ब्लैक होल की पहली तस्वीर और कार्बन कुनबे का विस्तार – चक्रेश जैन

र्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की। यह वही वर्ष था, जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु बनाने की घोषणा की।

इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की। यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है। भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।

इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना, स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।

उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।

इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है। संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।

सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54 क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।

वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की घोषणा की थी, जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन का अहम योगदान रहा है।

विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन परमाणु हैं, जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा। लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग की संभावनाएं हैं।

गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।

कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी) का पता लगाया है, जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि तापमान भी अनुकूल है।

साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4 जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी ले गया था।

अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।

बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे। जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।

इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी। हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।

विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।

इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।

गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया – विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ। इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स पीबल्स, मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।

ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन उहलेनबेक पहली महिला हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।

5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencenews.org/wp-content/uploads/2019/12/122119_YE_landing_full.jpg

शकरकंद खुद को शाकाहारियों से सुरक्षित रखता है

करकंद के पौधे के पास अपनी रक्षा के लिए न तो कांटें होते हैं और न कोई ज़हर। लेकिन भूखे शाकाहारी जीवों से खुद की रक्षा करने के लिए उन्होंने एक शानदार तरीका विकसित किया है। जब कोई जीव इस पौधे के एक पत्ते को कुतरता है, वह तुरंत एक ऐसा रसायन उत्पन्न करता है जो पौधे के बाकी हिस्से और आसपास के पौधों को भी सचेत कर देता है जिससे वे खुद को अभक्ष्य बना लेते हैं। शकरकंद संवर्धक इस पौधे में फेरबदल करके सर्वथा प्राकृतिक कीटनाशक रसायन बना सकते हैं।  

जर्मनी स्थित मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर केमिकल इकॉलॉजी के प्लांट इकोलॉजिस्ट एलेक्स मिथोफर ने इस विषय में काम करना शुरू किया जब उन्होंने ताइवान में उगाए गए शकरकंद की दो किस्मों में कुछ दिलचस्प चीज़ देखी। उन्होंने पाया कि पीले छिलके और पीले गूदे वाली किस्म टैनॉन्ग-57 तो आम तौर पर शाकाहारियों की प्रतिरोधी है जबकि गहरे नारंगी रंग वाली टैनॉन्ग-66 कीटों से ग्रस्त है।  

एलेक्स और उनकी टीम ने टैनॉन्ग-57 और टैनॉन्ग-66 पर अफ्रीकी कॉटन लीफवर्म के भूखे कैटरपिलर छोड़ दिए। कैटरपिलर ने जैसे ही पौधों को खाना शुरू किया, दोनों पौधों ने कम से कम 40 वायुवाहित यौगिक छोड़े। लेकिन शोधकर्ताओं ने साइंटिफिक रिपोर्ट्स में बताया है कि टैनॉन्ग-57 ने काफी अधिक मात्रा में एक विशिष्ट गंध वाला DMNT नामक रसायन छोड़ा। शोधकर्ताओं ने DMNT यौगिक को मकई और गोभी जैसे अन्य पौधों से भी प्राप्त किया है। यह कुछ प्रजातियों में रक्षा प्रतिक्रिया प्रेरित करने के लिए जाना जाता है।

शकरकंद में इस प्रक्रिया को जानने के लिए वैज्ञानिकों ने दो अन्य प्रयोग किए। सबसे पहले उन्होंने टैनॉन्ग-57 के दो पौधों को पास-पास रखकर उनमें से एक को चिमटी से नोचा जिसकी वजह से उसने DMNT छोड़ा। इसके बाद उन्होंने स्वस्थ टैनॉन्ग-57 पर प्रयोगशाला में संश्लेषित DMNT का छिड़काव किया। दोनों ही मामलों में पाया गया कि पत्तियों पर स्पोरामिन नामक प्रोटीन अधिक मात्रा में था। जब कैटरपिलर स्पोरामिन युक्त पत्तियों को खाते हैं तो उनका पाचन ठप हो जाता है और वे तुरंत ही उन पत्तियों को खाना छोड़ देते हैं क्योंकि वे अस्स्थ महसूस करते हैं। गौरतलब है कि टैनॉन्ग-66 में ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देखी गई।      

शकरकंद में स्पोरामिन एक मुख्य प्रोटीन है। इसको यदि कच्चा खाया जाए तो यह अपचनीय है, इसलिए हम इसको पकाकर खाते हैं। एलेक्स का मानना है कि सैद्धांतिक रूप से यदि शकरकंद की सभी किस्मों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से टैनॉन्ग-57 की तरह और अधिक DMNT उत्पन्न कराया जा सके तो वे कीटों से अपनी रक्षा कर सकेंगे।  

