5 करोड़ वर्ष में मछलियों के नियम नहीं बदले

म जब कभी समुद्री जीवन से जुड़ा कोई वीडियो या खबर देखते हैं तो अक्सर मछलियां एक झुंड में तैरती नज़र आती हैं। लेकिन हाल ही में पश्चिमी अमेरिका से प्राप्त एक पत्थर के टुकड़े (जीवाश्म) से मालूम चला है कि मछलियां आज से नहीं, 5 करोड़ वर्षों से तैरने के उन्हीं नियमों का पालन करती आ रही हैं।

लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व एक झील में मछलियों का एक झुंड अचानक से एक चट्टान के नीचे दब गया। संरक्षण के कारण स्पष्ट नहीं हैं किंतु संरक्षित मछलियों के जीवाश्म की मदद से वैज्ञानिक प्रारंभिक सामाजिक व्यवहार को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के नोबुकी मिज़ुमोटो और उनके सहयोगियों ने इस पत्थर के पटिए में 257 विलुप्त हो चुकी मछलियों (Erismatopteruslevatus) के जीवाश्म पाए जो एक घने झुंड में थे। शोधकर्ताओं ने प्रत्येक मछली के उन्मुखीकरण और स्थिति का विश्लेषण किया। इसके आधार पर एक मॉडल तैयार किया जिससे यह पता चल सकता था कि स्लैब में संरक्षित क्षण के फौरन बाद प्रत्येक जीव की स्थिति क्या होने की अपेक्षा है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी-बी में प्रकाशित परिणामों के अनुसार प्राचीन मछलियां आजकल की मछलियों के समान ही दो नियमों का पालन करती थीं। कोई भी मछली अपने सबसे करीबी साथियों को दूर धकेलती थी ताकि टक्कर से बचा जा सके। वहीं वह दूर की मछलियों को आकर्षित करती थी,ताकि झुंड सघन बना रहे। आधुनिक झुंड की तरह, जीवाश्म समूह की आकृति लंबी थी जो शिकारियों को दूर करने में मदद करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://allthatsinteresting.com/wordpress/wp-content/uploads/2019/05/fossilized-fish-shoal.png

बोत्सवाना में हाथियों के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में बोत्सवाना में हाथियों के शिकार पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया गया है। इस फैसले से वहां के संरक्षणवादी काफी हैरान हैं। बोत्सवाना के पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और पर्यटन मंत्रालय द्वारा 22 मई को जारी किए गए बयान के अनुसार यह फैसला ‘सभी हितधारकों के साथ व्यापक और विस्तृत विचार-विमर्श’ के बाद लिया गया है।

एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संगठन के मुताबिक बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 1,30,000 है, जो पूरे अफ्रीका में पाए जाने वाले हाथियों की संख्या की एक तिहाई है। दूसरी ओर, सरकारी अनुमान के मुताबिक 2018 में बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 2 लाख 37 हज़ार थी। अफ्रीका में हाथी दांत की तस्करी के चलते पिछले एक दशक में लगभग एक तिहाई हाथी खत्म हो गए। लेकिन बोत्सवाना लंबे समय से जानवरों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल रहा और हाथी दांत की अवैध तस्करी और शिकार से बचा रहा। हालांकि कुछ अपवाद भी सामने आए थे। सितंबर 2018 मेंएलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संस्था ने अपने एक हवाई सर्वेक्षण में यह बताया था कि बोत्सवाना में 87 हाथियों का शिकार हुआ था, लेकिन बाद में बोत्सवाना के वैज्ञानिकों और सरकारी अधिकारियों ने कहा कि एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स ने संख्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था।

साल 2014 में तत्कालीन संरक्षणवादी राष्ट्रपति इयान खामा ने हाथियों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया था, जिसकी परिवीक्षा अवधि पांच साल थी। वर्तमान राष्ट्रपति, मोगवीत्सी ई.के. मासीसी ने पिछले साल प्रतिबंध के आर्थिक और अन्य प्रभावों पर चर्चा करने के लिए एक समिति बनाई थी। इस समिति में स्थानीय सदस्य, हाथियों के संरक्षण से प्रभावित समुदाय के लोग, संरक्षण कार्यकर्ता और शोधकर्ता शामिल थे। उनके अनुसार प्रतिबंध को इसलिए हटाया गया क्योंकि देश मे हाथियों की संख्या बढ़ने लगी थी, हाथियों के शिकारियों की आजीविका प्रभावित हो रही थी, और प्रतिबंध से हाथी-मानव टकराव और संघर्ष बढ़ रहा था।

नेशनल जियोग्राफिक के अनुसार, सूखे के कारण हाथी पानी की तलाश में उन इलाकों में आने लगे थे जिनमें वे पहले कभी नहीं आते थे। जिसके कारण हाथियों का मनुष्यों से संपर्क बढ़ा। फलस्वरूप मनुष्यों, फसलों और संपत्ति को खतरा बढ़ा है।

सरकारी बयान में यह भी कहा गया है कि शिकार व्यवस्थित और नैतिक तरीके से किए जाएंगे, हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसका क्या अर्थ है और यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा।

वाइल्डलाइफ डायरेक्ट की सीईओ पौला कहुम्बु ने समिति के इस फैसले पर ट्वीट करते हुए कहा है कि हाथियों के शिकार करने से मनुष्य और हाथियों के बीच संघर्ष कम नहीं होगा क्योंकि कोई भी शिकारी गांव में हाथियों का शिकार करने नहीं जाएगा, उन्हें तो शिकार के लिए बड़े-बड़े दांतों वाले हाथी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि शिकार की वजह से हाथी तनावग्रस्त होकर कहीं अधिक खतरनाक बन जाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://www.aljazeera.com/mritems/imagecache/mbdxxlarge/mritems/Images/2018/9/4/8f07a5ecadab4d079f07da1796e31cff_18.jpg

