उन्नीसवीं सदी की रिकार्डेड आवाज़ सुनी गई – ज़ुबैर

आजकल आवाज़/ऑडियो रिकॉर्ड करना और उसको दोबारा सुनना काफी आसान हो गया है। बस अपने सेलफोन में एक ऐप इंस्टाल कीजिए और मन चाहे तब आप कुछ भी रिकॉर्ड कीजिए और जब मन चाहे उसको सुन भी लीजिए। लेकिन क्या आवाज़ रिकॉर्ड करना और उसको बार-बार सुनना हमेशा से इतना आसान था या फिर काफी तकनीकी मशक्कत के बाद हम इस स्तर पर पहुंचे हैं।

ऑडियो रिकॉर्डिंग के इतिहास को देखा जाए तो इस क्षेत्र में सबसे पहला प्रयास थॉमस एडिसन ने किया था। उन्होंने 1877 में टिन की पन्नी के फोनोग्राफ का आविष्कार करके 1878 में इसे बेचना शुरू किया था। तो वे कौन से उपकरण और प्रणाली थी जिसकी मदद से सबसे पहली रिकार्डिंग की गई? सबसे पहले क्या रिकॉर्ड किया गया? और क्या सबसे पहली रिकार्डिंग अभी भी कहीं मौजूद है?

आज से कुछ साल पहले स्मिथसोनियन संग्रहालय से एक ऐसी टिन की पन्नी मिली जिसमें ऑडियो संग्रह था। अब समस्या थी कि इस टिन की पन्नी को चलाने के लिए वह उपकरण मौजूद नहीं था जिसकी मदद से इसको दोबारा सुना जा सके। और अगर ऐसा कोई उपकरण होता भी तो इस टिन पन्नी की हालत इतनी खराब थी कि अगर इसे चलाया जाता तो इसके बरबाद हो जाने की आशंका काफी अधिक थी।

इसी दौरान लॉरेंस बर्कले नेशनल लेबोरेटरी, कैलिफोर्निया में भौतिक विज्ञानी कार्ल हैबर और उनकी टीम पन्नी का त्रि-आयामी चित्र तैयार करने में कामयाब रहे। इसकी स्थलाकृति को ध्वनि में परिवर्तित करने के लिए गणितीय विश्लेषण और मॉडलिंग की तकनीकों का उपयोग किया गया। इससे यह पता चला कि यदि सुई उस पन्नी पर चलती तो किस प्रकार ध्वनि की ध्वनि पैदा होती। और यह सारा पन्नी को छुए बिना किया गया क्योंकि यह पन्नी इतनी पुरानी, नाज़ुक और टूटी-फूटी थी कि इसको आज के आधुनिक तरीकों से चलाना असंभव था।

पन्नी पर यह रिकॉर्डिंग मूलत: फोनोग्राफ द्वारा बनाई गई थी, जिसकी सुई पन्नी पर ऊपर-नीचे चलती थी जिससे ध्वनि तरंगों को रिकॉर्ड किया जाता था। इसमें एक सिलेंडर भी था जिसको हाथ से घुमाया जाता था। आवाज़ को दोबारा सुनने के लिए सुई उससे जुड़े पर्दे को कंपन प्रदान करती जिससे ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती। यह पर्दा लाउडस्पीकर से जुड़ा रहता था जिसके माध्यम से आवाज़ को सीधे या इयरफोन के माध्यम से सुना जा सकता था।

लेकिन कई बार उपयोग करने के बाद सुई पन्नी को चीरफाड़ देती, जिसके बाद लोग इन्हें कबाड़ी को बेच देते थे या स्मृति चिन्ह के रूप में भेंट कर देते थे। दरअसल यह पन्नी प्राचीन वस्तुएं संग्रह करने वाले एक व्यक्ति की पुत्री ने उपलब्ध कराई थी। कार्ल हैबर द्वारा इसको स्कैन और साफ करने के बाद भी रिकॉर्डिंग में जो शोरगुल सुनाई दे रहा है वह संभवत: पन्नी को मोड़कर रखने के कारण पड़ी सिलवटों के कारण है। इस रिकॉर्डिंग में एक व्यक्ति के हंसने की आवाज़ है और ‘मैरी हैड ए लिटिल लैम्ब’ और ‘ओल्ड मदर हबर्ड’ गीतों पाठ भी सुनाई दिया। माना जाता है कि यह पहली बार था जब 1878 में सेंट लुइस में थॉमस एडिसन के फोनोग्राफ द्वारा रिकॉर्ड की गई आवाज़ को न्यू यॉर्क स्थित जी. ई. थियेटर में सार्वजनिक रूप से सुनाया गया था।

कार्ल हैबर के पास वह उपकरण नहीं था जिससे इस आवाज़ को सुना जा सके लेकिन उन्होंने मॉडलिंग और सिमुलेशन पर आधारित एक तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसकी मदद से किसी भी प्रकार की रिकॉर्डिंग को दोबारा जीवंत किया जा सकता है। उनके अनुसार यह अमेरिका ही नहीं दुनिया में कहीं भी की गई सबसे पुरानी रिकॉर्डिंग है।

इस लेख में जिस रिकॉर्डिंग की चर्चा की गई है उसे इस लिंक पर जाकर सुना जा सकता है: https://www.theatlantic.com/technology/archive/2012/10/scientists-recover-the-sounds-of-19th-century-music-and-laughter-from-the-oldest-playable-american-recording/264147/

रिकॉर्डिग में लगता है कि स्वयं एडिसन की आवाज़ है लेकिन इसे लेकर विवाद है। स्मिथसोनियन संग्रहालय के निरीक्षक क्रिस हंटर का मानना है कि यह आवाज एक अखबारी व्यंग्य लेखक थॉमस मेसन की है, जो अपने उपनाम आई.एक्स. पेक (अंग्रेज़ी में ‘I expect’) का उपयोग करते थे। कहते हैं थॉमस एडिसन थोड़ा ऊंचा सुनते थे और उनका उच्चारण भी काफी अलग था। एडिसन की पहली रिकॉर्डिंग अब मौजूद नहीं है, और यदि मौजूद है भी तो कोई नहीं जानता कि कहां है।