वैसे यह विषय अभी सुर्खियों में आने के लिए तैयार नहीं है। प्लांट इकोलॉजिस्ट मार्टिन हील का मानना है कि DMNT प्रयोगशाला में तो काम कर सकता है लेकिन खुले में DMNT चंद सेकंड में हवा हो जाएगा। फिलहाल तो एलेक्स के पास भी आनुवंशिक रूप से तैयार किए गए ऐसे पौधों को बनाने की कोई योजना नहीं है। एक बात यह भी है कि इसका उपयोग युरोपीय देशों में करना भी संभव नहीं है जहां आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों का उपयोग प्रतिबंधित है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Sweet-potatoes-DMNT-Sporamin-1280×720.jpg?itok=-yZauAI2

जेनेटिक परिवर्तित धान उगाएगा बांग्लादेश

धान की एक किस्म विकसित की गई है जिसमें ऐसे गुण जोड़ दिए गए हैं कि वह बचपन के अंधत्व की रोकथाम में मदद करता है। इसे गोल्डन राइस नाम दिया गया है। गोल्डन राइस का विकास लगभग 20 वर्ष पहले हुआ था और तब से ही यह जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों की बहस का केंद्र रहा है। समर्थकों का दावा है कि अंधत्व निवारण में मदद करके यह मानवता के लिए लाभदायक साबित होगा, वहीं विरोधियों का मत है कि इसे उगाने में कई खतरे हैं और विकाससील देशों में स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से यह अनावश्यक है क्योंकि स्वास्थ्य सुधार के लिए अन्य उपाय अपनाए जा सकते हैं।

अब लग रहा है कि शायद बांग्लादेश गोल्डन धान को उगाने की अनुमति देने वाले पहला देश बन जाएगा। इंग्लैंड के रॉथमस्टेड रिसर्च स्टेशन के पादप बायोटेक्नॉलॉजी विशेषज्ञ जोनाथन नेपियर का कहना है कि बांग्लादेश इसे अनुमति देता है, तो स्पष्ट हो जाएगा कि सार्वजनिक पैसे से खेती में बायोटेक्नॉलॉजी का विकास संभव है। पर्यावरणविद अभी इस तरह की फसलों का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसी फसलों को उगाना पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करने जैसा है।

गोल्डन धान का विकास 1990 के दशक में जर्मन वैज्ञानिकों इंगो पॉट्राइकस और पीटर बेयर ने किया था। उन्होंने इसमें एक ऐसा जीन जोड़ा था जो धान के पौधे में विटामिन ए की मात्रा बढ़ाएगा। यह जीन उन्होंने मक्का से निकाला था। इस तरह विकसित पौधा उन्होंने सार्वजनिक कृषि संस्थानों को सौंप दिया था। विटामिन ए की कमी बचपन में होने वाले अंधत्व का एक प्रमुख कारण है। इसके अलावा, विटामिन ए की कमी से बच्चे ज़्यादा बीमार पड़ते हैं। बांग्लादेश जैसे जिन इलाकों में चावल मुख्य भोजन है, वहां विटामिन ए की कमी एक प्रमुख समस्या है। बांग्लादेश में लगभग 21 प्रतिशत बच्चे इससे पीड़ित हैं।

पिछले दो वर्षों में यू.एस., कनाडा, न्यूज़ीलैंड तथा ऑस्ट्रेलिया गोल्डन चावल के उपभोग की अनुमति दे चुके हैं किंतु इन देशों में इसे उगाने की कोई योजना फिलहाल नहीं है।

बांग्लादेश में जिस गोल्डन धान को उगाने की बात चल रही है वह वहीं की एक स्थानीय किस्म धान-29 में नया जीन जोड़कर तैयार की गई है। बांग्लादेश के कृषि वैज्ञानिकों का मत है कि इसे उगाने में कोई समस्या नहीं आएगी और गुणवत्ता में भी कोई फर्क नहीं है। बांग्लादेश राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (बी.आर.आर.आई.) ने अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंप दी है और जैव सुरक्षा समिति ने भी इसकी जांच लगभग पूरी कर ली है। लगता है जल्दी ही इसे मंज़ूरी मिल जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQoU0bDgELVyEXuT4YlNChNHnfRBg24oWnFA7YmQU3ZkY9hQyly

