जैव-विद्युत संदेश और अंगों का पुनर्जनन

ई जीवों में अपने खोए हुए अंगों को पुन: विकसित करने की क्षमता होती है। कुछ जीव ऐसा अपने जीवन के किसी नियत समय में ही करते हैं। इस विषय पर हुए अब तक के अध्ययन बताते हैं कि ज़ीनोपस मेंढक और अन्य उभयचर जीवों में अंग पुनर्जनन में, अंग-विच्छेदन की जगह पर उत्पन्न जैव-विद्युत संदेशों की भूमिका होती है। लेकिन हालिया अध्ययन दर्शाते हैं कि अंग पुनर्जनन में ये जैव-विद्युत संदेश अंग-विच्छेद के स्थान से काफी दूर-दूर तक पहुंचते हैं।

इस बात की पुष्टि करने के लिए शोधकर्ताओं ने मेंढक के टेडपोल का अध्ययन किया। उन्होने टेडपोल को फ्लोरोसेंट रंग में भीगोकर रखा ताकि शरीर में जैव-विद्युत संदेशों पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद उन्होंने टेडपोल को बेहोश किया और उसका दायां पिछला पंजा काटकर अलग कर दिया। जैसे ही पंजा शरीर से अलग किया गया वैसे ही विपरीत पैर के पंजे से भी घाव होने के संदेश उत्पन्न हुए। जब सिर्फ पंजा अलग किया गया तो दूसरे पैर के पंजे में संदेश मिले। जब पूरा पैर अलग किया गया तो दूसरे पैर के ऊपरी भाग में संदेश पैदा हुए। लेविन का कहना है कि इन संदेशों को देखकर यह बताया जा सकता है कि कौन-सा अंग काटा गया है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी एन्ड्रयू हैमिल्टन का कहना है कि यह अध्ययन काफी अच्छा है। इसके अगले चरण में, मेंढकों की तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करके यह पता करने की कोशिश की जा सकती है कि ये संकेत कैसे फैलते हैं।

शोधकर्ता फिलहाल अंग के पुनर्जनन में क्षति के जैव-विद्युतीय प्रतिबिंब निर्माण की भूमिका को समझना चाहते हैं। इसके लिए वे एक पैर काटेंगे और दूसरे पैर में वोल्टेज में बदलाव करेंगे, और इस बात पर नज़र रखेंगे कि अंग पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में कोई बदलाव होता है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए वर्ष में धरती की रक्षा से जुड़ें – भारत डोगरा

ए वर्ष का समय मित्रों व प्रियजनों को शुभकामनाएं देने का समय है। इसके साथ यह जीवन में अधिक सार्थकता के लिए सोचते-समझने का भी समय है क्योंकि एक नया वर्ष अपनी तमाम संभावनाओं के साथ हमारे सामने है।

इस सार्थकता की खोज करें तो स्पष्ट है कि धरती की गंभीर व बड़ी समस्याओं के समाधान से जुड़ने में ही सबसे बड़ी सार्थकता है। इस समय समस्याएं तो बहुत हैं, पर संभवत: सबसे बड़ी व गंभीर समस्या यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है।

वर्ष 1992 में विश्व के 1575 वैज्ञानिकों (जिनमें उस समय जीवित नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों में से लगभग आधे वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) ने एक बयान जारी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था, “हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर – यह पृथ्वी – इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।”

इन वैज्ञानिकों ने आगे कहा था कि तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों, सभी पर पड़ रहा है और वर्ष 2100 तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन पद्धति शैली के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए।

इस चेतावनी के 25 वर्ष पूरा होने पर अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017 में फिर एक नई चेतावनी जारी की। इस चेतावनी पर कहीं अधिक वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया है कि वर्ष 1992 में जो चिंता के बिंदु गिनाए गए थे उनमें से अधिकांश पर अभी तक समुचित कार्रवाई नहीं हुई है व कई मामलों में स्थितियां पहले से और बिगड़ गई हैं।

इससे पहले एमआईटी द्वारा प्रकाशित चर्चित अध्ययन ‘इम्पेरिल्ड प्लैनेट’(संकटग्रस्त ग्रह) में एडवर्ड गोल्डस्मिथ व उनके साथी पर्यावरण विशेषज्ञों ने कहा था कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता सदा ऐसी ही बनी रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस रिपोर्ट में बताया गया सबसे बड़ा खतरा यही है कि हम उन प्रक्रियाओं को ही अस्त-व्यस्त कर रहे हैं जिनसे धरती की जीवनदायिनी क्षमता बनती है।

स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। यह अनुसंधान बहुत चर्चित रहा है। इस अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका अतिक्रमण मनुष्य को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं है – जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्यास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव।

इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाएं ऐसी हैं जिनका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं – भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव।

इस अनुसंधान में सामने आ रहा है कि इन अति संवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा एक ‘टिपिंग पॉइंट’ (यानी डगमगाने के बिंदु) के आगे पहुंच गई तो अचानक बड़े पर्यावरणीय बदलाव हो सकते हैं। ये बदलाव ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सीमा-रेखा पार होने के बाद रोका न जा सकेगा या पहले की जीवन पनपाने वाली स्थिति में लौटाया न जा सकेगा। वैज्ञानिकों की तकनीकी भाषा में, ये बदलाव शायद रिवर्सिबल यानी उत्क्रमणीय न हो।

इन चिंताजनक स्थितियों को देखते हुए बहुत ज़रूरी है कि अधिक से अधिक लोग इन समस्याओं के समाधान से जुड़ें। इसके लिए इन समस्याओं की सही जानकारी लोगों तक ले जाना बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों व विज्ञान की अच्छी जानकारी रखने वाले नागरिकों की भूमिका व विज्ञान मीडिया की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। जन साधारण को इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जोड़ने के लिए पहला ज़रूरी कदम यह है कि उन तक इन गंभीर समस्याओं व उनके समाधानों की सही जानकारी पंहुचे।

नए वर्ष के आगमन का समय इन बड़ी चुनौतियों को ध्यान में रखने, इन पर सोचने-विचारने का समय भी है ताकि नए वर्ष में इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जुड़कर अपने जीवन में अधिक सार्थकता ला सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रोगों की पहचान में जानवरों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ हफ्तों पहले काफी दिलचस्प खबर सुनने में आई थी कि कुत्ते मलेरिया से संक्रमित लोगों की पहचान कर सकते हैं। ऐसा वे अपनी सूंघने की विलक्षण शक्ति की मदद से करते हैं। यह रिपोर्ट अमेरिका में आयोजित एक वैज्ञानिक बैठक में ‘मेडिकल डिटेक्शन डॉग’संस्था द्वारा प्रस्तुत की गई थी। मेडिकल डिटेक्शन डॉग यूके स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था है। इसी संदर्भ में डोनाल्ड जी. मैकनील ने न्यू यार्क टाइम्स में एक बेहतरीन लेख लिखा है। (यह लेख इंटरनेट पर उपलब्ध है।)

मेडिकल डिटेक्शन डॉग कुत्तों में सूंघने की खास क्षमता की मदद से अलग-अलग तरह के कैंसर की पहचान पर काम कर चुकी है। इसके लिए उन्होंने कुत्तों को व्यक्ति के ऊतकों, कपड़ों और पसीने की अलग-अलग गंध की पहचान करवाई ताकि कुत्ते इन संक्रमणों या कैंसर को पहचान सकें। इस समूह ने पाया कि मलेरिया और कैंसर पहचानने के अलावा कुत्ते टाइप-1 डाइबिटीज़ की भी पहचान कर लेते हैं। कुछ अन्य समूहों का कहना है कि उन्होंने कुत्तों को इस तरह प्रशिक्षित किया है कि वे मिर्गी के मरीज़ में दौरा पड़ने की आशंका भांप लेते हैं। उम्मीद है कि कुत्तों की मदद से कई अन्य बीमारियों की पहचान भी की जा सकेगी। कुत्तों में रासायनिक यौगिकों (खासकर गंध वाले) को सूंघने और पहचानने की विलक्षण शक्ति होती है। उनकी इस विलक्षण क्षमता के कारण ही एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिए, कस्टम विभाग में, पुलिस में या अन्य भीड़भाड़ वाले स्थानों पर ड्रग्स, बम या अन्य असुरक्षित चीज़ों को ढूंढने के लिए कुत्तों की मदद ली जाती है। सदियों से शिकारी लोग कुत्तों को साथ ले जाते रहे हैं, खासकर लोमड़ियों और खरगोश पकड़ने के लिए।

शुरुआत कैसे हुई

पिछले पचासेक वर्षों में रोगों की पहचान के लिए कुत्तों की सूंघने की क्षमता की मदद लेने की शुरुआत हुई है। इस सम्बंध में वर्ष 2014 में क्लीनिकल केमिस्ट्री नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘एनिमल ऑलफैक्ट्री डिटेक्शन ऑफ डिसीज़: प्रॉमिस एंड पिट्फाल्स’लेख बहुत ही उम्दा और पढ़ने लायक है। यह लेख कुत्तों और अन्य जानवरों (खासकर अफ्रीकन थैलीवाले चूहे) में रोग की पहचान करने के विभिन्न पहलुओं पर बात करता है। (इंटरनेट पर उपलब्ध है: DOI:10.1373/clinchem.2014.231282)। कैंसर की पहचान में कुत्तों की क्षमता का पता 1989 में लगा था, जब एक कुत्ता अपनी देखरेख करने वाले व्यक्ति के पैर के मस्से को लगातार सूंघ रहा था। जांच में पाया गया कि त्वचा का यह घाव मेलेनोमा (एक प्रकार का त्वचा कैंसर) है। इसी लेख में डॉ. एन. डी बोर ने बताया है कि किस प्रकार कुत्ते हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के कैंसर को पहचान सकते हैं। प्रयोगों और जांचों में इन सभी कैंसरों की पुष्टि भी हुई। हाल ही में कुत्तों को कुछ सूक्ष्मजीवों (टीबी के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया और आंतों को प्रभावित करने वाले क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल बैक्टीरिया) की पहचान करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया है।

