडल ने 70 प्रतिशत सही अनुमान लगाया कि किन प्रतिभागियों को 85 वर्ष की उम्र के पहले अल्ज़ाइमर से सम्बंधित स्मृतिभ्रंश की शिकायत हुई होगी।

एक तो यह घटित हो चुकी घटनाओं के अतीत के डैटा के आधार पर आकलन है। इस मॉडल की कुछ अन्य सीमाएं भी हैं। इस मॉडल में फ्रामिंगहैम स्टडी के मात्र वृद्ध प्रतिभागियों का डैटा शामिल किया गया था जो प्राय: एंग्लो-अमेरिकन गोरे लोग थे। इसलिए संपूर्ण अमेरिका और विश्व पर इन नतीजों का सामान्यीकरण मुश्किल है। इस मॉडल में विश्लेषण के लिए केवल 80 लोगों का डैटा लिया गया था – 40 ऐसे लोगों का जिन्हें अल्ज़ाइमर की समस्या हुई थी और 40 कंट्रोल समूह। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि मॉडल अधिक डैटा पर कैसा प्रदर्शन करेगा। इसके अलावा यह भी सवाल उठता है कि निदान पूर्व, अलग-अलग उम्र पर अल्ज़ाइमर की संभावना का अनुमान क्या इतनी ही सटीकता से लगा पाएगा?

यह मॉडल और भी सटीक हो सकता था यदि इसमें मूल लिखावट को शामिल किया जा सकता। इससे अल्ज़ाइमर की पहचान के कुछ अन्य संकेत शामिल हो जाते। जैसे लिखते समय हाथ हल्का कांपना, कहीं-कहीं प्रिंट और कहीं-कहीं कर्सिव में लिखना और बहुत बारीक अक्षर में लिखना। और यदि मौखिक भाषा का डैटा शामिल किया जाता तो बोलते-बोलते बीच में रुकने जैसे संकेतों को भी पहचाना जा सकता था, जो लेखन से संभव नहीं है। लेखन में सिर्फ साक्षर लोगों का डैटा होता है।

बहरहाल ये मॉडल लोगों के संज्ञानात्मक स्वास्थ्य की निगरानी बिना तकलीफ पहुंचाए कर पाएंगे। हालांकि लोगों की सहमति और डैटा की गोपनीयता का सवाल भी उठेगा क्योंकि हो सकता है कुछ लोग पहले से अपनी बीमारी के बारे में ना जानना चाहें।

फिलहाल दोनों मॉडल, मौखिक और डिजिटल पेन की मदद से लिखित, को शामिल करने पर काम चल रहा है। आईबीएम का भी भविष्य में इसी तरह के मॉडल पर काम करने का इरादा है।(स्रोत फीचर्स)

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जलवायु की उथल-पुथल का प्राचीन औज़ारों पर असर

जकल टेक्नॉलॉजी के बदलने की रफ्तार को देखकर आश्चर्य होता है कि प्राचीन मनुष्य सात लाख वर्ष तक एक ही तकनीक से पत्थर के औज़ार बनाते रहे। अब तक इसके कारण स्पष्ट नहीं थे लेकिन अब, केन्या स्थित एक प्राचीन झील की तलहटी से प्राप्त डैटा से पता चला है कि लगभग चार लाख साल पहले जलवायु परिवर्तन, टेक्टॉनिक हलचल और तेज़ी से बदलती पशु आबादी ने प्राचीन मनुष्यों में सामाजिक और तकनीकी बदलावों को जन्म दिया था। इनमें नए किस्म के औज़ार और दूर-दूर तक व्यापार का फैलाव शामिल थे।

लगभग 12 लाख साल पहले केन्या के ओलोरगेसेली बेसिन में होमो प्रजातियों ने पत्थर के किनारों को तराशकर कुल्हाड़ियां बनाना शुरू किया। ये कुल्हाड़ियां आकार में अंडाकार और नुकीली होती थीं। इनसे कई तरह के काम किए जा सकते थे, जैसे जानवर मारना, खाल निकालना, लकड़ी काटना और भूमि से कंद निकालना। लगभग सात लाख सालों तक इसी एक्यूलीयन तकनीक से औज़ार बनते रहे। इस दौरान जलवायु लगभग स्थिर बनी रही थी। लेकिन इसके बाद औज़ार बनाने की तकनीक में अचानक परिवर्तन हुए। लेकिन इन परिवर्तनों के कारण अस्पष्ट थे।

