मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (1987) के तहत ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले रसायन क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) के उपयोग को 2010 तक पूरी तरह खत्म करने का संकल्प लिया गया था। यह काफी सफल रहा था और उम्मीद थी कि 2060 ओज़ोन परत बहाल हो जाएगी। लेकिन ताज़ा आंकड़ों ने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है।
नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2020 के बीच 5 प्रकार के सीएफसी के स्तर में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन सीएफसी का वर्तमान स्तर ओज़ोन परत की बहाली के लिए ज़्यादा खतरा उत्पन्न नहीं करता है। लेकिन सीएफसी शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें भी हैं जो जलवायु को प्रतिकूल प्रभावित करती हैं। गौरतलब है सीएफसी सैकड़ों वर्षों तक वातावरण में बने रहते हैं। इन 5 सीएफसी की वजह से वातावरण जितना गर्म होगा वह स्विट्ज़रलैंड जैसे किसी छोटे देश द्वारा किए गए उत्सर्जन के असर के बराबर होगा।
विशेषज्ञों के अनुसार काफी संभावना है कि सीएफसी विकल्पों के उत्पादन के दौरान संयंत्रों से गलती से सीएफसी-113A, सीएफसी-114A और सीएफसी-115 का उत्सर्जन हो रहा हो। वास्तव में सीएफसी को खत्म करने के लिए हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) को विकल्प के रूप में लाया गया था। लेकिन एचएफसी उत्पादन के दौरान अनपेक्षित रूप से सीएफसी के उत्पादन की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार के उत्पादन को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हतोत्साहित किया गया था लेकिन प्रतिबंधित नहीं किया गया था।
अन्य दो सीएफसी (सीएफसी-13 और सीएफसी-112A) के स्तर में वृद्धि एक रहस्य है क्योंकि इनका उत्पादन या उपयोग प्रतिबंधित है। संभावना है कि विलायक या रासायनिक फीडस्टॉक के तौर पर उपयोग के कारण सीएफसी-112A के स्तर में वृद्धि हो रही है। लेकिन सीएफसी-13 के उत्सर्जन का अभी तक कोई सुराग नहीं है। वैश्विक स्तर पर पर्याप्त निगरानी स्टेशन की अनुपस्थिति में सीएफसी-13 के स्रोत का पता लगाना मुश्किल है।
बहरहाल, आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि वैश्विक निगरानी प्रणाली काफी सक्रियता से काम कर रही है और वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी के वातावरण और जलवायु समस्याओं पर कड़ी नज़र रखी जा रही है। पूर्व में भी दक्षिण कोरिया और जापान के निगरानी स्टेशन से सीएफसी-11 के उच्च स्तर का पता लगा था, जिसका स्रोत पूर्वी चीन में मिला था। इसके उत्सर्जन को नियंत्रित किया गया और इसके स्तर में कमी आने लगी। लिहाज़ा, अधिक निगरानी स्टेशनों की ज़रूरत है।
यदि हाल ही में खोजे गए 5 सीएफसी का अधिकांश उत्सर्जन सीएफसी-विकल्पों के उत्पादन के दौरान हो रहा है तो विकल्पों के बारे में विचार करना आवश्यक है। शायद हाइड्रोफ्लोरोओलीफीन्स (एचएफओ) का उपयोग करना होगा। लेकिन उसके उत्पादन से भी सीएफसी का उत्सर्जन हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://fl-i.thgim.com/public/news/9kldkt/article66755088.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/fl05%20SN1.JPG
गंध एक महत्वपूर्ण संवेदना है। मनुष्यों में यह शायद उतनी महत्वपूर्ण न हो, लेकिन कई अन्य जंतुओं में यह सबसे महत्वपूर्ण संवेदना होती है। जहां अन्य संवेदनाओं को लेकर हमारी समझ काफी विस्तृत है, वहीं गंध को लेकर कई अस्पष्टताएं हैं। अब हम इस दिशा में एक कदम और आगे बढ़े हैं।
गंध संवेदना दरअसल एक रसायन-आधारित संवेदना है। कुछ रसायन हमारी गंध संवेदी तंत्रिकाओं के ग्राहियों को उत्तेजित करते हैं और मस्तिष्क इसे गंध के रूप में पहचानता है। अब पहली बार एक मानव गंध-ग्राही की सटीक त्रि-आयामी संरचना का खुलासा किया गया है। नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन में OR51E2 नामक एक गंध-ग्राही की संरचना का विवरण देते हुए बताया गया है कि यह आणविक क्रियाओं के माध्यम से कैसे चीज़ (cheese) की गंध को ताड़ता है।
गौरतलब है कि मानव जीनोम में 400 जीन्स होते हैं जो गंध-ग्राहियों के कोड हैं और ये ग्राही कई गंधों को पहचान सकते हैं। स्तनधारियों में गंध ग्राही के जीन्स सबसे पहले चूहों में 1990 के दशक में पहचाने गए थे। इससे पहले 1920 के दशक में यह अनुमान लगाया गया था कि मनुष्य की नाक तकरीबन 1000 गंधों को ताड़ सकती है। लेकिन 2014 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि हम 1 खरब से ज़्यादा गंधों को अलग-अलग पहचान सकते हैं।