जानवरों में इंसान के मुकाबले कहीं अधिक तीक्ष्ण और विविध तरह की गंध पहचानने की क्षमता होती है। (जानवर पृथ्वी पर मनुष्य से पहले आए थे और पर्यावरण का सामना करते हुए विकास में उन्होने सूंघने की विलक्षण शक्ति हासिल की है।) डॉ. एस. के. बोमर्स पेपर में इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि बीडोइन्स ऊंट (अरब के खानाबदोशों के साथ चलने वाले ऊंट) 80 किलोमीटर दूर से ही पानी का स्रोत खोज लेते हैं। ऊंट ऐसा गीली मिट्टी में मौजूद जियोसिमिन रसायन की गंध पहचान कर करते हैं।

चूहे भी मददगार

लेकिन विभिन्न गंधों की पहचान के लिए ऊंटों की मदद हर जगह तो नहीं ली जा सकती। डॉ. बी. जे. सी. विटजेन्स के अनुसार अफ्रीकन थैलीवाले चूहे की मदद ली जा सकती है। चूहों में दूर ही से और विभिन्न गंधों को पहचानने की बेहतरीन क्षमता होती है, इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है और इनके रहने के लिए जगह भी कम लगती है। साथ ही ये चूहे उष्णकटिबंधीय इलाकों के रोगों की पहचान में पक्के होते हैं। इतिहास की ओर देखें तो मनुष्य ने गंध पहचान के लिए कुत्तों को पालतू बनाया। कुछ चुनिंदा बीमारियों की पहचान के लिए कुत्तों की जगह अफ्रीकन थैलीवाले चूहों की मदद ली जाती है। तंजानिया स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था APOPO इन चूहों पर सफलतापूर्वक काम कर रही है। चूहों के साथ फायदा यह है कि उनकी ज़रूरतें कम होती हैं – एक तो आकार में छोटे होते हैं, उनकी इतनी देखभाल नहीं करनी पड़ती, उन्हें प्रशिक्षित करना आसान है, और उन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। फिलहाल तंजानिया और मोज़ेम्बिक में इन चूहों की मदद से फेफड़ों के टीबी की पहचान की जा रही है (https://www.flickr.com/photos/42612410@N05>)। दुनिया भर में भी स्थानीय चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती।

कुत्तों, ऊंटों, चूहों जैसे जानवरों में रोग पहचानने की यह क्षमता उनकी नाक में मौजूद 15 करोड़ से 30 करोड़ गंध ग्रंथियों के कारण होती है। जबकि मनुष्यों में इन ग्रंथियों की संख्या सिर्फ 50 लाख होती है। इतनी अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवरों की सूंघने की क्षमता मनुष्य की तुलना में 1000 से 10 लाख गुना ज़्यादा होती है। अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवर विभिन्न प्रकार गंध की पहचान पाते हैं और थोड़ी-सी भी गंध को ताड़ने में समर्थ होते हैं। इसी क्षमता के चलते कुत्ते जड़ों के बीच लगी फफूंद भी ढूंढ लेते हैं, जो पानी के अंदर होती हैं।

भारत में क्यों नहीं?

भारत में कुत्तों के प्रशिक्षण के लिए अच्छी सुविधाएं हैं, जिनका इस्तेमाल क्राइम ब्रांच, कस्टम वाले और अपराध वैज्ञानिक एजेंसियां करती हैं। जनसंख्या के घनत्व और चूहों के उपयोग की सरलता को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती है। APOPO की तर्ज पर हमारे यहां भी स्थानीय जानवरों को महामारियों की पहचान के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। ज़रूरी होने पर रोग की पुष्टि के लिए विश्वसनीय उपकरणों की मदद ली जा सकती है। इस तरह की ऐहतियात से हमारे स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य कर्मियों को सतर्क करने में मदद मिल सकती है। स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य कार्यकर्ता शुरुआत में ही बीमारी या महामारी पहचाने जाने पर दवा, टीके या अन्य ज़रूरी इंतज़ाम कर सकते हैं और रोग को फैलने से रोक सकते हैं। हमारे पशु चिकित्सा संस्थानों को इस विचार की संभावना के बारे में सोचना चाहिए। पशु चिकित्सा संस्थान उपयुक्त और बेहतर स्थानीय जानवर चुनकर उन्हें रोगों की पहचान के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं। और इन प्रशिक्षित जानवरों को उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों, खासकर घनी आबादी वाले और कम स्वास्थ्य सुविधाओं वाले इलाकों में रोगों की पहचान के लिए तैनात किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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जीन संपादन: संभावनाएं और चुनौतियां – प्रदीप

म जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। यह काफी पहले ही घोषित किया जा चुका है कि अगर 20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी जीव विज्ञान की सदी होगी। ऐसा स्वास्थ्य, कृषि, पशु विज्ञान, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा आदि क्षेत्रों में सतत मांग के कारण संभव हुआ है। इन सभी क्षेत्रों में जीवजगत एक केंद्रीय तत्व है। पिछले कुछ वर्षों में जीव विज्ञान में चमत्कारिक अनुसंधान तेज़ी से बढ़े हैं। इस दिशा में हैरान कर देने वाली हालिया खबर है – एक चीनी वैज्ञानिक द्वारा जन्म से पूर्व ही जुड़वां बच्चियों के जीन्स में बदलाव करने का दावा। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग संतान में पहुंचाता है। कह सकते हैं कि काफी हद तक हम वैसे ही दिखते हैं या वही करते हैं, जो हमारे शरीर में छिपे सूक्ष्म जीन तय करते हैं। डीएनए के उलट-पुलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो संतानों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलती हैं।

चूंकि शरीर में क्रियाशील जीन की स्थिति कुछ बीमारियों को आमंत्रित करती है, इसलिए वैज्ञानिक लंबे समय से मनुष्य की जीन कुंडली को पढ़ने में जुटे हैं। वैज्ञानिकों का उद्देश्य यह रहा है कि जन्म से पहले या जन्म के साथ शिशु में जीन संपादन तकनीक के ज़रिए आनुवंशिक बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स को पहचान कर उन्हें दुरुस्त कर दिया जाए। इस दिशा में इतनी प्रगति हुई है कि अब जेनेटिक इंजीनियर आसानी से आणविक कैंची का इस्तेमाल करके दोषपूर्ण जीन में काट-छांट कर सकते हैं। इसे जीन संपादन कहते हैं और इस तकनीक को व्यावहारिक रूप से किसी भी वनस्पति या जंतु प्रजाति पर लागू किया जा सकता है।

हालांकि मनुष्य के जीनोम में बदलाव करने की तकनीक बेहद विवादास्पद होने के कारण अमेरिका, ब्रिाटेन और जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में प्रतिबंधित है मगर चीन एक ऐसा देश ऐसा है जहां मानव जीनोम में फेरबदल करने पर प्रतिबंध नहीं है और इस दिशा में वहां पर पिछले वर्षों में काफी तेज़ी से काम हुआ है। इसी कड़ी में ताज़ा समाचार है – चीनी शोधकर्ता हे जियानकुई द्वारा जुड़वां बच्चियों (लुलू और नाना) के पैदा होने से पहले ही उनके जीन्स में फेरबदल करने का दावा। हे जियानकुई के अनुसार उन्होंने सात दंपतियों के प्रजनन उपचार के दौरान भ्रूणों को बदला जिसमें अभी तक एक मामले में संतान के जन्म लेने में यह परिणाम सामने आया है। इन जुड़वां बच्चियों में सीसीआर-5 नामक एक जीन को क्रिस्पर-कास 9 नामक जीन संपादन तकनीक की मदद से बदला गया। सीसीआर-5 जीन भावी एड्स वायरस संक्रमण के लिए उत्तरदायी है। क्रिस्पर-कास 9 तकनीक का उपयोग मानव, पशु और वनस्पतियों में लक्षित जीन को हटाने, सक्रिय करने या दबाने के लिए किया जा सकता है। जियानकुई ने यह दावा एक यू ट्यूब वीडियो के माध्यम से किया है। अलबत्ता, इस दावे की स्वतंत्र रूप से कोई पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है और इसका प्रकाशन किसी मानक वैज्ञानिक शोध पत्रिका में भी नहीं हुआ है।

