मतदान में प्रयुक्त अमिट स्याही का विज्ञान – चक्रेश जैन

र्ज़ी मतदान रोकने में ‘अमिट स्याही’ की अहम भूमिका रही है। अमिट स्याही की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे मिटाया अथवा धोया नहीं जा सकता। बैंगनी रंग की यह स्याही आम चुनाव का प्रतीक बन गई है। अभी तक कोई भी विकल्प अमिट स्याही की जगह नहीं ले पाया है।

मतदान में प्रयुक्त अमिट स्याही को बनाने में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (एनपीएल) के वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसे अमिट स्याही की जन्म स्थली कहा जाता है। प्रयोगशाला की स्थापना के तुरन्त बाद रसायन विज्ञान प्रभाग के अंतर्गत स्याही विकास इकाई का गठन किया गया था। एनपीएल ने 1950-51 में अमिट स्याही तैयार कर ली थी, जिसका उपयोग प्रथम आम चुनाव में किया गया था। दूसरे आम चुनाव (1957) में एनपीएल ने ही अमिट स्याही की 3,16,707 शीशियां उपलब्ध कराई थीं।

बहरहाल, अनुसंधान के अन्य क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण अमिट स्याही उत्पादन के काम को आगे जारी नहीं रखा जा सका था। ऐसी स्थिति में सरकारी-निजी प्रतिष्ठान को इसके उत्पादन का लायसेंस देने की ज़रूरत दिखाई दी। काफी विचार-विमर्श के बाद कर्नाटक की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी मैसूर पेंट्स का चुनाव किया गया। इस कंपनी की स्थापना 1937 में मैसूर के महाराजा कृष्णराजा वाडियार ने की थी। वर्ष 1947 में इस कंपनी का अधिग्रहण पूर्व मैसूर राज्य ने कर लिया था और आगे चलकर इसका नाम बदल कर मैसूर लैक एंड पेंट वर्क्स लिमिटेड कर दिया गया। फिर 1989 में नाम बदलकर मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड  कर दिया गया। वर्तमान में इसी को निर्वाचन आयोग से अमिट स्याही खरीदी के आदेश प्राप्त हो रहे हैं। और तो और, यह कंपनी दो दर्ज़न अन्य देशों को भी अमिट स्याही का निर्यात कर रही है।

निर्णय लिया गया है कि 1962 के बाद के सभी चुनावों में मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड ही अमिट स्याही का उत्पादन और निर्यात करेगी। नेशनल रिसर्च एंड डेवलपमेंट कार्पोरेशन ने अमिट स्याही के नुस्खे का पेटेंट करा लिया है, ताकि अन्य कंपनियां इसका उत्पादन न कर सकें।

अमिट स्याही के विकास का इतिहास लगभग सात दशकों का है। सात दशकों की इस छोटी-सी अवधि में कई महत्वपूर्ण अध्याय जुड़े हैं। 1940 के दशक में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर ने रसायन विज्ञानी डॉ. सलीमुज्जमान सिद्दीकी से अमिट स्याही तैयार करने के लिए कहा था। उन्होंने सिद्दीकी को सिल्वर क्लोराइड युक्त एक नमूना भेजा, जिसे लगाने के बहुत देर बाद त्वचा पर निशान पड़ता था। रसायनविद डॉ. सिद्दीकी ने इसमें सिल्वर ब्रोमाइड मिलाया, जिससे तत्काल निशान पड़ गया। डॉ. सिद्दीकी शुरुआत से ही एनपीएल में स्याही विकास इकाई से जुड़े थे। आगे चलकर डॉ. एम. एल. गोयल के नेतृत्व में अमिट स्याही का नुस्खा तैयार किया गया। उनके सहयोगी प्रतिष्ठित और समर्पित युवा रसायन विज्ञानी डॉ. जी. बी. माथुर, डॉ. वी. डी. पुरी आदि थे।

