डायनासौर पर अध्ययन करते हुए जीवाश्म वैज्ञानिकों को डायनासौर
की एक विकृत हड्डी का जीवाश्म मिला था। यह हड्डी एक सींग वाले शाकाहारी
सेंट्रोसौरस के पैर के निचले हिस्से की फिबुला हड्डी थी। यह जीव लगभग 7.6 करोड़
वर्ष पहले वर्तमान के दक्षिणी अल्बर्टा (कनाडा) में पाया जाता था। इस स्थान पर
आजकल एक डायनासौर पार्क है।
पहले तो पुराजीव वैज्ञानिकों को लगा कि
हड्डी का विचित्र आकार फ्रेक्चर के बाद हड्डी के ठीक से ना जुड़ पाने के कारण बना
है लेकिन दी लैंसेंट ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित एक नए अध्ययन में इस जीवाश्म
की आंतरिक संरचना की तुलना एक मनुष्य के अस्थि ट्यूमर से की गई है। अध्ययन में
पाया गया कि यह डायनासौर एक विशेष किस्म के कैंसर (ऑस्टियोसरकोमा) से पीड़ित था। इस
प्रकार का कैंसर मनुष्यों में मुख्य रूप से किशोरों और युवाओं पर हमला करता है।
इससे कमज़ोर हड्डियों के अपरिपक्व ऊतकों के ट्यूमर विकसित होते हैं जो अक्सर पैर की
लंबी हड्डी में पाए जाते हैं।
गौरतलब है कि इससे पहले भी वैज्ञानिकों को
जीवाश्मों में कैंसर के प्रमाण मिले हैं। टायरेनोसॉरस रेक्स के जीवाश्म में ट्यूमर, डक-बिल्ड
डैड्रोसौर के जीवाश्म में गठिया रोग और 24 करोड़ वर्ष पुराने कछुए के जीवाश्म में
ऑस्टियोसरकोमा की पहचान की गई है। लेकिन यह पहली बार है कि कोशिकीय स्तर पर
डायनासौर में कैंसर के निदान की पुष्टि हुई है।
इसके लिए वैज्ञानिकों ने उच्च-रेज़ोल्यूशन कंप्यूटरीकृत टोमोग्राफी (सीटी) स्कैन की मदद से पूरे जीवाश्म की जांच की और इसकी पतली कटानों का माइक्रोस्कोप से अध्ययन किया ताकि कोशिकाओं की संरचना को ठीक तरह से समझा जा सके। निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने पाया कि यह ट्यूमर काफी विकसित हो चुका था जो मनुष्यों के समान उस जीव के लिए काफी घातक रहा होगा। क्योंकि यह जीवाश्म सेंट्रोसौरस के अन्य नमूनों के साथ मिला था इसलिए ऐसी संभावना है कि इसकी मृत्यु कैंसर से नहीं बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ बाढ़ में डूबने की वजह से हुई होगी। बहरहाल शोधकर्ताओं को लगता है कि इस खोज के बाद आधुनिक तकनीकों से असामान्य जीवाश्मों की जांच पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जैव विकास में कैंसर की उत्पत्ति को समझा जा सके।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :
23 अप्रैल 2019 की रात करीब नौ बजे कोस्टा रिका के आसमान में
नारंगी-हरी रोशनी फूटी। कैंपोस मुनोज़ ने देखा कि उनके घर की छत की नालीदार जस्ते
की चादर में अंगूर के बराबर छेद हो गया था, एक
प्लास्टिक मेज़ टूट-फूट गई थी और फर्श पर कोयले जैसे काले रंग के कुछ टुकड़े बिखरे
पड़े थे। वास्तव में उस रात वॉशिंग मशीन के बराबर का एक उल्का पिंड कोस्टा रिका के
ऊपर टूटकर बिखरा था।
वैसे तो हर साल पृथ्वी पर हज़ारों उल्का
पिंड टूटकर बिखरते हैं। लेकिन ऐसे उल्का पिंड बहुत थोड़े से हैं, जिन्हें गिरते हुए देखा गया और जिनका नाम उनके गिरने की जगह
पर रखा गया हो। इस तरह के सिर्फ 1196 उल्का पिंड दर्ज हुए हैं। लेकिन यह उल्का
पिंड, जिसके टुकड़ों को एगुआस ज़र्कास नाम दिया गया
है, कुछ अलग ही था। चट्टानों के मान से तो वह
लगभग जीवित कहा जाएगा।
एगुआस ज़र्कास एक कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट
है जो प्रारंभिक सौर मंडल का अवशेष है। अपने नाम के मुताबिक यह उल्का कार्बन में
समृद्ध है। ना सिर्फ अजैविक कार्बन बल्कि अमीनो एसिड जैसे जटिल जैविक अणु भी इसमें
मौजूद है जो प्रोटीन निर्माण की इकाइयां होते हैं। इनसे पता लगाने में मदद मिलती
है कि अंतरिक्ष में रासायनिक अभिक्रियाओं ने कैसे जीवन के शुरुआती रूप को जन्म
दिया।
एगुआस ज़र्कास एक प्रसिद्ध कार्बोनेशियस
कॉन्ड्राइट मर्चिसन की तरह दिखता है जो 1969 में ऑस्ट्रेलिया के मर्चिसन में गिरा
था। मर्चिसन में वैज्ञानिक अब तक लगभग 100 अलग-अलग अमीनो एसिड की पहचान कर चुके
हैं जिनमें से कई पृथ्वी के जीवों के अमीनो एसिड से मेल खाते हैं लेकिन कई अमीनो
एसिड ज्ञात जीवन के अमीनो एसिड से भिन्न हैं। और तो और, मर्चिसन
में न्यूक्लियो-क्षार भी मिले थे जो डीएनए जैसे जेनेटिक अणुओं की इकाइयां हैं।
एगुआस ज़र्कास के टुकड़े मर्चिसन से 50 साल
बाद के हैं, जिससे वैज्ञानिकों को इसे संरक्षित करने और
पड़ताल करने के लिए आधुनिक तकनीकें इस्तेमाल करने में आसानी होगी। इस उल्का से उन
कार्बनिक यौगिकों की भी पड़ताल की जा सकती है जो मर्चिसन उल्का से वाष्पित हो चुके
हैं। इसके अलावा इनमें ना केवल अमीनो एसिड और शर्करा बल्कि प्रोटीन की भी पड़ताल की
जा सकती है, जिनकी अब तक किसी भी उल्का पिंड में पुष्टि
नहीं हुई है।
यह उल्का जानकारियां हासिल करने की दृष्टि से जितनी महत्वपूर्ण है, इसे पाने के लिए इसके सौदागरों में उतनी ही अधिक होड़ थी। दरअसल अलग-अलग देशों में उल्का के लिए अलग-अलग कानून हैं। जैसे डेनमार्क में इन्हें जीवाश्म की तरह माना जाता है जिस पर सरकार का अधिकार होता है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चिली, फ्रांस, न्यूज़ीलैंड और मेक्सिको में इन्हें सांस्कृतिक खजाने के रूप में देखा जाता है जिसे बिना इजाज़त बाहर नहीं ले जाया जा सकता। लेकिन कोस्टा रिका, यूएस सहित कई जगहों पर उल्का आसानी से खरीदे-बेचे जा सकते हैं और अन्य जगहों पर भेजे जा सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के घर पर ये गिरे या जिन्होंने इन्हें इकट्ठा किया उन्होंने इसके टुकड़े 50-100 डॉलर प्रति ग्राम (सोने की कीमत से भी अधिक) पर बेचे। इस तरह के रवैये पर डायरेक्टरेट ऑफ जियोलॉजी एंड माइन्स की इलियाना बॉशिनी लोपेज़ को लगता है कि कोस्टा रिका को जल्द ही इस तरह के व्यापार पर रोक लगानी चाहिए और अंतरिक्ष से गिरने वाले चीज़ों के सम्बंध में कानून बनाना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
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सार्स-कोव-2 के कहर के चलते मार्च से जून के लंबे व सतत
लॉकडाउन में वीडियो व टेलीफोन कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए काम करने के दौरान आसपास
ततैया को उड़ते देखना मेरे लिए आम बात थी। इसी दौरान एक बावली (क्रेज़ी) ततैया दीवार
पर मिट्टी के लौंदे ला-लाकर घरौंदा बनाने के मिशन में जुटी दिखी। इस ततैया पर मेरा
ध्यान टिक गया। जब घरौंदा बन गया तो फिर वह बाहर जाती और मुंह और टांगों में देसी
मटर की फली जैसी इल्लियों को दबाकर लाती और घरौंदे के अंदर दफन कर देती। इन
इल्लियों को अपने डंक से बेहोश कर उसके शरीर में मादा ततैया अंडे देती है। अंडों
से निकले बच्चे बेहोश इल्ली को नोंच-नोंचकर खाते हैं।
इस पर एक मामूली से सवाल ने मुझे बैचेन कर
दिया। सवाल यह कि ततैया जिस इल्ली को पकड़कर दफन करती है वह ततैया के अंडों व उनसे
निकलने वाली इल्लियों की खिलाफत क्यों नहीं करती?
इल्ली का प्रतिरक्षा
तंत्र ततैया के अंडों व परिवर्धित हो रही इल्ली व प्यूपा के विरुद्ध प्रतिक्रिया
क्यों नहीं करता? जाहिर है कि दुनिया के समस्त जीवों में प्रतिरक्षा प्रणाली
होती है जो शरीर में किसी भी बाहरी आक्रमण या संक्रमण के प्रति सजग होती है और
उसके खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। तो उस दफन इल्ली और ततैया की संतान के
मामले में राज़ क्या है?
1967 के दौरान वैज्ञानिकों को पता चला कि
मादा ततैया जब बेहोश की गई तितली के शरीर में ओविपोज़िटर के रास्ते से अंडे देती है
तो वे अंडों के साथ कुछ छोटे कणों को भी इंजेक्ट करती है। यह समझने में लगभग एक
दशक का वक्त लगा कि दरअसल मादा ततैया अंडों के साथ जो इंजेक्ट करती है वे वायरस
हैं जिन्हें पोलीड्नावायरस (पीडीवी) कहा जाता है। यह देखा गया है कि ततैया की
प्रत्येक प्रजाति में एक खास तरह का पोलीड्नावायरस होता है। इन वायरसों का काम एक
ही है – ये भक्षण की शिकार इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर बना देते हैं
ताकि उस पर पनप रहे ततैया के अंडे व अंडों से निकली इल्लियां व प्यूपा सुरक्षित
रहते हुए वयस्क में कायांतरित हो सकें।
अगर ये वायरस न हों तो इल्ली का प्रतिरक्षा
तंत्र ततैया के बच्चों के खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा और उन्हें पनपने से
रोकेगा। तो, एक ओर जो पोलीड्नावायरस बेहोश मेज़बान इल्ली की प्रतिरक्षा
प्रणाली को ध्वस्त करता है वही ततैया और वायरस के बीच सहजीविता की एक मिसाल है।
पोलीड्नावायरस डबल डीएनए वायरस का एक
परिवार है जो खास तौर पर ततैया से ताल्लुक रखता है। ये पोलीड्नाविरिडी कुल के
सदस्य हैं। इस परिवार में वायरस की 53 प्रजातियां हैं जो शिकारी परजीवी ततैयाओं
में ही पाई जाती हैं।
ये वायरस एक अनोखे जैविक तंत्र का हिस्सा
हैं जिसमें एक अंत:परजीवी (यानी ततैया की इल्ली),
एक मेज़बान (इल्ली) व
वायरस शामिल हैं। वायरस का संपूर्ण जीनोम अंतर्जात होता है जो मादा ततैया के
अंडाशय में अपनी प्रतिलिपियां बनाता हैं। जब मादा अंडे देती है तो अंडों के साथ यह
वायरस मेज़बान इल्ली में इंजेक्ट करती है जो इल्ली को संक्रमित कर कमज़ोर कर देते
हैं। खास बात यह है कि पोलीड्नावायरस मेज़बान इल्ली में अपनी प्रतिलिपियां नहीं बना
पाता है बल्कि मादा ततैया द्वारा इंजेक्ट किए गए वायरस ही उसे संक्रमित करते हैं।
पोलीड्नावायरस की प्रतिलिपियां मात्र ततैया के प्रजनन तंत्र के अंडाशय की
विशेषीकृत कोशिकाओं (कैलिक्स) के केंद्रक में ही बनना संभव है। ऐसा इसलिए कि ततैया
के जीनोम में पोलीड्नावायरस के ऊपर प्रोटीन का खोल चढ़ाने वाले जीन मौजूद होते हैं।
ये जीन इल्ली के जीनोम में अनुपस्थित रहते हैं। इसलिए पोलीड्नावायरस इल्लियों के
शरीर में प्रजनन करके अपनी प्रतिलिपियां बनाने में असमर्थ होता है। इस प्रकार मेज़बान इल्ली पर ततैया का जीवन चक्र
पूरा हो पाता है।
पोलीड्नावायरस ततैया प्रजातियों में आम तौर
पर नर व मादा दोनों में पाए जाते हैं। लेकिन ये केवल अंडे देने के दौरान ही मादा
द्वारा इंजेक्ट किए जाते हैं। यह देखा गया है कि ततैया के जीवन चक्र की प्यूपा
अवस्था में अंडाशय में पोलीड्नावायरस की प्रतिलिपियां बनने की प्रक्रिया शुरू होती
है जो वयस्क अवस्था तक जारी रहती है।
पोलीड्नावायरस की दूसरी खासियत यह है कि यह
वायरस मेज़बान इल्ली की कोशिकाओं में डीएनए को पहुंचाने का काम करता है ताकि
परजीवीता को सफल बना सके। उद्विकास की प्रक्रिया में पोलीड्नावायरस व ततैया के बीच
तालमेल हुआ और परजीविता को अंजाम दिया गया।
ततैया के वायरस कैसे इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर बनाते हैं इसका अध्ययन नैन्सी बैकेज के नेतृत्व में किया गया। ततैया कई सारे अंडे इल्ली के शरीर में डालती है। ततैया के अंडों से निकली इल्लियां मेज़बान इल्ली के खून (हीमोलिंफ) से अपना पेट भरती हैं। ततैया जब अंडे देती है तो हिमोलिंफ में मौजूद हिमोसाइट्स का काम प्रभावित होता है। हिमोसाइट्स ततैया द्वारा दिए गए अंडों व उनसे निकली इल्लियों के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है। यह भी देखा गया कि इल्ली के शरीर में अगर पोलीड्नावायरस डाले जाएं तो वे वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा ततैया द्वारा अंडों के साथ डालने पर करते हैं। और अगर पोलीड्नावायरस रहित अंडे इल्ली के शरीर में डाले जाएं तो मेज़बान इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र बखूबी काम करता रहता है। ये सारे तथ्य दर्शाते हैं कि पोलीड्नावायरस स्पष्ट तौर पर मेज़बान इल्ली के विकास और प्रतिरक्षा तंत्र दोनों में हेरफेर करके उसे खतरे में डाल देता है जो ततैया के लिए फायदेमंद साबित होता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.springernature.com/m685/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fnrmicro2491/MediaObjects/41579_2011_Article_BFnrmicro2491_Fig1_HTML.jpg