दुधारी तलवार

जीन संपादन तकनीक आनुवंशिक बीमारियों का इलाज करने की दिशा में निश्चित रूप से एक मील का पत्थर है। इसकी संभावनाएं चमत्कृत कर देने वाली हैं। यह निकट भविष्य में आणविक स्तर पर रोगों को समझने और उनसे लड़ने के लिए एक अचूक हथियार साबित हो सकता है। लेकिन यह भी सच है कि ज्ञान दुधारी तलवार की तरह होता है। हम इसका उपयोग विकास के लिए कर सकते हैं और विनाश के लिए भी! इसलिए जियानकुई के प्रयोग पर तमाम सामाजिक संस्थाओं और बुद्धिजीवियों ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी है तथा मानव जीन संपादन पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। जेनेटिक्स जर्नल के संपादक डॉ. किरण मुसुनुरू के मुताबिक ‘इस तरह से तकनीक का परीक्षण करना गलत है। मनुष्यों पर ऐसे प्रयोगों को नैतिक रूप से सही नहीं ठहराया जा सकता।’एमआईटी टेक्नॉलजी रिव्यू ने चेतावनी दी है कि यह तकनीक नैतिक रूप से सही नहीं है क्योंकि भ्रूण में परिवर्तन भविष्य की पीढ़ियों को विरासत में मिलेगा और अंतत: समूची जीन कुंडली को प्रभावित कर सकता है। इसलिए नैतिकता से जुड़े सवाल व विवाद खड़े होने के बाद फिलहाल जियानकुई ने अपने प्रयोग को रोक दिया है तथा चीनी सरकार ने भी इसकी जांच के आदेश दिए हैं। चीन मानव क्लोनिंग को गैर-कानूनी ठहराता है लेकिन जीन संपादन को गलत नहीं ठहराता।

नैतिक और सामाजिक प्रश्न

इस तरह के प्रयोग पर विरोधियों ने सवालिया निशान खड़े करने शुरू कर दिए हैं। उनका कहना है कि इससे समाज में बड़ी जटिलताएं और विषमताएं उत्पन्न होंगी।

सर्वप्रथम इससे कमाई के लिए डिज़ाइनर (मनपसंद) शिशु बनाने का कारोबार शुरू हो सकता है। प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को गोरा-चिट्टा, गठीला, ऊंची कद-काठी और बेजोड़ बुद्धि वाला चाहते हैं। इससे भविष्य में जो आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग होंगे उनके ही बच्चों को बुद्धि-चातुर्य और व्यक्तित्व को जीन संपादन के ज़रिए संवारने-सुधारने का मौका मिलेगा। तो क्या इससे सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा नहीं मिलेगा?

वैज्ञानिकों का एक तबका इस तरह के प्रयोगों को गलत नहीं मानता। उन्हें लगता है कि ऐसे प्रयोग लाइलाज बीमारियों के उपचार के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोल सकते हैं। इससे किसी बीमार व्यक्ति के दोषपूर्ण जीन्स का पता लगाकर जीन संपादन द्वारा स्वस्थ जीन आरोपित करना संभव होगा। मगर विरोधी इस तर्क से भी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर जीन विश्लेषण से किसी व्यक्ति को यह पता चल जाए कि भविष्य में उसे फलां बीमारी की संभावना है और वह जीन संपादन उपचार करवाने में आर्थिक रूप सक्षम नहीं है, तो क्या उस व्यक्ति का सामाजिक मान-सम्मान प्रभावित नहीं होगा? क्या बीमा कंपनियां संभावित रोगी का बीमा करेंगी? क्या नौकरी में इस जानकारी के आधार पर उससे भेदभाव नहीं होगा?

जीन संपादन तकनीक अगर गलत हाथों में पहुंच जाए, तो इसका उपयोग विनाश के लिए भी किया जा सकता है। इसके संभावित खतरों से चिंतित भविष्यवेत्ताओं का मानना है कि यह तकनीक आनुवंशिक बीमारियों को ठीक करने तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि कुछ अतिवादी आतंकवादी अनुसंधानकर्ता अमानवीय मनुष्य के निर्माण करने की कोशिश करेंगे। तब इन अमानवीय लोगों से समाज कैसे निपट सकेगा?

संभावनाएं अपार हैं और चुनौतियां भी। जीन संपादन तकनीक पर नैतिक और सामाजिक बहस और वैज्ञानिक शोध कार्य दोनों जारी रहने चाहिए। इस तकनीक का इस्तेमाल मानव विकास के लिए होगा या विनाश के लिए, यह भविष्य ही बताएगा। (स्रोत फीचर्स)

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यदि आपके बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

भी मांओं की एक ही कहानी है – मेरा बच्चा सब्ज़ियां नहीं खाता। उसे तो केवल क्रीम बिस्किट्स, चॉकलेट और आईसक्रीम ही चाहिए। और फिर शुरू होता है धमकी और रिश्वत का एक सौदा। मां अपने बच्चे से कहती है कि जब तक तुम सब्ज़ी नहीं खाओगे तब तक मिठाई नहीं मिलेगी। इस रणनीति में कुछ बच्चे आलू और भिंडी तो खाने के लिए हां कर देते हैं और बाकी बेचारों को पालक, गिलकी, लौकी-कद्दू और टिन्डों की ज़बरदस्ती स्वीकार करते बड़ा होना पड़ता है।

हम सभी को मीठा पसंद है। मीठे की ओर आकर्षण हमें हमारे पूर्वज प्रायमेट्स से विरासत में मिला है। उस समय हमारे पूर्वज भी आज के बंदरों और वनमानुष की तरह खुशबूदार पके मीठे फलों को खोजते दिन बिताते थे। अधिक ऊर्जा और पानी के लिए पके और मीठे फल को कच्चे और कड़वे फल पर प्राथमिकता मिलती थी। पेड़ों पर पके मीठे फल मिलने पर पानी की खोज भी पूरी हो जाती थी।

तो आपका बच्चा अगर मिठाई की ओर ललचाई निगाह से देखता है तो इसमें बच्चे का दोष नहीं है। दोष है हमारे प्रायमेट पूर्वजों और उनको मिली परिस्थितियों का और हमारे आनुवंशिक लक्षणों का।

आज भी हमारे नज़दीकी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी जंगलों में जब भी मधुमक्खी के छत्ते को देखते हैं, तो सैकड़ों मधुमक्खियों के दंश की परवाह न करते हुए शहद खाने के मौके को कभी भी हाथ से जाने नहीं देते। शहद को खाने की उत्कंठा चिम्पैंज़ियों में इतनी तीव्र होती है कि अफ्रीका के विभिन्न स्थानों पर पाए जाने वाले स्थानीय चिम्पैंज़ियों ने शहद को खाने के लिए उपयुक्त तरीके भी निकाल लिए हैं। पूर्वजों के समान अगर हम भी मीठे की ओर आकर्षित होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि मानव के पूर्वजों ने गन्ने को पूरे विश्व में फैला दिया है।

अधिकांश ज़हरीले भोज्य पदार्थ कड़वे होते हैं और हमारे पूर्वजों ने भी कड़वे पदार्थों से दूरी बनाना सीख लिया था। मीठे, खट्टे और नमकीन की तुलना में कड़वे पदार्थों के स्वाद के लिए मनुष्यों में अन्य सभी प्राणियों से 25 जीन्स अधिक पाए जाते हैं।

तो मांओं की यह चिंता जायज़ है कि बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। कई प्रकार के खाद्य पदार्थ तो अधिकता में शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं। वसा एवं शर्करा ज़्यादा मात्रा में लेने पर वे चयापचय को धीमा करते हैं, वज़न बढ़ाते हैं तथा धमनियों में जमा होकर उन्हें कठोर कर देते हैं, खासकर जब बच्चे खेलना-कूदना छोड़ देते हैं। तो क्या हम बच्चों को मिठाई की बजाय सब्ज़ी खाने के लिए तैयार कर सकते हैं। उत्तर है, हां।

विज्ञान की नई शाखा ऑप्टोजेनेटिक्स इसमें बहुत उपयोगी होगी। ऑप्टोजेनेटिक्स एक ऐसी तकनीक है जिसमें प्रकाश द्वारा जीवित ऊतक, खासकर जेनेटिक तौर पर बदले गए न्यूरॉन्स को प्रकाश संवेदी बनाकर कार्य करने के लिए उकसाया जाता है।

ऑप्टोजेनेटिक्स के भोजन सम्बंधी कुछ प्रयोग फलों पर पाई जाने वाली छोटी एवं लाल आंखों वाली फ्रूट फ्लाय (ड्रॉसोफिला) पर किए गए हैं। मनुष्य को मीठे लगने वाले विभिन्न प्रकार के रसायन अन्य प्रजातियों के प्राणियों को भी मीठे लगें यह ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए मनुष्यों द्वारा मीठे के लिए उपयोग किया जाने वाला रसायन एस्पार्टेम चूहों और बिल्लियों को मीठा नहीं लगता। आश्चर्यजनक रूप से मीठे के मामले में ड्रॉसोफिला एवं मानव की पसंद एक जैसी ही है। दोनों की पसंद इतनी मिलती है कि हमारे नज़दीकी रिश्तेदार कई बंदरों को भी वे चीज़ें मीठी नहीं लगती जो हमें और ड्रॉसोफिला को मीठी लगती हैं। यह भी पता लगा है कि मनुष्य एवं ड्रॉसोफिला दोनों के पूर्वज सर्वाहारी एवं मुख्य रूप से मीठे फल खाने वाले थे।

मीठे की तुलनात्मक अनुभूति कराने वाले रसायन में से 21 पोषक और अपोषक रसायन जो मानव को मीठे लगते हैं वे मक्खियों को कैसे लगते हैं यह जानने के लिए प्रयोग किए गए।

