अमेरिका की जलवायु समझौते से हटने की तैयारी

मेरिका ने विगत 4 नवंबर को पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने की औपचारिक कार्यवाही शुरू कर दी है। पेरिस समझौता बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास में साल 2015 में हुआ था और इसमें दुनिया के 197 देश शामिल हैं। वैसे साल 2017 से ही अमेरिका का इरादा इस समझौते से बाहर निकलने का था। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अनुसार पेरिस जलवायु समझौते में बने रहने से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा।

पेरिस जलवायु समझौते पर अमेरिका के निर्णय की घोषणा करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री माइकल पोम्पियो ने कहा कि साल 2005 से 2017 के बीच अमेरिका की अर्थव्यस्था में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 13 प्रतिशत की कमी आई थी।

वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने अमेरिका द्वारा लिए गए इस फैसले की अलोचना की है। कैम्ब्रिज के यूनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट समूह के एल्डन मेयर का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रम्प का पेरिस समझौते से बाहर निकलने का फैसला गैर-ज़िम्मेदाराना और अदूरदर्शी है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के एंड्रयू लाइट का कहना है कि पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने पर अमेरिका के राजनैतिक और आर्थिक रुतबे पर असर पड़ेगा, क्योंकि अन्य देश कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।

पेरिस समझौते के नियमानुसार 4 नवंबर 2019 इस समझौते से बाहर निकलने के लिए आवेदन करने की सबसे पहली तारीख थी। और आवेदन के बाद भी वह देश एक साल तक सदस्य बना रहेगा। अर्थात अमेरिका इस समझौते से औपचारिक तौर पर 4 नवंबर 2020 को बाहर निकल सकेगा।

वैसे अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जलवायु परिवर्तन की समस्या को संजीदगी से ले रहे हैं। तो यदि इनमें से कोई उम्मीदवार अगला चुनाव जीतता है तो आशा है कि जनवरी 2021 में पदभार संभालने के बाद वे वापस इस निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे। पेरिस जलवायु समझौता छोड़ चुके देश, पुन: शामिल होने के अपने इरादे के बारे में राष्ट्र संघ जलवायु परिवर्तन संधि कार्यालय को सूचित करने के 30 दिन बाद इस समझौते में पुन: शामिल हो सकते हैं।

 यदि ट्रम्प दोबारा नहीं चुने गए तो सरकार द्वारा यह फैसला बदलने की उम्मीद है। और यदि ट्रम्प वापस आते हैं तो वहां के शहरों, राज्यों और कारोबारियों पर निर्भर है कि वे जलवायु परिवर्तन के मामले में अपना रुख तय करें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरण बचाने के लिए एक छात्रा की मुहिम – जाहिद खान

16 साल की स्वीडिश पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा अर्नमैन थनबर्ग का नाम आजकल पूरी दुनिया में चर्चा में है। वजह पर्यावरण को लेकर उसकी विश्वव्यापी मुहिम है। अच्छी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए ग्रेटा ने जो आंदोलन छेड़ रखा है, उसे अब व्यापक जनसमर्थन मिल रहा है। पर्यावरण बचाने के इस आंदोलन में लोग जुड़ते जा रहे हैं। खास तौर से यह आंदोलन बच्चों और नौजवानों को खूब आकर्षित कर रहा है।

बीते 20 सितंबर को शुक्रवार के दिन दुनिया भर में लाखों स्कूली बच्चों ने जलवायु संकट की चुनौतियों से निपटने के कदम उठाने का आह्वान करते हुए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में उनके साथ बड़े लोग भी शामिल हुए। ग्रेटा की इस मुहिम का असर दुनिया भर में इतना हुआ है कि अमेरिका में न्यूयार्क के स्कूलों ने अपने यहां के 11 लाख बच्चों को खुद ही शुक्रवार की छुट्टी दे दी ताकि वे ‘वैश्विक जलवायु हड़ताल’ में शामिल हो सकें। ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में करीब 1 लाख लोग इस मुहिम से जुड़े। भारत में भी कई बड़े शहरों के अलावा राजधानी दिल्ली में स्कूली बच्चों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर लोगों का ध्यान इस समस्या की ओर दिलाया।

पर्यावरण के प्रति ग्रेटा थनबर्ग में संवेदनशीलता और प्यार शुरू से ही था। महज नौ साल की उम्र में, जब वह तीसरी क्लास में पढ़ रही थी, उसने जलवायु सम्बंधी गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। लेकिन ग्रेटा की ओर सबका ध्यान उस वक्त गया, जब उसने पिछले साल अगस्त में अकेले ही स्वीडिश संसद के बाहर पर्यावरण को बचाने के लिए हड़ताल का आगाज़ किया। ग्रेटा की मांग थी कि स्वीडन सरकार पेरिस समझौते के मुताबिक अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन कम करे। ग्रेटा ने अपने दोस्तों और स्कूल वालों से भी इस हड़ताल में शामिल होने की अपील की, लेकिन सभी ने इन्कार कर दिया। यहां तक कि ग्रेटा के माता-पिता भी पहले इस मुहिम के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं थे। उन्होंने अपनी तरफ से ग्रेटा को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह नहीं रुकी। ग्रेटा ने पहले ‘स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट मूवमेंट’ की स्थापना की। खुद अपने हाथ से बैनर पैंट किया और स्वीडन की सड़कों पर घूमने लगी। उसके बुलंद हौसले का ही नतीजा था कि लोग जुड़ते गए, कारवां बनता गया।

ग्रेटा थनबर्ग का यह आंदोलन बच्चों में इतना कामयाब रहा कि आज आलम यह है कि पर्यावरण बचाने के इस महान आंदोलन में लाखों विद्यार्थी शामिल हो गए हैं। इसी साल 15 मार्च के दिन, दुनिया के कई शहरों में विद्यार्थियों ने एक साथ पर्यावरण सम्बंधी प्रदर्शनों में भाग लिया और भविष्य में भी प्रत्येक शुक्रवार को ऐसा करने का फैसला किया है। अपने इस अभियान को उसने ‘फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर’ (भविष्य के लिए शुक्रवार) नाम दिया है। शुक्रवार के दिन बच्चे स्कूल जाने की बजाय सड़कों पर उतरकर अपना विरोध दर्ज करते हैं ताकि दुनिया भर के नेताओं, नीति निर्माताओं का ध्यान पर्यावरणीय संकट की तरफ जाए, वे इसके प्रति संजीदा हों और पर्यावरण बचाने के लिए अपने-अपने यहां व्यापक कदम उठाएं। ज़ाहिर है, यह एक ऐसी मुहिम है जिसका सभी को समर्थन करना चाहिए। क्योंकि यदि दुनिया नहीं बचेगी, तो लोग भी नहीं बचेंगे। अपनी इस मुहिम से ग्रेटा ने जो सवाल उठाए हैं और वे जिस अंदाज़ में बात करती हैं, उसका लोगों पर काफी असर होता है। वे अपने भाषणों में बड़ी-बड़ी बातें नहीं कहतीं, छोटी-छोटी बातों और मिसालों से उन्हें समझाती हैं। मसलन “हमारे पास कोई प्लेनेट-बी यानी दूसरा ग्रह नहीं है, जहां जाकर इंसान बस जाएं। लिहाज़ा हमें हर हाल में धरती को बचाना होगा।’’