इन पन्नियों में एडिसन की आवाज़ है या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन एक बात तो सच है कि रिकॉर्डिंग तकनीक ने जीवन के कई पहलुओं को आकार दिया है। रिकॉर्डेड ध्वनि ने संगीत उद्योग को जन्म दिया मगर साथ ही जनजातीय अनुसंधान, मैदानी रिकॉर्डिंग, पत्रकारिता के साक्षात्कार, ऐतिहासिक शोध में नई क्षमताएं पैदा कीं। इन सबकी शुरुआत की तलाश की जाए तो खोज एडिसन और उनकी पन्नियों पर जाकर खत्म होगी। एडिसन ने अपने इस आविष्कार की मदद से वास्तव में दुनिया को बदलकर रख दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी की प्राचीन चट्टान चांद पर मिली

पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में से एक चांद पर मिली है। अपोलो के अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा प्राप्त की गई एक विशाल चट्टान में 2 से.मी. की किरच धंसी हुई मिली है जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी अपनी धरती की 4 अरब वर्ष पुरानी चट्टान का टुकड़ा है। फ्लोरिडा स्टेट विश्वविद्यालय के खगोल-रसायनज्ञ मुनीर हुमायूं का कहना है कि यह अत्यंत चौंकाने वाला निष्कर्ष है मगर सत्य हो सकता है।

इस खोज के बाद हमें पृथ्वी के प्रारंभिक इतिहास और उस पर होने वाली आकाशीय ‘बमबारी’ के बारे नए ढंग से सोचने में मदद मिलेगी। चांद पर मिले इस पत्थर की जानकारी हाल ही में अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स में प्रकाशित हुई है। इस शोध में शामिल चंद्र-भूगर्भ विशेषज्ञ डेविड किं्रग का कहना है कि चट्टान के बनने के बाद एक उल्का की टक्कर के कारण वह अंतरिक्ष में बिखर गई होगी और चांद पर पहुंच गई होगी। गौरतलब है कि उस समय चांद पृथ्वी के बहुत निकट था – आज के मुकाबले एक-तिहाई दूरी पर ही था। किसी तरह से यह टुकड़ा चांद की किसी चट्टान में समाहित हो गया और अंतत: 1971 में अपोलो 14 के अंतरिक्ष यात्री इसे वापिस पृथ्वी पर ले आए। यह पहली बार है कि चांद से मिली किसी चट्टान को पृथ्वी की मूल निवासी बताया गया है।

दरअसल, कई वर्ष पहले क्रिंग और उनके साथियों को इसी तरह की चांद की चट्टान में उल्काओं के टुकड़े मिले थे। इस आधार पर ही वे वहां पृथ्वी के टुकड़ों की खोज कर रहे थे। उक्त चट्टान के खनिज का विश्लेषण करने पर उसकी उत्पत्ति का सुराग मिल गया। जैसे, चट्टान में उपस्थित युरेनियम तथा उसके विखंडन से बने तत्वों के विश्लेषण से चट्टान के निर्माण का समय पता चला और टाइटेनियम की मात्रा के आधार पर उस समय के तापमान और दबाव का अंदाज़ लग गया।

क्रिंग के मुताबिक इस विश्लेषण के परिणामों से स्पष्ट हो गया कि इस चट्टान का निर्माण ऐसे स्थान पर हुआ था जहां पानी प्रचुर मात्रा में मौजूद था। निर्माण के समय के तापमान और दबाव से संकेत मिलता था कि यह चट्टान या तो पृथ्वी पर 19 कि.मी. की गहराई पर अथवा चांद पर 170 कि.मी. की गहराई पर बनी होगी। चूंकि 170 कि.मी. की गहराई की बात अजीब लगती है, इसलिए ज़्यादा संभावना यही है कि इसकी उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई है।

यदि यह चट्टान वास्तव में पृथ्वी की है तो इसमें उस प्राचीन काल के सुराग मौजूद होंगे जिसे हैडियन कहते हैं। इसका यह भी मतलब होगा कि उस काल में पृथ्वी पर उल्काओं की ऐसी ज़ोरदार बारिश हुआ करती थी कि कोई टुकड़ा उछलकर चांद तक पहुंच सकता था। चांद से अलग-अलग यानों द्वारा कुल मिलाकर 382 कि.ग्रा. पत्थर लाए जा चुके हैं। ज़ाहिर है अब वैज्ञानिक इनकी छानबीन में जुट जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या चांद के चांद हो सकते हैं?

हाल ही में खगोल शास्त्रियों ने एक सैद्धांतिक संभावना व्यक्त की है कि ग्रहों के चक्कर काटने वाले चंद्रमाओं के भी चंद्रमा हो सकते हैं। उन्होंने ऐसा होने के लिए कुछ शर्तें भी बताई हैं। और यह बहस शुरू हो गई है कि इन आकाशीय पिंडों को नाम क्या देंगे।

पहले तो यह देख लीजिए कि चंद्रमा का मतलब क्या होता है। चंद्रमा उन आकाशीय पिंडों को कहते हैं जो किसी प्राकृतिक ग्रह (जैसे पृथ्वी, बृहस्पति वगैरह) के चक्कर काटते हों। ग्रह तो स्वयं सूर्य के चक्कर काटता है।

साइन्स एलर्ट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कार्नेजी इंस्टीट्यूशन की वेधशाला के खगोल शास्त्री जूना कोलमेयर और बोर्डो विश्वविद्यालय के खगोलविद सीन रेमंड ने ऐसे चंद्रमा के चंद्रमाओं की संभावना जताई है और इनके लिए उपचंद्रमा नाम प्रस्तावित किया है।

कोलमेयर और रेमंड ने अनुमान लगाने की कोशिश की है कि किस तरह चांद के अपने उप-चंद्रमा हो सकते हैं और इन उप-चंद्रमाओं और चंद्रमा का परस्पर सम्बंध क्या होगा। उनका कहना है कि सैद्धांतिक रूप से किसी चंद्रमा के उप-चंद्रमा तभी संभव हैं जब वह चंद्रमा स्वयं काफी विशाल हो और उप-चंद्रमा काफी छोटा हो।

