कुछ जीवाश्म स्थल अक्सर खरोचों और ऐसे निशानों से भरे होते
हैं जो संभवत: किसी चलते-फिरते जीव द्वारा छोड़े गए होते हैं। इन निशानों के स्रोत
की पुष्टि नहीं हो पाती क्योंकि उन्हें बनाने वाले जीव अब पाए नहीं जाते हैं।
लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक अपवाद
खोज निकाला है। एक जीवाश्म का पता लगाया है जो रेंगने की क्रिया करते अश्मीभूत हुआ
है। यह चट्टान लगभग 56 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान है यानी लगभग उतनी ही पुरानी जितने
कि जंतु हैं। यह छोटे-छोटे अनेक पैरों वाला एक चपटा-सा खंडित शरीर वाला जीव है जो
काफी कुछ आधुनिक कनखजूरे जैसा दिखता है लेकिन इसका शरीर नर्म मालूम होता है। इस
जीवाश्म के पीछे की चट्टान में एक लम्बी खांचेदार किनारों की लकीर-सी दिखाई देती
है।
शोधकर्ताओं ने इसे यिलिंगिया
स्पाइसीफॉर्मिस नाम दिया है। गौरतलब है कि यिलिंगिया नाम यांगेज़ नदी घाटी के
नाम से लिया गया है जहां यह जीवाश्म पाया गया,
और स्पाइसीफॉर्मिस
नाम जीव के कांटेदार शरीर के कारण दिया गया है। इसके प्रत्येक खंड में तीन भाग हैं, एक
बड़ा केंद्रीय भाग जिसके दोनों ओर छोटे-छोटे पीछे की ओर मुड़े हुए भाग जुड़े हुए हैं।
वहां मिले 35 यिलिंगिया नमूनों में सबसे लम्बा 27 सेंटीमीटर लम्बा था जो एक वयस्क
मानव पैर की लंबाई के बराबर है।
नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म की शारीरिक रचना
और उसके पदचिन्हों के आधार पर, इस जगह पाए गए अन्य पदचिन्ह भी इसी तरह की
जोड़वाली टांगों वाले जीवों द्वारा बनाए गए होंगे। यह विशेषता शुरुआती विकसित होते
जीवों से मेल नहीं खाती और उनके हिसाब से काफी आगे की है। जोड़दार पैरों वाले
अधिकांश जंतु तो इसके 15 करोड़ साल बाद तक विकसित नहीं हुए थे।
वैज्ञानिकों का मत है कि इन खंडों का विकास जीवों को चलने-फिरने में मदद करता था। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जीवों के विविधीकरण में मदद मिली। वास्तव में, शोधकर्ताओं को लगता है कि यह जीवाश्म बिना खंड वाले जीवों (जैसे साधारण कृमि) और जोड़वाली टांगों वाले जीवों (जैसे कीड़े और झींगा मछलियों) के बीच की लापता कड़ी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thepeninsulaqatar.com/uploads/2019/09/05/post_main_cover_fit//4f2b792402b8164bee8e2ba2f56740f076242c91.jpeg
वर्ष 1953 में, एक पर्वतारोही ने माउंट एवरेस्ट के शिखर पर
सिर पर पट्टों वाले हंस (करेयी हंस, एंसर इंडिकस) को उड़ान भरते देखा था। लगभग 9
किलोमीटर की ऊंचाई पर किसी पक्षी का उड़ना शारीरिक क्रियाओं की दृष्टि से असंभव
प्रतीत होता है। यह किसी भी पक्षी के उड़ने की अधिकतम ज्ञात ऊंचाई से भी 2 कि.मी.
