खोपड़ी में इतनी हड्डियां क्यों?

अनुमान लगाइए आपकी खोपड़ी में कितनी हड्डियां होंगी। शायद आपका अनुमान दो, या शायद कुछ अधिक हड्डियों का हो। लेकिन वास्तव में मानव खोपड़ी में अनुमान से कहीं अधिक हड्डियां होती हैं। नेशनल सेंटर फॉर बॉयोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन के मुताबिक मानव खोपड़ी में हड्डियों की संख्या 22 होती है: 8 हड्डियां कपाल में और 14 हड्डियां चेहरे की।  

अलग-अलग जीवों की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अलग-अलग होती है। ओहायो युनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक मगरमच्छ की खोपड़ी में 53 हड्डियां होती हैं। अब तक खोपड़ी में सबसे अधिक हड्डियां लुप्त हो चुकी एक मछली के जीवाश्म में मिली है (156)। सामान्यत: मछलियों की खोपड़ी में तकरीबन 130 हड्डियां होती हैं।

विभिन्न रीढ़धारी जीवों में जन्म के समय खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अधिक होती है, लेकिन कुछ में युवावस्था आने तक कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं जबकि कुछ जीवों में ये हड्डियां अलग-अलग बनी रहती हैं। जैसे स्तनधारी जीवों के भ्रूण की खोपड़ी में लगभग 43 हड्डियां होती हैं, लेकिन उम्र के साथ इनमें से कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं। मानव शिशु में जन्म के समय के माथे की दो हड्डियां होती हैं जो उम्र बढ़ने पर जुड़कर एक हो जाती हैं।

प्रत्येक रीढ़धारी जीव की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या, आगे चलकर कितनी हड्डियां जुड़ेंगी, जुड़ाव का स्थान और समय में विविधता होती है। और इससे पता लगता है कि उस जीव की खोपड़ी का उपयोग कैसा है, और खोपड़ी में कितने लचीलेपन की ज़रूरत है। जीव की खोपड़ी जितनी अधिक लचीली होगी, उसकी खोपड़ी में उतनी अधिक हड्डियां होंगी। मसलन मछिलयों की खोपड़ी बहुत लचीली होती है और उनकी खोपड़ी में हड्डियों की संख्या बहुत अधिक होती है और उनमें बहुत कम हड्डियां आपस में जुड़ती हैं। वैसे ज़मीन पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की तुलना में मछलियों को अपने सिर का संतुलन बनाए रखने के लिए गुरुत्व बल से जूझना नहीं पड़ता, इसलिए उनकी हड्डियां हल्की और लचीली होती हैं। पक्षियों की भी खोपड़ी काफी लचीली होती है। जैव विकास में जीवों की खोपड़ी अलग-अलग तरह से विकसित हुर्इं हैं। खोपड़ी की हड्डियों में यह विविधता जीव विकास की समृद्ध प्रक्रिया के बारे में बताती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर में बदलाव – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

दुनिया के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन थे, उन्होंने 12 अप्रैल 1961 को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा किया था। इस से भड़ककर यू.एस. ने ‘प्रोजेक्ट अपोलो’ लॉन्च किया था जिसके तहत पहली बार मनुष्य चांद पर उतरा था। चंद्रमा से वापस धरती पर आने के बाद आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा था कि “मनुष्य का एक छोटा कदम मानवजाति के लिए बड़ी छलांग है।” उसके बाद से अब तक 37 देशों के लगभग 536 लोग अंतरिक्ष की यात्रा कर चुके हैं। और आज यदि आपके पास पर्याप्त पैसा और जज़्बा है तो दुनिया की कम-से-कम चार कंपनियां आपको अंतरिक्ष की सैर करवाने की पेशकश कर रही हैं।

लेकिन अंतरिक्ष यात्रा मानव शरीर पर क्या प्रभाव डालती है- इस दौरान शरीर के रसायन शास्त्र, शरीर क्रियाओं, जीव विज्ञान और उससे जुड़ी चिकित्सीय परिस्थितियां कैसे प्रभावित होती हैं। मसलन, मंगल से पृथ्वी की दूरी औसतन 5 करोड़ 70 लाख किलोमीटर है और वहां पहुंचने में लगभग 300 दिन लगते है। तो इस एक साल की यात्रा के दौरान शरीर में क्या-क्या बदलाव होंगे? इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए नासा ने अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर में होने वाले परिवर्तनों को जानने के लिए एक प्रयोग किया था जिसमें एक अंतरिक्ष यात्री को पृथ्वी से 400 किलोमीटर दूर स्थित इंटनेशनल स्पेस स्टेशन (आइएसए) में रखा गया।

इस अध्ययन में अंतरिक्ष यात्री स्कॉट केली को एक साल तक अंतरिक्ष स्टेशन में रखा गया और इस दौरान उनकी कई जीव वैज्ञानिक पैमानों पर जांच की गई। अंतरिक्ष यात्रा के कारण होने वाले प्रभावों की पुष्टि के लिए कंट्रोल के तौर पर स्कॉट के आइडेंटिकल जुड़वां भाई मार्क केली पृथ्वी पर ही रुके थे। इस दौरान मार्क की भी उन्हीं पैमानों पर जांच की गई। इस अध्ययन में कंट्रोल रखना एक बेहतरीन योजना है, क्योंकि स्कॉट में आए बदलाव अंतरिक्ष यात्रा का ही प्रभाव है इसकी पुष्टि मार्क के साथ तुलना करके की जा सकती है।