पौधों ने ज़मीन पर घर कैसे बसाया

क गीले पत्थर पर जमे एक चिपचिपे लोंदे के अध्ययन से पता चला है कि पौधों को ज़मीन पर डेरा जमाने में शायद बैक्टीरिया की मदद मिली थी। दरअसल, 2006 में शैवाल वैज्ञानिक माइकल मेल्कोनियन पौधे एकत्रित करने में लगे हुए थे। जर्मनी के कोलोन विश्वविद्यालय के समीप एक स्थान पर उन्हें एक असाधारण शैवाल मिली। मेल्कोनियन और उनके साथियों ने अब इस शैवाल (स्पायरोग्लिया मस्किकोला – एस.एम.) और उसके निकट सम्बंधी (मीसोटेनियम एंडलिचेरिएनम – एम.ई.) के जीनोम का विश्लेषण कर लिया है और यह देखने की कोशिश की है कि इसमें वे जीन्स कौन-से हैं जिन्होंने ज़मीन पर जीवन को संभव बनाया है। ऐसे कम से कम दो जीन मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से आए हैं।

जीव वैज्ञानिक कई वर्षों से यह समझने की कोशिश करते रहे हैं कि पौधों ने ज़मीन पर कैसे घर बनाया क्योंकि पानी से ज़मीन पर आना कई समस्याओं को जन्म देता है। इसे समझने का एक तरीका यह रहा है कि निकट सम्बंधी पौधों के जीनोम की तुलना की जाए। लेकिन अब शैवालों को भी इस तुलना में शामिल कर लिया गया है। उपरोक्त दो शैवाल (एस.एम. और एम.ई.) के जीनोम काफी छोटे हैं जबकि अन्य पौधों के जीनोम विशाल होते हैं। दूसरी बात यह है कि ये दोनों शैवाल नम सतहों पर पाई जाती हैं जो कुछ हद तक ज़मीन ही है।

मेल्कोनियन की टीम ने उक्त दो शैवालों के जीनोम की तुलना नौ ज़मीनी पौधों और अन्य शैवालों से की। देखा गया कि उक्त अर्ध-ज़मीनी शैवालों और नौ ज़मीनी पौधों में 22 जीन-कुलों के 902 जीन एक जैसे थे जबकि ये जीन अन्य जलीय शैवालों में नहीं थे। ये वे जीन हैं जो करीब 58 करोड़ वर्ष पूर्व उस समय विकसित हुए थे जब ये दो समूह एक-दूसरे अलग होकर अलग-अलग दिशा में विकसित होने लगे थे।

इनमें से दो साझा जीन-कुल वे हैं जो पौधों को सूखे व अन्य तनावों से निपटने में मदद करते हैं। कुछ अन्य शोध-समूह यह भी रिपोर्ट कर चुके हैं कि ज़मीन पर बसने वाले पौधों में कोशिका भित्ती बनाने वाले जीन्स और तेज़ प्रकाश को सहने की सामर्थ्य देने वाले जीन भी शामिल हैं।

शोधकर्ताओं को हैरानी इस बात पर हुई कि ये जीन मिट्टी के बैक्टीरिया में भी पाए जाते हैं तथा किसी अन्य जीव में नहीं पाए जाते। सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ये जीन बैक्टीरिया में से फुदककर उन जीवों में पहुंचे हैं जो उक्त शैवालों तथा ज़मीनी पौधों दोनों के पूर्वज थे। इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि बैक्टीरिया जीन्स का आदान-प्रदान आपस में करते रहते हैं। इसके अलावा, यह भी दावा किया गया है कि बैक्टीरिया और ज़्यादा जटिल जीवों के बीच जीन्स का आदान-प्रदान होता है। कई शोधकर्ता इस दावे को सही नहीं मानते लेकिन इस अनुसंधान से पता चलता है कि शायद यह संभव है और इसने जैव विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/CCAC-0214-Spirogloea-muscicola_collage_online.jpg?itok=qa8lRhSr