अधिक था। इसको समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 19 हंसों को पाला ताकि इतनी ऊंचाई पर
उनकी उड़ान के रहस्य का पता लगाया जा सके।
शोधकर्ताओं की टीम ने एक बड़ी हवाई सुरंग
बनाई और युवा करेयी हंसों को बैकपैक और मास्क के साथ उसमें उड़ने के लिए प्रशिक्षित
किया। विभिन्न प्रकार के सेंसर की मदद से उन्होंने हंसों की ह्मदय गति, रक्त
में ऑक्सीजन की मात्रा, तापमान और चयापचय दर को दर्ज करके प्रति घंटे उनकी कैलोरी
खपत का पता लगाया। शोधकर्ताओं ने मास्क में ऑक्सीजन की सांद्रता में बदलाव करके
निम्न, मध्यम और अधिक ऊंचाई जैसी स्थितियां निर्मित कीं।
यह तो पहले से पता था कि स्तनधारियों की
तुलना में पक्षियों के पास पहले से ही निरंतर शारीरिक गतिविधि के लिए बेहतर ह्मदय
और फेफड़े हैं। गौरतलब है कि करेयी हंस में तो फेफड़े और भी बड़े व पतले होते हैं जो
उन्हें अन्य पक्षियों की तुलना में अधिक गहरी सांस लेने में मदद करते हैं और उनके
ह्मदय भी अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिसकी मदद से वे मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन
पहुंचा पाते हैं।
हवाई सुरंग में किए गए प्रयोग से पता चला
कि जब ऑक्सीजन की सांद्रता माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर 7 प्रतिशत के बराबर थी (जो
समुद्र सतह पर 21 प्रतिशत होती है), तब हंस की चयापचय दर में गिरावट तो हुई
लेकिन उसके बावजूद ह्मदय की धड़कन और पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति में कोई कमी नहीं
आई। शोधकर्ताओं ने ई-लाइफ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि किसी तरह
यह पक्षी अपने खून को ठंडा करने में कामयाब रहे ताकि वे अधिक ऑक्सीजन ले सकें।
गौरतलब है कि गैसों की घुलनशीलता तापमान कम होने पर बढ़ती है। खून की यह ठंडक बहुत
विरल हवा की भरपाई करने में मदद करती है।
हालांकि पक्षी अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे, लेकिन बैकपैक्स का बोझा लादे कृत्रिम अधिक ऊंचाई की परिस्थितियों में कुछ ही मिनटों के लिए हवा में बने रहे। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उपरोक्त अनुकूलन की बदौलत ही वे 8 घंटे की उड़ान भरकर माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने में सफल हो जाते हैं। या क्या यही अनुकूलन उन्हें मध्य और दक्षिण एशिया के बीच 4000 किलोमीटर के प्रवास को पूरा करने की क्षमता देते हैं। और ये करतब वे बिना किसी प्रशिक्षण के कर लेते हैं। लेकिन प्रयोग में बिताए गए कुछ मिनटों से इतना तो पता चलता ही है कि ये हंस वास्तव में माउंट एवरेस्ट की चोटी के ऊपर से उड़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://e3.365dm.com/19/09/768×432/skynews-bar-headed-goose-geese_4766507.jpg?20190906111309
बार्न उल्लू एक
किस्म के उल्लू होते हैं और छोटे चूहे इनका प्रिय भोजन है। ये उल्लू दो प्रकार के
होते हैं। एक जिनका रंग थोड़ा लाल-कत्थई सा होता है और दूसरे जिनका रंग सफेद होता
है। चांदनी रात में सफेद उल्लू के देखे जाने की संभावना ज़्यादा होती है। इसका मतलब
यह होता है कि चूहे सफेद उल्लू की उपस्थिति को जल्दी भांप लेंगे और खुद को बचा
लेंगे। मगर वास्तविकता कुछ और है। यह देखा गया है कि चांदनी रात में सफेद उल्लू
अनपेक्षित रूप से ज़्यादा चूहे मार लेते हैं। यह पता चला है कि अंधेरी रातों में तो
दोनों रंग के उल्लुओं को लगभग 5-5 चूहे मिल जाते हैं। मगर चांदनी रात में सफेद
उल्लू को तो 5 चूहे मिल जाते हैं लेकिन लाल-कत्थई उल्लू को तीन से ही संतोष करना
पड़ता है। आखिर क्यों?