अंतरिक्ष के कौन से कारक शरीर को प्रभावित करते हैं। शरीर को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक कारक है अंतरिक्ष का शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण भारहीनता का एहसास होता है, जो शरीर को प्रभावित करता है। पृथ्वी पर हमें सीधा या तनकर खड़े होने में गुरुत्वाकर्षण मदद करता है। खड़े होने या चलने की स्थिति में हमारे शरीर में रक्त या अन्य तरल का प्रवाह नीचे की ओर होता है (शरीर में मौजूद पंप और वाल्व, इस नैसर्गिक प्रवाह के विपरीत, इन तरल पदार्थों का पूरे शरीर में संचार करते हैं)। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण शरीर का तरल या रक्त संचार प्रभावित होता है। डॉ. लॉबरिच और डॉ. जेग्गो साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में बताते हैं कि पृथ्वी पर जीवन ने पृथ्वी की सतह पर लगने वाले गुरुत्वाकर्षण के अनुरूप आकार लिया है, और लगभग सभी शारीरिक क्रियाएं इसके अनुकूल ढली हैं। तो शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी उन्हें कैसे प्रभावित करेगी।

अंतरिक्ष में शरीर को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक है आयनीकारक विकिरण से संपर्क। आयनीकारक विकिरण ब्राहृांडीय किरणों तथा सौर किरणों जैसे रुाोत से निकलती हैं। यह विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों पर प्रभाव डालता है। पृथ्वी पर मौजूद वायुमंडल और पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इस विकिरण से हमारी सुरक्षा करता है। यानी अध्ययन के दौरान अंतरिक्ष स्टेशन निवासी स्कॉट पृथ्वी पर रुके मार्क की तुलना में आयनीकारक किरणों के संपर्क में अधिक आए थे।

जुड़वां भाइयों के इस अध्ययन में उनके शरीर में हुए रसायनिक, भौतिक और जैव-रासायनिक बदलावों की विस्तारपूर्वक तुलना फ्रेंसिन गेरेट, बैकलमेन और उनके साथियों द्वारा की गई। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा से पहले, यात्रा के दौरान, यात्रा से वापसी के तुरंत और 6 महीने बाद स्कॉट में संज्ञान सम्बंधी, शारीरिक, जैव-रासायनिक परिवर्तनों, सूक्ष्मजीव विज्ञान और जीन के व्यवहार और टेलोमेयर (क्रोमोसोम के सिरों वाले खंड) का अध्ययन किया। साथ ही साथ यही अध्ययन पृथ्वी पर रुके मार्क के साथ भी किए गए। उनका यह अध्ययन 25 महीने तक चला।

अध्ययन के नतीजे क्या रहे? अध्ययन में उन्होंने पाया कि अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर की कुछ जैविक प्रक्रियाएं जैसे प्रतिरक्षा प्रणाली (टी-कोशिकाएं), शरीर का द्रव्यमान, आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव वगैरह कम प्रभावित हुए थे। कुछ अन्य प्रक्रियाएं जैसे रक्त प्रवाह मध्यम स्तर तक प्रभावित हुए थे। लेकिन अंतरिक्ष यात्रा के दौरान टेलोमेयर गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे; स्कॉट के टेलोमेयर छोटे हो गए थे। इससे लगता है कि आयनीकारक किरणों ने स्कॉट को प्रभावित किया था। शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण रक्त और ऊतकों का तरल ऊपरी हिस्सों में पहुंच गया था, कैरोटिड (गर्दन में मौजूद धमनी) की दीवार मोटी हो गई थी जिसके परिणाम-स्वरूप ह्मदय और मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में बदलाव हुए थे। साथ ही स्कॉट में रेटिना के इर्द-गिर्द रक्त प्रवाह और कोरोइड का मोटा होना देखा गया था, जिसके कारण नज़र हल्की धुंधली पड़ गई थी।

वापसी पर सामान्य स्थिति

वैज्ञानिक अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद भी स्कॉट की जांच करते रहे थे। उन्होंने पाया कि स्कॉट में जो बदलाव अंतरिक्ष यात्रा के दौरान आए थे, पृथ्वी पर लौटने के बाद वे सामान्य स्थिति में लौट आए थे। हमें इस तरह के और भी अध्ययनों की ज़रूरत है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि लंबी अंतरिक्ष यात्रा जैविक और शारीरिक रूप से किस तरह प्रभावित करती है क्योंकि जितनी लंबी अंतरिक्ष यात्रा होगी प्रभाव भी उतना अधिक होगा। इसके अलावा अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद सामान्य अवस्था में लौटने में भी अधिक वक्त लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

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स्मार्टफोन के उपयोग से खोपड़ी में परिवर्तन

