भविष्य में महामारियों की रोकथाम का एक प्रयास

न दिनों हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रतिरक्षा विज्ञानी और महामारी विज्ञान विशेषज्ञ माइकल मीना रक्त के लाखों नमूने जमा कर रहे हैं। उनका उद्देश्य ग्लोबल इम्यूनोलॉजी ऑब्ज़र्वेटरी (जीआईओ) के माध्यम से आबादी में फैलने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीवों के संकेतों की निगरानी करना है। यह एक ऐसी तकनीक पर आधारित है जो रक्त की माइक्रोलीटर मात्रा में भी विभिन्न एंटीबॉडी को माप सकेगी। यदि जीआईओ तकनीकी बाधाओं को दूर करके निरंतर वित्तीय सहायता प्राप्त कर पाता है तो हमारे पास महामारियों की निगरानी करने और निपटने का एक प्रभावी साधन होगा।

फिलहाल, अमेरिका में रोगों से जुड़ी असामान्य घटनाओं की रिपोर्ट राज्य के स्वास्थ्य विभागों के माध्यम से सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) को भेजी जाती है। लेकिन कोविड-19 के प्रसार को देखते हुए मीना एक त्वरित और व्यापक निगरानी प्रक्रिया के पक्ष में हैं। मीना नियमित रूप से एंटीबॉडी के माध्यम से महामारियों का पता लगाना चाहते हैं। इसके लिए वे रक्त बैंकों से लेकर प्लाज़्मा केंद्रों जैसे हर संभव स्रोत से निरंतर रक्त के नमूने जमा कर रहे हैं। आनुवंशिक रोगों की पहचान के लिए अधिकांश राज्यों में लगभग सभी नवजात शिशुओं के रक्त के नमूने जमा किए जाते हैं। इनको भी इस कार्य में शामिल कर लिया जाएगा। इन नमूनों की पहचान केवल भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर की जाएगी। फिलहाल कुछ कंपनियों द्वारा पहले से ही चिप-आधारित तकनीक से हज़ारों एंटीबॉडीज़ की पहचान करने के उपकरण बनाए जा रहे हैं। इन कंपनियों की मदद से यह काम और व्यापक स्तर पर किया जा सकता है।

फिलहाल विचार यह है कि प्रतिदिन 10,000 और आगे चलकर एक लाख नमूनों का विश्लेषण किया जाएगा। वर्तमान निगरानी प्रणाली की तुलना में इस ऑब्ज़र्वेटरी की मदद से इससे भी कम संख्या में महामारी के प्रकोप का जल्द पता लग सकता है। जीआईओ की मदद से मौसमी इन्फ्लुएंज़ा की निगरानी को भी तेज़ किया जा सकता है ताकि अस्पतालों को तैयारी करने का पर्याप्त समय मिल सके और टीके वितरित किए जा सकें।

जीआईओ कोविड-19 जैसे नए संक्रामक रोगों के प्रसार को ट्रैक कर सकता है। इसके लिए एंटीबॉडी का पता लगाने वाली चिप्स को नए रोगजनक के लिए अपडेट करना ज़रूरी नहीं होगा। इसकी सहायता से शोधकर्ता उन एंटीबॉडी की बढ़ोतरी का पता लगा सकते हैं जो ज्ञात रोगजनकों को अविशिष्ट रूप से लक्षित करती हैं। संक्रमण शुरू होने के 1 से 2 सप्ताह बाद दिखाई देने वाली एंटीबॉडी न केवल वर्तमान संक्रमित लोगों की जानकारी देंगी बल्कि उन लोगों के बारे में भी बताएंगी जो इस रोग से ठीक हो चुके हैं। क्योंकि हर एंटीबॉडी की एक अलग पहचान होती है, जीआईओ में बैक्टीरिया या वायरस संक्रमित लोगों के विशेष स्ट्रेंस की पहचान भी हो सकेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खतरनाक डॉयाक्सीन के बढ़ते खतरे – डॉ. ओ. पी. जोशी

डॉयाक्सीन अत्यंत विषैले रसायनों का समूह है। इन्हें उन खतरनाक मानव निर्मित रसायनों में शामिल किया गया है जिनकी सक्रियता रेडियो सक्रिय पदार्थ के बाद दूसरे नंबर पर आती है।

डॉयाक्सीन पर हमारा ध्यान इटली के सेवासो कस्बे में 10 जुलाई 1976 को एक कारखाने में हुए विस्फोट ने आकर्षित किया था। इससे डॉयाक्सीन आसपास के वातावरण में फैल गया था। इसके विषैले प्रभाव से हज़ारों पशु-पक्षी मारे गए थे। मनुष्यों में भी एक चर्म रोग फैला था जो लंबे समय तक उपचार के बाद ठीक हुआ। बाद में कैंसर एवं ह्रदय रोग के भी कई प्रकरण सामने आए। प्रारंभ में गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों पर कोई विशेष प्रभाव तो नहीं देखा गया था परंतु बाद में नर बच्चों की जन्म दर काफी घट गई थी। अमरीका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने वहां की ज़्यादातर जनता को डॉयाक्सीन से प्रभावित बताया था। डॉयाक्सीन के प्रभावों में कैंसर, चर्म रोग, प्रतिरोध क्षमता में कमी, तंत्रिका तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव एवं मृत शिशुओं का जन्म प्रमुख हैं।

रासायनिक दृष्टि से डॉयाक्सीन क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन हैं जो काफी टिकाऊ होते हैं तथा कीटनाशी डीडीटी के समान वसा में घुलनशील होते हैं। इस घुलनशीलता के कारण ये भोजन शृंखला में प्रवेश कर वसायुक्त अंगों में एकत्र होते रहते हैं।

अभी तक इनकी कोई सुरक्षित सीमा निर्धारित नहीं है परंतु स्वास्थ्य पर इनका प्रभाव चंद अंश प्रति ट्रिलियन (यानी 10 खरब अंशों में एक अंश) सांद्रता पर ही देखा गया है। हमारे वायुमंडल में 95 प्रतिशत डॉयाक्सीन उन भस्मकों (इंसीनरेटर्स) से आते हैं जिनमें क्लोरीन युक्त कचरा जलाया जाता है। कागज़ के उन कारखानों से भी इनका प्रसार होता है जो ब्लीचिंग कार्य में क्लोरीन का उपयोग करते हैं। कई शहरों में सफाई के नाम पर अवैध रूप से कचरा जलाने में भी डॉयाक्सीन पैदा होते हैं, क्योंकि कचरे में प्लास्टिक एवं पीवीसी के अपशिष्ट भी होते हैं।

पिछले 50 वर्षों में क्लोरीन युक्त रसायनों व प्लास्टिक का निर्माण एवं उपयोग काफी बढ़ा है। रसायनों में कीटनाशी व शाकनाशी तथा प्लास्टिक में पीवीसी की वस्तुएं प्रमुख हैं। वाहनों के सीटकवर, टेलीफोन-बिजली के तार, शैम्पू की बॉटल, बैग, पर्स, सेनेटरी पाइप, वॉलपेपर एवं कई अन्य वस्तुएं पीवीसी से ही बनती हैं। इन सभी के निर्माण के समय एवं उपयोग के बाद कचरा जलाने से डॉयाक्सीन का ज़हर फैलता है।

जलने के दौरान पैदा डॉयाक्सीन वायुमंडल में उपस्थित महीन कणीय पदार्थों के साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर तक फैल जाते हैं। फसलों एवं अन्य पौधों की पत्तियों तथा भूमि पर जमा होकर फिर ये शाकाहारी एवं मांसाहारी प्राणियों से होते हुए अंत में मानव शरीर में एकत्र होने लगते हैं। मानव शरीर में ज़्यादातर डॉयाक्सीन दूध, मांस व अन्य डेयरी पदार्थों के ज़रिए पहुंचते हैं।

