इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती अभी उपेक्षित है – भारत डोगरा

ह दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होता जा रहा है इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं और विशेष परिस्थितियां, मानव-निर्मित कारणों से गंभीर खतरे में पड़ गई हैं।

यह एक बहुपक्षीय संकट है पर इसमें दो पक्ष विशेष उल्लेखनीय हैं। पहला कि अनेक पर्यावरणीय समस्याएं सहनीय दायरे से बाहर जा रही हैं। इनमें सबसे प्रमुख जलवायु बदलाव की समस्या है पर इससे कम या अधिक जुड़ी हुई अन्य गंभीर समस्याएं भी हैं। इन समस्याओं के साथ ‘टिपिंग पॉइंट’ की अवधारणा जुड़ी है: समस्याओं का एक ऐसा स्तर जहां पहुंचकर उनमें अचानक बहुत तेज़ वृद्धि होती है और ये समस्याएं नियंत्रण से बाहर जा सकती हैं।

दूसरा पक्ष यह है कि धरती पर महाविनाशक हथियारों का बहुत बड़ा भंडार एकत्र हो गया है। इनके उपयोग से धरती पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। इस समय विश्व में लगभग 14,500 परमाणु हथियार हैं जिनमें से 3750 हमले की पूरी तैयारी के साथ तैनात हैं। यदि परमाणु हथियारों का बड़ा उपयोग एक बार भी हुआ तो इसका असर केवल हमलास्थल पर ही नहीं बल्कि दूर-दूर होगा। उन देशों में भी होगा जहां परमाणु हथियार हैं ही नहीं। हमले के स्थानों पर तुरंत दसियों लाख लोग बहुत दर्दनाक ढंग से मारे जाएंगे। इसके दीर्घकालीन असर दुनिया के बड़े क्षेत्र में होंगे जिससे जीवनदायिनी क्षमताएं बुरी तरह क्षतिग्रस्त होंगी।

परमाणु हथियारों की दिक्कत यह है कि विपक्षी देशों में एक-दूसरे की मंशा को गलत समझ कर परमाणु हथियार दागने की संभावना बढ़ती है। परमाणु हथियारों के उपयोग की संभावना को रोकने वाली संधियों के नवीनीकरण की संभावनाएं कम हो रही है।

इस समय नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं। निकट भविष्य में परमाणु हथियार वाले देशों की संख्या बढ़ सकती है। संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस दोनों ने अपने हथियारों की विध्वंसक क्षमता बढ़ाने के लिए हाल में बड़े निवेश किए हैं, खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने।

इसके अतिरिक्त बहुत खतरनाक रासायनिक व जैविक हथियारों के उपयोग की संभावना भी बनी हुई है। हालांकि इन दोनों हथियारों को प्रतिबंध करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समझौते हुए हैं, पर अनेक देश ज़रूरी जानकारी पारदर्शिता से नहीं देते हैं व इन हथियारों के चोरी-छिपे उत्पादन की अनेक संभावनाएं हैं।

रोबोट हथियारों के विकास की तेज़ होड़ भी आरंभ हो चुकी है जो बहुत ही खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। इसके बावजूद इनमें भारी निवेश अनेक देशों द्वारा हो रहा है, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस व चीन द्वारा।

आतंकवादी संगठनों के हाथ में यदि इनमें से किसी भी तरह के महाविनाशक हथियार आ गए तो विश्व में विध्वंस की नई संभावनाएं उत्पन्न होंगी।

इन खतरों को विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सबसे गंभीर खतरों को दूर करने या न्यूनतम करने में अभी तक की प्रगति आशाजनक नहीं रही है। अविलंब इन्हें विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता बनाकर इन खतरों को समाप्त करने या न्यूनतम करने की असरदार कार्रवाई शीघ्र से शीघ्र होनी चाहिए। यह इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या समय रहते मानव सभ्यता इन सबसे बड़े संकटों के समाधान के लिए समुचित कदम उठा सकेगी। इस सवाल को विश्व स्तर पर विमर्श के केंद्र में लाना ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रशांतक दवाइयों की लत लगती है – नरेन्द्र देवांगन

हर तरह की भावनात्मक परेशानी, दर्द या मांसपेशियों को आराम पहुंचाने के नुस्खे में चिकित्सक प्रशांतक (ट्रेंक्विलाइज़र) दवाएं लिखते हैं। ब्रिटेन में हर साल तंत्रिका रोगों के 2 करोड़ नुस्खे लिखे जाते हैं और 15 लाख लोग नियमित रूप से प्रशांतक दवाएं लेते हैं। चिकित्सकों को बहुत बाद में पता चला कि किसी व्यक्ति को इन रोगों से मुक्ति दिलाने में इन दवाओं का प्रभाव निश्चित रूप से बहुत कम समय के लिए पड़ता है और लंबी अवधि तक उनका इस्तेमाल करने के गंभीर प्रतिकूल प्रभाव होते हैं और लत लगने का खतरा भी रहता है। इसके प्रतिकूल प्रभावों में याददाश्त और एकाग्रता में कमी, बेहद थकान और आलस, संतुलन बिगड़ना और अलगाव की अनुभूति शामिल है।

न्यू कासल विश्वविद्यालय में मनौषधि विज्ञानी डॉ. हीथर ऐशटन के अनुसार प्रशांतकों के प्रभाव में कुछ स्वभाव से लड़ाकू लोग और ज़्यादा लड़ाकू हो जाते हैं। इन गोलियों का सम्बंध बच्चों को पीटने जैसे हिंसक कामों और दुकान से चोरी करने जैसे छोटे अपराधों से देखा गया है।

प्रशांतक दवाएं मुख्यत: बेंज़ोडाइज़ेपाइन वर्ग की होती हैं। इनमें अधिक प्रचलित हैं डाएज़ेपाम, क्लोरोडायज़ेपॉक्साइड, लोराज़ेपाम और नींद की गोली नाइट्राज़ेपाम। इन्हें वेलियम, लिब्रियम, ऐटिवन और मोगाडन के नाम से लिखा जाता है। ये सभी मस्तिष्क की तंत्रिका कोशिकाओं की सक्रियता को मंद करने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। इसके कारण एक तरह की शांति का अनुभव होता है।

पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां दोगुनी संख्या में प्रशांतक दवाओं का सेवन करती हैं। सबसे अधिक सेवन चालीस के आसपास की उम्र के लोग करते हैं। वृद्ध लोग नींद की गोलियों का अक्सर सेवन करते हैं। 1988 के एक सर्वेक्षण से पता चला कि 65 वर्ष से ऊपर के 15 प्रतिशत लोगों को हर रात नींद की गोलियां लेनी पड़ती हैं। कोई 5 लाख लोग प्रशांतक लेने के आदी हो चुके हैं जबकि हेरोइन के लती लोगों की अनुमानित संख्या दो लाख के करीब है। मनोरोग संस्थान के प्रोफेसर मैल्कम लेडर के अनुसार, “प्रशांतक की लत छुड़ाना हेरोइन से कहीं अधिक कठिन है। हेरोइन छोड़ने के बाद की परेशानियां कुछ दिनों में खत्म हो जाती हैं। लेकिन प्रशांतक छोड़ने के बाद के लक्षण (जैसे पेशियों में ऐंठन, वज़न और स्फूर्ति में कमी, दृष्टि और श्रवण दोष और खुले स्थान का भय) तीन या चार सप्ताह तक रहता है। कुछ लोगों में तो कई महीने तक यही हालत रहती है।”

लेकिन प्रशांतकों पर निर्भरता के खिलाफ संघर्ष में कई लोग सफल हो रहे हैं। बर्टन आन ट्रेंट में तीन गिरजों का संकुल चलाने वाले पादरी बर्नार्ड ब्राउन ने काम के दबाव से राहत पाने के लिए वेलियम लेना शुरू किया। उसके बाद वे कई प्रशांतकों को मिलाकर लेने लगे। परिणामस्वरूप वे गंभीर रूप से अवसादग्रस्त हो गए। उन्हें बिजली के झटके तक दिए गए। उनके चिकित्सक ने उन्हें अधिक तेज़ दवा ऐटिवन दी तब कहीं जाकर वे अधिक दवाओं के प्रभाव से मुक्ति की ओर बढ़े। प्रशांतक दवाइयां लेने की आदत छोड़ने के प्रयासरत लोगों को स्व-सहायता दल ज़बरदस्त सहारा देते हैं। समूह का हर सदस्य जानता है कि दूसरे पर क्या गुज़र रही है। वे एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं और उनकी जीत में भागीदार बनते हैं। नवागंतुकों के लिए उनका संदेश होता है, ‘हमने किया। आप भी कर सकते हैं।’

जॉय एक फैशन मॉडल थी। वह चोटी के लिबास डिज़ाइनरों के लिए काम करती थी। 29 साल पहले वह तलाक के दर्दनाक मुकदमे में फंस गई थी, और तब नींद आने के लिए उसने प्रशांतकों का सेवन शुरू किया। फिर बड़े-बड़े फैशन शो के पहले उन्हें लेने लगी। जल्द ही उसे दिल की धड़कन बढ़ने का रोग हो गया और सांस लेने में तकलीफ होने लगी। आखिरकार उसे अपना काम छोड़ देना पड़ा और कई साल अस्पताल के अंदर-बाहर होती रही। चिकित्सक यह ज्ञात करने में असफल रहे कि उसे हो क्या गया है। वह कहती है, “मैंने ज़िंदगी के कई साल खो दिए। मेरे बच्चों को याद है कि मैं उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेती थी। मैं जैसे कुहासे में जी रही थी।” जॉय एक स्व-सहायता दल के पास गई और उनकी सहायता से प्रशांतकों से मुक्ति पा ली। आज उसका अपना व्यवसाय है और एक व्यस्त दादी मां के रूप में ज़िंदगी का आनंद उठा रही है।

प्रशांतकों का लंबी अवधि तक सेवन करने से वे उस हालत को और खराब कर देते हैं जिन्हें दुरुस्त करने की उनसे उम्मीद की जाती है। उनका अवरोधक प्रभाव मस्तिष्क की उस कार्य शैली को गड़बड़ा देता है जो एड्रिनेलीन के प्रवाह को नियंत्रित करती है और जिससे पूरी प्रणाली में उसकी बाढ़ आ जाती है। लिवरपूल की नर्स पैम आर्मस्ट्रांग उपरोक्त व्यसन मुक्ति परिषद चलाती हैं। वे समझाती हैं, “ऐड्रिनेलीन खून का प्रवाह और ह्मदय की धड़कन बढ़ाता है। सामान्य अवस्था में किसी खतरे को देखते हुए शरीर की यह प्रतिक्रिया होती है। लेकिन अगर कोई शांतिपूर्वक बैठा हो और उसके दिल की धड़कन बढ़ जाए तो उसे दिल का दौरा भी पड़ सकता है।” 

अनुसंधान से पता चला है कि गर्भ के अंतिम महीनों में प्रशांतक लेने से गर्भस्थ शिशु पर बुरा असर पड़ता है। इनसे बच्चा नशे में डूब जाता है, जिसके कारण उसे फ्लॉपी इंफेंट सिंड्रोम हो सकता है। इसका मतलब है नवजात शिशु ठीक तरह से स्तनपान करने में असमर्थ होता है और उसे सांस लेने और दूध पीने में दिक्कत होती है।

बेंज़ोडाइज़ेपाइन वर्ग के प्रशांतक 60 के दशक में आए थे। उस समय बार्बिच्युरेट का प्रयोग सबसे ज़्यादा प्रचलित प्रशांतक के रूप में होता था। बार्बिच्युरेट के विपरीत इनकी लत नहीं लगती प्रतीत होती थी और अधिक मात्रा में लेने से मौत भी नहीं होती थी। इसलिए चिकित्सकों ने कई समस्याओं से छुट्टी पाने के सरल उपाय के रूप में बेंज़ोडाइज़ेपाइन्स का स्वागत किया।