क्या स्वाद ग्रंथियां सब्ज़ियों का स्वाद लेने पर भी मस्तिष्क को मीठा खाने जैसी अच्छी अनुभूति दे सकती है? हां। इसे सिद्ध करने के लिए ड्रॉसोफिला पर एक प्रयोग किया गया। मक्खियों के उपयोग में लाए जाने वाले आयपैड (जिसे फ्लायपैड कहते हैं) का उपयोग किया गया। पैड के दो कक्षों में से एक में हरी ब्रोकली तथा दूसरे में केले का गूदा रखा गया। अब मक्खियों को छोड़कर यह देखा गया कि वे किस प्रकार का खाद्य पदार्थ पसंद करती हैं। मक्खी जिस खाद्य पदार्थ की ओर जाती थी फ्लायपैड उस परिणाम को आंकड़े के रूप में एकत्रित कर लेता था। निष्कर्षों में यह पता चला कि मक्खियों ने भी बच्चों की तरह ब्रोकली की बजाय केले को मीठे स्वाद के कारण ज़्यादा पसंद किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मानव में जीभ पर पाए जाने वाली स्वाद कलिकाएं स्वाद ग्राहियों से बनी होती है जो विशेष न्यूरॉन्स होते हैं। जब भी जीभ पर भोज्य पदार्थ लगता है तो स्वाद ग्राही मस्तिष्क तक एक संदेश भेजते हैं। मीठे पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से जुड़कर तुरंत संदेश को मस्तिष्क में पहुंचाते हैं जिससे सुखद अनुभूति होती है। किंतु ड्रॉसोफिला में ब्रोकली पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से नहीं जुड़ते। इस कारण मस्तिष्क को संदेश नहीं मिलते हैं। हम ब्रोकली के जीनोम में कुछ जीन जोड़कर उन्हें ऑप्टोजेनेटिक्स से ब्रोकली खाने पर भी मीठे होने जैसी अनुभूति दे सकते हैं।

नए जीन डालने पर ड्रॉसोफिला के स्वाद ग्राही के न्यूरॉन्स प्रकाश के प्रति संवेदी हो जाते हैं। अब प्रयोग में एक परिवर्तन किया गया। जब भी ड्रॉसोफिला ब्रोकली खाने के लिए आती है तभी एक लाल लाइट के जलने से मीठे स्वाद ग्राही मस्तिष्क को संदेश भेजते हैं। ब्रोकली खाने पर भी ड्रॉसोफिला को मीठे खाने जैसी ही अनुभूति होती है। प्रयोगों द्वारा पाया गया कि जीन परिवर्तित ड्रॉसोफिला अब ब्रोकली को भी केले के बराबर पसंद करने लगी थी।

क्या ऑप्टोजेनेटिक्स के द्वारा आपके बच्चे भी मिठाई की बजाय सब्ज़ियां पसंद करने लगेंगे? कही नहीं जा सकता। लेकिन ऑप्टोजेनेटिक्स की सहायता से अब दृष्टिबाधित भी देखने लगे हैं और आने वाले समय में भूलने की समस्या का निदान भी ऑप्टोजेनेटिक्स द्वारा संभव हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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याददाश्त से जुड़ी समस्याओं में व्यायाम मददगार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले 30 सालों में भारतीय लोगों की औसत आयु बढ़ी है। 1960 में भारतीय लोगों की औसत आयु 41 वर्ष थी जो 2015 में बढ़कर 68 वर्ष हो गई। उम्र लम्बी होने के साथ उम्र से जुड़ी शारीरिक और मानसिक समस्याएं भी आती हैं। इनके बारे में सचेत होने और उनका हल ढूंढने की ज़रूरत है। औसत आयु में वृद्धि के साथ-साथ स्मृतिलोप (डिमेंशिया) की समस्या भी बढ़ी है। धीरे-धीरे याददाश्त जाना और संज्ञानात्मक क्षमता में कमी स्मृतिलोप की समस्या पैदा करते हैं। अनुमान है कि भारत में लगभग 40 लाख लोग स्मृतिलोप से पीड़ित हैं। इन 40 लाख लोगों में से लगभग 16 लाख लोग तो अल्ज़ाइमर से पीड़ित हैं। अल्ज़ाइमर एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। कुछ अन्य तरह के तंत्रिका विकार भी स्मृतिलोप को जन्म देते हैं।

उम्र बढ़ने के साथ हमारे मस्तिष्क में भी परिवर्तन आते हैं। हमारे मस्तिष्क का हिप्पोकैंपस नामक हिस्सा सीखने, स्मृतियां निर्मित करने और उन्हें सहेजने से जुड़े कार्यों के लिए ज़िम्मेदार होता है। मुश्किलें तब शुरू होती हैं जब हिप्पोकैंपस की तंत्रिका कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं या मरने लगती हैं। यदि इस हिस्से की सुरक्षा के और इन तंत्रिका कोशिकाओं को दुरुस्त करने के तरीके मिल जाएं तो इस समस्या से निजात मिल सकती है और संज्ञानात्मक क्षमता को सामान्य किया जा सकता है।

स्मृतिलोप किन कारणों से होता है? दुनिया भर में हुए कुछ शोध का निष्कर्ष था कि स्मृतिलोप के लिए कुछ हद तक APOE4 नामक रिस्क जीन और प्रेसिनिलीन ज़िम्मेदार है। किंतु सीसीएमबी हैदराबाद के डॉ. डी. चांडक और तिरुवनंतपुरम के डॉ. मथुरानाथ के आंकड़ों के मुताबिक APOE4 (और प्रेसिनिलीन) की भूमिका गंभीर समस्या पैदा करने में कम ही रही है। हालांकि आंकड़ों से यह भी लगता है कि देश भर में क्षेत्रीय अंतर भी हैं (जैसे, पंजाबी युनिवर्सिटी, पटियाला के डॉ. पी.पी. सिंह के आंकड़े)।

मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर स्मृतिलोप का मुख्य कारण सामने आया है। ब्रेन इमेजिंग में पता चला है कि हिप्पोकैंपस और मस्तिष्क के कुछ अन्य हिस्से थोड़े टेढ़े या उलझे हुए हैं, और यहां प्लाक’ (अघुलनशील परत) जमा है। प्लाक मस्तिष्क की संकेत भेजने की प्रक्रिया में बाधा पहुंचाते हैं। (इसका पता सबसे पहले यूके में गायों को होने वाली बीमारी मेड काऊ में चला था। इन गायों को मांस के लिए पाला जाता था।)  कुछ अन्य का सुझाव है कि स्मृतिलोप के लिए ब्रेन डेराव्ड न्यूरोट्रॉपिक फैक्टर या BDNF नामक प्रोटीन ज़िम्मेदार है। जब BDNF का स्तर निश्चित सीमा से कम हो जाता है तो स्मृतिलोप होता है।

कई तरीकों से स्मृतिलोप को संभालने की कोशिश की गई है। इसके लिए लोगों को टीका भी दिया गया लेकिन सफल नहीं रहा, ना ही इम्यून थेरपी इसमें कारगर साबित हुई। नियमित शारीरिक व्यायाम से इसमें मदद मिलती दिखी है – शारीरिक व्यायाम और दिमागी व्यायाम के बीच कुछ तो सम्बंध है। काफी समय से माना जाता रहा है कि व्यायाम से नई तंत्रिका कोशिकाओं का निर्माण (न्यूरोजेनेसिस) शुरू होता है या तेज़ होता है। ठीक वैसे ही जैसे व्यायाम मांसपेशियों और ह्मदय की कोशिकाओं के निर्माण में मददगार होता है। इसी सम्बंध में हारवर्ड विश्वविद्यालय के डॉ. रुडोल्फ ई. तान्ज़ी और उनके समूह ने साइंस पत्रिका के सितंबर 2018 के अंक में एक नोट प्रकाशित किया है। अपने अनुसंधान में उन्होंने अल्ज़ाइमर से पीड़ित एक चूहे को मॉडल के तौर पर उपयोग किया था।

व्यायाम कैसे मदद करता है

दिमाग के हिप्पोकैंपस में न्यूरो-प्रोजेनिटर कोशिकाएं होती है जो नए न्यूरॉन्स बनाती रहती हैं। इस प्रक्रिया को एडल्ट हिप्पोकैंपल न्यूरोजिनेसिस (AHN) कहते हैं। अल्ज़ाइमर और अन्य स्मृतिलोप में नए न्यूरॉन्स बनाने (AHN) की यह प्रणाली बाधित हो जाती है। डॉ. रुडोल्फ और उनके साथियों ने अल्ज़ाइमर से पीड़ित चूहों को कुछ दिनों तक रोज़ाना 3 घंटे घूमते हुए चक्के पर दौड़ाया। इससे चूहों में AHN में वृद्धि हुई। इस शोध में डॉ. रुडोल्फ को कई सकारात्मक परिणाम मिले। पहला, चूहों में AHN बढ़ गया था और ज़्यादा तंत्रिका कोशिकाएं बनी देखी गर्इं। दूसरा, चूहों के मस्तिष्क में प्लाक कम हो गए थे। तीसरा, BDNF का स्तर बढ़ गया था। और चौथा, उनकी याददाश्त में सुधार देखने को मिला था। यानी व्यायाम स्मृतिलोप से ग्रस्त चूहों में समस्या को कम करता है, हिप्पोकैंपस में न्यूरॉन्स बढ़ाता है और याददाश्त दुरुस्त करता है।