जापान के स्वास्थ्य व कल्याण मंत्रालय ने कुछ वर्ष पूर्व महिलाओं के दूध का अध्ययन कर बतलाया था कि महिलाएं जैसे-जैसे दूध व अन्य डेयरी पदार्थों का उपयोग बढ़ाती हैं वैसे-वैसे उनके दूध में डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ती जाती है। भस्मकों के आसपास के क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं में इनकी मात्रा ज़्यादा आंकी गई। ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नगरीय निकायों का कचरा जलाने वाले भस्मकों के आसपास सात किलोमीटर के क्षेत्र में बसे रहवासियों में डॉयाक्सीन के कारण कई प्रकार के कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है। भस्मकों की चिमनी से निकले धुंए में कैंसरजन्य रसायनों के साथ भारी धातुएं, अम्लीय गैसें, अधजले कार्बनिक पदार्थ, पॉलीसायक्लिक हाइड्रोकार्बन्स तथा फ्यूरॉन एवं डॉयाक्सीन की उपस्थिति भी वैज्ञानिकों ने दर्ज की है। दुनिया में कई स्थानों पर, डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ने से गांव व शहर खाली भी कराए गए हैं। इनमें लवकेनाल (नियाग्रा फॉल),टाइम्स बीच (मिसोरी), पैंसाकोला (फ्लोरिडा) व मिडलैंड शहर प्रमुख हैं।

वर्ष 2002 में एंवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि डॉयाक्सीन का प्रदूषण भारत में भी बहुत है। मनुष्य, डॉल्फिन, मुर्गा, मछली, बकरी एवं मांसाहारी पशुओं में इसकी उपस्थिति आंकी गई थी। पक्षियों में सर्वाधिक 1800 तथा गंगा की डॉल्फिन में 20-120 पीपीजी (पिकोग्राम प्रति ग्राम) का आकलन किया गया था। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तत्कालीन सचिव ने भी इसे स्वीकारते हुए कहा था कि देश में डॉयाक्सीन की व्यापकता अनुमान से अधिक है। कम्यूनिटी एंवायरमेंटल मॉनीटरिंग ने स्मोक स्कैन नाम से एक रिपोर्ट लगभग 15 वर्ष पूर्व जारी की थी। इसमें देश के 13 स्थानों पर हवा के नमूनों में 45 ज़हरीले रसायनों की उपस्थिति बतलाई थी। केरल के एक औद्योगिक क्षेत्र में एक रसायन हेक्साक्लोरो ब्यूटाडाइन की पहचान की गई थी जो डॉयाक्सीन का निर्माण करता है।

देश में डॉयाक्सीन की मात्रा पश्चिमी देशों द्वारा दिए गए घटिया तकनीक के भस्मकों तथा क्लोरीन आधारित उद्योगों के कारण बढ़ी है जिनमें पीवीसी, पल्प व कागज़ तथा कीटनाशी कारखाने प्रमुख हैं। खुलेआम प्लास्टिक युक्त कचरा जलाना भी इसकी मात्रा बढ़ा रहा है। डॉयाक्सीन से पैदा प्रदूषण पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, अन्यथा यह स्वास्थ्य का नया संकट पैदा करेगा। केंद्र सरकार ने 2009 में कई प्रदूषणकारी पदार्थों की मात्रा व स्तर में संशोधन कर कुछ नए प्रदूषणकारी पदार्थं शामिल किए हैं परंतु इसमें डॉयाक्सीन नहीं हैं।

भस्मकों में कचरा जलाए जाने से पैदा डॉयाक्सीन के प्रदूषण के कारण अब दुनिया के कई देशों में इसके विरुद्ध ना केवल आवाज़ उठाई जा रही है अपितु ये बंद भी किए जा रहे हैं। वर्ष 2002 में ज़्यादा डॉयाक्सीन उत्सर्जन के कारण जापान में लगभग 500 भस्मक बंद किए गए थे। यू.के में 28 में से 23 भस्मक बंद किए गए एवं यू.एस.ए. में 1985 से 1994 के मध्य 250 भस्मकों की प्रस्तावित योजनाएं निरस्त की गर्इं।  फिलीपाइंस में भस्मक लगाना प्रतिबंधित किया गया है। हमारे देश में भी इस संदर्भ में ध्यान देकर सावधानी बरतना ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)

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एफडीए ने ट्रम्प की पसंदीदा दवा को नामंज़ूर किया

मेरिका के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) ने कोविड-19 के लिए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन सल्फेट और क्लोरोक्विन फॉस्फेट के आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी को निरस्त कर दिया है। गौरतलब है कि इन दोनों ही दवाओं को अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प और अन्य लोगों ने कोविड-19 के विरुद्ध निर्णायक (गेमचेंजर) माना था। हाल ही में कोविड-19 संक्रमित लोगों में किए गए रैंडम क्लीनिकल परीक्षण में दोनों दवाएं बीमारी के उपचार में नाकाम रही हैं। इस विषय में एफडीए के कुछ पूर्व अधिकारियों का मानना है कि इस दवा को आपातकालीन उपयोग के लिए मंज़ूरी वैज्ञानिक प्रमाण पर नहीं बल्कि राजनीतिक दबाव पर आधारित थी।

एफडीए की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक लुसियाना बोरियो एफडीए के इस फैसले की सराहना करती हैं और इसे वैज्ञानिक एवं सार्वजनिक हित पर आधारित निर्णय मानती हैं। इस फैसले की महत्वपूर्ण बात यह रही कि एफडीए की यह कार्रवाई बिना किसी राजनैतिक दबाव के पूरी तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित रही।

हालिया वैज्ञानिक समीक्षा के हवाले से एफडीए ने कोविड-19 उपचार के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन और क्लोरोक्विन के आपातकालीन उपयोग को अप्रभावी बताया है। इसके अलावा, यह भी स्पष्ट किया है कि ह्रदय की गंभीर समस्याओं और अन्य दुष्प्रभावों के चलते इन दोनों दवाइयों का उपयोग काफी जोखिम भरा हो सकता है।

गौरतलब है कि आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी के तहत इस दवा का औपचारिक अनुमोदन नहीं किया गया था बल्कि इसे मुख्य रूप से केवल कोविड-19 रोगियों के लिए अस्पतालों में वितरण के लिए अनुमति दी गई थी। हालांकि, मंज़ूरी निरस्त करने के बाद भी इन दोनों दवाओं पर क्लीनिकलपरीक्षण जारी रखा जा सकता है। चिकित्सक चाहें तो अभी भी इस दवा का ‘ऑफ लेबल’ उपयोग कर सकते हैं। यानी इनका उपयोग एफडीए द्वारा निर्धारित लक्षणों के अलावा भी किया जा सकता है। फिर भी एफडीए द्वारा बताए गए दुष्प्रभावों के बाद शायद ही चिकित्सक इसका उपयोग करेंगे।(स्रोत फीचर्स)

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भविष्य का सूक्ष्मजीव-द्वैषी, अस्वस्थ समाज – डॉ. सुशील जोशी

कोरोनाकाल में लोगों में सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा की चिंता बढ़ी है, जो शायद उचित भी है। मास्क लगाना, एक-दूसरे से दूर-दूर रहना, बार-बार साबुन या सैनिटाइज़र से हाथ धोना वगैरह लोगों की आदतों में शुमार होता जा रहा है। प्रचार-प्रसार भी खूब हो रहा है। सारे साबुनों के विज्ञापनों में अचानक वायरस और खास तौर से कोरोनावायरस को मारने की क्षमता का बखान जुड़ गया है। एक खबर यह भी है कि अब ऐसे कपड़े भी बनेंगे जो कीटाणुओं का मुकाबला करेंगे। कपड़ों की धुलाई में विसंक्रमण की बात जुड़ गई है। यह भी कहा जा रहा है कि पंखों के कुछ ब्रांड सूक्ष्मजीवों को टिकने नहीं देते। कुछ रियल एस्टेट ठेकेदारों ने कोरोना-मुक्त मकान का भी वादा कर दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि जिन सतहों को बार-बार स्पर्श किया जाता है, जैसे मेज़, दरवाज़ों के हैंडल, लिफ्ट के बटन वगैरह, उन्हें दिन में पता नहीं कितनी बार विसंक्रमित (डिस-इंफेक्ट) करना चाहिए।

उपरोक्त में से कई तो शायद वर्तमान आपात काल में ज़रूरी कदम कहे जा सकते हैं। लेकिन क्या होगा यदि यह सनक समाज पर हमेशा के लिए हावी हो जाए? इस सवाल का जवाब कई मायनों में महत्वपूर्ण है और जवाब के लिए हमें थोड़ा इतिहास में झांकना होगा।

