चैट-जीपीटी – अजूबा या धोखेबाज़ी का नया औज़ार? – लाल्टू

मैं जिस संस्थान में काम करता हूं, पिछले ढाई महीनों से वहां कई अध्यापक ईमेल पर ‘चैट-जीपीटी’ पर चर्चा कर रहे हैं। दरअसल पूरी दुनिया में तालीम और अध्यापन से जुड़े लोगों में बड़ी संजीदगी से यह चर्चा चल रही है। खास तौर पर मौलिक लेखन को लेकर एक संकट सा फैलता दिख रहा है। तो चैट-जीपीटी क्या है?

कृत्रिम बुद्धि में मील का पत्थर – चैट-जीपीटी

हाल में कंप्यूटर साइंस और सूचना टेक्नॉलॉजी में जो तरक्की हुई है, उसी की एक कड़ी एआई यानी कृत्रिम बुद्धि में हुए शोध की है। इसके कई पहलुओं में रोबोटिक्स, भाषा की प्रोसेसिंग या नैचुरल लैंग्वेज़ प्रोसेसिंग (एन.एल.पी.) आदि हैं। चैट-जीपीटी ओपन-एआई नामक एक कंपनी द्वारा बनाया ऐसा सॉफ्टवेयर है, जिससे कोई पहले से प्रशिक्षित (प्री-ट्रेन्ड) कंप्यूटर, किसी विषय को समझ कर उसके बारे में नए लेख ‘उत्पन्न’ यानी अपनी ओर से पेश कर सकता है। इसके और भी कई चमत्कार हैं, जैसे कलाकृतियां या गीत आदि पेश करना, परंतु ज़्यादा शंकाएं इसकी लेखन-महारत को लेकर हैं।

लार्ज लैंग्वेज़ मॉडल –  चैटबॉट

नवंबर 2022 के आखरी दिन बाज़ार में आया यह सॉफ्टवेयर दरअसल लंबे समय से चले आ रहे शोध की एक कड़ी है। पूर्व के ऐसे मॉडल GPT-3 शृंखला के लार्ज लैंग्वेज़ मॉडल (LLM) या चैट-बॉट (chatbot) कहलाते थे। बॉट शब्द रोबोट से आया है। ‘चैट’ यानी गुफ्तगू। तो चैटबॉट हुआ कंप्यूटर से गुफ्तगू। जब इंटरनेट पर मौजूद किसी सॉफ्टवेयर-प्रोग्राम से बार-बार खास किस्म का काम करवाया जा सके (भला या बुरा कुछ भी), तो उसे बॉट कहा जाता है। चैट-जीपीटी भी चैट-बॉट ही है; इसकी खासियत पूर्व मॉडल्स की तुलना में कहीं ज़्यादा बेहतर समझ और उसके मुताबिक लेख तैयार करने में है।

शंकाएं

कमाल इस बात का है कि हालांकि चैट-जीपीटी से तैयार किए गए लेख पूरी तरह सही नहीं होते, और ध्यान से पढ़ने पर उनमें गलतियां दिख जाती हैं, फिर भी हर किस्म के लेखन की दुनिया में इसे लेकर बड़ी चिंता जताई जा रही है। नेचर समेत विज्ञान की नामी शोध पत्रिकाओं में आम पाठकों और वैज्ञानिक समुदाय को इसके गलत इस्तेमाल पर सचेत करते हुए आलेख छपे हैं। यह आशंका जताई गई है कि आधुनिक विज्ञान की जटिलता की वजह से चैट-जीपीटी की मदद से तैयार जाली लेख के सार पढ़कर विषय के माहिर यह ताड़ नहीं पाएंगे कि लेख जाली है और उसे छापने की रज़ामंदी दे देंगे।

न्यूरॉन-तंत्र से प्रेरित सॉफ्टवेयर

चैट-बॉट को समझने का एक आसान तरीका गूगल-ट्रांसलेशन हो सकता है। अगर आप गूगल कंपनी की इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, तो आप जानते होंगे कि बार-बार इस्तेमाल करने से तर्जुमे की गुणवत्ता बेहतर होती जाती है: पहली कोशिश में जो गलतियां होती हैं और हम उन्हें सुधारते हैं तो कंप्यूटर उस सुधार को समझ लेता है और अगली कोशिश में वह संशोधित शब्द या वाक्य ही सामने लाता है। चैट-बॉट में इसे और भी ऊंचे स्तर तक ले जाया गया है। कृत्रिम बुद्धि के शोध में इसे मशीन-लर्निंग (मशीन का सीखना) कहा जाता है। जैविक न्यूरॉन-तंत्र से प्रेरित जटिल सॉफ्टवेयर तैयार किए गए हैं, जिनमें जैविक-तंत्र की तरह ही सूचना की प्रोसेसिंग होती है, और जैसे हमारा ज़हन किसी प्राप्त जानकारी के प्रति कोई प्रतिक्रिया पेश करता है, उसी तरह कंप्यूटर भी दी गई जानकारी को सीख कर किसी कहे मुताबिक एक प्रतिक्रिया पेश करता है।