चिकित्सकों को पहले ही बोध होना चाहिए था कि जिस दवा के लेने से लोग अच्छा महसूस करने लगते हैं, उसकी लत पड़ने का भी खतरा है। लेकिन प्रशांतकों के नुस्खे बड़ी संख्या में लिखे जाने लगे। फिर मरीज़ों का भी दबाव था। लोगों ने उनके बारे में सुना और चिकित्सकों से उन्हें लिखने की फरमाइश भी करने लगे। इसलिए चिकित्सक परीक्षा के तनाव से परेशान छात्रों को प्रशांतक लिखने लगे। वे 25 साल बाद आज तक उन्हें ले रहे हैं। प्रसूति के बाद के अवसाद को दूर करने के लिए औरतों को प्रशांतक दिए गए, और वे आज दादी बन जाने तक उन्हें ले रही हैं।

70 के दशक के उत्तरार्ध के पहले प्रशांतकों की लत लगने का पता नहीं चला था। नशीली दवाओं की आदत छुड़ाने में सहायता करने वाली ‘रिलीज़’ नामक संस्था के उपनिदेशक को याद है, “पहले हम अवैध नशीली दवाओं से चिंतित रहते थे। उसके बाद वे लोग आने लगे जिन्हें चिकित्सकों द्वारा बताई गई दवाओं के कारण परेशानी होने लगी थी। और तब हमने इस नई स्थिति को महसूस किया। लेकिन इस समस्या को स्वीकार करने में चिकित्सकों को काफी देर लगी।” 

प्रोफेसर लेडर स्पष्ट करते हैं कि इस खतरे को समझने में चिकित्सकों को इतनी देर क्यों लगी। नशीली दवाइयों के व्यसन की विशेषता होती है कि प्रभाव को बरकरार रखने के लिए उस व्यक्ति को नशीली दवा की खुराक बढ़ानी पड़ती है। लेकिन प्रशांतक लेने वालों को दवा की मात्रा बढ़ाने की ज़रूरत नहीं होती। वे उतनी ही मात्रा लेते रह सकते हैं।

कुछ लोग प्रतिकूल प्रभावों के कारण प्रशांतक लेने की आदत छोड़ना चाहते हैं। उन्हें इस आदत का गुलाम बनना गंवारा नहीं। लॉर्ड एनल्स ने स्वीकार किया कि वे भी 17 साल तक वेलियम के आदी रहे थे। इसमें 1976 से 1979 का वह समय भी शामिल था जिन दिनों वे स्वास्थ्य विभाग के सचिव थे। उन्हें चिकित्सकों ने प्रशांतक लेने की सलाह दी थी। उन दिनों वे पारिवारिक परेशानियों में उलझे थे। प्रशांतकों का कोई प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं हुआ, लेकिन वे गोलियों पर निर्भर रहना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने कई बार उनसे मुक्ति पाने की कोशिश की। आखिरकार उन्हें लेना अचानक बिलकुल बंद कर दिया। छह महीने तक बहुत परेशानी हुई, बुरे सपने आते, घबराहट होती और नींद नहीं आती थी।

चिकित्सक अचानक प्रशांतक का सेवन रोकने की सलाह नहीं देते हैं। इससे तेज़ सिरदर्द हो सकता है और यह खतरनाक भी हो सकता है। एक महिला ने ऐटिवन लेना अचानक बंद कर दिया तो उसने आत्महत्या करने की कोशिश की। अत: रोगियों को इन दवाओं की खुराक धीरे-धीरे कम करने में सहायता दी जाती है। चिकित्सीय निरीक्षण में व्यक्ति 8 सप्ताह में प्रशांतकों से मुक्ति पा सकता है।

आज अधिकतर चिकित्सक यह देखने की कोशिश करते हैं कि बेंज़ोडाइज़ेपाइन का इस्तेमाल तीव्र भावनात्मक कष्टों के निवारण में अस्थायी तौर पर किया जाए। ब्रिाटेन की दवा सुरक्षा समिति के मुताबिक रोग के लक्षणों को नियंत्रित करने के लिए चिकित्सक कम से कम खुराक लेने की सलाह दें। प्रशांतक चार हफ्ते से अधिक तक न लिए जाएं और नींद की गोलियां नियमित रूप से लेने के बजाए रुक-रुक कर ली जाएं।

प्रशांतक की आदत छोड़ने के लिए संघर्षरत लोगों को परामर्शदाता अपने परिवारों से सहायता लेने की सलाह देते हैं जो कि उनकी समस्या को समझते हुए उनका हौसला बुलंद कर सकें। चिकित्सक ऐसी दवाएं लिख सकते हैं जिनकी आदत नहीं पड़ती। गहरे अवसाद से पीड़ित लोगों को व्यसन न बनने वाली अवसादरोधी गोलियां या ऐसे बीटा ब्लॉकर दे सकते हैं जो दवा छोड़ने के बाद के शारीरिक प्रभाव यानी घबराहट और ह्मदय गति का बढ़ना रोकती हैं। वे परामर्श लेने या मनोचिकित्सा कराने की भी सलाह दे सकते हैं।

आपको लगता है कि प्रशांतक या नींद की गोलियां आपके लिए समस्या बन गई हैं तो निसंकोच अपने चिकित्सक की सलाह लें। इसके अलावा स्वयंसेवी दल हैं और कुछ अस्पतालों से सम्बद्ध विशेष इकाइयां भी हैं, जो लोगों की प्रशांतकों की लत छुड़ाने में सहायता करती हैं। यह याद रखें कि प्रशांतक ‘आनंद की गोलियां’ नहीं हैं जैसा कभी उनके बारे में सोचा जाता था और जो लोग लंबे अरसे तक उनका सेवन करते हैं, उन्हें अस्थायी राहत की ऊंची कीमत चुकानी पड़ सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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फूलों में छुपकर कीटनाशकों से बचाव

गुलाब का फूल और उसकी खूशबू कई लोगों को आकर्षित करती है। इसके व्यासायिक महत्व के चलते विश्व में कई जगह इसकी खेती भी की जाती है। लेकिन गुलाब की कलियों पर रहने वाली घुन पौधों को रोज़ रोज़ेट नामक वायरस से ग्रस्त कर देती हैं जिसके कारण पौधे को काफी नुकसान होता है। वैज्ञानिक अब तक गुलाब पर रहने वाली इस घुन पर काबू नहीं कर पाए थे।