दरअसल, बीमारियों का आधुनिक कीटाणु सिद्धांत (जर्म थियरी) बहुत पुराना नहीं है। सबसे पहले यह धारणा उन्नीसवीं सदी में प्रस्तुत की गई थी कि कुछ बीमारियां कीटाणुओं के संक्रमण के कारण पैदा होती हैं। कीटाणुओं में बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस, प्रोटोज़ोआ वगैरह शामिल हैं। वैसे यह रोचक बात है कि कीटाणुओं को रोग का वाहक या कारक मानने को लेकर समझ भारत तथा मध्य पूर्व में दसवीं सदी से ही प्रचलित थी। लेकिन वास्तविक रोगजनक सूक्ष्मजीवों को पहचानने व उनके उपचार का काम बहुत बाद में शुरू हुआ। इसमें पाश्चर, फ्रांसेस्को रेडी, जॉन स्नो, रॉबर्ट कोच वगैरह का योगदान महत्वपूर्ण रहा था।

कीटाणु सिद्धांत के मुताबिक कुछ रोग ऐसे हैं जो शरीर में रोगजनक कीटाणुओं के प्रवेश के कारण पैदा होते हैं। इनके इलाज के लिए सम्बंधित कीटाणु पर नियंत्रण करने की ज़रूरत होती है। टीका भी इसी सिद्धांत की देन है। इस सिद्धांत ने स्वच्छता और रोग का परस्पर सम्बंध भी दर्शाया। चूंकि ये कीटाणु हवा और पानी के माध्यम से व्यक्तियों के बीच फैल सकते हैं, इसलिए बीमार व्यक्ति को अलग-थलग रखना, हवा-पानी की शुद्धता वगैरह बातें सामने आती हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी पहचाने गए जो दो व्यक्तियों के बीच स्पर्श के ज़रिए सीधे भी फैल सकते हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी हैं जिनके प्रसार के लिए किसी तीसरे जंतु की ज़रूरत होती है। बरसों के अनुसंधान के आधार पर आज हम कई कीटाणुओं, उनके प्रसार के तरीकों, मध्यस्थ जीवों वगैरह की पहचान से लैस हैं। इस समझ ने हमें इन रोगों के उपचार के अलावा रोकथाम में भी सक्षम बनाया है।

इन रोगों में शामिल हैं चेचक, टीबी, टायफाइड, मलेरिया, रेबीज़, कुष्ठ, एड्स, फ्लू, हैज़ा, प्लेग, और अब कोविड-19। इनमें से अधिकांश रोगों के लिए हमारे पास दवाइयां उपलब्ध हैं, और कई की रोकथाम के लिए टीके भी उपलब्ध हैं। इसके अलावा, खास तौर से जल-वाहित तथा जंतु-वाहित रोगों के लिए रोकथाम के अन्य उपाय (जैसे मच्छरदानी, मच्छरनाशी रसायनों का छिड़काव, पानी का उपचार वगैरह) भी उपलब्ध हैं। इस प्रगति का एक परिणाम यह हुआ कि इन रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत कम हो गई।

लेकिन इस तरीके (खास तौर से कीटाणुओं को मारने वाली दवाइयों यानी एंटीबायोटिक के उपयोग) को लेकर चिकित्सा जगत व साधारण लोगों के बीच भी एक जुनून पैदा हुआ। इनका उपयोग इस कदर बढ़ा कि ये लगभग ‘ओवर दी काउंटर’ दवाइयां हो गर्इं। हर छोटे-मोटे बुखार के लिए, सर्दी-ज़ुकाम,दस्त वगैरह के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां देना आम बात हो गई। डॉक्टर तो लिखते ही थे, आम लोगों ने मेडिकल स्टोर्स से खरीदकर इनका उपयोग शुरू कर दिया। यह भी हुआ कि खुराक पूरी होने से पहले ठीक लगने लगा तो दवा बंद कर दी।

इस तरह के बेतहाशा, अंधाधुंध उपयोग का एक परिणाम यह हुआ कि सम्बंधित कीटाणु उस दवा के खिलाफ प्रतिरोधी हो गया। आज हमारे पास बहुत कम एंटीबायोटिक बचे हैं जो असरकारक हैं। और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित कई संगठनों ने चेतावनी दी है कि यदि यही हाल रहा तो शीघ्र ही हम उस ज़माने में पहुंच जाएंगे जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं।

तो आज की स्थिति इस किस्से का क्या लेना-देना है? बहुत कुछ। यह तो हमने देखा ही कि एंटीबायोटिक दवाइयों के अतिरेक ने कैसे हमें 200 साल पीछे घसीट दिया है। लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी ने हमें कई नई समस्याओं में उलझा दिया है। सूक्ष्मजीव विज्ञान ने सूक्ष्मजीवों के बारे में और उनसे हमारे सम्बंधों के बारे में एकदम चौंकाने वाली नई समझ प्रदान की है। पिछले कई वर्षों के अनुसंधान के दम पर हम यह समझ पाए हैं कि सूक्ष्मजीव और रोग पर्यायवाची नहीं हैं। लाखों-करोड़ों सूक्ष्मजीव प्रजातियों में से बहुत ही थोड़े से हैं जो रोगजनक हैं। शेष या तो उदासीन हैं या लाभदायक हैं। जी हां, बैक्टीरिया, वायरस वगैरह लाभदायक सम्बंध में हमारे साथ रहते हैं।

मनुष्य के शरीर के ऊपर (त्वचा पर) तथा पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र तथा अन्य स्थानों पर रहने वाले सूक्ष्मजीव-संसार के अध्ययन ने दर्शाया है कि ये हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। ये पाचन में मददगार होते हैं, शरीर की जैव-रासायानिक क्रियाओं के सुचारु संचालन में सहायता करते हैं और (चौंकिएगा मत) हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करते हैं। और हाल में यह भी देखा गया है कि हमारी नाक का सूक्ष्मजीव-संसार हमें कई तरह के संक्रमणों व एलर्जी से बचाता है। यदि इस सूक्ष्मजीव-संसार में थोड़ी भी गड़बड़ी हो जाए तो समस्याएं शुरू हो जाती हैं।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जोनाथन आइसन ने बताया है कि हैंड सैनिटाइज़र का उपयोग हमारी त्वचा के सूक्ष्मजीव-संसार को अस्त-व्यस्त कर सकता है, जिसके चलते रोगजनक सूक्ष्मजीवों को वहां पनपने का मौका मिल सकता है। आइसन के मुताबिक हैंड सैनिटाइज़र्स एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ाने में भी योगदान दे सकते हैं।

वायरसों की बात करते हैं, क्योंकि वे ही आजकल सेलेब्रिटी हैं। यह समझना ज़रूरी है कि कई वायरस लाभदायक असर भी दिखाते हैं। इनमें वे वायरस शामिल हैं जिन्हें बैक्टीरियोफेज यानी बैक्टीरिया-भक्षी कहते हैं। चिकित्सा में इनके उपयोग की वकालत की जा रही है और इसमें कुछ सफलता भी मिली है। कुछ वायरस ऐसे भी हैं जो गंभीर संक्रमण पैदा कर सकते हैं। जैसे हर्पीज़ का वायरस। लेकिन ऐसा कम लोगों में होता है कि यह वायरस गंभीर रोग का कारण बन जाए। जब यह सुप्तावस्था में होता है तो यह हमारे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को लिस्टेरिया से होने वाले फूड-पॉइज़निंग से और ब्यूबोनिक प्लेग से लड़ने को तैयार करता है।

2016 में पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया था कि जो बच्चे 1 वर्ष से कम उम्र में झूलाघर में रहते हैं, उनमें आगे के बचपन में आमाशय फ्लू का प्रकोप कम होता है। इसी प्रकार से, कुछ अध्ययनों ने दर्शाया है कि बचपन में रोगजनक सूक्ष्मजीवों (खासकर वायरसों) से संपर्क बच्चों को कई तकलीफों से बचाता है।

हैंड सैनिटाइज़र्स ही नहीं, कई घरों में इस्तेमाल की जाने वाली डिशवॉशिंग मशीन को लेकर किए गए अध्ययनों में पता चला है कि इनका सम्बंध बच्चों में दमा तथा एलर्जी के बढ़े हुए खतरे से है। संभवत: ऐसी तकनीकों के कारण बच्चों का लाभदायक बैक्टीरिया से संपर्क कम हो जाता है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि घरेलू डिसइंफेक्टेंट क्लीनर्स उपयोग करने का असर बच्चों के वज़न पर पड़ता है क्योंकि ऐसे क्लीनिंग एजेंट्स का उपयोग उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को प्रभावित करता है।