फसलों के मित्र पौधे कीटों से बचाव करते हैं – एस. अनंतनारायणन

बड़े पैमाने पर खेती करने से फसल को खाने वाले कीटों की आबादी में बहुत तेजी से इज़ाफा होता है, खासतौर पर तब जब फसल एक ही प्रकार की हो। कीटों की संख्या बहुत बढ़ जाने पर किसानों को कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है, जिससे लागत बढ़ती है। साथ ही कीटनाशक छिड़काव के नुकसान भी होते हैं। कीटनाशक प्रदूषणकारी तो हैं ही इसके अलावा ये मिट्टी में रहने वाले उपयोगी जीवों और पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इनके कारण कीटों के प्रति पौधों की अपनी रक्षा प्रणाली गड़बड़ा जाती है। और तो और, कुछ समय बाद कीटनाशक कीटों पर भी उतने प्रभावी भी नहीं रहते।

कीटों पर काबू पाने के संदर्भ में यूके के कुछ पर्यावरण विज्ञानियों ने मालियों/बागवानों के काम करने के तौर-तरीकों की ओर ध्यान दिया। उन्होंने गौर किया कि मालियों ने टमाटर के पौधों को सफेद फुद्दियों (Greenhouse Whitefly) से बचाने के लिए उनके साथ फ्रेंच मैरीगोल्ड (गेंदे) के पौधे लगाए थे। ये फुद्दियां टमाटर को काफी नुकसान पहुंचाती हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के बारे में प्लॉस वन पत्रिका में बताया है। उनके अध्ययनों में यह जानने की कोशिश की गई थी कि कैसे गेंदे के पौधे टमाटर के पौधों की कीटों से सुरक्षा करते हैं और वे यह भी समझना चाहते थे कि क्या यह तरीका टमाटर के अलावा अन्य फसलों के बचाव में मददगार हो सकता है।

अधिकतर ग्लासहाउस के आस-पास पाई जाने वाली यह सफेद फुद्दी आकार में छोटी और पतंगे जैसी होती है। ये अपने अंडे सब्जियों या अन्य फसलों की पत्तियों पर नीचे की ओर देती हैं। अंडों से निकले लार्वा व्यस्क होने तक और उसके बाद भी पौधों से ही अपना पोषण लेते हैं। इसके लिए वे पत्तियों की शिराओं में छेद कर पौधों के रस और अन्य पदार्थ तक पहुंचते हैं। कीटों द्वारा रस निकालने की प्रक्रिया में कुछ रस पत्तियों की सतह पर जमा हो जाता है जिसके कारण पत्तियों पर फफूंद भी पनपने लगती है, जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को बाधित कर देती है। और जब लार्वा व्यस्क कीट बन जाते हैं तब ये पौधों में वायरल संक्रमण फैलाते है। इस तरह ये कीट पौधे को काफी प्रभावित करते हैं।

फसलों पर गेंदे व अन्य पौधों के सुरक्षात्मक प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने अलग-अलग समय पर और फसलों को सुरक्षा के अलग-अलग तरीके उपलब्ध करवाकर प्रयोग किए। पहले प्रयोग में शोधकर्ताओं ने शुरुआत से ही टमाटर की फसल के साथ गेंदे के पौधों को लगाया। और बाद में उन पौधों को भी लगाया, जो सफेद फुद्दियों को दूर भगाते थे। इनके प्रभाव की तुलना के लिए उन्होंने कंट्रोल के तौर पर एक समूह में सिर्फ टमाटर के पौधे लगाए। वैज्ञानिक यह भी देखना चाहते थे कि क्या किसान गेंदे के पौधों का उपयोग रोकथाम के लिए करने के अलावा क्या तब भी कर सकते हैं जब फुद्दियों की अच्छी-खासी आबादी पनप चुकी हो। इसके लिए गेंदे के पौधे थोड़े विलंब से लगाए गए जब सफेद फुद्दियां फसलों पर मंडराने लगीं थी। तीसरे प्रयोग में टमाटर के साथ उन पौधों को लगाया गया जो सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करते थे, ताकि यह पता किया जा सके कि कीटों को टमाटर के पौधों से दूर आकर्षित करने पर कोई फर्क पड़ता है या नहीं।

अध्ययन में पाया गया कि गेंदे के पौधों की मौजूदगी ने सफेद फुद्दियों को फसल से निश्चित तौर पर दूर रखा। सबसे ज़्यादा असर तब देखा गया जब गेंदे के पौधे शुरुआत से ही फसलों के साथ लगाए गए थे। और जब गेंदे के साथ अन्य कीट-विकर्षक पौधे भी लगाए गए तब असर कमतर रहा। और तब तो लगभग कोई असर नहीं हुआ जब सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले अन्य पौधे फसल के आसपास लगाए गए थे जो एक मायने में कीटों के लिए वैकल्पिक मेज़बान थे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उस प्रभावी घटक को गेंदे के पौधे से पृथक किया। यह लिमोनीन नाम का एक पदार्थ है। लिमोनीन नींबू कुल के फलों के छिलकों में पाया जाता है। गेंदे के पौधे से निकले रस में काफी मात्रा में लिमोनीन मौजूद पाया गया।