लेकिन हाल ही में जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल हार्टिकल्चर में प्रकाशित शोध कहता है कि वैज्ञानिकों ने इस बात का पता कर लिया है कि क्यों इस घुन तक पहुंचना और उस पर काबू पाना मुश्किल था। शोध के अनुसार ये घुन गुलाब के आंतरिक अंगों में छिपकर अपने आपको हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों के छिड़काव से बचाने में सफल हो जाती हैं।

नमक के एक कण से भी छोटी घुन (Phyllocoptes fructiphilus) गुलाब के फूलों से अपना भोजन लेते समय फूलों में रोज़ रोज़ेट वायरस पहुंचा देती हैं जिससे पौधा रोग-ग्रस्त हो जाता है। इस रोग के कारण गुलाब के पौधे पर बहुत अधिक कांटे उग आते हैं, फूलों का आकार बिगड़ जाता है और पौधों में बहुत पास-पास कलियां खिलने लगती हैं जिसके कारण पौधा बदरंग और अनुपयोगी हो जाता है। इसके कारण पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

पौधों में यह रोग सबसे पहले कैलिफोर्निया में दिखा था और उसके बाद यह लगभग 30 प्रांतों में फैल गया। वैज्ञानिक पौधे में हुए इस रोग पर काबू पाने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन पौधों पर किसी भी तरह के रसायन और कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा था।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने 10 अलग-अलग राज्यों से रोग-ग्रस्त और स्वस्थ दोनों तरह के पौधों के तने, पत्ती और फूलों का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने पौधे के विभिन्न अंगो की आवर्धित तस्वीरें खीचीं। तस्वीरों के अध्ययन में उन्होंने पाया कि ये घुन फूलों की अंखुड़ियों की महीन रोमिल संरचना में धंसी रहती हैं। इस तरह ये कीटनाशक और हानिकारक रसायनों के छिड़काव से बच निकलती हैं। उम्मीद है कि इस शोध से गुलाब की फसलों में फैलने वाले रोज़ रोज़ेट रोग पर काबू पाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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विलुप्त होती हड्डी दोबारा उभरने लगी

वैज्ञानिकों का मानना था कि मनुष्य के घुटने पर उभरने वाली हड्डी फेबेला विकास क्रम में विलुप्त होने लगी थी। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि फेबेला फिर उभरने लगी है। इम्पीरियल कॉलेज की मिशेल बर्थोम और उनके साथियों का यह अध्ययन जर्नल ऑफ एनॉटॉमी में प्रकाशित हुआ है।

सेम की साइज़ की यह हड्डी सीसेमॉइड हड्डी है, जिसका मतलब है कि यह कंडरा के बीच धंसी रहती है। समय के साथ यह हड्डी कैसे विलुप्त हुई यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 27 अलग-अलग देशों के 21,000 घुटनों के एक्स-रे, एमआरआई और अंग-विच्छेदन का अध्ययन किया। इन सभी से प्राप्त डैटा को एक साथ किया और उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि लगभग एक शताब्दी पूर्व की तुलना में वर्तमान समय में यह हड्डी तीन गुना अधिक मामलों में दिखती है। अध्ययन के अनुसार साल 1875 में लगभग 17.9 प्रतिशत लोगों में फेबेला उपस्थित थी जबकि वर्ष 1918 में यह लगभग 11.2 लोगों में उपस्थित थी। और 2018 में यह 39 प्रतिशत लोगों में देखी गई।

पूर्व में फेबेला बंदरों में नी कैप (घुटनों के कवच) की तरह काम करती थी। मनुष्य में विकास के साथ फेबेला की ज़रूरत कम होती गई। और यह विलुप्त होने लगी। लेकिन यह मनुष्यों में पुन: दिखने लगी है। ऐसा माना जाता है कि इस हड्डी की उपस्थित का सम्बंध घुटनों के दर्द वगैरह से है। फेबेला को गठिया या घुटनों की सूजन, दर्द और अन्य समस्याओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। वास्तव में हड्डियों के गठिया से पीड़ित लोगों में सामान्य लोगों के मुकाबले फेबेला अधिक देखी गई है। तो आखिर किस वजह से यह लोगों में फिर उभरने लगी है।

मिशेल का कहना है कि सीसेमॉइड हड्डियां समान्यतः किसी यांत्रिक बल की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित होती हैं। आधुनिक मनुष्य अपने पूर्वजों की तुलना में बेहतर पोषित है, यानी पूर्वजों की तुलना में हम अधिक लंबे और भारी हैं। अधिक वज़न से घुटनों पर अधिक ज़ोर पड़ता है जिसके फलस्वरूप लोगों में फेबेला उभरने लगी है। (स्रोत फीचर्स)

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कोशिका भित्ती बंद, बैक्टीरिया संक्रमण से सुरक्षा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर बैक्टीरिया लगभग 3.8 से 4 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए थे। पर्यावरण ने जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जो कुछ भी उपलब्ध कराया, वे उसी से काम चलाते रहे हैं। उनकी तुलना में मनुष्य पृथ्वी पर बहुत बाद में अस्तित्व में आए, कुछ लाख साल पहले। वर्तमान में पृथ्वी पर मनुष्य की कुल आबादी लगभग 7 अरब है। जबकि पृथ्वी पर बैक्टीरिया की कुल आबादी लगभग 50 लाख खरब खरब है। ब्राहृांड में जितने तारे हैं उससे भी कहीं ज़्यादा बैक्टीरिया पृथ्वी पर हैं।

कई बैक्टीरिया मनुष्यों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। इनमें से कई बैक्टीरिया मनुष्यों के लिए निरापद ही नहीं बल्कि फायदेमंद भी हैं। मनुष्य की आंत में लगभग 100 खरब बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारी वृद्धि और विकास में मदद करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं और यहां तक कि जान भी ले लेते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जड़ी-बूटियों और औषधियों की मदद से इनके संक्रमण से निपटने के तमाम तरीके अपनाए हैं। इसी संदर्भ में डॉ. रुस्तम एमिनोव ने फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी में प्रकाशित अपने शोघ पत्र “A brief history of the antibiotic era: Lessons learned and challenges for the future” (एंटीबायोटिक युग का संक्षिप्त इतिहास: सबक और भविष्य की चुनौतियां) में बताया है कि प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस लगाते थे। सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के इलाज में किसी बूटी का उपयोग करते थे।