तो यदि हमने अपने परिवेश से वायरसों व अन्य सूक्ष्मजीवों का पूरा सफाया करने की ठान ली, तो हम ऐसे निशुल्क लाभों से हाथ धो बैठेंगे।

ट्रिक्लोसैन नामक एक रसायन का उपयोग साबुनों में तो होता ही है, इसे विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे कपड़ों, पकाने के बर्तनों, खिलौनों वगैरह में जोड़ दिया जाता है। यूएस में साबुन में इसके उपयोग पर प्रतिबंध है। पाया गया है कि यह रसायन हारमोन के संतुलन में गड़बड़ी पैदा करता है और दमा व एलर्जी का कारण भी बनता है। आजकल साबुन में चांदी के नैनो कण जोड़कर उन्हें ज़्यादा शक्तिशाली बनाने के विज्ञापन भी देखने को मिलते हैं। यह भी सूक्ष्मजीव संसार पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।

तो ये थे कीटाणु-दैष के कुछ प्रत्यक्ष परिणाम। लेकिन इसके कुछ परोक्ष परिणाम भी हैं, जिन पर गौर करना ज़रूरी है। इसकी सबसे पहली बानगी हमें यूए के एक प्रमुख राजनेता की टिप्पणी में सुनाई पड़ी थी। एक रिपब्लिकन सांसद स्टीव हफमैन ने ओहायो सीनेट की स्वास्थ्य समिति की बैठक में कहा, “क्या अश्वेत लोग इसलिए कोरोनावायरस से ज़्यादा संक्रमित हो रहे हैं क्योंकि वे अपने हाथ ठीक से धोते नहीं हैं?” उनकी यह टिप्पणी स्वास्थ्य को व्यक्तिगत आचरण का मामला बना देती है और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लक्ष्यों को ओझल कर देती है।

हमारे शहर की हवा प्रदूषित होगी, तो बात मास्क की होगी, प्रदूषण कम करने की नहीं। गंदा, संदूषित पानी सप्लाय होगा तो हम ‘सबसे शुद्ध पानी’ वाले आर.ओ. और बोतलबंद पानी की बात करेंगे, सबको साफ पेयजल की उपलब्धता की नहीं। व्यक्ति बीमार होगा तो वह निजी स्वास्थ्य सेवा की लूट-खसोट के लिए आसान शिकार हो जाएगा, लेकिन हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ व सुगम बनाने की कोशिश नहीं करेंगे। बीमार व्यक्ति की परिस्थितियों का ख्याल किए बगैर यही सवाल पूछा जाएगा कि उसने हाथ धोए या नहीं, मास्क लगाया या नहीं। यानी कीटाणुओं के प्रसार को रोकने की ज़िम्मेदारी निजी हो जाएगी।

और बात शायद यहीं न रुके। यूएस में अश्वेत लोगों को उनकी अपनी तकलीफों के लिए जवाबदेह ठहराने की कोशिश का अगला कदम होगा कि उन्हें शेष लोगों के लिए एक खतरा घोषित कर दिया जाएगा। यूएस की बात जाने दें, हमारे अपने देश में भी कई समूह या समुदाय ऐसे होंगे जिन्हें पूरे समाज के लिए खतरा घोषित कर दिया जाएगा। एक नए किस्म का विभाजन व अलगाव पैदा होगा। और इसकी शुरुआत सोशल मीडिया (जिसे एंटी-सोशल मीडिया कहना बेहतर है) पर हो भी चुकी है।

इतिहास में देखें तो पता चलता है कि कीटाणु या संदूषण का डर हमेशा से ‘गैर’ के डर से जुड़ा रहा है। इसी का एक विस्तार सामाजिक स्तर पर भी होता है – इसे व्यवहरागत प्रतिरक्षा तंत्र कहते हैं। इसका मतलब यह होता है कि ‘नफरत’ की यह प्रतिक्रिया संक्रमण के विचार मात्र से सक्रिय हो जाती है। परिणाम यह होता है कि हम उन सब लोगों के खिलाफ पूर्वाग्रह पालने लगते हैं जो हम से भिन्न या ‘असामान्य’ हैं। कुछ समुदायों या आप्रवासियों को बदनाम करना इसी का हिस्सा होता है। ‘गैर से द्वैष’ वैसे तो कई सामाजिक परिस्थितियों में देखा जा सकता है, लेकिन कीटाणु-द्वैष इसके लिए एक नया मंच प्रदान कर रहा है।

वर्तमान महामारी के दौर में शायद कुछ सख्त उपाय ज़रूरी हों, लेकिन यदि हमें स्वास्थ्य की सामान्य समस्या या अगली महामारी से निपटना है तो अपनी स्वास्थ्य सेवा को सुदृढ़ व समतामूलक बनाना होगा ताकि वह सबकी पहुंच में हो। इसके अलावा प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने के लिए काढ़ा-वाढ़ा पीने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन पर्याप्त पौष्टिक भोजन के महत्व को अनदेखा करने से काम नहीं चलेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लड़ते-लड़ते मछलियां जीन्स में तालमेल बैठाती हैं

मुक्केबाज़ी का मुकाबला देखते हुए किसी के मन में यह ख्याल नहीं आता कि इस वक्त लड़ाकों के दिमाग के जीन्स में क्या हो रहा है। लेकिन लड़ाकू मछलियों पर हुए ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि मछलियों की कुश्ती के वक्त उनके मस्तिष्क के जीन्स तालमेल से काम करना शुरू और बंद करते हैं। हालांकि यह अभी स्पष्ट नहीं है कि ये जीन करते क्या हैं या वे लड़ाई को कैसे प्रभावित करते हैं, लेकिन संभावना है कि मनुष्यों में भी इसी तरह के बदलाव होते होंगे।

मोबब्बत हो या जंग, मनुष्यों सहित सभी जानवरों को हर परिस्थिति में अच्छा प्रदर्शन करना होता है लेकिन वे ऐसा कैसे कर पाते हैं इसका आणविक कारण अब तक एक रहस्य बना हुआ है। जापान के कितासातो विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी नोरिहिरो ओकाडा को टीवी पर सियामीज़ लड़ाकू मछलियों (बेट्टा स्प्लेंडेंस) की लड़ाई देखकर लगा कि ये मछलियां इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकती हैं। मूलत: थाईलैंड में पाई जाने वाली, गोल्ड फिश के आकार की इन मछलियां के पंख और पूंछ बहुत बड़े और चटख रंग के होते हैं। इन्हें खासकर एक्वेरियम में रखने के लिए पाला जाता है लेकिन इनके लड़ाकू स्वभाव के कारण एक्वेरियम में इन्हें अलग-अलग रखने की सलाह दी जाती है। ये मछलियां अपना इलाका बनाती हैं, और इनकी लड़ाई 1 घंटे से भी अधिक समय तक चल सकती है जिसमें ये एक-दूसरे पर वार करती हैं, काटती हैं और पीछा करती हैं। यहां तक कि हमारे पंजा लड़ाने की तरह ये जबड़ा लड़ाती हैं।