इसे समझने के लिए हिल स्फीयर की अवधारणा को समझना होगा। हिल स्फीयर की अवधारणा अमेरिकी खगोल शास्त्री जॉर्ज विलियम हिल ने विकसित की थी। किसी भी ग्रह के आसपास के उस क्षेत्र को उसका हिल स्फीयर कहते हैं जहां ग्रह का गुरुत्वाकर्षण प्रमुख चालक शक्ति होता है। इसके बाहर सूर्य का गुरुत्वाकर्षण प्रमुख हो जाता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी के हिल स्फीयर की त्रिज्या 15 लाख कि.मी. है। यानी पृथ्वी के चारों ओर 15 लाख कि.मी. की दूरी तक पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण सबसे प्रभावी बल रहता है। किसी भी ग्रह का प्राकृतिक उपग्रह (चंद्रमा) इस हिल स्फीयर के अंदर ही रह सकता है। हमारा चांद पृथ्वी से पौने चार लाख कि.मी. दूर है यानी हिल स्फीयर के अंदर ही है। यदि किसी वजह से चांद इस हिल स्फीयर से बाहर निकल जाए तो वह पृथ्वी की परिक्रमा करने की बजाय सीधे सूर्य की परिक्रमा करने लगेगा और स्वयं एक ग्रह कहलाने का पात्र हो जाएगा। तुलना के लिए बृहस्पति का हिल स्फीयर लगभग साढ़े पांच करोड़ कि.मी. का है। यही वजह है कि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

अब अपने चांद पर विचार करें। उसका हिल स्फीयर उसके चारों ओर 60,000 कि.मी. की दूरी तक फैला है। तो हमारे चांद को यदि किसी चंद्रमा से स्थायी रिश्ता बनाकर रखना है तो वह उप-चंद्रमा चांद से अधिकतम 60,000 कि.मी. की दूरी पर हो सकता है। मगर यहां एक दिक्कत है।

यदि चांद का उप-चंद्रमा उसके इतना नज़दीक हुआ तो उस पर चंद्रमा के कारण ज्वारीय प्रभाव बहुत विकट हो जाएंगे और उसका परिक्रमा पथ धीरे-धीरे छोटा होता जाएगा और एक समय आएगा जब वह चांद में समा जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो वह घटना काफी उग्र होगी। यह भी हो सकता है कि मूल ग्रह के ज्वारीय प्रभाव से या तो चंद्रमा और उप-चंद्रमा आपस में टकराकर चकनाचूर हो जाएं या उप-चंद्रमा अपनी कक्षा को छोड़कर अंतरिक्ष में निकल जाए।

उप-चंद्रमा के स्थायी रूप से चांद के चक्कर लगाने की प्रमुख शर्त यह है कि वह चांद के हिल स्फीयर में हो तथा इस उप-चंद्रमा की परिक्रमा कक्षा तथा मूल ग्रह की परिक्रमा कक्षा के बीच स्पष्ट फासला हो। वैसे उप-चंद्रमा मिलें ना मिलें, इस अध्ययन से उपग्रह निर्माण तथा ग्रह मंडलों के विकास को समझने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब भी हुआ था

मारी पृथ्वी के चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है। इसकी मदद से न केवल हमको दिशाओं का ज्ञान होता है बल्कि यह चुंबकीय क्षेत्र हमारे ग्रह को हानिकारक विकिरण और सौर हवाओं से बचाता भी है। लेकिन आज से 56 करोड़ वर्ष पहले यह चुंबकीय क्षेत्र लगभग गायब हो चुका था। लेकिन एक भूगर्भीय घटना के कारण यह बच गया। वैज्ञानिकों के अनुसार उस समय पृथ्वी का तरल केंद्र (कोर) ठोस होना शुरू हो गया था जिसके कारण चुंबकीय क्षेत्र वापस से मज़बूत हो गया।

वैज्ञानिकों को ग्रह के केंद्र की तत्कालीन संरचना का अंदाज़ रेत के दानों के आकार के क्रिस्टल को देखकर लगा। उन्होंने 56 करोड़ वर्ष पुराने प्लेजिओक्लेज़ और क्लिनोपायरॉक्सीन के नमूने लिए जो उनको पूर्वी क्यूबेक, कनाडा में मिले। इन नमूनों में लगभग 50 से 100 नैनोमीटर तक की चुंबकीय सुइयां मिलीं जो उस समय पिघली हुई चट्टान में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में स्थिर हो गई थीं। चट्टानों के ठंडा होने के बाद ये सुइयां अरबों वर्षों तक सुरक्षित रखी रहीं और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड बन गर्इं।

इन छोटे-छोटे क्रिस्टल्स को मैग्नेटोमीटर से जांचने पर कणों का चार्ज बहुत कम पाया गया। वास्तव में, 56 करोड़ साल पहले, पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र आज की तुलना में 10 गुना अधिक कमजोर रहा था। आगे मापन से पता चला कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के पलटने की आवृत्ति भी बहुत अधिक थी।

रोचेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन टारडूनो के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि उस समय पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी असामान्य था। एक ऐसा समय भी था जब चुंबकीय क्षेत्र के निर्माण की प्रक्रिया (जियो-डाएनेमो) लगभग धराशायी हो गई थी।

पृथ्वी के शुरुआती दौर में धरती का केंद्र पिघली हुई अवस्था में था। फिर 2.5 अरब से 50 करोड़ साल पहले केंद्र का लोहा ठंडा होकर ठोस अवस्था में परिवर्तित होने लगा। जैसे ही आंतरिक कोर ने जमना शुरू किया सिलिकॉन, मैग्नीशियम और ऑक्सीजन जैसे हल्के तत्व कोर की बाहरी तरल परत में आ गए जिससे तरल पदार्थ और गर्मी का प्रवाह शुरू हुआ जिसे संवहन कहा जाता है। बाहरी कोर में द्रव की गति ने आवेशित कणों को गतिमान रखा, जिससे विद्युत धारा उत्पन्न हुई और विद्युत धारा ने चुंबकीय क्षेत्र को जन्म दिया। यही संवहन आज भी चुंबकीय क्षेत्र के लिए ज़िम्मेदार है। पृथ्वी की आंतरिक कोर का ठोस बनना अभी भी जारी है और आने वाले कई वर्षों तक ऐसा होता रहेगा।

