कोविड मौतों की संख्या का नया अनुमान

क ताज़ा विश्लेषण के अनुसार विश्व भर में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों की तुलना में तीन गुना से भी अधिक है। दी लैंसेट में इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 31 दिसंबर 2021 तक कोविड से मरने वालों की संख्या लगभग 1.8 करोड़ है। इसी अवधि में विभिन्न आधिकारिक स्रोतों ने 59 लाख मौतों की जानकारी दी है। यह अंतर अधूरी रिपोर्टिंग तथा कई देशों में डैटा संग्रह व्यवस्था की खामियों के कारण है।

कोविड-19 से होने वाली मौतों का अनुमान लगाने के लिए आईएचएमई ने ‘अतिरिक्त मृत्यु’ गणना का उपयोग किया। शोधकर्ताओं ने किसी देश या क्षेत्र में उक्त अवधि में सभी कारणों से रिपोर्ट की गई मौतों की तुलना पिछले कुछ वर्षों के रुझान के आधार पर इस अवधि में अपेक्षित मौतों से करके अतिरिक्त मौतों का अनुमान लगाया है।

ये अतिरिक्त मौतें कोविड-19 के कारण होने वाली मौतों का अच्छा आईना हैं। स्वीडन व नीदरलैंड का उदाहरण दर्शाता है कि इन अतिरिक्त मौतों का प्रत्यक्ष कारण कोविड-19 महामारी ही थी।

वैसे इन अनुमानों में अन्य कारणों से होने वाली मौतें भी शामिल हैं। रिपोर्ट में इस विषय में और अधिक शोध का सुझाव दिया गया है ताकि कोविड-19 के कारण होने वाली मौतों और महामारी के कारण परोक्ष रूप से होने वाली मौतों को अलग-अलग किया जा सके। गौरतलब है कि महामारी के दौरान चिकित्सा सेवा न मिल पाने के कारण उन लोगों की भी अधिक मौतें हुई जो कोविड-19 से पीड़ित नहीं थे।     

आईएचएमई की टीम ने 74 देशों और क्षेत्रों में सभी कारणों से होने वाली मौतों का डैटा एकत्रित किया। जिन देशों से डैटा प्राप्त नहीं हो सका वहां मृत्यु दर का अनुमान लगाने के लिए एक सांख्यिकीय मॉडल का इस्तेमाल किया गया। विश्लेषण के अनुसार 1 जनवरी 2020 से 31 दिसंबर 2021 के बीच महामारी के कारण वैश्विक स्तर पर 1.82 करोड़ अतिरिक्त मौतें हुई हैं। इनमें सबसे अधिक अनुमानित अतिरिक्त मृत्यु दर एंडियन लैटिन अमेरिका (512 प्रति लाख), पूर्वी युरोप (345 प्रति लाख), मध्य युरोप (316 प्रति लाख), दक्षिणी उप-सहारा अफ्रीका (309 प्रति लाख) और मध्य लैटिन अमेरिका (274 प्रति लाख) में रही। ये परिणाम विभिन्न देशों और क्षेत्रों द्वारा सार्स-कोव-2 का सामना करने के तरीकों की तुलना करने में मदद करेंगे।

गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर अतिरिक्त मौतों का यह पहला अनुमान है जो समकक्ष-समीक्षा के बाद जर्नल में प्रकाशित किया गया है। इसी तरह का एक और अध्ययन डबल्यूएचओ द्वारा जल्द की प्रकाशित होने वाला है। 

अलबत्ता, कई शोधकर्ताओं ने आईएचएमई के अनुमानों की आलोचना की है। हिब्रू युनिवर्सिटी ऑफ जेरूसलम के अर्थशास्त्री इस नए अध्ययन में 1.8 करोड़ अतिरिक्त मौतों के आंकड़े को तो सही मानते हैं लेकिन अलग-अलग देशों के लिए अनुमानों से असहमत हैं। अन्य विशेषज्ञों के अनुसार आईएचएमई के मॉडल में कुछ अनियमितताएं भी हैं। फिर भी यह अनुमान आंखें खोल देने वाला तो है ही। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मक्खी से बड़ा बैक्टीरिया

हाल में मैन्ग्रोव वन से खोजा गया एक सूक्ष्मजीव जीव विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्व का हो सकता है। यह एक बैक्टीरिया है जिसे कैरेबिया के मैन्ग्रोव से खोजा गया है और सूक्ष्मजीव की हमारी धारणा के विपरीत यह काफी बड़ा है – इसकी धागेनुमा एकल कोशिका 2 से.मी. तक लंबी हो सकती है। लिहाज़ा यह नंगी आंखों से देखा जा सकता है। तुलना के लिए बताया जा सकता है कि यह बैक्टीरिया फल मक्खी से बड़ा है।

विशेषताएं और भी हैं। जैसे इसका विशाल जीनोम कोशिका के अंदर खुला नहीं पड़ा होता। इसका जीनोम एक झिल्ली में कैद होता है, जबकि सामान्यत: बैक्टीरिया की जेनेटिक सामग्री झिल्ली में लिपटी नहीं होती। झिल्लियों की उपस्थिति तो ज़्यादा पेचीदा कोशिकाओं का गुण है। इसकी विशाल साइज़ और झिल्लीयुक्त जीनोम को देखते हुए जीव वैज्ञानिक काज़ुहिरो ताकेमोतो को लगता है कि यह संभवत: जटिल कोशिकाओं के उद्भव की दिशा में एक मील का पत्थर हो सकता है।

गौरतलब है कि जीव विज्ञान में सजीवों को दो समूहों में बांटा जाता है। एक समूह है केंद्रकविहीन कोशिका वाले जीवों का समूह प्रोकैरियोट्स। इसके अंतर्गत एक कोशिकीय बैक्टीरिया और आर्किया जीव आते हैं। दूसरे समूह को यूकैरियोट्स कहते हैं और इसमें खमीर से लेकर तमाम बहुकोशिकीय जीव रखे गए हैं। जहां प्रोकैरियोट्स में जेनेटिक सामग्री (डीएनए) मुक्त तैरती रहती है, वहीं यूकैरियोट्स में डीएनए केंद्रक में बंद रहता है। यूकैरियोट्स में सारे कार्य झिल्लियों में कैद कोशिका-उपांगों में सम्पन्न होते हैं और पदार्थों को एक उपांग से दूसरे में ले जाने की व्यवस्था होती है। प्रोकैरियोट्स में ऐसा कुछ नहीं होता।