ओकाडा की टीम ने मछलियों की 17 विभिन्न कुश्तियों के लगभग 12 घंटे के वीडियो बनाकर विश्लेषण किया कि हर लड़ाई में क्या-क्या हुआ और कब हुआ। प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में वे बताते हैं कि लड़ाई जितनी अधिक लंबी होती है, मछलियों के व्यवहार में आपस में उतना ही अधिक तालमेल होता जाता है – उनके घूमने, वार करने और काटते समय भी। तालमेल की हद देखिए कि लगभग 80 मिनट की लड़ाई में हर दांव के बीच उन्होंने ‘परस्पर सहमति से’ विराम लिया। जब मछलियां एक-दूसरे से जबड़ा लड़ाती हैं तब मुकाबला 5 से 10 मिनट के लिए गहराता है, इस दांव में सांस रोकना पड़ता है और इसी से तय होता है कि कौन लंबे समय तक जबड़े का दांव जारी रख सकता है। 5-10 मिनट बाद ये मछलियां सांस लेने के लिए एक-दूसरे से अलग होती हैं और फिर भिड़ जाती हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि व्यवहार में यह तालमेल आणविक स्तर पर भी होता है। शोधकर्ताओं ने 20 मिनट और 60 मिनट में पूरी होने वाली 5-5 कुश्तियों में, लड़ाई के पहले और बाद में देखा कि उस वक्त मछलियों के मस्तिष्क के कौन से जीन्स सक्रिय थे। टीम ने पाया कि 20 मिनट वाली लड़ाई में हर मछली में कुछ समान जीन्स, ‘इंटरमीडिएट एर्ली जीन’ ने काम करना शुरू किया था। ये जीन्स अन्य जीन्स को सक्रिय करने का काम करते हैं। 60 मिनट वाली लड़ाई में इन जीन्स के अलावा सैकड़ों अन्य जीन्स में समन्वय देखा गया। मछली के हर जोड़े में प्रत्येक जीन के सक्रिय होने का एक खास समय था जिससे लगता है कि मछली का परस्पर संपर्क इन परिवर्तनों का समन्वय करता है। अन्य अध्ययनों के अनुसार स्तनधारियों का परस्पर संपर्क मस्तिष्क गतिविधि में तालमेल बैठाता है। यह शोध इस बात को एक नया आयाम देता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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साबुन के बुलबुलों की मदद से परागण

रागणकर्ताओं के रूप में मधुमक्खियों की बराबरी करना मुश्किल है। लेकिन वैज्ञानिक इनके कुशल कृत्रिम विकल्प खोजने में लगे हुए हैं। और अब शोधकर्ता साबुन के बुलबुले से परागण कराने में सफल हुए हैं।

दरअसल तापमान कम हो तो मधुमक्खियां परागण नहीं करतीं, तब किसानों को कृत्रिम तरीकों से फूलों का परागण करना पड़ता है। ऐसे ही विकल्प के प्रयास में 2017 में जापान एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के पदार्थ-रसायनज्ञ इजिरो मियाको और उनके साथियों ने रिमोट संचालित एक छोटे ड्रोन में घोड़े के बाल चिपकाकर उन पर एक विशेष जेल लगा दी। विचार था कि मधुमक्खी की तरह बाल पर चिपककर परागकण एक फूल से दूसरे फूल पर पहुंच जाएंगे। ड्रोन ने फूलों को परागित तो किया मगर इसके पंखों ने फूलों को नुकसान भी पहुंचाया। फिर, जब मियाको अपने बेटे के साथ साबुन के बुलबुले बना रहे थे तो उन्हें ऐसे बुलबुलों की मदद से परागण करने का विचार आया।

उन्होंने बुलबुलों के लिए एक ऐसा डिटर्जेंट चुना जो परागकणों के अंकुरण को कम से कम प्रभावित करता हो। प्रयोगशाला में उन्होंने परागकण से भरे बुलबुलों की बौछार नाशपाती के फूलों पर की। जब बुलबुले फूटे तो परागकण वर्तिकाग्र पर पहुंचे और पराग नलिकाएं बनीं। लेकिन अगर 10 से ज़्यादा बुलबुले फूल से टकराते हैं तो नलिकाएं सामान्य से छोटी बनती हैं, जो शायद साबुन के घोल का प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है।

इसके बाद उन्होंने नाशपाती के एक बाग में तीन पेड़ों के फूलों पर पराग से भरे बुलबुलों की बौछार की। 16 दिनों के बाद इन फूलों से आए फल उतने ही अच्छे थे जितने कृत्रिम तरह से परागित करने पर आते हैं। जापान में कुछ किसान नाशपाती और सेब के फूलों को पारंपरिक रूप से ब्रश से परागित करते हैं। iscience पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ब्रश से एक फूल को परागित करने में लगभग 1800 मिलीग्राम पराग लगता है, वहीं बुलबुले से महज 0.06 मिलीग्राम में काम हो जाता है। यानी बुलबुलों से परागण करने में किसानों को बहुत कम पराग जमा करना होगा।

इसके बाद मियाको ने एक बबल गन को ड्रोन से जोड़ा और ड्रोन को नकली लिली के फूलों की कतार के चारों ओर एक मार्ग में उड़ने के लिए प्रोग्राम किया। उन्होंने पाया कि ड्रोन बुलबुले 90 प्रतिशत फूलों को परागित कर सकते हैं। लेकिन ड्रोन के साथ समस्या यह आई कि कई बुलबुले अपने लक्ष्य से चूक गए, जिससे परागकण बेकार गए। मियाको बेहतर लक्ष्य साधने वाले ड्रोन पर काम रहे हैं। इसके अलावा वे जैव-विघटनशील पर्यावरण हितैषी साबुन के लिए प्रयासरत हैं।

वेस्ट वर्जीनिया विश्वविद्यालय के रोबोटिक विशेषज्ञ यू गु को लगता है कि ड्रोन के रोटर से चलने वाली हवा के कारण बुलबुले का निशाना साधना मुश्किल होगा। ज़मीन पर चलने वाले रोबोट बेहतर इसके विकल्प हो सकते हैं।

कुछ वैज्ञानिकों ने इन प्रयासों पर चिंता व्यक्त की है। उनके अनुसार इस तरह के प्रयास कम हो रहीं मधुमक्खियों के संरक्षण से ध्यान भटकाएंगे, परागण में रासायनिक हस्तक्षेप और मिट्टी प्रदूषण के खतरे बढ़ाएंगे। हम परागण के इससे कहीं अधिक प्रभावी और टिकाऊ तरीके ढूंढ सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मौसम पूर्वानुमान की समस्याएं – नरेंद्र देवांगन

साल 2002 में औसत बारिश में कमी या सूखे का पूर्वानुमान भारत या विदेश का कोई भी संस्थान नहीं लगा पाया था। इसे मौजूदा मॉडल में पूरे विश्व में चुनौती माना गया। सवाल यह है कि गर्मी की शुरुआत में आज से 35-40 साल पहले भी आंधी-तूफान आते रहे हैं, जिसे पूर्वी भारत में काल बैसाखी कहते हैं। लेकिन पहले तूफान से तबाही नहीं मचती थी। फिर अब ऐसा क्या होता है कि एक दिन के तूफान से ही तबाही मच जाती है? इसे ठीक से समझने के लिए तीन बातों पर गौर करना होगा।

कोई भी आंधी-तूफान दो चीज़ों से ऊर्जा लेती हैं – गर्मी व हवा की नमी की मात्रा। ये दोनों चीजें जितनी ज़्यादा होंगी, तूफान की मारक क्षमता उतनी ही बढ़ेगी। पहले मई माह के बाद ही तेज़ गर्मी पड़ती थी। पर अब मार्च-अप्रैल महीने में ही उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत के काफी बड़े हिस्से में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर पहुंच जाता है। इससे हवा की गति बढ़ जाती है। साथ ही पश्चिमी विक्षोभ भी मौजूद रहता है और बंगाल की खाड़ी से नमी लेकर हवा भी आ पहुंचती है। इन सबकी वजह से तूफान आने की स्थिति बनती है।

पिछले तीन-चार दशक से तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह हवा की गति को भी बढ़ा रहा है। 1979-2013 की अवधि में मौसम उपग्रह के रिकार्ड से पता चला कि धरती का ऊष्मा इंजन अब पहले से ज़्यादा सक्रिय हो चुका है। परिणामस्वरूप तूफान-बवंडर ज़्यादा शक्तिशाली बन रहे हैं। आज ज़रूरत है इनको समय से पूर्व जानकर देश की जनता और शासन-प्रशासन को सावधान करने की। 

मौसम का पूर्वानुमान तभी सफल हो पाता है जब उसे स्थान और काल की बारीकी से बताया जा सके। भारतीय मौसम विभाग अभी इस काम को करने में पूरी तरह से परिपक्व नहीं हो सका है। मानसून के बारे में मौसम विभाग का अनुमान हमारे किसी काम का नहीं होता क्योंकि वह सिर्फ औसत बताता है। औसत तो तब भी बरकरार रहेगा जब किसी इलाके में सूखा पड़े और किसी में अतिवृष्टि हो जाए। लेकिन दोनों स्थितियों में नुकसान तो हो ही जाएगा। उन्हें स्थानीय स्तर पर जल्दी-जल्दी पूर्वानुमान बताना चाहिए ताकि तैयारी करने का समय मिल सके।