व्यायाम और रसायन

यदि व्यायाम BDNF को बढ़ाकर AHN की प्रक्रिया तेज़ करता है, और विकार को कम करता है तो सवाल यह उठता है कि क्यों ना व्यायाम के स्थान पर बायोकेमिकल तरीके से उपचार किया जाए। बायोकेमिकल तरीके में BDNF के स्तर को बढ़ाने के लिए AICAR और P7C3 रसायनों को शरीर में इंजेक्शन की मदद से दिया जाता है। ये नए न्यूरॉन्स को जीवित रहने में मदद करते हैं। साइंस पत्रिका के उसी अंक में डॉ. रुडोल्फ के शोध कार्य पर डॉ. टैरा स्पायर्स जोन्स और डॉ. क्रेग रिची ने टिप्पणी की है। इसमें उन्होंने कहा है कि यह पर्चा इशारा करता है कि क्यों व्यायाम याददाश्त के लिए अच्छा है। (उन्होंने थोड़ा मज़ाकिया लहज़े में जोड़ा है कि शायद हम AICAR और P7C3 के रूप में व्यायाम के प्रभावों को शीशियों में बंद कर रहे हैं। यह उन लोगों के लिए है जो शारीरिक व्यायाम नहीं कर सकते, या कुछ आलसियों के लिए जो व्यायाम करना नहीं चाहते)। ध्यान देने वाली बात है कि चूहे लगातार कई दिन रोज़ाना 3 घंटे दौड़ते थे, यानी कसरत लगातार और नियमित तौर पर करने की ज़रूरत है। यानी सभी वरिष्ठ नागरिकों को जल्दी व्यायाम शुरू कर लेना चाहिए, हो सके तो चालीस की उम्र में। ये पूरे शरीर और दिमाग के लिए अच्छा होगा।

क्या ध्यान मददगार है

एक मान्यता यह भी है कि ध्यान संज्ञानात्मक क्षमता को बढ़ाता है और यह तंत्रिका-क्षति रोगों के लिए अच्छा है। हालांकि ना तो डॉ. रुडोल्फ के पेपर में और और ना ही पेपर के समीक्षकों ने ध्यान पर कोई टिप्पणी दी है।

फ्रंटियर्स इन बिहेवियरल न्यूरोसाइंस में प्रकाशित पर्चे में डॉ. मार्सिनिएक और साथियों ने ध्यान पर हुए कई अध्ययनों की समीक्षा की है – ध्यान से संज्ञानात्मक क्षमता बढ़ती है, साथ ही यह बुज़ुर्गों में संज्ञानात्मक कमी से बचाव के लिए एक अच्छा गैर-औषधीय उपचार हो सकता है। हालांकि ध्यान के अलग-अलग प्रकार (बौद्ध, ज़ेन, विहंग्य योग, कीर्तन क्रिया वगैरह) और उनमें भी विविधता होने के कारण इसकी भी कुछ सीमाए हैं। उनका कहना है कि इस क्षेत्र में और शोध से मदद मिलेगी और इसके समस्यामूलक पहलुओं को स्पष्ट किया जा सकेगा। मगर इसमें भी नियमितता और लंबी अवधि की ज़रूरत है; यह कोई एकबारगी किया जाने वाला उपचार नहीं है। भारतीय न्यूरोसाइंस विभाग कुछ प्रयोग कर सकते हैं जो इसके रासायनिक और कोशिकीय पहलुओं की पड़ताल कर सकते हैं।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भटकती परमाणु घड़ी से आइंस्टाइन के सिद्धांत की पुष्टि

हाल ही में भौतिकीविदों की दो टीमों को अल्बर्ट आइंस्टाइन के गुरुत्वाकर्षण और सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए एक अनोखा अवसर मिला। उन्होंने कक्षा से भटके हुए उपग्रहों के डैटा का उपयोग किया जिससे इस सिद्धांत की पुष्टि की जा सके कि पृथ्वी जैसे भारी पिंड के करीब समय की गति धीमी हो जाती है और दूर जाने पर तेज़ हो जाती है।

आइंस्टाइन के अनुसार, विशाल पिंड स्थान-काल में विकृति पैदा करते हैं जिसकी वजह से गुरुत्वाकर्षण पैदा होता है। मुक्त गिर रही वस्तुएं इस वक्राकार स्थान-काल में सबसे सीधे संभव रास्ते पर चलती हैं, जो हमें एक फेंकी हुई गेंद या किसी उपग्रह के गोलाकार या अंडाकार पथ के रूप में दिखाई देती हैं। इस विकृति के चलते किसी विशाल पिंड के पास तो समय की गति कम हो जाती है और दूर जाते-जाते अधिक होने लगती है। इस विचित्र प्रभाव की पुष्टि पहली बार 1959 में पृथ्वी पर एक कम सटीकता वाले प्रयोग से की गई थी और इसके बाद 1976 में ग्रेविटी प्रोब-ए द्वारा इसकी एक और बार पुष्टि की गई। इसमें 2 घंटे का प्रयोग किया गया था जिसमें एक परमाणु घड़ी रॉकेट पर थी और उसकी तुलना धरती पर रखी एक परमाणु घड़ी से की गई थी।

वर्ष 2014 में, वैज्ञानिकों को इस प्रभाव का परीक्षण करने का एक और मौका मिला। युरोप के गैलीलियो ग्लोबल नेविगेशन सिस्टम में 26 उपग्रहों में से दो उपग्रहों का अवलोकन किया गया। ये दोनों उपग्रह गलती से वृत्ताकार कक्षाओं की बजाय अंडाकार कक्षाओं में लॉन्च कर दिए गए थे। ये उपग्रह 13 घंटे की परिक्रमा में 8500 किलोमीटर ऊपर-नीचे होते हैं, जिससे इनका समय धीमा-तेज़ होता रहता है। प्रत्येक परिक्रमण के दौरान 10 अरब में लगभग एक अंश का अंतर पड़ता है। फिज़िकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दो टीमों ने इन अंतरों को ट्रैक किया और पहले की तुलना में 5 गुना ज़्यादा सटीकता से दर्शाया कि समय की गति में यह अंतर सामान्य सापेक्षता की भविष्यवाणियों के अनुरूप है।

ये परिणाम बुरे नहीं हैं क्योंकि ये दोनों उपग्रह इस तरह के परीक्षण के लिए भेजे ही नहीं गए थे। अलबत्ता, 2020 में अंतरिक्ष स्टेशन के लिए एक उपग्रह भेजा जाने वाला है जिसका उद्देश्य ही समय की गति में इन अंतरों को पांच गुना और अधिक सटीकता से नापना है। (स्रोत फीचर्स)

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माहवारी के समय इतनी पाबंदियां क्यों? – सीमा

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मन्दिर में हर उम्र की महिला के अंदर जाने को हरी झंडी देकर फिर से माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर बहस को गरमा दिया है। अलग-अलग लोगों के तरह-तरह के बयान मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे। कुछ लोगों ने महसूस किया कि यह फैसला बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था तो कुछ अन्य लोगों का मानना था कि धर्म से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट को दखलंदाज़ी करने का कोई हक नहीं है। खैर, सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर चर्चा और कभी करेंगे। अभी इस लेख में हम बात करेंगे माहवारी और उससे जुड़ी सामाजिक मान्यताओं पर।

माहवारी महिलाओं के शरीर के अन्दर होने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सवाल है कि फिर इसके साथ यह छुआछूत कैसे जुड़ गई? औरतें ज़िंदगी के 35-40 साल इस सोच/कुंठा के साथ गुज़ार देती हैं कि माहवारी का खून गंदा है, दूषित करने वाला है। प्राय: इस पर कोई सवाल भी नहीं उठाया जाता। जबकि हकीकत यह है कि माहवारी का खून न तो गंदा है और न ही दूषित करने वाला। इस सच्चाई का एहसास हम तब ही कर पाएंगे जब हम अपने शरीर को, माहवारी की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करेंगे।

माहवारी वह प्रक्रिया है जिसमें महिला का शरीर एक बच्चे के ठहरने की तैयारी करता है। जब लड़की किशोरावस्था में कदम रखती है (आम तौर पर 9 से 14 वर्ष के बीच), तब माहवारी चक्र की शुरुआत होती है। एक बार माहवारी शुरू होने के बाद लगभग 45-50 वर्ष की उम्र तक महिलाओं को हर माह माहवारी आती है, सिर्फ उस समय को छोड़कर जब वे गर्भवती होती हैं।

एक महिला के शरीर में प्रजनन के लिए मुख्य अंग दो अंडाशय होते हैं। अंडाशय पेट के निचले क्षेत्र में यानी कूल्हे वाले हिस्से में दोनों ओर एक-एक होता है। प्रत्येक अंडाशय में लाखों अंड कोशिकाएं होती हैं। इन कोशिकाओं में अंडाणु बनाने की क्षमता होती है। मज़ेदार बात यह है कि ये सारी कोशिकाएं जन्म के समय से ही महिला के शरीर में मौजूद होती हैं। मगर ये अपरिपक्व अवस्था में होती हैं। लगभग 9 से 14 वर्ष की उम्र तक ये अपरिपक्व अवस्था में ही बनी रहती हैं। इनके परिपक्व होने की शुरुआत अलग-अलग महिला में अलग-अलग उम्र में होती है। दोनों अंडाशयों के पास एक-एक नली होती है जिसे अंडवाहिनी कहते हैं। अंडाशय में से हर माह एक अंडाणु निकलता है और इस नली के मुंह में गिर जाता है। इस नली के फैलने-सिकुड़ने से ही अंडाणु आगे गर्भाशय की ओर बढ़ता है। गर्भाशय मुट्ठी के बराबर एक तिकोनी, चपटी थैली होती है।