एक संभावना यह व्यक्त की गई है कि कैम्ब्रियन युग में तेज़ जैव विकास का सम्बंध कमजोर चुंबकीय क्षेत्र से हो सकता है क्योंकि चुंबकीय क्षेत्र के कमज़ोर होने के चलते जो अधिक विकिरण धरती पर पहुंचा होगा उससे डीएनए की क्षति और उत्परिवर्तन दर ऊंची रही हो सकती है जिससे अधिक प्रजातियों के विकसित होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर कपास के बीज उगे, अंकुर मर गए

चीन द्वारा चांग-4 अंतरिक्ष यान के साथ चांद पर भेजे गए ल्यूनर रोवर पर एक जैव मंडल (वज़न 2.6 कि.ग्रा.) भी भेजा गया था जिसमें आलू के बीज, पत्ता गोभी सरीखा एक पौधा और रेशम के कीड़े की इल्लियों के अलावा कुछ कपास के बीज भी थे। कपास के बीज चांद पर भी अंकुरित हुए हालांकि उनके अंकुर पृथ्वी पर तुलना के लिए रखे गए कपास के अंकुरों से छोटे रहे। मगर उल्लेखनीय बात यह मानी जा रही है कि ये बीज यान के प्रक्षेपण, चांद तक की मुश्किल यात्रा को झेलकर चांद के दुर्बल गुरुत्वाकर्षण और वहां मौजूद तीव्र विकिरण के बावजूद पनपे थे। खास बात यह है कि उसी जैव मंडल में अन्य किसी प्रजाति में इस तरह जीवन के लक्षण नज़र नहीं आए थे। किंतु अब कपास के वे अंकुर भी मर चुके हैं।

चांग-4 के प्रोजेक्ट लीडर लिऊ हानलॉन्ग ने इस घटना की व्याख्या करते हुए बताया है कि चांग-4 चांद के दूरस्थ हिस्से पर उतरा है। जैसे ही रात हुई, लघु जैव मंडल का तापमान एकदम कम हो गया। उन्होंने बताया कि जैव मंडल कक्ष के अंदर का तापमान शून्य से 52 डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया था। अंदेशा यह है कि तापमान में और गिरावट होगी और यह ऋण 180 डिग्री सेल्सियस तक चला जाएगा। जैव मंडल को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं है।

आम तौर पर पौधों में कम तापमान को झेलने के लिए अंदरुनी व्यवस्थाएं होती हैं। जैसे तापमान कम होने पर पौधों की कोशिकाओं में शर्करा और कुछ अन्य रसायनों की मात्रा बढ़ती है जिसके चलते कोशिकाओं के अंदर पानी के बर्फ बनने का तापमान (हिमांक) कम हो जाता है। इसके कारण कोशिकाओं में पानी बर्फ नहीं बनता अन्यथा यह बर्फ कोशिकाओं को फैलाता है और तोड़ देता है। कुछ अन्य पौधों में कोशिका झिल्लियां सख्त हो जाती हैं जबकि कुछ पौधों में पानी को कोशिका से बाहर निकाल दिया जाता है ताकि बर्फ बनने की नौबत ही न आए।

मगर इन प्रक्रियाओं के काम करने के लिए ज़रूरी होता है कि पर्यावरण से यह संकेत मिलता रहे कि ठंड आ रही है। मगर यदि तापमान अचानक कम हो जाए तो ये व्यवस्थाएं पौधे को बचा नहीं पातीं। इसलिए यकायक पाला पड़े तो पृथ्वी की ठंडी जलवायु वाले पौधे भी बच नहीं पाते। कपास तो गर्म जलवायु का पौधा है। और चांद पर जो ठंड आई होगी वह धीरेधीरे जाड़े का मौसम आने जैसा कदापि नहीं था। चांद पर दिन के समय (वहां का दिन हमारे 13 दिन के बराबर होता है) का तापमान तो 100 डिग्री सेल्सियस (पानी के क्वथनांक) तक हो जाता है जबकि रात में यह ऋण 173 डिग्री तक गिर जाता है।

तो ऐसा लगता है कि यह शीत लहर कपास की क्षमता से बाहर थी। पहले तो कोशिकाओं का पानी बर्फ बन गया होगा, जिसने उन्हें अंदर से फोड़ दिया होगा। फिर कोशिकाओं के बीच के पानी का नंबर आया होगा जिसने पूरे अंकुर को नष्ट कर दिया होगा। हानलॉन्ग के मुताबिक अब यह प्रयोग समाप्त माना जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी ने एक ग्रह को निगला और जीवन अस्तित्व में आया

साढ़े चार अरब साल पहले, मंगल ग्रह के आकार का एक पिंड पृथ्वी से टकराया, जिसकी वजह से चंद्रमा टूटकर अलग हुआ और पृथ्वी के निकट एक स्थायी कक्षा में स्थापित हुआ था। एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि इसके साथ ही जीवन के लिए आवश्यक अवयव भी पृथ्वी पर आए। वैज्ञानिकों ने जर्नल साइंस एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि इस घटना ने हमारे ग्रह पर जीवन के लिए ज़रूरी कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर पहुंचाया था।

इस घटना से पूर्व पृथ्वी कुछकुछ आज के मंगल ग्रह जैसी थी। इसमें भी एक कोर और एक मैंटल था, लेकिन इसके गैरकोर वाले भाग में नाइट्रोजन, कार्बन और सल्फर जैसे वाष्पशील तत्वों की काफी कमी थी। पृथ्वी के गैरकोर हिस्से में मौजूद तत्वों को बल्क सिलिकेट अर्थकहते हैं, ये तत्व एकदूसरे के साथ आपस में तो क्रिया करते हैं, लेकिन वे कभी भी कोर हिस्से के तत्वों के साथ क्रिया नहीं करते हैं। हालांकि कुछ वाष्पशील तत्व कोर में मौजूद तो थे लेकिन वे ग्रह की बाहरी परतों तक नहीं पहुंच सके थे। और तभी टक्कर हुई।