पर्यावरण बचाने की ग्रेटा थनबर्ग की यह बेमिसाल मुहिम अब स्कूल की चारदीवारी, बल्कि देश की सरहदों से भी बाहर फैल चुकी है। स्टॉकहोम, हेलसिंकी, ब्रसेल्स और लंदन समेत दुनिया के कई देशों में जाकर ग्रेटा ने अलग-अलग मंचों पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवाज़ उठाई है। दावोस में विश्व आर्थिक मंच के एक सत्र को भी ग्रेटा ने संबोधित किया। यही नहीं, पिछले साल दिसंबर में पोलैंड के काटोवाइस में आयोजित, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की 24वीं बैठक में उसने पर्यावरण पर ज़बर्दस्त भाषण दिया था।

इस मुहिम का असर आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, दिखने लगा है। आम लोगों से लेकर सियासी लीडर तक ग्रेटा की इन चिंताओं में शरीक होने लगे हैं। ग्रेटा से ही प्रभावित होकर दुनिया भर के तकरीबन 2000 स्थानों पर पर्यावरण को बचाने के लिए प्रदर्शन हो रहे हैं। अपना कामकाज छोड़कर, लोग सड़कों पर निकल रहे हैं। ब्रिटेन में पिछले दिनों लाखों लोगों ने ग्रेटा थनबर्ग के साथ सड़कों पर इस मांग के साथ प्रदर्शन किया कि देश में जलवायु आपात काल लगाया जाए। इस प्रदर्शन का नतीजा यह रहा कि ब्रिटेन की संसद को देश में जलवायु आपात काल घोषित करने का फैसला करना पड़ा। ब्रिटेन ऐसा अनूठा और ऐतिहासिक कदम उठाने वाला पहला देश बन गया।

ग्रेटा अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए सिर्फ उनके बीच ही नहीं जाती, बल्कि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का भी जमकर इस्तेमाल करती है। उसे मालूम है कि आज का युवा अपना सबसे ज़्यादा वक्त इस माध्यम पर बिताता है।

ग्रेटा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी एक वीडियो संदेश भेजा था। इसमें गुज़ारिश की थी कि वे पर्यावरण बचाने और जलवायु परिवर्तन के संकटों से उबरने के लिए अपने देश में गंभीर कदम उठाएं।

पर्यावरण बचाने की अपनी इस मुहिम से ग्रेटा थनबर्ग का नाता सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि वह अपने व्यवहार से कोशिश करती हैं कि खुद भी इस पर अमल करें। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु शिखर वार्ता में प्रमुख वक्ता के रूप में शामिल होने के लिए स्वीडन से न्यूयॉर्क की लंबी यात्रा ग्रेटा ने यॉट (नौका) में सफर कर पूरी की ताकि वह अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन रोक सकें। ये छोटी-छोटी बातें बतलाती हैं कि यदि हम जागरूक रहेंगे, तो पर्यावरण बचाने में अपना योगदान दे सकते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए ग्रेटा थनबर्ग को इतनी कम उम्र में ही कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के ‘एम्बेसडर ऑफ कॉन्शिएंस अवॉर्ड, 2019’ के अलावा दुनिया की प्रतिष्ठित टाइम मैगज़ीन ने ग्रेटा को साल 2018 के 25 सबसे प्रभावशाली किशोरों की सूची में शामिल किया। यही नहीं, तीन नॉर्वेजियन सांसदों ने पिछले दिनों ग्रेटा को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया था।

इस समय पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकट से जूझ रही है। यूएन की एक रिपोर्ट बतलाती है कि दुनिया भर के 10 में से 9 लोग ज़हरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। हर साल 70 लाख मौतें वायु प्रदूषण की वजह से होती हैं। इनमें से 40 लाख एशिया के होते हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले खराब मौसम की वजह से हमारे देश में हर साल 3660 लोगों की मौत हो जाती है। लैंसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के चलते 153 अरब कामकाजी घंटे बर्बाद हुए हैं जिसके चलते उत्पादकता में भी भारी कमी आई है और पूरी दुनिया को 326 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचा है। इसमें 160 अरब डॉलर का नुकसान तो सिर्फ भारत को ही हुआ है।

पर्यावरणविदों का मत है कि अगर समय रहते कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयास नहीं किए गए, तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा सभी देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। इस गंभीर चुनौती से तभी निपटा जा सकता है, जब सभी, खास तौर से नई पीढ़ी इसके प्रति जागरूक हों और पर्यावरण बचाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करें। अपनी ज़िम्मेदारियों को खुद समझे और दूसरों को भी समझाए। जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही दुनिया के सामने, अपने जागरूकता अभियान से ग्रेटा थनबर्ग ने एक शानदार मिसाल पेश की है। दुनिया को बतलाया है कि अभी भी ज़्यादा वक्त नहीं बीता है, संभल जाएं। वरना पछताने के लिए कोई नहीं बचेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य सम्बंधी अध्ययन प्रकाशित करने पर सज़ा

हाल ही में इस्तांबुल की एक अदालत ने एक तुर्की वैज्ञानिक बुलंद शेख को 15 महीने जेल में बिताने की सज़ा इसलिए सुनाई क्योंकि उन्होंने पर्यावरण व स्वास्थ्य सम्बंधी एक अध्ययन के नतीजे अखबार में प्रकाशित किए थे।

दरअसल बुलंद शेख ने अप्रैल 2018 में एक तुर्की अखबार जम्हूरियत में एक स्वास्थ्य सम्बंधी अध्ययन के नतीजे प्रकाशित किए थे, जो वहां के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा करवाया गया था। इस अध्ययन में वे यह देखना चाहते थे पश्चिमी तुर्की में बढ़ते कैंसर के मामलों और मिट्टी,पानी और खाद्य के विषैलेपन के बीच क्या सम्बंध है। अकदेनिज़ युनिवर्सिटी के खाद्य सुरक्षा और कृषि अनुसंधान केंद्र के पूर्व उप-निदेशक बुलंद शेख भी इस अध्ययन में शामिल थे। पांच साल चले इस अध्ययन में शेख और उनके साथियों ने पाया कि पश्चिमी तुर्की के कई इलाकों के पानी और खाद्य नमूनों में हानिकारक स्तर पर कीटनाशक, भारी धातुएं और पॉलीसायक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन मौजूद हैं। कुछ रिहायशी इलाकों का पानी एल्युमीनियम, सीसा, क्रोम और आर्सेनिक युक्त होने का कारण पीने लायक भी नहीं है।