मौसम के पूर्वानुमान के लिए अलग-अलग मॉडल पर आधारित 5 तरह के पूर्वानुमान का इस्तेमाल कृषि, यातायात, जल प्रबंधन आदि के लिए किया जाता है। सही मायने में 5 दिन का पूर्वानुमान 60 फीसदी तक सही हो पाता है। ये पांच तरह के हैं –

1. तात्कालिक (नाउकास्ट ) – अगले 24 घंटे का आकलन

2. लघु अवधि – 3 दिनों का पूर्वानुमान

3. मध्यम अवधि – 3-10 दिनों का पूर्वानुमान

4. विस्तारित अवधि – 10-30 दिनों का पूर्वानुमान

5. दीर्घ अवधि – मानसून का पूर्वानुमान

इस संदर्भ में मराठवाड़ा में कुछ किसानों ने पुलिस केस दर्ज कराया है। उनका कहना है कि मौसम विभाग द्वारा महाराष्ट्र या मराठवाड़ा (8 ज़िला क्षेत्र) के अनुमान से भी उन्हें लाभ नहीं होता, क्योंकि एक ज़िले में भी बारिश कभी एक समान नहीं होती। इसलिए कृषि के लिए ब्लॉक आधारित सूचना की ज़रूरत है। विशेषज्ञों के अनुसार मौसम विभाग को पूरे देश को छोटे-छोटे ज़ोन में बांटना चाहिए और हर ज़ोन के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करने चाहिए।

मौसम विभाग ज़िला आधारित पूर्वानुमान जारी करता है। हालांकि इनमें भी सफलता दर कम है। अगर मौसम विभाग पूर्वानुमान जारी करते हुए बताता है कि किसी ज़िले में अलग-अलग क्षेत्रों में बारिश होगी तो इसका अर्थ होता है कि उस जिले के 26-50 फीसदी हिस्से में बारिश होगी। इसमें भी उन क्षेत्रों की पहचान नहीं की जाती। मौसम विभाग तापमान, आद्र्रता, हवा की गति और वर्षण आदि के आंकड़े इकट्ठे करता है। देश में 679 स्वचालित मौसम केंद्र, 550 भू वेधशालाएं, 43 रेडियोसोंड (मौसमी गुब्बारे), 24 राडार और 3 सेटेलाइट हैं, जो दूसरे देश के सेटेलाइट आंकड़े भी जुटाते रहते हैं।

अति आधुनिक गतिशील मॉडल (डायनैमिक मॉडल) पर आधारित पूर्वानुमान भी भारत में गलत हो जाते हैं। ब्लॉक स्तर तक के मौसम पूर्वानुमान के लिए ज़रूरी है कि ब्लॉक स्तर तक के आंकड़े जुटाए जाएं। संसाधन काफी कम हैं। धूल, एरोसॉल, मिट्टी की आर्द्रता और समुद्र से जुड़े डैटा में भारी अंतर हैं। वर्षापात के आंकड़े जुटाने के लिए देश में कम से कम 20 और राडार चाहिए ताकि व्यापक आंकड़े जुटाए जा सकें।

मौसम पूर्वानुमान के मॉडल की विफलता के बड़े कारण घटिया यंत्र भी हैं। एक मौसम विज्ञानी के अनुसार पैसे बचाने के लिए कई स्वचालित मौसम केंद्र घटिया स्तर के खरीदे गए थे। दूसरा मौजूदा मॉडल के उचित रखरखाव में कमी भी बड़ी समस्या है। इन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर साफ करके स्केल से मिलाना होता है। पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। इससे कई डैटा गलत आते हैं। पूर्वानुमान के लिए इस्तेमाल किए जा रहे अधिकतर मॉडल विदेशों में विकसित किए गए हैं जिनमें स्थानीय ज़रूरत के अनुसार बदलाव करके उपयोग किया जा रहा है।

ऊष्ण कटिबंधीय वातावरण बहुत तेज़ी से बदलता रहता है। यह कभी स्थिर नहीं रहता। दरअसल ऊष्ण कटिबंधीय मौसम के व्यवहार का अभी उचित अध्ययन हो ही नहीं सका है।

पर्याप्त संख्या में मौसम विज्ञानी नहीं हैं। एकमात्र आईआईएससी के स्नातक ही मौसम केंद्र से जुड़ते हैं। मौजूदा मॉडल और मौसम विज्ञानियों की उपलब्धता के आधार पर देखें तो एक दिन के पूर्वानुमान की गणना करने में 10 वर्षों का समय लग सकता है।

आमतौर पर माना जाता है कि मानसून के अप्रत्याशित व्यवहार के पीछे बढ़ता वैश्विक तापमान है। लेकिन इसके वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं मिले हैं।

तमाम आलोचनाओं के बीच मौसम विभाग द्वारा जारी आंकड़ों में सुधार आए हैं। पहले की तुलना में बेहतर तकनीक और नए मॉडलों का प्रभाव, धीरे-धीरे ही सही, दिखने लगा है। दीर्घावधि औसत में 2003-15 के दौरान मौसम के पूर्वानुमान में 5.92 प्रतिशत की अशुद्धता दर्ज की गई थी, जो 1990-2012 के बीच 7.94 प्रतिशत थी। 1988-2008 के बीच पूर्वानुमान 90 प्रतिशत सही रहा। यानी 20 में से 19 वर्षों में।

बढ़ते मौसमी खतरे को देखते हुए हमें अपने पूर्वानुमान की सूक्ष्मता को बढ़ाना होगा। तूफान और बवंडर के लिए डॉप्लर राडार ज़्यादा उपयोगी है। अफसोस इस बात का है कि इनकी देश में कमी है। 2013 की उत्तराखंड आपदा में भी इनकी कमी सामने आई। यदि डॉप्लर राडार होता तो ज़्यादा बारीकी से तूफान का पता लगाकर चेतावनी दी जा सकती थी। अगर आने वाले खतरे को नजरअंदाज करते रहेंगे तो भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर के अंडों का रहस्य सुलझा

पंद्रह साल पहले अमेरिकी प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जीवाश्म विज्ञानी मार्क नॉरेल को दक्षिणी मंगोलिया में प्रोटोसेराटॉप्स डायनासौर के कम से कम एक दर्जन भ्रूण फ्रोज़न अवस्था में मिले थे। लेकिन उनमें कुछ तो अजीब बात थी। ऐसा लगता था जैसे नन्हे डायनासौर अदृश्य अंडे के अंदर गुड़ी-मुड़ी होकर पड़े हैं। हर नन्हे डायनासौर के कंकाल के आसपास की चट्टान पर एक रहस्यमयी सफेद वलय थी। अब इतने समय के बाद नॉरेल और उनके साथियों ने इन वलय के रहस्य को सुलझा लिया है। ये वलय डायनासौर के अंडों की मुलायम खोल थीं।

इस रहस्य को सुलझाने के लिए नॉरेल और येल विश्वविद्यालय की आणविक पुराजीव विज्ञानी जैस्मिना वीमन ने मंगोलिया से प्राप्त 7.5 करोड़ साल पुराने प्रोटोसेराटॉप्स डायनासौर के जीवाश्मित अंडों के दो समूहों और 21.5 करोड़ वर्ष पुराने मुसासौरस के अंडों के एक समूह का एक नई तकनीक की मदद से विश्लेषण किया। उन्होंने अंडों को लेज़र प्रकाश में रखा और देखा कि लेज़र प्रकाश अंडों की सतह से टकराने पर कैसे बदलता है। इससे अंडों के खोल की रासायनिक संरचना के बारे में पता चला। यह तो हम जानते हैं कि आधुनिक मुलायम खोल वाले अंडों की आणविक संरचना सख्त खोल वाले अंडों की आणविक संरचना से अलग होती हैं। विश्लेषण में पता चला कि प्रोटोसेराटॉप्स और मुसासौरस, दोनों के अंडे के चारों ओर की वलय की संरचना मुलायम खोल वाले अंडों के समान थी।

