जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर

पृथ्वी पर जीवन के इतिहास के बारे में हमारी समझ विकसित करने में जीवाश्मों की एक बड़ी भूमिका रही है। जीवाश्मों से हमें जैव-विकास और पौधों एवं जीव-जंतुओं में अनुकूलन के महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इन साक्ष्यों की मदद से विभिन्न प्रजातियों के आपसी सम्बंध के बारे में भी जानकारी मिलती है। लेकिन एक हालिया अध्ययन बताता है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर है। इस विश्लेषण के अनुसार 97 प्रतिशत जीवाश्म सम्बंधी डैटा अमेरिका, जर्मनी और चीन जैसे उच्च और उच्च-मध्यम आय वाले देशों के वैज्ञानिकों से प्राप्त हुआ है।

इस अध्ययन में शामिल फ्राइडरिच एलेक्जे़ंडर युनिवर्सिटी की जीवाश्म वैज्ञानिक नुसाइबा रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड के उच्च आय वाले देशों के वैज्ञानिकों के पास संकेंद्रित होने की संभावना तो थी लेकिन इतने अधिक प्रतिशत की उम्मीद नहीं थी। रजा और उनकी टीम का मानना है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का अमीर देशों की ओर झुकाव जीवन के इतिहास के बारे में शोधकर्ताओं की समझ को प्रभावित कर सकता है। यह अध्ययन नेचर इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है।        

रजा और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन के लिए पैलियोबायोलॉजी डैटाबेस (पीबीडीबी) का उपयोग किया। पीबीडीबी में 80,000 शोध पत्रों से 15 लाख से अधिक जीवाश्म रिकॉर्ड शामिल हैं। टीम ने अपने अध्ययन में 1990 से 2020 के बीच पीबीडीबी में शामिल किए गए 29,039 शोध पत्रों का विश्लेषण किया है। इनमें से एक तिहाई से अधिक रिकॉर्ड अमेरिकी वैज्ञानिकों के पाए गए जबकि शीर्ष पांच में जर्मनी, यूके, फ्रांस और कनाडा के वैज्ञानिक शामिल थे। इस विश्लेषण में शोधकर्ताओं के अपने देश में पाए गए जीवाश्मों के साथ-साथ विदेशों में पाए गए जीवाश्म भी शामिल हैं।

आंकड़ों के मुताबिक अमेरिकी शोधकर्ताओं ने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय जीवाश्म दोनों पर लगभग समान रूप से काम किया जबकि युरोपीय देशों के वैज्ञानिकों ने अधिकांश जीवश्मीय अध्ययन विदेशों में किए हैं। जैसे, स्विट्ज़रलैंड के वैज्ञानिकों की 86 प्रतिशत जीवश्मीय खोजें विदेशों में की गई हैं।

विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि कई देशों में दशकों पहले खत्म हुए औपनिवेशिक सम्बंध आज भी जीवाश्म विज्ञान को प्रभावित कर रहे हैं। मोरक्को, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया में एक चौथाई से अधिक जीवाश्मीय अध्ययन फ्रांसीसी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए हैं। ये तीनों देश पूर्व फ्रांसीसी कॉलोनी रहे हैं। इसके अलावा, दक्षिण अफ्रीका और मिस्र में जीवाश्म का अध्ययन करने वाले 10 प्रतिशत शोध पत्रों में यूके के शोधकर्ता शामिल हैं जबकि तंज़ानिया के जीवाश्मों पर प्रकाशित 17 प्रतिशत शोध पत्र जर्मन वैज्ञानिकों के हैं।

कई मामलों में इन शोध कार्यों में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किया गया है। इस तरीके को आम तौर पर ‘पैराशूट विज्ञान’ कहा जाता है। रजा और उनकी टीम ने एक पैराशूट सूचकांक तैयार किया है जो यह दर्शाता है कि किसी देश का कितना जीवाश्मीय डैटा स्थानीय वैज्ञानिकों को शामिल किए बिना तैयार किया गया है। यह अनुपात म्यांमार और डोमिनिक गणराज्य में सर्वाधिक रहा। इन दोनों देशों में काफी मात्रा में एम्बर में संरक्षित जीवाश्म पाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है कि जीवाश्म विज्ञान पर अमीर देशों का अत्यधिक प्रभाव जीवन के इतिहास के बारे में एक विकृत दृष्टिकोण पैदा कर सकता है। पीबीडीबी जैसे संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि जीवाश्म रिकॉर्ड अनगिनत पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है। इनमें चट्टान की उम्र और उसका प्रकार शामिल है जिसमें जीवाश्म संरक्षित रह सकते हैं। लेकिन आम तौर पर जीवाश्म को एकत्रित करने वाले व्यक्ति के पूर्वाग्रहों पर कम ध्यान दिया जाता है। रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड को प्रभावित करने वाले भौतिक कारकों पर तो बात होती है लेकिन मानवीय कारकों के बारे में नहीं।