भारत में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाएं विषय पर अधिकांश साहित्य, विज्ञान में महिलाओं की ‘अनुपस्थिति’ ही दर्शाता है जबकि अब हालात ऐसे नहीं हैं। उपलब्ध प्रमाणों के व्यापक विश्लेषण के आधार पर यह आलेख बताता है कि विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, हालांकि अलग-अलग विषयों में स्थिति काफी अलग-अलग है। अलबत्ता, विज्ञान के क्षेत्र में भले ही महिलाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अब भी उन्हें रुकावटों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार से लिंग-आधारित ढांचा बरकरार है और वैज्ञानिक संस्थानों को आकार देता है। आलेख का तर्क है कि संस्थानों-संगठनों के मौजूदा मानदंडों और मानसिकता में बदलाव लाए बिना महिला-समर्थक नीतियां शुरू करना प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
साल 2017 की विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट बताती है कि 144
सर्वेक्षित देशों में से भारत, लैंगिक-असमानता के मामले में 87वें पायदान
से गिरकर 108वें पायदान पर आ गया था। स्वास्थ्य और औसत आयु के मामले में भारत
141वें पायदान पर और आर्थिक अवसरों के मामले में 139वें पायदान पर था। यहां तक कि
शिक्षा के मामले में भारत का स्थान 112वां था। कोई ताज्जुब नहीं कि भारत में
वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भी लैंगिक-अंतर काफी अधिक है। युनेस्को
सांख्यिकी संस्थान (2017) के अनुसार वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भले ही
लोगों की संख्या में 37.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन महिला शोधकर्ताओं की
संख्या में मामूली कमी आई है, 2010 में महिला शोधकर्ताओं का प्रतिशत 14.3
था जो 2015 में गिरकर 13.9 प्रतिशत हो गया।
हो सकता है कि भारतीय मध्यम वर्ग इन आंकड़ों
को ‘अन्य’ भारत से जोड़कर देखे, जैसे कि ये ग्रामीण इलाकों और शहरी
झुग्गियों में रहने वाले हाशियाकृत और गरीब लोगों के हों। लेकिन भारतीय विज्ञान
समुदाय, या सामाजिक-आर्थिक मध्यम वर्ग और शिक्षित वर्गों के लिए इन
आंकड़ों के क्या मायने हैं? क्या भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान और शिक्षा
में महिलाओं की स्थिति वाकई चिंतनीय है? यदि है,
तो क्या इन आंकड़ों का
महिलाओं की उच्च शिक्षा या विज्ञान अनुसंधान प्रशिक्षण तक पहुंच में कमी से है, या
ये दर्शाते हैं कि कितनी महिलाएं इन क्षेत्रों को छोड़ देती हैं? क्या
कोई ऐसे खास विषय या खास क्षेत्र हैं जिनमें महिलाओं की उपस्थिति बेहतर है और इसके
क्या कारण हैं? क्या ढांचागत कारण विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को बराबर
भागीदारी से रोकते हैं? क्या विज्ञान अनुसंधान समुदाय में महिलाओं को मिलने वाली
मान्यता, इन क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति से मेल खाती है? इस
सम्बंध में उपलब्ध प्राथमिक और द्वितीयक जानकारी के आधार पर यहां ऐसे कुछ सवालों
को जांचने का प्रयास है।
संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान संदर्भ
स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत सरकार ने
1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की थी। अन्य उद्देश्यों के अलावा
एक उद्देश्य यह था कि भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा और शोध के उद्देश्यों व
लक्ष्यों की छानबीन की जाए। स्पष्ट रूप से,
नवनिर्मित राष्ट्र
में ज़ोर सामाजिक परिवर्तन के लिए शिक्षा पर था। 1950 में आयोग द्वारा प्रस्तुत
रिपोर्ट का एक पूरा हिस्सा महिला शिक्षा पर केंद्रित था। इसमें अनुशंसाओं के खंड
में बताया गया था कि “कुछ क्षेत्र महिलाओं के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं… जिनमें
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं को शिक्षा दी जा सकती है।” समिति
द्वारा सुझाए गए विषय थे गृह अर्थशास्त्र,
नर्सिंग, अध्यापन
और ललित कलाएं। रिपोर्ट के इस हिस्से की प्रस्तावना में कई उत्कृष्ट नैतिक आदर्शों
का प्रतिपादन किया गया था, जैसे:
हमें कई सुझाव मिले हैं जो कहते हैं कि
महिलाओं की शिक्षा ड्राइंग, पेंटिंग या इसी तरह की अन्य सुंदर
‘उपलब्धियां’ हासिल करने के लिए होनी चाहिए ताकि जब उनके पति महत्वपूर्ण काम कर
रहे हों तब सम्पन्न महिलाएं अपना वक्त बिना किसी नुकसान के काट सकें। यह सोच अब
नहीं रहना चाहिए। महिलाएं पुरुषों के साथ जीवन और आज के ज़माने के विचार और रुचियों
में बराबर की हिस्सेदार होनी चाहिए। वे पुरुषों के समान शैक्षणिक कार्य करने के
योग्य हैं, उनमें विचारों और गुणवत्ता की कमी नहीं है।
महिलाओं की क्षमताएं पुरुषों के समान हैं। (1950 में जारी विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट, अध्याय
12, पृ. 343-344)
हालांकि,
इस दौर में कुशल
महिला वैज्ञानिक बनाने पर ज़ोर नहीं था। यह बात शुरुआती वर्षों में विभिन्न कोर्स
में हुए दाखिलों में भी झलकती है। वर्ष 1961-62 में ‘लड़कों और लड़कियों के
पाठ्यक्रम में भेद’ पर राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद द्वारा गठित हंसा मेहता समिति
की सिफारिश के साथ दोनों के लिए ‘समान पाठ्यक्रम’ के मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा
शुरू हुई। 1964-66 में कोठारी आयोग ने इससे एक कदम आगे बढ़कर आग्रह किया कि महिलाओं
को भी विज्ञान पढ़ने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए।
कहने का मतलब यह नहीं है कि इस समय तक भारत
में उच्च शिक्षा या विज्ञान शिक्षा से महिलाएं नदारद थीं। कई अध्ययनों ने भारत में
औपनिवेशिक काल से आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान में महिलाओं की स्थिति की छानबीन की
है। कई अध्ययन, ना केवल महिला वैज्ञानिकों के व्यक्तिगत संघर्ष बयां करती
जीवनियां बताते हैं बल्कि उस समय के सामाजिक-राजनैतिक हालात के बारे में भी बताते
हैं। कमला सोहोनी, आसीमा चटर्जी या जानकी अम्मल जैसी कई महिला वैज्ञानिकों ने
नई ज़मीन तोड़ी थी और जाति और लिंग की दोहरी बाधाओं को पार करके प्रयोगशाला तक का
रास्ता तय किया और तमाम पाबंदियों की कठोर परिस्थितियों में भी काम करती रहीं।
लेकिन चूंकि इस समय तक इन क्षेत्रों में महिलाओं को शामिल करना राजकीय नीति का
हिस्सा नहीं था इसलिए उस समय जिन महिलाओं ने मुकाम हासिल किया वे दरअसल एक ज़्यादा
बड़ी लड़ाई लड़ रही थीं। जैसे कमला सोहोनी विज्ञान (जैव-रसायन शास्त्र) में पीएचडी की
डिग्री हासिल करने वाली पहली महिला बनीं। ग्रेजुएशन में अव्वल आने के बावजूद
उन्हें भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलौर में प्रवेश देने से इन्कार कर दिया
गया था। और इन्कार करने वाले कोई और नहीं,
नोबेल पुरस्कार
विजेता सी. वी. रमन थे। अंतत: जब रमन ने प्रवेश दिया तो उन्होंने प्रवेश के साथ
सख्त और अपमानजनक शर्तें रखीं – जैसे, पहले एक वर्ष में उन्हें नियमित छात्र नहीं
माना जाएगा; उनके मार्गदर्शक दिन में जिस समय कहेंगे, उन्हें
काम करना होगा, और उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी उपस्थिति अन्य
छात्रों को विचलित ना करे। जिन महिलाओं ने इन क्षेत्रों में काम करना संभव बनाया, उन्होंने
बहुत ही विषम परिस्थितियों में कार्य किया। लेकिन, इनमें
से कई महिलाओं ने तो यह माना ही नहीं कि उन्हें हाशिए पर धकेला गया था और इसे
लिंग-भेद की तरह देखने से इन्कार किया।
औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता और नए
संविधान (जो सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है) को अपनाने के बाद खेल के
नियमों में बुनियादी परिवर्तन हुए। लड़के और लड़कियों के लिए समान पाठ्यक्रम और
आधुनिक गणित और विज्ञान का अध्ययन करने के लिए महिलाओं को सक्रिय रूप से
प्रोत्साहन की सिफारिश करके हंसा मेहता समिति और कोठारी आयोग की रिपोर्टों ने इन
परिवर्तनों की नींव रखी थी। लेकिन हम इस दिशा में कितना आगे बढ़ पाए हैं, और
अभी मंज़िल और कितनी दूर है?
जैसा कि यह आलेख दिखाने की कोशिश करता है, पहले
की तुलना में आज स्थिति काफी बदल गई है। लेकिन आज भी,
मंशाओं और कार्रवाई
के बीच काफी अंतर हैं। उदाहरण के लिए प्रमुख विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के स्नातक
कार्यक्रमों में विज्ञान की अपेक्षा कला और मानविकी जैसे विषयों तक महिलाओं की
पहुंच अधिक ‘आसान’ बनाई गई है। दिल्ली विश्वविद्यालय को ही देखें तो पता चलता है
कि स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषय मात्र ‘महिला’ कॉलेजों में चलाए
जाते हैं, जबकि 22 महिला कॉलेजों में से सिर्फ 5 में स्नातक स्तर पर
भौतिकी विषय उपलब्ध है। मुंबई के भी कई महिला कॉलेजों में से कुछ ही बुनियादी
विज्ञान में स्नातक कोर्स चलाते हैं जबकि कई कॉलेजों में मनोविज्ञान और समाज
शास्त्र विषय हैं। चेन्नई के कई महिला कॉलेजों में विज्ञान के कई विषय समूह के रूप
में उपलब्ध हैं। जैसे, कुछ कॉलेजों में विज्ञान संकाय के नाम पर सिर्फ गणित के साथ
नागरिक शास्त्र और मनोविज्ञान विषय पढ़ाए जाते हैं (हालांकि, गणित
की प्रकृति दोहरी है – इसमें बीए और बीएससी दोनों कर सकते हैं)। दिल्ली, मुंबई
और चेन्नई में गृह विज्ञान के कोर्स अधिकांशत: महिला कॉलेजों में पढ़ाए जाते हैं।
यहां तक कि होम साइंस पढ़ाने के लिए खास महिला कॉलेज भी
हैं। यही स्थिति नर्सिंग और शिक्षा में भी
है, जिन्हें पारंपरिक रूप से महिलाओं के लिए उपयुक्त माना गया
है।
तालिका – 1:वर्ष 2015-16 में विभिन्न विषयों में दाखिले
भौतिक विज्ञान
पुरुष
स्त्री
कुल
%पुरुष
%स्त्री
गणित
50081
79523
129604
38.64
61.36
भौतिकी
25540
35349
60889
41.95
58.05
रसायन
44651
55237
99888
44.70
55.30
सांख्यिकी
3691
4618
8309
44.42
55.58
भू-भौतिकी
633
359
992
63.81
36.19
इलेक्ट्रॉनिक्स
2640
2055
4695
56.23
43.77
भूगर्भ शास्त्र
3518
2079
5597
62.86
37.14
जीव विज्ञान
प्राणि विज्ञान
13811
27214
41025
33.66
66.34
वनस्पति विज्ञान
12021
24715
36736
32.72
67.28
जैव-रसायन
2137
4447
6584
32.46
67.54
बायोटेक्नॉलॉजी
4579
9955
14534
31.51
68.49
सूक्ष्मजीव विज्ञान
3457
8607
12064
28.66
71.34
लाइफ साइंस
2460
4633
7093
34.68
65.32
आनुवंशिकी
351
487
838
41.89
58.11
जैव-विज्ञान
1650
2950
4600
35.87
64.13
कॉलेज/होस्टल के भेदभाव पूर्ण नियमों और
समय की पाबंदी को देखें, जिनका देश की अमूमन हर महिला छात्रा को
कॉलेज और विश्वविद्यालय में पालन करना होता है। महिला सुरक्षा के नाम पर बने ये
नियम-निर्देश पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं,
व्याख्यानों, सार्वजनिक
स्थानों और परिवहन तक महिलाओं की बराबर पहुंच के अधिकार को कुचल देते हैं।
राजस्थान सरकार द्वारा 2008 में स्थापित ज्योति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय ने
होस्टल में रहने वाली छात्राओं के लिए अपनी वेबसाइट के ‘हॉस्टल लाइफ’ पेज पर कई
सख्त पाबंदियां लिखी हैं। जैसे होस्टल कैम्पस के अंदर और बाहर उनकी गतिविधियों पर
लगातार कड़ी नज़र रखी जाएगी जिसका ब्यौरा उनके अभिभावकों को दिया जाएगा, और
मोबाइल फोन या अन्य ऐसे उपकरण, जिनमें सिम कार्ड हो या उससे इंटरनेट चलाया
जा सकता हो, का उपयोग करते पाए जाने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी।
वनस्थली विद्यापीठ के नियम के मुताबिक विवाहित महिलाएं किसी भी कोर्स में प्रवेश
का आवेदन नहीं कर सकतीं, सिवाय कुछ ‘विशेष परिस्थितियों’ में
स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में इसकी छूट है। 1983 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा
तिरुपति में स्थापित श्री पद्मावती महिला विश्वविद्यालय में छात्राओं को ‘डीन द्वारा
स्वीकृत साफ और सभ्य पोशाक’ पहनने की ही अनुमति है। इसके अलावा उन्हें कॉलेज या
कॉलेज अधिकारियों की नीतियों और कार्यों की आलोचना सम्बंधी बैठक करने की अनुमति भी
नहीं है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक महिला कॉलेज का ऐसा ही एक मामला
सर्वोच्च नयायलय तक पहुंचा था। दायर की गई याचिका के अनुसार, छात्रावास
नियम वहां रहने वाली महिलाओं/रहवासियों को रात 8 बजे के बाद बाहर जाने, यहां
तक कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने या विश्वविद्यालय परिसर की लायब्रेरी तक जाने