2015 में अध्ययन पूरा होने के बाद शेख ने एक मीटिंग के दौरान सरकारी अफसरों से इन नतीजों पर ज़रूरी कार्रवाई करने की बात की। 3 साल बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने यह अध्ययन अखबार में चार लेखों की शृंखला के रूप में प्रकाशित किया।

इस मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय की आपत्ति इस बात पर नहीं थी कि प्रकाशित अध्ययन सही है या नहीं, बल्कि उनकी आपत्ति इस बात पर थी कि यह जानकारी गोपनीय है कि लोगों के स्वास्थ्य पर खतरा है।

बुलंद शेख के वकील कैन अतले ने अपनी दलीलें पूरी करते हुए कहा था कि शेख ने एक नागरिक और एक वैज्ञानिक होने के नाते अपना फर्ज़ निभाया है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग किया है।

तुर्की नियम के मुताबिक शेख यदि किए गए अध्ययन के प्रकाशन पर खेद व्यक्त करते तो उन्हें जेल की सज़ा ना देकर पद से निलंबित भर किया जा सकता था, लेकिन शेख ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया।

शेख के मुताबिक शोध से प्राप्त डैटा छिपाने से समस्या के हल को लेकर हो सकने वाली एक अच्छी चर्चा बाधित होती है। उन्होंने अपने बयान में कहा कि मेरे लेखों का उद्देश्य जनता को उनके स्वास्थ्य पर किए गए अध्ययन के नतीजों से वाकिफ कराना था, जिन्हें गुप्त रखा गया था और उन अधिकारियों को उकसाना था जिन्हें इस समस्या को हल करने के लिए कदम उठाने चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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प्लास्टिक का प्रोटीन विकल्प

गभग एक सदी पहले आविष्कृत प्लास्टिक अत्यंत उपयोगी पदार्थ साबित हुआ है। वज़न में हल्का होने के बावजूद भी यह अत्यधिक लचीला और सख्त हो सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि यह लगभग अनश्वर है। और यही अनश्वरता इसकी समस्या बन गई है।

हर वर्ष दुनिया में 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। इसमें से अधिक से अधिक 10 प्रतिशत का रीसायक्लिंग होता है। बाकी कचरे के रूप में जमा होता रहता है। एक अनुमान के मुताबिक हम 6.3 अरब टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न कर चुके हैं। आज के रुझान को देखते हुए लगता है कि वर्ष 2050 तक पर्यावरण में 12 अरब टन प्लास्टिक कचरा मौजूद होगा।

एक ओर तो प्लास्टिक का उपयोग कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर प्लास्टिक रीयाक्लिंग को बढ़ावा देने के प्रयास चल रहे हैं। इसी बीच नए किस्म का प्लास्टिक बनाने पर भी अनुसंधान चल रहा है जो लचीला व सख्त तो हो लेकिन प्रकृति में इसका विघटन हो सके।

इस संदर्भ में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ग्रेग कियाओ का प्रयास है कि अमीनो अम्लों के पोलीमर बनाए जाएं जिनमें प्लास्टिक की खूबियां हों। जीव-जंतु, पेड़-पौधे अमीनो अम्लों को जोड़-जोड़कर पेप्टाइड और प्रोटीन तो बनाते ही हैं। और प्रकृति में ऐसे कई एंज़ाइम मौजूद हैं जो इन प्रोटीन अणुओं को तोड़ भी सकते हैं। कियाओ के मुताबिक प्रोटीन प्लास्टिक का सही विकल्प हो सकता है।

उनकी प्रयोगशाला में ऐसे प्रोटीन बनाए जा चुके हैं जो काफी लचीले व सख्त हैं, जिनके रेशे बनाए जा सकते हैं, चादरें बनाई जा सकती हैं। ये वाटरप्रूफ हैं और अम्ल वगैरह का सामना कर सकते हैं।

जहां प्रकृति में प्रोटीन नुमा पोलीमर बनाने का काम एंज़ाइमों की उपस्थिति में होता है वहीं कियाओ की टीम इसी काम को रासायनिक विधि से करने में लगी हुई है। यदि वे सही किस्म के अमीनो अम्ल पोलीमर (यानी पेप्टाइड) बनाने में सफल रहे तो यह एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। मगर इसमें एक दिक्कत आएगी। प्लास्टिक उत्पादन के लिए कच्चा माल तो पेट्रोलियम व अन्य जीवाश्म र्इंधनों से प्राप्त हो जाता है। मगर प्रोटीन-प्लास्टिक का कच्चा माल कहां से आएगा? यह संभवत: पेड़-पौधों से प्राप्त होगा। पहले ही हम फसलों का इस्तेमाल जैव-र्इंधन बनाने में कर रहे हैं। यदि प्लास्टिक भी उन्हीं से बनना है तो खाद्यान्न की कीमतों पर भारी असर पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)
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अमेज़न में लगी आग जंगल काटने का नतीजा है

ब्राज़ील में अमेज़न के वर्षा वनों में भयानक आग लगी हुई है, धुएं के स्तंभ उठते दिख रहे हैं। जहां सरकारी प्रवक्ता का कहना है कि इस साल जंगलों में लगी इस भीषण आग का कारण सूखा मौसम, हवाएं और गर्मी है, वहीं ब्रााज़ील व अन्य देशों के वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि आग का प्रमुख कारण जंगल कटाई की गतिविधियों में हुई वृद्धि है।

साओ पौलो विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय भौतिक शास्त्री पौलो आर्टक्सो का कहना है कि आग के फैलाव का पैटर्न जंगल कटाई से जुड़ा नज़र आता है। सबसे ज़्यादा आग कृषि क्षेत्र से सटे क्षेत्रों में लगी दिख रही है। ब्राज़ील के नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च ने अब ब्रााज़ील के अमेज़न में 41,000 अग्नि स्थल पता किए हैं। पिछले वर्ष इसी अवधि में 22,000 ऐसे स्थल पहचाने गए थे। यही स्थिति कैलिफोर्निया स्थित ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस प्रोजेक्ट ने भी रिकॉर्ड की है। वैसे दोनों एजेंसियों के पास आंकड़ों का रुाोत एक ही है मगर विश्लेषण के तरीकों में अंतर के कारण ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस ने कुछ अधिक ऐसे स्थलों की गिनती है जहां आग लगी हुई है।

इस वर्ष अग्नि स्थलों की संख्या 2010 के बाद सबसे अधिक है। लेकिन 2010 में एल निनो तथा अटलांटिक के गर्म होने की वजह से भीषण सूखा पड़ा था जिसे दावानलों के लिए दोषी ठहराया गया था। मगर इस वर्ष सूखा ज़्यादा नहीं पड़ा है। गैर सरकारी संगठन अमेज़न एन्वायर्मेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट के पौलो मूटिन्हो का मत है कि इस साल जंगल की आग में सबसे बड़ा योगदान निर्वनीकरण का है। उनका कहना है कि जिन 10 नगर पालिकाओं में सबसे ज़्यादा दावानल की घटनाएं हुई हैं, वे वही हैं जहां इस वर्ष सबसे अधिक जंगल कटाई रिकॉर्ड की गई है। ये 10 नगरपालिकाएं बहुत बड़ी-बड़ी हैं, कुछ तो छोटे-मोटे युरोपीय देशों से भी बड़ी हैं। आम तौर किया यह जाता है कि जंगल की किसी पट्टी को साफ करने के बाद वहां आग लगा दी जाती है ताकि झाड़-झंखाड़ जल जाएं। परिणास्वरूप जो आग लगती है उसे बुझने में महीनों लग जाते हैं। आग बुझने के बाद इस पट्टी को चारागाह अथवा कृषि भूमि में तबदील कर दिया जाता है।