‘अमिट स्याही’ का मुख्य घटक सिल्वर नाइट्रेट है। यही रसायन स्याही के निशान को उभारता है। इसकी सांद्रता दस से लेकर पच्चीस प्रतिशत के बीच होती है। सिल्वर नाइट्रेट और त्वचा के प्रोटीन की अभिक्रिया से त्वचा पर गहरा निशान बन जाता है, जो कुछ दिनों तक नहीं छूटता। सिल्वर नाइट्रेट से त्वचा को जरा भी हानि नहीं होती। यह निशान तभी हटता है, जब नई कोशिकाएं पुरानी कोशिकाओं की जगह ले लेती हैं। स्याही चालीस सेकंड से कम समय में सूख जाती है। अमिट स्याही में कुछ रंजक भी होते हैं। यह स्याही रोशनी के प्रति संवेदनशील होती है, अत: इसे रंगीन शीशियों में रखा जाता है।

निर्वाचन आयोग को सौंपने के पहले अमिट स्याही का कई बार परीक्षण किया जाता है। निर्वाचन आयोग चुनाव प्रक्रिया के दौरान ‘रेंडम सेम्पल’ लेकर परीक्षण के लिए एनपीएल के पास भेजता है जो प्रत्येक परीक्षण के बाद निर्वाचन आयोग को नियमित रिपोर्ट भेजती है।

बैंगनी रंग की अमिट स्याही को मतदाता के बाएं हाथ की तर्जनी पर लगाया जाता है। मतदान की अवधि में स्याही सूखने का पर्याप्त समय मिल जाता है। इसे साबुन, तेल, डिटरजेंट अथवा रसायनों से मिटाया नहीं जा सकता। कुछ दिनों बाद यह अपने आप मिट जाती है।

एक बात और। एनपीएल को आज भी अमिट स्याही की रॉयल्टी मिलती है।

वर्ष 1962 में विकसित अमिट स्याही का मूल नुस्खा छह दशकों बाद भी नहीं बदला है। साल 2001 में एनपीएल के निदेशक प्रोफेसर कृष्ण लाल ने अमिट स्याही के नुस्खे को बेहतर बनाने का प्रस्ताव रखा था। इसका उद्देश्य मूल स्याही से पानी को हटाना था, ताकि यह जल्दी सूख सके। सूखने की प्रक्रिया को बेहतर करने के लिए अनुसंधानकर्ताओं की एक टीम ने बिना पानी का एक ऐसा मिश्रण तैयार किया, जो पहले मिश्रण की तुलना में जल्दी सूख तो जाता था, लेकिन रंग बहुत समय तक बना रहता था।

पिछले वर्षों में अमिट स्याही के उपयोग का विस्तार हुआ है। 2016 में इसका उपयोग नोटबंदी के संदर्भ में हुआ था।

तर्जनी उंगली पर अमिट स्याही का निशान लगाना संवैधानिक ज़रूरत है। सवाल यह है कि निशान कहां पर लगाया जाए? इस बारे में परिवर्तन हुए हैं। शुरुआत में अमिट स्याही का निशान तर्जनी के मूल में बिंदु के रूप में लगाया जाता था। वर्ष 1962 में यह निशान नाखून की जड़ के ऊपर लगाया जाता था। साल 2006 से इस निशान को बड़ा करके नाखून के ऊपर के सिरे से तर्जनी अंगुली के जोड़ के नीचे तक लगाया जाता है। इसने अब एक छोटी-सी लकीर का रूप ले लिया है।

स्वतंत्रता के पहले अमिट स्याही के मामले में देश निर्यात पर निर्भर था। लेकिन आज हम इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो चुके हैं। यही नहीं भारत 25 देशों को अमिट स्याही का निर्यात भी कर रहा है। अमिट स्याही का उपयोग लोकसभा, विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकायों के चुनावों में हो रहा है। सारांश में कहा जा सकता है कि अमिट स्याही का नुस्खा अपने ही देश में बनाना और उत्पादन करना लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के साथ ही हमारे देश के वैज्ञानिकों की ऐतिहासिक भूमिका और प्रतिभा को आम मतदाताओं के सामने प्रदर्शित करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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