की अनुमति नहीं देते। छात्रावास के नियम लड़कियों को रात 10 बजे के बाद
टेलीफोन/मोबाइल फोन कॉल करने या सुनने की भी अनुमति नहीं देते हैं; उनके
होस्टल के कमरों में मुफ्त वाई-फाई और इंटरनेट भी उपलब्ध नहीं कराया जाता है। जबकि
पुरुष छात्रों पर इनमें से एक भी नियम लागू नहीं होता।
इन परिस्थितियों में जब हमें अखबारों में
इस तरह खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि पीजी, एमफिल छात्रों में महिलाओं की संख्या
पुरुषों से अधिक हैं, तो थोड़ा ठहर कर इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। यह स्थिति
सिर्फ सामाजिक विज्ञान और मानविकी विषयों में ही नहीं बल्कि बुनियादी विज्ञान
विषयों में भी है, जो कि सराहनीय है। मेनपॉवर प्रोफाइल ईयर बुक के साल 2000-01
के आंकड़े बताते हैं कि 2000-01 में विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर पर प्रति 100
पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 80.1 थी जो अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (AISHE) के ऑनलाइन सर्वे के अनुसार साल 2011-12 में बढ़कर 113 हो गई थी, और
साल 2015-16 में 157 तक पहुंच गई थी। यही नहीं,
हर विषय में हमें इसी
तरह के आंकड़े मिलते हैं। तालिका 1 में साल 2015-16 में भौतिक विज्ञानों और जीव
विज्ञानों में पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिला लेने वालों की संख्या दर्शाई गई है। इसे
देखें तो पता चलता है कि कई विषयों में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक
हैं। यह स्थिति ना सिर्फ जीव विज्ञान से जुड़े विषयों में है, बल्कि
भौतिक विज्ञान के विषयों में भी है। ज़ाहिर है कि तमाम बाधाओं के बावजूद, भौतिक
विज्ञान की उच्च शिक्षा को अब महिलाएं अपनी पहुंच से बाहर नहीं मानतीं। लेकिन
आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि भौतिक विज्ञानों की तुलना में जीव विज्ञानों
में दाखिला लेने वाली महिलाओं की संख्या काफी अधिक है,
जो इस आम धारणा को
मज़बूत करती है कि महिलाएं गणित आधारित विषयों की तुलना में जीव विज्ञान से
सम्बंधित विषय लेना ज़्यादा पसंद करती हैं।
चलिए, इस मुद्दे को अच्छे से समझने के लिए और आंकड़े देखते हैं। तालिका 2 में साल 2015-16 के भौतिक विज्ञान के विषयों और जीव विज्ञान के विषयों में स्नातकोत्तर और उच्चतर शिक्षा में दाखिला लेने वाले और उत्तीर्ण करने वाले लोगों की संख्या एक साथ रखी गई है। तुलना करें तो पता चलता है कि स्नातकोत्तर में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक हैं, लेकिन जब शोध संस्थानों या शोध कार्यों में दाखिले की बात आती है तो भौतिक विज्ञान में लिंग-भेद बरकरार है। ध्यान दें कि शोध कार्यक्रमों में दाखिला लेने वालों की संख्या, स्नातकोत्तर उत्तीर्ण करने वालों की संख्या से बहुत कम (बीसवें हिस्से से दसवें हिस्से के बराबर) है। अर्थात, पात्र उम्मीदवारों की संख्या उपलब्ध सीटों की संख्या से 10-20 गुना है। लेकिन 2015-16 के AISHE आंकड़ों के अनुसार भौतिक विज्ञान विषयों के एमफिल और पीएचडी कार्यक्रम में 63 प्रतिशत पुरुष और सिर्फ 37 प्रतिशत महिला छात्र थे।
वर्ष 2011-12 में,
हालांकि कुछ खास
विषयों में लैंगिक-असमानता अधिक देखी गई थी,
लेकिन भौतिक विज्ञान
के विषयों में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में से सिर्फ 41 प्रतिशत और
पीएचडी में दाखिला लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 33 प्रतिशत ही महिलाएं थीं।
तुलना के लिए देखें कि साल 2015-16 में, जीव विज्ञान के विषयों में स्थिति इसके
विपरीत थी: जीव विज्ञान में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 47
प्रतिशत पुरुष थे जबकि 53 प्रतिशत महिलाएं थीं और पीएचडी में प्रवेश लेने वालों
में 54 प्रतिशत महिला और 43 प्रतिशत पुरुष छात्र थे। यही स्थिति 2011-12 में भी थी, जीव
विज्ञान में एमफिल या पीएचडी में दाखिला लेने वाले छात्रों में से महिलाएं लगभग 60
प्रतिशत थीं।
पहले की तुलना में अब पीएचडी में अधिक
महिलाओं के प्रवेश लेने से पीएचडी पूरी करने की वाली महिलाओं की संख्या बढ़ना
चाहिए। AISHE वेबसाइट पर कुछ विशेष सालों के छात्रों का डैटा उपलब्ध नहीं है, साइट
पर 2011 के बाद के विभिन्न वर्षों का उत्तीर्ण करने सम्बंधित डैटा उपलब्ध है।
लेकिन इन आंकड़ों के अनुसार साल 2011-12 जीव विज्ञान में डॉक्टरेट हासिल करने वालों
में से सिर्फ 41 प्रतिशत ही महिलाएं थीं और साल 2015-16 में लगभग 46 प्रतिशत
महिलाएं थीं। कोई अचरज नहीं कि भौतिक विज्ञान में यह लैंगिक-अंतर और भी अधिक था।
2011-12 में, भौतिक विज्ञान में पीएचडी करने वालों में पुरुष 67 प्रतिशत
और महिलाएं केवल 33 प्रतिशत थीं। और 2015-16 में,
भौतिक विज्ञान में
पीएचडी करने वालों में पुरुष 70 प्रतिशत और महिलाएं 30 प्रतिशत थीं।
शोध और शिक्षण में कार्यरत महिलाएं
आंकड़ों को देखें तो जीव विज्ञान की उच्च
शिक्षा में लैंगिक-अंतर कम नज़र आता है लेकिन यह देखना उपयोगी होगा कि इन क्षेत्रों
के रोज़गार में महिलाओं की स्थिति क्या है। इसके लिए हमने देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों
और अनुसंधान/शोध संस्थानों के जीव विज्ञान विभागों में नियुक्ति के आंकड़े देखे।
तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों को जानबूझकर शामिल किया गया था, क्योंकि
ये ‘शोध विश्वविद्यालय’ हैं जहां फैकल्टी के सदस्य बड़ी तादाद में सक्रिय अनुसंधान
कार्य में संलग्न रहते हैं। इन विश्वविद्यालयों में बाहर से वित्त पोषित शोध
प्रोजेक्ट्स भी चलते हैं। यहां के वैज्ञानिक कमोबेश मात्र स्नातकोत्तर या
एमफिल/पीएचडी स्तर के शिक्षण कार्य में लगे होते हैं। दरअसल, पीएचडी
कार्यक्रम इन विश्वविद्यालयों का मुख्य फोकस है। कुछ शोध संस्थान या तो एकीकृत
स्नातकोत्तर-पीएचडी प्रोग्राम या सिर्फ पीएचडी प्रोग्राम संचालित करते हैं, लेकिन
उनमें भी इन कार्यक्रमों के तहत कक्षा-अध्यापन अनिवार्य है। अलबत्ता, जो
लोग भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान वित्तपोषण के परिदृश्य से परिचित हैं वे जानते हैं
कि इन संस्थानों के बीच भी स्पष्ट ऊंच-नीच मौजूद है – अनुसंधान संस्थानों को बेहतर
वित्तपोषण मिलता है और उनका बुनियादी ढांचा बेहतर है। इस तरह हमारे पास तुलना के
लिए दो भिन्न व्यवस्थाओं के आंकड़े उपलब्ध थे। अध्ययन में शामिल संस्थानों में जीव
विज्ञान विभागों में साल 2018 के पूर्व तक रहे लिंगानुपात का पता लगाने के लिए इन
संस्थानों की वेबसाइट पर उपलब्ध डैटा का उपयोग किया। अध्ययन में शामिल शोध
संस्थान/विश्वविद्यालय हैं :
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से सम्बद्ध स्कूल ऑफ लाइफ
साइंसेज़ (SLS), स्कूल ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी (SBT), स्पेशल
सेंटर ऑफ मॉलीक्यूलर मेडिसिन (SCMM);
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
से सम्बद्ध, स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज़ का जैव-रसायन विभाग, पादप
विज्ञान विभाग, प्राणि जीव विज्ञान,
जैव प्रौद्योगिकी और
जैव सूचना विज्ञान (बायोटेक) विभाग। दिल्ली विश्वविद्यालय का जैव-रसायन विभाग, जैव-भौतिकी
विभाग, सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग,
आनुवंशिकी विभाग और
पादप आणविक जीव विज्ञान विभाग।
पुणे, कोलकाता,
त्रिवेंद्रम और
मोहाली स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (IISER) के जीव विज्ञान विभाग। प्रत्येक IISER एक स्वायत्त संस्थान है और भारतीय संसद
द्वारा 2010 में पारित एनआईटी अधिनियम के अनुसार डिग्री प्रदान कर सकता है।
भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) का जैव रसायन विभाग, आणविक
जैव-भौतिकी इकाई, आणविक प्रजनन, परिवर्धन एवं आनुवंशिकी विभाग, सूक्ष्मजीव
विज्ञान और कोशिका जीव विज्ञान विभाग। IISc यूजीसी अधिनियम के अनुसार एक डीम्ड
युनिवर्सिटी है।
वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) देश के अनुसंधान और विकास कार्यों में तेज़ी लाने के उद्देश्य से गठित किया
गया था। एक समय में CSIR के संस्थान विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध होकर छात्रों को
पीएचडी की उपाधि देते थे। 2010 के बाद से ये संस्थान एकेडमी फॉर साइंटिफिक एंड
इनोवेटिव रिसर्च (AcSIR) से सम्बद्ध हैं। इस अध्ययन में CSIR द्वारा वित्त पोषित
अनुसंधान संस्थानों में से कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी (IICB), चंडीगढ़ स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी
(IMTech), हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी
(CCMB), लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (NBRI), और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव
बायोलॉजी (IGIB) शामिल हैं।
DBT द्वारा वित्त पोषित
अनुसंधान संस्थान भी इस अध्ययन में शामिल किए गए हैं: दिल्ली स्थित नेशनल
इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी (NII),
मानेसर स्थित नेशनल
ब्रेन रिसर्च इंस्टीट्यूट (NBRC)।
मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) का जीव विज्ञान विभाग और बैंगलुरु स्थित नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़
(NCBS)। इस अध्ययन में inSTtem और CCAMP संकाय के शिक्षकों को शामिल नहीं किया गया
है।
इन संस्थानों से प्राप्त आंकड़ों को देखें
तो पता चलता है कि TIFR और NCBS को छोड़कर बाकी अन्य संस्थानों में महिलाएं
30 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। इन संस्थानों में बतौर वैज्ञानिक/शिक्षक लगभग 27
प्रतिशत महिलाएं और 73 प्रतिशत पुरुष हैं।
यह समझना महत्वपूर्ण था कि क्या इन
संस्थानों किन्हीं खास पदों पर भिन्न स्थिति दिखती है। इसके लिए एक विश्लेषण हरेक
संस्थान/विभाग के अलग-अलग स्तर के पदों का किया गया। यह देखते हुए कि पिछले कुछ
वर्षों में महिलाओं के प्रवेश लेने और उत्तीर्ण करने की संख्या में सुधार हुआ है, यह
उम्मीद थी कि भले ही वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद काफी अधिक दिखे लेकिन प्रवेश स्तर की
नौकरियों पर तो कम से कम लिंगानुपात की यह खाई कम हुई होगी। यानी CSIR संस्थानों में हमें सीनियर प्रिंसिपल साइंटिस्ट या चीफ साइंटिस्ट के पद की
तुलना में सीनियर साइंटिस्ट और साइंटिस्ट के पदों पर लिंगानुपात में अंतर कम दिखना
चाहिए। नियमित पदों के अलावा अध्ययन में शामिल,
जे. सी. बोस फेलोशिप
पाने वाले आम तौर पर सीनियर साइंटिस्ट होते हैं और ये सेवानिवृत्त वैज्ञानिक भी हो
सकते हैं। चूंकि यह एक फेलोशिप है, इसलिए यह सभी संस्थानों में नहीं होती।
एमेरिटस प्रोफेसर, सेवानिवृत्त वरिष्ठ शिक्षक होते हैं और वे भी हर संस्थान
में नहीं होते। डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप (ECF), डीएसटी-इंस्पायर
आदि एक निश्चित अवधि की फेलोशिप हैं, जो नियमित पद नहीं दर्शाते। हम इन फेलोशिप
पर बाद में लौटेंगे।
प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि CSIR संस्थानों में सभी पदों पर महिलाओं की उपस्थिति समान रूप से कम है। यहां तक
कि साइंटिस्ट या सीनियर साइंटिस्ट जैसे प्रवेश स्तर के पदों पर भी महिलाओं की
उपस्थिति 30 प्रतिशत से कम है।
क्या DST/DBT से वित्त पोषित संस्थानों में स्थिति अलग
है? इसे जांचने के लिए हमने DST/DBT से वित्त पोषित दो संस्थानों, NII और NBRC, से
प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया। हमने पाया कि यहां भी वरिष्ठ पदों (VI-VII ग्रेड के वैज्ञानिक)
पर महिला वैज्ञानिकों की तुलना में पुरुष वैज्ञानिक अधिक थे। और तो और, साइंटिस्ट
पदों (IV-V
ग्रेड के वैज्ञानिक) पर भी पुरुषों का पलड़ा भारी था।
जैसा कि पहले भी बताया गया है, DAE द्वारा संचालित TIFR और NCBS में स्थिति अलग है।
यहां प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर महिलाओं की संख्या अधिक दिखती है।
क्या वे संस्थान जो मास्टर और पीएचडी