हर गंध-ग्राही गंधदार अणुओं (ओडोरेंट) के सिर्फ एक समूह से अंतर्क्रिया कर सकता है जबकि एक ही ओडोरेंट कई ग्राहियों को सक्रिय कर सकता है। होता यह है कि इन ग्राहियों की एक मिश्रित सक्रियता विशिष्ट गंध का एहसास कराती है।
लेकिन इन गंध-ग्राहियों की क्रिया को समझना एक चुनौती रही है। एक दिक्कत यह रही है कि ये ग्राही सिर्फ गंध तंत्रिकाओं में ही ठीक-ठाक काम करते हैं, बाकी किसी भी कोशिका में ये ठप हो जाते हैं। इसका मतलब यह होता है कि इन्हें किसी भी अन्य प्रकार की कोशिका में जोड़कर अध्ययन नहीं किया जा सकता।
इस समस्या से निपटने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैन फ्रांसिस्को) के आशीष मांगलिक और उनके साथियों ने OR51E2 नामक ग्राही पर ध्यान केंद्रित किया। इस ग्राही की विशेषता है कि यह ओडोरेंट की पहचान के अलावा कुछ अन्य कार्य भी करता है और यह गुर्दों तथा प्रोस्टेट की कोशिकाओं में भी पाया जाता है।
यह ग्राही (OR51E2) दो ओडोरेंट अणुओं के साथ अंतर्क्रिया करता है – एसिटेट (जिसकी गंध सिरके जैसी होती है) और प्रोपिओनेट (जिसकी गंध चीज़नुमा होती है)। शोधकर्ताओं ने इस ग्राही को शुद्ध रूप में प्राप्त किया और फिर प्रोपिओनेट से सम्बद्ध तथा असम्बद्ध OR51E2 की संरचना का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी और एटॉमिक रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया। इसके अलावा उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन की भी मदद ली ताकि पता चल सके कि यह ग्राही प्रोटीन ओडोरेंट अणुओं के साथ कैसे अंतर्क्रिया करता है।
विश्लेषण से पता चला कि यह प्रोटीन (OR51E2) आयनिक व हाइड्रोजन बंधनों के ज़रिए प्रोपिओनेट अणु के कार्बोक्सिलिक समूह को एक अमीनो अम्ल (आर्जीनीन) से जोड़ लेता है। जैसे ही प्रोपिओनेट जुड़ता है, OR51E2 की आकृति बदल जाती है और यही ग्राही को चालू कर देता है। शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस ग्राही के जीन में आर्जीनीन को प्रभावित करने वाले उत्परिवर्तन उसे प्रोपिओनेट द्वारा सक्रिय नहीं होने देते।
वैज्ञानिकों की इच्छा रही है कि वे गंध ग्राहियों की रासायनिक संरचनाओं का एक कैटालॉग तैयार कर सकें और उसके आधार पर यह बता सकें कि इनमें से कौन-से ग्राही मिलकर किस गंध विशेष का एहसास कराते हैं। मांगलिक की टीम द्वारा यह खुलासा मात्र पहला कदम है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-023-00439-w/d41586-023-00439-w_24603628.png
आजकल ऑर्गेनॉइड्स (अंगाभ) अनुसंधान की एक प्रमुख धारा है। ऑर्गेनॉइड का मतलब होता है ऊतकों का कृत्रिम रूप से तैयार किया गया एक ऐसा पिंड जो किसी अंग की तरह काम करे। विभिन्न प्रयोगशालाओं में विभिन्न अंगों के अंगाभ बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इन्हीं में से एक है मस्तिष्क अंगाभ।
सेल स्टेम सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव मस्तिष्क अंगाभ को चूहे के क्षतिग्रस्त मस्तिष्क में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिया है। और तो और, अंगाभ ने शेष मस्तिष्क के साथ कड़ियां भी जोड़ लीं और प्रकाश उद्दीपन पर प्रतिक्रिया भी दी।
शोध समुदाय में इसे एक महत्वपूर्ण अपलब्धि माना जा रहा है क्योंकि अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क कहीं अधिक जटिल अंग है जिसमें तमाम कड़ियां जुड़ी होती हैं। इससे पहले मस्तिष्क अंगाभ को शिशु चूहों में ही प्रत्यारोपित किया गया था; मनुष्यों की बात तो दूर, वयस्क चूहों पर भी प्रयोग नहीं हुए थे।
वर्तमान प्रयोग में पेनसिल्वेनिया की टीम ने कुछ वयस्क चूहों के मस्तिष्क के विज़ुअल कॉर्टेक्स नामक हिस्से का एक छोटा सा भाग निकाल दिया। फिर इस खाली जगह में मानव मस्तिष्क कोशिकाओं से बना अंगाभ डाल दिया। यह अंगाभ रेत के एक दाने के आकार का था। अगले तीन महीनों तक इन चूहों के मस्तिष्क की जांच की गई।
जैसी कि उम्मीद थी प्रत्यारोपित अंगाभों में 82 प्रतिशत पूरे प्रयोग की अवधि में जीवित रहे। पहले महीने में ही स्पष्ट हो गया था कि चूहों के मस्तिष्कों में इन अंगाभों को रक्त संचार में जोड़ लिया गया था और जीवित अंगाभ चूहों के दृष्टि तंत्र में एकाकार हो गए थे। यह भी देखा गया कि अंगाभों की तंत्रिका कोशिकाओं और चूहों की आंखों के बीच कनेक्शन भी बन गए थे। यानी कम से कम संरचना के लिहाज़ से तो अंगाभ काम करने लगे थे। इससे भी आगे बढ़कर, जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों की आंखों पर रोशनी चमकाई तो अंगाभ की तंत्रिकाओं में सक्रियता देखी गई। अर्थात अंगाभ कार्य की दृष्टि से भी सफल रहा था। लेकिन फिलहाल पूरा मामला मनुष्यों में परीक्षण से बहुत दूर है हालांकि यह सफलता आगे के लिए आशा जगाती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/70938/aImg/49292/organoid-ai-o.jpg