अंडाशय में परिपक्व होने के साथ ही अंडाणु के आसपास गुब्बारे की तरह की थैली बनने लगती है जिसे पुटिका कहते हैं। उसी समय गर्भाशय की अंदरूनी परत मोटी होने लगती है। इसमें ढेर सारी छोटी-छोटी खून की नलियां बनने लगती हैं ताकि यदि बच्चा ठहरे तो उस तक खून पहुंच सके। अंडाशय में अंडाणु के आसपास बढ़ रही पुटिका इतनी बड़ी हो जाती है कि वह फूट जाती है। अंडाणु अंडाशय से बाहर निकल आता है। अंडाणु किसी एक अंडवाहिनी में प्रवेश करता है और गर्भाशय की तरफ बढ़ता है।

मान लीजिए उस समय महिला और पुरुष के बीच संभोग होता है और पुरुष का वीर्य योनि में जाता है। वीर्य में लाखों की तादाद में शुक्राणु होते हैं। इनमें से कुछ योनि से गर्भाशय और वहां से अंडवाहिनियों में पहुंचते हैं जहां उनकी मुलाकात अंडाणु से हो सकती है। अगर शुक्राणु और अंडाणु में निषेचन हो गया तो निषेचित अंडाणु में कोशिका विभाजन शुरू हो जाता है और वह गर्भाशय की ओर बढ़ता रहता है।

निषेचन नहीं होने पर शरीर में शरीर में कुछ हार्मोन की मात्रा घट जाती है और गर्भाशय सिकुड़ने लगता है। गर्भाशय में बन रहा अंदरूनी मोटा अस्तर झड़ जाता है और अपने आप योनि से बाहर निकल आता है। इसी को माहवारी कहते हैं। पूरा अस्तर एक साथ नहीं निकल आता बल्कि दो से सात दिनों तक धीरे-धीरे बूंद-बूंद टपकता रहता है। माहवारी के स्राव में ज़्यादातर खून, ऊतक के छोटे टुकड़े व रक्त वाहिनियां पाई जाती हैं। यह खून न तो गंदा है, न ही रुका हुआ होता है।

माहवारी का स्राव बंद होने में कुछ दिन लग जाते हैं। उसी दौरान अंडाशय में कुछ और अंडाणु बढ़ने लगते हैं और झड़ती हुई परत के नीचे एक नई परत बनना शुरू हो जाती है। जल्द ही यह नया बढ़ता हुआ अंडाणु भी अंडाशय में से बाहर निकल आएगा। इस तरह यह चक्र दोबारा दोहराया जाएगा।

तो हमने देखा कि माहवारी स्त्री के शरीर में प्रजनन से जुड़ी एक सामान्य क्रिया है। मासिक स्राव के साथ जो खून रिसता है वह उन रक्त नलिकाओं का है जो गर्भ ठहरने पर बच्चे को ऑक्सीजन, पोषण तथा अन्य ज़रूरी तत्व मुहैया करवाने के लिए बनी थीं। एक मायने में यह नए जीवन को सहारा देने और संभव बनाने का साधन है।

अब हम बात करेंगे माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर। हमारे समाज में माहवारी के बारे में तरह-तरह की भ्रान्तियां फैली हुई हैं। मसलन, माहवारी के दौरान

– पेड़-पौधों को नहीं छूना चाहिए

– पूजा या नमाज़ नहीं करनी चाहिए

– देवी-देवताओं को नहीं छूना चाहिए

– धार्मिक स्थल पर नहीं जाना चाहिए

– रसोई में नहीं जाना चाहिए

– खाने की चीज़ें, खास तौर से पापड़-अचार को नहीं छूना चाहिए

– पुरुषों को देखना या छूना नहीं चाहिए

– अलग बिस्तर पर सोना चाहिए वगैरह, वगैरह…

आखिर ऐसा क्या होता होगा कि माहवारी के दौरान महिला कुछ भी करेगी तो गड़बड़ ही होगा?

ये मान्यताएं हम सब के मन में इस तरह से पैठ बनाए हुए हैं कि हम इन पर सवाल करने से भी कतराते हैं और उनका जस का तस पालन करते रहते हैं। कुछ लोग इन मान्यताओं को धर्म और पितृसत्ता से जोड़कर देखते हैं तो कुछ इनका वैज्ञानिक कारण तलाशते हैं, जैसे हार्मोन्स का प्रभाव, शरीर का विकास आदि। इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं की जांच-पड़ताल करके देखने की ज़रूरत है।

महिलाओं में माहवारी के आने को संतान पैदा करने की क्षमता से भी जोड़कर देखा जाता है। इसलिए माहवारी का आना सिर्फ एक महिला का निजी मुद्दा न रहकर एक पारिवारिक और सामाजिक मुद्दा भी बन जाता है। अफसोस की बात यह है कि परिवार और समाज की चिंताएं सिर्फ माहवारी से जुड़ी पाबंदियों तक ही सीमित हैं। यह विचार तक नहीं आता कि उस समय एक महिला को जिस तरह के आराम, खानपान और साफ-सफाई की ज़रूरत होती है वह उसे मिल पा रही है या नहीं। ज़रा सोचिए हर माह एक रजस्वला स्त्री के शरीर से लगभग 30-40 मि.ली. खून बह जाता है। इसकी क्षतिपूर्ति के बारे में सोचने की बजाय सिर्फ यह चिंता की जाती है कि वह खून गंदा है और उस स्त्री पर तमाम पाबंदियां लग जाती हैं।

आज भी माहवारी के विषय में खुलकर चर्चा नहीं की जाती है, न तो घर में और न ही स्कूल में। टीवी पर सेनेटरी नैपकिन के विज्ञापनों से लड़कियों को माहवारी के समय इस्तेमाल किए जा सकने वाले तरह-तरह के नैपकिन के बारे में जानकारी ज़रूर मिल जाती है, पर माहवारी क्यों होती है और उससे जुड़े तमाम सवालों के जवाबों को जानने का सुलभ ज़रिया उनके पास नहीं होता।

ज़्यादातर स्कूलों में, खासकर गांवों और कस्बों में, अब भी शौचालयों का अभाव है, और अगर होते भी हैं तो टूटे-फूटे और गंदी हालत में, पानी भी नदारद ही होता है। अगर स्कूल में अचानक से किसी लड़की को माहवारी आ जाए तो उन्हें देने के लिए सेनेटरी नेपकिन भी उपलब्ध नहीं होते हैं। इस वजह से लड़कियों को उन दिनों में स्कूल की छुट्टी करनी पड़ती है। सिर्फ लड़कियों को ही नहीं कामकाजी महिलाओं को भी इन परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।

महिलाएं आज भी बेझिझक होकर किसी दुकान से सेनेटरी नेपकिन नहीं खरीद पातीं। वे या तो दुकान खाली होने का इन्तज़ार करती हैं या फिर दुकान में किसी महिला के होने का। अगर वे दबी ज़ुबान में मांग भी लेती हैं तो नेपकिन को काली पन्नी या अखबार में लपेटकर दिया जाता है जैसे खुल्लम-खुल्ला नैपकिन खरीदना कोई शर्म की बात हो। बहरहाल, सेनेटरी नेपकिन आज भी सब की पहुंच में नहीं हैं और इस कारण से अधिकांश महिलाओं और लड़कियों को कपड़े का ही इस्तेमाल करना होता है। मज़दूरी करने वाली महिलाओं को आसानी से साफ कपड़ा भी मयस्सर नहीं होता। पीने के लिए तो पानी पर्याप्त मिलता नहीं, इन कपड़ों को धोने के लिए कहां से मिल पाएगा? जैसे-तैसे कम पानी में ही धोकर गुज़ारा करना होता है। और फिर औरत माहवारी से है यह सबसे छिपाकर भी रखना होता है इसलिए इन कपड़ों को खुले में न सुखाकर अंधेरी जगह में सुखाना पड़ता है। इस वजह से उन कपड़ों से तरह-तरह के संक्रमण का खतरा लगातार बना रहता है। सामाजिक मर्यादा कायम रखने का दबाव इतना होता है कि यौन संक्रमण के बारे में किसी को बताना या इलाज करवाना भी आसान नहीं होता।

तो क्या इन मान्यताओं को बनाए रखने के लिए –

– किसी महिला के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना सही है?

– उस पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाना जायज़ है?

– उसके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना ठीक है?

कदापि नहीं। ऐसे परिवेश में जहां शारीरिक विकास, माहवारी और प्रजनन पर चर्चा करना गंदा समझा जाता है, एक ऐसा माहौल बनाना और भी ज़रूरी हो जाता है जहां इन विषयों पर बातचीत हो सके। हमें इन मान्यताओं को जांचने-परखने और इन पर सवाल उठाने की ज़रूरत है। और यह ज़िम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की नहीं बल्कि समाज के हर तबके की है।

2005 में एकलव्य द्वारा आयोजित एक शिक्षक प्रशिक्षण शिविर में माहवारी से जुड़ी मान्यताओं की जांच-पड़ताल की गई थी। उसी के कुछ अनुभव यहां प्रस्तुत हैं। सबसे पहले माहवारी से जुड़ी उन मान्यताओं को पहचाना गया जिनकी जांच-पड़ताल आसानी से हो सकती है। पूजा-अर्चना वगैरह आस्था से जुड़े सवाल हैं, और ये ऐसी परिकल्पनाएं प्रस्तुत नहीं करते कि आप उनकी वैज्ञानिक जांच कर सकें। पर पापड़ व अचार का खराब हो जाना या पेड़-पौधों का सूख जाना जैसी मान्यताओं को तो प्रयोग करके परखा जा सकता है।

तो शिविर में निम्नलिखित मान्यताओं की जांच की गई:

·         क्या माहवारी के दौरान महिलाओं द्वारा सींचे जाने पर पौधे (खासकर तुलसी और गुलाब) सूख जाते हैं?