कार्यक्रम भी चलाते हैं (और इस वजह से उनमें शिक्षण/अनुसंधान विभाग हैं) उनमें
महिलाओं की स्थिति अलग है? यह देखना इसलिए भी दिलचस्प होगा क्योंकि
शुरुआत में महिलाओं के लिए पहचाने गए ‘उपयुक्त’ कार्यों में से एक शिक्षण था। इस
विश्लेषण में ना सिर्फ IISc और DU, JNU और HCU जैसे पुराने विश्वविद्यालय या संस्थान शामिल हैं बल्कि IISER जैसे नए संस्थान भी शामिल हैं। इन नए संस्थानों में भर्तियां भले ही वरिष्ठ
पदों के लिए की गर्इं हों, लेकिन इन भर्तियों से हमें मौजूदा रुझानों
का अंदाज़ा मिलेगा। गौरतलब है कि IISc और IISERs
स्वयं को अनुसंधान संस्थान मानते हैं, ना कि विश्वविद्यालय। उनकी वेतन संरचना, शिक्षकों
की स्वायत्तता और कार्य परिवेश केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बहुत अलग है।
IISc में, जीव विज्ञान से सम्बंधित विभागों में महिलाओं की संख्या 20
प्रतिशत से कम है। जैसी कि उम्मीद थी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर लिंग-अंतर
अधिक था। लेकिन प्रवेश-स्तर के पद, असिस्टेंट प्रोफेसर, पर
तो यह अंतर और भी अधिक था।
सबसे हाल में स्थापित हुए संस्थान IISER में प्रोफेसरों की संख्या कम है। IISER कोलकाता में सिर्फ एक महिला प्रोफेसर थी
और इस पद पर पुरुष नियुक्तियां नहीं थी। अन्य तीन IISER संस्थानों में
प्रोफेसर के पद पर सिर्फ पुरुष कार्यरत थे और एक भी महिला इस पद पर नहीं थी। सभी IISER संस्थानों में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही वर्चस्व था। कोलकाता IISER को छोड़कर बाकी तीनों में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर भी महिलाओं की संख्या
बहुत कम थीं। कोलकाता IISER में प्रवेश स्तर के पद (असिस्टेंट प्रोफेसर) के पद पर
लिंगानुपात ठीक था।
JNU में प्रोफेसर के पद पर पुरुषों की ही भरमार थी और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों
पर भी झुकाव थोड़ा पुरुषों के प्रति था, हालांकि यह उतना अधिक नहीं था।
दिल्ली युनिवर्सिटी के लाइफ साइंस संकाय
में प्रोफेसर व एसोसिएट प्रोफेसर पदों पर पुरुषों की अधिक संख्या दर्शाती है कि
वहां भी यही स्थिति है। हालांकि असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर महिलाओं की स्थिति
बेहतर दिखती है। यहां का डिपार्टमेंट ऑफ जेनेटिक्स एक अपवाद की तरह दिखता है जहां
महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हैं।
HCU में भी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही दबदबा दिखता है।
बायोटेक्नॉलॉजी और बायोइंफॉरमेटिक्स विभाग को छोड़कर बाकी अन्य विभागों में अपवाद
स्वरूप असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर लैंगिक-संतुलन बेहतर दिखता है। इनमें भौतिक
विज्ञान विभाग के आंकड़ों को शामिल कर लिया जाए तो यह लैंगिक खाई और भी चौड़ी हो
जाती है।
आंकड़े बताते हैं कि विज्ञान अध्ययन शालाओं
में भौतिक विज्ञानों में महिलाओं की तुलना में पुरुष काफी अधिक हैं।
विभिन्न संस्थानों के जीव विज्ञान संकाय के
शिक्षक सम्बंधी डैटा देखें पता चलता है कि –
TIFR और NCBS को छोड़कर शेष सभी शोध संस्थानों के वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद झलकता है।
इन शोध संस्थानों के प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर
भी लिंग-भेद झलकता है, यहां भी TIFR और NCBS अपवाद हैं।
IISc और IISER दोनों संस्थानों के वरिष्ठ और प्रवेश स्तर,
दोनों पदों पर लैंगिक
अंतर काफी अधिक है। यह IISc जैसे पुराने संस्थान के जीव विज्ञान
विभागों में भी झलकता है, और IISER जैसे नए संस्थानों
में भी है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था,
इन संस्थानों की
पहचान शिक्षण संस्थान के रूप में होने के बावजूद इन संस्थानों की आत्म-छवि, वित्त
व्यवस्था और शिक्षकों की स्वायत्तता शोध संस्थानों जैसी है, इसलिए
हो सकता है कि इन संस्थानों में नियुक्तियों का पैटर्न भी शोध संस्थानों जैसा हो।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश-स्तर के पदों पर तो
महिला-पुरुष की संख्या में बहुत कम अंतर दिखता है लेकिन वरिष्ठ पदों पर, उम्मीद
के मुताबिक, पुरुष ही अधिक दिखते हैं। जबकि ये संस्थान ऐसे संस्थान हैं
जहां स्पष्ट रूप से शोध या अनुसंधान कार्यों के साथ शिक्षण कार्य भी ज़रूरी है। इन
संस्थानों में मुख्य ज़ोर शिक्षण कार्य पर
होता है।
नियुक्तियों में झलकने वाला यह लिंग-भेद
क्या दर्शाता है? क्या यह वास्तव में समाज में व्याप्त लिंग पूर्वाग्रहों का
परिणाम है, खासकर भारतीय परिवारों में,
जहां माता-पिता अपनी
बेटियों को कैरियर-उन्मुख विज्ञान कार्यक्रमों में दाखिला लेने की अनुमति नहीं
देते या प्रोत्साहित नहीं करते? या,
क्या यह इसलिए है
क्योंकि महिलाएं पर्याप्त प्रतिभा नहीं रखतीं या कम महत्वाकांक्षी हैं? या, क्या
महिलाएं ऐसे पदों को चुनती हैं जहां शोध कार्य की बजाय शिक्षण पर अधिक ज़ोर होता है? या, क्या
उन्हें उन दरबानों और चयन प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ता है जो पूर्वाग्रहों के
चलते शोध या अनुसंधान पदों पर तो पुरुषों का चुनाव करते हैं लेकिन शिक्षण पदों पर
महिलाओं के साथ कम भेदभाव करते हैं? या क्या यह इन सभी का मिला-जुला परिणाम है?
इस संदर्भ में उपलब्ध डैटा जटिल लग सकता है
लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। इसे समझने के लिए हमने पिछले सात सालों में दो
सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी प्रारंभिक कैरियर रिसर्च फैलोशिप,
DST-INSPIRE फैकल्टी स्कीम और भारत एलायंस डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप, पाने
वालों के लैंगिक डैटा को खंगाला। ये फैलोशिप (पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च अवार्ड्स) 5
साल की निश्चित अवधि के लिए दी जाती हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि 2013 के बाद से
इन्हें पाने वालों में महिलाओं की संख्या बढ़ी है और किन्हीं-किन्हीं सालों में तो
यह पुरुषों से अधिक भी है। इसका एक संभावित कारण यह हो सकता है कि ये फैलोशिप एक
नियमित पद प्रदान नहीं करतीं इसलिए ये पुरुषों को इतना आकर्षित नहीं करतीं।
हालांकि, यह कारण असंभव सा जान पड़ता है क्योंकि इन फैलोशिप को पाना, कैरियर
में उन्नति करने में मदद करता है और नियमित पदों पर दावेदारी की संभावना बढ़ाता है।
इसकी ज़्यादा संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि वर्तमान पीढ़ी में जीव विज्ञान में
प्रवेश करने वाली महिलाएं शीर्ष पर पहुंचने के लिहाज़ से वाकई पर्याप्त सक्षम और
महत्वाकांक्षी हैं।
सहकर्मी मान्यता और पुरस्कार
अब सवाल यह उठता है कि मान्यता और
पुरस्कारों के मामले में महिलाएं कितना आगे बढ़ पाई हैं?
यहां विशेषकर यह
बताना उचित होगा कि 2000 के बाद से कई भारतीय विज्ञान अकादमियों ने लैंगिक समावेश
के लिए कई अध्ययन, उच्च कोटि की कार्यशालाएं और जागरुकता सत्रों का आयोजन
करवाया है। तो यही देखें कि विज्ञान अकादमियों में महिलाओं के चयन की क्या स्थिति
है? उदाहरण के लिए भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) में विभिन्न विषयों में चयनित महिला सदस्यों (फेलो) के आंकड़ों को ही लें। हम
पाते हैं कि अधिकांश विषयों में, लैंगिक-समानता ना केवल एक दूर का सपना है
बल्कि सक्रिय दखल दिए बिना इस लैंगिक-खाई को पाटना शायद संभव ना होगा। वैसे, जीव
विज्ञान में महिलाओं की स्थिति, अन्य विषयों से थोड़ी बेहतर दिखती है।
ऐसी ही निराशाजनक स्थिति प्रतिष्ठित
पुरस्कारों में भी दिखती है। जैसे, वर्ष 1958 में शुरु किए गए शांति स्वरूप
भटनागर पुरस्कार (जो विज्ञान के सात विषयों के लिए दिए जाते हैं) और हाल ही में
शुरू किए गए इन्फोसिस पुरस्कार (जो साइंस और इंजीनियरिंग के 4 विषयों में दिए जाते
हैं) की स्थिति पर गौर कीजिए। 2016 तक इन पुरस्कार को पाने वाले कुल 525 लोगों में
सिर्फ 16 महिलाएं (यानी 3.04 प्रतिशत) थीं। 2017 में पुरस्कृत लोगों की कुल संख्या
535 हो चुकी थी लेकिन इनमें महिलाओं की संख्या 16 (यानी 2.99 प्रतिशत) रह गई थी।
साल 2017 तक इंजीनियरिंग और कम्प्यूटर साइंस में इन्फोसिस पुरस्कार प्राप्त करने
वाले आठ लोगों में से केवल एक महिला थी, लाइफ साइंस में पुरस्कृत नौ में 2 महिलाएं
थीं और भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत नौ लोगों में सिर्फ एक महिला थी।
पूरे विश्व में समकक्ष लोगों द्वारा
मान्यता के रुझान बताते हैं कि दुर्भाग्यवश,
यह समस्या वैश्विक
है। साल 2017 में नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक शोध पत्र में केपलर और
उनके साथियों ने इस बात का विश्लेषण किया था कि महिलाओं द्वारा लिखित शोध पत्रों
और पुरुषों द्वारा लिखित शोध पत्रों को कितनी बार अन्य शोध पत्रों में उद्धरित
किया जाता है। इसके लिए उन्होंने 1950 से 2015 के बीच 5 मुख्य एस्ट्रोनॉमी जर्नल्स
में प्रकाशित 1,50,000 लेखों का विश्लेषण किया था। उन्होंने पाया कि पुरुषों की
तुलना में महिलाओं द्वारा लिखे गए पर्चों को लगभग 10 प्रतिशत कम उद्धरण प्राप्त
हुए।
साल 2018 में प्लॉस बॉयोलॉजी में
प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में हॉलमैन और उनके साथियों ने इस बात की जांच की कि
वैज्ञानिक शोध दलों की अगुवाई करने वालों में कितनी महिलाएं दिखती हैं। इसे जांचने
के लिए उन्होंने वैज्ञानिक शोध पत्रों के मुख्य लेखक या पत्राचार करने वाले लेखक
के जेंडर का विश्लेषण किया। उन्होंने साल 2002 से अब तक पबमेड में प्रकाशित
लगभग 91.5 लाख शोध पत्रों के लगभग 3.5 करोड़ लेखकों और 1991 से अब तक arXiv preprints में प्रकाशित 5 लाख शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उनका
निष्कर्ष था कि भौतिकी विषय में लैंगिक समता लाने में अभी 258 साल और लगेंगे, और
जीव विज्ञान में भी 75 साल से भी अधिक वक्त लगेगा। उन्होंने यह भी पाया कि पुरुषों
की तुलना में महिलाओं को शोध पत्र लिखने के लिए कम ‘आमंत्रित’ किया जाता है। जीव
विज्ञान प्रबंधक विशेषज्ञ खोजने वाली एक कंपनी लिफ्टस्ट्रीम ने एक अध्ययन किया था
और बताया था कि बायोटेक प्रबंधन समितियों में महिलाओं को इसलिए कम आंका जाता है
क्योंकि वहां आसीन पुरातन-सोच वाले पुरुष मौजूद हैं जो इन पदों पर महिलाओं को
शामिल नहीं करते, और यदि यहि रफ्तार रही तो साल 2056 तक इन स्थानों पर लैंगिक
समानता नहीं आ सकेगी।
विज्ञान में लैंगिक ढांचा और पूर्वाग्रह
लिंग (जाति भी) सूक्ष्म और व्यापक दोनों
स्तरों पर पारस्परिक सम्बंधों और संस्थागत ढांचों,
दोनों को प्रभावित
करता है। लैंगिक ताना-बाना सांस्कृतिक पूर्वाग्रह भी बनाता है कि किसी स्थिति में
हम कैसी प्रतिक्रिया देंगे, या किसी अन्य व्यक्ति से कैसी प्रतिक्रिया
की उम्मीद रखेंगे। इसके बाद संस्थागत सांस्कृतिक कायदे बनाए जाते हैं ताकि जेंडर
आचार संहिता के उल्लंघन पर दंड दिया जा सके या उस व्यवहार को हतोत्साहित किया जा
सके।
2012 में येल के मॉस-रेकुसिन और उनके
साथियों का एक बहुत ही दिलचस्प डबल-ब्लाइंड अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में प्रकाशित हुआ था। इसमें नियुक्ति के समय
वैज्ञानिकों की लैंगिक पहचान के प्रति ‘निष्पक्षता’ को जांचा गया था। 127 विज्ञान
शिक्षकों (पुरुष और महिला दोनों) को लैब मैनेजर के पद के लिए लिखे गए दो में से एक
आवेदन दिया गया था। दोनों आवेदन एकदम समान थे,
एकमात्र अंतर लिंग
(जॉन बनाम जेनिफर) का था। वैज्ञानिकों को योग्यता,
नियुक्ति की पात्रता, संभावित
वेतन और मार्गदर्शन करने की क्षमता के आधार पर आवेदकों को अंक देने के लिए कहा गया
था। अध्ययन में उन्होंने पाया कि पुरुष आवेदक को ना केवल योग्यता, नियुक्ति
की पात्रता और मार्गदर्शन करने की क्षमता के संदर्भ में उच्च आंका गया बल्कि उसे
महिला आवेदक की तुलना में अधिक वेतन का भी प्रस्ताव दिया गया (30,238.10 डॉलर बनाम
26,507.94 डॉलर)। चयनकर्ता के महिला या पुरुष होने का उनके आकलन पर कोई असर नहीं
दिखा; पुरुष चयनकर्ता की तरह महिला चयनकर्ता ने भी, पुरुष
आवेदक को महिला आवेदक से अधिक आंका।
अब यह बात व्यापक रूप से स्वीकार कर ली गई