इसके बाद उन्होंने टमाटर की क्यारियों में गेंदें के पौधों की बजाए लिमोनीन डिसपेंसर को रखा। लीमोनीन डिस्पेंसर एक यंत्र होता है जो लगातार लीमोनीन छोड़ता रहता है। पाया गया कि लिमोनीन भी सफेद फुद्दियों को फसल से दूर रखने में प्रभावी रहा। यानी यह गेंदे का क्रियाकारी तत्व है। और आपात स्थिति यानी जब अचानक काफी संख्या में सफेद फुद्दिया फसल पर मंडराने लगी तब भी डिस्पेंसर गेंदे के पौधे लगाने की तुलना में अधिक प्रभावी रहा। लेकिन यह पता लगाना शेष है कि फसलों की सुरक्षा के लिए गेंदें के कितने पौधे लगाए जाएं या कितने लिमोनीन डिस्पेंसर लगाए जाएं।

गेंदे के अलावा, कई अन्य पौधे हैं जो सफेद फुद्दियों और अन्य कीटों को फसल से दूर भगाने में मददगार हैं। यानी कुछ पौधे और उनसे निकले वाष्पशील पदार्थ के डिस्पेंसर कीटनाशकों की जगह इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इसके कई अन्य फायदे भी है। पहला, कीटनाशक के छिड़काव में लगने वाली लागत की बचत होगी। दूसरा, रासायनिक कीटनाशकों के उत्पादन में लगने वाली ऊर्जा की बचत होगी। तीसरा, कीटनाशकों के कारण मिट्टी, पानी और पौधों में फैल रहा प्रदूषण कम होगा। और चौथा, कीट कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं लेकिन वे पौधों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल नहीं कर पाएंगे।

प्रतिरोध हासिल करने की प्रक्रिया यह है कि जब कोई जीव किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण मारे जाते हैं तो कभी-कभार कुछ जीव उस परिस्थिति के खिलाफ प्रतिरक्षा के कारण जीवित बच जाते हैं। यह प्रतिरक्षा उन्हें संयोगवश हुए किसी उत्परिवर्तन के कारण हासिल हो चुकी होती है। फिर ये जीव संतान पैदा करते हैं और संख्यावृद्धि करते हैं। कुछ ही पीढि़यों में पूरी आबादी प्रतिरोधी जीवों की हो जाती है। जब इन कीटों का सफाया करने की बजाए दूर भगाने की विधि का उपयोग किया जाता है तो कुछ कीट फिर भी दूर नहीं जाते और उन्हें भोजन पाने व प्रजनन करने में थोड़ा लाभ मिलता है। शेष कीट दूर तो चले जाते हैं लेकिन मरते नहीं हैं। अत: प्रतिरोधी कीट अन्य कीटों के मुकाबले इतने हावी नहीं हो पाते कि पूरी आबादी में प्रतिरोध पैदा हो जाए। आबादी में दोनों तरह के कीट बने रहते हैं।

वर्ष 2015 में स्वीडन और मेक्सिको सिटी के शोधकर्ताओं ने ट्रेंड्स इन प्लांट साइंस पत्रिका में बताया था कि कैसे उन पौधों को फसलों के साथ लगाना कारगर होता है, जो फसलों पर मंडराने वाले कीटों के शिकारियों को आकर्षित करने वाले रसायन उत्पन्न करते हैं। उनके अनुसार जंगली पौधे अक्सर वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़ते हैं जिनकी गंध अन्य पौधों को इस बात का संकेत देती है कि उनकी पत्तियों को खाने वाला या नुकसान पहुंचाने वाला जीव आस-पास है। ऐसी ही एक गंध, जिससे हम सब वाकिफ हैं, तब आती है जब किसी मैदान या बगीचे की घास की छंटाई की जाती है। वाष्पशील कार्बनिक यौगिक कई किस्म के होते हैं और इससे पता चल जाता है कि खतरा किस तरह का है। जैसे यदि पौधों को शाकाहारी जानवरों द्वारा खाया जा रहा है तो पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़कर उस शाकाहारी जानवर के विशिष्ट शिकारी को इसका संकेत देते हैं।

मेक्सिको सिटी के शोध पत्र के अनुसार पौधों की कई विशेषताएं जो कीटों से सीधे-सीधे प्रतिरोध प्रदान करती थीं वे पालतूकरण (खेती) की प्रक्रिया में छूटती गर्इं, क्योंकि वे क्षमताएं कुछ ऐसे गुणों की बदौलत होती थीं जो मनुष्य को अवांछित लगते थे। जैसे कड़वापन, अत्यधिक रोएं, कठोरता या विषैलापन। इनके छूट जाने के पीछे एक और कारण यह है कि यदि यह प्रतिरोध अभिव्यक्त होने के लिए पौधे के काफी संसाधनों की खपत होती है जिसकी वजह से पैदावार कम हो जाती है। सब्जि़यों के मामले में शायद यही हुआ है।

प्लॉस वन में प्रकाशित शोध पत्र यह भी कहता है कि टमाटर जैसी फसलों की सुरक्षा के लिए लगाए गए पौधे आर्थिक महत्व की दृष्टि से भी लगाए जा सकते हैं। जैसे वे खाने योग्य हो सकते हैं या सजावटी उपयोग के हो सकते हैं। ऐसा हुआ तो लोग इन्हें लगाने में रुचि दिखाएंगे। यह समाज और पर्यावरण दोनों के लिए फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://hartley-botanic.com/wp-content/uploads/2013/04/Silverleaf_whitefly.jpg
https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/e/e7/French_marigold_Tagetes_patula.jpg/1024px-French_marigold_Tagetes_patula.jpg