हमारी खोपड़ी में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है और कई चिकित्सकों का मत है कि यह परिवर्तन कई घंटों तक गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन के उपयोग की वजह से हो रहा है। वैसे तो कुछ लोगों में गर्दन के ऊपर खोपड़ी के निचले हिस्से की हड्डी थोड़ी उभरी होती है। इसे बाहरी पश्चकपाल गूमड़ कहते हैं। मगर हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सामान्य से ज़्यादा लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में, यह गूमड़ कुछ ज़्यादा ही उभरने लगा है।

20 वर्षों से चिकित्सक रहे यूनिवर्सिटी ऑफ दी सनशाइन कोस्ट, ऑस्ट्रेलिया के स्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड शाहर के अनुसार उनको पिछले एक दशक में इस तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। इसके कारण की स्पष्ट पहचान तो नहीं हो सकी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि स्मार्ट उपकरणों को देखने के लिए असहज कोणों पर गर्दन को झुकाने से इस खोपड़ी के पिछले भाग की हड्डी बढ़ रही है। लंबे समय तक सर को झुकाकर रखने से गर्दन पर भारी तनाव पड़ता है। इसको कई बार ‘पढ़ाकू गर्दन’ (टेक्स्ट नेक) के नाम से भी जाना जाता है।

शाहर के  अनुसार पढ़ाकू गर्दन की वजह से गर्दन और खोपड़ी से जुड़ी मांसपेशियों पर दबाव बढ़ता है जिसके  जवाब में खोपड़ी के पिछले भाग (पश्चकपाल) की हड्डी बढ़ने लगती है। यह हड्डी सिर के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती है।

वर्ष 2016 में शाहर और उनके सहयोगियों ने इस गूमड़ का अध्ययन करने के  लिए 18 से 30 वर्ष की आयु के 218 युवा रोगियों के रेडियोग्राफ देखे। एक सामान्य नियमित उभार 5 मि.मी. माना गया और 10 मि.मी. से बड़े उभार को बढ़ा हुआ माना गया।

कुल मिलाकर समूह के 41 प्रतिशत लोगों में उभार बढ़ा हुआ निकला और 10 प्रतिशत में उभार 20 मि.मी. से बड़ा पाया गया। सामान्य तौर पर, महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह उभार अधिक देखा गया। सबसे बड़ा उभार एक पुरुष में 35.7 मि.मी. का था।

18 से 86 वर्ष के 1200 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या कम उम्र के लोगों में अधिक दिखती है। जहां पूरे समूह के 33 प्रतिशत लोगों में बढ़ा हुआ उभार देखा गया, वहीं 18-30 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में यह स्थिति 40 प्रतिशत से अधिक में पाई गई। यह परिणाम चिंताजनक है क्योंकि आम तौर पर इस तरह की विकृतियां उम्र के साथ बढ़ती हैं मगर हो रहा है उसका एकदम उल्टा।

शाहर का मानना है कि इस हड्डी की यह हालत बनी रहेगी हालांकि यह स्वास्थ्य की समस्या शायद न बने। बहरहाल, यदि आपको इसके कारण असुविधा हो रही है तो अपने उठने-बैठने के ढंग में परिवर्तन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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लैक्टोस पचाने की क्षमता की शुरुआत कहां से हुई

ह एक पहेली रही है कि दूध में उपस्थित एक शर्करा लैक्टोस को पचाने की क्षमता सभी मनुष्यों में नहीं पाई जाती। जिन लोगों में यह क्षमता नहीं होती उन्हें दूध नहीं सुहाता। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि आम तौर पर लैक्टोस को पचाने की क्षमता बचपन में पाई जाती है और बड़े होने के साथ समाप्त हो जाती है। तो सवाल यह है कि यह क्षमता मनुष्य में कब आई और कैसे फैली।

आज से लगभग 5500 साल पहले युरोप में मवेशियों, भेड़-बकरियों को पालने की शुरुआत हो रही थी, लगभग उसी समय पूर्वी अफ्रीका में भी पशुपालन का काम ज़ोर पकड़ रहा था।

पूर्व में हुए पुरातात्विक शोध के अनुसार पूर्वी अफ्रीका में प्रथम चरवाहे लगभग 5000 साल पूर्व आए थे। आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि ये निकट-पूर्व और आजकल के सूडान के निवासियों के मिले-जुले वंशज थे। ये चरवाहे वहां के शिकारी-संग्रहकर्ता मानवों के साथ तो घुल-मिल गए; ठीक उसी तरह जैसे पशुपालन को एशिया से युरोप लाने वाले यामनाया चरवाहों ने वहां के स्थानीय किसानों और शिकारियों के साथ प्रजनन सम्बंध बनाए थे। अलबत्ता, लगभग 1000 साल बाद भी पूर्वी अफ्रीका के चरवाहे स्वयं को आनुवंशिक रूप से अलग रख सके यानी उनके साथ संतानोत्पत्ति के सम्बंध नहीं बनाए और वहां के अन्य स्थानीय लोगों से अलग ही रहे।