है कि विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न लिंगों के छात्रों में रूढ़ छवियां
(स्टीरियोटाइप) और अनजाने में बने लैंगिक पूर्वाग्रह होते हैं। इस बारे में गंभीर
खोजबीन जारी है कि ये काम कैसे करते हैं। साल 2015 में हैंडले द्वारा पीएनएएस में
प्रकाशित एक अध्ययन में यह विचार किया गया था कि विज्ञान में लैंगिक पूर्वाग्रह के
प्रमाणों का मूल्यांकन महिला और पुरुष कैसे अलग-अलग करते हैं। उन्होंने कुल तीन
डबल-ब्लाइंड अध्ययन किए – दो समूह आम लोगों के थे जबकि एक समूह विश्वविद्यालय
फैकल्टी का था जिसमें STEM (साइंस, टेक्नॉलॉजी,
इंजीनियरिंग और
मेथेमेटिक्स) और non-STEM दोनों विषयों के लोग थे। यहां हम सिर्फ यह देखेंगे कि STEM और non-STEM विषय के 205 लोगों को जब मॉस-रेकुसिन के शोध पत्र का सारांश मूल्यांकन के लिए
दिया गया तो उनकी क्या प्रतिक्रिया रही। उन्हें non-STEM विषयों के पुरुष और महिला शिक्षकों की
प्रतिक्रियाओं में कोई खास अंतर नहीं दिखा। दूसरी ओर,
STEM विषय की महिलाओं की तुलना में STEMसंकाय के पुरुषों ने सारांश को कमतर आंका। non-STEM विषय के सारे लोगों द्वारा किए गए मूल्यांकन और STEM विषय की महिलाओं
द्वारा किए गए मूल्याकंन में भी कोई खास अंतर नहीं था। इन नतीजों के आधार पर
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष था कि यह इस वजह से नहीं है कि STEM विषय की महिलाओं ने
अतिशयोक्ति पूर्ण आकलन दिया बल्कि इसलिए है कि STEM विषय के पुरुष अपने
कार्यक्षेत्र में लिंग पूर्वाग्रह की संभावना को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते; यदि
वे इसे स्वीकार करेंगे तो हो सकता है कि उन्हें प्राप्त विशेष दर्जे पर सवाल उठ
जाएं।
2010 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस
स्टडीज़ के सहयोग से इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की अनीता कुरुप और उनके साथियों
द्वारा किए गए प्रशिक्षित वैज्ञानिक महिला कर्मियों के सर्वेक्षण में कुछ चौंकाने
वाले निष्कर्ष सामने आए थे। उनके अध्ययन में 794 पीएचडी कर चुके लोग शामिल थे, जिसमें
लगभग 40 प्रतिशत पुरुष थे। शोधकर्ताओं ने इन लोगों को चार श्रेणियों में बांटा था:
अनुसंधान में संलग्न महिलाएं (WIR),
अनुसंधान ना करने
वाली महिलाएं (WNR), काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) और अनुसंधान में
संलग्न पुरुष (MIR)। पता चला कि पीएचडी करने वाली 87 प्रतिशत महिलाओं ने विज्ञान में काम करना
जारी रखा, लेकिन इनमें से लगभग 63 प्रतिशत महिलाएं ही शोध कार्य (WIR) कर रहीं थीं। बाकी महिलाओं का शोध कार्य में ना होने का सबसे प्रमुख कारण था
नौकरी ना मिलना। काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) नियमित पद ना मिलने
या केवल अस्थायी पद मिलने के कारण विज्ञान के क्षेत्र में कैरियर बनाने से पीछे हट
गई थीं। यह स्थिति विशेष रूप से उन महिलाओं के साथ थी जिनके पति उसी या उसके
प्रतिस्पर्धी वैज्ञानिक क्षेत्रों में पीएचडी थे,
या वैज्ञानिक
अनुसंधान में संलग्न थे। इन महिलाओं को मिलने वाली नौकरी की अस्थायी प्रकृति ने
अक्सर परिवार की ज़रूरतों, जैसे बुज़ुर्र्ग या बच्चों की देखभाल, के
लिए इन्हें ही घर पर रहने को मजबूर किया। दिलचस्प बात यह है कि शोधकार्य करने वाली
महिलाओं में से 14 प्रतिशत महिलाओं ने शादी नहीं की थी जबकि शोधकार्य करने वाले
केवल 2.5 प्रतिशत पुरुषों ने शादी नहीं की थी। यह भी पता चला कि प्रति सप्ताह
प्रयोगशाला में 40-60 घंटे बिताने वालों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं (WIR) की संख्या अधिक थी। और कई पुरुषों ने उनके बच्चे बड़े होने पर प्रयोगशाला में
सप्ताह में 40 घंटे से भी कम समय बिताया। फिर भी महिलाओं के प्रति यह रूढ़िवादी सोच
बनी हुई है कि महिलाएं शोध के लिए प्रतिबद्ध नहीं होती या उनमें परिवार और कैरियर
की प्राथमिकता को लेकर द्वंद्व चलता रहता है।
विज्ञान अकादमियों और वित्त पोषण एजेंसियों
की पहल
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, सदी
की शुरुआत में भारत की कई विज्ञान अकादमियों ने विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की
अनुपस्थिति, उनको मान्यता में कमी जैसे मुद्दों को पहचाना, और
यथास्थिति को बदलने के लिए आवश्यक कदम उठाने की शुरुआत कर दी थी। लेकिन ये कदम
कितने प्रभावी रहे? 2004 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) की रिपोर्ट के बाद नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS) और इंडियन एकेडमी
ऑफ साइंसेज़ (IAS) ने कार्यशालाएं आयोजित की और विज्ञान में महिलाओं को शामिल करने के लिए कई
पहल की। साल 2005 में DST ने विज्ञान में महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स
की स्थापना की। ये ठोस कदम विज्ञान में महिला मुद्दों को सामने लाए और इनसे इन
क्षेत्रों में महिलाओं के दाखिले और नियुक्ति के बीच की खाई (यानी तथाकथित रिसाव
की समस्या) को पहचानने में मदद मिली। अकादमियों ने नियुक्ति प्रक्रियाओं की
दिक्कतों, पारंपरिक घरेलू व्यवस्था में महिलाओं के ऊपर पड़ने वाले
दोहरे बोझ और वरिष्ठ पदों या निर्णायक पदों पर महिलाओं की अनुपस्थिति पहचानी।
महिलाएं विज्ञान क्षेत्र को बतौर पेशा चुनें,
इसे प्रोत्साहित करने
के लिए DST ने, इस क्षेत्र में काम करने की परिस्थितियों में सुधार की
सिफारिशें की हैं। जैसे, उनके लिए लचीली समय व्यवस्था, बच्चों
के लिए झूलाघर, सुरक्षित परिवहन, कैंपस आवास,
फेलोशिप, और
जागरूकता कार्यक्रम आदि।
लागू करने के लिए इनमें से सबसे आसान सुझाव
था फेलोशिप योजनाएं, जो किसी भी तरह से यथास्थिति को चुनौती नहीं देतीं। उदाहरण
के लिए DST की महिला वैज्ञानिक योजना को ही लें। यह कार्यक्रम उन पीएचडी धारी महिलाओं को
अनुसंधान कार्यों में वापस जोड़ने के लिए चलाया गया था जिनके कैरियर में किन्हीं
कारणों से अंतराल आ गया था। लेकिन उनके लिए नियमित रोज़गार के अवसर प्रदान करने की
योजना के बिना, ऐसी अधिकांश योजनाएं सिर्फ एक,
अनिश्चित वादे के साथ, पोस्ट-डॉक्टरल
फेलोशिप भर बनकर रह गर्इं। कई साल पहले 1984 में,
UGC ने तकनीकी रूप से प्रशिक्षित लोगों को आकर्षित करने और इस क्षेत्र में बनाए
रखने के लिए रिसर्च साइंटिस्ट स्कीम शुरू की थी। विदेश में अच्छे पदों पर कार्यरत
कई लोग इस स्कीम का लाभ पाने के लिए देश लौट आए थे। 1999 आते-आते UGC इस योजना को जारी रखने का इच्छुक नहीं था,
और इस योजना से
सम्बंधित मेज़बान संस्थान इन शोध वैज्ञानिकों को अपने यहां लेने के लिए तैयार नहीं
थे। कई UGC-शोध वैज्ञानिक कानूनी कार्रवाइयों की मदद से सेवानिवृत्ति तक अपने पद पर बने
रह सके जबकि कई लोगों ने इन संस्थानों में वैमनस्य का सामना किया। यही हश्र 2008
में शुरू हुए DST-INSPIRE फैकल्टी प्रोग्राम या 2013 में शुरू हुए यूजीसी फैकल्टी रिचार्ज प्रोग्राम का
भी होता दिख रहा है, यदि मेज़बान संस्थान इन कार्यक्रमों के तहत नियुक्त किए गए शिक्षकों
को फंडिंग खत्म होने के बाद भी अपने संस्थानों में रखने का कोई तरीका नहीं निकाल
लेते।
दुर्भाग्य से,
अक्सर फंडिंग योजनाओं
की घोषणा शीर्ष स्तर से की जाती है। पुरानी योजनाओं के सटीक आकलन करने वालों और
संस्थानों के बीच इस पर चर्चा की कमी रहती है। यहां,
विभिन्न फंडिंग
एजेंसियों द्वारा शुरु किए गए पीएचडी अनुसंधान योजनाओं के हितधारकों के साथ
बमुश्किल ही कोई उचित चर्चा होती है, और नौकरशाह अक्सर इन कार्यक्रमों को अपने
नियंत्रण में रखते हैं और हितधारकों के हाथ में कुछ नहीं होता।
इससे भी अधिक मुश्किल है ऐसे कार्यक्रमों
या समाधानों को लागू करना जो स्थापित एकछत्र सत्ता को चुनौती देते हैं। इस देश में
कई वर्ष एक छात्र के रूप में और अलग-अलग संस्थानों में एक शिक्षक के रूप में
बिताने के बाद, आज भी मैं ऐसे किसी लैंगिक संवेदीकरण कार्यक्रम के बारे में
नहीं जानती जो विज्ञान-कर्मियों, छात्रों या शिक्षकों के लिए स्वैच्छिक या
अनिवार्य रूप से चलाया जाता हो। मैंने ऐसे कई कार्यक्रमों में भाग लिया है, जिनका
उद्देश्य विज्ञान में कैरियर के लिए अधिक महिलाओं को आकर्षित करना है, लेकिन
इनमें से एक भी कार्यक्रम ऐसा नहीं रहा जो गंभीरता से विज्ञान के विभागों या
संस्थानों को ज़्यादा समावेशी, ज़्यादा विषमांगी बनाने पर मंथन करता है।
मैंने शायद ही कभी किसी संस्थान को इन कार्यशाला की सिफारिशों को अपनाते देखा है, और
आकलन करते देखा है कि ये कदम कितने सफल रहे?
अधिकांश
संस्थानों/विभागों में, यहां तक कि जीव विज्ञान विभाग में (जहां पीएचडी प्रवेश में
लैंगिक-अनुपात अब उलट चुका है) आज भी औसतन केवल 25 प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। कुछ
संस्थान महिलाओं को शिक्षकों के तौर पर नियमित करने वाली नीतियों की वकालत करते
हैं, या लचीले समय की सुविधा या आवास सुविधा देने का वायदा करते
हैं। लेकिन इस सबके बावजूद, अनीता कुरुप और उनके साथियों का अध्ययन
बताता है कि ये सब महिलाओं में उनके कैरियर के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं
लाती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं विवाहित थीं और अपने परिवार के साथ रहती थीं
जहां बच्चों या बुज़ुर्गों की देखभाल उनकी ही ज़िम्मेदारी रहती है। इनके लिए कुछेक
संस्थान ही अच्छे झूलाघर या सुरक्षित परिवहन जैसी सहायता मुहैया करा सके। इनमें से
अधिकांश संस्थानों में आज भी यही स्थिति है। लचीले समय की सुविधा देने की बजाय कई
संस्थाओं ने अधिक बाज़ारोन्मुख, और मुनाफा केंद्रित तरीके अपनाएं हैं जिसके
चलते कार्यस्थल पर उपस्थिति के अधिक कठोर नियम बने हैं। जैसे आधार-लिंक्ड
बायोमेट्रिक्स प्रणाली, जिससे महिला वैज्ञानिकों को और भी मुश्किल हालात का सामना
करना पड़ता है।
यह हमारे सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है कि
क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि ये नीतियां कौन बनाता है? क्या
इससे फर्क पड़ता है कि हितधारक कौन है? या क्या ‘स्थान’ (location) पूरी तरह
अप्रासंगिक है? इसे समझने के लिए हम UGC की महिलाओं को
विज्ञान अनुसंधान कार्यों की ओर आकर्षित करने के लिए बनाई हालिया नीति को देखते
हैं। यूजीसी नियमन 2016 के अनुच्छेद 4.4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “महिलाओं
और 40 प्रतिशत से अधिक विकलांगता वाले उम्मीदवारों को एमफिल पूरी करने के लिए
अधिकतम एक साल और पीएचडी पूरी करने के लिए अधिकतम दो साल की अवधि की छूट दी जा
सकती है। इसके अलावा, महिला उम्मीदवारों को एमफिल/पीएचडी के दौरान एक बार 240
दिनों का मातृत्व अवकाश या बाल देखभाल अवकाश दिया जा सकता है।” पहली नज़र में, यह
पहल महिलाओं को उनकी पीएचडी पूरी करने में मदद करने की नज़र से बहुत ही उदार लगती
है, इससे हमारे पास नियुक्त करने के लिए प्रशिक्षित लोगों का एक
बड़ा पूल तैयार होगा। सभी महिलाएं, चाहे वे विवाहित हों या ना हों, अपनी
पीएचडी पूरी करने के लिए दो अतिरिक्त वर्षों की हकदार हैं। यदि महिलाओं को 40
प्रतिशत विकलांग लोगों के समकक्ष देखना अपमानजनक ना भी लगे तो जिन लोगों ने इस नीति को बनाया है उन्होंने इससे एक कदम आगे जाकर
बच्चों की देखभाल का सारा बोझ महिलाओं के कंधों पर डाल दिया है। और तो और, शादी
और उससे जुड़े समझौतों का सारा बोझ भी महिलाओं पर डाल दिया है। यूजीसी रेग्यूलेशन
2016 का अनुच्छेद 6.6 कहता है कि “विवाह या अन्य किसी कारण से यदि महिला को
एमफिल/पीएचडी स्थानांतरण करना पड़े तो, रेग्यूलेशन में उल्लेखित सभी
सुविधाओं/शर्तों के साथ अनुसंधान डैटा उस युनिवर्सिटी को हस्तांतरित करने की
अनुमति होगी जिसमें वे जाने का इरादा रखती हैं,
और यह अनुसंधान मूल
संस्थान या मार्गदर्शक का नहीं कहलाएगा। हालांकि,
पीएचडी करने वाले को
मूल मार्गदर्शक और शोध संस्था को उचित श्रेय देना होगा।” इन नियमों को देखते हुए, क्या
यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि विज्ञान में शोध पर्यवेक्षक (चाहे पुरुष हो या
महिला) अपनी प्रयोगशाला में पुरुष की बजाय किसी महिला शोधार्थी को पीएचडी के लिए
वरीयता देंगे?