फ्रोज़न वृषण से शुक्राणु लेकर बंदर शिशु का जन्म

ह तो एक जानी-मानी टेक्नॉलॉजी बन चुकी है कि किसी स्त्री के अंडाशय को अत्यंत कम तापमान पर संरक्षित रख लिया जाए और बाद में उसे सक्रिय करके अंडाणु उत्पादन करवाया जाए। यह तकनीक उन मामलों में उपयोगी पाई गई है जब किसी स्त्री को कैंसर का उपचार करवाते हुए अंडाशय को क्षति पहुंचने की आशंका होती है। मगर पुरुषों के वृषण को इस तरह संरक्षित करके शुक्राणु उत्पादन की तकनीक का दूसरा सफल प्रयोग हाल ही में पिटसबर्ग विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। यह प्रयोग साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

इस प्रयोग में 5 रीसस बंदरों के वृषण के ऊतक निकालकर कम तापमान पर सहेज लिए गए। जब वृषण निकाले गए थे तब ये सभी बंदर बच्चे थे और इनके वृषण ने शुक्राणु निर्माण शुरू नहीं किया था। इसके बाद इन बंदरों को वंध्या कर दिया गया। इसके बाद जब ये बंदर किशोरावस्था में पहुंचे तब बर्फ में रखे वृषण-ऊतक निकालकर उन्हीं बंदरों के वृषणकोश में प्रत्यारोपित कर दिए गए, जिनसे ये निकाले गए थे।

आठ से बारह महीने बाद इन प्रत्यारोपित ऊतकों की जांच करने पर पता चला कि इनमें शुक्राणु का उत्पादन होने लगा है। इन शुक्राणुओं की मदद से 138 अंडों को निषेचित किया गया। इनमें से मात्र 16 ही ऐसे भ्रूण बने जिनका प्रत्यारोपण मादा बंदरों में किया जा सकता था। इनमें से भी मात्र एक ही गर्भावस्था तक पहुंचा और जीवित जन्म हुआ।

यह सही है कि 138 निषेचित अंडों से शुरू करके मात्र एक शिशु का जन्म होना बहुत कम प्रतिशत है लेकिन यह बहुत आशाजनक है कि अविकसित वृषण की स्टेम कोशिकाओं को सहेजकर रखा जा सकता है और वे बाद में विभेदित होकर शुक्राणु का उत्पादन कर सकती हैं। अब अगला कदम मनुष्यों के लिए इस तकनीक की उपयोगिता की जांच का होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/BE5C90EA-4DAE-40D7-BD2638F1CCE3CE7A_source.jpg?w=590&h=800&2F3FFC5E-F6B5-4F3C-B666E103C6DE7C5B

क्या सीखते हैं हम जंतुओं पर प्रयोग करके – डॉ. सुशील जोशी

किसी ने एक सवाल पूछा था कि चूहों पर इतने प्रयोग क्यों किए जाते हैं। परंतु उस सवाल में उलझने से पहले यह देखना दिलचस्प होगा कि जंतुओं पर प्रयोग किए ही क्यों जाते हैं। वैसे इस संदर्भ में आम लोगों के मन में यह धारणा है कि जंतुओं पर प्रयोग इंसानों की बीमारियों के इलाज खोजने के लिए किए जाते हैं। यह धारणा कुछ हद तक सही है किंतु पूरी तरह सही नहीं है। तो चलिए देखते हैं कि मनुष्यों ने जंतुओं पर प्रयोग करना कब शुरू किया था, किस मकसद से ये प्रयोग किए जाते हैं और किन जंतुओं पर किए जाते हैं।

कुछ आंकड़े

सबसे पहले यह देखते हैं कि आजकल प्रयोगों में कितने जंतुओं का उपयोग होता है। कई कारणों से इस सम्बंध में कोई पक्का या विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। एक कारण तो यह है कि जंतुओं पर प्रयोग करने को लेकर अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून और व्यवस्थाएं हैं। कुछ देशों में सारे जंतु प्रयोगों की रिपोर्ट देनी होती है तो कुछ देशों में कोई रिपोर्ट देना ज़रूरी नहीं है। कुछ देशों में जंतु कल्याण कानून लागू है और इन देशों में सिर्फ उन जंतुओं के बारे में रिपोर्ट देनी पड़ती है जो इस कानूनी में शामिल हैं। फिर ‘प्रयोग में जंतु का उपयोग’ की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं – जैसे किसी देश में प्रयोग के लिए जंतुओं को प्रयोगशाला में रखना भी प्रयोग माना जाता है, तो किसी देश में प्रयोग होने का सम्बंध जंतु की चीरफाड़ से माना जाता है।

बहरहाल, ब्यूटी विदाउट क्रुएल्टी नामक संस्था के मुताबिक हर साल दुनिया भर में 11.5 करोड़ जंतु प्रयोगशालाओं में मारे जाते हैं। अमरीकी कृषि विभाग के एनिमल एंड प्लांट हेल्थ इंस्पेक्शन सर्विस (जंतु एवं वनस्पति स्वास्थ्य निरीक्षण सेवा) की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 में अमरीका में सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं में लगभग 8,20,000 जंतुओं पर प्रयोग किए गए थे। किंतु इनमें सिर्फ वही जंतु शामिल हैं जो अमरीका के एनिमल वेलफेयर कानून में शामिल हैं। माइस, चूहे, मछलियां वगैरह इस कानून में कवर नहीं होते। इसके अलावा इस आंकड़े में उन 1,37,000 से अधिक जंतुओं को भी शामिल नहीं किया गया है जिन्हें प्रयोगशालाओं में रखा गया था किंतु वे किसी प्रयोग का हिस्सा नहीं थे। एक अनुमान के मुताबिक, यदि अन्य जंतुओं को भी जोड़ा जाए, तो अकेले अमरीका में प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जंतुओं की संख्या 1.2-2.7 करोड़ तक हो सकती है। एक शोध पत्र के मुताबिक दुनिया भर में प्रयोगों में प्रति वर्ष करीब 11 करोड़ जंतुओं का इस्तेमाल किया जाता है। भारत के बारे में अलग से कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