हाल ही में ग्लोबल पोलियो इरेडिकेशन इनिशिएटिव (GPEI) ने अफ्रीका से ऐसे सात बच्चों की रिपोर्ट दी है जो हाल ही में पोलियो की वजह से अपंग हो गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये टीके से पैदा हुए पोलियोवायरस स्ट्रेन की वजह से बीमार हुए हैं। पिछले वर्ष अफ्रीका, यमन और अन्य स्थानों से 786 बच्चों के पोलियोग्रस्त होने की खबर थी। लेकिन हाल के 7 मामले थोड़े अलग हैं। GPEI के मुताबिक ये मामले उस टीके से सम्बंधित हैं, जिसे ऐसी ही दिक्कतों से बचने के लिए विकसित किया गया था।
इस टीके को नॉवेल ओरल पोलियो वैक्सीन टाइप 2 (nOPV2) कहते हैं और पिछले दो वर्षों से विशेषज्ञ इस बात की निगरानी कर रहे हैं कि क्या यह यदा-कदा रोग-प्रकोप पैदा कर सकता है।
वैसे नॉवेल वैक्सीन कोई जादू की छड़ी नहीं है लेकिन अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि यह पूर्व में इस्तेमाल किए गए टीके (मोनोवेलेंट ओपीवी) से कहीं बेहतर है। और मुंह से दिया जाने वाला पोलियो का टीका (ओपीवी) गरीब देशों के लिए सबसे बेहतर माना गया है। इसमें वायरस को दुर्बल करके शरीर में डाला जाता है और प्रतिरक्षा तंत्र उसे पहचानकर वास्तविक वायरस से लड़ने के तैयार हो जाता है। एक फायदा यह है कि टीकाकृत बच्चे मल के साथ दुर्बलीकृत वायरस त्यागते रहते हैं जो प्रदूषित पानी के साथ अन्य बच्चों के शरीर में पहुंचकर उन्हें भी सुरक्षा प्रदान कर देते हैं।
लेकिन इसका मतलब यह भी है कि ये दुर्बलीकृत वायरस अप्रतिरक्षित लोगों में प्रवाहित होते रहते हैं और उत्परिवर्तन हासिल करते जाते हैं। इसलिए यह संभावना बनी रहती है कि एक समय के बाद इतने उत्परिवर्तन इकट्ठे हो जाएंगे कि वायरस फिर से लकवा पैदा करने की स्थिति में पहुंच जाएगा। पोलियोवायरस के तीन स्ट्रेन हैं (1, 2 और 3) तथा उपरोक्त स्थिति टाइप 2 में ज़्यादा देखी गई है।
इस समस्या से निपटने के लिए टीके के वायरस के साथ फेरबदल की गई ताकि यह पलटकर अपंगताजनक स्थिति में न पहुंच सके। इस लिहाज़ से nOPV2 जेनेटिक दृष्टि से कहीं अधिक टिकाऊ है और इसमें उत्परिवर्तन की दर बहुत कम है। परीक्षण के दौरान 28 देशों में 60 करोड़ खुराकें दी गई हैं और अब तक कोई समस्या नहीं देखी गई थी। अब अफ्रीका में इन सात मामलों का सामने आना एक नई बात है जिसकी जांच-पड़ताल की जा रही है। एक मत यह है कि यदि कई देशों में टीकाकरण की दर कम रहती है तो ज़्यादा संभावना रहेगी कि वायरस पलटकर अपंगताजनक बन जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.medpagetoday.net/media/images/103xxx/103595.jpg
व्हेल शार्क एक अति विशाल जीव है – लंबाई लगभग 18 मीटर और वज़न 2 हाथियों के बराबर। और यह भारी-भरकम जीव समुद्र में गहरे गोते लगाता है – सतह से लेकर 2 किलोमीटर की गहराई तक। इसमें समस्या यह है कि समुद्र सतह पर तो खूब रोशनी होती है लेकिन 2 किलोमीटर की गहराई पर घुप्प अंधेरा। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि व्हेल शार्क इतने गहरे गोते क्यों लगाता है लेकिन यह सवाल तो वाजिब है कि वह रोशन सतह और अंधकारमय गहराई दोनों जगह देखता कैसे है।
ऐसे तो कई प्राणि हैं जो निहायत कम रोशनी में देख सकते हैं। लेकिन व्हेल शार्क की विशेषता यह है कि वे दोनों परिस्थितियों में ठीक-ठाक देख लेते हैं।
तो जापान के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स के शिगेहिरो कुराकु और उनके साथियों ने पूरे मामले को जेनेटिक्स की दृष्टि से देखा। उन्होंने व्हेल शार्क और उसके एक निकट सम्बंधी ज़ेब्रा शार्क की जेनेटिक सूचना की तुलना की। पता चला कि व्हेल शार्क में डीएनए के दो स्थानों (क्रमांक 94 और 178) पर उत्परिवर्तन हुए हैं जिनकी वजह से रोडोप्सिन नामक प्रोटीन में अमीनो अम्लों का संघटन बदल गया है। गौरतलब है कि रोडोप्सिन एक प्रकाश संवेदी प्रोटीन है जो कम प्रकाश में भी रोशनी की उपस्थिति को भांप सकता है। यही वह प्रोटीन है जो मनुष्यों को भी कम रोशनी में देखने में मदद करता है।
और तो और, व्हेल शार्क का रोडोप्सिन नीली रोशनी के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होता है। आप समझ ही सकते हैं कि समुद्र की गहराई में कम प्रकाश पहुंचता है और वह भी अधिकांशत: नीला प्रकाश। तो रोडोप्सिन व्हेल शार्क को अपेक्षाकृत अंधकार और नीले प्रकाश की परिस्थिति में देखने में मदद करता है।
लेकिन एक दिक्कत है – यही रोडोप्सिन उथले पानी में भी नीले रंग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होगा और बाकी रंगों को देखने में बाधा बन जाएगा।