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्राचीन समय के लगभग 41 उन लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया जो वर्तमान के केन्या और तंज़ानिया के निवासी थे। उन्होंने पाया कि आजकल के चरवाहों के विपरीत इन लोगों में लैक्टोस को पचाने की क्षमता नहीं थी। सिर्फ एक व्यक्ति जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व तंज़ानिया की गिसीमंगेडा गुफा में रहता था, में लैक्टोस को पचाने वाला जीन मिला है जो इस ओर इशारा करता है कि इस इलाके में लैक्टोस के पचाने का गुण किस समय विकसित होना शुरू हुआ था। इस व्यक्ति के पूर्वज चरवाहे और उसके साथी यदि दूध या दूध से बने उत्पादों का सेवन करते होंगे तो वे किण्वन के ज़रिए दही वगैरह बनाकर ही करते होंगे क्योंकि उसमें लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। मंगोलियन चरवाहे लैक्टोस को पचाने के लिए सदियों से यही करते आए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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अल्जीरिया और अर्जेंटाइना मलेरिया मुक्त घोषित

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 22 मई के दिन अल्जीरिया और अर्जेंटाइना को मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया। यह निर्णय तब किया गया जब इन दोनों देशों में पिछले तीन सालों से अधिक समय से मलेरिया का कोई मामला नहीं देखा गया। इसके साथ ही मलेरिया मुक्त देशों की संख्या 38 हो गई है।

गौरतलब है कि दुनिया के 80 देशों में हर साल करीब 20 करोड़ मलेरिया के मामले सामने आते हैं। 2017 में तकरीबन 4 लाख 35 हज़ार लोग मलेरिया की वजह से मारे गए थे।

अफ्रीकी देश अल्जीरिया में मलेरिया परजीवी पहली बार 1880 में देखा गया था। यहां मलेरिया का आखिरी मामला 2013 में सामने आया था। दक्षिण अमरीकी देश अर्जेंटाइना में मलेरिया आखिरी बार 2010 में पाया गया था। दोनों ही देशों में कई दशकों में मलेरिया प्रसार की दर काफी कम रही है। यहां मलेरिया से संघर्ष में प्रमुख भूमिका सबके लिए स्वास्थ्य की उपलब्धता और मलेरिया की गहन निगरानी की रही है। इसके अलावा अर्जेंटाइना ने विशेष प्रयास यह भी किया कि पड़ोसी देशों को राज़ी किया कि वे अपने यहां कीटनाशक छिड़काव करें और बुखारग्रस्त लोगों की मलेरिया के लिए जांच करें ताकि सीमापार फैलाव को रोका जा सके।

पहले तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया था जो मुख्य रूप से डीडीटी के छिड़काव और मलेरिया-रोधी दवाइयों पर टिका था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 27 देश मलेरिया मुक्त हुए थे। लेकिन साल 1969 में संगठन ने मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम को त्याग दिया था क्योंकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि विश्व स्तर पर मलेरिया का उन्मूलन अल्प अवधि में संभव नहीं है।

अलबत्ता, 2000 के दशक में एक बार फिर कोशिशें शुरू हुर्इं और इस बार लक्ष्य यह रखा गया कि 2020 तक 21 देशों को मलेरिया मुक्त कर दिया जाएगा। इनमें से 2 (पेरागुए और अल्जीरिया) अब पूरी तरह मलेरिया मुक्त हैं। (स्रोत फीचर्स)

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दुनिया का सबसे छोटा जीवित शिशु सेब के बराबर था

दिसंबर 2018 के दौरान शार्प मैरी बर्च हॉस्पिटल फॉर वीमेन एंड न्यूबॉर्न्स, सैन डिएगो में मात्र लगभग 245 ग्राम वज़न की एक बच्ची का जन्म हुआ। एक बड़े सेब के वज़न की इस बच्ची को अस्पताल में काम करने वाली नर्सों ने ‘सेबी’ नाम दिया है। अस्पताल ने बताया है कि सेबी दुनिया की सबसे छोटी बच्ची है जो जीवित रह पाई है।

गर्भावस्था की जटिलताओं के चलते सेबी का जन्म ऑपरेशन के माध्यम से सिर्फ 23 सप्ताह और 3 दिनों के गर्भ से हुआ था। चूंकि उस समय गर्भ केवल 23 सप्ताह का था इसलिए बच्ची के जीवित रहने की संभावना मात्र 1 घंटे ही थी लेकिन धीरे-धीरे एक घंटा दो घंटे में परिवर्तित हुआ और फिर एक हफ्ते और अब जन्म के पांच महीने बाद सेबी का वज़न लगभग ढाई किलोग्राम है और उसे अस्पताल छोड़ने की अनुमति भी मिल गई है।

युनिवर्सिटी ऑफ आयोवा में सबसे छोटे जीवित शिशुओं का रिकॉर्ड रखा जाता है। जन्म के समय सेबी का वज़न पिछले रिकॉर्ड से 7 ग्राम कम था, जो 2015 में जर्मनी में पैदा हुआ एक बच्ची का है। इस साल फरवरी में, डॉक्टरों ने सबसे छोटे जीवित लड़के के जन्म की सूचना दी, जिसका वजन जन्म के समय 268 ग्राम था।