डायनासौर के अस्तित्व के शुरुआती दौर में मुसासौरस रहते थे इसलिए शोधकर्ताओं का अनुमान है कि शुरुआती डायनासौर मुलायम खोल वाले अंडे देते होंगे। लेकिन डायनासौर के अस्तित्व के अंतिम दौर यानी 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व जीवित रहे प्रोटोसेराटॉप्स के घोंसले से पता चलता है कि इस समय तक भी कुछ प्रजातियां मुलायम खोल वाले अंडे देती थीं, जबकि डायनासौर की अन्य प्रजातियां सख्त खोल वाले अंडे देने के लिए विकसित हो चुकी थीं।

संभवत: मुलायम खोल वाले अंडे देने वाले डायनासौर अंडों को ज़मीन में गाड़ते होंगे ताकि जब भारी-भरकम मां इन नाज़ुक अंडों पर बैठें तो वे दब कर टूट ना जाएं। ज़मीन में गाड़ने से अंडे सूखने से भी बचेंगे। अंडों को मादा डायनासौर द्वारा जमीन में गाड़ने से अंडों को कम गर्मी मिलती होगी जिससे उनका विकास धीमी गति से होता होगा। इसके चलते अंडों से निकलने वाले बच्चे ज़्यादा विकसित अवस्था में होते होंगे। अत: पालकों को नवजात की कम देखभाल करना पड़ती होगी। पूर्व में हुए अध्ययन बताते हैं कि डायनासौर के करीबी पंखों वाले सरीसृप टेरोसौर के शिशु अंडों से निकलने के तुरंत बाद उड़ने में सक्षम होते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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लॉकडाउन: शहरी इलाकों में जंगली जानवर – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

तालाबंदी के इन दिनों में हमने भारत के कई हिस्सों के नगरों, कस्बों और शहरी इलाकों की तरफ ‘जंगली’ जानवर आने की खबर सुनी। खबर मिली कि उत्तराखंड के हरिद्वार में एक हाथी हरि की पौड़ी के काफी नज़दीक आ गया था। अल्मोड़ा में एक तेंदुआ देखा गया था। कर्नाटक में हाथी, चीतल और सांभर जंगलों से निकलकर शहरों में आ गए थे, जबकि महाराष्ट्र में लोगों को काफी संख्या में कस्तूरी बिलाव, नेवला और साही झुंड में दिखे। सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में, जहां भी तालाबंदी हुई और रोज़मर्रा की मानव गतिविधियों पर अंकुश लगा, वहां जानवरों का ‘सीमा लांघकर’ शहरी बस्तियों में आगमन देखा गया। जब यह तालाबंदी हट जाएगी तब उम्मीद होगी कि ये जानवर अपने जंगली परिवेश में वापस लौट जाएंगे – चाहे वह कहीं भी हो और कितना भी सीमित क्यों ना हो।

मामले को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए यह देखिए कि दुनिया का कुल भूक्षेत्र लगभग 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर है; इसका लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल है और 24 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी है; शेष लगभग 45-50 प्रतिशत भूक्षेत्र पर हम मनुष्यों का कब्जा है जिस पर हमने लगभग 17,000 साल पहले समुदायों के रूप में रहना शुरू किया। (इसके पहले तक मनुष्य जंगलों में जानवरों और पेड़-पौधों के साथ शिकारी-संग्रहकर्ता के रूप में रहते थे)। इतनी सहस्राब्दियों में, खासकर पिछली कुछ सदियों में, हमने नगर और शहरी इलाके बसाए और ‘जंगली’ भूमि को ‘सभ्य’ भूमि में तबदील कर दिया। (ध्यान दें कि आज भी आदिवासी और जनजातीय समुदाय जानवरों और पेड़-पौधों के साथ जंगलो में रहते हैं)। भौगोलिक-प्राणीविद तर्क देते हैं कि वाकई में हम इंसान ही हैं जिन्होंने अपनी हदें पार कीं और धरती माता के नज़ारे को बदल दिया।

प्रसंगवश, ऐसा केवल ज़मीन पर ही नहीं बल्कि पानी में भी देखने को मिलता है। बीबीसी न्यूज़ ने बताया है कि कैसे इस्तांबुल में तालाबंदी के दौरान बोस्फोरस समुद्री मार्ग के यातायात में आई कमी के चलते शहर के तटों के करीब अधिक डॉल्फिन देखे गए। इसी तरह, तालाबंदी के दौरान औद्योगिक और मानव अपशिष्ट में हुई कमी के चलते जब पिछले दिनों गंगा का प्रदूषण कम हुआ था तब गंगा में गंगा डॉल्फिन और घड़ियाल (मछली खाने वाले मगरमच्छ) बड़ी संख्या में देखे गए थे। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के मार्को लैम्बर्टिनी ने चिंता जताई है कि पहाड़ी गोरिल्ला विशेष रूप से असुरक्षित हैं। उनका 98 प्रतिशत डीएनए मनुष्यों से मेल खाता है, इसलिए उनमें भी कोविड-19 संक्रमण हो सकता है। अन्य कपियों की तरह पहाड़ी गोरिल्ला भी अपने प्राकृतवास छिन जाने, अवैध शिकार और बीमारियों के कारण विलुप्ति की दहलीज़ पर है – मध्य अफ्रीका के पहाड़ों में केवल 900 पहाड़ी गोरिल्ला बचे हैं।

पांच कारण

इस स्थिति के एक बेहतरीन विश्लेषण, खासकर अमेरिका के विश्लेषण, में बेटेनी ब्रुकशायर ने sciencenews.org के अपने नियमित कॉलम में 5 जून को एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक है कोविड-19 महामारी के दौरान वन्यजीव अधिक दिखाई देने के पांच कारण। ये पांच कारण हैं: (1) रेस्टॉरेंट बंद हैं और कचरे के ढेर अन्यत्र स्थानांतरित हो गए हैं, इस मानव जूठन के कारण चूहों और कीटों ने भोजन की तलाश में नई जगहों की तरफ कूच किया; (2) चूंकि बहुत सारे मनुष्य और उनके पालतू जानवर आसपास नहीं हैं, तो हिंसक जानवर और हम जैसे सर्वोच्च शिकारियों का डर नहीं; जिससे शहरी क्षेत्रों में जंगली जानवरों की संख्या बढ़ी; (3) आम पक्षी हमसे नहीं डरते। हम उन्हें चहचहाते और गाते हुए देखते हैं। लॉकडाउन के दौरान माहौल खुशनुमा और शांत था और तब ऐसा देखा गया कि पक्षियों ने अपने गीतों और उनको गाने का समय बदला था। (दी साउंड्स ऑफ दी सिटी नामक चल रहा अध्ययन इस विचार का समर्थन करता है); (4) ऋतुएं भी भूमिका निभाती हैं। अमेरिका में, बसंत मार्च से मई के बीच होता है, और तब पक्षी प्रवास करना शुरू कर देते हैं, सांप हाइबरनेशन (शीतनिद्रा) से बाहर आ जाते हैं और भोजन और साथी की तलाश करते हैं। (भारत में भी, खेती का मौसम इसी समय के आसपास शुरू होता है) और अंत में (5) हम खुद भी अन्य समय की तुलना में लॉकडाउन के समय इन सभी विशेषताओं पर अधिक ध्यान दे रहे हैं, और इन सभी को सोशल मीडिया के माध्यम से साझा भी कर रहे हैं।

वैश्विक मानव बंदी प्रयोग

हाल ही में, अमांडा बेट्स और उनके साथियों ने बायोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका के 10 जून के अंक में प्रकाशित अपने पेपर (कोविड-19 महामारी और तालाबंदी: जैव संरक्षण की पड़ताल के लिए वैश्विक मानव बंदी का एक प्रयोग) में एक रोमांचक और उल्लेखनीय सुझाव दिया है। यह प्रयोग वन्य क्षेत्रों और संरक्षित क्षेत्रों समेत विभिन्न प्राकृतिक तंत्र के क्षेत्रों में मानव उपस्थिति और गतिविधियों के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों की पड़ताल करने, और जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का नियमन करने वाली प्रक्रियाओं का अध्ययन करने का एक अनूठा अवसर है। लेखक पारिस्थितिकविदों, पर्यावरण वैज्ञानिकों और संसाधन प्रबंधकों का आव्हान करती हैं कि वे विविध डैटा स्रोत और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर एक व्यापक वैश्विक समझ बनाने के प्रयास में योगदान दें। वे तर्क देती हैं कि विविध डैटा का संगठित महत्व, व्यक्तिगत डैटा के सीमित महत्व से अधिक होगा और नया दृष्टिकोण देगा। हम इस ‘मानव बंदी प्रयोग’ को प्राकृतिक तंत्र पर मानव प्रभावों का पता लगाने और मौजूदा तंत्र की ताकत और कमज़ोरियों का मूल्यांकन करने के लिए ‘तनाव परीक्षण’ के रूप में देख सकते हैं। ऐसा करने से मौजूदा संरक्षण रणनीतियों के महत्व के प्रमाण मिलेंगे, और विश्व की जैव विविधता संरक्षण को और बेहतर बनाने के नेटवर्क, वेधशालाएं और नीतियां बनेंगी। मेरा सुझाव है कि भारत को भी इस प्रयोग में शामिल होना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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जॉर्ज फ्लॉयड की शव परीक्षा की राजनीति