शोधकर्ताओं का मत है कि यहीं पर दूसरा उत्परिवर्तन (स्थान 178) काम आता है। उन्होंने पाया है कि व्हेल और ज़ेब्रा शार्क दोनों का रोडोप्सिन तापमान के प्रति संवेदनशील होता है। तापमान बढ़ने पर उनका रोडोप्सिन निष्क्रिय होने लगता है। जैसे ही शार्क व्हेल सतह पर आते हैं, उनका सामना वहां के अपेक्षाकृत उच्च तापमान से होता है और रोडोप्सिन निष्क्रिय हो जाता है। तब वह अन्य प्रकाश संवेदनाओं में बाधा नहीं डालता। समुद्र की गहराई में तापमान बहुत कम होता है जहां रोडोप्सिन सक्रिय होकर अंधेरे में देखने में मदद करता है। यही बात शोधकर्ताओं को दिलचस्प लगती है। यह एक ऐसा उत्परिवर्तन है जो प्रकाश-संवेदी रंजक को ठप करता है। जब मनुष्यों में यह रंजक काम करना बंद कर देता है रतौंधी की वजह बन जाता है। तो एक ऐसा उत्परिवर्तन आखिर बना क्यों रहेगा? (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adh9610/abs/_20230323_on_whale_sharks.jpg
इक्कीसवीं सदी की आधुनिक टेक्नॉलॉजी ने हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। इसने दैनिक कार्यों को आसान करने के साथ दक्षता, उत्पादकता और प्रदर्शन में भी वृद्धि की है। स्वास्थ्य सेवा और टेक्नॉलॉजी के संगम ने स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच और उसके प्रबंधन में क्रांतिकारी योगदान दिया है। पिछले कुछ वर्षों में टेक्नॉलॉजी के विकास से बेहतर और सटीक इलाज के साथ-साथ बेहतर निर्णय लेने में भी काफी मदद मिली है।
इलेक्ट्रॉनिक हेल्थ रिकॉर्ड (ईएचआर) से लेकर टेलीमेडिसिन, पहनने योग्य टेक्नॉलॉजी और कृत्रिम बुद्धि ने स्वास्थ्य सेवा के ढांचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। यहां हम कुछ ऐसी तकनीकों पर चर्चा कर रहे हैं जो भविष्य में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन ला सकती हैं।
नैनो टेक्नॉलॉजी और हृदय
हृदयाघात के कारण तो सर्वविदित हैं। इसका मुख्य कारण है हृदय तक रक्त पहुंचाने वाली धमनियों में प्लाक जमा होकर उनका संकरा हो जाना जिससे रक्त प्रवाह को बाधित होता है। अंतत: ये धमनियां इतनी संकरी हो जाती हैं कि हृदय को पर्याप्त रक्त और ऑक्सीजन नहीं मिल पाती। नतीजतन हृदयाघात या स्ट्रोक हो जाता है।
इस समस्या से निपटने के लिए स्टेंट या फिर बायपास का सहारा लिया जाता है। लेकिन इसकी सभी तकनीकें – कैथेटराइज़ेशन या ओपन-हार्ट सर्जरी वगैरह – काफी महंगी हैं। लेकिन प्लाक हटाने वाले नैनो-रोबोट्स की मदद से यह उपचार काफी सस्ता हो सकता है। इसमें एक अतिसूक्ष्म आकार का रोबोट रुकावट वाले स्थान पर जाकर धमनियों को चौड़ा कर सकता है।
अंगों या ऊतकों का पुनर्जनन
हारवर्ड युनिवर्सिटी में एक ऐसी तकनीक पर काम चल रहा है जिसमें एंटीरियर क्रुशिएट लिगामेंट (घुटने का लिगामेंट, एसीएल) को किसी अन्य व्यक्ति या जीव, या स्वयं उस व्यक्ति के लिगामेंट से प्रतिस्थापित करने की बजाय उसे स्वयं स्वस्थ होने में मदद दी जा सके।
इस तकनीक में अवरग्लास के आकार का एक स्पंज तैयार किया जाता है जिसमें रोगी का रक्त, विकास कारक और पुन:सक्रिय स्टेम कोशिकाएं भरी होती हैं। इसे प्रविष्ट कराने पर यह लिगामेंट के टुकड़ों के बीच एक सेतु का काम करता है जो विकसित होते हुए क्षतिग्रस्त लिगामेंट को जोड़ देता है।
कृत्रिम अंग
हम आनुवंशिक रूप से पुनर्निर्मित हृदय या कृत्रिम हृदय तैयार करने की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ शोधकर्ताओं का तो दावा है कि पर्याप्त पैसा मिले तो वे तीन वर्ष के भीतर एक कृत्रिम हृदय तैयार करके उसे मनुष्य के शरीर में प्रत्यारोपित कर सकते हैं।
यह बात 3-डी प्रिंटेड अंग के मामले में देखी जा रही है। इनमें ऐसी क्रियाविधियां या रचनाएं होती हैं जो अंगों या ऊतकों के अध्ययन में उपयोग की जा सकती हैं। जैसे फेफड़े के ऊतक जो कुदरती फेफड़ों के समान कोविड से संक्रमित हो सकते हैं और इनका उपयोग संक्रमण व उसके उपचार के अध्ययन में किया जा सकता है। हाल ही में एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने रोबोटिक उपकरण विकसित किया है जो किसी व्यक्ति की त्वचा की कोशिकाओं को प्रिंट करने में सक्षम है। इसका उपयोग घावों या जलने से क्षतिग्रस्त त्वचा को ठीक करने के लिए किया जा सकता है।
ज़रा कल्पना कीजिए कि आपके शरीर के सभी अंगों का कंप्यूटर कोड ‘क्लाउड’ पर मौजूद हो जिसकी मदद से आवश्यकतानुसार कोई अंग या उसका भाग तैयार किया जा सकेगा। उदाहरण के लिए यदि किसी कैंसरग्रस्त हड्डी को शरीर से अलग किया जाता है तो कंप्यूटर को की मदद से उसी आकार और क्षमता की हड्डी प्रत्यारोपित की जा सकेगी जिसके लिगामेंट, जोड़ और अन्य हड्डियों के साथ जुड़ाव मूल हड्डी जैसे ही होंगे। यह अगले 10 वर्षों में संभव हो सकता है।