पौधों के सूखे से निपटने में मददगार रसायन

पानी की कमी या सूखा पड़ने जैसी समस्याएं फसल बर्बाद कर देती हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन के अनुसार ओपाबैक्टिन नामक रसायन इस समस्या से निपटने में मदद कर सकता है। ओपाबैक्टिन, पौधों द्वारा तनाव की स्थिति में छोड़े जाने वाले हार्मोन एब्सिसिक एसिड (एबीए) के ग्राही को लक्ष्य कर पानी के वाष्पन को कम करता है और पौधों में सूखे से निपटने की क्षमता बढ़ाता है।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के पादप जीव वैज्ञानिक सीन कटरल और उनके साथियों ने 10 साल पहले पौधों में उन ग्राहियों का पता लगाया था जो एबीए से जुड़कर ठंड और पानी की कमी जैसी परिस्थितियों से निपटने में मदद करते हैं। लेकिन पौधों पर बाहर से एबीए का छिड़काव करना बहुत महंगा था और लंबे समय तक इसका असर भी नहीं रहता था। इसके बाद कटलर और उनके साथियों ने साल 2013 में क्विनबैक्टिन नामक ऐसे रसायन का पता लगाया था जो एरेबिडोप्सिस और सोयाबीन के पौधों में एबीए के ग्राहियों के साथ जुड़कर उनमें सूखे को सहने की क्षमता बढ़ाता है। लेकिन क्विनबैक्टिन के साथ भी दिक्कत यह थी कि वह कुछ फसलों में तो कारगर था लेकिन गेहूं और टमाटर जैसी प्रमुख फसलों पर कोई असर नहीं करता था। इसलिए शोधकर्ता क्विनबैक्टिन के विकल्प ढूंढने के लिए प्रयासरत थे।

इस प्रक्रिया में पहले तो उन्होंने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से लाखों रसायनों से लगभग 10,000 ऐसे रसायनों को छांटा जो एबीए ग्राहियों से उसी तरह जुड़ते हैं जिस तरह स्वयं एबीए हार्मोन जुड़ता है। इसके बाद पौधों पर इन रसायनों का छिड़काव करके देखा। और जो रसायन सबसे अधिक सक्रिय मिले उनके प्रभाव को जांचा।

पौधों पर ओपाबैक्टिन व अन्य रसायनों का छिड़काव करने पर उन्होंने पाया कि क्विनबैक्टिन और एबीए हार्मोन की तुलना में ओपाबैक्टिन से छिड़काव करने पर तनों और पत्तियों से पानी की हानि कम हुई और इसका प्रभाव 5 दिनों तक रहा। जबकि एबीए से छिड़काव का प्रभाव दो से तीन दिन ही रहा और सबसे खराब प्रदर्शन क्विनबैक्टिन का रहा जिसने टमाटर पर तो कोई असर नहीं किया और गेहूं पर इसका असर सिर्फ 48 घंटे ही रहा।

प्रयोगशाला में मिले इन नतीजों की पुष्टि खेतों में या व्यापक पैमाने पर करना बाकी है। इसके अलावा इसके इस्तेमाल से पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव और विषैलेपन की जांच भी करना होगी।

कटलर का कहना है कि पौधों में हस्तक्षेप कर उनकी वृद्धि या उपज बढ़ाने के लिए छोटे अणु विकसित करना, खासकर कवकनाशक, कीटनाशक और खरपतवारनाशक बनाने के लिए, अनुसंधान का एक नया क्षेत्र हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://scitechdaily.com/images/Wheat-Treated-with-Opabactin-777×584.jpg

अमेज़न के जंगल बचाना धरती की रक्षा के लिए ज़रूरी – भारत डोगरा

व्यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। अत: जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274 भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।

इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अत: बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित किया गया है।

जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए।

इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।

उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं। वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।

इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRr3HNZEWr8VDAZKrunXVZhYFu1oKDxy7Cw6WAlEOu9-9YLTipL

वनों में जीएम वृक्ष लगाने देने की अपील

ई देशों में आजकल लकड़ी से बनी चीज़ों पर इस बात का प्रमाण अंकित किया जाता है कि वह लकड़ी ऐसे जंगल से प्राप्त हुई है जिसका प्रबंधन टिकाऊ ढंग से किया जा रहा है। इस तरह का प्रमाणन जर्मनी में फॉरेस्ट स्टुआर्डशिप कौंसिल (एफएससी) करती है तो स्विटज़रलैंड में प्रोग्राम फॉर दी एंडोर्समेंट ऑफ फॉरेस्ट सर्टिफिकेशन (पीईएफसी) द्वारा किया जाता है। इस प्रमाणीकरण से पूर्व जंगल से सम्बंधित कई सारे पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को परखा जाता है। इन दो संस्थाओं ने मिलकर आज तक 44 करोड़ हैक्टर जंगल को टिकाऊ रूप से प्रबंधित जंगल का प्रमाण पत्र दिया है। इस वर्ष भारत में ऐसी एक व्यवस्था को अंतिम रूप दिया गया है और पीईएफसी ने इसका अनुमोदन कर दिया है।