जैसा कि पहले ही बताया गया था कि विज्ञान
क्षेत्र में महिलाओं की कमी, प्रशिक्षित महिलाओं की कमी के कारण नहीं
है। इस क्षेत्र में बाधाएं अक्सर इसके बाद आती हैं – रोज़गार के अवसरों की कमी, बुनियादी
सुविधाओं की कमी और संस्थानों द्वारा सहयोग में कमी,
ये सब मिलकर महिलाओं
को इस क्षेत्र से बाहर रखते हैं। ऐसी नीतियां जो उन्हीं लोगों को शामिल नहीं करतीं
जिनके लिए वे बनाई जा रही हैं, तो अंतत: अक्सर उन लोगों के जीवन और
अनुभवों में कोई खास परिवर्तन नहीं आता है जिन्हें ध्यान में रखकर वे बनाई गई थीं।
लेकिन बात तो तब बिगड़ जाएगी जब अंत में कोई नीति उनके लिए ही विनाशकारी या
अहितकारी साबित हो जिनके हित में यह बनाई गई है।
इसके अलावा,
इसमें शामिल संस्थाओं
के ढांचे में बदलाव किए बिना इन नीतियों को लागू करना,
विपरीत परिणाम दे
सकता है और परिणामस्वरूप व्याप्त रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों को मज़बूत कर सकता है। यह
स्पष्ट है कि क्यों कई महिलाएं लिंग आधारित आरक्षण को लेकर शंका व्यक्त करती हैं, या
कई महिलाएं लचीली समय सुविधा लेने में या प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में जहां पुरुषों
की अधिकता है वहां घर से काम करने की सुविधा लेने में हिचकती हैं। अंतर्निहित लैंगिक
सोच संस्था के ढांचे में झलकता है। इस प्रकार,
इन संस्थाओं के ढांचे
में सक्रिय बदलाए किए बिना, हम उन्हीं को दोहराने की संभावना बनाते
हैं। जैसा कि IISERs जैसे संस्थान को देख कर समझ आता है कि क्यों इन नए संस्थानों में भी पुराने
संस्थानों जैसा ही लैंगिक असंतुलन दिखाई देता है।
निष्कर्ष के तौर पर
पिछले सत्तर सालों में भारत के विज्ञान
परिदृश्य में बहुत कुछ बदला है। आज़ादी के बाद,
भारत ने विज्ञान
शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काफी संसाधन लगाए हैं। साठ के दशक के मध्य से विज्ञान
में लिंग समानता बढ़ाना भी इसके उद्देश्यों में से एक है। वैश्विक और राष्ट्रीय
दोनों स्तरों पर ही विज्ञान के विभिन्न कामों और वैज्ञानिक संस्थानों की आंतरिक
प्रक्रियाओं में भी काफी बदलाव आए हैं। शायद इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण
सकारात्मक उपलब्धि है कि विज्ञान में अध्ययन और शोध में प्रवेश लेने वाली महिलाओं
की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। और यह केवल विज्ञान के कुछ विषयों या देश
के कुछ हिस्सों तक ही सीमित नहीं है। पुरुषों की तुलना मे उच्च शिक्षा के हर
क्षेत्र में लगातार महिलाओं के दाखिला लेने और उत्तीर्ण होने की संख्या बढ़ रही है।
साठ के दशक में विज्ञान के अधिकांश विषयों में महिलाओं की पूर्ण अनुपस्थिति को
देखें तो वर्तमान स्थिति तक आना सराहनीय बात है। जैसा कि कई लोगों ने कहा है, बीसवीं
शताब्दी के सामाजिक सुधार और उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष,
दोनों ने एक ऐसा
इतिहास रचा जहां महिलाओं की शिक्षा की एक सकारात्मक छवि बनी। हालांकि, उनका
यह कदम लिंग भेद पर टिका था – उद्देश्य महिलाओं को इसलिए शिक्षित करना नहीं था कि
वे एक कुशल पेशेवर की तरह सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनें बल्कि इसलिए था कि वे
भावी पीढ़ी के लिए सक्षम माताएं बन सकें। हालांकि इन प्रयासों ने महिलाओं के लिए उन
आधुनिक औपचारिक शिक्षा स्थानों को खोल दिया जिनके दरवाज़े उनके लिए बंद थे। यह खास
तौर से उन वर्गों के लिए खुले, जो खुद को सक्रिय रूप से नए राष्ट्र
निर्माता के रूप में देख रहे थे, यानी नवोदित मध्यम वर्ग। खुद को नए राष्ट्र
के संरक्षक के रूप में देखते हुए उन्होंने माना कि यह नया राष्ट्र एक गरिमामयी
इतिहास और उत्कृष्ट आध्यात्मिक सभ्यता का वाहक है जिसमें आधुनिकमूल्यों का समावेश
करना है। इनमें से पहली और दूसरी पीढ़ी के कई शिक्षित अभिजात्य वर्ग ने भी शिक्षा
को आध्यात्मिकता और तपस्या के बराबर माना था। इस प्रकार,
भारतीय संस्कृति के
संदर्भ में समय के साथ शिक्षा ने अधिक वैधता हासिल की।
बहरहाल,
वैज्ञानिक
कार्यस्थलों में खासकर वैज्ञानिक संस्थानों और उच्च पदों पर पर्याप्त संख्या में
महिलाओं की मौजूदगी होने में अभी भी काफी लंबा वक्त लगेगा। विज्ञान अकादमियों और
पुरस्कार पाने वालों में भी महिलाएं कम संख्या में है। वर्तमान व्यवस्था जिस तरह
बनी है, यह एक ऐसी बिसात की तरह है जिसे महिलाएं कभी नहीं जीत
सकतीं। कॉर्पोरेट अर्थ व्यवस्था की तरह वैज्ञानिक संस्थानों में भी लैंगिक ढांचे
के तहत ‘जान-पहचान’ के आधार पर काम होता है। यह तो सर्वविदित है कि भारत में ऐसे
नेटवर्क या जान-पहचान द्वारा ही नियुक्तियां,चुनाव,
नामांकन, पुरस्कार
के पात्र चुने जाते हैं, जिन तक महिलाओं की आसान पहुंच नहीं होती
है।
इससे भी महत्वपूर्ण है कि यह सिर्फ
गतिशीलता या काबिल महिला वैज्ञानिकों को मान्यता की बात नहीं है। विज्ञान की
दुनिया में प्रवेश करने वाले युवा शोधकर्ताओं को अनुकरणीय उदाहरणों के रूप में
पर्याप्त महिलाएं नहीं दिखतीं, जो इस रूढ़ि को बल देता है कि वैज्ञानिक तो
पुरुष ही होते हैं और इस तरह एक नकारात्मक छवि का चक्र चलता रहता है और विज्ञान
में महिलाओं के लिए आत्म-पराजय की स्थिति बनाता है। सार्वजनिक दायरे में महिलाओं
की बढ़ती उपस्थिति इन स्थानों को अन्य महिलाओं के लिए अधिक सुलभ और सुरक्षित
बनाएगी। यह वैज्ञानिक प्रतिष्ठान में सभी पदों पर महिलाओं की मौजूदगी को भी बढ़ाएगा, इसके
अलावा उच्च पदों पर महिलाओं की मौजूदगी प्रयोगशाला और कक्षाओं में युवा महिला
शोधार्थी को सहज करेगी, और उनके उत्साह और वैज्ञानिक क्षमता दोनों को बढ़ाएंगी।
हालांकि, सांकेतिकता इसका जवाब नहीं होना चाहिए। सांकेतिक अल्पसंख्यक, चाहे
जाति के मामले में हो या लिंग के, अक्सर बहुसंख्यकों की राय को मज़बूत करता है
और समितियों में इस बात का दिखावा भर करता है कि ये समितियां सामाजिक पूर्वाग्रहों
से मुक्त है। जैसा कि कोठारी समिति का आव्हान था,
लगातार विविधता को
प्रोत्साहित करना मात्र सामाजिक न्याय का तकाज़ा नहीं है,
बल्कि यह विज्ञान के
लिए अनिवार्य है और उसकी प्रगति के अग्रदूत वाली आत्म-छवि का भी सवाल है। जिन
देशों और संस्थानों ने विविधता को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया है, उन्हें
इसके साथ आने वाले ज्ञान, अनुभवों और विचारों की विविधता का लाभ मिला
है।
वैज्ञानिक संस्थानों के लिए इन सहज तथ्यों को पहचानना इतना कठिन क्यों है? विज्ञान और तार्किकता का मज़बूत रिश्ता होते हुए भी वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों को अपने कामकाज के तरीकों या कार्यप्रणाली में ‘लिंग-आधारित समस्याएं’ पहचानने में मुश्किल आती है। तार्किकता के मुद्दे पर वैज्ञानिकों को कैसे चुनौती दी जा सकती है? वैज्ञानिकों को तो तार्किक रूप से सोचने और कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, तो वे इसके विपरीत कैसे हो सकते हैं? चूंकि वे ज़्यादातर जिन विषयों पर शोध करते हैं उन विषयों का सम्बंध जेंडर से कम होता है, उनके पाठ्यक्रम/प्रशिक्षण में एक विषय के रूप में ‘जेंडर’ को शामिल करना अक्सर एक बड़ी चुनौती होती है। थोड़ा उकसाने वाले अंदाज़ में कहें, तो वैज्ञानिकों में लैंगिक-अंधत्व स्वाभाविक रूप से होता है। फिर भी जैसे-जैसे इसके ‘वैज्ञानिक साक्ष्य’ सामने आते जाते हैं तो यह ज़रूरी होता जाता है कि वैज्ञानिक अपने अंदर के घोषित-अघोषित दोनों पूर्वाग्रहों की जांच करें, उन नीतियों पर चर्चा करें जो वास्तव में अधिक महिला समावेशी हैं, वरिष्ठ और निर्णायक पदों के साथ शिक्षकों के तौर पर महिलाओं को शामिल करने के बेहतर और अधिक पारदर्शी तरीके खोजें। महिलाओं की मौजूदगी बढ़ाना, निष्पक्षता बढ़ाने और विज्ञान में उत्पादकता और उत्कृष्टता बढ़ाने जैसा है। यह दोनों हाथों में लड्डू का खेल है!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://indiabioscience.org/media/articles/IndianWomeninScience.jpg
आजकल साबुन, हैंड सेनिटाइज़र्स,
कपड़े धोने के
डिटर्जेंट, बाथरूम-टॉयलेट साफ करने के एसिड्स,
फर्श साफ करने, बर्तन
साफ करने, सब्ज़ियां धोने के उत्पादों वगैरह सबके विज्ञापनों में एक
महत्वपूर्ण बात जुड़ गई है। वह बात यह है कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत जम्र्स को
मारते हैं। मज़ेदार बात यह है कि सारे उत्पाद जादुई ढंग से 99.9 प्रतिशत जम्र्स को ही
मारते हैं। और तो और, ये विज्ञापन आपको यह भी सूचित करते हैं कि ये कोरोनावायरस
को भी मार देते हैं।
मेरा ख्याल है कि काफी लोग बहुत खुश होंगे
कि चलो, अब जम्र्स से छुटकारा मिलेगा और खुशी-खुशी इनमें से कोई
उत्पाद खरीद लेंगे। विज्ञापनों का मकसद इसी के साथ पूरा हो जाता है। दरअसल, ऐसे
विज्ञापनों के दो मकसद होते हैं – पहला प्रत्यक्ष मकसद होता है उस उत्पाद विशेष की
बिक्री को बढ़ाना। लेकिन दूसरा मकसद भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है – उस श्रेणी के
उत्पादों की ज़रूरत की महत्ता को स्थापित करना। जैसे,
गोरेपन की क्रीम के
विज्ञापन उस क्रीम विशेष की बिक्री को बढ़ाने की कोशिश तो करते ही हैं, गोरेपन
को एक वांछनीय गुण के रूप में भी स्थापित करते हैं। तो जर्म-नाशी उत्पादों के
विज्ञापन जर्म-नाश के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।
इन जर्म-नाशी उत्पादों के 99.9 प्रतिशत के
दावों पर संदेह नहीं करेंगे, हालांकि वह अपने आप में एक मुद्दा है। मेरी
चिंता तो उन बचे हुए 0.1 प्रतिशत जम्र्स की है जिन्हें ये उत्पाद इकबालिया रूप से
नहीं मार पाते। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। कोरोनावायरस समेत सारे वायरस
निर्जीव कण होते हैं, इसलिए मारने की बात ही बेमानी है। मरे हुए को क्या मारेंगे? लेकिन
मान लेते हैं कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत कोरोनावायरस को भी मार डालेंगे और 0.1
प्रतिशत को बख्श देंगे। सवाल है कि ये 0.1 प्रतिशत क्या करेंगे। इन 0.1 प्रतिशत का
हश्र देखने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में लौटना होगा।
एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन नामक
एंटीबायोटिक औषधि की खोज 1928 में की थी और 1941 में इसका उपयोग एक दवा के रूप में
शुरू हुआ। 1942 में पहला पेनिसिलीन-प्रतिरोधी बैक्टीरिया खबरों में आ चुका था।
डीडीटी से तो काफी लोग परिचित हैं। यह भी सभी जानते हैं कि मलेरिया मच्छर के काटने
से फैलता है। मलेरिया पर नियंत्रण की एक प्रमुख रणनीति यह थी कि मच्छरों का सफाया
कर दिया जाए। डीडीटी के छिड़काव से मच्छर तेज़ी से मरते थे। लेकिन कुछ ही वर्षों में
स्पष्ट हो गया कि डीडीटी मच्छरों को मारने में असमर्थ हो गया है। मच्छरों में
डीडीटी के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो गया था।
प्रतिरोधी जीवों का यह मसला आज एक
महत्वपूर्ण समस्या है। चाहे जम्र्स हों, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट हों, रोगवाहक
मच्छर हों, हर तरफ प्रतिरोधी जीव नज़र आ रहे हैं। सवाल है कि प्रतिरोध
पैदा कैसे होता है।
एंटीबायोटिक प्रतिरोध का कारण क्या है? बैक्टीरिया
का जीवन चक्र और प्रत्येक पीढ़ी का समय मिनटों और घंटों में होता है। और जब इस तरह
की बैक्टीरिया कॉलोनी को एंटीबायोटिक दवा से उपचारित किया जाता है तो कॉलोनी का
सफाया (99.9 प्रतिशत!) हो जाता है। लेकिन कॉलोनी में कभी-कभी संयोगवश म्यूटेशन
उत्पन्न हो जाता है या उनमें एकाध बैक्टीरिया ऐसा होता है (0.1 प्रतिशत) जो उस
एंटीबायोटिक से अप्रभावित रहता है। 99.9 प्रतिशत तो मर गए लेकिन वे 0.1 प्रतिशत
संख्या वृद्धि करते रहते हैं, बल्कि प्रतिस्पर्धा के अभाव में और तेज़ी से
