प्लास्टिक का प्रोटीन विकल्प

गभग एक सदी पहले आविष्कृत प्लास्टिक अत्यंत उपयोगी पदार्थ साबित हुआ है। वज़न में हल्का होने के बावजूद भी यह अत्यधिक लचीला और सख्त हो सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि यह लगभग अनश्वर है। और यही अनश्वरता इसकी समस्या बन गई है।

हर वर्ष दुनिया में 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। इसमें से अधिक से अधिक 10 प्रतिशत का रीसायक्लिंग होता है। बाकी कचरे के रूप में जमा होता रहता है। एक अनुमान के मुताबिक हम 6.3 अरब टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न कर चुके हैं। आज के रुझान को देखते हुए लगता है कि वर्ष 2050 तक पर्यावरण में 12 अरब टन प्लास्टिक कचरा मौजूद होगा।

एक ओर तो प्लास्टिक का उपयोग कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर प्लास्टिक रीयाक्लिंग को बढ़ावा देने के प्रयास चल रहे हैं। इसी बीच नए किस्म का प्लास्टिक बनाने पर भी अनुसंधान चल रहा है जो लचीला व सख्त तो हो लेकिन प्रकृति में इसका विघटन हो सके।

इस संदर्भ में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ग्रेग कियाओ का प्रयास है कि अमीनो अम्लों के पोलीमर बनाए जाएं जिनमें प्लास्टिक की खूबियां हों। जीव-जंतु, पेड़-पौधे अमीनो अम्लों को जोड़-जोड़कर पेप्टाइड और प्रोटीन तो बनाते ही हैं। और प्रकृति में ऐसे कई एंज़ाइम मौजूद हैं जो इन प्रोटीन अणुओं को तोड़ भी सकते हैं। कियाओ के मुताबिक प्रोटीन प्लास्टिक का सही विकल्प हो सकता है।

उनकी प्रयोगशाला में ऐसे प्रोटीन बनाए जा चुके हैं जो काफी लचीले व सख्त हैं, जिनके रेशे बनाए जा सकते हैं, चादरें बनाई जा सकती हैं। ये वाटरप्रूफ हैं और अम्ल वगैरह का सामना कर सकते हैं।

जहां प्रकृति में प्रोटीन नुमा पोलीमर बनाने का काम एंज़ाइमों की उपस्थिति में होता है वहीं कियाओ की टीम इसी काम को रासायनिक विधि से करने में लगी हुई है। यदि वे सही किस्म के अमीनो अम्ल पोलीमर (यानी पेप्टाइड) बनाने में सफल रहे तो यह एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। मगर इसमें एक दिक्कत आएगी। प्लास्टिक उत्पादन के लिए कच्चा माल तो पेट्रोलियम व अन्य जीवाश्म र्इंधनों से प्राप्त हो जाता है। मगर प्रोटीन-प्लास्टिक का कच्चा माल कहां से आएगा? यह संभवत: पेड़-पौधों से प्राप्त होगा। पहले ही हम फसलों का इस्तेमाल जैव-र्इंधन बनाने में कर रहे हैं। यदि प्लास्टिक भी उन्हीं से बनना है तो खाद्यान्न की कीमतों पर भारी असर पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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