लेकिन यह नया सूक्ष्मजीव इन सीमाओं को धुंधला कर रहा है। दरअसल, करीब 10 वर्ष पूर्व युनिवर्सिटी ऑफ फ्रेंच एंटिलेस के समुद्री जीव वैज्ञानिक ओलिवियर ग्रॉस ने मैन्ग्रोव की सड़ती गलती पत्तियों की सतह पर यह विचित्र जीव देखा था। लेकिन उन्हें यह पहचानने में 5 साल लग गए कि यह एक बैक्टीरिया है। और इसकी अद्भुत विशेषताओं को जानने में 5 साल और बीत गए।

यह तो देखा गया है कि कुछ सूक्ष्मजीव (जैसे शैवाल) लंबे बहुकोशिकीय तंतु बना लेते हैं लेकिन यह बैक्टीरिया तो मात्र एक कोशिका से बना है।

इसके बाद यह अचंभा सामने आया कि इस इकलौती कोशिका के अंदर झिल्ली से बनी दो थैलियां हैं – एक में कोशिका का डीएनए भरा है जबकि दूसरी बड़ी थैली पानी से भरी है। इसका मतलब है कि यह केंद्रक के निर्माण की प्रक्रिया में है। इस नए-नवेले बैक्टीरिया के लिए प्रस्तावित नाम है – थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका (Thiomargarita magnifica)। आम तौर पर बैक्टीरिया के डीएनए में  40 लाख क्षार इकाइयां होती हैं और जीन्स करीब 11,000 होते हैं जबकि थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका में 110 लाख क्षार और 3900 जीन्स हैं। बायोआर्काइव्स में इस खोज की जानकारी देते हुए शोधकर्ताओं ने तो यहां तक कहा है कि शायद प्रोकैरियोट्स और यूकैरियोट्स के बीच स्पष्ट विभाजन पर पुनर्विचार का वक्त आ गया है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्रिस्पर शिशुओं की देखभाल पर नैतिक बहस

र्ष 2018 में जीव वैज्ञानिक हे जियानकुई ने दुनिया को यह घोषणा करके चौंका दिया था कि उन्होंने क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद से मानव भ्रूण के जीनोम में फेरबदल करके शिशु उत्पन्न किए हैं। उनके इस काम की निंदा हुई थी और उन्हें कारावास की सज़ा हुई थी। सज़ा की अवधि समाप्त होने पर हे को मुक्त किया जाने वाला है और अब यह बहस छिड़ गई है कि इन शिशुओं को किस तरह की देखभाल व सुरक्षा दी जानी चाहिए।

इस बहस के मूल में मुद्दा यह है कि उक्त शिशुओं के जीनोम में फेरबदल के चलते ये अज्ञात जोखिमों से घिरे हैं। इस संदर्भ में चाइनीज़ एकेडमी ऑफ सोशल साइन्सेज़ के किउ रेनज़ॉन्ग और वुहान स्थित हुआजोन्ग विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के लाई रुइपेंग ने एक प्रस्ताव पेश किया है। प्रस्ताव में किउ और रुइपेंग ने कहा है इन शिशुओं को विशेष सुरक्षा की ज़रूरत है क्योंकि ये एक ‘एक जोखिमग्रस्त समूह’ में हैं। हो सकता है जीन-संपादन के कारण इनके डीएनए में हानिकारक गड़बड़ियां पैदा हो गई हों। और तो और, ये गड़बड़ियां इनकी संतानों में भी पहुंच सकती हैं। प्रस्ताव में कहा गया है कि इन बच्चों के डीएनए का नियमित अनुक्रमण होना चाहिए।

इसके अलावा एक सुझाव यह है कि इन शिशुओं का निर्माण करने वाले हे को बच्चों के स्वास्थ्य व देखभाल की वित्तीय, नैतिक व कानूनी ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए। प्रस्ताव में सदर्न युनिवर्सिटी ऑफ साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी तथा सरकार को भी ज़िम्मेदार बनाया गया है।

2018 में हे ने क्रिस्पर-कास 9 तकनीक की मदद से मानव भ्रूणों में सीसीआर नामक एक जीन में फेरबदल किया था। यह जीन एड्स वायरस (एचआईवी) के सह-ग्राही का कोड है। पूरी कवायद का मकसद था कि इन भ्रूणों को एड्स वायरस का प्रतिरोधी बना दिया जाए। इन भ्रूण को गर्भाशय में प्रत्यारोपित करने के बाद 2018 में तीन लड़कियां पैदा हुई थीं। गौरतलब है कि माता-पिता इस उपचार के पक्ष में थे क्योंकि पिता एचआईवी पॉज़िटिव थे।

इस मामले में ध्यान देने की बात यह भी है कि कई अन्य शोधकर्ता जीन-संपादित भ्रूण प्रत्यारोपण में रुचि रखते हैं। उदाहरण के लिए, मॉस्को स्थित कुलाकोव नेशनल मेडिकल रिसर्च सेंटर के डेनिस रेब्रिकोव ने क्रिस्पर की मदद से बधिरता से जुड़े एक उत्परिवर्तित जीन में संशोधन की तकनीक विकसित कर ली है। उन्हें उम्मीद है कि उन्हें ऐसे माता-पिता मिल जाएंगे जो इसे आज़माना चाहेंगे। इसे देखते हुए लगता है कि उपरोक्त तीन बच्चे अंतिम नहीं होंगे।