2012 में नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के रिक पॉट्स और उनके दल ने कूरा बेसिन के निकट एक प्राचीन झील की तलछट से ड्रिल करके 139 मीटर लंबा कोर निकाला था। यह कोर लगभग 10 लाख सालों में जमा हुआ था। कोर का अध्ययन कर शोधकर्ताओं ने इस क्षेत्र की जलवायु और पारिस्थितिकी की एक समयरेखा खींची। डायटम और शैवाल की मौजूदगी से झील के जल स्तर और लवणता के बारे में पता चला। पत्तियों के मोम से पता चला कि आसपास जंगल था या घास का मैदान।

पता चला कि कोर बनने के शुरुआती छ: लाख वर्षों तक पर्यावरण स्थिर रहा। वहां प्रचुर मात्रा में मीठे पानी की झील और विशाल घास का मैदान था जिसमें जिराफ, भैंस और हाथी जैसे बड़े जानवर पाए जाते थे। फिर, लगभग चार लाख साल पहले स्थिति बिगड़ी। मीठे पानी की आपूर्ति में उतार-चढ़ाव होने लगे, जिससे यह स्थान तेज़ी से घास के मैदान और जंगलों में बदलता रहा। पिछले पांच लाख से तीन लाख साल के बीच कूरा बेसिन की झील आठ बार सूखी थी। जीवाश्म रिकॉर्ड से पता चलता है कि तब घास का मैदान जगह-जगह सूखने लगा और दूर से दिखाई देने वाले बड़े जानवरों की जगह चिंकारा, हिरण जैसे छोटे और फुर्तीले जानवरों ने ले ली।

पूर्व अध्ययनों से भी शोधकर्ता जानते थे कि लगभग 5 लाख साल पहले ज्वालामुखी विस्फोट के कारण इस क्षेत्र में दरारें पड़ी थी जिससे बड़ी झील बह गई और छोटे बेसिन बने। इनमें बहुत जल्दी बाढ़ आती थी और वे उतनी ही जल्दी सूख भी जाते थे। साइंस एडवांसेस पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि कुल मिलाकर इस क्षेत्र के मनुष्यों ने अस्थिर वातावरण का सामना किया। जिससे उन्होंने लावा पत्थर से ऐसे औज़ार बनाने शुरू किए कि वे छोटे और फुर्तीले जानवरों का शिकार कर पाएं। इन ब्लेडनुमा औज़ारों को लकड़ी में बांधकर भाले की तरह इस्तेमाल किया जाता था। इन पत्थरों का स्रोत कई किलोमीटर दूर था, इसलिए उनका आवागमन क्षेत्र बढ़ा और संचार के अधिक जटिल तरीके विकसित हुए और सामाजिक नेटवर्क स्थापित हुए। वैसे एक मत यह है कि एक क्षेत्र के आधार पर निष्कर्ष को व्यापक स्तर पर लागू करने में सावधानी रखनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 मौतों में वायु प्रदूषण का योगदान

हाल ही में किए गए अध्ययनों से कोविड-19 से होने वाली मौतों और वायु प्रदूषण के सम्बंध का पता चला है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों का सम्बंध लंबे समय तक वायु प्रदूषण के संपर्क में रहने से है। जर्मनी और साइप्रस के विशेषज्ञों ने संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के वायु प्रदूषण, कोविड-19 और सार्स (कोविड-19 जैसी एक अन्य सांस सम्बंधी बीमारी) के स्वास्थ्य एवं रोग के आकड़ों का विश्लेषण किया है। यह रिपोर्ट कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च नामक जर्नल में प्रकाशित हुई है।  

इस डैटा में विशेषज्ञों ने वायु में सूक्ष्म कणों की उपग्रह से प्राप्त जानकारी के साथ पृथ्वी पर उपस्थित प्रदूषण निगरानी नेटवर्क का डैटा शामिल किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोविड-19 से होने वाली मौतों के पीछे वायु प्रदूषण का योगदान किस हद तक है। डैटा के आधार पर विशेषज्ञों का अनुमान है कि पूर्वी एशिया, जहां हानिकारक प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक है, में कोविड-19 से होने वाली 27 प्रतिशत मौतों का दोष वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर हुए असर को दिया जा सकता है। यह असर युरोप और उत्तरी अमेरिका में क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत पाया गया। पेपर के लेखकों के अनुसार कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच का यह सम्बंध बताता है कि यदि हवा साफ-सुथरी होती तो इन अतिरिक्त मौतों को टाला जा सकता था।