एक सिद्धांत अनुसार विशेष प्रकार के उल्कापिंड, जिन्हें कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट्स कहा जाता है, पृथ्वी से टकराए और बल्क सिलिकेट अर्थ को ये वाष्पशील तत्व प्रदान किए। वास्तव में नाइट्रोजन, कार्बन और हाइड्रोजन के समस्थानिकों के अनुपात इन उल्कापिंडों पर पाए गए अनुपात से मेल खाते प्रतीत होते हैं। तो इस सिद्धांत के समर्थक कहते हैं कि उल्कापिंड ही इन तत्वों का स्रोत होना चाहिए।

लेकिन राइस विश्वविद्यालय, ह्यूस्टन के शोधकर्ता दमनवीर ग्रेवाल के अनुसार इन उल्कापिंडों में एक भाग नाइट्रोजन पर लगभग 20 भाग कार्बन होता है, जबकि पृथ्वी के गैरकोर भाग में एक भाग नाइट्रोजन पर लगभग 40 भाग कार्बन होता है। इसलिए, उन्होंने एक अन्य सिद्धांत का परीक्षण करने का फैसला किया।

ग्रेवाल और उनकी टीम ने लैब में एक विशेष प्रकार की भट्टी में उच्चतापमान और उच्च दबाव पर किसी ग्रह के कोर और मैंटल का मॉडल बनाया।

उन्होंने अपने प्रयोगों में तापमान, दबाव और सल्फर के अनुपात को अलगअलग करके यह जानने की कोशिश की कि ये तत्व कोर और (कल्पित) ग्रह के बाकी हिस्सों के बीच कैसे विभाजित होते हैं। उन्होंने पाया कि नाइट्रोजन और सल्फर की उच्च सांद्रता हो तो कार्बन लोहे के साथ बंधन का इच्छुक नहीं होता, जबकि बहुत अधिक सल्फर मौजूद होने पर भी लोहा नाइट्रोजन के साथ बंधन बनाता है। अर्थात नाइट्रोजन को कोर से बाहर निकलकर ग्रह के अन्य हिस्सों में फैलना है तो सल्फर की मात्रा बहुत अधिक होनी चाहिए।

इसके बाद उन्होंने इन सभी सम्भावनाओं के आधार पर एक सिमुलेशन तैयार किया जिसमें विभिन्न वाष्पशील तत्वों के व्यवहार की जानकारी और पृथ्वी की बाहरी परतों में कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर की वर्तमान मात्रा को रखा।

एक करोड़ से अधिक सिमुलेशन चलने के बाद, उनको समझ आया कि नाइट्रोजन एवं कार्बन का वर्तमान अनुपात तभी बन सकता है जब पृथ्वी की टक्कर मंगल के आकार के किसी ग्रह के साथ हुई होगी जिसके कोर में सल्फर की मात्रा लगभग 25 से 30 प्रतिशत रही होगी। (स्रोत फीचर्स)

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आकाश गंगा के 11 रोचक तथ्य

दि आप किसी ऐसे स्थान पर रहते हैं जहां कृत्रिम प्रकाश कम या नदारद है, तो अंधेरी रात के साफ आसमान में आपको एक बादली पट्टी सी दिखेगी। ज़ाहिर है प्राचीन काल में यह साफ नज़र आती होगी। यही आकाशगंगा है। हमारी आकाशगंगा एक निहारिका है जो तारों, सुपरनोवा, नेबुला, ऊर्जा और अदृश्य पदार्थ से भरी है जिसके कई पहलू वैज्ञानिकों के लिए भी रहस्य बने हुए हैं। आकाशगंगा के बारे में कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत हैं।

आकाशगंगा एक प्राचीन नाम है

संस्कृत और कई अन्य इंडोआर्य भाषाओं में हमारी निहारिका यानी गैलेक्सी को आकाशगंगाकहते हैं। पुराणों में आकाशगंगा और पृथ्वी पर स्थित गंगा नदी को एक दूसरे का जोड़ा माना जाता था और दोनों को पवित्र माना जाता था। आकाशगंगा को क्षीर (यानी दूध) भी कहा गया है। भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी कई सभ्यताओं को आकाशगंगा दूधिया लगी। गैलेक्सीशब्द का मूल यूनानी भाषा का गालाशब्द है, जिसका अर्थ भी दूध होता है। संस्कृत की तरह फारसी भी एक इंडोईरानी भाषा है, इसलिए उसका दूधके लिए शब्द संस्कृत के क्षीरसे मिलताजुलता सजातीय शब्द शीरहै और आकाशगंगा को राहशीरीकहा जाता है। अंग्रेज़ी में आकाशगंगा को मिल्की वेकहते हैं। यह नाम यूनानियों से प्राप्त हुआ है। एक दंतकथा के मुताबिक शिशु हरक्युलिस को देवी हेरा सोते हुए स्तनपान करा रही है। जब वह जागती है तो स्तन का दूध आसमान में फैल जाता है। इसे मिल्की वेकहा जाने लगा।

आकाशगंगा में कितने तारे हैं

तारों की गणना एक थकाऊ काम है। खगोलविदों के बीच इसके तरीकों को लेकर काफी बहस है। दूरबीन से हमें आकाशगंगा में केवल सबसे चमकीले तारे दिखते हैं, जबकि अधिकांश तारे तो गैस और धूल में ओझल हैं। आकाशगंगा में तारासंख्या का अनुमान लगाने का एक तरीका यह है कि यह देखा जाए कि इसके भीतर तारे कितनी तेज़ी से परिक्रमा कर रहे हैं। इससे आकाशगंगा में गुरुत्वाकर्षण खिंचाव का अंदाज़ा लगेगा। और गुरुत्वाकर्षण से आकाशगंगा के द्रव्यमान की गणना की जा सकती है। फिर इस द्रव्यमान में एक औसत तारे के द्रव्यमान से भाग देकर तारों की संख्या का अनुमान किया जा सकता है। लेकिन इथाका कॉलेज, न्यूयॉर्क के खगोल शास्त्री डेविड कॉर्नराइश के अनुसार यह एक अनुमान भर है। सितारों की साइज़ में बहुत विविधता होती है, और अनुमान लगाने में कई मान्यताएं लेनी होती हैं।