प्रोटीन में हेरफेर
कैसा हो यदि आप किसी अंग या शरीर के भाग में परिवर्तन कर सकें या फिर शरीर के सामान्य कामकाज के तरीके में हेर-फेर कर सकें। उदाहरण के लिए, कोरिया के शोधकर्ता ऐसी एंटीएजिंग दवाओं का परीक्षण कर रहे हैं जो गोलकृमियों की कोशिकाओं में प्रोटीन की गतिविधि को परिवर्तित कर देती हैं। ये प्रोटीन ऊर्जा में कमी के दौरान शरीर को शर्करा को ऊर्जा में बदलने के निर्देश देते हैं। इन दवाओं के उपयोग से कृमि के जीवनकाल में वृद्धि देखी गई है।
मरम्मत के उपकरण
दीर्घायु के संदर्भ में यह देखना प्रासंगिक होगा कि हृदय के वाल्व के मामले में हम कितना आगे बढ़ चुके हैं। उम्र के साथ हृदय के वाल्व खराब होने लगते हैं; 65 वर्ष से अधिक आयु के 25 प्रतिशत लोगों के वाल्व के कार्य में किसी न किसी प्रकार का परिवर्तन आने लगता है और 85-95 वर्ष की आयु के वाल्व की मरम्मत या प्रतिस्थापन ज़रूरी हो जाता है।
पारंपरिक तौर पर इसके लिए ओपन-हार्ट सर्जरी में हृदय की धड़कन को रोककर एक पंप की मदद से रक्त संचरण जारी रखा जाता है। इस प्रक्रिया में 17 प्रतिशत रोगियों में सर्जरी के बाद मानसिक गिरावट पाई गई है। आजकल वाल्व को रक्त वाहिका के माध्यम से हृदय तक पहुंचाया जा सकता है। हालांकि यह भी हृदय सर्जरी है लेकिन इस तकनीक से रिकवरी की अवधि कम हो जाती है।
हाई-टेक खिलौने
आज के दौर में कृत्रिम बुद्धि, वर्चुअल रियलिटी, उन्नत तकनीकें, बेहतर डैटा संग्रहण ने स्वास्थ्य सेवाओं में भी बड़े परिवर्तन के संकेत दिए हैं। आज हम ऐप की मदद से चिकित्सकों से ऑनलाइन घर बैठे परामर्श ले सकते हैं, भले ही वे किसी अन्य देश में ही क्यों न हो।
यदि इन तकनीकों को और विकसित किया जाए तो हम क्या-क्या कर सकते हैं। संभव है कि नियमित डैटा संग्रहण से हम दवाओं को बेहतर ढंग से विकसित कर पाएं। पहनने योग्य उपकरण न केवल हमारे शरीर की स्थिति को ट्रैक कर पाएं बल्कि भविष्य में होने वाले समस्याओं का अनुमान भी लगा पाएं। शायद कृत्रिम बुद्धि की मदद से यह अनुमान लगा पाएं कि हृदय का वाल्व कब खराब हो सकता है।
हाल ही में येल स्थित जेनेटिक्स शोधकर्ताओं ने एक पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड उपकरण तैयार किया है जिसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। यह सर्वोत्तम मशीन तो नहीं है लेकिन चिकित्सकों के लिए काफी उपयोगी हो सकती है। इसके उपयोग से चिकित्सकों द्वारा रोगियों को बेहतर सलाह देने में मदद मिलेगी।
ज़ाहिर है, इन सभी तकनीकों की शुरुआती लागत काफी अधिक होगी लेकिन समय के साथ ये सस्ती होती जाएंगी। ये परिवर्तन हमारे जीवनकाल में वृद्धि करेंगे, जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाएंगे और हो सकता है कि हमारी जवानी को भी लंबा कर दें। हालांकि यह कोई जादू की छड़ी नहीं है जो सभी समस्याओं को एक शॉट में खत्म कर दे फिर भी टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में ये परिवर्तन दीर्घायु में महत्वपूर्ण योगदान देंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.nationalgeographic.co.uk/files/styles/image_3200/public/gettyimages-1140091810.jpg?w=1900&h=1002
कोविड-19 के दौर में प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने के लिए पूरक और पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों के सेवन की सलाह दी गई। कई लोगों ने शारीरिक दूरी, मास्क के उपयोग और टीकाकरण के अलावा विशेष पूरक तत्वों का उपयोग किया जबकि कुछ लोग तो मात्र प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने के ही सहारे रहे। बाज़ार में भी कई ऐसे उत्पादों की बाढ़ आई जिन्होंने प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने का दावा किया।
इन पूरक तत्वों में ज़िंक और विटामिन सी तथा डी को विशेष महत्व दिया गया। विशेषज्ञों की मानें तो इस तरह के प्रयासों से संक्रमण रुकने की संभावना तो नहीं है लेकिन ये प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए मददगार हो सकते हैं। फिर भी संतुलित भोजन, व्यायाम और पर्याप्त नींद लेने वाले व्यक्ति के लिए ये पूरक तत्व कोई खास उपयोगी नहीं हैं। ये उन लोगों के लिए उपयोगी हो सकते हैं जिनमें इन तत्वों की कमी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त विटामिन या खनिज तत्वों का सेवन करता है तो इसमें कोई हानि नहीं है बशर्ते कि इनकी मात्रा दैनिक अनुशंसित खुराक से अधिक न हो। अधिक मात्रा में इनका सेवन घातक हो सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य दवाओं के साथ परस्पर क्रिया की भी संभावना होती है।