सभी इस बात से सहमत हैं कि किउ और लाई द्वारा दी गई सिफारिशें महत्वपूर्ण हैं लेकिन कई शंकाएं भी हैं। यह सही है कि ये बच्चियां जोखिमग्रस्त हैं क्योंकि उन्हें न सिर्फ शारीरिक, बल्कि सामाजिक दिक्कतों का सामना भी करना पड़ सकता है। लेकिन लगातार निगरानी में रहना भी कई शोधकर्ताओं को उचित नहीं लगता। इस संदर्भ में प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी के प्रकरण की भी याद दिलाई जा रही है जिसे कई वर्षों तक तमाम जांच वगैरह से गुज़रना पड़ा था। (स्रोत फीचर्स)
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बुज़ुर्गों में नींद उचटने का कारण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भी की इच्छा होती है कि एक बच्चे जैसी (भरपूर) नींद सोएं। लेकिन वास्तव में, वयस्कों में नींद के कुल घंटे कम होते जाते हैं, और उम्र बढ़ने के साथ नींद की गुणवत्ता भी कम होने लगती है। खासकर वृद्ध लोगों में हल्की और उचटती नींद होने की प्रवृत्ति दिखती है। वर्ष 2017 में न्यूरॉन पत्रिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ब्रायस मैंडर और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन बताता है कि नींद की गुणवत्ता और नींद के घंटों में लगातार कमी से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ सकता है, और जीवनकाल छोटा हो सकता है।
अनुसंधान ने इस बात के कई सुराग दिए हैं कि मनुष्यों में कौन-से कारक नींद को प्रेरित करते हैं। रात में पीनियल ग्रंथि मेलेटोनिन हार्मोन का स्राव करती है, जो सोने-जागने के चक्र के नियंत्रण में भूमिका निभाता है। इसलिए मेलेटोनिन अनिद्रा पर काबू पाने की एक प्रचलित दवा बन गया है, हालांकि लंबे समय तक उपयोग में इसकी प्रभावशीलता को लेकर सवाल हैं।
वैसे, हमारी ‘जागृत’ अवस्था कहीं अधिक पेचीदा है क्योंकि इसमें लगभग पूरा मस्तिष्क शामिल होता है। शायद यही कारण है कि बुज़ुर्गों की अक्सर लगती-टूटती नींद हमें चक्कर में डाल देती है।
हमें पता है कि नींद की समस्या से पीड़ित वृद्ध लोगों में मस्तिष्क के उन केंद्रों में तंत्रिका कोशिकाओं में विकार देखा गया है, जो स्वैच्छिक हरकत के समन्वय में भूमिका निभाते हैं। हाल ही में साइंस पत्रिका में एस. बी. ली और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। यह अध्ययन हायपोथैलेमस ग्रंथि के बारे में बताता है। बादाम के आकार की हाइपोथैलेमस ग्रंथि हमारे मस्तिष्क के केंद्र में होती है। मस्तिष्क के इस हिस्से का एक क्षेत्र, पार्श्व हायपोथैलेमस, जागने, खाने के व्यवहार, सीखने और सोने में अहम भूमिका निभाता है। यहां से तंत्रिका कोशिकाओं का एक झुंड निकलता है और इनके सिरे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की जागृत स्थिति से जुड़े सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं से रासायनिक संदेश छोटे-छोटे प्रोटीन्स (न्यूरोपेप्टाइड्स) के रूप में जारी होते हैं जिन्हें हाइपोक्रेटिन (Hcrt) या ऑरेक्सिन (OX) कहा जाता है।
सभी तंत्रिकाओं की तरह, Hcrt/OX तंत्रिकाओं के भी अंतिम सिरे होते हैं जिन्हे सायनेप्स कहा जाता है। ये सायनेप्स किसी अन्य तंत्रिका के सायनेप्स के नज़दीक हो सकते हैं या किसी मांसपेशीय कोशिका के निकट। विद्युत संकेत पूरी तंत्रिका से होते हुए सायनेप्स तक आते हैं, जहां ये तत्काल रासायनिक संकेत में बदल जाते हैं, और सिरे से निकल कर बाजू वाली तंत्रिका में चले जाते हैं और वहां प्रतिक्रिया शुरू करते हैं। तंत्रिका विज्ञान की भाषा में, एक उद्दीपन संकेत बाजू वाली तंत्रिका में पहुंचकर उसे संकेत भेजने को प्रेरित करता है – जो उस तंत्रिका के दूसरे सिरे पर स्थित सायनेप्स तक विद्युत संकेत के रूप में पहुंचता है। अवरोधी संकेत तंत्रिका की इस सक्रियता को रोक सकते हैं। हाइपोक्रेटिन उद्दीपक की तरह काम करता है, और जिस तंत्रिका में पहुंचता है उसे सक्रिय कर देता है।
हाइपोक्रेटिन जागृत रहने को उकसाता है, और साथ ही यह कुछ खाने या साथी की तलाश के लिए भी उकसाता है। इसके अलावा यह ठंड, मितली या दर्द के प्रति प्रतिक्रिया भी देता है। मानव मस्तिष्क में मौजूद 86 अरब तंत्रिकाओं में से 20,000 से भी कम तंत्रिकाएं हाइपोक्रेटिन बनाती हैं, लेकिन इनका प्रभाव काफी गहरा होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हाइपोक्रेटिन लंबे समय तक जागने के लिए ज़रूरी है। हाइपोक्रेटिन को सीधे मस्तिष्क-मेरु द्रव में प्रवेश कराने से (ताकि यह तुरंत मस्तिष्क में पहुंच जाए) यह आपको कई घंटों तक जगाए रखता है। जब आप सो रहे होते हैं तो हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाएं सक्रिय नहीं रहती हैं।
प्रयोगों में देखा गया है कि भोजन से वंचित चूहे भोजन की तलाश में बहुत लंबे समय तक जागते हैं और भोजन तलाशने में व्यस्त रहते थे। और हाइपोक्रेटिन की कमी वाले चूहे, जिनमें हाइपोक्रेटिन जीन को ठप कर दिया गया था, अपनी तलाश में कम उत्सुकता दिखाते थे।
नींद उचटना
सवाल है कि बुज़ुर्गों की नींद को क्या हो जाता है? ली और उनके साथियों ने दर्शाया है कि उम्र के साथ हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाओं में परिवर्तन हो जाते हैं। और ज़रा से उकसावे से ही वे अति-उत्तेजित हो जाती हैं, संकेत प्रेषित करने लगती हैं और बहुत कम उकसावे पर ही न्यूरोपेप्टाइड्स स्रावित करती हैं। अन्यथा निष्क्रिय हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स की अवांछित सक्रियता नींद तोड़ने का काम करती है। उम्र बढ़ने के साथ तंत्रिकाओं में हुए परिवर्तन उनकी सक्रियता को रोकना और मुश्किल कर देते हैं।
Hcrt/OX तंत्रिका की क्षति के कारण या उनकी अनुपस्थिति के कारण एक बिरला तंत्रिका तंत्र विकार पैदा होता है – नार्कोलेप्सी। नार्कोलेप्सी के लक्षण विचित्र हैं – इसमें दिन में सोने की तीव्र इच्छा होती है जबकि नींद के कुल घंटे नहीं बदलते; सोने-जागने की अवस्था में स्पष्ट अंतर न होने के कारण मतिभ्रम की स्थिति रहती है; मांसपेशियों का तनाव कम हो जाता है, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं (कैटाप्लेक्सी)।
वर्ष 2018 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में अनिमेश रे द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भारत में इसके कुछ ही मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें से अधिकतर मामले तीस वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों में मिले हैं। इस स्थिति वाले मरीज़ों के मस्तिष्क-मेरु द्रव में न के बराबर हाइपोक्रेटिन होता है।
अंत में, क्या टूटी-फूटी नींद लेने वाले लोग बेहतर और एकमुश्त नींद देने वाले उपायों का सपना देख सकते हैं? वृद्ध चूहों में देखा गया है कि फ्लुपरटीन नामक दर्दनिवारक उस स्तर को बहाल कर देता है जहां हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स उत्तेजित होते हैं और इस प्रकार यह नींद के टाइम टेबल को बहाल करता है हालांकि यह दर्दनिवारक स्वयं विषाक्तता की दिक्कतों से पीड़ित है। (स्रोत फीचर्स)