स्विटज़रलैंड के लौसाने विश्वविद्यालय
के लुइस सैन-जोस और एलेक्ज़ेंडर रोलिन की अपेक्षा तो यह थी कि चांदनी रात में सफेद
उल्लुओं को कम और लाल-कत्थई उल्लुओं को ज़्यादा चूहे मिलेंगे। लेकिन इन शोधकर्ताओं
ने पाया कि यह तो सही है कि चांदनी बिखरी हो, तो सफेद उल्लू ज़्यादा आसानी से नज़र आते हैं किंतु इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता। फर्क इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि इनके शिकार यानी चूहे का व्यवहार भी
विचित्र होता है। जब चूहे उल्लू को देखते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया दो तरह की होती है।
एक प्रतिक्रिया होती है जड़ हो जाने की। वे अपनी जगह शायद इस उम्मीद में दुबक जाते
हैं कि उल्लू उन्हें देख नहीं पाएगा। या दूसरी प्रतिक्रिया होती है भाग निकलने की।
किंतु जब वे चांदनी में चमचमाते सफेद उल्लू को देखते हैं तो वे पांच सेकंड ज़्यादा
देर तक जड़ होते हैं। अपने अवलोकन के निष्कर्ष उन्होंने नेचर इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन
में प्रकाशित किए हैं।
वैसे इस अनुसंधान को लेकर एक विशेष बात यह है कि आम तौर पर जंतुओं के रंग परिधान को लेकर अध्ययनों में इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि निशाचर जीवों में शरीर के रंग से क्या और कैसा फर्क पड़ता है। अब जब ऐसे अध्ययन शुरू हुए हैं तो कई आश्चर्यजनक खोजें हो रही हैं। (स्रोत फीचर्स)
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वैसे तो शार्क की अधिकतर प्रजातियां एकांत प्रवृत्ति की होती हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि शार्क की करीबी मंटा-रे मछलियां शार्क की तुलना
में काफी मिलनसार होती हैं। ये एक-दूसरे की हरकतों की नकल करती हैं, साथ खेलती हैं और इंसानों के पास जाने को आतुर होती हैं। और अब हाल ही में पता
चला है कि वे अपनी साथी मछलियों के साथ ‘दोस्ती’ भी करती हैं। उनकी ये दोस्तियां
एक तरह के ढीले-ढाले सम्बंध होते हैं जो कुछ हफ्ते या महीनों तक बने रहते हैं।
मंटा-रे समूह की संरचना समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 5 साल तक उत्तर-पश्चिमी
इंडोनेशिया के समुद्र में तट से दूर, साफ पानी वाले स्थानों पर 500
से ज़्यादा रीफ मंटा-रे मछलियों (Mobula
alfredi) के समूह का अध्ययन किया। अपने अध्ययन में उन्होंने इन
मछलियों के 5 सामूहिक अड्डों की कई तस्वीरें निकालीं। इन 5 सामूहिक स्थानों में से
तीन वे जगहें थीं जहां ये मछलियां रासे मछलियों और कोपेपॉड्स की मदद से अपने पूरे
शरीर की सफाई (मैनीक्योर) करवाती हैं। बाकी दो सामूहिक स्थान उनके भोजन की जगह थे, जहां झींगा और मछलियों के लार्वा उनका भोजन बनते हैं (और कभी-कभी उनकी सफाई
करने वाले कॉपेपॉड्स भी।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने उनके शरीर पर बने पैटर्न और धब्बों की मदद से हर मछली को चिन्हित किया और उन पर नज़र रखी। उन्होंने पाया कि नर की तुलना में मादा मंटा-रे मछलियां एक-दूसरे से ज़्यादा लंबा जुड़ाव बनाती हैं लेकिन नर से दूरी बनाए रखती हैं। अध्ययन का यह निष्कर्ष बीहेवियरल इकॉलॉजी एंड सोशल बॉयोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। लेकिन मंटा-रे मछलियां अन्य जीवों (जो आपस में मज़बूत समूह बनाते हैं) की तुलना मज़बूत जुड़ाव वाला समूह नहीं बनातीं। इसकी बजाय वे दो तरह के लचीले समूह बनाती हैं; एक समूह में अधिकतर मादा मछलियां