एक हालिया रास्ता

आधुनिक चिकित्सा आधारित उपचार कुछ ही वर्ष पुराना है। सन 1909 में डॉ. हारा ने सिफलिस संक्रमण से लड़ने के लिए आर्सफेनामाइन यौगिक खोजा था। फिर सन 1910 में डॉ. बर्थाइम ने इसका संश्लेषण किया और सेलवार्सन नाम दिया। इसके बाद 1928 में एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन की खोज की थी। पेनिसिलीन कई सारे संक्रामक बैक्टीरिया को मार सकती थी।

बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं और रसायन खोजते हैं, उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की जेनेटिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस दवा के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं। इस तरह वैज्ञानिक और बैक्टीरिया के बीच यह रस्साकशी चलती ही रहती है। अब हम यह समझ गए हैं कि जब तक हम बैक्टीरिया संक्रमण फैलने में शामिल बुनियादी जीव वैज्ञानिक चरणों को नहीं समझ नहीं लेते तब तक हम बैक्टीरिया पर विजय नहीं पा सकेंगे।

बैक्टीरिया के जीव विज्ञान को समझने की दिशा में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया पर अध्ययन कर रहे हैं। अब हम जानते हैं कि बैक्टीरिया की कोशिका एक रक्षात्मक कोशिका भित्ती से घिरी होती है। यह कोशिका भित्ती एक बड़ी थैली-नुमा संरचना से बनी होती है जिसे पेप्टीडोग्लायकेन या PG कहते हैं। जिस PG का उपयोग बैक्टीरिया करते हैं, वह सिर्फ बैक्टीरिया में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं।

PG थैलीनुमा संरचना होती है जो दो शर्करा अणुओं (NAG और NAM) की शृंखलाओं से निर्मित कई परतों से मिलकर बनी होती हैं। ये परतें आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बैक्टीरिया की कोशिका के इर्द-गिर्द एक निरंतर परत का निर्माण करती हैं। अर्थात जब बैक्टीरिया का आकार बढ़ता है तो ज़रूरी होता है कि यह PG थैली भी फैलती जाए। PG थैली फैलने के लिए पहले परतों के बीच की कड़िया खुलेंगी, फिर नए पदार्थ जुड़ेंगे और एक बार फिर ये परतें आपस में कड़ियों के माध्यम से जुड़ जाएंगी। तभी तो बैक्टीरिया की वृद्धि हो पाएगी।

 

निर्णायक चरण

बैक्टीरिया पर काबू पाने की दिशा में हैदराबाद स्थित कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB) की डॉ. मंजुला रेड्डी और उनके साथियों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। उन्होंने इस बात का बारीकी से अध्ययन किया है कि बैक्टीरिया कैसे कोशिका भित्ती बनाता है और वृद्धि को संभव बनाने के लिए कैसे PG थैली खोलता है, और इस थैली को खोलने में कौन से रसायन मदद करते हैं। अध्ययन में उन्होंने PG थैली खुलने के लिए एंज़ाइम्स के खास समूह को ज़िम्मेदार पाया है (उनके शोध पत्र इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं https://doi.org/10.1073/pnas.1816893116)। उनके अनुसार, यदि जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से बैक्टीरिया में से इनमें से किसी एक या सभी एंज़ाइम को हटा दिया जाए तो PG थैली नहीं खुलेगी, और बैक्टीरिया भूखा मर जाएगा।

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यदि हम ऐसे कोई अणु या तरीके ढूंढ लेते हैं जिनकी मदद से हम इन एंज़ाइम्स को रोकने में सफल हो जाते हैं तो हम जीवाणुओं को उनके सुरक्षा कवच यानी कोशिका भित्ती को बनाने से रोक पाएंगे। इस तरह से संक्रमण पर काबू पा सकेंगे और सुरक्षित हो सकेंगे।

अन्य तरीके

प्रसंगवश, एंटीबायोटिक पेनिसिलीन भी उन्हीं एंज़ाइम्स को रोकती है जो कोशिका भित्ती खुलने के बाद उसे बंद करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। भित्ती बंद ना हो पाने के कारण जीवाणु कमज़ोर हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। तो यह तरीका हुआ “भित्ती बंद ना होने देना”। CCMB के शोधकर्ताओं द्वारा सुझाया तरीका है “कोशिका भित्ती हमेशा बंद रहे, कभी ना खुले”। वर्तमान में लोकप्रिय एंटीबायोटिक औषधियां जिन्हें फ्लोरोक्विनोलॉन्स कहते हैं (जैसे सिप्रॉफ्लॉक्सेसिन) कोशिका भित्ती पर सीधे असर नहीं करती लेकिन उन एंज़ाइम्स को रोकती हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए को खुलने और प्रतियां बनाने में मदद करता है। इस तरह की औषधियां संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को अपनी प्रतियां बनाकर संख्यावृद्धि करने और अपने जीन्स की मरम्मत करने से रोकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बायोमेट्रिक पहचान भी चुराई जा सकती है

कंप्यूटर और इंटरनेट के बढ़ते उपयोग से आजकल लोगों की गोपनीय जानकारी स्मार्टफोन, कंप्यूटर या किसी अन्य जगह पर डिजिटल रूप में स्टोर रहती है। जहां एक ओर लोग इन जानकारियों को महफूज़ रखने के प्रयास में होते हैं वहीं दूसरी ओर हैकर इन जानकारियों तक पहुंचने के प्रयास में होते हैं।