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नए शोधों से मिले रोगों के नए समाधान – मनीष श्रीवास्तव

ई बीमारियां लाइलाज हैं तो कई की इलाज की प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसलिए दुनिया भर में वैज्ञानिक सतत रूप से शोध कार्य कर रहे हैं ताकि बीमारियों के बेहतर और सरल इलाज खोजे जा सकें। हाल के समय में एचआईवी, लकवा, तंत्रिका विकारों के इलाज में वैज्ञानिकों को नई सफलताएं प्राप्त हुई हैं। इसी के साथ स्वच्छ ऊर्जा एक अहम क्षेत्र है, जिसका विकल्प वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया है। आइए जानते हैं इन क्षेत्रों में कुछ हालिया उपलब्धियों के बारे में…

चलने लगे लकवाग्रस्त मरीज

स्विटज़रलैंड के लोज़ान युनिवर्सिटी हॉस्पिटल और स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने एक ऐसी डिवाइस बनाने में सफलता हासिल की है, जिसकी मदद से कमर के नीचे के हिस्से में लकवे का शिकार हुए तीन मरीज़ चल पाए हैं। इस ऐतिहासिक सफलता सम्बंधी रिपोर्ट जर्नल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित हुई है। यह प्रयोग 29 से 41 वर्ष की उम्र के तीन ऐसे लोगों पर किया गया था, जो लंबे समय से व्हील चेयर पर थे। इनमें से एक व्यक्ति मिशेल रोकंति की रीढ़ की हड्डी में इलेक्ट्रोडयुक्त डिवाइस लगाया गया। इसकी मदद से जल्द ही मिशेल ने अपने पैरों पर खड़े होना तथा बाकी दो ने तैरना तथा साइकिल चलाना तक शुरू कर दिया है।

इस तरह तीन व्यक्तियों के एपिड्यूरल स्पेस में कुल 16 इलेक्ट्रोड डिवाइस लगाए गए। ये इलेक्ट्रोड, पेट की त्वचा के नीचे प्रत्यारोपित एक पेसमेकर से दिमाग को संदेश पहुंचाने के साथ शरीर के विभिन्न अंगों तक उन्हें प्रेषित करने का काम करते हैं। जब इलेक्ट्रोड की मदद से दिमाग की तंत्रिकाओं को कोई संदेश मिलता है तो शरीर की मांसपेशियां फिर से सक्रिय होकर कार्य करना शुरू कर देती हैं। इस डिवाइस को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सॉफ्टवेयर द्वारा नियंत्रित भी किया जा सकता है।

स्टेम सेल से एचआईवी का इलाज

हाल ही में एचआईवी के इलाज में एक महत्वपूर्ण सफलता हासिल हुई है। वैज्ञानिकों ने पहली बार गर्भनाल की स्टेम कोशिका से एचआईवी का सफल इलाज करने में सफलता पाई है। प्रयोग अमेरिका की एक महिला पर किया गया जिसे 2013 में एड्स रोग की पुष्टि हुई थी। इससे पहले तमाम तकनीकों से महिला का इलाज किया जा चुका था। गर्भनाल की स्टेम कोशिका से किए गए उपचार से महिला को वायरस-मुक्त करने में सफलता प्राप्त हुई है। कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के डॉ. स्टीवन डीक्स के अनुसार गर्भनाल से स्टेम सेल प्राप्त करना आसान होता है और ये अधिक प्रभावी होती हैं। अत: यह तकनीक काफी मददगार होगी क्योंकि इस तरह के डोनर सरलता से मिल जाते हैं। पहले अस्थि मज्जा कोशिका की सहायता से इलाज किया जाता था किंतु अस्थि मज्जा दानदाता खोजना और मरीज़ के साथ मैचिंग करना मुश्किल होता था।

तंत्रिका विकार का निदान

मनुष्य में होने वाले तंत्रिका विकारों को जानने के लिए पहले जीनोम सीक्वेंसिंग ज़रूरी होता था। यह प्रक्रिया बेहद जटिल और समय लेने वाली होती है। हाल ही में जीनोमिक इंग्लैंड और क्वीन मैरी युनिवर्सिटी शोध टीम ने इस विकार का पता लगाने के लिए एक सरल विधि खोज निकाली है। इस शोध से जुड़े डॉ. एरियाना टुचि ने बताया है कि इस विधि से तंत्रिका विकार का पता डीएनए टेस्ट की विधि से सरलता से लगाया जा सकेगा। इस विधि में बीमारी वाले जीन की पहचान की जाती है और फिर उसका इलाज शुरू कर दिया जाता है। जीनोम सीक्वेंसिंग में तंत्रिका विकार के कारणों की पहचान मुश्किल से हो पाती थी।

कृत्रिम सूरज की रोशनी

हाल ही में ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा रिएक्टर बना लिया है जो सूरज की तरह परमाणु संलयन की क्रिया को संपन्न कर सकता है। इस रिएक्टर से इतनी मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि वैज्ञानिक इसे कृत्रिम सूर्य कह रहे हैं। वैज्ञानिक जगत में इस उपलब्धि को मील का पत्थर कहा जा रहा है। अब वैज्ञानिकों ने आशा जताई है कि भविष्य में इस मशीन के द्वारा पृथ्वी पर सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध हो सकेगी। वैज्ञानिकों का प्रयास है कि धरती पर इस तरह के कई छोटे सूरज बनाए जाएं।