इसी तरह के शोध की सबसे अगली कड़ी में चैट-बॉट होते हैं। इनका इस्तेमाल दरअसल लेखन को बेहतर बनाने के लिए यानी गलतियों को कम करने के लिए ही किया जाना चाहिए। इसका फायदा उठाते हुए कई लोगों ने शोध के आंकड़ों को चैट-बॉट में दर्ज करके बेहतरीन पर्चे तैयार किए हैं। जाहिर है, पूरी तरह चैट-बॉट का लिखा पर्चा सही नहीं हो सकता, क्योंकि मशीन आखिर मशीन है और उससे सौ फीसदी सही नतीजा नहीं आ सकता।

फिर भी गड़बड़ी की आशंका बेवजह नहीं है – जैसे किसी विशेषज्ञ की किसी बिलकुल नए शोध पर भरपूर महारत ना होना, या व्यस्तता के कारण सामने आए लेख को सरसरी निगाह से देखना जैसी कई वजहों से, अक्सर पूरी तरह सही ना होते हुए भी लेख छप जाते हैं। इसी तरह अध्यापक अगर बड़ी तादाद में छात्रों की कॉपियां जांचते हैं तो अक्सर किसी का लिखा पूरा पढ़ पाना मुमकिन नहीं होता; तब तजुर्बे के आधार पर जितना हो सके पढ़कर जांच का नतीजा तय हो जाता है – यहीं पर चैट-जीपीटी जैसे ताकतवर सॉफ्टवेयर से खतरा पेश आता है।

आम तौर पर नकल या जाली काम पकड़ने के लिए प्लेजिएरिज़्म यानी नकल-पकड़ चेकर (plagiarism checker)  सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल होता है। ऐसा पाया गया है कि अक्सर चैट-बॉट से तैयार लेखों के सार इस तरह की जांच से बच निकलते हैं। इससे वैज्ञानिक लेखन की नैतिकता को लेकर बड़े सवाल सामने आए हैं और नेचर पत्रिका और ए-आई के मशहूर सम्मेलनों में आने वाले पर्चों के लिए चैट-जीपीटी के इस्तेमाल की मनाही हो गई है। दुनिया भर में तालीम के संस्थान चैट-जीपीटी पर नई नीतियां तय कर रहे हैं; मसलन न्यूयॉर्क शहर में सभी स्कूलों में चैट-जीपीटी के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी गई है, यानी इन स्कूलों में मौजूद किसी भी कंप्यूटर पर और इंटरनेट के जरिए उपलब्ध संसाधनों में चैट-जीपीटी पर रोक लगा दी गई है। यह रोक मिल रही जानकारी की प्रामाणिकता को लेकर शंकाओं की वजह से लगाई गई है। कई विषयों में सामान्य जानकारियां सुनकर चैट-बॉट बेहतरीन निबंध तैयार कर सकता है। इससे छात्रों को अभ्यास के लिए दी गई सामग्री की जांच के नतीजे सही ना हो पाने की आशंका बढ़ गई और ऐसा लगने लगा कि चैट-बॉट की मदद से जाली काम और नकल को बढ़ावा मिलेगा। अमेरिका के कई दूसरे शहरों में भी इस तरह के प्रतिबंध पर सोचा जा रहा है।

रोक हल नहीं है

ऐसी शंकाएं पहले तब भी जताई जा चुकी हैं, जब चैट-बॉट जैसे ताकतवर सॉफ्टवेयर नहीं होते थे और कंप्यूटर या ए-आई टेक्नॉलॉजी में कोई विलक्षण तरक्की नहीं हुई थी। इसलिए कई माहिरों का कहना है कि रोक लगाने से समस्या का निदान नहीं होता है। दूसरी ओर, चैट-जीपीटी से जो फायदे होने हैं, रोक के चलते छात्र उनसे वंचित रह जाएंगे। बेहतर यह है कि अभ्यास के लिए कैसा काम दिया जाए, इस पर सोचा जाए। जैसे हाल में मिली जानकारियों पर आधारित काम दिए जा सकते हैं, जिन पर चैट-जीपीटी के तंत्र में जानकारी नहीं होगी।

ऐसा भी किया सकता है कि छात्रों से सचेत रूप से चैट-जीपीटी का इस्तेमाल करने को कहा जाए और इससे मिले आउटपुट पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने को कहा जाए, ताकि यह पता चल सके कि छात्र को वाकई विषय की कितनी समझ है। या क्लास में उनसे सवाल पूछे जाएं, जिससे उनकी काबिलियत का सही अंदाज़ा हो सके।

मूल समस्या पूंजीवादी व्यवस्था

मूल समस्या यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में कम लागत में ज़्यादा से ज़्यादा काम लेने की कोशिश की वजह से ये सारे उपाय नाकामयाब रह जाते हैं; अक्सर अध्यापकों के पास इतना वक्त नहीं होता कि वे जांच के लिए ज़रूरी भरपूर ध्यान दें। साथ ही जहां समाज में गैर-बराबरी है, अगर चैट-जीपीटी का कोई फायदा है तो बस उनके लिए है जो इसके इस्तेमाल का खर्चा उठा पाएंगे।