अस्पताल के अनुसार सेबी को केवल जीवित रखने के अलावा उनको किसी अन्य मेडिकल चुनौति का सामना नहीं करना पड़ा जो आम तौर पर माइक्रोप्रीमीस (28 सप्ताह से पहले जन्म लेने वाले बच्चों) में देखने को मिलती हैं। माइक्रोप्रीमीस में मस्तिष्क में रक्तस्राव तथा फेफड़े और ह्मदय सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं।

यह अस्पताल माइक्रोप्रीमीस की देखभाल करने में माहिर है। इसलिए कहा जा सकता है कि सेबी सही जगह पर पैदा हुई है। लेकिन फिर भी माइक्रोप्रीमीस को आगे चलकर काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे-जैसे ये बच्चे बड़े होते जाते हैं उनमें दृष्टि समस्याएं, सूक्ष्म मोटर दक्षता और सीखने की अक्षमताओं जैसी समस्याएं होने लगती हैं।

अगले कुछ वर्षों के लिए, सेबी को अस्पताल के अनुवर्ती क्लीनिक में नियमित रूप से जाना होगा जिसका उद्देश्य ऐसे शिशुओं के विकास में मदद करना है।(स्रोत फीचर्स)

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कितना सही है मायर्स-ब्रिग्स पर्सनैलिटी टेस्ट?

क्सर व्यक्तित्व परीक्षण के लिए मायर्स-ब्रिग्स पर्सनालिटी टेस्ट (एमबीटी) का उपयोग किया जाता है। इस परीक्षण में लोगों को 16 श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।

एमबीटी का आविष्कार 1942 में कैथरीन कुक ब्रिग्स और उनकी बेटी, इसाबेल ब्रिग्स मायर्स ने किया था। उनका मकसद ऐसे टाइप इंडिकेटर विकसित करना था, जिनसे लोगों को खुद की प्रवृत्ति को समझने और उचित रोज़गार चुनने में मदद मिले। परीक्षण में कुछ सवालों के आधार पर निम्नलिखित लक्षणों का आकलन किया जाता है: 

·         अंतर्मुखी (I) बनाम बहिर्मुखी (E)

·         सहजबोधी (N) बनाम संवेदना-आधारित (S)

·         विचारशील (T) बनाम जज़्बाती (P)

·         फैसले सुनाने वाला (J) बनाम समझने की कोशिश करने वाला (P)

इस परीक्षण के आधार पर लोगों को 16 लेबल प्रकार प्रदान दिए जाते हैं, जैसे  INTJP, ENPF

मायर्स ब्रिग्स परीक्षण का प्रबंधन करने वाली कंपनी के अनुसार हर साल लगभग 15 लाख लोग इसकी ऑनलाइन परीक्षा में शामिल होते हैं। कई बड़ी-बड़ी कंपनियों और विद्यालयों में इस परीक्षण का उपयोग में किया जाता है। और तो और, हैरी पॉटर जैसे काल्पनिक पात्र को भी एमबीटी लेबल दिया गया है।

लोकप्रियता के बावजूद कई मनोवैज्ञानिक इसकी आलोचना करते हैं। मीडिया में कई बार इसको अवैज्ञानिक, अर्थहीन या बोगस बताया गया है। लेकिन कई लोग परीक्षण के बारे में थोड़े उदार हैं। ब्रॉक विश्वविद्यालय, ओंटारियो के मनोविज्ञान के प्रोफेसर माइकल एश्टन एमबीटी को कुछ हद तक वैध मानते हैं लेकिन उसकी कुछ सीमाएं भी हैं। 

एमबीटी के साथ मनोवैज्ञानिकों की मुख्य समस्या इसके पीछे के विज्ञान से जुड़ी है। 1991 में, नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की समिति ने एमबीटी अनुसंधान के आंकड़ों की समीक्षा करते हुए कहा था कि इसके अनुसंधान परिणामों में काफी विसंगतियां हैं।

एमबीटी उस समय पैदा हुआ था जब मनोविज्ञान एक अनुभवजन्य विज्ञान था और इसे व्यावसायिक उत्पाद बनने से पहले उन विचारों का परीक्षण तक नहीं किया गया था। लेकिन आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की मांग है कि किसी व्यक्तित्व परीक्षण को कुछ मानदंड पूरे करने चाहिए।

कुछ शोध एमबीटी को अविश्वसनीय बताते हैं क्योंकि एक ही व्यक्ति दोबारा टेस्ट ले तो परिणाम भिन्न हो सकते हैं। अन्य अध्ययनों ने एमबीटी की वैधता पर सवाल उठाया है कि इसके लेबल वास्तविक दुनिया से मेल नहीं खाते, जैसे यह पक्का नहीं है कि एक तरह से वर्गीकृत लोग किसी कार्य में कितना अच्छा प्रदर्शन करेंगे। मायर्स-ब्रिग्स कंपनी के अनुसार एमबीटी को बदनाम करने वाले ऐसे अध्ययन पुराने हैं।