कई लोगों का मानना है कि ब्रााज़ील में जंगल कटाई की गतिविधियों में वृद्धि का प्रमुख कारण नव निर्वाचित राष्ट्रपति जायर बोलसोनेरो की नीतियां हैं। इन नीतियों में विकास के नाम पर पर्यावरण की बलि देना शामिल है। ब्राज़ील के एक पर्यावरणविद कार्लोस पेरेस के मुताबिक उन्होंने “अपने जीवन में ऐसा पर्यावरण-विरोधी माहौल नहीं देखा है।” (स्रोत फीचर्स)

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पहले की तुलना में धरती तेज़ी से गर्म हो रही है

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक हालिया शोध के अनुसार पिछले 2000 वर्षों में पृथ्वी के गर्म होने की गति इतनी तेज़ कभी नहीं रही जितनी आज है। यह अध्ययन युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. बेन्जमिल हेनले और युनिवर्सिटी ऑफ बर्न के डॉ. राफेल न्यूकोम ने संयुक्त रूप से किया है।

दरअसल, यह अध्ययन पहले माइकल मान, रेमंड ब्रोडले और मालकोम ह्रूजेस द्वारा 1999 में किए गए अध्ययन को आगे बढ़ाता है जिसमें उन पुरा-जलवायु वेत्ताओं ने यह बताया था कि बीसवीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में गर्मी जिस तेज़ी से बढ़ी है वैसी पिछले 1000 वर्षों में नहीं देखी गई थी। हज़ारों साल पहले की जलवायु के बारे में अनुमान हम प्राय: प्रकृति में छूटे चिंहों की मदद से लगाते हैं क्योंकि उस ज़माने में आधुनिक टेक्नॉलॉजी तो थी नहीं।

अतीत की जलवाय़ु के बारे में सुराग देने के लिए पुरा-जलवायु वेत्ता कोरल (मूंगा चट्टानों), बर्फ के अंदरूनी हिस्से, पेड़ों में बनने वाली वार्षिक वलयों, झीलों और समुद्रों में जमी तलछट वगैरह का सहारा लेते हैं। इनसे प्राप्त परोक्ष आंकड़ों का उपयोग करके वैज्ञानिक अथक मेहनत करके अतीत की जलवायु की तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं। वर्तमान शोध पत्र की विशेषता यह है कि इसमें सात अलग-अलग तरह की विधियों से विश्लेषण करने पर एक समान नतीजे प्राप्त हुए। अत: इनके सच्चाई के करीब होने की ज़्यादा संभावना है।

हेनले और न्यूकोम ने इस विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व वै·िाक तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव का मुख्य कारण ज्वालामुखी के विस्फोट से निकलने वाली धूल आदि थे। सूर्य से आने वाली गर्मी से इनका कोई सम्बंध नहीं था। अर्थात मानवीय गतिविधियों के ज़ोर पकड़ने से पहले ज्वालामुखी ही जलवायु के प्रमुख नियंत्रक थे। वे यह भी अंदाज़ा लगा पाए कि पिछले 2000 वर्षों में गर्मी और ठंड की रफ्तार क्या रही है। उनका निष्कर्ष है कि धरती के गर्म होने की रफ्तार पहले कभी आज जैसी नहीं रही। इसका सीधा-सा मतलब है कि वर्तमान तपन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही है। (स्रोत फीचर्स)

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शहरों का पर्यावरण भी काफी समृद्ध है – हरिनी नागेन्द्र, सीमा मुंडोली

म बहुत मुश्किल दौर में जी रहे हैं; इंटरगवरमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की विशेष रिपोर्ट ने चेताया है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से वर्ष 2030 से 2052 के बीच तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी, जो मानव और प्रकृति को खतरे में डाल सकती है। इंटरगवरमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विस (IPBES) ने 2019 की ग्लोबल असेसमेंट रिपोर्ट में बताया है कि इसकी वजह से करीब 10 लाख जंतु और वनस्पति प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति का करीबी सम्बंध दुनिया में कई क्षेत्रों मे तेज़ी से हो रहे शहरीकरण से है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 2050 तक शहरों में 41.6 करोड़ नए निवासी जुड़ जाएंगे और देश की शहरी आबादी कुल आबादी का 50 प्रतिशत तक हो जाएगी। सतत विकास लक्ष्यों में लक्ष्य क्रमांक 11 टिकाऊ शहरों और समुदायों के विकास पर केंद्रित है। इस लक्ष्य को अमल में लाने पर हम जलवायु परिवर्तन और विलुप्ति के संकट में वृद्धि किए बिना ही, कुछ चुनौतियों को संबोधित करने और सतत विकास व आर्थिक वृद्धि को प्राप्त कर सकेंगे। लक्ष्य 11 के अंतर्गत पर्यावरण में शहरी पदचिन्हों को कम करना, हरियाली को सुलभ एवं समावेशी बनाना, और शहरों में प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा करना शामिल है।

भारतीय शहर, जैसे मुंबई, कोलकाता और चैन्नई जैव विविधता से रहित नहीं हैं। र्इंट, डामर और कांक्रीट से बने इन शहरों का विकास उपजाऊ तटीय मैंग्रोव और कछारों में हुआ था जो जैव विविधता से समृद्ध थे। कई भारतीय शहर उनके निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक हरे-भरे हैं; ये पेड़ वहां राजाओं और आम लोगों द्वारा लगाए गए होंगे। इन शहरों में समृद्ध वानस्पतिक विविधता है, जिसमें स्थानीय व बाहरी दोनों तरह के पेड़-पौधे हैं। इसके अलावा स्लेंडर लोरिस (मराठी में लाजवंती या तमिल में कुट्टी तेवांग), टोपीवाला बंदर या बोनेट मेकॉक, किस्म-किस्म के उभयचर, कीट, मकड़ियां और पक्षी भी पाए जाते हैं।

हम न केवल भारतीय शहरों की पारिस्थितिक विविधता से बल्कि इस बात से भी अनजान हैं कि शहरी क्षेत्रों की प्रकृति मानव स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। शहरी योजनाकार, आर्किटेक्ट्स और बिल्डर्स इमारतों व अन्य निर्माण कार्यों को ही डिज़ाइन करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। दूसरी ओर, परिस्थितिकीविद शहरों की जैव विविधता को अनदेखा करके केवल वनों और संरक्षित क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