यदि कोविड-19 वायरस और वायु प्रदूषण से लंबे समय तक संपर्क एक साथ आ जाएं तो स्वास्थ्य पर, विशेष रूप से ह्रदय और फेफड़ों पर, काफी हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। टीम ने यह भी बताया कि सूक्ष्म-कणों के उपस्थित होने से फेफड़ों की सतह के ACE2 ग्राही की सक्रियता बढ़ जाती है और ACE2 ही सार्स-कोव-2 के कोशिका में प्रवेश का ज़रिया है। यानी मामला दोहरे हमले का है – वायु प्रदूषण फेफड़ों को सीधे नुकसान पहुंचाता है और ACE2 ग्राहियों को अधिक सक्रिय कर देता है जिसकी वजह से वायरस का कोशिका-प्रवेश आसान हो जाता है।

अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि हवा में उपस्थित सूक्ष्म-कण इस रोग को बढ़ाने में एक सह-कारक के रूप में काम करते हैं। एक अनुमान है कि कोरोनावायरस से होने वाली कुल मौतों में से यू.के. में 6100 और अमेरिका में 40,000 मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।

देखने वाली बात यह है कि कोविड-19 के लिए तो टीका तैयार हो जाएगा लेकिन खराब वायु गुणवत्ता और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कोई टीका नहीं है। इनका उपाय तो केवल उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मायोपिया से बचाव के उपाय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मायोपिया (निकट-दृष्टिता) उस स्थिति को कहते हैं जब व्यक्ति को दूर का देखने में कठिनाई होती है। यह पूरे भारत में महामारी का रूप लेता जा रहा है; दक्षिण-पूर्वी एशिया में तो यह समस्या और भी गंभीर है। मायोपिया किन्हीं हानिकारक कीटाणुओं के संक्रमण की वजह से नहीं बल्कि संभवत: मायोपिक जीन्स की भूमिका और आसपास की परिस्थितियों (जैसे लंबे समय तक पास से देखने वाले काम करना और/या धूप से कम संपर्क) के कारण होता है। कोविड-19 की तरह इसने अभी वैश्विक महामारी का रूप नहीं लिया है लेकिन हमारी परिवर्तित जीवन शैली (कमरों में सिमटी जीवन शैली) और खुली धूप में बिताए समय और स्तर में आई कमी के कारण यह एक वैश्विक महामारी बन सकती है। वक्त आ गया है कि मायोपिया से मुकाबले के उपाय किए जाएं।

मायोपिया क्या है?

मायोपिया या निकट-दृष्टिता तब होती है जब कॉर्निया और लेंस की फोकस करने की क्षमता के मुकाबले आंखों का नेत्रगोलक बड़ा हो जाता है, जिससे फोकस रेटिना की सतह पर ना होकर उसके पहले कहीं होने लगता है। इस कारण दूर की चीज़ें साफ दिखाई नहीं देतीं जबकि नज़दीक की चीज़ें स्पष्ट दिखाई दे सकती हैं, जैसे पढ़ने या कंप्यूटर पर काम करने में कोई परेशानी नहीं आती (allaboutvision.com)। वर्ष 2000 में दुनिया की लगभग 25 प्रतिशत आबादी निकट-दृष्टिता से पीड़ित थी। वर्ष 2050 तक (यानी अब से 30 वर्ष बाद) 50 प्रतिशत से अधिक लोगों के मायोपिया-पीड़ित होने की संभावना है।

वर्तमान में भारत में मायोपिया के बढ़ते प्रसार के आधार पर एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि मायोपिया को नियंत्रित करने के उपाय न किए गए तो वर्ष 2050 तक भारत के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 5-15 वर्ष की उम्र के लगभग 6.4 करोड़ बच्चे मायोपिया से पीड़ित होंगे।

इस समस्या की रोकथाम के कई उपायों के बारे में हम पहले से ही जानते हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि बाहर या खुले में कम समय बिताने से मायोपिया हो सकता है। दिन के समय अंदर की तुलना में बाहर (खुले में) सूर्य का प्रकाश 10 से 100 गुना अधिक होता है। बाहर की रोशनी कई तरह से आंखों को मायोपिक होने से बचाने में मदद करती है। जैसे: (1) यदि आप किसी खुली जगह पर हैं और पास देखने वाला कोई काम नहीं कर रहे हैं तो आंखों पर ज़ोर कम पड़ता है। (2) बाहरी वातावरण रेटिना के किनारों के विभिन्न भागों को एक समान प्रकाश देता है और बाहर के परिवेश में इंद्रधनुष के सभी रंगों (तथाकथित vivgyor) से समान संपर्क होता है, जबकि अंदर के कृत्रिम प्रकाश में कुछ विशिष्ट तरंगदैर्ध्य नहीं होतीं। (3) सूर्य के तेज़ प्रकाश में आंखों की पुतली छोटी हो जाती है जो धुंधलापन कम करती है, और फोकस रेंज बढ़ाती है। (4) सूर्य के प्रकाश के संपर्क से अधिक विटामिन डी बनाने में मदद मिलती है। (5) अधिक प्रकाश का संपर्क डोपामाइन हार्मोन स्रावित करता है जो नेत्रगोलक की लंबाई नियंत्रित करता है; यह छोटा रहेगा तो मायोपिया नहीं होगा। (इस सम्बंध में, करंट साइंस में प्रकाशित रोहित ढकाल और पवन के. वर्किचार्ला का पेपर देखें: बाहर रहने का वक्त बढ़ाकर भारत के स्कूली बच्चों में मायोपिया के बढ़ते प्रसार को थामा जा सकता है)।