होती हैं जबकि दूसरे समूह में मादा, बच्चे और नर होते हैं। दोनों समूह सफाई की जगह (क्लीनिंग स्टेशन) और भोजन की जगह पर एक-दूसरे मिलते हैं और उसके बाद हर मछली अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाती है। और फिर कुछ घंटों या एक दिन बाद एक बार फिर सभी वापस अपने समूह से मिलते हैं। ठीक इसी तरह चिम्पैंज़ी भी सोने और भोजन के लिए दो अलग-अलग समूह बनाते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि रे मछलियों ने कुछ स्थानों के लिए काफी स्पष्ट प्राथमिकता दिखाई। देखा गया कि मादा रे मछलियों ने ज़्यादातर समय क्लीनिंग स्टेशन पर बिताया जबकि नर रे मछलियों ने अधिकतर समय भोजन की जगह पर। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही की एक रिपोर्ट में असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क की एक
कुतिया के विलक्षण कौशल का वर्णन किया गया है। यह कुतिया सूंघकर बाघ और गैंडों के
शिकारियों की मौजूदगी भांप लेती है और इस बारे में वन अधिकारियों को आगाह कर देती
है। वन अधिकारियों ने इसे क्वार्मी नाम दिया है क्योंकि यह एक चौथाई सेना के बराबर
है। इसी तरह मध्यप्रदेश के जंगलों में निर्माण और मैना नाम के दो कुत्ते बाघ और
उसके शिकारियों की उपस्थिति सूंघ कर भांप लेते हैं।
कुत्ते भेड़िया कुल के सदस्य हैं। भेड़िए में तकरीबन 30 करोड़ गंध ग्राही होते
हैं जबकि मनुष्यों में सिर्फ 60 लाख। भेड़िए सूंघकर 3 किलोमीटर दूर से किसी की भी
मौजूदगी भांप सकते हैं। उनकी नज़र पैनी और श्रवण शक्ति तेज़ होती है, वे अपने शिकार की आहट 10 किलोमीटर दूर से ही सुन लेते हैं। सूंघने, देखने और सुनने की यह विलक्षण शक्ति कुत्तों को विरासत में मिली है। हम यह भी
जानते है कुत्ते सूंघकर मनुष्यों में मलेरिया, यहां
तक कि कैंसर की पहचान कर लेते हैं। और अच्छी बात तो यह है कि भेड़िए की तुलना में
कुत्ते ज़्यादा शांत होते हैं और हम उन्हें पाल सकते हैं।
यूके और यूएसए के शोधकर्ताओं की हालिया रिपोर्ट कुत्तों की एक और विशेषता के
बारे में बताती है: पालतू बनाए जाने के बाद कैसे समय के साथ कुत्ते के चेहरे की
मांसपेशियां विकसित होती गर्इं और उनमें हमारी तरह भौंह चढ़ाने की क्षमता दिखती है।
शोधकर्ता तर्क देते हैं कि उनकी इसी क्षमता के कारण मनुष्यों ने उनका पालन-पोषण
शुरु किया और कुत्ते हमारे अच्छे दोस्त बन गए हैं। (Kaminski et al.,
Evolution of facial muscle anatomy in dogs, PNAS,116: 14677-81,July 16, 2019)
कुत्तों को लगभग 33 हज़ार साल पहले
पालतू बनाया गया था। जैसे-जैसे वे हमारे पालतू होते गए हमने उन कुत्तों को चुनना
और प्राथमिकता देना शुरु कर दिया जो हमारे सम्बंधों के अनुरूप थे। और इस चयन का
आधार था कुत्तों द्वारा हमारे संप्रेषण को समझने और इस्तेमाल करने की क्षमता, जो अन्य जानवरों में नहीं थी। शोधकर्ता बताते हैं कि कुत्ते मनुष्य के करीबी
सम्बंधी चिम्पैंजी से भी ज़्यादा मानव संप्रेषण संकेतों (जैसे किसी दिशा में इंगित
करने या किसी चीज़ की तरफ देखने) का उपयोग अधिक कुशलता से करते हैं।
कुत्ते-मनुष्य के आपसी रिश्ते में आंख मिलाने का महत्वपूर्ण योगदान है। एक
जापानी शोध समूह के मुताबिक कुत्ते और मनुष्य का एक-दूसरे को एकटक देखना कुत्ते और
कुत्ते के मालिक दोनों में जैव-रासायनिक परिवर्तन शुरू करता है, वैसे ही जैसे मां और शिशु के बीच लगाव होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार संभावित