युरोपीय अन्तरिक्ष एजेंसी के गैया उपग्रह ने आकाशगंगा में 1 अरब तारों का स्थान निर्धारण किया है, और वैज्ञानिकों का मानना है कि यह कुल संख्या का एक प्रतिशत है। तो शायद आकाशगंगा में 100 अरब तारे हैं।

आकाशगंगा का वज़न

तारासंख्या के समान, खगोलविद आकाशगंगा के वज़न को लेकर भी अनिश्चित हैं। विभिन्न अनुमान सूर्य के द्रव्यमान से 700 अरब गुना से लेकर 20 खरब गुना तक है। टक्सन में एरिज़ोना विश्वविद्यालय की खगोलविद एकता पटेल के अनुसार, आकाशगंगा का अधिकांश द्रव्यमान, लगभग 85 प्रतिशत,अदृश्य पदार्थ (डार्क मैटर) के रूप में है। इस डार्क मैटर से प्रकाश नहीं निकलता और इसलिए इसका सीधे अवलोकन करना असंभव है। उन्होंने हाल में इस बात का अध्ययन किया है कि हमारी विशालकाय आकाशगंगा आसपास की छोटी निहारिकाओं पर कितना गुरुत्वाकर्षण बल लगाती है। इसके आधार पर उनका अनुमान है कि आकाशगंगा सूर्य से 960 अरब गुना भारी है।

यह ब्राहृांड के खाली स्थान में है

कई अध्ययनों से यह मालूम चला है कि हम इस ब्राहृांड के एक वीरान कोने में जी रहे हैं। दूर से, ब्राहृांड की संरचना एक विशाल ब्राहृांडीय जाल की तरह दिखती है, जिसमें ज़्यादातर खाली जगह (रिक्तियां) है। आकाशगंगा केबीसी रिक्ति में स्थित है। इसका यह नाम तीन खगोलविदों कीनन, बर्जर और काउवी के नाम पर रखा गया था जिन्होंने इसकी खोज की थी। पिछले साल एक और टीम ने इस बात की पुष्टि कि हम एक बड़े, खाली क्षेत्र में तैर रहे हैं।

आकाशगंगा के केंद्र में ब्लैक होल

हमारी आकाशगंगा के केंद्र में एक विशाल ब्लैक होल है, जो सूरज से 40 गुना वज़नी है। वैज्ञानिकों ने इस ब्लैक की उपस्थिति का अंदाज़ा आकाशगंगा के तारों के परिक्रमा पथ के आधार पर लगाया है क्योंकि वे देख सकते हैं कि ये तारे आकाशगंगा के केंद्र में एक निहायत भारीभरकम पिंड की परिक्रमा कर रहे हैं जो दिखाई नहीं देता। लेकिन हाल ही में, खगोलविद ब्लैक होल के आसपास के वातावरण, जो गैस और धूल से भरा हुआ है, की एक झलक पाने के लिए कई रेडियो दूरबीनों के अवलोकनों का मिलाजुला अध्ययन कर रहे हैं। इवेंट होराइज़न टेलीस्कोप नाम के इस प्रोजेक्ट की मदद से आने वाले महीनों में ब्लैक होल के किनारे की प्रारंभिक छवियां प्राप्त होने की उम्मीद है।

छोटी निहारिकाएं आकाशगंगा की परिक्रमा करती हैं और कभीकभी इससे टकरा भी जाती हैं

युरोपीय दक्षिणी वेधशाला के अनुसार, जब पुर्तगाली खोजकर्ता फर्डिनेंड मेजिलेन 16 वीं शताब्दी में दक्षिणी गोलार्ध की समुद्री यात्रा पर थे, तब उन्होंने रात में आकाश में तारों के वृत्ताकार झुंड देखे। ये झुंड वास्तव में छोटीछोटी निहारिकाएं हैं जो हमारी आकाशगंगा की परिक्रमा ठीक उसी तरह करती हैं जैसे ग्रह किसी तारे के चारों ओर चक्कर काटते हैं। इन्हें छोटे और बड़े मेजेलिनिक बादल कहते हैं। ऐसी कई छोटीछोटी निहारिकाएं आकाशगंगा की परिक्रमा करती हैं और कभीकभी वे हमारी विशाल आकाशगंगा में समा जाती हैं।

आकाशगंगा ज़हरीले ग्रीस से भरी है

हमारी आकाशगंगा में तारों के बीच ज़्यादातर खाली जगह में ग्रीस तैर रहा है। कुछ तैलीय कार्बनिक अणु (जो एलिफेटिक कार्बन यौगिक  होते हैं) कुछ विशेष प्रकार के तारों में उत्पन्न होते हैं और फिर अन्तर्तारकीय अन्तरिक्ष में रिस जाते हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि आकाशगंगा के अन्तर्तारकीय कार्बन में से एक चौथाई से आधे तक यह ग्रीस जैसा पदार्थ हो सकता है। यह मात्रा पहले मान्य मात्रा की तुलना में पांच गुना अधिक है। कार्बन सजीवों की एक आवश्यक निर्माण इकाई है। पूरी आकाशगंगा में इसका बहुतायत में मिलना अन्य तारा प्रणालियों में जीवन की सम्भावना जताता है।