संख्या वृद्धि करते हैं। इसकी वजह से ऐसी संतति पैदा होती है जो एंटीबायोटिक की
प्रतिरोधी होती है। धीरे-धीरे दवा-प्रतिरोधी गुण वाले बैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि
करके कॉलोनी पर हावी हो जाते हैं। यह एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी किस्म है। उसी
एंटीबायोटिक से इन्हें मारने की कोशिश में सफलता कम या नहीं मिलेगी। इस प्रक्रिया
के चलते हमारे द्वारा खोजे गए कई एंटीबायोटिक निष्प्रभावी हो चुके हैं।
एंटीबायोटिक-प्रतिरोध की समस्या को स्वास्थ्य जगत में अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या
माना गया है।
यही हाल डीडीटी का भी हुआ था और विभिन्न कीटनाशकों (पेस्टिसाइड्स) का भी। और अब हम घर-घर पर, सतह-सतह पर यही प्रयोग दोहराने को तत्पर हैं। सोचने वाली बात यह है कि यदि एक साथ इतने सारे जर्म-नाशी निष्प्रभावी हो गए तो क्या होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://melmagazine.com/wp-content/uploads/2018/08/17vyg3qYDpMVsYRESsFziTA.gif
युरोप में एक काफी लोकप्रिय झाड़ी है – लॉरस्टाइनस (विबर्नम
टाइनस) और वहां कई बाग-बगीचों में शौक से लगाई जाती है। इसके चमकदार नीले फलों
पर हर किसी की निगाहें ठहर जाती हैं। लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल की रॉक्स
मिडलटन और उनके साथी इन फलों की रंगत के पीछे का कारण जानने को उत्सुक थे।
शोधकर्ताओं ने फलों की आंतरिक संरचना पता
करने के लिए फल के ऊतक लिए और इनका अवलोकन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप में किया। अब
तक कई वैज्ञानिकों को लगता था कि अन्य नीले फलों (जैसे ब्लूबेरी) की तरह
लॉरस्टाइनस के फलों का नीला रंग भी किसी नीले रंजक से आता होगा। लेकिन करंट
बायोलॉजी में उक्त शोधकर्ताओं ने बताया है कि इन फलों में सिर्फ वसा की छोटी
बूंदें कई परतों में इस तरह व्यवस्थित होती हैं कि वे नीले रंग को परावर्तित करती
हैं। ऐसे रंगों को स्ट्रक्चरल कलर (यानी संरचनागत रंग) कहा जाता है जो किसी पदार्थ
की उपस्थिति की वजह से नहीं बल्कि पदार्थों की जमावट के कारण पैदा होते हैं।
वसा की बूंदों के नीचे गहरे लाल रंजक की एक
परत भी थी, जो किसी भी अन्य तरंग लंबाई के प्रकाश को सोख लेती है और
नीले रंग को गहरा बनाती है। शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद से इन
निष्कर्षों की जांच की और दर्शाया कि वास्तव में स्ट्रक्चरल कलर लॉरस्टाइनस के
फलों का नीला रंग बना सकता है।
संभावना है कि लॉरस्टाइनस फलों का चटख रंग
पक्षियों को इनमें उच्च वसा मौजूद होने का संकेत देता हो।
वैसे तो स्ट्रक्चरल कलर के उदाहरण जानवरों में काफी दिखते हैं। जैसे मोर पंख और तितली के पंखों के चटख रंग। लेकिन पौधों में ऐसे रंग कम ही देखे गए हैं। और ऐसा पहली बार ही देखा गया है कि इन रंगों के लिए वसा ज़िम्मेदार है। शोधकर्ताओं को लगता है कि ऐसी व्यवस्था कई अन्य पौधों में भी हो सकती है और उनके बारे में पता लगाया जाना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/berries_1280p_0.jpg?itok=PliI8w1H
हाल ही में एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन द्वारा ‘लचीले
खाद्य, पोषण और आजीविका के लिए विज्ञान: समकालीन चुनौतियां’ विषय
पर एक वर्चुअल कसंल्टेशन आयोजित किया गया था। इसमें कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के
ब्रूस एल्बर्ट्स ने विज्ञान शिक्षा पर बहुत ही प्रासंगिक व्याख्यान दिया।
व्याख्यान का विषय था विज्ञान संप्रेषण। यह विषय हमारे यहां निकट भविष्य में लागू
की जाने वाली नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है।
प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान संप्रेषण में
भागीदारी के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। वे साइंस पत्रिका के मुख्य
संपादक रह चुके हैं। उनकी किताब मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी ऑफ सेल (कोशिका का
आणविक जीव विज्ञान) जीव विज्ञान के किसी भी स्नातक छात्र के लिए ‘बाइबल’ है। मैं
यहां उनके उपरोक्त व्याख्यान की कुछ मुख्य बातों का ज़िक्र करूंगा।
विज्ञान शिक्षा पर बात करने से पहले प्रो.
एल्बर्ट्स भौतिक विज्ञानी पियरे होहेनबर्ग के कथन की याद दिलाते हैं, “किसी
भी वैज्ञानिक का काम छोटे एस (‘s’) से शुरू होने वाला
साइंस (विज्ञान) होता है, स्वतंत्र वैज्ञानिकों द्वारा कई बार
परीक्षण किए जाने के बाद यह छोटा एस (‘s’)
सामूहिक सार्वजनिक ज्ञान के रूप में बड़े एस (‘S’)
में बदलता है जो विरोधाभास से मुक्त और सार्वभौमिक होता है।” (किसी वैज्ञानिक
द्वारा किया गया दावा जब तक अन्य वैज्ञानिकों द्वारा उसी प्रक्रिया से पुन:प्राप्त
नहीं किया जाता, तब तक वह सिर्फ दावा रहता है सत्य नहीं)। उदाहरण के लिए, नॉर्मन
बोरलॉग ने खोज की थी कि मेक्सिकन बौने किस्म के गेहूं के पौधे उच्च पैदावार देते
हैं; इसका एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा स्वतंत्र रूप से परीक्षण
किया गया और सत्य साबित किया गया। इस खोज ने आगे चलकर भारत में हरित क्रांति का
मार्ग प्रशस्त किया; या यूं कहें कि इस प्रक्रिया में नॉर्मन बोरलॉग की खोज
साइंस के ‘s’ से ‘S’
में बदल गई, और सामाजिक रूप से मूल्यवान के रूप में पहचानी और स्वीकार
की गई। इसे एक ट्रांसलेशनल रिसर्च के रूप में भी जाना जाता है (बेशक, ‘s’ का तात्पर्य यहां STEM के सभी क्षेत्रों,
यथा चिकित्सा, कृषि
और सामाजिक विज्ञान से भी है)।
प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान शिक्षा पर अपनी
बात की शुरुआत इस कथन से करते हैं कि हरेक बच्चा एक वैज्ञानिक है। कितनी सही बात
है! चाहे शिशु हो या स्कूली छात्र हों, वे अपने आसपास के परिवेश, आसपास
के लोगों, जानवरों, पेड़-पौधों,
मिट्टी और धूल से
वाकिफ होते हैं। बच्चे उत्सुक प्रेक्षक होते हैं। जानकारी इकट्ठी करना उनके स्वभाव
में होता है। उनकी इस क्षमता को बढ़ावा देने और फलने-फूलने का मौका देने के लिए
अमेरिका के कई स्कूलों में ‘व्हाइट सॉक्स’ नामक प्रयोग किया गया था।
व्हाइट सॉक्स प्रयोग
इस प्रयोग में 5 साल की उम्र के स्कूली
बच्चे शामिल थे। प्रयोग में शामिल हरेक बच्चे से अपने जूते उतारने के लिए कहा गया
और सिर्फ सफेद मौज़े (जो उनकी युनिफॉर्म का हिस्सा थे) पहनकर पूरे परिसर में घूमने
को कहा गया। इसके बाद उन्हें उनके मौज़ों पर चिपके हुए कणों को इकट्ठा करने और
उन्हें वर्गीकृत करने को कहा गया: इनमें से कौन-से बीज हैं, और
कौन-से महज़ धूल-मिट्टी? इसके बाद शिक्षक ने हरेक छात्र से स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी
द्वारा विकसित कम लागत वाले माइक्रोस्कोप का उपयोग कर इन कणों का विश्लेषण कर इस
बात की पुष्टि करने के लिए कहा कि बीज और धूल के लिए जो उनके निष्कर्ष थे क्या वे
सही हैं। (माइक्रोस्कोप के लिए देखें https://www.foldscope.com/)। कई छात्रों ने माइक्रोस्कोप विश्लेषण कर अपने अनुमान की पुष्टि की कि नियमित
आकार वाले कण वाकई बीज हैं। वे माइक्रोस्कोप में अपने दोस्तों के नमूनों को देखकर
इस बात की जांच भी कर सकते थे कि उनके दोस्तों के निष्कर्ष सही हैं या नहीं।
‘व्हाइट सॉक्स’ अध्ययन ऐसे ही सरल प्रयोगों का एक समूह था जिसमें तकनीक का उपयोग, अनुमान
की जांच और आपस में समीक्षा शामिल थी।
भारत का डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी
(डीबीटी) प्रो. मनु प्रकाश की प्रकाश लैब से कम लागत वाले फोÏल्डग माइक्रोस्कोप
खरीदकर कई छात्रों को देने की तैयारी कर रहा है। (देखें <ted.com/talk by Manu Prakash>)
भारत में अमल
यह अच्छी बात है कि पूरे भारत में कई
भाषाओं में काम करने वाले कई एनजीओ हैं जो विज्ञान को आसान/लोकप्रिय बनाने का
प्रयास कर रहे हैं, और राज्य और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियां और सरकारी
एजेंसियां इन प्रयासों का समर्थन भी कर रही हैं। ये संस्थाएं व्हाइट सॉक्स प्रयोग
में स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से परिवर्तन कर इसे आसानी से अपना सकती हैं।
मीडिया भी छात्रों और नवाचारियों के स्थानीय प्रयासों को उजागर करने में अपनी
भूमिका निभा सकता है। नई शिक्षा नीति के तहत,
अब इस तरह के नवाचारी
प्रयोग 5+3+3+4 के स्तर (आंगनबाड़ी से लेकर कक्षा 12 तक) से लेकर विश्वविद्यालयों
के माध्यम से स्नातक और उच्च शिक्षा तक किए जाने चाहिए। और, जैसा
कि 4 अगस्त के दी हिंदू के अंक में प्रकाशित लेख स्कूल्स विदाउट फ्रीडम
में कृष्ण कुमार कहते हैं, इन योजनाओं को बनाने व क्रियांवयन का काम
स्थानीय परिवेश से परिचित शिक्षकों द्वारा किया जाना चाहिए ना कि किसी सरकारी फतवे
के द्वारा।
उपयोगी संसाधन
विश्वविद्यालयों के लिए नैन्सी कोबर की
किताब Reaching students: what research
says about effective instruction in undergraduate science and engineering (यानी छात्रों तक पहुंचना: स्नातक स्तर पर
कारगर विज्ञान व इंजीनियरिंग शिक्षण को लेकर शोध क्या कहता है) काफी उपयोगी संसाधन
है। इस किताब का पीडीएफ संस्करण www.nap.edu पर मुफ्त उपलब्ध है। और वर्ल्ड साइंस एकेडमीस द्वारा शुरू किया गया एक नया प्रोजेक्ट ‘स्थानीय प्रयासों से
संचालित विज्ञान’ स्मिथसोनियन साइंस एजुकेशन सेंटर के माध्यम से उपलब्ध है। इसके
लिए डॉ. कैरोल ओ’डॉनेल से संपर्क कर सकते हैं: O’Donnell@si.edu।
युवा अकादमियों की भूमिका
प्रो. एल्बर्ट्स युवा वैज्ञानिकों के लिए अकादमियों की आवश्यकता पर भी ज़ोर देते हैं, जो इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। अब तक 40 देशों में इस तरह की विज्ञान युवा अकादमियां स्थापित की गई हैं, जिनमें से भारत की भारतीय राष्ट्रीय युवा विज्ञान अकादमी (INYAS) एक है। आम तौर पर युवा वैज्ञानिक ‘दकियानूसी बुज़ुर्गों’ के मुकाबले अधिक सुलभ और स्वीकार्य होते हैं। तो, INYAS यह है आपकी भूमिका!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/d6x9ui/article32363645.ece/ALTERNATES/FREE_960/16TH-SCICHILD-SCIENCE
नए कोरोनावायरस लक्षणों की सूची अनुमान से अधिक विविध होती
जा रही है। थकान, दिल का तेज़ धड़कना, सांस लेने में तकलीफ, जोड़ों
में दर्द, सोच-विचार करने में परेशानी,
गंध संवेदना में कमी
जैसी कुछ समस्याओं के अलावा हाल ही में दिल,
फेफड़े, गुर्दे
और मस्तिष्क की क्षति जैसी दिक्कतें भी शामिल हो गई हैं।
इस तरह का एक मामला युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन
(युसीएल) की न्यूरोसाइंस प्रयोगशाला की एथेना अकरमी के साथ हुआ। नए कोरोनावायरस के
शुरुआती लक्षणों (बुखार और खांसी) के बाद अकरमी को सांस लेने में तकलीफ, सीने
में दर्द और अत्यधिक थकान की शिकायत होने लगी। इसके अलावा उनको सोच-विचार करने में
परेशानी के अलावा जोड़ों और मांसपेशियों में भी तकलीफ होने लगी। चार सप्ताह तक घर
में आराम करने पर भी ये समस्याएं समय के साथ बढ़ती-घटती रहीं लेकिन खत्म नहीं हुर्इं।
ऐसे में मार्च से लेकर अब तक उनका तापमान सिर्फ 3 सप्ताह ही सामान्य रहा है।
आम तौर पर कोविड-19 रोगी या तो हल्के
लक्षणों के साथ जल्दी ठीक हो जाते हैं या फिर अधिक बीमार होकर आईसीयू तक पहुंचते
हैं। लेकिन अकरमी का मामला कुछ अलग ही था। आम तौर पर कोविड-19 रोगियों में
दीर्घावधि लक्षणों के विकसित होने की संभावना का आकलन करना मुश्किल होता है। इस
सम्बंध में विभिन्न अध्ययनों से अलग-अलग परिणाम सामने आए हैं क्योंकि इनमें मरीज़ों
के किसी समूह की निगरानी अलग-अलग समय तक की गई है।
इटली के एक समूह द्वारा किए गए अध्ययन से
पता चला है कि कोविड-19 के अत्यधिक गंभीर रोगियों में से 87 प्रतिशत लोग बीमार होने