कम कार्बन, स्वच्छ ऊर्जा 

यूके परमाणु ऊर्जा प्राधिकरण ने बताया है कि कल्हम सेंटर फॉर फ्यूज़न एनर्जी में जेट प्रयोगशाला है, जिसमें एक डोनट आकार की मशीन लगी हुई है। इसे टोकामैक नाम से पुकारा जाता है। इसमें कम मात्रा में ड्यूटीरियम व ट्रीशियम जैसे तत्व भरे गए हैं। इस मशीन के केंद्र को सूरज के केंद्र की तुलना में 10 गुना ज़्यादा गर्म जाता है ताकि इसमें प्लाज़्मा बन सके। प्लाज़्मा को सुपरकंडक्टर विद्युत-चुंबक की मदद से एक जगह बांधकर रखा जाता है। विद्युत-चुंबक की मदद से जब इसने घूमना शुरू किया तो इससे अपार मात्रा में ऊर्जा निकलने लगी, जो पूरी तरह सुरक्षित और स्वच्छ ऊर्जा रही। गौरतलब है कि इस ऊर्जा की मात्रा 1 किलो कोयला या 1 लीटर तेल से पैदा हुई ऊर्जा की तुलना में 40 लाख गुना ज़्यादा रही। और तो और, यह ऊर्जा बेहद कम कार्बन उत्सर्जन वाली रही, जो पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभदायक सिद्ध होगी। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री ध्वनियों की लाइब्रेरी की तैयारी

मुद्रों में अठखेलियां करने वालों ने हम्पबैक व्हेल का दर्दभरा गीत सुना है, किलर व्हेल के समूह का कोलाहल सुना है। लेकिन कांटेदार किना समुद्री साही जैसे शांत जीवों की ध्वनि अनसुनी रह जाती है; यह एक खोखले गोले के पानी में गिरने जैसी आवाज़ करता है। अब, कुछ वैज्ञानिक शांत समुद्री जीवों की ध्वनियां लोगों के ध्यान में लाना चाहते हैं। इसलिए इस महीने फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में नौ देशों के 17 शोधकर्ताओं ने समुद्री जीवों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों को सूचीबद्ध करने, उनका अध्ययन करने और मानचित्रण के लिए एक वैश्विक लाइब्रेरी का प्रस्ताव रखा है। इस लाइब्रेरी को ग्लब्स (GLUBS) नाम दिया है, जिसमें ध्वनि विशेषज्ञों और नागरिक-वैज्ञानिकों से समुद्र के नीचे की ध्वनियां एकत्र की जाएंगी ताकि शोधकर्ताओं को यह ट्रैक करने में मदद मिले कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं।

इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के समुद्री जीव विज्ञानी माइल्स पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इस तरह की लाइब्रेरी का सुझाव नया नहीं हैं। समुद्री जीवों की कुछ लाइब्रेरी पहले से मौजूद हैं। लेकिन वे किसी क्षेत्र या कुछ चुनिंदा जंतुओं पर केंद्रित हैं। नया विचार समुद्र के भीतर के ध्वनि के स्रोतों को समझने और उनके दस्तावेज़ीकरण में मदद करेगा।

उन्होंने आगे बताया कि लाइब्रेरी में ज्ञात ध्वनियां और उनके स्रोत होंगे। इसके साथ-साथ इसमें अज्ञात ध्वनियां भी होंगी जिन्हें पहचानने की आवश्यकता होगी। इसमें शोधकर्ता अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई किसी एक जंतु की ध्वनि या किसी एक स्थान पर होने वाली सभी आवाज़ों की सम्मिलित रिकॉर्डिंग अपलोड कर सकते हैं। ध्वनि रिकॉर्डिंग के आधार पर विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर नज़र रखने वाले नक्शे होंगे। और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए एक डैटाबेस होगा।

लाइब्रेरी में ध्वनियों को सहेजने का उद्देश्य आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को प्रशिक्षित करने का भी है ताकि वे अज्ञात ध्वनियों के (अज्ञात) स्रोतों को पता लगाने और पहचानने में सक्षम हो। आदर्श रूप से हम यह बताने में सक्षम होंगे कि हमने जो ध्वनि रिकॉर्ड की है वह किस प्राणि की है। लेकिन ऐसा करने के लिए प्रत्येक ध्वनि के हज़ारों नमूनों की आवश्यकता होगी।

इस प्रयास में लोगों को जोड़ने के लिए एक ऐसा नागरिक-विज्ञान ऐप बना सकते हैं जिसके ज़रिए वे अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई ध्वनियों को अपलोड कर सकें और पहचान सकें। उम्मीद है कि एक दिन एक विशाल डैटाबेस तैयार हो पाएगा जिसको कोई ध्वनि सुनाते ही वह सम्बंधित प्रजाति और उसके व्यवहार को पहचान सकेगा।

समुद्री जीवन की ध्वनियां रिकॉर्ड करने के लिए बैटरी वाले हाइड्रोफोन का उपयोग किया जाता है। खास तौर से गहराई में दबाव से निपटना काफी मुश्किल हो जाता है। हाइड्रोफोन को या तो लगातार रिकॉर्डिंग के लिए या हर 15 मिनट में 5 मिनट की रिकॉर्डिंग करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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भारी-भरकम डायनासौर की चाल

सौरोपोड्स अब तक के ज्ञात सबसे बड़े डायनासौर में से हैं। ये आज से लगभग 20 करोड़ से 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर चहलकदमी करते थे। लेकिन सवाल यह था कि लगभग 70 टन वज़नी विशाल सौरोपोड्स की चाल कैसी रही होगी? क्या वे जिराफ की तरह चलते होंगे, अपने दोनों दाएं या दोनों बाएं पैर एक साथ उठाकर रखते हुए? या फिर हाथी की तरह चलते होंगे, पहले आगे वाला बस एक पैर उठाकर आगे रखा फिर उसके विपरीत पीछे वाला पैर?