शहरी जैव विविधता हमें भोजन, ऊर्जा, और जड़ी-बूटियां उपलब्ध कराती है, जो गरीब लोगों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। हमारे शहरों का न सिर्फ विस्तार हो रहा है बल्कि वे गैर-बराबरी के स्थल भी बनते जा रहे हैं। शहर की झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्र के प्रवासियों को बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है और जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए जूझना पड़ता है। यह ज़ोखिमग्रस्त आबादी र्इंधन, भोजन और दवाओं के लिए अक्सर पेड़ों पर निर्भर रहती है।

सहजन के पेड़ दक्षिण भारतीय झुग्गी बस्तियों में आम हैं। इनके फूल, पत्तियां और फलियां प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व मुफ्त प्रदान करते हैं। सड़क के किनारे लगे नीम और बरगद के पेड़ कई छोटी-मोटी बीमारियों से लड़ने में मदद करते है और दवाओं पर होने वाला खर्च बच जाता है।

ऐसे ही जामुन, आम, इमली और कटहल के पेड़ से भी हमें पोषक फल मिलते हैं, बच्चे इन पर चढ़ते और खेलते हैं जिससे उनकी कसरत और मनोरंजन भी हो जाता है। वही करंज के वृक्ष (पौंगेमिया पिन्नाटा) से लोग र्इंधन के लिए लकड़ी प्राप्त करते हैं और इसके बीज से तेल भी निकालते हैं।

हमारे जीवन में प्रकृति की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है जो इन भौतिक वस्तुओं से कहीं आगे जाती है। शहरों में रहने वाले बच्चे घर की चारदीवारी के अंदर रहकर ही अपनी आभासी दुनिया में बड़े होते हैं, जिससे उनके व्यवहार और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है। प्रकृति अतिसक्रियता और एकाग्रता की कमी के विकार से उभरने में बहुत मदद करती है, इससे बच्चों और उनके पालकों, दोनों को राहत मिलती है। नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर एक प्रकार का मानसिक विकार होता है जो प्रकृति से दूरी बनने से पैदा होता है।

पेड़, चाहे एक पेड़ हो, के करीब रहकर भी शहरी जीवन शैली की समस्या को कम कर सकते हैं। अध्ययन दर्शाते हैं कि प्रकृति की गोद में रहने से खुशहाली बढ़ती है, न सिर्फ बीमारियों से जल्दी उबरने में मदद मिलती है, बल्कि हम शांत, खुश, और तनावमुक्त रहते हैं। आजकल कई अस्पताल अपने आसपास हरियाली बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उनके मरीज़ों को जल्दी स्वस्थ होने में मदद मिले।

शहरी लोग कुछ विशेष प्रकार के पेड़ों से आजीवन रिश्ता बनाकर रखते हैं। यह उनकी बचपन की यादों की वजह से हो सकता है या सांस्कृतिक महत्व की वजह से भी। किसी पार्क या प्राकृतिक स्थान के नज़दीक रहने से जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं, जैसे मोटापे, डायबिटीज़ और ब्लड प्रेशर को कम करने में मदद मिलती है। पेड़ सामुदायिक सम्मेलन के लिए भी जगह उपलब्ध कराते हैं। खासकर भारत में आम तौर पर यह देखा जाता है कि शहरों में जब बैठक का आयोजन करना हो तब नीम और पीपल जैसे वृक्ष की छाया में चबूतरे पर बैठकर लोग बातें करते हैं। सड़क पर फल विक्रेताओं, बच्चों के लिए क्रिकेट खेलने और महिलाओं के लिए पेड़ों की छाया बैठकर गप्पे मारने की जगह बन जाती है। साथ ही साथ लोग दोपहर की तेज़ धूप में इन पेड़ों की छाया में बैठकर शतरंज और ताश के पत्तों का खेल खेलते और आराम फरमाते हैं। बुज़ुर्ग लोग पेड़ों की छाया में दोपहर की झपकी भी ले लेते हैं। उन शहरों में, जहां लोग अपने पड़ोसियों से भी मेलजोल नही रखते, वहां एक पेड़ भी मेल-मिलाप और सामूहिक क्रियाकलाप का स्थान बन जाता है।

वर्तमान में शहरों की बढ़ती हुई सुस्त जीवन शैली ऐसी है जो मोटापे, ब्लड प्रेशर और मानसिक तनाव जैसी कई समस्याओं को जन्म देती है। अध्ययनों से पता चलता है कि प्रकृति के पास रहकर मनुष्य कई परेशानियों से छुटकारा पा सकता है। कही-सुनी बातों के अलावा भारतीय परिप्रेक्ष्य में हमें इस बात की बहुत कम जानकारी है कि प्रकृति के करीब रहने से तनाव को दूर करने तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य व खुशहाली में कितनी मदद मिलती है।

पेड़ शहरी वातावरण में लगातार बढ़ रहे वायु प्रदूषण के खतरे को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे हवा और सड़क पर बिछे डामर को ठंडा रखते हैं जो लू के दौरान बहुत महत्वपूर्ण होता है। दोपहर की तपती गर्मी मे जी-तोड़ मेहनत करने वाले मज़दूर या गलियों मे घूमते फेरी वालों और घरेलू कामगारों के लिए इन पेड़ों का होना बहुत आवश्यक हो जाता है जो गर्मी के प्रभाव को कम करता है।

यह देखकर आश्चर्य होता है और नियोजन की कलई खुल जाती है कि दिल्ली और बैंगलुरु जैसे बड़े शहर एक तरफ तो बड़े राजमार्गों पर लगे हुए पेड़ों कि अंधाधुन्ध कटाई मे लगे हैं और दूसरी तरफ प्रदूषण को कम करने के लिए जगह-जगह स्मोक स्क्रबर टॉवर लगवा रहे हैं। हमें तत्काल इस बात को लेकर रिसर्च करने की आवश्यकता है कि कौन सी प्रजाति के पेड़ प्रदूषण प्रतिरोधी और ताप प्रतिरोधी हैं और भविष्य में शहरी योजनाओं के लिए आवश्यक है। इस एंथ्रोपोसीन युग में इस तरह का अनुसंधान ज़रूरी है क्योंकि इन तपते शहरी टापुओं और ग्लोबल वार्मिंग के मिले-जुले असर से पेड़ों की मृत्यु दर बढ़ने वाली है। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण शोध ‘पेड़ों के आपस में होने वाले संचार’ को लेकर हो रहा है। जिसमें हमें हाल के अध्ययनों से पता चला है कि पेड़ भी हवा में कुछ केमिकल छोड़कर और जमीन के नीचे फैले फफूंद मायसेलीया के नेटवर्क से जुड़कर आपस में संचार स्थापित करते हैं। वैज्ञानिकों ने इसे  “वुड वाइड वेब” का नाम दिया है। इस भूमिगत नेटवर्क के द्वारा समान और अलग-अलग प्रजाति के पेड़ आपस में संचार स्थापित करके एक दूसरे का सहयोग करते हैं। इससे वे कीटों के हमले से बचाव करते हैं, और भोजन का आदान-प्रदान भी करते हैं। शोध का विषय यह है कि जब ये पेड़ शहरों में एक ही पंक्ति में लगाए जाते हैं उस स्थिति में क्या इनका संचार तंत्र स्थापित हो पाता होगा, जहां जमीन पर डामर और कांक्रीट की परतें बिछी होती हैं?