हालांकि, परीक्षण की कुछ सीमाएं इसकी डिज़ाइन में ही निहित हैं। जैसे इसमें श्रेणियां सिर्फ हां या नहीं के रूप में हैं। किंतु हो सकता है कोई व्यक्ति इस तरह वर्गीकृत न किया जा सके। एमबीटी व्यक्तित्व के केवल चार पहलुओं का आकलन करके बारीकियों पर ध्यान नहीं दे रहा है। फिर भी, कई लोग मानते हैं कि एमबीटी पूरी तरह से बेकार भी नहीं है। उनका मानना है कि यह व्यक्तित्व के कुछ मोटे-मोटे रुझान तो बता ही सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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हज़ारों साल पुरानी चुइंगम में मिला मानव डीएनए

हाल ही में शोधकर्ताओं को स्कैन्डिनेविया के खुदाई स्थल से दस हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी चुइंगम के अवशेष मिले हैं। खास बात यह है कि इन चुइंगम में  उन्होंने मानव डीएनए के नमूने प्राप्त करने में सफलता हासिल की है।

ओस्लो स्थित म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री के नतालिज़ा कसुबा और उनके साथियों को स्वीडन के पश्चिम तटीय क्षेत्र ह्युसबी क्लेव खुदाई स्थल से 8 चुइंगम मिली हैं। ये चुइंगम भोजपत्र (सनोबर) की छाल के रस से बनी हैं। इन च्वुइंगम में मिठास नहीं थी, इनका स्वाद गोंद जैसा होता था। पाषाण युग में औज़ार बनाने में भी मनुष्य राल का उपयोग करते थे।

चुइंगम के विश्लेषण में शोधकर्ताओं को इन पर मानव डीएनए प्राप्त हुए। डीएनए की जांच में पता चला है कि ये डीएनए पाषाण युग के तीन अलग-अलग मनुष्यों के हैं, इनमें दो महिलाएं और एक पुरुष है। जिन मनुष्यों के डीएनए प्राप्त हुए हैं वे आपस में एक-दूसरे के करीबी सम्बंधी नहीं थे लेकिन इनके डीएनए पाषाण युग के दौरान स्कैन्डिनेविया और उत्तरी युरोप में रहने वाले मनुष्यों के समान हैं। असल में साल 1990 में भी इसी जगह पर खुदाई में मानव हड्डियों के अवशेष मिले थे। लेकिन तब प्राचीन मनुष्य के डीएनए को जांच पाना संभव नहीं था।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अक्सर प्राचीन चुइंगम में चबाने वाले के दांत की छाप भी मिल जाती हैं। लेकिन उन्हें जो चुइंगम मिली हैं उनमें से तीन पर दांतों के निशान नहीं हैं। और चुइंगम का कालापन यह दर्शाता है कि उन्हें कितना चबाया गया था।

म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री में कार्यरत और इस अध्ययन में शामिल पेर पेरसोन का कहना है कि गोंद और अन्य पदार्थों से बनी हज़ारों साल पुरानी चुइंगम दुनिया भर में कई जगह मिलती हैं, वहां भी जहां मानव अवशेष मुश्किल से मिलते हैं। इस स्थिति में ये चुइंगम डीएनए विश्लेषण और अन्य जानकारी प्राप्त करने का अच्छा स्रोत हो सकती हैं। इसके अलावा चुइंगम में मौजूद लार से प्राचीन मानवों के बारे में जेनेटिक जानकारी, उनके स्थान और उनके प्रसार के बारे में जानकारी पता चलती है। इसके अलावा विश्लेषण से उनके बीच के सामाजिक रिश्ते, उनकी बीमारियों और उनके आहार के बारे में भी पता चलता है। उनका यह शोध कम्यूनिकेशन बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

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फिलीपींस में मिली आदिमानव की नई प्रजाति – प्रदीप

हम आधुनिक मानव (होमो सेपिएंस) पिछले दस हज़ार सालों से एकमात्र मानव प्रजाति होने के इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि किसी दूसरी मानव प्रजाति के बारे में कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आरंभ में मानव वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों ने हमारी इस सोच को बदलते हुए बताया कि वास्तव में सेपिएंस कई मानव प्रजातियों में से महज एक है। आज से तकरीबन एक लाख साल पहले पृथ्वी कम से कम सात होमो प्रजातियों का घर हुआ करती थी। और इस दिशा में खोज की दर इतनी तेज़ है कि साल-दर-साल मानव वंश वृक्ष (फैमिली ट्री) में नए-नए नाम जुड़ते जा रहें हैं। इसी कड़ी में हाल ही में पुरातत्वविदों को उत्तरी फिलीपींस में आदिमानव की एक अलग और नई प्रजाति के अवशेष खोज निकालने में सफलता मिली है।

इस हालिया खोज से यह पता चला है कि जिस समय वर्तमान मानव प्रजाति यानी होमो सेपिएंस अफ्रीका से बाहर निकलकर दक्षिण पूर्व एशिया में फैल रही थी उस वक्त फिलीपींस में एक और मानव प्रजाति मौजूद थी। मानव वैज्ञानिकों को फिलीपींस के लूज़ोन द्वीप में मानव की उस प्रजाति के पुख्ता सबूत मिले हैं। इसके अवशेष लूज़ोन द्वीप में पाए गए हैं इसलिए इस प्रजाति का नाम होमो लूज़ोनेंसिस रखा गया है। मनुष्य के ये दूर के सम्बंधी आज से 50 से 67 हज़ार साल पहले फिलीपींस के इस द्वीप पर रहते थे।