विज्ञान लेखन में नैतिकता

नैतिकता को ध्यान में रखकर, कई वैज्ञानिक तो चैटबॉट का इस्तेमाल करने पर लेखकों की सूची में चैट-जीपीटी को भी शामिल कर रहे हैं, पर ज़्यादातर वैज्ञानिक इसके खिलाफ हैं। यह मुमकिन है चैट-जीपीटी को लेखक कहना एक मज़ाक हो – पालतू जानवरों और नकली नामों को शामिल करने के ऐसे मज़ाक पहले भी होते रहे हैं। पर ऐसा भी हो सकता है कि शोध की जानकारियों को गलत ढंग से लिखने या जाली बातें लिख कर पकड़े जाने से बचने के लिए भी कोई चैट-जीपीटी को लेखकों में शामिल करे। इसलिए प्रकाशन-संस्थाएं इस बात को संजीदगी से ले रही हैं और लेखकों को अपने लिखे की पूरी ज़िम्मेदारी लेने के लिए कह रही हैं। वैज्ञानिक पर्चों में एक से ज़्यादा लेखकों का होना आम बात है: शोध के काम में कोई मूल सवालों पर सोचता है, कोई प्रयोग करता है आदि, और इस वजह से अलग-अलग किस्म की भागीदारी होती है, जिसका सही श्रेय मिलना लाज़मी है। 

टेक्नॉलॉजी बनाम इंसान

सूचना टेक्नॉलॉजी की बड़ी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने ओपेन-आई कंपनी में दस अरब डॉलर लगाना तय किया है। माइक्रोसॉफ्ट ने पहले ही तीन अरब डॉलर ओपेन-आई में लगाए हैं। ज़ाहिर है, बड़ी टेक-कंपनियों ने चैट-जीपीटी की कामयाबी को बड़ी संजीदगी से लिया है। पर इससे एक और खतरा सामने आता दिखता है। हाल में ही माइक्रोसॉफ्ट समेत कई कंपनियों ने बड़ी तादाद में कर्मचारियों की छंटनी की घोषणा की है। जैसे-जैसे मशीनों की काबिलियत बढ़ेगी, इंसान की मेहनत गैर-ज़रूरी होती जाएगी। इससे बेरोज़गारी बढ़ेगी और समाज में तनाव बढ़ेंगे। माइक्रोसॉफ्ट के मुख्य प्रबंधन प्रभारी सत्य नडेला ने कहा है कि दस हज़ार लोगों की छंटनी के बाद कंपनी ए-आई के शोध पर ज़्यादा फोकस कर पाएगी।

जैसा अक्सर होता है, ओपेन-आई कंपनी की शुरुआत मुनाफा न कमा कर शोध कार्य करने के लिए हुई थी, पर वक्त के साथ शोध के लिए पैसे जुटाने हेतु कंपनी में तैयार सॉफ्टवेयर को बेचा जाने लगा और आज यह चैटबॉट बनाने वाली सबसे कामयाब मुनाफादायक कंपनी बन चुकी है।

रोचक बात यह है कि टेक्नॉलॉजी से आई बीमारियों का इलाज टेक्नॉलॉजी में ही ढूंढा जाता है। बेशक जहां पर्याप्त सुविधा हो, ए-आई का इस्तेमाल बढ़ता चलेगा। इसे खारिज करना आसान नहीं है, पर सावधानी और गलत इस्तेमाल के रोकथाम की गुंजाइश रहेगी। आखिर कौन नहीं चाहता कि कोई धोखेबाज हमें उल्लू न बनाए! चैट-जीपीटी के गलत इस्तेमाल को पकड़ने के लिए कई सॉफ्टवेयर तैयार हो चुके हैं, जिनमें  ओपेन-आई-डिटेक्टर, जी-एल-टी-आर, जीपीटी-ज़ीरो आदि मुख्य हैं। इनकी मदद से अध्यापक यह पकड़ सकते हैं कि किसी छात्र ने खुद अभ्यास का काम न करके चैटबॉट की मदद से किया है। जहां इम्तिहानों में छूट दी जाती है कि छात्र घर बैठकर भी सवाल हल कर सकें, वहां भी इन चैट-जीपीटी प्रतिरोधी ऐप आदि से पकड़ना आसान हो गया है कि किसी ने मौलिक काम किया है या नहीं। इस दिशा में बहुत सारा शोध जारी है और उम्मीद यही है कि चैट-जीपीटी से जितना खतरा आंका गया है, आखिर में ऐसा न होकर इसका बेहतर इस्तेमाल ही होता रहेगा।  फिलहाल यही कहा जा सकता है कि आिखरी जीत इंसान की समझ और इल्म की ही होगी और टेक्नॉलॉजी एक हद तक ही हमें मात दे पाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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