कुछ अन्य जीवाश्म विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हैं जो पैराशूट विज्ञान जैसी प्रवृत्तियों को उजागर कर सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि वैज्ञानिक ज्ञान को कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं रखना चाहिए और न ही इसे मुट्ठी भर देशों के शोधकर्ताओं द्वारा निर्मित किया जाना चाहिए। पैराशूट विज्ञान से न सिर्फ जीवाश्म विज्ञान प्रभावित होता है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी नुकसान होता है। जीवाश्म खोजें पर्यटकों को संग्रहालयों की ओर आकर्षित करके स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहायता प्रदान करती हैं। यदि विदेशी वैज्ञानिक इन जीवाश्मों को अपने देश ले जाते हैं तो स्थानीय लोग इनका लाभ नहीं प्राप्त कर पाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंग दाएं-बाएं कैसे जम जाते हैं?

बाहर से देखने पर तो मनुष्य एकदम सुडौल, सममित लगते हैं यानी दाहिनी तरफ और बाईं तरफ एक से हाथ, पैर, आंखें, कान वगैरह होते हैं। लेकिन अंदर झांकेंगे तो मामला अलग होता है। सबको पता है कि दिल सीने में थोड़ा बाईं ओर होता है जबकि जिगर उदर में दाईं ओर। कुछ लोगों में ज़रूर इनमें से कुछ अंगों की स्थिति पलट जाती है। सवाल यह रहा है कि आखिर इन अंगों को अपनी सही स्थिति में पहुंचने का आदेश कहां से मिलता है। अब शोधकर्ताओं ने एक जीन खोज निकाला है जो इस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार है।

भ्रूण के विकास का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को यह तो काफी समय से पता रहा है कि कुछ जीन्स ऐसे होते हैं जो भ्रूण की शुरुआती सममिति को तोड़ते हैं और अंगों को अपना पाला तय करने में मदद करते हैं। शोधकर्ता यह भी जानते थे कि दिल तथा कतिपय अन्य अंगों को मध्यरेखा से अलग स्थिति में पहुंचाने में कुछ कोशिकाओं की भूमिका है जिन्हें दायां-बायां व्यवस्थापक कहते हैं। 1998 में चूहों पर किए गए अध्ययनों के आधार पर जापान के वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि इनमें से कुछ व्यवस्थापक-कोशिकाओं में रोम होते हैं और इन रोग की गति कुछ ऐसी होती है कि वे भ्रूण के तरल को बाईं ओर भेजते हैं, दाईं ओर नहीं। तरल के असमान प्रवाह की वजह से अंग सही जगहों पर बनते हैं। तरल का यह असमान प्रवाह बाईं ओर की कोशिकाओं में कुछ जीन्स को सक्रिय कर देता है। आगे चलकर पता चला कि मछलियों और मेंढकों में भी ऐसा ही होता है।

लेकिन अचरज की बात यह रही कि कोशिकाओं का ऐसा समूह मुर्गियों और सुअरों के विकसित होते भ्रूण में नहीं पाया जाता जबकि इनके दिल भी एक बाजू ही बनते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि घुमावदार गति वाले रोम जंतु विकास में काफी प्राचीन काल में प्रकट हुए थे लेकिन फिर किसी कारण से कुछ जंतुओं में ये लुप्त हो गए – जैसे सुअरों, स्तनधारियों में और पक्षियों में। लेकिन मनुष्यों में ये बरकरार रहे।

तो सिंगापुर के जीनोम इंस्टीट्यूट के ब्रुनो रेवरसेड और पेरिस के इमेजिन इंस्टीट्यूट के क्रिस्टोफर गॉर्डन देखना चाहते थे इस बेडौल विकास के लिए क्या कोई नया जीन ज़िम्मेदार है। इन शोधकर्ताओं के दल ने यह देखना शुरू किया कि वे कौन-से जीन हैं जो चूहों, मछलियों और मेंढकों के विकासमान भ्रूणों में तो सक्रिय होते हैं लेकिन सुअरों के विकास की उस अवस्था में अक्रिय होते हैं जब तरल का प्रवाह नहीं हो रहा होता।

शोधकर्ताओं ने नेचर जेनेटिक्स जर्नल में बताया है कि उन्हें पांच ऐसे जीन मिले। वे जानते थे कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि इन पांच में से तीन जीन्स के बारे में पहले से ही पता था कि वे प्रवाह-प्रेरित सममिति भ्रंश के लिए ज़िम्मेदार हैं। शेष रहे दो जीन्स। इनमें से एक का नामकरण सिरॉप (CIROP) किया गया है।

शोधकर्ताओं ने इस जीन में एक ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जब यह सक्रिय हो तो एक चमक पैदा करे। इसकी मदद से शोधकर्ताओं को यह पता चला कि सिरॉप जीन ज़ेब्रा मछली, चूहों और मेंढकों के भ्रूण में मात्र कुछ घंटों के लिए सक्रिय रहता है जब दायां-बायां व्यवस्थापक बनता है। जब इस जीन को निष्क्रिय कर दिया गया तो पता चला कि इसकी ज़रूरत भ्रूण के सिर्फ बाएं हिस्से में होती है ताकि दिल, आंतें व पित्ताशय सही जगह पर बन जाएं। यानी सिरॉप इन अंगों की स्थिति निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाता है।