बीते 10 अप्रैल को विज्ञान पत्रिका नेचर में इस खोज का खुलासा किया गया है। नेचर पत्रिका के मुताबिक होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेष लूज़ोन के उत्तर में मौजूद कैलाओ गुफा में मिले हैं। ये अवशेष कम से कम तीन लोगों के हैं जिनमें एक युवा है। साल 2007, 2011 और 2015 में ही इस गुफा से सात दांत, पैरों की छह हड्डियां, हाथ और टांग की हड्डियां प्राप्त हुई थीं। अब इस मानव प्रजाति को होमो लूज़ोनेंसिस नाम दिया गया है।

 होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेषों में पैरों की उंगलियां भीतर की तरफ मुड़ी हुई हैं, जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि शायद इनके लिए पेड़ों पर चढ़ना एक बेहद ज़रूरी काम हुआ करता था। छोटे दांतों के आधार पर इनके छोटे कद के होने का भी दावा किया जा रहा है। इसकी कुछ विशेषताएं मौजूदा मानव प्रजाति से मिलती हैं (जैसे सीधे खड़े हो कर चलना), जबकि कई विशेषताएं आदि वानरों के एक आरंभिक जीनस ऑस्ट्रलोपीथेकस से मिलती-जुलती हैं जो करीब 20 से 40 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में पाए जाते थे। इसलिए अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि आदि मानव के ये सम्बंधी अफ्रीका से जुड़े हो सकते हैं जो बाद में दक्षिण पूर्व एशिया में आ कर बस गए होंगे। गौरतलब है कि इस खोज से पहले ऐसा होना लगभग असंभव माना जा रहा था। इस खोज के बाद अब यह माना जा रहा है कि फिलीपींस और पूर्वी एशिया में मानव प्रजाति का विकास बेहद जटिलता से भरा हो सकता है क्योंकि यहां पहले से ही तीन या उससे ज़्यादा मानव प्रजातियां निवास कर रही थीं। इनमें से एक थे इंडोनेशिया के फ्लोर्स द्वीप के निवासी छोटे कद वाले हॉबिट या होमो फ्लोरसीएंसिस। इनकी ऊंचाई अधिकतम एक मीटर होती थी!

गौरतलब है कि होमो लूज़ोनेंसिस पूर्वी एशिया में उस समय रह रहे थे जब होमो सेपियंस, होमो निएंडरथल्स, डेनिसोवंस और होमो फ्लोरसीएंसिस भी पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों में मौजूद थीं। अब तक वैज्ञानिकों का यह मानना था कि मनुष्य जैसी दिखने वाली सबसे पुरानी प्रजाति होमो इरेक्टस अफ्रीका से बाहर निकलकर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली और बाकी मानव प्रजातियां होमो इरेक्टस के क्रमिक विकास की ही देन हैं। इस निष्कर्ष को अब होमो लूज़ोनेंसिस की खोज से चुनौती मिलने लगी है, जो होमो इरेक्टस के वंशज प्रतीत नहीं होते हैं। नेचर पत्रिका में इस खोज के बारे में लिखा गया है कि यह खोज इस बात की सबूत है कि मानवीय विकास एक सीधी रेखा में नहीं हुआ है जैसा कि आम तौर पर समझा जाता रहा है। यह सवाल भी है कि आखिर यह प्रजाति चारों ओर पानी से घिरे लूज़ोन द्वीप पर कैसी पहुंची? अफ्रीका से प्रवास करने वाले आदिमानव के किस वंशज से ये जुड़े हैं? फिलीपींस से मानव की इस प्रजाति के खत्म होने के क्या कारण थे? लेकहेड युनिवर्सिटी के मानव वैज्ञानिक मैथ्यू टोचेरी के मुताबिक, “इससे समझ में आता है कि एशिया में मानव का क्रमिक विकास कितना जटिल और खलबली से भरा हुआ था।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.theguardian.com/science/2019/apr/10/new-species-of-ancient-human-homo-luzonensis-discovered-in-philippines-cave#img-3

शारीरिक संतुलन से जुड़े कुछ तथ्य

रोज़ाना उठते-बैठते-चलते वक्त हम अपने संतुलन के बारे में ज़्यादा सोचते नहीं हैं, लेकिन संतुलन बनाने में हमारे मस्तिष्क को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। शरीर के कई जटिल तंत्रों से सूचनाएं मस्तिष्क तक पहुंचती हैं, जो मिलकर शरीर का संतुलन बनाती हैं। इन तंत्रों में ज़रा-सी भी गड़बड़ी असंतुलन की स्थिति पैदा करती है। संतुलन बनाने में मददगार ऐसे कुछ तथ्यों की यहां चर्चा की जा रही है।