आजकल डैटा या उपकरणों की सुरक्षा के लिए बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है। भारत में तो बड़े पैमाने पर बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली आधार से नागरिकों की ज़रूरी जानकारी (बैंक अकाउंट, आयकर सम्बंधी सूचना वगैरह) को जोड़ा जा रहा है। किन्हीं भी दो व्यक्तियों की बायोमेट्रिक पहचान – फिंगरप्रिंट, चेहरा और आंखों की पुतली की संरचना – एक जैसी नहीं होती और ऐसा माना जाता है कि किसी व्यक्ति का फिंगरप्रिंट, चेहरा या आइरिस कोई चुरा नहीं सकता इसलिए उपकरणों और डैटा की सुरक्षा के लिए व्यक्ति की बायोमेट्रिक पहचान उपयोग करने का चलन बढ़ा है।

लेकिन हाल के शोध में पता चला है कि बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली को भी हैक किया जा सकता है।

बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली कितनी सुरक्षित है यह जांचने के लिए न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक एल्गोरिद्म बनाई है। यह एल्गोरिद्म ना सिर्फ जाली फिंगरप्रिंट बना लेती है बल्कि यह एक मास्टर एल्गोरिद्म है यानि एक ऐसा फिंगरप्रिंट तैयार करती है जो किसी भी फिंगरप्रिंट के लिए काम करता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी भी ताले को खोलने के लिए एक मास्टर चाबी होती है। इस एल्गोरिद्म को डीपमास्टरप्रिंट नाम दिया है।

पहले चरण में विभिन्न फिंगरप्रिंट का विश्लेषण करके एल्गोरिद्म को फिंगरप्रिंट की विशेषता, उसकी बनावट के बारे में सीखना था। अगले चरण में एल्गोरिद्म ने कुछ मास्टर फिंगरप्रिंट के नमूने बनाए। फिर अलग-अलग सुरक्षा स्तर (निम्न, मध्यम और उच्च सुरक्षा स्तर) के फिंगरप्रिंट स्कैनर में इन मास्टर फिंगरप्रिंट की जांच की गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि मध्यम सुरक्षा स्तर पर स्कैनर हर 5 में से एक बार यानि 20 प्रतिशत मामलों में बेवकूफ बन गया था।

मिशिगन स्टेट युनिवर्सिटी के एरन रोश का कहना है स्मार्ट फोन जैसे उपकरणों का सुरक्षा स्तर निम्न होता है। इन उपकरणों में फिंगरप्रिंट स्कैनर का सेंसर बहुत छोटा होता है। इसलिए सेंसर द्वारा पूरा फिंगरप्रिंट एक साथ मैच करने की बजाए फिंगरप्रिंट के छोटे-छोटे हिस्सों को मैच किया जाता है। यदि ये टुकड़े मैच हो जाते हैं तो उपकरण खुल जाता है। इसिलिए ये उपकरण विशेष रूप से असुरक्षित हैं।

स्विटज़रलैंड स्थित आइडिएप रिसर्च इंस्टीट्यूट के सेबेस्टियन मार्शेल की टीम भी बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए काम कर रही है। सेबेस्टियन मार्शेल का कहना है कि सोशल मीडिया, इंटरनेट पर लोगों द्वारा अपनी निजी तस्वीरें साझा किए जाने के कारण हैकर द्वारा बायोमेट्रिक पहचान तक पहुंचना आसान हो गया है। लेकिन लोगों की बायोमैट्रिक पहचान के साथ अन्य फैक्टर जैसे उनका रक्त प्रवाह, शरीर का तापमान या कुछ अंक वगैरह, जोड़कर डैटा को और अधिक सुरक्षित किया जा सकता है। पर ज़ाहिर है कि बायोमेट्रिक सुरक्षा अनुलंघनीय नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन मानव प्रजाति ‘हॉबिट’ से भी छोटी थी

फिलीपींस के एक द्वीप की गुफा में प्राचीन मानव प्रजाति की हड्डियां और दांत मिले हैं। मनुष्यों का यह रिश्तेदार आकार में हॉबिट से भी छोटा होता था।

लूज़ोन द्वीप पर पाए जाने के कारण इस नई प्रजाति का नाम होमो लुज़ोनेंसिस रखा गया है। यह प्रजाति इस द्वीप पर लगभग 50,000 से अधिक साल पहले प्लायस्टोसिन काल में पाई जाती थी। 4 फीट (1.2 मीटर) से कम ऊंचाई वाला होमो लुज़ोनेंसिस दूसरा ज्ञात बौना मानव है। इससे पहले होमो फ्लोरेसेंसिस (जिसे हॉबिट भी कहते हैं) के अवशेष 2004 में इंडोनेशियाई द्वीप फ्लोर्स पर पाए गए थे।

भले ही होमो लुज़ोनेंसिस आकार में छोटे हैं लेकिन इनकी कई विशेषताएं अन्य प्राचीन मानव रिश्तेदारों से मेल खाती हैं। इनके पैर और उंगलियों की हड्डियां ऑस्ट्रेलोपिथेकस (मानव और चिम्पैंजी के बीच की एक प्रजाति) की तरह घुमावदार हैं, दांतों का आकार ऑस्ट्रेलोपिथेकस, होमो हैबिलिस और होमो इरेक्टस के सामान हैं, और छोटे दांत आधुनिक मनुष्यों या होमो सेपियंस के समान दिखते हैं।

अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता और नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री, पेरिस के पुरा-मानव विज्ञानी फ्लारेंस डाइट्रॉइट के अनुसार इन जीवाश्म घटकों में शारीरिक विशेषताओं का एक ऐसा मिश्रण दिखाई देता है जो होमो वंश की अन्य प्रजातियों में नहीं दिखाई देता। इसलिए यह एक नई प्रजाति लगती है। इससे पहले 2007 में लूज़ोन की कैलाओ गुफा में पैर के पंजे की 67,000 वर्ष पुरानी हड्डी मिली थी और उसके बाद से ही खुदाई का काम शुरू कर दिया गया। इस दौरान कुल मिलाकर 13 जीवाश्म हड्डियां और दांत मिले जो दो प्राणियों के थे। इनमें से एक 50,000 वर्ष पुराने जीवाश्म से पता चला कि होमो लुज़ोनेंसिस दरअसल होमो सेपिएंस, निएंडरथल, डेनिसोवांस और होमो फ्लोरेसेंसिस सहित अन्य मानव प्रजातियों के साथ अस्तित्व में थे।