प्रमाणन की एक शर्त यह है कि प्रमाणित वन में जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) पेड़ नहीं होने चाहिए। संस्थाओं के अनुसार यह शर्त इस आधार पर लगाई गई थी कि ऐसे पेड़ों के कारण पर्यावरणीय जोखिम अनिश्चित है। एफएससी के निदेशक स्टीफन साल्वेडोर का कहना है कि यह प्रतिबंध जेनेटिक इंजीयरिंग टेक्नॉलॉजी के प्रति गहरी आशंकाओं का भी द्योतक है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि टिकाऊ प्रबंधन का प्रमाण पत्र प्राप्त जंगलों में जीएम पेड़ लगाने की अनुमति न देने का मतलब है कि आप नई टेक्नॉलॉजी से हासिल हुए रोग-प्रतिरोधी वृक्षों को अनुमति नहीं दे रहे हैं। वैज्ञानिकों ने उक्त दो संस्थाओं को लिखे अपने पत्र में साफ किया है कि जीएम वृक्ष पर्यावरण की दृष्टि से उतने ही निरापद हैं जितने सामान्य संकर पेड़ होते हैं। और वे कई रोगों से लड़ने की क्षमता से भी लैस होते हैं। एक उदाहरण के रूप में वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक रोग के कारण अमेरिकन चेस्टनट (शाहबलूत) का लगभग सफाया हो गया था। अब इस पेड़ में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे परिवर्तन किए गए हैं कि यह रोग प्रतिरोधी हो गया है। वैज्ञानिकों ने अपील की है कि प्रमाणित वनों में जीएम वृक्ष लगाने की अनुमति दी जाए। उनके मुताबिक प्रतिबंध के कारण शोध कार्य में दिक्कत आती है।

पीईएफसी के प्रवक्ता का कहना है कि प्रमाणन की शर्तों को हर पांच साल में संशोधित किया जाता है। अगला संशोधन 2023 में होगा। तब शर्तों में परिवर्तन के हिमायती संशोधन प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/trees_1280p.jpg?itok=pD1JDpp1

पेड़ भोजन-पानी में साझेदारी करते हैं

न्यूज़ीलैण्ड से मिले एक समाचार के मुताबिक पेड़ एक-दूसरे के साथ पोषण और पानी जैसे संसाधन मिल-बांटकर इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, शोधकर्ताओं को न्यूज़ीलैण्ड के नॉर्थ आईलैण्ड के वाइटाकेरे जंगल में एक पेड़ का ठूंठ मिला। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस ठूंठ में न तो कोई शाखा थी और न ही पत्तियां मगर वह जीवित था।

उपरोक्त कौरी पेड़ (Agathis australis) का ठूंठ पारिस्थिकीविद सेबेस्टियन ल्यूज़िंगर और मार्टिन बाडेर की नज़रों में संयोगवश ही आया था। वे देखना चाहते थे कि क्या यह ठूंठ आसपास के पड़ोसियों के दम पर ज़िन्दा है। वैसे वैज्ञानिक बरसों से यह सोचते आए हैं कि कई पेड़ों के ठूंठ अपने पड़ोसियों के दम पर ही बरसों तक जीवित बने रहते हैं मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं था।

शोधकर्ताओं के लिए यह उक्त विचार की जांच का अच्छा मौका था। एक बात तो उन्होंने यह देखी कि इस ठूंठ में रस का प्रवाह हो रहा था जिसकी अपेक्षा आप किसी मृत पेड़ में नहीं करते। जब उन्होंने उस ठूंठ और आसपास के पेड़ों में पानी के प्रवाह का मापन किया तो पाया कि इनमें कुछ तालमेल है। इससे लगा कि संभवत: आसपास के पेड़ों ने इस ठूंठ को जीवनरक्षक प्रमाणी पर रखा हुआ है। यह आश्चर्य की बात तो थी ही, मगर साथ ही इसने एक सवाल को जन्म दिया – आखिर आसपास के पेड़ ऐसा क्यों कर रहे हैं?