लेकिन हालिया अध्ययन में पता चला है कि वे इनमें से किसी भी तरह से नहीं चलते थे बल्कि वे अपने आगे-पीछे के विपरीत पैरों को एक साथ उठाते हुए चलते थे, जिस तरह बीवर या हेजहॉग चलते हैं।

पूर्व अध्ययनों का निष्कर्ष था कि सौरोपोड्स जिराफ की चाल से चलते थे यानी दोनों दाएं या दोनों बाएं पैर एक साथ उठाकर चलते थे। लेकिन लिवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी जेन्स लेलेंसैक को यह बात कुछ हजम नहीं हुई क्योंकि यदि इतना भारी-भरकम जीव अपना सारा वज़न एक तरफ डालते हुए चलेगा तो उसके गिरने की आशंका होगी जो जानलेवा होगा।

इसलिए लेलेंसैक और उनके साथियों ने सौरोपोड के अश्मीभूत पदचिंहों का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने 1989 और 2018 में दक्षिण-पश्चिमी अर्कांसस में जिप्सम खदानों के पास मिले तीन पदमार्गों (पैरों के निशान से बने रास्ते) चुने, जिन पर से अकेला सौरोपोड गुज़रा था।

सबसे पहले उन्होंने प्रत्येक पदचिंह के बीच की दूरी को मापा और देखा कि ये निशान अगले पैर के हैं या पिछले के, दाएं पैर के हैं या बाएं पैर के। फिर शोधकर्ताओं ने गणना की कि पदमार्ग में पैरों की कौन-सी स्थितियां (लिंब फेज़) फिट होती हैं – यानी अगले और पिछले पैरों के ज़मीन पर पड़ने वाले समय के अंतराल नापे जो इस पदमार्ग में फिट बैठते हों। इस माप से प्रत्येक जानवर की चाल पता की जा सकती है: उदाहरण के लिए, 0 प्रतिशत लिंब फेज़ वाली चाल का अर्थ है कि वह जंतु एक ओर के आगे और पीछे के पैर एक साथ उठाता-रखता है।

सौरोपोड के धड़ की लंबाई या उसके कंधों से कूल्हों की बीच की दूरी को मापकर सौरोपोड के मॉडल शरीर पर लिंब फेज़ को दर्शाया जा सकता है। चलते समय किसी जानवर का धड़ बड़ा-छोटा तो नहीं होता।

शोधकर्ताओं ने गणना की कि सभी संभावित लिंब फेज़ में से कौन सा लिंब फेज़ धड़ की लंबाई से मेल खाता है। हरेक पदमार्ग के लिए उन्होंने पाया कि सौरोपोड पैरों की ‘विकर्ण जोड़ी’ पैटर्न में चलता था: हमेशा आगे का दायां और पीछे का बायां या आगे का बायां और पीछे दायां पैर ज़मीन पर रहता है और दूसरी जोड़ी के पैर एक साथ उठते हैं। शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष करंट बायोलॉजी में प्रकाशित किए हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने वर्तमान जानवरों जैसे कुत्तों, घोड़ों, ऊंटों, हाथियों और यहां तक कि रैकून द्वारा छोड़े पदचिन्हों पर अपने तरीके को जांचा। उनके सारे अनुमान सही निकले।

लगता है, पदमार्गों की मदद से बाकी डायनासौर की चाल पर भी पुनर्विचार किया जा सकता है। इसके अलावा, सौरोपोड विविध तरह के थे उनके आकार भिन्न थे तो संभव है कि उनकी चाल भी अलग-अलग रही हो। शोधकर्ता इस बात सहमत हैं और अन्य सौरोपोड्स और डायनासौर की चाल का विश्लेषण करने की योजना बना रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन: बांग्लादेश से सबक

ह तो स्पष्ट है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन ने वैश्विक तापमान बढ़ा दिया है, जिससे पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र और मानव समाज पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। इस सिलसिले में, 28 फरवरी को आई एक रिपोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि ये प्रतिकूल प्रभाव और बदतर होंगे और इनके साथ अनुकूलन की तत्काल आवश्यकता है।

यह बात बांग्लादेश, या दक्षिणी विश्व के अन्य गरीब और असुरक्षित देशों और समुदायों, के लिए कोई नई बात नहीं है। ये इलाके एक दशक से अधिक समय से बदलती जलवायु के प्रभावों जैसे बाढ़ों, चक्रवातों और सूखों को झेल रहे हैं। नई बात यह है कि वैश्विक तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के बाद जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और अधिक गंभीर हो गए हैं। यानी 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत किए जा रहे प्रयासों के बावजूद जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, नुकसान और तबाही का युग शुरू हो गया है, जिसे टाला नहीं जा सकता।

 अब विश्व के हर हिस्से में हर दिन रिकॉर्ड तोड़ जलवायु प्रभाव दिख रहे हैं, और निकट भविष्य में ये और भयावह होंगे। हाल ही में जर्मनी में आई बाढ़, जिसमें लगभग 200 लोग मारे गए थे और न्यू जर्सी में ईदा तूफान के बाद आई बाढ़, जिसमें 30 से अधिक लोग मारे गए थे, कुछ उदाहरण हैं।

संदेश यह है कि वर्तमान नुकसान और तबाही से निपटने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन के प्रयास तेज़ करना होंगे। गरीब देश अपने दम पर ऐसा करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसे में अमीर देशों को, भले ही प्रदूषण फैलाने के हर्जाने के तौर पर न सही, कम से कम एकजुटता की भावना से ही गरीब देशों की मदद करनी चाहिए।

रिपोर्ट में अनुकूलन को देश और दुनिया के स्तर पर संपूर्ण-समाज प्रयास बनाने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला गया है। इस संदर्भ में बांग्लादेश से काफी कुछ सीखा जा सकता है, जो इन प्रभावों का सामना करने के लिए संपूर्ण-समाज प्रयास का तरीका अपना रहा है। बांग्लादेश ने अपने 16 करोड़ नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है।

उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के धान वैज्ञानिकों ने धान की लवण-सहिष्णु किस्में विकसित की हैं। ये किस्में निजी कृषि व्यावसायियों द्वारा किसानों को बेची जा रही हैं। पारंपरिक किस्मों से महंगी होने के बावजूद निचले तटीय क्षेत्रों, जहां समुद्र का खारा पानी आ जाता है, के किसान इन्हें खरीद रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिकों के प्रयास तटीय इलाकों में लवणता बढ़ने के सामने धीमे साबित हो रहे हैं। इसलिए अनुकूलन में तेज़ी लाने के लिए वैश्विक वैज्ञानिकों के सहयोग की आवश्यकता है।