मनुष्यों की बात करें तो हर 10 हज़ार में से एक व्यक्ति गलत जगह स्थित अंगों के साथ पैदा होता है। इसे हेटेरोटैक्सी कहते हैं। रेवरसेड की टीम ने हेटेरोटैक्सी से ग्रस्त 183 लोगों के सिरॉप जीन का अनुक्रमण किया और उन्हें 12 परिवारों के 21 व्यक्तियों में सिरॉप में उत्परिवर्तन देखने को मिले। वैसे सिरॉप की खोज से इस समस्या का इलाज करने में कोई मदद शायद न मिले लेकिन यह महत्वपूर्ण तो है ही। शोधकर्ताओं को कुछ अंदाज़ तो है कि यह जीन सममिति को कैसे तोड़ता है लेकिन वे और अध्ययन करना चाहते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीकों को चकमा देता ओमिक्रॉन

प्रयोगशाला से प्राप्त डैटा से पता चला है कि व्यापक रूप से उपयोग किए जा रहे टीके तेज़ी से फैल रहे ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न के बराबर सुरक्षा प्रदान करते हैं।

गौरतलब है कि कुछ टीकों में निष्क्रिय किए गए वायरस का उपयोग किया जाता है। ये टीके स्थिर होते हैं और इनका निर्माण अपेक्षाकृत रूप से आसान होता है। लेकिन प्रयोगों से यह साबित हुआ है कि ये ओमिक्रॉन के विरुद्ध अप्रभावी रहे हैं।

ऐसे निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की दोनों खुराकें मिलने के बाद भी ऐसे प्रतिरक्षा अणुओं का निर्माण नहीं हुआ जो ओमिक्रॉन संक्रमण का मुकाबला कर सकें। और तो और, तीसरी खुराक के बाद भी ‘न्यूट्रलाइज़िंग’ एंटीबॉडी का स्तर कम पाया गया जो कोशिकाओं को संक्रमण के खिलाफ शक्तिशाली सुरक्षा प्रदान करती हैं। दूसरी ओर, mRNA या प्रोटीन-आधारित टीकों की तीसरी खुराक ओमिक्रॉन के विरुद्ध बेहतर सुरक्षा प्रदान करती है।

ये निष्कर्ष निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करने की ज़रूरत दर्शाते हैं।

पिछले वर्ष विश्वभर के टीकाकरण अभियान में निष्क्रिय -वायरस टीकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अब तक वितरित 11 अरब टीकों में से चीन द्वारा निर्मित सायनोवैक और सायनोफार्म की हिस्सेदारी 5 अरब रही है। इसके अलावा भारत में निर्मित कोवैक्सिन, ईरान द्वारा निर्मित कोविरॉन बरेकत और कज़ाकिस्तान द्वारा निर्मित क्वैज़वैक जैसे टीकों की भी 20 करोड़ से अधिक खुराकें वितरित की जा चुकी हैं। ये सभी टीके गंभीर बीमारी या मृत्यु से सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम रहे हैं।

हांगकांग के शोधकर्ताओं द्वारा कोरोनावैक टीका प्राप्त 25 लोगों के रक्त के विश्लेषण में एक भी व्यक्ति में ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी नहीं पाई गई। शोधकर्ताओं का मत है कि इस टीके से ओमिक्रॉन संक्रमण का जोखिम बना रहता हैं। वैसे सायनोवैक ने अपने आंतरिक आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया है कि कंपनी का टीका प्राप्त करने वाले 20 में से 7 लोगों में ओमिक्रॉन को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी पाई गई हैं। भारत बायोटेक (कोवैक्सिन) और चीनी कंपनी सायनोफार्म (बीबीआईबीपी-कोरवी) ने भी ओमिक्रॉन के विरुद्ध निष्क्रिय -वायरस टीकों के कुछ हद तक प्रभावी होने का दावा किया है।

इस टीके की तीसरी खुराक से कई लोगों में न्यूट्रलाइज़िंग गतिविधि बहाल हुई है। शंघाई जियाओ टोंग युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में 292 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में तीसरी खुराक मिलने पर 228 में न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी मिली हालांकि स्तर कम ही रहा।

इस सम्बंध में पोंटिफिकल कैथोलिक युनिवर्सिटी ऑफ चिली के मॉलिक्यूलर वायरोलॉजिस्ट राफेल मेडिना ने प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य भागों की भूमिका की ओर ध्यान दिलाया है।

विशेषज्ञों के अनुसार परिणाम भले ही दर्शाते हों कि निष्क्रिय-वायरस आधारित टीके ओमिक्रॉन से सुरक्षा प्रदान नहीं करते लेकिन ये कोविड-19 के गंभीर प्रभावों से रक्षा ज़रूर करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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