यह ठूंठ तो अब उस जंगल की पारिस्थितिकी का हिस्सा नहीं है, कोई भूमिका नहीं निभाता है, तो पड़ोसियों को क्या पड़ी है कि अपने संसाधन इसके साथ साझा करें। ल्यूज़िंगर के दल का ख्याल है कि इस ठूंठ का जड़-तंत्र आसपास के पेड़ों के साथ जुड़ गया है। पेड़ों में ऐसा होता है, यह बात तो पहले से पता थी। ऐसे जुड़े हुए जड़-तंत्र से पेड़ पानी व अन्य पोषक तत्वों का लेन-देन कर सकते हैं और पूरे समुदाय को एक स्थिरता हासिल होती है।

जीवित पेड़ों के बीच इस तरह की साझेदारी से पूरे समुदाय को फायदा होता है मगर एक ठूंठ के साथ साझेदारी से क्या फायदा। शोधकर्ताओं का मत है कि इस ठूंठ का यह जुड़ाव उस समय बना होगा जब वह जीवित पेड़ था। पेड़ के मर जाने के बाद भी वह जुड़ाव कायम है और ठूंठ को पानी मिल रहा है। है ना जीवन बीमा का मामला – जीवन में भी, जीवन के बाद भी। iScience शोध पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन से लगता है कि पेड़ों के बीच कहीं अधिक घनिष्ठ सम्बंध होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/5/5e/00_29_0496_Waipoua_Forest_NZ_-_Kauri_Baum_Tane_Mahuta.jpg

जंगल बसाए जा सकते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

द्योगिक विकास और उपभोक्ता मांग के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान दुनिया भर में तबाही मचा रहा है। विश्व में तापमान बढ़ता जा रहा है, दक्षिण चीन और पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ कहर बरपा रही है, बे-मौसम बारिश हो रही है, और विडंबना देखिए कि बारिश के मौसम में देर से और मामूली बारिश हो रही है। इस तरह के जलवायु परिवर्तन को थामने का एक उपाय है तापमान वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों, खासकर कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कम करना। बढ़ते वैश्विक तापमान को सीमित करने के प्रयास में दुनिया के कई देश एकजुट हुए हैं। कोशिश यह है कि साल 2050 तक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।

कार्बन डाईऑक्साइड कम करने का एक प्रमुख तरीका है पेड़-पौधों की संख्या और वन क्षेत्र बढ़ाना। पेड़-पौधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, और सूर्य के प्रकाश और पानी का उपयोग कर (हमारे लिए) भोजन और ऑक्सीजन बनाते हैं। पेड़ों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग हम इमारतें और फर्नीचर बनाने में करते हैं। संस्कृत में कल्पतरू की कल्पना की गई है – इच्छा पूरी करने वाला पेड़।

फिर भी हम इन्हें मार (काट) रहे हैं: पूरे विश्व में दशकों से लगातार वनों की कटाई हो रही है जिससे मौसम, पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों का जीवन और जंगलों में रहने वाले मनुष्यों की आजीविका प्रभावित हो रही है। पृथ्वी का कुल भू-क्षेत्र 52 अरब हैक्टर है, इसका 31 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र रहा है। व्यावसायिक उद्देश्य से दक्षिणी अमेरिका के अमेज़न वन का बड़ा हिस्सा काटा जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई से पश्चिमी अमेज़न क्षेत्र के पेरू और बोलीविया बुरी तरह प्रभावित हैं। यही हाल मेक्सिको और उसके पड़ोसी क्षेत्र मेसोअमेरिका का है। रूस, जिसका लगभग 45 प्रतिशत भू-क्षेत्र वन है, भी पेड़ों की कटाई कर रहा है। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई ने ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया है।

खाद्य एवं कृषि संगठन (FOA) के अनुसार ‘वन’ का मतलब है कम से कम 0.5 हैक्टर में फैला ऐसा भू-क्षेत्र जिसके कम से कम 10 प्रतिशत हिस्से में पेड़ हों, और जिस पर कृषि सम्बंधी गतिविधि या मानव बसाहट ना हो। इस परिभाषा की मदद से स्विस और फ्रांसिसी पर्यावरणविदों के समूह ने 4.4 अरब हैक्टर में छाए वृक्षाच्छादन का विश्लेषण किया जो मौजूदा जलवायु में संभव है। उन्होंने पाया कि यदि मौजूदा पेड़ और कृषि सम्बंधित क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों को हटा दें तो भी 0.9 अरब हैक्टर से अधिक भूमि वृक्षारोपण के लिए उपलब्ध है। नवीनतम तरीकों से किया गया यह अध्ययन साइंस पत्रिका के 5 जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ है। यानी विश्व स्तर पर वनीकरण करके जलवायु परिवर्तन धीमा करने की संभावना मौजूद है। शोधकर्ताओं के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक वनीकरण की संभावना 6 देशों – रूस, ब्राज़ील, चीन, यूएसए, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह भूमि निजी है या सार्वजनिक, लेकिन उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि 1 अरब हैक्टर में वनीकरण (10 प्रतिशत से अधिक वनाच्छादन के साथ) संभव है।