संतुलन में कान की भूमिका

कान सिर्फ सुनने में ही नहीं, शरीर का संतुलन बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। आंतरिक कान में मौजूद कई संरचनाएं स्थान और संतुलन सम्बंधी संकेत मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। सिर की सीधी गति (ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं) और गुरुत्वाकर्षण सम्बंधी संदेश के लिए दो संरचनाएं युट्रिकल और सैक्युल ज़िम्मेदार होती हैं। अन्य कुंडलीनुमा संरचनाएं, जिनमें तरल भरा होता है, सिर की घुमावदार गति से सम्बंधित संदेश मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं।

यदि आंतरिक कान में कोई क्षति होती है तो शरीर का संतुलन बिगड़ने लगता है। उदाहरण के लिए आंतरिक कान में कैल्शियम क्रिस्टल्स गलत स्थान पर पहुंचने पर मस्तिष्क को संकेत मिलता है कि सिर हिल रहा है जबकि वास्तव में सिर स्थिर होता है, जिसके कारण चक्कर आते हैं।

मांसपेशी, जोड़ और त्वचा

वेस्टिब्युलर डिस्ऑर्डर एसोसिएशन के मुताबिक मांसपेशियों, जोड़ों, अस्थिबंध (कंडराओं) और त्वचा में मौजूद संवेदना ग्राही भी स्थान सम्बंधी सूचनाएं मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। पैर के तलवों या पीठ के संवेदना ग्राही दबाव या खिंचाव के प्रति संवेदनशील होते हैं।

गर्दन में मौजूद ग्राही मस्तिष्क को सिर की स्थिति व दिशा के बारे में संदेश पहुंचाते हैं जबकि ऐड़ी में मौजूद ग्राही जमीन के सापेक्ष शरीर की गति के बारे में बताते हैं। चूंकि नशे में मस्तिष्क को अंगों की स्थिति पता करने में दिक्कत महसूस होती है इसलिए अक्सर यह जांचने के लिए कि गाड़ी-चालक नशे में हैं या नहीं पुलिसवाले परीक्षण में चालक को अपनी नाक छूने को कहते हैं।

बढ़ती उम्र में संतुलन

संतुलन बनाने में नज़र, वेस्टीबुलर तंत्र और स्थान सम्बंधी संवेदी तंत्र भी अहम होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है शरीर के अंगों के साथ ये तंत्र भी कमज़ोर होने लगते हैं और गिरने के संभावना बढ़ती है।

चलने का अहसास होना

यदि आप ट्रेन में बैठे हैं और खिड़की से बाहर देख रहे हैं, तभी अचानक आपको महसूस होने लगता है कि आपकी ट्रेन चलने लगी है जबकि वह स्थिर होती है। इस स्थिति को वेक्शन कहते हैं। वेक्शन की स्थिति तब बनती है जब मस्तिष्क को प्राप्त होने वाली सूचनाएं आपस में मेल नहीं खातीं। उदाहरण के लिए ट्रेन के मामले में आंखें खिड़की से दृश्य पीछे जाते देखती हैं, और मस्तिष्क को गति होने का संदेश भेजती हैं, लेकिन मस्तिष्क को शरीर में मौजूद अन्य संवेदना ग्राहियों से गति से सम्बंधित कोई संकेत नहीं मिलते और भ्रम की स्थिति बनती है। हालांकि दूसरी ओर देखने पर यह भ्रम खत्म हो जाता है।

माइग्रेन और संतुलन

माइग्रेन से पीड़ित लोगों में से लगभग 40 प्रतिशत लोग संतुलन बिगड़ने या चक्कर आने की समस्या का भी सामना करते हैं। इस समस्या को माइग्रेन-सम्बंधी वर्टिगो कहते हैं। समस्या का असल कारण तो फिलहाल नहीं पता, लेकिन एक संभावित यह कारण है कि माइग्रेन मस्तिष्क की संकेत प्रणाली को प्रभावित करता है। जिसके कारण मस्तिष्क की आंख, कान और पेशियों से आने वाले संवेदी संकेतों को समझने की गति धीमी हो जाती है, और फलस्वरूप चक्कर आते हैं। इसका एक अन्य संभावित कारण यह दिया जाता है कि मस्तिष्क में किसी रसायन का स्राव वेस्टीबुलर तंत्र को प्रभावित करता है जिसके फलस्वरूप चक्कर आते हैं।

सफर का अहसास होना

कई लोगों को जहाज़ या ट्रेन से उतरने के बाद भी यह महसूस होता रहता है कि वे अब भी ज़हाज या ट्रेन में बैठे हैं। सामान्य तौर पर यह अहसास कुछ ही घंटे या एक दिन में चला जाता है लेकिन कुछ लोगों में यह एहसास कई दिनों, महीनों या सालों तक बना रहता है। इसका एक कारण यह माना जाता है कि इससे पीड़ित लोगों के मस्तिष्क के मेटाबोलिज़्म और मस्तिष्क गतिविधि में ऐसे बदलाव होते हैं जो शरीर को हिलती-डुलती परिस्थिति से तालमेल बनाने में मददगार होते हैं। लेकिन सामान्य स्थिती में लौटने पर बहाल नहीं होते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.livescience.com/55341-weird-facts-about-balance.html