मकसद

यह तो सही है कि आजकल जंतु प्रयोग दवाइयों के विकास या सौंदर्य प्रसाधनों की जांच के लिए किए जाते हैं। किंतु ऐसा भी नहीं है कि सारे जंतु प्रयोग मात्र इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं। कई जंतु प्रयोग मूलभूत जीव वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए भी किए जाते हैं।

ऐतिहासिक रूप से जंतु प्रयोगों का मूल मकसद जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समझ बढ़ाने का रहा है। प्रयोगों में जंतुओं का उपयोग मूलत: इस समझ पर टिका है कि सारे जीव-जंतु विकास के माध्यम से परस्पर सम्बंधित हैं। विकास की दृष्टि से देखें तो कुछ जंतु परस्पर ज़्यादा निकट हैं जबकि कुछ अपेक्षाकृत अधिक भिन्न हैं। जैसे यदि हम आनुवंशिकी का अध्ययन करना चाहते हैं तो कोई भी जीव इसमें सहायक हो सकता है क्योंकि विकास की लंबी अवधि में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों के हस्तांतरण की विधि एक-सी रही है। किसी प्रक्रिया या परिघटना के अध्ययन के लिए जिस जीव को चुना जाता है उसे ‘मॉडल’ कहते हैं। कभी-कभी कोई जीव किसी रोग विशेष या परिघटना विशेष का मॉडल भी होता है।

‘मॉडल’ जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है। आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम ‘मॉडल’ जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरिया-भक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। ये काफी रफ्तार से संख्यावृद्धि करते हैं। इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है। बैक्टीरियाभक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी। यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किंतु जीवन के सबसे ‘निचले’ से लेकर सबसे ‘ऊपरी’ स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरिया-भक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है।

अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की ज़रूरत होती है। इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली (E. coli) नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया। इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक सजीव कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है।

लेकिन ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया मनुष्य से बहुत भिन्न होते हैं। इनकी कोशिकाओं में केंद्रक तथा अन्य कोशिकांग नहीं होते। इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज़्यादा पेचीदा केंद्रक-युक्त कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाओं को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं। अलबत्ता, खमीर यानी यीस्ट एक-कोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहु-कोशिकीय हैं। किसी बहु-कोशिकीय जीव का जीवन कहीं अधिक पेचीदा होता है। बहु-कोशिकीय जीवों में अलग-अलग कोशिकाएं अलग-अलग काम करने लगती हैं, उनके बीच परस्पर संवाद और सहयोग की ज़रूरत होती है। लिहाज़ा, बहु-कोशिकीय मगर काम करने में आसान फ्रूट फ्लाई (फल-मक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए।

यहां यह कहना ज़रूरी है कि कई वैज्ञानिकों ने मनुष्य की शरीर क्रियाओं के अध्ययन के लिए स्वयं पर भी प्रयोग किए हैं। ऐसे वैज्ञानिकों में ब्रिटिश वैज्ञानिक (जिन्होंने आगे चलकर भारत की नागरिकता ले ली थी) जे.बी.एस. हाल्डेन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। हाल्डेन ने कई खतरनाक प्रयोग स्वयं पर किए थे।

इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की ज़रूरत। इसके लिए ऐसे जीवों का चयन करना होता है जिनमें वह बीमारी या तो कुदरती रूप से होती हो या कृत्रिम रूप से पैदा की जा सके। इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है। कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है। इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ कई महत्वपूर्ण खोजें हुर्इं बल्कि इन्होंने जंतु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म दिया।

बड़े जंतुओं पर प्रयोग

बड़े जंतुओं पर प्रयोग कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। छोटे जंतुओं (जैसे वायरस, बैक्टीरिया, फल-मक्खी, कृमि वगैरह) पर प्रयोग बुनियादी जीवन क्रियाओं के संदर्भ में उपयोगी होते हैं क्योंकि बुनियादी स्तर पर ये क्रियाएं लगभग एक समान होती हैं। किंतु यदि विशेष रूप से किसी बीमारी या ऐसे गुणधर्म का अध्ययन करना हो जो मनुष्यों के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है तो ऐसे जंतु का चयन करना होता है जिसे वह बीमारी होती हो या उस गुणधर्म विशेष के मामले में कुछ समानता हो। जैसे यदि आप दर्द की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो जंतु ऐसा होना चाहिए जिसे दर्द होता हो। इस दृष्टि से बड़े जंतुओं पर प्रयोग महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए एंतोन लेवॉज़िए ने गिनी पिग (एक किस्म का चूहा) पर प्रयोगों की मदद से ही यह स्पष्ट किया था कि श्वसन एक किस्म का नियंत्रित दहन ही है। इसी प्रकार से भेड़ों में एंथ्रेक्स का संक्रमण करके लुई पाश्चर ने रोगों का कीटाणु सिद्धांत विकसित किया था जो आधुनिक चिकित्सा की एक अहम बुनियाद है। जंतुओं पर प्रयोगों से ही पाचन क्रिया की समझ विकसित हुई थी और यह स्पष्ट हुआ था कि पाचन एक भौतिक नहीं बल्कि रासायनिक प्रक्रिया है।