खुशी की बात यह है कि कई देशों के कुछ समूह और सरकारों ने वृक्षारोपण की ओर रुख किया है। इनमें खास तौर से फिलीपाइन्स और भारत की कई राज्य सरकारें (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट और डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार) शामिल हैं।

भारत का भू-क्षेत्र 32,87,569 वर्ग किलोमीटर है, जिसका 21.54 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। वर्ष 2015 से 2018 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 6778 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। सबसे अधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में है, इसके बाद छत्तीसगढ़, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश आते हैं। दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सबसे कम वन क्षेत्र है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और उड़ीसा ने अपने वनों में वृक्षाच्छादन को थोड़ा बढ़ाया है (10 प्रतिशत से कम)। कुछ निजी समूह जैसे लुधियाना का गुरू नानक सेक्रेड फॉरेस्ट, रायपुर के मध्य स्थित दी मिडिल ऑफ द टाउन फॉरेस्ट, शुभेन्दु शर्मा का अफॉरेस्ट समूह उल्लेखनीय गैर-सरकारी पहल हैं। आप भी इस तरह के कुछ और समूह के बारे में जानते ही होंगे। (और, हम शतायु सालुमरदा तिमक्का को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने लगभग 385 बरगद और 8000 अन्य वृक्ष लगाए, या उत्तराखंड के चिपको आंदोलन से जुड़े सुंदरलाल बहुगुणा को?)।

एक बेहतरीन मिसाल

लेकिन वनीकरण की सबसे उम्दा मिसाल है फिलीपाइन्स। फिलीपाइन्स 7100 द्वीपों का समूह है जिसका कुल भू-क्षेत्र लगभग तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और आबादी लगभग 10 करोड़ 40 लाख। 1900 में फिलीपाइन्स में लगभग 65 प्रतिशत वन क्षेत्र था। इसके बाद बड़े पैमाने पर लगातार हुई कटाई से 1987 में यह वन क्षेत्र घटकर सिर्फ 21 प्रतिशत रह गया। तब वहां की सरकार स्वयं वनीकरण करने के लिए प्रतिबद्ध हुई। नतीजतन वर्ष 2010 में वन क्षेत्र बढ़कर 26 प्रतिशत हो गया। और अब वहां की सरकार ने एक और उल्लेखनीय कार्यक्रम चलाया है जिसमें प्राथमिक, हाईस्कूल और कॉलेज के प्रत्येक छात्र को उत्तीर्ण होने के पहले 10 पेड़ लगाना अनिवार्य है। कहां और कौन-से पौधे लगाने हैं, इसके बारे में छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है। (और जानने के लिए देखें –(news.ml.com.ph> of Manila Bulletin, July 16, 2019)। इस प्रस्ताव के प्रवर्तक गैरी एलेजैनो का इस बात पर ज़ोर था कि शिक्षा प्रणाली युवाओं में प्राकृतिक संसाधनों के नैतिक और किफायती उपयोग के प्रति जागरूकता पैदा करने का माध्यम बननी चाहिए ताकि सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार और जागरूक नागरिकों का निर्माण हो सके।

यह हमारे भारतीय छात्रों के लिए एक बेहतरीन मिसाल है। मैंने सिफारिश की है कि इस मॉडल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में जोड़ा जाए, ताकि हमारे युवा फिलीपाइन्स के इस प्रयोग से सीखें और अपनाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/t793yu/article28620880.ece/alternates/FREE_660/21TH-SCIFOREST

माजूफल: फल दिखता है, फल होता नहीं – डॉ. किशोर पंवार

माजूफल, जायफल, और कायफल भारत तथा एशिया के कई देशों में घरेलू चिकित्सा के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। पहले तो ये तीनों अपने मूल स्वरूप में हर घर में मिलते थे परंतु अब इनके उत्पाद मिलते हैं पावडर या कैप्सूल के रूप में। आइए देखते हैं कि ये फल वास्तव में कितने फल है।

पहले बात करते हैं जायफल की। अंग्रेज़ी में इसे नटमेग कहते हैं। वनस्पति विज्ञानी इसे मायरिस्टिका फ्रेगरेंस नाम से जानते हैं। नाम से ही पता चलता है कि यह कोई सुगंधित वस्तु है। संस्कृत साहित्य में इसे जाति फलम कहा गया है। इसके पेड़ जावा, सुमात्रा, सिंगापुर, लंका तथा वेस्ट इंडीज़ में अधिक पाए जाते हैं। हमारे यहां तमिलनाडु और केरल में इसके पेड़ लगाए गए हैं। जायफल का वृक्ष सदाबहार होता है। फूल सफेद और फल छोटे-छोटे, लगभग अंडाकार लाल-पीले होते हैं जो पकने पर दो भागों में फट जाते हैं। फटने पर सूखे हुए बीज को घेरे हुए सुर्ख लाल रंग की एक जाल सी रचना नज़र आती है। यह भूरा, अंडाकार तथा लगभग 2-5 सेंटीमीटर का बीज ही जायफल है।