फिलहाल यह कह पाना तो संभव नहीं है कि होमो लुज़ोनेंसिस दिखते कैसे होंगे लेकिन उनके छोटे-छोटे दांतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस प्रजाति का आकार छोटा ही होगा। साथ ही घुमावदार पंजे और उंगलियों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे पेड़ पर चढ़ने के साथ-साथ ज़मीन पर सीधा चलने में भी माहिर थे। होमो प्रजातियां 20 लाख वर्ष पहले दो पैरों पर चलने लगी थीं, इसलिए यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि होमो लुज़ोनेंसिस वापिस पेड़ों पर चढ़ गए थे। शायद एक अलग द्वीप पर रहने के कारण उनमें यह विशेषता उभरी।

हालांकि कुछ ऐसी संभावनाएं हैं जिन पर अक्सर बात होती रही है। जैसे लूज़ोन पर 7,00,000 साल पहले के साक्ष्य से पता चला है कि कुछ एशियाई होमो इरेक्टस किसी प्रकार समुद्र पार करके यहां बस गए और लूज़ोन द्वीप के प्रभाव के कारण होमो लुज़ोनेंसिस में परिवर्तित हो गए। हालांकि वैज्ञानिक फिलिपींस की गीली और गर्म जलवायु के चलते हड्डियों से किसी भी डीएनए को निकालने में असमर्थ रहे, लेकिन फिर भी हड्डियों में मौजूद प्रोटीन से उत्पत्ति का पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारी के इलाज में वायरसों का उपयोग

वैसे तो बैक्टीरिया जनित रोगों के इलाज में वायरसों के उपयोग का विचार कई दशकों पहले उभरा था और कुछ चिकित्सकों ने इस पर हाथ भी आज़माए थे किंतु एंटीबायोटिक दवाइयों की आसान उपलब्धता के चलते यह विचार उपेक्षित ही रहा। यह आम जानकारी है कि वायरस स्वयं कई बीमारियां पैदा करते हैं। तो यह सवाल अस्वाभाविक नहीं है कि फिर इनका उपयोग बैक्टीरिया से लड़ने में कैसे होगा।

बरसों पहले यह पता चल चुका था कि कई वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करके उन्हें मार डालते हैं। ऐसे वायरसों को बैक्टीरिया-भक्षी वायरस या बैक्टीरियोफेज कहते हैं। इसके आधार पर यह सोचा गया था कि यदि आपके पास सही बैक्टीरिया-भक्षी है तो आप बैक्टीरिया संक्रमण से निपट सकते हैं। प्रत्येक बैक्टीरिया के लिए विशिष्ट भक्षी होता है। अत: सबसे पहले तो आपको भक्षी की खोज करना होती है। ये प्रकृति में हर जगह पाए जाते हैं किंतु सही भक्षी की खोज करना आसान नहीं होता। इसके बाद समस्या यह आती थी कि एक भक्षी सारे मरीज़ों के लिए कारगर नहीं होता था। और सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि एक बार एकत्रित करने के बाद इन वायरसों को सहेजना पड़ता था। इन सब मामलों में एंटीबायोटिक कहीं ज़्यादा सुविधानक थे। इसलिए वायरस उपचार की बात चली नहीं।

मगर आज बड़े पैमाने पर बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी हो चले हैं। दुनिया भर में यह चिंता व्याप्त है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध के चलते कहीं हम उस युग में न लौट जाएं जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं। यदि वैसा हुआ तो आधुनिक चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा खतरे में पड़ जाएगी। इस माहौल में एक बार फिर वायरस चिकित्सा की चर्चा शुरू हुई है।

हाल ही में कुछ अस्पतालों में वायरस-उपचार के सफल उपयोग के समाचार मिले हैं। टेक्नॉलॉजी के स्तर पर भी हम काफी आगे बढ़े हैं। भक्षी वायरसों को पहचानना, एकत्रित करना और सहेजना अब ज़्यादा आसान हो गया है। अत: वायरस-उपचार अनुसंधान में तेज़ी आई है। (स्रोत फीचर्स)

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मात्र शत प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण पर्याप्त नहीं है – एन. श्रीकुमार, मानबिका मंडल, एन. जोसी

एक भरोसेमंद बिजली आपूर्ति काफी महत्वपूर्ण है। वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) को सामाजिक और वाणिज्यिक दोनों गतिविधियों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। इस लेख के लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से संबंधित हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के सामने चुनौतियों पर तीन लेखों में से पहला है

स बात की काफी संभावना है कि केंद्र सरकार घोषित करे कि देश के सभी घरों में बिजली कनेक्शन उपलब्ध है। सौभाग्य वेबसाइट पर प्रकाशित ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में केवल 20,000 परिवार ऐसे हैं जिनके पास बिजली कनेक्शन नहीं है। लेकिन इस बात की खुशी मनाते हुए यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह अच्छी शुरुआत भर है। कनेक्शन प्रदान करने की चुनौती को तो शायद पूरा कर लिया गया है, लेकिन बिजली आपूर्ति प्रदान करने की चुनौती अभी भी बनी हुई है। जीवन स्तर में सुधार और आर्थिक गतिविधियों में सहायता के लिए, सस्ती और भरोसेमंद बिजली आपूर्ति ज़रूरी है।

घरेलू कनेक्शन और गांव के विद्युतीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के चक्कर में बिजली आपूर्ति के लक्ष्य की उपेक्षा हुई है। बिजली आपूर्ति का प्रबंधन पैसों की तंगी वाली वितरण कंपनियों द्वारा किया जाता है जिनके पास गरीब ग्रामीणों को बिजली आपूर्ति देने का कोई वित्तीय प्रलोभन नहीं होता है।

इस समस्या को दूर करने के लिए आपूर्ति-केंद्रित ग्रामीण विद्युतीकरण अभियान की आवश्यकता है। आपूर्ति और सेवा के वर्तमान घटिया स्तर से मुक्त होने के लिए ऐसा अभियान आवश्यक है। एक बार उल्लेखनीय सुधार हो गया, तो उपभोक्ताओं की ओर से  आपूर्ति की गुणवत्ता के लिए वितरण कंपनियों को जवाबदेह बनाने का दबाव रहेगा, और यह जोश जारी रहेगा।