बांग्लादेश ने सभी समस्याओं का समाधान नहीं किया है, लेकिन बाढ़ और चक्रवात से लोगों की जान बचाने में काफी प्रगति की है। एक दशक पूर्व बांग्लादेश में भीषण चक्रवात के कारण सैकड़ों-हज़ारों जानें जाती थीं लेकिन अब बांग्लादेश के पास संभवत: दुनिया का बेहतरीन चक्रवात चेतावनी और लोगों को स्थानांतरित करने के कार्यक्रम है। उपग्रह द्वारा चक्रवात की स्थिति पर नज़र रखने का तंत्र बेहतर हुआ है। साथ ही रेडियो, मोबाइल फोन और यहां तक कि स्वयंसेवकों द्वारा मेगाफोन के माध्यम से लोगों को पूर्व चेतावनी दी जाती है। हाई स्कूल के छात्रों को चक्रवात से मुस्तैदी से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। संवेदनशील क्षेत्रों के निकट आश्रय स्थल बनाए गए हैं और लोगों को इनकी जानकारी दी जाती है।

इन उपायों की प्रभावशीलता मई 2020 में दिखी जब यहां अम्फान नामक चक्रवात ने कहर बरपाया था। अम्फान चक्रवात में 30 से कम लोगों की जान गई थी और जिनकी जान गईं उनमें ज़्यादातर वे मछुआरे थे जो समुद्र से समय पर लौट नहीं पाए थे। बांग्लादेश के ऐसे प्रयास अन्य देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में मदद कर सकते हैं; साथ ही कई मामलों में उसे अन्य देशों की मदद की ज़रूरत है। मामला व्यापक सहयोग का है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रेडियोधर्मी कचरे का एक लाख वर्ष तक भंडारण!

कोयला संयंत्रों की तुलना में परमाणु उर्जा को स्वच्छ उर्जा माना जाता है। परमाणु उर्जा संयंत्रों की दक्षता भी अधिक होती है – समान मात्रा में कोयले की तुलना में 20,000 गुना अधिक उर्जा प्राप्त होती है। लेकिन इन संयंत्रों से निकलने वाला रेडियोधर्मी कचरा एक बड़ी समस्या है। यह कचरा सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक सक्रिय रहता है और पर्यावरण व स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता रहता है। वर्तमान में, परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले अधिकांश रेडियोधर्मी कचरे को बिजली संयंत्रों में ही संग्रहित किया जाता है लेकिन स्थान की कमी के कारण इस कचरे को स्थानांतरित करना आवश्यक हो जाता है।     

इस कचरे को धरती में दफनाने में भी कई समस्याएं हैं। यह धीरे-धीरे मिट्टी को संदूषित कर पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता रहता है। ऐसे में तेज़ी से विकसित हो रहे परमाणु उर्जा संयंत्रों से भविष्य में रेडियोधर्मी अपशिष्ट का निष्पादन एक बड़ी समस्या बन सकता है। वर्तमान में नेवादा स्थित प्रसिद्ध युक्का माउंटेन पर परमाणु कचरे के स्थायी भंडारण से फ्रांस, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। हाल में फिनलैंड एक दीर्घकालिक परमाणु अपशिष्ट भंडार के लिए अनुमोदन प्राप्त करने में सफल रहा है जिसे आने वाले कुछ वर्षों में शुरू करने की तैयारी है।

इस भंडारण सुविधा को फिनिश भाषा में ऑनकालो नाम दिया गया है जिसका मतलब गहरा गड्ढा है। यूराजोकी शहर के बाहरी क्षेत्र में पृथ्वी की सतह से लगभग आधा किलोमीटर नीचे युरेनियम ईंधन अपशिष्ट का भंडारण किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि तांबे के पुख्ता कवच, जल-अवशोषक बेंटोनाइट मिट्टी और जलरोधी क्रिस्टलीय चट्टानों की मोटी-मोटी परतें हानिकारक रेडियोधर्मी तत्वों को इस स्थल से बाहर रिसने और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाने से रोक लेंगी। लेकिन यहां की अछिद्रित चट्टानों में भी दरारें तो होती ही हैं। अत: इस परियोजना पर काम करने वाली कंपनी पोसिवा को इन दरारों का मानचित्रण करके उनसे बचने के काफी प्रयास करना पड़े हैं।

यह परियोजना फिनलैंड के परमाणु उर्जा क्षेत्र के जोखिम को कम करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इस वर्ष पांचवें परमाणु उर्जा संयंत्र के शुरू होने के बाद परमाणु ऊर्जा देश की ऊर्जा की 40 प्रतिशत मांग को पूरा करेगी। यदि यह परियोजना सफल होती है तो ऑनकालो के विशाल तांबा कवच रेडियोधर्मी युरेनियम को तब तक सुरक्षित और सुखाकर रखेंगे जब तक कि यह पर्याप्त सुरक्षित स्तर तक विघटित नहीं हो जाता यानी लगभग एक लाख वर्षों तक। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 की उत्पत्ति पर बहस जारी

हाल में जारी किए गए तीन नए अध्ययनों ने सार्स-कोव-2 की उत्पत्ति पर निर्विवादित निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। हालांकि तीनों विश्लेषण कोविड-19 की उत्पत्ति तक तो नहीं पहुंचते हैं लेकिन वायरस के वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरॉलॉजी से लीक होने के सिद्धांत को खारिज करते हैं।

इन अध्ययनों में वुहान स्थित हुआनान सीफूड बाज़ार में वायरस के विभिन्न पहलुओं की जांच की गई है, जहां संक्रमण के सबसे पहले मामले देख गए थे। दो अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार वर्ष 2019 के अंत में सार्स-कोव-2 वायरस ने संक्रमित जंतुओं से मनुष्यों में संभवतः दो बार प्रवेश किया। तीसरा अध्ययन कमोबेश चीन के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया था जो सीफूड बाज़ार के पर्यावरण और जंतुओं के नमूनों में कोरोनावायरस के शुरुआती उपस्थिति का विवरण देता है। इस अध्ययन में वायरस के किसी अन्य देश से प्रवेश करने की बात भी कही गई है।