तो चलिए देखते हैं कि संक्रमण को दूर करने के लिए आम तौर पर अपनाए जाने वाले प्रचलित तरीकों के बारे में विज्ञान क्या कहता है।
ज़िंक (जस्ता)
निसंदेह, प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए ज़िंक ज़रूरी है। यह टी-कोशिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है जो बैक्टीरिया और वायरस से संक्रमित कोशिकाओं की पहचान कर उनको नष्ट करती हैं। यह श्वसन मार्ग की कोशिकाओं के कामकाज में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जो हमारे शरीर की प्रतिरक्षा की पहली पंक्ति हैं। कुछ अध्ययन बताते हैं कि सामान्य सर्दी-जुकाम के शुरुआती 24 घंटे के भीतर ज़िंक पूरक लिया जाए तो बीमारी की अवधि को कम किया जा सकता है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि ज़िंक के इस्तेमाल से जुकाम की अवधि दो दिन कम की जा सकती है।
गौरतलब है कि ज़िंक को गंभीर कोविड-19 के विरुद्ध एक रक्षक के रूप में प्रचारित किया था लेकिन यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) के विशेषज्ञों ने अपर्याप्त प्रमाण के कारण इसे उपचार के रूप में स्वीकार नहीं किया। फ्रेड हच कैंसर रिसर्च सेंटर के प्रतिरक्षा विज्ञानी जैरोड डुडाकोव के अनुसार ज़िंक पूरक वायरल या बैक्टीरिया संक्रमण रोकने में सक्षम नहीं हैं। कम समय के लिए ज़िंक पूरक लेने से कोई हानि तो नहीं है लेकिन फायदे भी नहीं हैं। मांस, सीफूड, फलियां, दालें, गिरियां, बीज और साबुत अनाज ज़िंक के उम्दा स्रोत हैं। हां, ज़िंक की कमी वाले लोगों के लिए ज़िंक पूरक उपयोगी हो सकते हैं।
पुरुषों के लिए प्रतिदिन 11 मिलीग्राम और महिलाओं के लिए प्रतिदिन 8 मिलीग्राम ज़िंक अनुशंसित है। शोधकर्ताओं के अनुसार लंबे समय तक ज़िंक पूरक लेने से शरीर में तांबे की कमी हो सकती है जिससे तंत्रिका और रक्त सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। उच्च मात्रा में सेवन से मितली, उल्टी और सिरदर्द जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं।
विटामिन सी
ज़िंक की तरह विटामिन सी भी हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए काफी महत्वपूर्ण है। यह न्यूट्रोफिल नामक श्वेत रक्त कोशिकाओं को गतिशील करता है जो शरीर को संक्रमण से लड़ने में मदद करती हैं। इसके अलावा यह मैक्रोफेज नामक अन्य श्वेत रक्त कोशिकाओं को भी पुष्ट करता है जो रोगजनकों को निगलती हैं और मृत मेज़बान कोशिकाओं को हटाकर सूजन को कम करती हैं।
कई जंतु अध्ययनों से पता चला है कि विटामिन सी बैक्टीरिया और वायरल संक्रमणों को रोकने में तो सक्षम है लेकिन मानव आबादी में सामान्य सर्दी-जुकाम के प्रकोप को कम नहीं करता है। वैसे ज़िंक की तरह विटामिन सी भी रोग की अवधि को कम करता है। गौरतलब है कि कोविड-19 के मामले में एनआईएच ने अपर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर विटामिन सी के उपयोग को उपचार के रूप में स्वीकार नहीं किया था। फिर भी कुछ अध्ययनों के अनुसार गंभीर रूप से बीमार रोगियों में सूजन को कम करने में विटामिन सी की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
एक पूरक के तौर पर विटामिन सी मनुष्यों में वायरल या बैक्टीरियल संक्रमण रोकने के सक्षम नहीं है। बहरहाल, अन्य विटामिन और खनिज पदार्थों की तरह यह भी प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए उपयोगी है। लेकिन विशेषज्ञ संतुलित पौष्टिक आहार की सलाह देते हैं और पूरक आहार का सुझाव तब ही देते हैं जब कोई व्यक्ति इन खाद्य पदार्थों का सेवन करने में असमर्थ हो या फिर शरीर में इसकी कमी हो। पुरुषों के लिए प्रतिदिन 90 मिलीग्राम और महिलाओं के लिए प्रतिदिन 75 मिलीग्राम विटामिन सी अनुशंसित है। इससे अधिक सेवन से पथरी हो सकती है।
विटामिन डी
विटामिन सी के समान विटामिन डी में भी सूजन-रोधी गुण होते हैं। विटामिन डी की कमी हो तो सर्दी-जुकाम का जोखिम रहता है। एक हालिया अध्ययन के अनुसार विटामिन डी पूरक सामान्य सर्दी जुकाम की अवधि और गंभीरता को कम कर सकता है। अलबत्ता, कोविड-19 के संदर्भ में विटामिन डी की भूमिका स्पष्ट नहीं है।
अक्टूबर 2021 में किए गए विश्लेषण के अनुसार शरीर में अपर्याप्त विटामिन डी ने लोगों में कोविड-19 के प्रति अधिक संवेदनशीलता या संक्रमण से उनकी मृत्यु की संभावना में कोई वृद्धि नहीं की थी। इसके अलावा विटामिन डी पूरकों से गंभीर लक्षणों वाले कोविड-19 रोगियों में भी कोई सुधार नहीं देखा गया।