आकाशगंगा 4 अरब वर्षों में अपने पड़ोसी से टकराने वाली है

हमारी आकाशगंगा शाश्वत नहीं है। खगोलविदों को यह पता है कि वर्तमान में हम अपने पड़ोसी, एंड्रोमिडा निहारिका की ओर लगभग 400,000 कि.मी./घंटा की गति से बढ़ रहे हैं। अधिकांश शोध से मालूम चला है कि ऐसी दुर्घटना के समय अधिक विशाल एंड्रोमिडा हमारी आकाशगंगा को निगल कर खुद जीवित रहेगी। लेकिन हाल ही में खगोलविदों ने बताया है कि एंड्रोमिडा मात्र लगभग 800 अरब सूर्य के बराबर है। यानी इसका द्रव्यमान आकाशगंगा के द्रव्यमान के बराबर है। तो कौनसी निहारिका इस दुर्घटना में बची रहेगी यह एक खुला सवाल है।

हमारी पड़ोसी निहारिका के तारे आकाशगंगा के करीब आ रहे हैं

लगता है निहारिकाएं तारों का आदानप्रदान भी करती हैं। शोधकर्ता हाल ही में तेज़ गति वाले तारों की खोज कर रहे थे, जो आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल से संपर्क के बाद तेज़ गति से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन जो कुछ सामने आया वह चौंकाने वाला है। हमारी आकाशगंगा से दूर जाने की बजाय, शोधकर्ताओं द्वारा देखे गए अधिकांश तेज़ तारे हमारी ओर बढ़ रहे थे। रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के मंथली नोटिसेस में प्रकाशित रिपोर्ट में लेखकों का सुझाव है कि ये अजीब तारे बड़े मेजेलिनिक क्लाउड या किसी दूरस्थ निहारिका से आए हो सकते हैं।

आकाशगंगा से निकलने वाले रहस्यमय बुलबुले

यदि आपको अचानक पता चले कि आपके घर में, जिसे आप न जाने कितनी बार देखते होंगे, उसमें एक हाथी है, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? 2010 में वैज्ञानिकों के साथ कमोबेश ऐसा ही हुआ था। जब उन्होंने आकाशगंगा के ऊपर और नीचे 25,000 प्रकाशवर्ष जितनी विशालकाय संरचना को देखा जो पहले कभी नहीं देखी गई थी। जिस दूरबीन से इन्हें देखा गया था उसी के नाम पर इन्हें फर्मी बुलबुलेनाम दिया गया। खगोलविद इन गामारेउत्सर्जक पिंडों का स्पष्टीकरण करने में असफल रहे हैं। पिछले साल, एक टीम ने ऐसे प्रमाण एकत्रित किए थे जो दर्शाते थे कि ये बुलबुले 60 से 90 लाख साल पहले एक ऊर्जाजनक घटना के बाद उत्पन्न हुए थे। उस घटना में आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल ने भारी मात्रा में पदार्थ (गैस और धूल) निगल लिया था और फिर ये विशाल चमकते बादल उगले थे।

हमारी आकाशगंगा पर ब्राहृांड के दूसरी ओर से विचित्र ऊर्जा पल्स की बौछार हो रही है

पिछले एक दशक में, खगोलविद सुदूर ब्राहृांड से आने वाली प्रकाश की विचित्र कौंध देख रहे हैं। इन रहस्यमय संकेतों पर कोई सहमति नहीं बन पाई है। 10 से अधिक वर्षों तक उनके बारे में जानने के बावजूद, शोधकर्ता ऐसे केवल 30 कौंध देख पाए थे। लेकिन एक हालिया अध्ययन में, ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने 20 और चमक देखीं। हालांकि वे अभी भी अजीब चमक की उत्पत्ति नहीं जानते, लेकिन टीम यह निर्धारित करने में सफल रही है कि इस प्रकाश ने कई अरब प्रकाशवर्ष गैस और धूल से होकर यात्रा की थी, जिससे पता चलता है कि ये काफी दूर से आ रही है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चांद पर पौधे उगाए गए – डॉ. दीपक कोहली

चांद पर भेजे गए चीन के रोवर पर कपास के बीज के अंकुरित होने के बाद पहली बार हमारी दुनिया से बाहर चांद पर कोई पौधा पनपा है। वैज्ञानिकों ने मंगलवार को यह जानकारी दी। चोंगकिंग विश्वविद्यालय के एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी तस्वीरों की शृंखला के मुताबिक चांग-4 के इस महीने चंद्रमा पर उतरने के बाद यह अंकुर एक कनस्तर के भीतर मौजूद जालीनुमा ढांचे से पनपा है। प्रयोग के डिज़ाइन की अगुवाई करने वाले शाइ गेंगशिन ने कहा, यह पहला मौका है जब मानव ने चंद्रमा की सतह पर जीव विज्ञान में पादप विकास के प्रयोग किए हैं। अंतरिक्ष में महाशक्ति बनने की चीन की महत्वाकांक्षा बढ़ाते हुए चांग-4 तीन जनवरी को चंद्रमा के हमसे दूसरी ओर वाले हिस्से पर उतरा और उसके कभी न देखे गए हिस्से तक पहुंचने वाला विश्व का पहला अंतरिक्ष यान बन गया। वैज्ञानिकों ने वायु, जल एवं मिट्टी युक्त 18 से.मी. का एक डिब्बा भेजा था। इसके भीतर कपास, आलू एवं सरसों प्रजाति के एक-एक बीज के साथ-साथ फ्रूट फ्लाई के अंडे एवं यीस्ट भेजे गए थे। विश्वविद्यालय ने बताया कि अंतरिक्ष यान से भेजी गई तस्वीरों में देखा गया कि कपास के अंकुर बढ़िया से विकसित हो रहे हैं लेकिन अन्य बीजों के अंकुरित होने का कोई समाचार नहीं है। और अंतिम समाचार मिलने तक कपास के अंकुर मृत हो चुके थे। (स्रोत फीचर्स)

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अदृश्य पदार्थ का ताज़ा अध्ययन

णनाओं से पता चलता है कि हमारे ब्राहृांड का 85 प्रतिशत भाग ऐसे पदार्थ से बना है जो अदृश्य है। इसे डार्क मैटर कहते हैं क्योंकि यह प्रकाश के साथ कोई क्रिया नहीं करता। इसी वजह से इसके बारे में जानना एक मुश्किल चुनौती है। इसके बारे में वैज्ञानिक जो कुछ जानते हैं वह इसके गुरुत्वीय प्रभाव के आधार पर है – यानी डार्क मैटर का जो गुरुत्वीय असर दृश्य पदार्थ यानी बैर्योनिक मैटर पर होता है।