वैकासिक परिदृश्य यह हो सकता है कि कुत्तों के पूर्वजों ने कुछ ऐसे लक्षण दर्शाए
होंगे जिनसे मनुष्यों में उनकी देखभाल करने की इच्छा पैदा होती होगी। मनुष्य ने
जाने-अनजाने इस व्यवहार को बढ़ावा दिया होगा और चुना होगा जिसके चलते आज कुत्तों
में समरूपी लक्षण दिखते हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में आंखों के बीच सम्पर्क और एकटक देखने का महत्वपूर्ण
योगदान है। कुत्ते के मालिक कुत्तों की टकटकी को बखूबी पहचानते हैं – वे कभी-कभी
इतनी दुखी निगाहों से देखते हैं कि मालिक उन्हें गले लगाना चाहेंगे, और कभी-कभी इतनी परेशान करने वाली निगाहों से देखेंगे कि आप उन्हें सज़ा देना
चाहेंगे।
इसी संदर्भ में यूके-यूएसए के शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि कैसे कुत्तों के
चेहरे की मांसपेशियां और शरीर रचना मनुष्य द्वारा चयन के ज़रिए इस तरह विकसित हुई
कि उसने मनुष्य-कुत्ते के आंखों के सम्पर्क और ऐसी टकटकी में व्यक्त भाषा में
योगदान दिया। हम मनुष्य उन कुत्तों को सराहते हैं जिनकी रचना और हावभाव शिशुओं
जैसे होते हैं। जैसे बड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें। शोधकर्ताओं ने
यह भी बताया कि कुत्तों के चेहरे की कुछ खास पेशियां भौंहे ऊपर-नीचे करने में मदद
करती हैं,
जो मनुष्यों को लुभाता है।
क्या मनुष्य द्वारा पालतू बनाए जाने के दौरान कुत्तों के चेहरे की पेशियों का
विकास इस तरह हुआ है जिससे मनुष्य-कुत्ते के बीच आपसी संवाद सुगम हो जाता है? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने तफसील से घरेलू, पालतू कुत्तों और धूसर भेड़ियों के चेहरे की रचना तुलना की। उन्होंने पाया कि
कुत्तों के समान भेड़िए अपनी भौंह के अंदर वाले हिस्से को नहीं हिला पाते। इसके
अलावा कुत्तों में एक ऐसी पेशी होती हैं जिसकी मदद से वे पलकों को कान की ओर ले जा
सकते हैं जबकि भेड़िए ऐसा नहीं कर पाते। कुत्ते अपनी भौंहों को लगातार कई बार हिला
सकते और उनकी भौंहों की यह हरकत अभिव्यक्ति पूर्ण होती है। इसे लोग ‘पपी डॉग’ हरकत
कहते हैं यानी दुखी होना, खुशी ज़ाहिर करना, बे-परवाही जताना, या शिशुओं जैसे अन्य व्यवहार करना। और
कुत्तों की यह पपी डॉग हरकत मनुष्यों द्वारा कुत्तों पर चयन के दबाव के चलते आई
है।
ज़रूरी नहीं कि बेहतरीन कुत्ता प्यारा या सुंदर हो। बेहतरीन कुत्ता तो वह होता
है जो आपकी ओर देखे और आप उसका जवाब दें। यह नज़र आपसी लगाव की द्योतक होती है।
कुछ दिनों पहले कैलिफोर्निया में ‘दुनिया का सबसे बदसूरत कुत्ता’ वार्षिक प्रतियोगिता सम्पन्न हुई। इस प्रतियोगिता का विजेता स्केम्प दी ट्रेम्प नाम का कुत्ता है, जिसकी बटन जैसी आंखे हैं, दांत नदारद, और ठूंठ जैसे छोटे-छोटे पैर हैं। लेकिन उसकी मालकिन मिस यिवोन मॉरोन को उस पर फख्र है। बात सिर्फ यह नहीं है कि आपका कुत्ता कैसा दिखता है, बल्कि कुत्ता अपने मालिक को पपी छवि दिखाता है और मालिक उसे कैसे देखती है। सुंदरता तो देखने वाले की आंखों में होती है। (स्रोत फीचर्स)
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शोध पत्रिका सेल होस्ट एंड माइक्रोब में प्रकाशित एक शोध पत्र में हुआंग-जे ज़ांग व उनके साथियों ने अदरख के औषधीय गुणों का आधार स्पष्ट किया है। इससे पहले वे देख चुके थे कि चूहों में अदरख और ब्रोकली जैसे पौधों से प्राप्त कुछ एक्सोसोमनुमा नैनो कण (ELN) अल्कोहल की वजह से होने वाली लीवर की क्षति और कोलाइटिस जैसी तकलीफों की रोकथाम में मददगार होते हैं। हाल ही में जब उन्होंने अदरख से प्राप्त ELN का विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें बहुत सारे सूक्ष्म आरएनए होते हैं। इस परिणाम ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि शायद आंतों के बैक्टीरिया इन सूक्ष्म आरएनए का भक्षण करेंगे और इसकी वजह से उनके जीन्स की अभिव्यक्ति पर असर पड़ेगा।