वुड वाइड वेब पर ताज़ा रिसर्च से यह भी पता चला है कि मातृ वृक्ष ‘किसी जंगल या उपवन का सबसे पुराना पेड़’ आसपास के पेड़ों के लिए महत्वपूर्ण होता है। किसी जंगल में पास-पास के ये पेड़ परस्पर आनुवंशिक रूप से जुड़े होते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं जबकि मातृ वृक्ष एक क्रिटिकल सेंट्रल नोड का काम करता है। भारतीय शहरों में हम मान सकते हैं कि मातृ वृक्ष सबसे बड़े और पुराने पेड़ होंगे। लिहाज़ा इन पर सबसे अधिक खतरा है क्योंकि शहरी योजनाकार उन्हें ये कहकर कटवा देते हैं कि ये अति प्रौढ़ और वयस्क हो चुके हैं और लोगों और उनकी सम्पत्ति के लिए नुकसानदायक हैं।

अगर शहरी परिवेश से इन मातृ वृक्षों को हटा दिया जाए तो क्या परिणाम होंगे, और परस्पर सम्बद्ध नेटवर्क पर क्या असर होंगे? हमारे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है क्योंकि आज तक इस को लेकर कोई भी शोध या अध्ययन देश में नही हुआ है। हमें तो अंदाज़ भी नहीं है कि क्या भारतीय शहरों मे ऐसा कोई वृक्ष-संचार है भी या नहीं, वह कैसे काम करता है और करता भी है या नहीं।

उपरोक्त चर्चा दर्शाती है कि शहरी क्षेत्रों के पेड़ अनुसंधान के आकर्षक क्षेत्र उपलब्ध कराते हैं और जिसके लिए बढ़िया परिस्थितिकी रिसर्च स्टेशन की ज़रूरत है। भारत में ऐसे अनुसंधान की भारी कमी है चाहे वह पेड़ों को लेकर हो या फिर शहरी स्थायित्व को लेकर। वर्तमान में शहरी स्थायित्व पर 2008 से 2017 के बीच हुए 1000 शोधपत्रों में से सिर्फ 10 पेपर ही भारत से थे। यह दुखद है कि शहरी क्षेत्रों के प्रशासन सम्बंधी हमारा अधिकांश ज्ञान उन शोधो पर आधारित है जो यूएस, चीन और युरोप में किए गए हैं, जबकि इन देशों की परिस्थितिकी, पर्यावरण, विकास और संस्कृति भारतीय शहरों से सर्वथा भिन्न है। शहरी विकास के इन मॉडलों को हम जस-का-तस अपना नहीं सकते क्योंकि हमारे देश का राजनैतिक, आर्थिक, पारिस्थितिक, पर्यावरणीय और संस्थागत संदर्भ भिन्न है। लेकिन ये बात दुखद है कि हमारे अधिकतर शहरों का विकास इन्हीं तरीकों से किया जा रहा है।

शोध आवश्यक है लेकिन वह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। शहरी पारिस्थितिकी पर शोध कार्य को गति देने के साथ-साथ, भारतीय वैज्ञानिकों को चाहिए कि शहरी विकास के सम्बंध में वे शहर में रहने वाले लोगों के साथ संवाद करें। भारत में इसका एक रास्ता यह भी हो सकता है कि नागरिक विज्ञान में बढ़ती रुचि का इस्तेमाल किया जाए। सीज़न वॉच एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम है जिसमें लोग किसी एक पेड़ को चुनते हैं और इसमें साल भर में होने वाले बदलावों, जैसे फूलों और फलों का आना आदि का अध्ययन करते हैं। इस तरह वे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारी का संकलन तो करते ही हैं, साथ-साथ इस प्रकिया के तहत वे बच्चों और बड़ों को प्रकृति से जोड़ने का काम भी करते हैं। बैंगलुरु का शहरी स्लेंडर लॉरिस प्रोजेक्ट नागरिक विज्ञान का एक बेहतरीन उदाहरण है जो एक जोखिमग्रस्त दुर्लभ प्रायमेट प्रजाति पर केंद्रित है।

दुनिया भर में पेड़ों के बारे में लोकप्रिय किताबें लिखने का चलन फिर से उभरा है। जैसे डी. जे. हास्केल की दी सॉन्ग ऑफ ट्रीज़: स्टोरीस फ्रॉम नेचर्स ग्रेट कनेक्टर्स (पेंÏग्वन वाइकिंग 2017); पी. वोहलेबेन, दी हिडन लाइफ ऑफ ट्रीज़, व्हाट दे फील, हाऊ दे कम्युनिकेट: डिस्कवरीज़ फ्रॉम अ सीक्रेट वर्ल्ड, ग्रे स्टोन बुक्स, 2016)। हमें भी भारतीय जन, बच्चों और बड़ों के लिए संरक्षण, विलुप्ति और जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय व पारिस्थितिकी सम्बंधी विभिन्न विविध मुद्दों पर पुस्तकों की आवश्यकता है। इससे व्यक्ति, स्कूल, कॉलेज और समुदाय भी नागरिक विज्ञान और जन विज्ञान में सम्मिलित हो सकेंगे। जैसे एच. नगेंद्र और एस मंदोली लिखित सिटीज़ एंड केनॉपीज़; ट्रीज़ इन इंडियन सिटीज़ पेंग्विन रैंडम हाउस इंडिया, दिल्ली 2019)। शहरी पारिस्थितिकी पर सहयोगी अनुसंधान की भी आवश्यकता है ताकि हम यह समझ पाएं कि लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए अपने शहरों की पारिस्थितिक दृष्टि से डिज़ाइन कैसे करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न के जंगल बचाना धरती की रक्षा के लिए ज़रूरी – भारत डोगरा

व्यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। अत: जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274 भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।

इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अत: बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित किया गया है।

जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए।

इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।

उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं। वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।

इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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5जी शुरु होने से मौसम पूर्वानुमान पर असर

मरीका में जल्द ही शुरू होने वाली 5जी सेवाओं पर मौसम विज्ञानियों की चिंता है कि यदि आवंटित स्पेक्ट्रम पर 5जी सेवाएं शुरू हुर्इं तो मौसम सम्बंधी भविष्यवाणी का काम प्रभावित होगा।

मार्च 2019 में फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया गया था, जिसके बाद वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्ट्ज़ पर 5जी सेवाएं देना शुरु कर सकती हैं। 5जी शुरू होने के बाद सेवा की रफ्तार 100 गुना तक बढ़ जाएगी।