जंतुओं पर प्रयोगों ने हमें मनुष्य की शरीर क्रियाओं को समझने में बहुत मदद की है। इसके अलावा संक्रामक रोगों को समझने व उनका उपचार करने की दिशा में भी जंतु प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैसे 1940 में जोनास साल्क ने रीसस बंदरों पर प्रयोग किए थे और पोलियो के सबसे संक्रामक वायरस को अलग किया था जिसके आधार पर पहला पोलियो का टीका बनाया गया था। इसके बाद अल्बर्ट सेबिन ने विभिन्न जंतुओं पर प्रयोग करके इस टीके में सुधार किया और इसने दुनिया से पोलियो का सफाया करने में मदद की। इसी प्रकार से थॉमस हंट मॉर्गन ने फल-मक्खी ड्रोसोफिला पर प्रयोगों के माध्यम से यह स्पष्ट किया था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों का हस्तांतरण करने वाले जीन्स गुणसूत्रों के माध्यम से फैलते हैं। आज भी फल-मक्खी भ्रूणीय विकास और आनुवंशिकी को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण मॉडल जंतु है।

माउस (Mus musculus) एक प्रकार का चूहा होता है और इस पर ढेरों प्रयोग किए जाते हैं। दरअसल विलियम कासल और एबी लेथ्रॉप ने माउस की एक विशेष किस्म विकसित की थी। तब से ही माउस कई जीव वैज्ञानिक खोजों के लिए मॉडल जंतु रहा है।

गिनी पिग (Cavia porcellus) एक और चूहा है जिसने वैज्ञानिक खोजों में योगदान दिया है। जैसे, उन्नीसवीं सदी के अंत में डिप्थेरिया विष को पृथक करके गिनी पिग में उसके असर को देखा गया था। इसी आधार पर प्रतिविष बनाया गया था। यह टीकाकरण की आधुनिक विधि के विकास का पहला कदम था।

कुत्तों पर किए गए शोध से पता चला था कि अग्न्याशय के स्राव का उपयोग करके कुत्तों में मधुमेह पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसके आधार पर 1922 में इंसुलिन की खोज हुई और इसका उपयोग मनुष्यों में मधुमेह के उपचार में शुरू हुआ। गिनी पिग्स पर अनुसंधान से पता चला था कि लीथियम के लवण मिर्गी जैसे दौरे में असरकारक हैं। इसके परिणामस्वरूप बाईपोलर गड़बड़ी के इलाज में बिजली के झटकों का उपयोग बंद हुआ। निश्चेतकों का आविष्कार भी जंतुओं पर किए गए प्रयोगों से ही संभव हुआ है और अंग प्रत्यारोपण की तकनीकों का विकास भी हुआ है।

जंतु का चयन

यह तो सही है कि विकास के ज़रिए सभी जंतु परस्पर सम्बंधित हैं और कई गुणधर्म साझा करते हैं। मगर कुछ जंतु मनुष्य के ज़्यादा करीब हैं। मनुष्य की शरीर क्रिया या रोगों को समझने के लिए ऐसे ही जंतुओं के साथ प्रयोग करने की ज़रूरत होती है। अध्ययनों से पता चला है कि हमारे सबसे करीबी जीव चिम्पैंज़ी हैं। मनुष्य और चिम्पैंज़ी के जीनोम में 98.4 प्रतिशत समानता है। शरीर क्रिया की दृष्टि से देखें तो चूहे जैसे कृंतक (कुतरने वाले जीव) भी हमसे बहुत अलग नहीं हैं। चिम्पैंज़ी पर प्रयोग करना काफी मुश्किल काम है। एक तो इनकी आबादी बहुत कम है, और ऊपर से इनका प्रजनन भी काफी धीमी गति से होता है और इन्हें पालना आसान नहीं है। और सबसे बड़ी बात है कि अधिकांश देशों में चिम्पैंज़ी तथा अन्य वानर प्रजातियों को सख्त कानूनी संरक्षण प्राप्त है। इसलिए चूहे, माउस, गिनी पिग वगैरह सबसे सुलभ मॉडल जीव बन गए हैं।

विकल्प

कई शोधकर्ताओं ने जंतु प्रयोगों की समीक्षाओं में बताया है कि पिछले कई वर्षों में नई-नई औषधियां खोजने के मसकद से किए गए जंतु प्रयोग निष्फल रहे हैं। जंतुओं पर प्रयोगों से प्राप्त जानकारी प्राय: मनुष्यों के संदर्भ में लागू नहीं हो पाती है। विकल्प के तौर पर कई सुझाव आए हैं और कई प्रयोगशालाओं में जंतु प्रयोगों को कम से कम करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। जैसे आजकल कंप्यूटरों की मदद से कई रसायनों के प्रभावों के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है। कोशिकाओं और प्रयोगशाला में निर्मित ऊतकों पर अध्ययन ने भी नए-नए मॉडल उपलब्ध कराएं। और इनके अलावा आजकल प्रयोगशालाओं में विकसित कृत्रिम अंगों का उपयोग भी किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  http://www.understandinganimalresearch.org.uk/files/2114/1276/6200/two-guinea-pigs-a-rabbit-and-a-carrot.jpg