·         अचार-पापड़ बनाने या रखने के दौरान माहवारी वाली महिला छू ले, तो क्या अचार-पापड़ खराब हो जाते हैंै?

इन मान्यताओं के बारे में लोगों के विचार एकदम अलग-अलग थे। कुछ लोगों का मानना था कि अचार इसलिए भी खराब हो जाते हैं कि गीला चम्मच डाल दिया, ढक्कन ठीक से बंद नहीं किया, या फिर बनाने में ही कुछ गलती हो गई।

खाद्य सामग्री बनाने वाले उद्योगों के बारे में भी चर्चा हुई, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं ही काम करती हैं। माहवारी के दौरान छुट्टी तो नहीं मिलती। तो फिर वहां काम कैसे चलता है?

उपरोक्त मान्यताओं की जांच करने के लिए टोलियां बनाकर अलग-अलग प्रयोग किए गए।

तुलसी और गुलाब के एक जैसे दो-दो पौधे चुनकर एक की सिंचाई माहवारी वाली महिला से और दूसरे की सिंचाई ऐसी महिला से करवाई जिसे माहवारी नहीं हो रही है।

इसी प्रकार, अचार-पापड़ वाले प्रयोग में अचार-पापड़ बनाए गए – कुछ को बनाने-संभालने का काम माहवारी वाली महिलाओं द्वारा कराया गया और कुछ को बिना माहवारी की महिलाओं द्वारा।

तीनों प्रयोग करने के बाद अवलोकन किए गए।

पौधे पहले जैसे ही थे। प्रायोगिक पौधे न तो सूखे, न मुरझाए।

पापड़ भूने। सब एक से थे। लाल नहीं हुए। जिनमें ज़्यादा सोड़ा डाला था, वे भी नहीं। अचार के दोनों नमूने दो महीने के अवलोकन के लिए एकलव्य के ऑॅफिस में ही रखे गए थे। दो महीने बाद देखा तो अचार खराब नहीं हुए थे।

प्रयोग में शामिल एक महिला ने कहा कि उसे पाबंदियों पर गुस्सा तो आता था मगर उनको तोड़ने से डर भी लगता था। पर उसे कभी सूझा ही नहीं था कि वह इन पाबंदियों को परखकर देखे।

खोजबीन का अंतिम परिणाम कुछ भी हो मगर एक बात साफ दिखी कि इन मान्यताओं को प्रयोग की जांच-परख की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बांध टूटे तो नदी ने अपना मलबा साफ किया

मेरिका में एलव्हा नदी पर बने बांधों को हटाए जाने के बाद जो मलबा मुक्त हुआ, उसे नदी ने अपने प्रवाह से साफ कर लिया।

एलव्हा नदी वाशिंगटन में बहती है। इस छोटी नदी पर बने दो बड़े बांध, 32 मीटर ऊंचा एलव्हा डैम और 64 मीटर ऊंचा ग्लाइंस कैन्यन डैम, नदी के प्राकृतिक प्रवाह को रोके हुए थे। नदी को फिर से बहने देने तथा मछलियों और अन्य जीवों के लाभ के लिए गैर-ज़रूरी बांधों को तोड़ने का निर्णय लिया गया। इन दोनो बांधो को तोड़ने की प्रक्रिया 2011 में शुरू हुई थी जो 2014 तक चली। यह दुनिया का सबसे बड़ा बांध तोड़ने का प्रोजेक्ट रहा।

कैलिफोर्निया के यूएस जियोलॉजिकल सर्वे की एमी ईस्ट और उनके साथियों ने इन बांधों को तोड़ने के पहले, तोड़ने के दौरान और उसके बाद नदी के प्रवाह और रास्तों पर लगातार नज़र रखी।

जब बांध तोड़े गए तो नदी में जमा लगभग 2 करोड़ टन मलबा बहने लगा। इस मलबे के बहने से नदी का आकार बदल गया, वह उथली हो गयी और उसके रास्ते में नए-नए रेतीले किनारे भी बन गए। मगर नदी में आए ऐसे बड़े बदलाव 5 महीने तक रहे। इस दौरान नदी ने अपने पेंदे में जमा अधिकतर मलबा नदी के आखिरी छोर, जुआन दे फुका जलडमरूमध्य तक पहुंचा दिया।

 शोधकर्ताओं का कहना है कि नदियों का बहाव इतना शक्तिशाली होता है कि वे बांध के तोड़े जाने पर बिना किसी भारी नुकसान के, जल्दी ही अपने नियमित ढर्रे पर लौट सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पराग कण: सूक्ष्म आकार, बड़ा महत्व – डॉ. दीपक कोहली

मारे पर्यावरण में वनस्पतियों का स्थान सर्वोपरि है। ये सूर्य के प्रकाश में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन बनाते हैं तथा हमारे सामाजिक परिवेश में मुख्य घटक हैं। फूल पौधों के अभिन्न अंग हैं। यदि फूल नहीं होंगे, तो पौधों में लैंगिक प्रजनन नहीं हो सकेगा और केवल कायिक प्रवर्धन पर आधारित होने पर मनुष्य का भोजन केवल कन्द-मूलों तक ही सीमित रह जाएगा। पुष्प में पुमंग तथा जायांग लैंगिक प्रजनन के मूल आधार हैं। पुमंग में दो भाग होते हैं – पुतन्तु तथा परागकोश। परागकोश पुतन्तु के अग्रभाग प्रकोष्ठों से मिलकर बनता है। प्रत्येक प्रकोष्ठ में असंख्य पराग कण भरे होते हैं।

पराग कण पौधों की सूक्ष्म जनन इकाइयां हैं, जो अपने व अपनी ही प्रजाति के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंच कर निषेचन का कार्य सम्पन्न करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप फलों का निर्माण होता है और इनके बीजों द्वारा नवीन संततियों का जन्म होता है।

परिपक्व पराग कण एक, दो, चार या अनेक समूहों में मिलते हैं, इनका आकार प्रकार तथा ध्रुवीयता सुनिश्चित होती है। पराग कणों का आकार अत्यन्त सूक्ष्म (10 माइक्रॉन से लेकर 250 माइक्रॉन तक) होता है। पराग कणों के चारों ओर सुरक्षा के लिए दो परतें होती हैं – पहली बाह्र परत या एक्सॉन, जो स्पोरोपोलेनिन नामक एक रसायन से बनी होती है। इस पर्त में तेज़ाब, क्षार, ताप, दाब आदि सहने की क्षमता होती है एवं यह कोशिका की रक्षा करती है।

पराग कण जल, थल, वायु आदि सभी स्थानों पर पाए जाते हैं। इनका इतिहास पुरातनकालीन चट्टानों में करीब 30 करोड़ वर्ष से लेकर आज तक के पर्यावरण में मिलता है। पराग कणों के अध्ययन को परागाणु विज्ञान कहते हैं। परागाणु विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है – प्राथमिक परागाणु विज्ञान तथा व्यावहारिक परागाणु विज्ञान। प्राथमिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों तथा बीजाणुओं की संरचना, उनके रासायनिक तथा भौतिक विश्लेषण और कोशिका विज्ञान, आकार वर्गिकी आदि का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों के व्यावहारिक उपयोग एवं महत्व का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान का आगे वर्गीकरण भी किया जा सकता है – भूगर्भ परागाणु विज्ञान, वायु परागाणु विज्ञान, शहद परागाणु विज्ञान, औषधि परागाणु विज्ञान, मल-अवशेष परागाणु विज्ञान तथा अपराध परागाणु विज्ञान।                              

मिट्टी तथा चट्टानों के बनने की प्रक्रिया के समय पाई जाने वाली वनस्पतियां दबकर जीवाश्म के रूप में परिरक्षित होती हैं एवं इन चट्टानों की लक्षणात्मक इकाइयां बनकर चट्टानों की आयु बताने में समर्थ होती हैं। कोयले की खानों तथा तैलीय चट्टानों में दबे पराग कण एवं बीजाणुओं के अध्ययन से उनकी आयु के साथ-साथ उनके पार्श्व एवं क्षैतिज विस्तार की भी जानकारी प्राप्त होती है। ऐसा अनुमान है कि जलीय स्थानों में तेल की उत्पत्ति कार्बनिक पदार्थों के विघटन के फलस्वरूप होती है। तदुपरान्त इसका जमाव जगह-जगह पर चट्टानों में होता है, खनिज तेल की खोज तथा कोयला भण्डारों की जानकारी प्राप्त करने में इन सूक्ष्म इकाइयों का विशेष योगदान है। ऐसे जीवाश्मीय पराग कणों के अध्ययन को भूगर्भ परागाणु विज्ञान कहते हैं।

वनस्पतियों के अवशेष चट्टानों में दबे हुए मिलते हैं जिनसे पुराकालीन जलवायु, वनस्पतियों तथा उनके आसपास की जलवायु तथा भौतिक दशाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार झील तथा दलदली स्थानों के विभिन्न गहराइयों से लिए गए मृदा के नमूनों से लुप्त होती वनस्पतियों, सिमटते तथा फैलते समुद्र के इतिहास का पता आसानी से लगाया जा सकता है। इस प्रकार, भूगर्भ परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत जीवाश्मित पराग कण व बीजाणु व इनके समतुल्य जनन इकाइयों के द्वारा प्राचीनकाल के पाई वाली पुरावनस्पतियों तथा पुरावातावरण की जानकारी प्राप्त होती है।