वहीं नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के प्रमुख नील जैकब्स की आशंका है कि 5जी का उपयोग मौसम पूर्वानुमान की सटीकता को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है। तब मौसम भविष्यवाणी की स्थिति वैसी हो जाएगी जैसे 1980 के दशक में हुआ करती थी। जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को 2-3 दिन देर से चेतावनी मिल पाएगी। विसकॉन्सिन मेडिसन युनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी जॉर्डन गर्थ का कहना है कि दरअसल वायुमंडल में जलवाष्प मौजूदगी बताने वाले संकेत 23.6 गीगा हर्ट्ज़ से 24 गीगा हर्टज़ के बीच काम करते हैं और 5जी नेटवर्क 24 गीगा हर्ट्ज़ पर शुरू होगा। तो 5जी से होने वाला प्रसारण इन सेंसरों को आसानी से प्रभावित कर सकता है जैसे कोई शोरगुल करने वाला पड़ोसी हो।

लेकिन सेल्युलर टेलीकम्युनिकेशन इंडस्ट्री संघ (CTIA) के उपाध्यक्ष ब्राड गिलेन का कहना है कि मौसम पूर्वानुमान पर 5जी के प्रभाव पर जो गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं वे गलत हैं। जो लोग 5जी के उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं वे यह सोच रहे हैं कि यह मौसम के बारे में अनुमान देने वाले सेंसर, कोनिकल माइक्रोवेव इमेजर साउंडर (CMIS) को प्रभावित करेगा। लेकिन तथ्य यह है कि इन्हें (CMIS) को 2006 में ही खारिज कर दिया गया था ये कभी इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं।

इस पर गर्थ का कहना है कि CMIS के उन्नत तकनीक के सेंसर (एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी माइक्रोवेव साउंडर, ATMS) मौसम पूर्वानुमान में उपयोग किए जाते हैं जो 23.8 गीगा हर्ट्ज़ पर काम करते हैं जो 5जी की सीमा के नज़दीक ही है। इस पर CTIA के निक ल्युडलम का कहना है कि CMIS की तुलना में ATMS सेंसर काफी छोटे हैं और उनकी रेंज सीमित है जिससे यह आसपास की स्पेक्ट्रम के प्रति कम संवेदी है।  

5जी के उपयोग के मसले पर मोबाइल कंपनियों और अमरीकी सरकार के बीच असहमति और बहस तो कई महीनों से चल रही है लेकिन यह उजागर कुछ समय पहले हुई है। लोग चाहते हैं कि 28 अक्टूबर को मिरुा में होने वाली वर्ल्ड कम्युनिकेशन कॉन्फ्रेंस के पहले इस मुद्दे पर चल रही बहस को सुलझा लिया जाए। 

वैसे यदि 5जी किसी अन्य स्पेक्ट्रम पर शुरू होता है तो वह भी नई बहस शुरू कर सकता है। गर्थ का कहना है कि 5जी के उपयोग पर विवाद तो 36-37 गीगा हर्ट्ज पर भी हो सकता है जिसका उपयोग बारिश और बर्फ गिरने के अनुमान के लिए किया जाता है या 50 गीगाहर्ट्ज़ पर भी हो सकता है जिस पर वायुमंडलीय तापमान का पता किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
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ओज़ोन परत पर एक और हमला – एस. अनंतनारायणन

मारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद ओज़ोन परत, सूरज से आने वाले पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी की रक्षा करती है। इस सुरक्षा कवच पर खतरा पैदा हुआ था, लेकिन मॉन्ट्रियल संधि के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की बदौलत इसे बचा लिया गया। संधि में इस बात को पहचाना गया था कि कुछ मानव निर्मित रसायन, मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन, ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस संधि ने इन पदार्थों के उपयोग और वायुमंडल में इनके उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक वैश्विक अभियान को गति दी थी।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उपयोग के मामले में मुख्य रूप से एयरोसोल स्प्रे, औद्योगिक विलायकों और शीतलक तरल पदार्थों को दोषी माना गया और इस अभियान का केंद्रीय मुद्दा उन्हें हटाना था। क्लोरोफॉर्म जैसे कुछ अन्य पदार्थ भी ओज़ोन परत को प्रभावित करते हैं, लेकिन ये बहुत तेज़ी से विघटित हो जाते हैं, इसलिए इन्हें संधि में शामिल नहीं किया गया था। यह संधि काफी सफल रही और उम्मीद की गई थी कि अंटार्कटिक के ऊपर बन रहा ‘ओज़ोन छिद्र’ 2050 तक खत्म हो जाएगा।

एमआईटी, कैलिफोर्निया और ब्रिस्टल विश्वविद्यालयों, दक्षिण कोरिया के क्युंगपुक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के दी क्लाइमेट साइंस सेंटर और एक्सेटर के दी मेट ऑफिस के वैज्ञानिकों के एक समूह ने नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में बताया है कि क्लोरोफॉर्म जैसे पदार्थों के स्तर में वृद्धि जारी है और इसके चलते ‘ओज़ोन छिद्र’ में हो रहे सुधार की गति धीमी पड़ सकती है।

ओज़ोन का ह्रास

ओज़ोन गैस ऑक्सीजन का ही एक रूप है जो वायुमंडल में काफी ऊंचाई पर बनती है। गैस की यह परत सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणों को सोखकर पृथ्वी की रक्षा करती है। ऑक्सीजन के परमाणु में बाहरी इलेक्ट्रॉन शेल अधूरा होता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन का परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ संयोजन करता है। ऑक्सीजन का अणु दो ऑक्सीजन परमाणुओं से मिलकर बनता है। ये दो परमाणु बाहरी शेल के इलेक्ट्रॉनों को साझा करके एक स्थिर इकाई बनाते हैं। वायुमंडल की ऊपरी परतों में पराबैंगनी प्रकाश के ऊर्जावान फोटोन ऑक्सीजन अणुओं को घटक परमाणुओं में विभक्त कर देते हैं। एक अकेला परमाणु उच्च ऊर्जा स्तर पर होता है और स्थिरता के लिए उसे बंधन बनाने की आवश्यकता होती है। वे अन्य ऑक्सीजन अणुओं के साथ बंधन बनाकर ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं वाला ओज़ोन का अणु बनाते हैं। ओज़ोन अणु फिर पराबैंगनी प्रकाश को अवशोषित करते हैं और एक ‘अकेला’ ऑक्सीजन परमाणु मुक्त करते हैं, जो फिर से ऑक्सीजन अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन बनाते हैं। और यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक अकेले परमाणुओं की संख्या कम नहीं हो जाती। ऐसा तब होता है, जब दो अकेले परमाणु ऑक्सीजन का अणु बना लेते हैं।