कनेक्शन से एक कदम आगे 

चूंकि पूरा ध्यान कनेक्शनों पर केंद्रित रहा है, इसलिए आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर हमारे पास बहुत कम जानकारी है। जो भी आंकड़े उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि शिकायतों की सूची में मीटरिंग, बिलिंग और भुगतान सम्बंधी शिकायतें प्रमुख हैं। नए कनेक्शन वाले घरों के बिल जारी करने में अनावश्यक विलंब होता, बिलों में गलतियां होती है, मीटर में खामियां हैं और बिल भुगतान में कठिनाइयां हैं। बिलों में विलंब या गलतियों से बिल काफी अधिक आता है, जिससे छोटे उपभोक्ताओं को भुगतान करने में मुश्किल होती है और उनके कनेक्शन कट जाते हैं।

दूसरी शिकायत बिजली कटौती को लेकर है। सरकारी रिपोट्र्स में ग्रामीण इलाकों में 16 से 24 घंटे की बिजली आपूर्ति की बात कही गई है। उपभोक्ता सर्वेक्षण और अन्य अध्ययन इससे बहुत कम घंटे बिजली आपूर्ति रिपोर्ट करते हैं। स्मार्टपॉवर के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि आधे घरों में एक दिन में आठ घंटे बिजली कटौती होती है और लगभग आधे ग्रामीण उद्यम गैर-ग्रिड विकल्प का उपयोग करते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 2017 के राष्ट्रव्यापी ग्राम सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि केवल आधे गांवों में ही 12 घंटे से अधिक बिजली आपूर्ति होती है।

प्रयास ऊर्जा समूह द्वारा 23 राज्यों में 200 मॉनिटरिंग केंद्रों से एकत्रित डैटा के अनुसार ग्रामीण इलाकों के आधे स्थानों में प्रति माह 15 घंटे से अधिक कटौती और प्रति दिन 2-4 बार व्यवधान का अनुभव होता है।

सामुदायिक सेवाएं

घरों के अलावा, ग्रामीण विद्युतीकरण को कृषि, छोटे व्यवसाय और सामुदायिक सेवाओं जैसे स्ट्रीट लाइटिंग, स्कूलों, आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए। कृषि क्षेत्र के लिए ज़्यादातर राज्यों में केवल सात से आठ घंटे की आपूर्ति प्रदान की जाती है। यह बिजली आपूर्ति ज़्यादातर रात के समय और अक्सर रुक-रुककर दी जाती है। बार-बार होने वाली रुकावटें ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक उद्यमों के संचालन को हतोत्साहित करती हैं।

वितरण कंपनी का राजस्व सिर्फ तभी बढ़ सकता है जब ऐसे उपभोक्ता अधिक बिजली का उपभोग करें। इससे पहले कि उपभोक्ता ग्रिड द्वारा आपूर्ति में विश्वास खो दें, बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता में सुधार के लिए कदम उठाना आवश्यक है। सरकारी सर्वेक्षणों की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में, 40 प्रतिशत स्कूलों और 25 प्रतिशत स्वास्थ्य उप-केंद्रों में बिजली कनेक्शन नहीं थे। ग्रामीण वितरण के बुनियादी ढांचे को सुधारना आवश्यक है, जो फिलहाल मात्र घरेलू मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

बिजली आपूर्ति अभियान

कनेक्शन-उपरांत के मसलों पर ध्यान देना ज़रूरी है। जैसे प्रथम बिल जारी होना, बिजली आपूर्ति के घंटे, वितरण ट्रांसफॉर्मर की विफलता दर और गैर-घरेलू उपभोक्ता कनेक्शन में बढ़ोतरी। एकीकृत उर्जा विकास योजना (आईपीडीएस) वर्तमान में शहरों पर केंद्रित है; इसे ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ाया जाना चाहिए। बेकार पड़ी बिजली उत्पादन क्षमता, पुराने पड़ चुके उर्जा संयंत्रों और अप्रयुक्त क्षमता से उत्पन्न बिजली डिस्कॉम्स को रियायती दरों पर दी जा सकती है। इसका उपयोग वे निर्धारित ग्रामीण क्षेत्रों में भरोसेमंद आपूर्ति हेतु कर सकती हैं।

राज्य वितरण कंपनियां मीटरिंग और बिलिंग में सुधार कर सकती हैं और बिल भुगतान के लिए ज़्यादा केंद्र स्थापित कर सकती हैं। इसमें वे पंचायत कार्यालयों, डाकघरों या स्वास्थ्य केंद्रों की मदद ले सकती हैं। मोबाइल ऐप्लिकेशन और जन सुनवाई के माध्यम से शिकायत निवारण प्रक्रियाओं को सरल बनाया जा सकता है।

घटिया बिजली आपूर्ति के लिए वितरण कंपनियों को नियामक आयोगों द्वारा आर्थिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए। आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए, लगभग 300 युनिट की खपत वाले छोटे उद्यमों को सस्ते शुल्क का आश्वासन दिया जाना चाहिए।

स्वास्थ्य केंद्रों जैसी सामुदायिक सुविधाओं के लिए जहां विश्वसनीय आपूर्ति महत्वपूर्ण है, बैटरी बैकअप वाले छोटे सौर संयंत्र लगाने की योजना बनाई जा सकती है। प्रीपेड मीटर, स्मार्ट मीटर और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसे प्रयासों को बढ़ावा देने से पहले पायलट परियोजनाओं के रूप में आज़माया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

*यह लेख अंग्रेज़ी में “द हिन्दू बिज़नेस लाइन” में “100% rural electrification is not enough” नाम से प्रकाशित हो चुका है। इसका लिंक यहां दिया गया है
https://www.thehindubusinessline.com/opinion/100-rural-electrification-is-not-enough/article26645721.ece

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindubusinessline.com/opinion/w23se2/article26645720.ece/alternates/WIDE_615/BL27THINKPOWER