के 2 माह बाद तक ऐसे लक्षणों से जूझते रहे। जबकि अमेरिका,
ब्रिटेन और स्वीडन
में किए गए अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि 10-15 प्रतिशत रोगियों को ठीक होने
में काफी समय लगा जिनमें हल्के लक्षणों वाले लोग भी शामिल हैं। इसी तरह जर्मनी के
रेडियोलॉजिस्ट मार्टिन रिक्टर ऐसे मामलों के बारे में भी बताते हैं जिनमें
कोविड-19 से वृद्ध एवं गंभीर स्थिति में पहुंच चुके रोगी स्वस्थ हुए जबकि मामूली
निमोनिया वाले अधेड़ लोग 3 महीने से भी अधिक समय तक अधिक नींद आने की समस्याओं से
जूझते रहे।
यह रोग नया-नया है,
इसलिए अभी यह कहना मुश्किल
है कि ऐसे जीर्ण लक्षण कब तक परेशान करेंगे।
शोधकर्ता इस रहस्यपूर्ण बीमारी को समझने के
प्रयास कर रहे हैं। युनिवर्सिटी ऑफ लायसेस्टर की फेफड़ा वैज्ञानिक रेचल एवांस ने
रोग से ठीक हो चुके 10,000 लोगों पर 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक के अध्ययन की
शुरुआत की है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस अध्ययन से ना सिर्फ रोग को गहराई से
समझा जा सकेगा बल्कि यह भी आकलन किया जा सकेगा कि किन रोगियों में दीर्घकालिक
समस्याएं पैदा होने का खतरा है और क्या शुरुआती इलाज से ऐसी स्थिति से निपटा जा
सकता है।
यह तो महामारी की शुरुआत में ही चिकित्सकों
को पता चल गया था कि सार्स-कोव-2 वायरस कोशिकाओं की सतह पर ACE2 रिसेप्टर्स से जुड़कर ऊतकों को नष्ट करना शुरू कर देता है। ऐसे में फेफड़े, दिल, आंत, गुर्दे, रक्त
वाहिकाएं और तंत्रिका तंत्र भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। वैसे सार्स-कोव-2 के
दीर्घकालिक प्रभाव उसी तरह के हैं जैसे फ्लू जैसे अन्य वायरस संक्रमणों में देखे
जाते हैं। इनसे निपटने के लिए चिकित्सक आम तौर पर दवाइयों का उपयोग करते हैं। ऐसे
पूर्व अनुभवों की मदद से चिकित्सक कोविड-19 के दीर्र्घकालिक प्रभावों को कम करने
में मदद कर सकते हैं।
सार्स-कोव-2 के परिणामों में कुछ भिन्नता
भी देखने को मिलती है। पूर्व के कोरोनावायरस,
जैसे सार्स और मर्स, के
अनुभवों से चिकित्सकों का मानना था कि नया वायरस भी फेफड़ों को स्थायी नुकसान
पहुंचा सकता है। 2003 में सार्स से संक्रमित एक व्यक्ति के फेफड़ों में जो घाव पाया
गया था वह 15 वर्ष बाद भी मौजूद था। युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में एशिया
में कोविड-19 रोगियों के फेफड़ों के स्कैन में पता चला कि कोविड-19 सार्स की तुलना
में फेफड़ों को कम गति और आक्रामकता से क्षति पहुंचाता है।
लेकिन कोविड-19 से होने वाली जटिलताएं भी
काफी तीव्र हैं। अप्रैल के अंत में अकरमी ने कोविड-19 से उबर चुके 600 से अधिक
लोगों का सर्वेक्षण किया जिनमें 2 सप्ताह से भी अधिक समय तक कोविड-19 के लक्षण
उपस्थित रहे। उन्होंने 62 से अधिक लक्षण दर्ज किए हैं। फिलहाल यह तो स्पष्ट हो गया
है कि कोविड-19 से गंभीर रूप से बीमार लोगों को पूरी तरह स्वस्थ होने में काफी
अधिक समय लग रहा है।
अध्ययन के दौरान कोविड-19 रोगियों में ह्रदय
से जुड़ी काफी समस्याएं सामने आर्इं। यह वायरस ह्रदय को कई तरह से प्रभावित करता
है। यह ह्रदय की कोशिकाओं के ACE2 रिसेप्टर पर हमला करता है। ACE2 रिसेप्टर ह्रदय की कोशिकाओं की रक्षा करने के अलावा रक्तचाप बढ़ाने वाले
हॉर्मोन एंजियोटेंसिन-II को नष्ट करता है। वायरस से लड़ने के लिए
शरीर में एड्रीनेलीन और एपिनेफ्रिन के स्राव से भी ह्रदय को क्षति पहुंचती है।
कोविड-19 के कारण जिन लोगों में ह्रदय की समस्या पैदा हुई उनमें से अधिकांश लोगों
में पहले से ही मधुमेह और उच्च रक्तचाप की समस्याएं उपस्थित थीं। विशेषज्ञों को
आशंका है कि कोविड-19 ने ह्रदय समस्याओं को और तीव्र कर दिया।
इस दौरान तंत्रिका तंत्र से जुड़े लक्षण भी
सामने आए हैं। ब्रेन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 43 लोगों में गंभीर
तंत्रिका सम्बंधी समस्याएं देखने को मिलीं। इसके अलावा चिकित्सकों को कई रोगियों
में सोच-विचार करने में परेशानी की शिकायतें भी मिलीं।
कई स्थानों पर कोविड-19 से उबर चुके लोगों
पर अध्ययन किया जा रहा है। कहीं ह्रदय से जुड़े रोगों पर अध्ययन किया जा रहा है, तो
कहीं आने वाले दो वर्षों तक फेफड़ों के आकलन की योजना बनाई जा रही है।
हालांकि वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वे दीर्घकालिक लक्षणों को टाल पाएंगे जिससे ऐसी समस्याओं से जूझ रहे रोगियों की मदद की जा सकेगी। अलबत्ता, इस वायरस की क्षमता को कम आंकना उचित नहीं होगा। यह रोग एक बार स्थापित हो गया तो वापस जाने का कोई रास्ता नहीं होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/news/2020/07/brain-fog-heart-damage-covid-19-s-lingering-problems-alarm-scientists#:~:text=The%20list%20of%20lingering%20maladies,lungs%2C%20kidneys%2C%20and%20brain.
मेंढक द्वारा ज़िंदा निगल लिए जाने पर अधिकांश कीटों की मौत तो
तय ही समझो, लेकिन एक प्रजाति का गुबरैला,
रेजिम्बार्टिया
एटेनुएटा, पचकर मेंढक का नाश्ता बनने की बजाय गुदा के रास्ते जीवित
बाहर निकल जाता है।
जापान के कोबे विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट
स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर शिनजी सुगिउरा को यकीन था कि आर.
एटेनुएटा गुबरैलों ने मेंढकों का भोजन बनने से बचने का तरीका विकसित कर लिया है।
उनका अनुमान था कि अपने बचाव की प्रक्रिया में गुबरैले मेंढकों द्वारा मुंह से ही
बाहर निकाल दिए जाएंगे। जांच के लिए उन्होंने प्रयोगशाला में एक किशोर तालाबी
मेंढक, पेलोफाइलैक्स निग्रोमैकुलैटस,
को एक वयस्क जलीय
गुबरैला (आर. एटेनुएटा) भोजन के लिए दिया जिसे मेंढक ने पूरा का पूरा ज़िंदा निगल
लिया। इस घटना के लगभग 105 मिनट बाद शोधकर्ताओं ने देखा कि वह गुबरैला मेंढक के
शरीर से जीवित बाहर निकल आया, लेकिन मुंह के रास्ते नहीं बल्कि मल के साथ
गुदा के रास्ते। यह देखकर शोधकर्ता हैरान रह गए।
उन्होंने एक दर्जन से अधिक बार इस प्रयोग
को दोहराया और पाया कि 93 प्रतिशत गुबरैले मल के साथ बाहर आ गए और हर बार गुबरैलों
का सिर पहले बाहर आया। ये नतीजे शोधकर्ताओं ने करंट बायोलॉजी पत्रिका में
रिपोर्ट किए हैं। गुबरैले बाहर आने पर मल में धंसे हुए थे लेकिन जल्दी ही उससे
बाहर निकल गए और इसके बाद कम से कम दो सप्ताह तक जीवित रहे।
खाए जाने के बाद एक घंटे से छह घंटे के
भीतर गुबरैले मेंढक के शरीर से बाहर आ गए थे। सामान्यत: मांसपेशियां गुदा-द्वार को
कसकर बंद रखती हैं, ये मांसपेशियां तभी शिथिल होती हैं जब मेंढक मल त्याग करता
है। देखा गया है कि आम तौर पर मेंढक भोजन के बाद इतनी जल्दी मल त्याग नहीं करते
हैं। उक्त अवलोकनों से तो लगता है कि गुबरैले मेंढकों को विष्ठा त्याग के लिए
उकसाते हैं।
एक सोच यह थी कि गुबरैले ऐसा अपने पैरों की
मदद से करते हैं। इस बात की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने गुबरैले के पैरों को मोम से
चिपका दिया और फिर उन्हें मेंढक को भोजन के रूप में दिया। उन्होंने पाया कि इनमें
से एक भी गुबरैला जीवित नहीं बचा।
प्रयोग में अन्य जलीय गुबरैले इतने
भाग्यशाली नहीं थे। शोधकर्ताओं ने जब अन्य गुबरैलों (जैसे एनोक्रस जेपोनिकस)
मेंढकों को पेश किए तो वे सभी मेंढकों द्वारा निगले जाने के बाद अंदर ही मर गए और
निगले जाने के 24 घंटे बाद टुकड़ों में बाहर आए।
हालांकि शिकार के शरीर में पचने से बचने का
यह पहला उदाहरण नहीं है। 2018 में सुगिउरा ने पाया था कि बम्बार्डियर गुबरैले (फेरोपोफस
जेसेओन्सिस) मेंढक द्वारा निगले जाने पर ऐसा ज़हरीला रसायन छोड़ते हैं कि शिकारी
उल्टी कर देता है और वे बाहर आ जाते हैं। लेकिन गुदा के रास्ते मल के साथ बाहर आने
का यह पहला उदाहरण है।
बहरहाल, यह विस्तार से देखने की ज़रूरत है कि गुबरैले बाहर निकलने के लिए मांसपेशियों को शिथिल होने के लिए कैसे प्रेरित करते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://bgr.com/wp-content/uploads/2020/08/aninsectspec.jpg?quality=70&strip=all&w=834
चुभने वाली चीज़ें प्रकृति में कई भूमिकाएं अदा करती हैं।
कैक्टस व अन्य पौधों के कांटे उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, मच्छर
की सूंड उसे खून पीने में मदद करती है, साही का कंटीला आवरण उसे बचाता है। ये सभी
सीधी रचनाएं हैं जो एक सिरे पर नुकीली होती हैं। भौतिकविदों के लिए इनकी रचना में
समानताएं कौतूहल का विषय रही हैं।
वैज्ञानिकों ने पहली समानता तो यह देखी कि
चाहे वह नैनोमीटर की साइज़ के बैक्टीरियाभक्षी वायरस के तंतु हों या आर्कटिक सागर
में पाई जाने वाली नारव्हेल की 2-3 मीटर लंबी सूंड हो,
सभी लंबूतरे, पतले
शंकु होते हैं जिनके आधार का व्यास उनकी कुल लंबाई की तुलना में बहुत कम होता है।
किसी भी चुभने वाली चीज़ का आकार दो परस्पर
विरोधी बाधाओं से निर्धारित होता है। पहली,
लक्ष्य को बेधने के
लिए उसे इतना बल लगाना पड़ेगा जो लक्ष्य द्वारा उत्पन्न घर्षण के दबाव को पार कर
सके। और दूसरी, यह बल इतना भी नहीं हो सकता कि बेधक रचना टूट जाए या मुड़
जाए।
वैसे तो इन दो सीमाओं को साधने के लिए कई
आकृतियां – पतली और लंबी से लेकर चौड़ी और छोटी – उपयोगी हो सकती हैं लेकिन प्रकृति
ने जिस आकृति को सामान्य रूप से अपनाया है उसमें आधार के व्यास और लंबाई का अनुपात
लगभग 0.06 होता है। यानी यदि चुभने वाली रचना की लंबाई 5 से.मी. है तो उसके आधार
का व्यास लगभग 0.3 से.मी. होगा।
डेनमार्क के तकनीकी विश्वविद्यालय के भौतिक
शास्त्री कारे जेंसन का कहना है कि प्रकृति में आम तौर पर इस आकृति का चयन होने का
कारण है कि प्रकृति ‘किफायत’ से काम करती है। यह सही है कि मोटे बेधक ज़्यादा टिकाऊ
होंगे लेकिन उनमें कुल पदार्थ भी तो ज़्यादा लगेगा,
जो सम्बंधित जीव को
ही भरना पड़ेगा। इसलिए जैव विकास ऐसी रचना को वरीयता देगा जो लक्ष्य को बेधने के
लिए बस पर्याप्त मज़बूत हो। नेचर फिज़िक्स में प्रकाशित शोध पत्र में जेंसन
की टीम ने डिज़ाइन के इस सिद्धांत की मदद से बेधने वाली चीज़ों की आकृतियों का सटीक
पूर्वानुमान प्रस्तुत किया है।
जेंसन की टीम ने ठोस शंक्वाकार बेधक चीज़ों
के लिए एक सैद्धांतिक मॉडल विकसित किया। उनकी गणनाओं से पता चला कि आधार का यथेष्ट
व्यास मात्र तीन बातों पर निर्भर करता है – बेधक की लंबाई,
उसके पदार्थ की
कठोरता और लक्षित ऊतक द्वारा उत्पन्न घर्षण का दबाव। उन्होंने यह भी पाया कि
पदार्थ की कठोरता और घर्षण का दबाव ज़्यादा असर नहीं डालता। उनके अनुसार मुख्य बात
आधार के व्यास और लंबाई के अनुपात की है।
पहले प्रकाशित एक मॉडल में कहा गया था कि
आधार का व्यास लंबाई की तुलना में 2/3 के अनुपात में बदलता है। यानी यदि लंबाई
दुगनी हो तो व्यास में 59 प्रतिशत की वृद्धि होगी। जेंसन की समीकरण दर्शाती है कि
इन दो के बीच सम्बंध समानुपात का है – लंबाई दुगनी होगी तो व्यास भी दुगना हो
जाएगा।
अपनी समीकरण को परखने के लिए जेंसन और उनके साथियों ने सजीवों में उपस्थित 140 बेधक अंगों, कांटों वगैरह का अध्ययन किया। इनमें कशेरुकी-अकशेरुकी, जलचर-थलचर, पौधे, शैवाल और वायरस शामिल थे। इन सभी में बेधक समीकरण से मेल खाते पाए गए। इनके अलावा मानव निर्मित सुइयां, कीलें, तीर वगैरह भी इस समीकरण पर खरे उतरे। तो लगता है समीकरण सही है। वैसे अभी इसमें कई अन्य बातों को जोड़ना शेष है – जैसे कई ऐसी रचनाएं खोखली होती हैं, कई इस तरह बनी होती हैं कि बेधते समय वे मुड़ें, या घुमावदार होती हैं वगैरह। इस प्रकार के विश्लेषण के कई वास्तविक अनुप्रयोग हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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