इसे जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने अदरख से प्राप्त एक्सोसोमनुमा नैनो कणों (GELN) का असर कोलाइटिस पीड़ित चूहों पर करके देखा। पता चला कि GELN को ज़्यादातर लैक्टोबेसिलस ग्रहण करते हैं और इन कणों में उपस्थित आरएनए
बैक्टीरिया के जीन्स को उत्तेजित कर देते हैं। यह देखा गया कि खास तौर से
इन्टरल्यूकिन-22 के जीन की अभिव्यक्ति बढ़ जाती है। इन्टरल्य़ूकिन-22 ऊतकों की
मरम्मत में मदद करता है और सूक्ष्मजीवों के खिलाफ प्रतिरोध को बढ़ाता है। अंतत:
चूहे को कोलाइटिस से राहत मिलती है।
इसके बाद ज़ांग की टीम ने कुछ चूहों को शुद्ध GELN खिलाया। इन चूहों के आंतों के बैक्टीरिया संसार का विश्लेषण करने पर पता चला कि उनमें लाभदायक लैक्टोबेसिलस की संख्या काफी बढ़ी हुई थी। अब टीम ने कुछ चूहों में कोलाइटिस पैदा किया और उन्हें GELN खिलाया गया। ऐसा करने पर कोलाइटिस से राहत मिली। ज़ांग का कहना है कि इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि पौधों से प्राप्त कख्र्ग़् आंतों में पल रहे सूक्ष्मजीव संघटन को बदल सकते हैं। यह फिलहाल किसी नुस्खे का आधार तो नहीं बन सकता किंतु आगे और अध्ययन की संभावना अवश्य दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)
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गौरैया के साथ मेरा रिश्ता बचपन से ही रहा है। गौरैया छत में
लकड़ी व बांस की बल्लियों के बीच की जगह और दीवारों पर टंगे फोटो के पीछे दुबकी
रहती और सुबह होते ही यहां-वहां चहकती फिरती,
गली-मोहल्ले में धूल
में नहाती। आंगन में झूठे बर्तनों में बचे हुए अन्न कणों को चुगना आम बात थी। कई
बार तो खाना खाने के दौरान इतना पास आ जाती कि बस चले तो थाली में ही चोंच मार दे।
वे घर की दीवार पर टंगे शीशे में अपने को ही चोंच मारती रहती। शाम होते अनेक गौरैया
एक साथ मिलकर कलरव मचाती।
बरसात के दिनों में हम बच्चों का एक प्रमुख
काम होता गौरैया को पकड़ने का। तकनीक का खुलासा नहीं करूंगा। गौरैया को पकड़कर
उसके पंखों को स्याही से रंगकर वापस छोड़ देते। उस रंगी हुई चिड़िया को देखकर हम
खुश होते रहते।
अब गौरैया की संख्या काफी कम हो चुकी है, खासकर
महानगरों व शहरों में। रहन-सहन व घरों की डिज़ाइन में बदलाव के साथ गौरैया शहरी
घरों से अमूमन विदा ले चुकी है। अनेक गांवों-कस्बों में आज भी गौरैया बहुतायत से
दिखाई देती है। यह सही है कि गौरैया कम होती जा रही है लेकिन इंटरनेशनल यूनियन फॉर
कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की जोखिमग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट में गौरैया
को अभी भी कम चिंताजनक ही बताया गया है।
मैं यहां यह बात करना चाहता हूं कि इसने
कैसे और कब मानव के साथ जीना सीखा? माना जाता है कि गौरैया ने मानव के साथ
जीना तब शुरू किया था जब उसने कृषि की शुरुआत की थी। जब गौरैया ने मानव के साथ
जीना सीखा तो इसमें क्या बदलाव आया होगा? उसके खान-पान में बदलाव ज़रूर आए होंगे।
इसके चलते इसकी शारीरिक बनावट में क्या कोई अंतर आए होंगे?