सच तो यह है कि हमारे पास प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने की कोई जादुई गोली नहीं है। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह है कि लोगों को यह नहीं पता होता कि उन्हें कौन से विटामिन या खनिजों की कमी है और किस हद तक है। विटामिन डी और बी-12 का पता लगाने के तो काफी अच्छे नैदानिक परीक्षण हैं लेकिन अधिकांश पोषक तत्वों को मापना काफी कठिन है। समाधान यही है कि हमें विभिन्न प्रकार के पौष्टिक खाद्य पदार्थों का संतुलित सेवन करना चाहिए और ये सबको मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.hopkinsmedicine.org/sebin/l/s/July%2015%20Image%20for%20Story%202_4_pyramid.jpg
पृथ्वी के बाहर जीवन की संभावना पानी की उपस्थिति पर टिकी है। अब चंद्रमा पर पानी का नया स्रोत मिला है: चंद्रमा की सतह पर बिखरे कांच के महीन मोती। अनुमान है कि पूरे चंद्रमा पर इन मोतियों में अरबों टन पानी कैद है। वैज्ञानिकों को आशा है कि आने वाले समय में चंद्रमा पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए इस पानी का उपयोग किया जा सकेगा। चंद्रमा पर पानी मिलना वहां हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के भी सुलभ स्रोत होने की संभावना भी खोलता है।
दरअसल दिसंबर 2020 में चीनी यान चांग’ई-5 जब पृथ्वी पर लौटा तो अपने साथ चंद्रमा की मिट्टी के नमूने भी लाया था। इन नमूनों में वैज्ञानिकों को कांच के छोटे-छोटे (एक मिलीमीटर से भी छोटे) मनके मिले थे। ये मनके चंद्रमा से उल्कापिंड की टक्कर के समय बने थे। टक्कर के परिणामस्वरूप पिघली बूंदें चंद्रमा पर से उछलीं और फिर ठंडी होकर मोतियों में बदलकर वहां की धूल के साथ मिल गईं।
ओपेन युनिवर्सिटी (यू.के.) के खगोल विज्ञानी महेश आनंद और चीन के वैज्ञानिकों के दल ने इन्हीं कांच के मोतियों का परीक्षण कर पता लगाया है कि इनमें पानी कैद है। उनके मुताबिक चंद्रमा पर बिखरे सभी मोतियों को मिला लें तो चंद्रमा की सतह पर 30 करोड़ टन से लेकर 270 अरब टन तक पानी हो सकता है।
यानी चंद्रमा की सतह उतनी भी बंजर-सूखी नहीं है जितनी पहले सोची गई थी। वैसे इसके पहले भी चंद्रमा पर पानी मिल चुका है। 1990 के दशक में, नासा के क्लेमेंटाइन ऑर्बाइटर ने चंद्रमा के ध्रुवों के पास एकदम खड़ी खाई में बर्फ के साक्ष्य पाए थे। 2009 में, चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की सतह की धूल में पानी की परत जैसा कुछ देखा था।
अब, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित यह शोध संकेत देता है कि चंद्रमा की सतह पर पानी की यह परत कांच के मनकों में है। कहा जा रहा है कि खाई में जमे पानी का दोहन करने से आसान मोतियों से पानी निकालना होगा।
लगभग आधी सदी बाद अंतरिक्ष एजेंसियों ने चांद पर दोबारा कदम रखने का मन बनाया है। नासा अपने आर्टेमिस मिशन के साथ पहली महिला और पहले अश्वेत व्यक्ति को चांद पर पहुंचाने का श्रेय लेना चाहता है। वहीं युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी वहां गांव बसाना चाहती है। वहां की ज़रूरियात पूरी करने के लिए दोनों ही एंजेसियां चंद्रमा पर मौजूद संसाधनों का उपयोग करना चाहती हैं। इस लिहाज़ से चंद्रमा पर पानी का सुलभ स्रोत मिलना खुशखबरी है।
लेकिन ये इतना भी आसान नहीं है कि मोतियों को कसकर निचोड़ा और उनमें से पानी निकल आया। हालांकि इस बात के सबूत मिले हैं कि इन्हें 100 डिग्री सेल्सियस से अधिक तपाने पर इनसे पानी बाहर आ सकता है। बहरहाल ये मोती चंद्रमा के ध्रुवों से दूर स्थित जगहों पर पानी के सुविधाजनक स्रोत लगते हैं। इनसे प्रति घनमीटर मिट्टी में से 130 मिलीलीटर पानी मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/ZYZMD7a8pS7kY48A8DpFpF-970-80.jpg.webp
श्रीहरिकोटा द्वीप खारे पानी के एक लैगून – पुलिकट झील – के लिए एक ढाल का काम करता है। चूंकि यह इसरो का प्रक्षेपण स्थल है इसलिए इसका अधिकतर क्षेत्र पर्यटकों के लिए प्रतिबंधित है। इस क्षेत्र में जलीय पक्षियों की 76 प्रजातियां पाई जाती हैं। झील हालांकि लगभग 60 किलोमीटर लंबी है, लेकिन इसकी औसत गहराई केवल एक मीटर है।
ज्वार-भाटों के साथ समुद्र तटों की खुलती-ढंकती नम भूमि (टाइडल फ्लैट) और मीठे व खारे पानी की नमभूमियां भूरे पेलिकन या हवासील (spot-billed pelican) के लिए आदर्श आवास हैं।
जब हम जल पक्षियों के बारे में सोचते हैं तो अधिकतर यही पक्षी हमारे मन में उभरता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने इसे रेड लिस्ट में शामिल किया है और इसे लगभग-संकटग्रस्त की श्रेणी में डाला है।
हवासील की हास्यास्पद चाल उसकी टांगों की कमज़ोर मांसपेशियों की ओर इशारा करती है, और इसी वजह ये पक्षी कोई माहिर तैराक नहीं हैं। और ये पानी की सतह के पास पाई जाने वाली मछलियां ही पकड़ते हैं। स्पॉट बिल्ड (यानी धब्बेदार चोंच वाला) पेलिकन, यह नाम इसे इसकी चोंच के किनारों पर पाए जाने वाले नीले धब्बों के कारण मिला है।