विलुप्त जीवों के क्लोन बनाने की संभावना

पिछले साल पूर्वी साइबेरिया के बाटागाइका क्रेटर में 42 हज़ार साल पुराना घोड़े के बच्चे का शव बर्फ में दबा मिला है। यह लेना प्रजाति (Equus caballus lenensis) का घोड़ा है। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी मृत्यु कीचड़ में डूबने के कारण हुई थी। और जब इसकी मृत्यु हुई तब इसकी उम्र लगभग 2 महीने रही होगी। बर्फ में इसके अंग काफी सुरक्षित अवस्था में मिले हैं और खास बात यह है कि इसके शरीर में रक्त तरल अवस्था में मिला है। आम तौर पर रक्त का तरल भाग हज़ारों साल के लंबे समय में वाष्प बनकर उड़ जाता है। इसलिए शवों में रक्त या तो थक्के के रूप में मिलता है या पावडर के रूप में। वैसे इसके पहले बर्फ में दबे 32 हज़ार साल पुराने मैमथ के शरीर में भी तरल अवस्था में खून मिला था।

दरअसल नॉर्थ इस्टर्न फेडरल युनिवर्सिटी स्थित मैमथ म्यूज़ियम के सिम्योन ग्रीगोरिएव और उनके साथी प्लायस्टोसीन युग (आज से लगभग 25 लाख साल पहले से लेकर 11,000 साल पहले तक का समय, जिसे हिमयुग भी कहते हैं) के विलुप्त जानवरों के क्लोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे जानवरों में अच्छी हालत के डीएनए ढूंढ रहे हैं ताकि उसे सम्बंधित जानवर के भ्रूण में प्रत्यारोपित कर उस जीव के क्लोन तैयार कर सकें। इसके लिए पहले उन्हें उस भ्रूण का डीएनए हटाना होगा।

लेकिन तरल रक्त से उन्हें क्लोन बनाने में मदद नहीं मिल सकती क्योंकि लाल रक्त कोशिकाओं में केंद्रक नहीं होता। इसलिए उनमें डीएनए भी नदारद रहता है। शोधकर्ता मैमथ, लेना हॉर्स के अन्य अंगों में डीएनए की खोज रहे हैं। लेकिन डीएनए के साथ मुश्किल यह है कि जीव की मृत्यु के साथ डीएनए खत्म होना शुरू हो जाता है। शोधकर्ताओं ने लाइव साइंस पत्रिका में बताया है कि उन्हें अब तक सफलता नहीं मिली है लेकिन वे इस दिशा में प्रयासरत हैं।

इसके अलावा उन्होंने शव के आसपास पाए गए मिट्टी के नमूनों और पौधों का भी अध्ययन किया है जिससे उस समय के साइबेरिया के बारे में काफी जानकारी मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://www.livescience.com/63430-preserved-ancient-foal-siberia.html

परोपकारी जीव मीरकेट

जैव विकास के सिद्धांत के अनुसार जानवर सिर्फ अपने जेनेटिक सम्बंधियों की ही मदद करते हैं। लेकिन रेगिस्तान में रहने वाले स्तनधारी जानवरों पर हुआ एक हालिया अध्ययन कहता है कि मीरकेट स्तनधारी अपने समूह के सभी सदस्यों की शिद्दत से मदद करते हैं।

मीरकेट नेवले के कुल के स्तनधारी प्राणी हैं जो दक्षिण अफ्रीका के कालाहारी रेगिस्तान में समूहों में रहते हैं। एक-एक समूह में तकरीबन 20 सदस्य होते हैं लेकिन कुछ समूह में सदस्यों की संख्या 50 तक होती है।

जैव विकास सिद्धांत के अनुसार सिर्फ परिजनों की मदद करना ही हितकर है क्योंकि मदद देने और मदद लेने वाले के बीच एक आनुवंशिक सम्बंध होता है। इस तरह की गई सहायता अधिक संतान होना सुनिश्चित करती है, जो मदद करने वाले के लिए अगली पीढ़ी में अपने जीन्स पहुंचाने की संभावना बढ़ाती है। लेकिन समूह में रहने वाले जानवरों में यह पता करना मुश्किल होता है कि किन सदस्यों के बीच करीबी या आनुवंशिक सम्बंध है।

जीवों के मददगार स्वभाव के बारे में जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज के क्रिस डनकैन और उनके साथियों ने लगभग 1347 मीरकेट के पिछले 25 सालों के डैटा का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि वे अपने समूह के अन्य सदस्यों की सहायता करते वक्त यह नहीं सोचते कि जिसकी वे मदद कर रहे हैं वह जेनेटिक रूप से उनका कितना करीबी है। मीरकेट अपने समूह के सभी सदस्यों के बच्चों की देखभाल करते हैं, उन्हें भोजन खिलाते हैं, समूह की सुरक्षा के लिए बारी-बारी पहरेदारी करते हैं, सामूहिक मांद खोदते हैं।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कारण यह हो सकता है कि मीरकेट समूह के सभी सदस्य एक-दूसरे के करीबी होते हैं। इसलिए वे बिना किसी भेदभाव के एक-दूसरे की मदद करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/9/9a/Meerkat_(Suricata_suricatta)_Tswalu.jpg/1200px-Meerkat_(Suricata_suricatta)_Tswalu.jpg

फूलों में छुपकर कीटनाशकों से बचाव

गुलाब का फूल और उसकी खूशबू कई लोगों को आकर्षित करती है। इसके व्यासायिक महत्व के चलते विश्व में कई जगह इसकी खेती भी की जाती है। लेकिन गुलाब की कलियों पर रहने वाली घुन पौधों को रोज़ रोज़ेट नामक वायरस से ग्रस्त कर देती हैं जिसके कारण पौधे को काफी नुकसान होता है। वैज्ञानिक अब तक गुलाब पर रहने वाली इस घुन पर काबू नहीं कर पाए थे।

लेकिन हाल ही में जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल हार्टिकल्चर में प्रकाशित शोध कहता है कि वैज्ञानिकों ने इस बात का पता कर लिया है कि क्यों इस घुन तक पहुंचना और उस पर काबू पाना मुश्किल था। शोध के अनुसार ये घुन गुलाब के आंतरिक अंगों में छिपकर अपने आपको हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों के छिड़काव से बचाने में सफल हो जाती हैं।