फल का उपयोग सुगंध, उत्तेजक, मुख दुर्गंध नाशक और वेदनाहर के रूप में किया जाता है।

अब जरा जावित्री की बात कर लेते हैं। यह लाल नारंगी रंग की मोटी जाल समान रचना है जो टुकड़ों के रूप में बाज़ार में मिलती है। जावित्री दरअसल जायफल के बीज पर लगी एक विशेष रचना है, जो सुगंधित और तीखी होती है। इसमें मुख्य रूप से वाष्पशील तेल, वसा और गोंद होते हैं। इसके गुण भी जायफल की तरह होते हैं इसे हम बीज का तीसरा छिलका या विज्ञान की भाषा में एरील कहते हैं।

अब बात करें कायफल की। वनस्पति शास्त्र में मिरिका एस्कूलेंटा नाम से ज्ञात यह पेड़ हिमालय के उष्ण प्रदेशों में खासी पहाड़ियों में पाया जाता है। सिंगापुर में भी मिलता है। चीन तथा जापान में इसकी खेती की जाती है। इसके मध्यम ऊंचाई के वृक्ष सदाबहार होते हैं, छाल बादामी-धूसर और सुगंधित होती है। फल लगभग आधा इंच लंबे अंडाकार दानेदार बादामी होते हैं। यद्यपि वृक्ष का नाम कायफल है, तब भी औषधि के रूप में इसकी छाल का ही प्रयोग कायफल के नाम से किया जाता है। अत: यह फल नहीं, एक पेड़ की छाल है। इसकी छाल को सूंघने से छींक आती है, तथा पानी में डालने पर लाल हो जाती है। 

अब बात एक बिलकुल ही नकली फल – माजूफल – की। यह नकली फल क्वेर्कस इनफेक्टोरिया नामक एक ओक प्रजाति का है और गाल्स के रूप में बनता है। सदियों से एशिया महाद्वीप में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में इन गाल्स का उपयोग किया जाता रहा है। मलेशिया में इसे मंजाकानी कहते हैं। इसका उपयोग चमड़े को मुलायम करने और काले रंग की स्याही बनाने में वर्षो से हो रहा है। भारत में इसे माजूफल कहते हैं। 

क्वेर्कस इनफेक्टोरिया एक छोटा पेड़ है, जो एशिया माइनर का मूल निवासी है। पत्तियां चिकनी और चमकदार हरी होती हैं। जब ततैया शाखाओं पर छेद कर उनमें अपने अंडे देती है तो इन अंडों से निकलने वाले लार्वा और तने की कोशिकाओं के बीच रासायनिक अभिक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप शाखाओं पर फल जैसी गोल-गोल कठोर रचनाएं बन जाती है, जो दिखने में खुरदरी होती हैं। इन्हें गाल कहते हैं और यही माजूफल है। 

इस गाल में अन्य रसायनों के अलावा टैनिन काफी मात्रा में पाया जाता है। भारत में माजूफल का उपयोग दंत मंजन बनाने, दांत के दर्द और पायरिया के उपचार में किया जाता है। इस गाल से मिलने वाला टैनिक एसिड गोल्ड सॉल बनाने के काम आता है। गोल्ड सॉल का उपयोग इम्यूनोसाइटोकेमेस्ट्री में मार्कर के रूप में किया जाता है। वर्तमान में इसका उपयोग खाद्य पदार्थों, दवा उद्योग, स्याही बनाने और धातु कर्म में बड़े पैमाने पर किया जाता है। माजूफल का उपयोग प्रसव के बाद गर्भाशय को पूर्व स्थिति में लाने के लिए भी किया जाता है।

तो हमने देखा कि ये तीन विचित्र चीज़ें हैं, जिनका उपयोग फल कहकर किया जाता है। इनमें से एक (जायफल) तो फल नहीं बीज है। दूसरा (कायफल) छाल है जबकि तीसरा (माजूफल) तो फलनुमा दिखने के बावजूद गाल नामक एक विशेष संरचना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://i.etsystatic.com/6664042/r/il/01335b/1632872984/il_570xN.1632872984_46pg.jpg