परिवार और शिक्षकों की तरफ से बच्चों पर पढ़ाई में श्रेष्ठ प्रदर्शन का बढ़ता दबाव, अत्यधिक होमवर्क, प्रवेश परीक्षाओं के लिए देर शाम या स्कूल के पहले की कोचिंग क्लासेस हाई स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से सूरज की रोशनी छीन रहे हैं जिससे मायोपिया महामारी फैल रही है, और मध्य और पूर्वी एशियाई उपमहाद्वीप में एक उप-वैश्विक महामारी का रूप ले रही है।

सुझाव                                                             

एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में मायोपिया का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं, रोहित ढकाल और पवन वर्किचार्ला, ने सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के कुछ सुझाव दिए हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ इन सुझावों को अभी लागू किया जा सकता है। ये सुझाव हैं: सभी स्कूलों में प्रायमरी से लेकर हाई स्कूल तक के सभी छात्रों के लिए हर दिन एक घंटे का अवकाश (रेसेस) हो, जिस दौरान कक्षाओं के कमरे बंद कर दिए जाएं ताकि बच्चे धूप के संपर्क में रह सकें। रेसेस पाठ्यक्रम का व्यवस्थित अंग हो। स्कूलों में खेल का पर्याप्त मैदान अनिवार्य हो। पालकों में स्वस्थ दृष्टि के महत्व और स्मार्टफोन जैसी पास से देखी जाने वाली डिवाइसेस के उपयोग पर नियंत्रण के बारे में जागरूकता पैदा की जाए। प्रत्येक इलाके के सामुदायिक केंद्र के लिए सप्ताह में एक बार या कम से कम महीने में दो बार बाहर के कार्यक्रम आयोजित करने की सिफारिश की जाए/प्रचार किया जाए।

ये सभी बहुत सामान्य से सुझाव हैं मगर आर्थिक, वित्तीय, भवन सम्बंधी और सामाजिक कारणों से अब तक इन पर अमल नहीं किया गया है। लेकिन राज्य और केंद्र सरकारों के अधीन स्कूलों और कॉलेजों में तो कम से कम ये प्रयास किए जाने चाहिए। भविष्य हमें निहार रहा है – कहीं ऐसा ना हो कि हम एक से अधिक मायनों में दूरदर्शिता के अभाव से ग्रसित हो जाएं।

हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्ट्समें एक्स. एन. लियू द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि चीन में स्कूल जाने वाले बच्चों में देर से सोना मायोपिया का एक कारण हो सकता है। इस पेपर में शोधकर्ता बताते हैं कि कई वर्षों के अध्ययन से मायोपिया के लिए ज़िम्मेदार कई कारकों के बारे में पता चला है। जैसे, फैमिली हिस्ट्री, जेनेटिक कारण, शहरी जीवन शैली या परिवेश। अध्ययन यह भी बताता है कि सोने की कम अवधि और अच्छी नींद ना होना भी मायोपिया को जन्म दे सकते हैं। ये शरीर की सर्केडियन लय (जैविक घड़ी) में बाधा डालते हैं, खासकर मस्तिष्क में, और रेटिना को तनाव देते हैं। जल्दी सोना और गहरी नींद लेना मायोपिया की रोकथाम के उपाय हैं।

अंत में, हम जानते हैं कि वेब कक्षाओं के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण और टेलीविज़न के माध्यम से पढ़ाई मुश्किल हो रही है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब बच्चों के लिए जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है। यह पद्धति लॉकडाउन के दिनों के लिए तो मुनासिब हो सकती है लेकिन हमेशा के लिए शिक्षण की पद्धति नहीं बनना चाहिए। स्कूल खोले जाने चाहिए और दिन में कक्षाएं लगना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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