नमक के एक कण से भी छोटी घुन (Phyllocoptes fructiphilus) गुलाब के फूलों से अपना भोजन लेते समय फूलों में रोज़ रोज़ेट वायरस पहुंचा देती हैं जिससे पौधा रोग-ग्रस्त हो जाता है। इस रोग के कारण गुलाब के पौधे पर बहुत अधिक कांटे उग आते हैं, फूलों का आकार बिगड़ जाता है और पौधों में बहुत पास-पास कलियां खिलने लगती हैं जिसके कारण पौधा बदरंग और अनुपयोगी हो जाता है। इसके कारण पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

पौधों में यह रोग सबसे पहले कैलिफोर्निया में दिखा था और उसके बाद यह लगभग 30 प्रांतों में फैल गया। वैज्ञानिक पौधे में हुए इस रोग पर काबू पाने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन पौधों पर किसी भी तरह के रसायन और कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा था।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने 10 अलग-अलग राज्यों से रोग-ग्रस्त और स्वस्थ दोनों तरह के पौधों के तने, पत्ती और फूलों का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने पौधे के विभिन्न अंगो की आवर्धित तस्वीरें खीचीं। तस्वीरों के अध्ययन में उन्होंने पाया कि ये घुन फूलों की अंखुड़ियों की महीन रोमिल संरचना में धंसी रहती हैं। इस तरह ये कीटनाशक और हानिकारक रसायनों के छिड़काव से बच निकलती हैं। उम्मीद है कि इस शोध से गुलाब की फसलों में फैलने वाले रोज़ रोज़ेट रोग पर काबू पाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/mite_16x9.jpg?itok=7v0M8kJ_

गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/2D374A81-C4DB-475A-9D9C9A684284F6EA_source.jpg?w=590&h=800&421814DE-B061-440B-917B505D857F4545

चौपाया व्हेल करती थी महाद्वीपों का सफर

शोधकर्ताओं ने कुछ समय पहले ही पेरू के समुद्र तट पर चार पैरों वाली प्राचीन व्हेल की हड्डियां खोज निकाली हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित पेपर के अनुसार यह जीव राइनो और समुद्री ऊदबिलाव के मिश्रित रूप जैसा दिखता होगा। इसका सिर छोटा, लंबी मज़बूत पूंछ और चार छोटे मगर मोटे खुरदार पैर एवं झिल्लीदार पंजे रहे होंगे। एक नए अध्ययन का अनुमान है कि ये जीव आज के युग की व्हेल के पूर्वज रहे होंगे जो लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले पाए जाते थे। 

रॉयल बेल्जियन इंस्टिट्यूट ऑफ नेचुरल साइंस, ब्रसेल्स के जंतु विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख ओलिवियर लैम्बर्ट के अनुसार यह प्रशांत महासागर में मिलने वाली चार पैरों वाली व्हेल का सबसे पहला प्रमाण है। 

जीवाश्म विज्ञानी पिछले एक दशक से भी अधिक समय से प्राचीन समुद्री स्तनधारियों के जीवाश्म की खोज करने के लिए पेरू के बंजर तटीय क्षेत्रों के आसपास खुदाई कर रहे थे। लैम्बर्ट और उनकी टीम को अधिक सफलता मिलने की उम्मीद नहीं थी लेकिन एक बड़े दांतों वाला जबड़ा मिलने के बाद उन्होंने खुदाई को आगे भी जारी रखा।

ये हड्डियां कई लाख वर्ष पुरानी थीं और कई टुकड़ों में टूटी हुई थीं, लेकिन काफी अच्छे से संरक्षित थीं और आस-पास की तलछट में इन्हें ढूंढना भी काफी आसान था। जब पूरा कंकाल इकट्ठा कर लिया गया तो कमर और भुजा वाले भाग को देखकर यह ज़मीन पर चलने वाले जीव सरीखा मालूम हुआ लेकिन इसके लंबे उपांग और पूंछ की बड़ी-बड़ी हड्डियों से इसके कुशल तैराक होने का अनुमान लगाया गया। लैम्बर्ट का ऐसा मानना है कि उस समय ये जीव ज़मीन पर चलने में भी सक्षम थे और साथ ही तैरने के लिए अपनी पूंछ का भी उपयोग करते होंगे।     

टीम ने इन तैरने और चलने वाली व्हेल प्रजाति को पेरेफोसिटस पैसिफिकस नाम दिया है जिसका अर्थ प्रशांत तक पहुंचने वाली यात्री व्हेल है।  

अब तक, वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि प्राचीन व्हेल अफ्रीका से निकलकर पहले उत्तरी अमेरिका की ओर गर्इं और उसके बाद दक्षिणी अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैली। लेकिन जीवाश्म की उम्र और स्थान को देखते हुए लैम्बर्ट और उनके साथियों का अनुमान है कि यह उभयचर व्हेल दक्षिण अटलांटिक महासागर को पार करते हुए पहले दक्षिण अमेरिका पहुंचीं और फिर उत्तरी अमेरिका और अन्य स्थानों पर।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं के मुताबिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे किस दिशा में गर्इं, बल्कि यह काफी दिलचस्प है कि ये प्राचीन चार पैर वाले जीव अपनी शारीरिक रचना से इतना सक्षम थे कि दुनिया भर में फैल गए। आगे चलकर इस जीवाश्म से और अधिक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://www.livescience.com/65156-ancient-four-legged-whale.html