वायु परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत वायु में पाए जाने वाले पराग कणों तथा इनके समतुल्य जनन इकाइयों का अध्ययन किया जाता है। वायु में पेड़-पौधों के असंख्य पराग कण सदैव विद्यमान रहते हैं। कुछ पौधों के पराग कण संवेदनशील व्यक्तियों में सांस के रोग उत्पन्न करते हैं। इनमें दमा, मौसमी ज़ुकाम, एलर्जी, त्वचा रोग आदि प्रमुख हैं।

पराग कण जब सर्वप्रथम नाक के द्रव के सम्पर्क में आते हैं, तो पहले-पहले कोई लक्षण प्रकट नहीं होते, परन्तु जब नाक का द्रव संवेदित हो जाता है तो शरीर में विजातीय तत्व के विरुद्ध प्रतिरक्षा तत्व (इम्यूनोग्लोब्यूलिन) पैदा हो जाते हैं। जब वही विजातीय तत्व (एलर्जेन) नासिका द्रव पर पुन: हमला करता है तो पहले से उपस्थित अवरोधक तत्व उस विजातीय तत्व को नष्ट कर देता है जिससे नासिका की कोशिकाओं का नाश होता है और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हिस्टामिन नामक रसायन एलर्जी के लक्षणों का कारण बनता है। इसके मुख्य लक्षण हैं – तालू व गले में खराश, नाक का बन्द हो जाना, तेज़ जुकाम के साथ छींकें आना, आंखों में जलन, सांस फूलना, सिरदर्द आदि। मुख्यत: वायु द्वारा विसरित परागकण ही इन बीमारियों को जन्म देते हैं। वायु परागाणु विज्ञान केवल एलर्जी की नहीं बल्कि मनुष्य, जानवरों तथा पेड़-पौधों के विकास से जुड़े अन्य कई विषयों की भी विस्तृत जानकारी देता है। जैसे, वायु प्रदूषण, कृषि विज्ञान, वानिकी, जैव विनाश, जैव गतिविधि, मौसम विज्ञान आदि।

शहद परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत शहद के नमूनों में पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। शहद के गुणों तथा प्रभाव से सभी परिचित हैं। शहद की चिकित्सकीय उपयोगिता मुख्यत: पराग कणों के कारण ही होती है। मानव को आदिकाल से ही इसकी उपयोगिता का ज्ञान है। शहद और पराग कणों का पारस्परिक सम्बंध अटूट है। शहद की शुद्धता तथा गुणवत्ता उसमें निहित पराग कणों के द्वारा परखी जाती है। शहद एक ही प्रकार के फूलों के पराग कणों या अनेक प्रकार के फूलों के पराग कणों का मिश्रण है। शहद का वैज्ञानिक विश्लेषण करने से ऋतु-सम्बंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। मधुमक्खियां मकरन्द व पराग कणों को फूलों से एकत्र करती हैं। बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ में हुए एक शोध के अनुसार, शहद के एक नमूने में 45 किस्म के परागकण विद्यमान थे।

औषधि परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों से विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण सम्बंधी अध्ययन किए जाते हैं। आदिकाल से मनुष्य तथा जानवरों के लिए पराग कणों की महत्ता जैव उद्दीपक के रूप में रही है। स्वीडन की सिरनेले कम्पनी सन 1952 से पराग कणों का सत बना रही है जिससे पोलेन-टूथपेस्ट, पोलेन फेस क्रीम, पोलेन एनिमल फीड तथा पोलेन टेबलेट्स आदि का उत्पादन होता है। इस कम्पनी को 14 करोड़ टेबलेट्स बनाने के लिए करीब 20 टन पराग कण आसपास के क्षेत्र से एकत्र करने पड़ते हैं। कहते हैं सर्निटिन  एक्सट्रेक्ट दीर्घ आयु तथा स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाले सभी तत्वों से भरपूर होता है। यह विभिन्न प्रकार के पौधों के पराग कणों से तैयार किया जाता है।

ओर्टिस पोलेनफ्लावर नामक दवा मधुमक्खियों की सहायता से एकत्रित पराग कणों से बनाई जाती है, जिसमें स्वस्थ शरीर बनाए रखने के लिए शक्तिवर्धक तत्व मौजूद होते हैं। पोलेन-बी के नाम से प्रसिद्ध औषधियां धावकों तथा अन्य खिलाड़ियों द्वारा शक्तिवर्धक की तरह प्रयोग की जाती है।

प्रोस्टेट ग्रन्थि बढ़ने पर जिस दवा का प्रयोग किया जाता है, उसमें तीन-चार प्रकार के पराग कणों का सत होता है, जिसमें विटामिन-बी तथा स्टीरॉयड की प्रचुर मात्रा होती है। साइकस सर्सिनेलिस पौधे के पराग कणों को नींद की दवा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। टाइफा लैक्समानी पौधे के पराग कणों को रक्तचाप नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

मल-अवशेष परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत मनुष्यों तथा जानवरों के मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। पाषाण युग में कंदराओं और गुफाओं में रहने वाले शिकारी, खानाबदोश पूर्वजों तथा उनके काफिलों के पालतू जानवरों के खानपान, जलवायु तथा वनस्पतियों का लेखा-जोखा पराग कणों के माध्यम से पता किया जा सकता है। मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों के परीक्षण से भोज्य वनस्पतियों की किस्मों, ऋतुओं, जलवायु आदि का अनुमान लगाया जा सकता है। भेड़-बकरियों, चमगादड़ों तथा मनुष्यों के मल-अवशेषों का अध्ययन ही अभी तक प्रमुख रूप से किया गया है।

डॉ. ब्रयन्ट ने टेक्सास के सेमिनोल कैन्यन में रहने वाले 9000 वर्ष पूर्व के मानव के भोजन में प्रयोग किए गए पौधों का उल्लेख अपने एक शोध पत्र में किया है। मल-अवशेषों के पराग कण के अध्ययन से उस समय के पर्यावरण का भी अन्दाज़ा लगाया गया है।

डॉ. लीशय गोरहन ने गुफाओं में रहने वाले निएन्डरथल मानव के कंकाल के नीचे से मिली मिट्टी तथ अन्य अवशेषों के आधार पर 50,000 वर्ष तक पुरानी वनस्पतियों के इतिहास को उजागर किया। उन्होंने यहां तक प्रमाणित किया कि शव को एफेड्रा नामक वृक्ष की शाखाओं पर मई-जून के महीने में दफनाया गया था। इस प्रकार आदि-मानव के इतिहास को जानने में यह परागाणु विज्ञान अत्यन्त कारगर सिद्ध हुआ है।

अपराध परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत अपराधों की जांच-पड़ताल में पराग कणों के उपयोग का अध्ययन किया जाता है। वर्ष 1969 में प्रसिद्ध परागाणु विज्ञानी एर्टमैन ने स्वीडन तथा ऑस्ट्रिया में हुए दो अपराधों का पता पराग कणों के माध्यम से लगाकर दुनिया को अचंभित कर दिया था। उन्होंने वारदातों की गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रमाण के तौर पर कपड़ों तथा जूतों की धूल से प्राप्त पराग कणों का विश्लेषण किया और तत्पश्चात अपराधियों को ढूंढ निकालने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। इसके अलावा बन्दूक पर चिपके पराग कणों की सहायता से वे एक मामले मे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हत्या संदिग्ध बन्दूक से नहीं बल्कि किसी अन्य बन्दूक का प्रयोग किया गया था। इस प्रकार आपराधिक मामलों की खोजबीन में परागाणु विज्ञान उपयोगी है।

भोजन के रूप में भी पराग कणों की उपयोगिता सिद्ध हुई है। पराग कणों को संतुलित भोजन की श्रेणी में रखा गया है। पराग कणों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों ने इसके चमत्कारी गुणों को पहचान कर हेल्थ फूड नाम दिया है। इनमें जीवन प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने वाले सभी पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जैसे प्रोटीन, विभिन्न विटामिन तथा खनिज तत्व।

टाइफा पौधे की करीब 9 प्रजातियों के पराग कणों का भोज्य पदार्थ के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इनके पराग कणों को आटे के साथ मिलाकर केक व अन्य बेकरी पदार्थ बनाने में प्रयुक्त किया जाता है। सूप को गाढ़ा करने में तथा गरम दूध के साथ इनका सेवन किया जाता है। मक्का के पराग कणों का आकार बड़ा होता है और वे खाने की सूची में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कई देशों में पराग कणों का प्रयोग नवजात शिशु के प्रथम आहार के तौर पर भी किया जाता है। अनेकानेक गुणों के साथ पराग कणों का एक अवगुण भी है, जो एलर्जी के रूप में नज़र आता है।

पराग कणों के गुणों-अवगुणों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि पराग कणों के गुणों का पलड़ा बहुत भारी है। पराग कण पेड़-पौधों के लिए जितने जरूरी हैं उतने ही मानव के लिए भी आवश्यक हैं। यदि समग्र रूप में पराग कणों के महत्व का मूल्यांकन किया जाए, तो ये निसन्देह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य हैं तथा इनके अभाव में मानव के अस्तित्व की कल्पना भी कर पाना असम्भव है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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