एक ताज़ा अध्ययन में विभिन्न निहारिकाओं में अदृश्य पदार्थ की मात्रा की गणना की कोशिश की गई। पूर्व में की गई गणनाओं के विपरीत ताज़ा अध्ययन का निष्कर्ष है कि ब्राहृांड की प्रारंभिक निहारिकाओं और अपेक्षाकृत हाल में बनी निहारिकाओं में डार्क मैटर का अनुपात लगभग बराबर ही है।

पूर्व में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर एक्स्ट्राटेरेस्ट्रियल फिज़िक्स के खगोल शास्त्री राइनहार्ड गेंज़ेल के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि प्रारंभिक निहारिकाओं में डार्क मैटर की मात्रा नवीन निहारिकाओं की अपेक्षा कम थी।

ताज़ा अध्ययन डरहैम विश्वविद्यालय के अल्फ्रेड टाइली और उनके सहयोगियों ने किया है। यह अध्ययन प्रीप्रिंट पत्रिका आर्काइव्स में प्रकाशित हो चुका है और इसे रॉयल एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी की पत्रिका मंथली नोटिसेस में प्रकाशन के लिए भेजा गया है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न निहारिकाओं में तारों की घूर्णन गति का अध्ययन किया। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम के मुताबिक किसी भी निहारिका की परिधि का घूर्णन उसके मध्य भाग की अपेक्षा धीमा होना चाहिए। मगर 1960 के दशक में देखा गया था कि आकाशगंगा (वह निहारिका जिसमें हमारा सौर मंडल स्थित है) के किनारों पर स्थित तारों की गति काफी अधिक है। इसके आधार पर अनुमान लगाया गया था कि आकाशगंगा के आसपास डार्क मैटर का आवरण है जो इन तारों को तेज़ गति करवा रहा है।

टाइली व उनके साथियों ने आकाशगंगा से विभिन्न दूरियों पर स्थित निहारिकाओं के किनारों की घूर्णन गति के आंकड़ों को देखा तो पाया कि दूरस्थ निहारिकाओं और आकाशगंगा के पास की निहारिकाओं में तेज़ी से गति करते तारों के आधार पर तो लगता है कि नवीन निहारिकाओं और प्रारंभिक निहारिकाओं के आसपास डार्क मैटर लगभग एक-सी मात्रा में है। ऐसा माना जाता है कि दूरस्थ निहारिकाएं प्रारंभिक हैं जबकि हमारे आसपास की निहारिकाएं ज़्यादा हाल की हैं।

इन दो अध्ययनों के परिणामों में अंतर के कई कारण हैं और खगोल शास्त्री इन्हीं पर विचार कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या असमय मृत्यु की शिकार होगी आकाशगंगा?

हाल ही में रॉयल एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी के जर्नल मंथली नोटिसेस में प्रकाशित एक शोध पत्र में दावा किया गया है कि हमारी निहारिका उर्फ आकाशगंगा अपने एक पड़ोसी के साथ टकराव के रास्ते पर चल रही है। यह पड़ोसी तारों का एक समूह है जिसे लार्ज मेजेलिनिक क्लाउड (एल.एम.सी.) कहते हैं।

गौरतलब है कि खगोल शास्त्रियों को पहले से ही अंदेशा रहा है कि हमारी आकाशगंगा और निकटतम पड़ोसी एंड्रोमिडा निहारिका के बीच टक्कर होकर रहेगी। नए अध्ययन ने चेतावनी दी है कि इससे पहले एलएमसी से टक्कर हो सकती है। डरहैम विश्वविद्यालय के खगोल शास्त्रियों की एक टीम ने इस टक्कर की काफी विस्तृत और भयानक तस्वीर खींची है। मैरियस कौटन के नेतृत्व में काम कर रही टीम का अनुमान है कि यह घटना एंड्रोमिडा टक्कर से 2-3 अरब साल पहले हो सकती है।

एलएमसी का द्रव्यमान आकाशगंगा की तुलना में बीसवां भाग ही है और शोधकर्ताओं का मत है कि इस टक्कर में एलएमसी का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा किंतु हमारी आकाशगंगा भी अछूती नहीं रहेगी। आकाशगंगा का भी बुरा हाल होगा।

निहारिकाओं की टक्करें अंतरिक्ष में कोई अनहोनी बात नहीं है और वैज्ञानिक इनके मॉडल तैयार करने में काफी निपुण हो चुके हैं। सुपरकंप्यूटर पर ऐसी टक्करों का विश्लेषण करके डरहैम की टीम ने आकाशगंगा-एलएमसी की टक्कर के विभिन्न मॉडल तैयार किए हैं। तो इस टक्कर के संभावित परिणाम क्या होंगे?

सबसे पहला तो यह होगा कि एलएमसी हमारी आकाशगंगा में ढेर सारी गैस और असंख्य तारे में प्रविष्ट करा देगी। और ये सब आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल में समा जाएंगे। कौटन के मुताबिक संभवत: इसकी वजह से यह ब्लैक होल वर्तमान से 8 गुना बड़ा हो जाएगा। यह भी संभव है कि वह क्वासर में तबदील हो जाए। एक परिणाम यह भी हो सकता है कि यह बड़ा ब्लैक होल अपने आसपास के और तारों को निगल जाए। कुछ अन्य तारे शायद निहारिका छोड़कर खुले अंतरिक्ष में निकल जाएं।

अच्छी बात यह है कि यह टक्कर आज से 2 अरब साल बाद होने की संभावना है। और उससे भी अच्छी बात है कि उस समय हमारे जो भी वंशज रहेंगे उनके लिए चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि हमारे सौर मंडल वाले इलाके में इसका कोई खास असर नहीं होगा। उन्हें तो बस एक दर्शनीय नज़ारे का आनंद मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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