यह एक सामाजिक पक्षी है। कभी-कभी ये समूह में मछली पकड़ने जाते हैं, मिलकर अर्ध-वृत्ताकार चक्रव्यूह बना लेते हैं जो मछली को उथले पानी की ओर धकेलता है। हवासील छोटे पनकौवों के साथ भोजन साझा भी करते हैं।
पनकौवे कुशल गोताखोर होते हैं। उनके गोता लगाने के कारण गहराई में मौजूद मछलियां ऊपर सतह पर आ जाती हैं, जहां पेलिकन उन्हें पकड़ने के लिए घात लगाए होते हैं।
वयस्क हवासील का वज़न साढ़े चार-पांच किलोग्राम तक होता है। चोंच के नीचे एक थैली, जिसे गलास्थि कहते हैं, मछलियों को पकड़ने के लिए होती है। प्रजनन काल में, एक वयस्क भूरा पेलिकन एक बार में 2 किलो मछली पकड़ सकता है। भूरे पेलिकन अन्य जलीय पक्षियों के साथ टिकाऊ व मज़बूत कॉलोनी बनाते हैं। वे पेड़ों पर घोंसले बनाते हैं और एक बार में दो से तीन अंडे देते हैं। जब चूज़ों की उम्र लगभग एक महीने हो जाती है तो ये चूज़े घोंसलों को नष्ट कर देते हैं।
इनकी प्रजनन कॉलोनियां गांवों के बहुत करीब या गांवों के अंदर ही होती हैं। और ये पक्षी मानव गतिविधि से परेशान नहीं होते हैं। गांव के लोग पेलिकन और उनके घोंसलों का स्वागत करते हैं और उनकी रक्षा करते हैं। गांव के लोग भूरे पेलिकन की बीट का उपयोग उर्वरक के रूप में करते हैं। प्रजननकाल के बाद, भूरे पेलिकन की आबादी बहुत बड़े क्षेत्र में भोजन की तलाश में फैल जाती है।
2005 में फोर्कटेल में कन्नन और मनकादन द्वारा प्रकाशित एक व्यापक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में भूरे पेलिकन की संख्या लगभग 6,000-7,000 है। सर्वेक्षण में, दक्षिण भारत में तंजावुर के पास करैवेट्टी-वेट्टांगुडी, तमिलनाडु के तिरुनेलवेली के पास कुंतनकुलम, कर्नाटक में कोकरबेल्लुर (मांड्या ज़िला) और करंजी झील (मैसूर शहर), और आंध्र प्रदेश में गुंटूर के पास उप्पलपाडु और पुलीकट झील के पास नेलपट्टू में इनके प्रजनन स्थल पाए गए थे। आंध्र प्रदेश में हाल में कोलेरू झील में इन पक्षियों की एक बड़ी प्रजनन कॉलोनी नष्ट हो गई, जहां एक्वाकल्चर के चलते पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त हो गया था।
पुरावनस्पति विज्ञानी बताते हैं कि पुलिकट झील, जो अब एक खारा दलदल है, 16वीं शताब्दी में एक घना मैंग्रोव वन हुआ करती थी। नमभूमि का पारिस्थितिक तंत्र वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को ‘ब्लू कार्बन’ के रूप में सोख लेता है। कार्बन सिंक के रूप में, मैंग्रोव वन प्रति हैक्टर 1000 टन कार्बन संग्रहित कर सकते हैं।
वैश्विक महत्व की नमभूमियों को रामसर स्थल कहा जाता है। रामसर नाम ईरान के उस शहर के नाम पर पड़ा है जहां 1971 में वैश्विक नमभूमि संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह संधि 1975 में प्रभावी हुई थी। भारत में 75 रामसर स्थल हैं, जिनमें से 14 तमिलनाडु में हैं। इनमें तीन रामसर स्थल पिछले साल जोड़े गए हैं: करिकिली पक्षी अभयारण्य, पल्लीकरनई मार्श रिज़र्व फॉरेस्ट और पिचावरम मैंग्रोव। खुशकिस्मती से भूरे पेलिकन इन सभी रामसर स्थलों पर पाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thainationalparks.com/img/species/wiki/2013/07/09/6230/spot-billed-pelican-w-1500.jpg
अगस्त 2019 में, कुछ शोधकर्ताओं को उत्तर-पश्चिम मलेशिया के एक विशाल चूना पत्थर पहाड़ के पास सड़क पार करता हुआ एक ड्वार्फ रीड सांप (स्यूडोरेब्डियन लॉन्गिसेप्स) दिखा। जैसे ही वे उसके पास गए तो पहले तो वह अपने बचाव के लिए हवा में ऊपर की ओर घूमा और फिर कुंडली की तरह गोल-गोल लपेटता हुआ नीचे आ गया। शोधकर्ताओं ने सांप को पकड़ लिया और उसे सड़क किनारे समतल जगह पर रख दिया। उसने यही बचाव करतब फिर कई बार दोहराया।
ड्वार्फ रीड सांप दिखने में गहरे रंग का, बौना और संटी सरीखा पतला सा होता है। यह निशाचर प्राणि है जो चट्टानों में छिप कर रहता है। शोधकर्ताओं ने इस सांप पर किए अपने अवलोकन को बायोट्रॉपिका में प्रकाशित किया है। सांपों में इस तरह की हरकत पहली बार देखी और दर्ज की गई है। हालांकि कई अन्य जानवर, जैसे पैंगोलिन और टेपुई मेंढक, भी इस तरह कुलांचे भर सकते हैं, लेकिन सरिसृपों की बात तो दूर, स्तनधारियों में भी शरीर को मरोड़ना (या बल देना) इतनी आम बात नहीं है।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह सांप खतरे से जल्दी दूर भागने के लिए ऐसा करता है। उसका यह व्यवहार उसके शत्रुओं को भ्रमित भी कर सकता है। और क्योंकि उसकी यह कलाबाज़ी रेंगकर चलने की तुलना में उसके शरीर को ज़मीन से कम संपर्क में रखती है तो उसे सूंघ कर हमला करने वाले शिकारी भटक जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adi1232/full/_20230404_on_cartwheel_snake.jpg