हालांकि इन अध्ययनों की समकक्ष समीक्षा नहीं हुई है, फिर भी वैज्ञानिक, जैव-सुरक्षा विशेषज्ञ, पत्रकार और अन्य जांचकर्ता इन अध्ययनों की जांच में जुट गए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ये अध्ययन प्रयोगशाला उत्पत्ति की परिकल्पना को ध्वस्त करते हैं और सीफूड बाज़ार से वायरस के प्रसार की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं।

इस संदर्भ में प्राकृतिक उत्पत्ति सिद्धांत के आलोचकों का कहना है कि सीफूड बाज़ार मात्र एक सुपरस्प्रेडर स्थल रहा होगा जहां वायरस प्रयोगशाला से किसी संक्रमित व्यक्ति के माध्यम से पहुंचा होगा। लेकिन कई शोधकर्ताओं का मानना है कि और जानकारी मिलने पर प्रयोगशाला उत्पत्ति का दावा कमज़ोर हो जाएगा। जेनेटिक सैंपलिंग डैटा के विश्लेषण से यह पता लगाया जा सकता है कि बाज़ार की किन प्रजातियों में मुख्य रूप से वायरस था।

एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में सार्स-कोव-2 के दो अलग-अलग वंशों का विवरण दिया है। जबकि दूसरे अध्ययन में शुरुआती मामलों का एक भू-स्थानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है जो वुहान के बाज़ार को सार्स-कोव-2 के प्रसार केंद्र के रूप में इंगित करता है। इस अध्ययन में वायरस के दोनों वंशों द्वारा बाज़ार से सम्बंधित या उसके पास रहने वाले लोगों को संक्रमित करने के संकेत मिले हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह विश्लेषण जीवित वन्यजीवों के व्यापार के माध्यम से वायरस के उद्भव के साक्ष्य प्रदान करता है।  

गौरतलब है कि पूर्व में चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जॉर्ज गाओ और 37 अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में 1 जनवरी से 2 मार्च 2020 के दौरान हुआनान सीफूड बाज़ार के पर्यावरण से लिए गए नमूनों का विस्तार से विवरण दिया था। लेकिन यह अध्ययन आधिकारिक तौर पर प्रकाशित नहीं हुआ। गाओ और उनके सहयोगियों ने बाज़ार के पर्यावरण और 188 जीवों के 1380 नमूनों का विश्लेषण किया था। ये नमूने सीवर, ज़मीन, पंख हटाने वाली मशीन और कंटेनरों से भी लिए गए। टीम को इनमें से 73 नमूनों में सार्स-कोव-2 प्राप्त हुआ। और ये सारे नमूने बाज़ार के पर्यावरण से प्राप्त हुए थे। चूंकि जिन 73 नमूनों में वायरस पाया गया, वे जंतुओं से नहीं बल्कि बाज़ार के पर्यावरण से लिए गए थे, इसलिए स्पष्ट होता है कि वायरस वहां मनुष्यों के माध्यम से पहुंचा था न कि किसी जंतु से। यानी बाज़ार सार्स-कोव-2 वायरस का एम्पलीफायर रहा, स्रोत नहीं।            

कोविड-19 की उत्पत्ति से सम्बंधित सरकारी दावों को ध्यान में रखते हुए गाओ और उनके सहयोगियों ने अपने प्रीप्रिंट में वुहान के मामले सामने आने से पहले अन्य देशों में सार्स-कोव-2 की उपस्थिति दर्शाने वाले अध्ययनों का विवरण दिया है। लेकिन उन आलोचनाओं का कोई उल्लेख नहीं किया गया जिनमें कहा गया है कि ऐसा संदूषण की वजह से हो सकता है।    

अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में कोरोनावायरस वंश के विश्लेषण ने पिछले वर्ष वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट गैरी द्वारा प्रस्तुत तर्क को और परिष्कृत किया है। गैरी ने दिसंबर 2019 में मनुष्यों के प्रारंभिक मामलों में वुहान बाज़ार से सार्स-कोव-2 के दो अलग-अलग रूपों की पहचान की थी जिनमें केवल दो उत्परिवर्तन का ही फर्क था। इस नए अध्ययन ने सोच में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि ए और बी नामक दोनों वंश हुआनान सीफूड बाज़ार से उत्पन्न हुए और जल्द ही आसपास के क्षेत्रों में फैल गए। नवंबर 2019 के अंत में बी संभावित रूप से जंतुओं से मनुष्यों में प्रवेश कर गया जिसका पहला मामला 10 दिसंबर को सामने आया जबकि ए इसके कुछ सप्ताह बाद सामने आया। देखा जाए तो वायरस के दो वंशों का लगभग एक साथ उद्भव प्रयोगशाला-लीक के सिद्धांत को कमज़ोर कर देता है।

अंतर्राष्ट्रीय टीम का दूसरा प्रीप्रिंट जून 2021 के चीनी नेतृत्व वाले अध्ययन पर आधारित है जिसने बाज़ार में एक विशिष्ट स्टाल पर दो वर्षों तक बेचे गए स्तनधारियों में टिक बुखार का दस्तावेज़ीकरण किया है। इस नए अध्ययन में उन स्थानों को इंगित किया गया जहां पहली बार सार्स-कोव-2 के प्रति संवेदनशील जंतुओं, जैसे रैकून, हेजहॉग, बैजर, लाल लोमड़ी और बैम्बू रैट बेचे गए और उन स्थलों से प्राप्त पर्यावरणीय नमूनों के पॉज़िटिव परिणाम सामने आए। ये सभी निष्कर्ष वायरस के वुहान बाज़ार से उत्पन्न होने के संकेत देते हैं।

कुछ अन्य विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण तो मानते हैं लेकिन इनके निष्कर्षों से पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम के अनुसार सार्स-कोव-2 के लगभग 10 प्रतिशत मानव संक्रमण में वायरस के दो उत्परिवर्तन देखे गए हैं। इसका मतलब यह है कि दूसरा वायरस जंतुओं से दो बार मनुष्यों में नहीं आया बल्कि पहले संक्रमण के बाद उभरा हो। अलबत्ता, कंप्यूटर सिमुलेशन दर्शाता है कि एक वंश के दूसरे में उत्परिवर्तित होने की संभावना केवल 3.6 प्रतिशत है।       

हालांकि ये अध्ययन प्रयोगशाला उत्पत्ति के दावों पर सवाल उठाने के लिए कुछ हद तक तो पर्याप्त हैं लेकिन इस बहस को विराम देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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