25 मई मिनीपोलिस पुलिस ने जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत अमरीकी को धर दबोचा और एक पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन ने जॉर्ज की गरदन पर लगभग 9 मिनट तक अपना घुटना बलपूर्वक रखे रखा, जिससे जॉर्ज की मौत हो गई। पुलिस द्वारा की गई इस हत्या को लोगों ने खुद अपनी आंखों से देखा और इसका वीडियो वायरल हुआ।

लेकिन जॉर्ज फ्लॉयड की प्रारंभिक शव परीक्षा रिपोर्ट के बारे में पूरी दुनिया के लोगों को इस तरह जानकारी दी गई कि उन्हें लगे कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं देखा था और उनमें खुद पर संशय पैदा हो जाए।

इस तरह किसी व्यक्ति की बातों, अनुभवों, और फैसलों को झुठलाकर, अपने आप पर संशय पैदा करके आत्मविश्वास या समझ में कमी लाने या उसका मनौविज्ञान बदल देने को गैसलाइटिंग कहते हैं। गैसलाइटिंग एक तरह का भावनात्मक खिलवाड़ है। गैसलाइटिंग शब्द 1938 के नाटक, और उसके बाद आई एक फिल्म से आया है, जिसमें एक वहशी पति अपनी पत्नी को पागलखाने भेजने के लिए एक साज़िश रचता है। वह अपने घर में गैसलाइट की रोशनी कम कर देता है, और जब उसकी पत्नी रोशनी कम होने की बात कहती है तो वह जानबूझकर उसकी बात से इन्कार कर देता है, फिर इसे उसके पागलपन के सबूत के तौर पर उपयोग करता है।

अमेरिका में व्याप्त अश्वेत-विरोधी हिंसा को सुनियोजित गैसलाइटिंग की तरह देखा जा रहा है। जब आवासीय योजनाओं का ऋण ना चुकाने पर किसी अश्वेत के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है तो उनकी साख को ढाल बनाकर सफाई पेश की जाती है; जब अश्वेत युवाओं को अकारण रोककर खानातलाशी की जाती है तो कहा जाता है कि पूरी प्रक्रिया रैंडम है और कहा जाता है कि यह उनकी सुरक्षा के लिए ही किया जा रहा है।

और, जब पुलिस द्वारा अश्वेत लोगों की हत्या की जाती है तो उनके चरित्र, और यहां तक कि उनकी शारीरिक बनावट को ज़िम्मेदार ठहराकर, हत्यारों को रिहा कर दिया जाता है। राज्य-स्तरीय मृत्यु प्रमाण पत्र के राष्ट्रीय डैटाबेस के एक विश्लेषण में पाया गया था कि कानून के अनुपालन में की गई हत्याओं में से आधी से भी कम हत्याएं दर्ज की जाती हैं। इसके अलावा, पुलिस द्वारा की गई बर्बरता से हुई मौत के वास्तविक कारण की बजाय कहा जाता है कि मृत्यु ‘दुर्घटनावश’ या ‘अज्ञात’ कारण से हुई। जबकि मौत का वास्तविक कारण नस्लवाद होता है।

जॉर्ज के मामले में भी 29 मई को लोगों से कहा गया कि जॉर्ज की शव परीक्षा में ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है जो यह बताती हो कि मृत्यु दम घुटने की वजह से हुई, और कहा गया कि मृत्यु नशे और पहले से मौजूद दिल की बीमारी से हुई है। यहां स्पष्ट कर दें कि ये कारण ऑटोप्सी करने वाले चिकित्सक ने नहीं दिए थे बल्कि चिकित्सकीय जानकारी की राजनैतिक व्याख्या करने वाले आरोप पत्र के हैं।

मानक चिकित्सीय जांच के तहत फ्लॉयड के स्वास्थ्य और शरीर में विष की उपस्थिति की जांच भी की गई थी। ये सामान्य परीक्षण हैं जो मृत्यु के कारण के बारे में नहीं बताते लेकिन फिर भी सुर्खियों में बने हुए हैं। आरोप पत्र में फ्लॉयड की मृत्यु के लिए उसे रही ह्रदय-धमनी रोग की दिक्कत और उच्च रक्तचाप की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था, जो वास्तव में लंबी अवधि में स्ट्रोक और दिल का दौरा पड़ने के जोखिम को बढ़ाती है ना कि कुछ मिनटों में। अन्य चिकित्सक बताते हैं कि एस्फिक्सिया – यानी घुटन – में हमेशा शरीर परसंकेत दिखाई पड़ें, ऐसा ज़रूरी नहीं है।

इस तरह लोगों के सामने मृत्यु के वास्तविक कारणों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, और उन्हें इसे आंखों देखी हत्या के साथ सामंजस्य बैठाने छोड़ दिया गया। रिपोर्ट में जॉर्ज की पुरानी बीमारियों की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया, नशीले पदार्थों के बारे में अनावश्यक ज़िक्र किया गया लेकिन यह साफ तौर पर नहीं कहा गया कि यदि उस दिन पुलिस वाला जॉर्ज की गर्दन को घुटने से दबाकर न रखता तो जॉर्ज जीवित होता।

अलबत्ता, राजनैतिक दबाव के चलते, 1 जून को लोगों के सामने जॉर्ज की शव परीक्षा की दो रिपोर्ट आर्इं। एक उस शव परीक्षा की रिपोर्ट थी जो जॉर्ज के परिवार ने एक निजी चिकित्सक से करवाई थी। दूसरी रिपोर्ट सरकारी थी। दोनों में ही इसे हत्या बताया गया था।

स्पष्ट है कि आरोप पत्र में मृत्यु के कारणों के बारे में भ्रम पैदा किया गया और लोगों को अपनी आंखों देखी वास्तविकता पर संदेह करने को उकसाया गया। उसमें अश्वेत लोगों के प्रति व्याप्त धारणाओं को पुष्ट करने की कोशिश की गई।

चिकित्सा विज्ञान लंबे समय से पीड़ितों की बजाय सत्ताधारी उत्पीड़कों के पक्ष में उपयोग किया जाता रहा है। अश्वेत मांओं की प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है, और कोविड-19 की वजह से मरने वालों में अश्वेत अमरीकियों की अधिक संख्या के लिए उनके हार्मोन रिसेप्टर्स या थक्का जमाने वाले कारक में अंतर को दोष दिया जा रहा है।

चिकित्सकों को ध्यान रखना चाहिए कि चिकित्सा विज्ञान कभी वस्तुनिष्ठ नहीं रहा है। इस पर हमेशा सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी प्रभाव रहा है और रहेगा। आपराधिक न्यायिक मामलों को चिकित्सकीय जांच नियंत्रित करती है; ज़हर के बारे में पड़ताल रोगी की आजीविका पर प्रभाव डालती है; दूसरी ओर, ठीक तरह से किए जाएं तो वैज्ञानिक परीक्षण लिंगभेदी और नस्लवादी रूढ़ियों को खत्म कर सकते हैं।

चिकित्सा का क्षेत्र गैसलाइटिंग के लिए एक योग्य जगह है। सफेद कोट और स्टेथोस्कोप की कथित ताकत और वैधता की आड़ में निदान और निष्कर्ष में वास्तविकता को छुपाने की ताकत है। यह बात जॉर्ज के मामले में स्पष्ट नज़र आई है।

ज़रूरत है कि चिकित्सक इस पर आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध हों।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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