इस प्रकार से ओज़ोन निर्माण और विघटन की एक प्रक्रिया चलती है। यह शुरू होती है पराबैंगनी प्रकाश द्वारा ऑक्सीजन अणुओं के विभाजन के साथ। इस क्रिया में उत्पन्न अकेले ऑक्सीजन परमाणु ऑक्सीजन के अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन का निर्माण करते हैं। ओज़ोन में से एक बार फिर ऑक्सीजन परमाणु मुक्त होते हैं और ये ऑक्सीजन परमाणु आपस में जुड़कर ऑक्सीजन बना लेते हैं। इस तरह वायुमंडल में ऊंचाई पर ओज़ोन की मात्रा का एक संतुलन बना रहता है। यह ओज़ोन पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके और उसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से दूर रखने की प्रक्रिया जारी रखती है। सतह पर पराबैंगनी विकिरण जितना कम होगा उतना मनुष्यों और अन्य जंतुओं के लिए बेहतर है।

लेकिन ओज़ोन की इस संतुलित सुकूनदायक स्थिति में परिवर्तन तब आता है जब ओज़ोन को ऑक्सीजन में तोड़ने वाले पदार्थ ऊपरी वायुमंडल में पहुंच जाते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख हैं पानी के अणु का ऋणावेशित OH हिस्सा, नाइट्रिक ऑक्साइड का NO हिस्सा, मुक्त क्लोरीन या ब्रोमीन परमाणु। ये पदार्थ ओज़ोन से अतिरिक्त ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचने में सक्षम होते हैं और फिर ये ऑक्सीजन परमाणुओं को अन्य यौगिक बनाने के लिए छोड़ते हैं। इसके बाद ये पदार्थ अन्य ओज़ोन अणुओं से ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचते हैं और लंबे समय तक ऐसा करते रहते हैं। ऊंचाई पर इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्लोरीन है और एक क्लोरीन परमाणु 1,00,000 ओज़ोन अणुओं के साथ प्रतिक्रिया करते हुए दो साल तक सक्रिय रहता है।

ओज़ोन का विघटन करने वाले पदार्थों को वायुमंडल में भेजने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएं बहुत कम हैं। लेकिन फिर भी 1970 के दशक के बाद से ऊंचाइयों पर ओज़ोन परत में गंभीर क्षति देखी गई है। इसका कारण विभिन्न क्लोरोफ्लोरोकार्बन यौगिकों का वायुमंडल में छोड़ा जाना पहचाना गया था जिनका उपयोग उस समय उद्योगों में बढ़ने लगा था। ये यौगिक वाष्पशील होते हैं और वायुमंडल की ऊंचाइयों तक पहुंच जाते हैं और क्लोरीन के एकल परमाणु मुक्त करते हैं। ये क्लोरीन परमाणु ओज़ोन परत पर कहर बरपाते हैं।

पराबैंगनी विकिरण को सोखने वाली ओज़ोन परत हज़ारों सालों से ही मौजूद रही है और जीवन का विकास ओज़ोन की मौजूदगी में ही हुआ है। हो सकता है कि थोड़ा पराबैंगनी विकिरण जीवन की उत्पत्ति के लिए एक पूर्व शर्त रहा हो। लेकिन अब ओज़ोन की कमी और पराबैंगनी विकिरण में वृद्धि के गंभीर स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव हैं जिसका एक उदहारण त्वचा कैंसर की घटनाओं में वृद्धि में देखा जा सकता है। अंटार्कटिक के ऊपर के वायुमंडल में ओज़ोन में भारी कमी यानी ‘ओज़ोन छिद्र’ का पता लगने के परिणामस्वरूप मॉन्ट्रियल संधि अस्तित्व में आई और यह अनुमान लगाया गया कि सीएफसी उपयोग पर रोक लगाई जाए तो 2030 तक त्वचा कैंसर के 20 लाख मामलों को रोका जा सकेगा।

रुझान पलटा

जैसा कि हमने बताया, सीएफसी को ओज़ोन क्षति का मुख्य कारण माना गया था और इसलिए संधि में क्लोरोफॉर्म जैसे अन्य कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया। ऐसा माना गया था कि वे ‘अत्यंत अल्पजीवी पदार्थ’ (या वीएसएलएस) हैं और यह भी माना गया था कि ये मुख्य रूप से प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। फिर भी, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार निचले समताप मंडल में वीएसएलएस का स्तर बढ़ता जा रहा है। अध्ययन के अनुसार दक्षिण ध्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म का स्तर 1920 में 3.7 खरबवां हिस्सा था जो बढ़ते-बढ़ते 1990 में 6.5 खरबवें हिस्से तक पहुंचा और फिर इसमें गिरावट देखने को मिली। इसी अवधि में उत्तर घ्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म 5.7 खरबवें भाग से बढ़कर 17 खरबवें भाग तक बढ़ने के बाद इसमें कमी आई। गिरावट का यह रुझान 2010 तक अलग-अलग अवलोकन स्टेशनों पर जारी रहा। लेकिन एक बार फिर यह बढ़ना शुरू हो गया। 2015 तक के आकड़ों के अनुसार यह वृद्धि मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में हुई है। शोध पत्र के अनुसार इससे पता चलता है कि वायुमंडल में प्रवेश करने वाले क्लोरोफॉर्म का मुख्य स्रोत उत्तरी गोलार्ध में है।

ऑस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका और युरोप के पश्चिमी तट के स्टेशनों के अनुसार 2007-2015 के दौरान निकटवर्ती स्रोतों से उत्सर्जन के कारण क्लोरोफॉर्म स्तर में वृद्धि अधिक नहीं थी। दूसरी ओर, 2010-2015 के दौरान जापान और दक्षिण कोरिया के स्टेशनों पर काफी वृद्धि दर्ज की गई थी।

इस परिदृश्य का आकलन करने के लिए, शोधकर्ताओं ने संभावित स्रोतों से प्रेक्षण स्थलों तक क्लोरोफॉर्म के स्थानांतरण का पता करने के लिए मॉडल का उपयोग किया। इस अध्ययन से पता चला कि 2010 के बाद से पूर्वी चीन से उत्सर्जन में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया दूसरे स्थान पर हैं। अन्य पूर्वी एशियाई देशों से कोई महत्वपूर्ण वृद्धि देखने को नहीं मिली है। चीन में वृद्धि ऐसे क्षेत्रों में है जहां घनी आबादी के साथ-साथ औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफॉर्म गैस का उत्सर्जन करने वाले कारखाने हैं। शोध पत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि हवा में क्लोरोफॉर्म का एक बड़ा हिस्सा उद्योगों से आता है और क्लोरोफॉर्म के स्तर में वृद्धि मानव निर्मित है।

शोध पत्र के अनुसार क्लोरोफॉर्म जैसे अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों में वृद्धि का वर्तमान स्तर, ओज़ोन छिद्र के सुधार में कई वर्षों की देरी कर सकता है। नेचर जियोसाइंस में जर्मनी के जियोमर हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर फॉर ओशन रिसर्च के सुसैन टेग्टमीयर ने टिप्पणी की है कि “यह निष्कर्ष मानव-जनित अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों के उत्सर्जन का नियमन करने की चर्चा को शुरू करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।” (स्रोत फीचर्स)
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