गौरैया (पैसर डोमेस्टिकस) को अक्सर हम
पालतू चिड़िया की श्रेणी में रखने की भूल कर बैठते हैं। सच तो यह है कि वह मानव के
निकट रहती है मगर पालतू नहीं है। दरअसल, गौरैया को कुत्ते,
गाय, घोड़े, मुर्गी
की तरह मानव ने पालतू नहीं बनाया है बल्कि इसने मानव के निकट जीना सीख लिया है।
सलीम अली ने अपनी पुस्तक ‘भारत के पक्षी’ में लिखा है कि यह मनुष्य की बस्तियों से
अलग नहीं रह सकती।
गौरैया एक नन्ही चिड़िया है जो पैसेराइन
समूह की सदस्य है। इसकी लगभग 25 प्रजातियां हैं जो पैसर वंश के अंतर्गत आती हैं।
घरेलू चिड़िया युरोप, भूमध्यसागर के तटों और अधिकांश एशिया में पाई जाती है।
ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, और अमेरिका व अन्य कई क्षेत्रों में इसे
जानबूझकर पहुंचाया गया या आकस्मिक कारणों से पहुंच गई।
जहां भी हो,
यह मानव बस्तियों के
इर्द-गिर्द ही पाई जाती है। जहां-जहां मनुष्य गए,
गौरैया साथ गई! घने
जंगलों, घास के मैदानों और रेगिस्तान,
जहां मानव की मौजूदगी
नहीं होती वहां गौरैया नहीं पाई जाती।
यह अनाज और खरपतवार के बीज खाती है। वैसे
यह एक अवसरवादी भक्षक है, जिसे जो मिल जाए खा लेती है। कीट और
इल्लियों को भी खाती है। इसके शिकारियों में बाज,
उल्लू जैसे शिकारी
पक्षी और बिल्ली जैसे स्तनधारी शामिल हैं।
पक्षियों की चोंच
पक्षियों की चोंच और इससे सम्बंधित लक्षण
विकास की विशेषताओं को समझने में कारगर रहे हैं। चोंच भोजन प्राप्त करने का प्रमुख
औज़ार है। पक्षियों के अध्ययन के दौरान अक्सर उनकी चोंच का अवलोकन करने को कहा
जाता है। चोंच के आधार पर पक्षी के भोजन का अनुमान लगाया जा सकता है।
डार्विन ने गैलापेगोस द्वीपसमूह पर फिंच
पक्षियों का अध्ययन कर बताया था कि वास्तव में पक्षियों की चोंच की शक्ल और आकृति
को प्राकृतिक चयन द्वारा इस तरह से तराशा जाता है कि वह उपलब्ध भोजन के साथ फिट
बैठ सके। डार्विन ने बताया था कि फिंच की अलग-अलग प्रजातियों में भोजन के अनुसार
चोंच का आकार विकसित हुआ है। गौरैया जब मानव के साथ रहने लगी तो खेती में उपलब्ध
बीजों को खाने के मुताबिक गौरैया की चोंच में परिवर्तन हुआ।
दो गौरैया की तुलना
गौरैया की एक उप प्रजाति है: पैसर
डोमेस्टिकस बैक्ट्रिएनस। यह हमारी घरेलू गौरैया पैसर डोमेस्टिकस की ही तरह दिखती
है। बैक्ट्रिएनस गौरैया शर्मिली और मानवों से दूर रहने की कोशिश करती है। यह
प्रवासी पक्षी है। दोनों के डीएनए विश्लेषण से पता चला है कि लगभग 10 हजार वर्ष
पहले गौरैया का एक उपसमूह मुख्य समूह से अलग होकर घरेलू गौरैया बन गया।
गौरैया का मानव के साथ सहभोजिता का रिश्ता
रहा है। लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्यों ने जब मध्य-पूर्व में खेती प्रारंभ की
उसी समय गौरैया ने मानव के साथ रिश्ता बिठाना शुरू किया। लगभग चार हज़ार वर्ष
पूर्व खेती के फैलाव के साथ-साथ गौरैया भी तेज़ी से फैलती गई। हालांकि घरेलू
गौरैया की कई उपप्रजातियां हैं लेकिन जेनेटिक विश्लेषण से पता चलता है कि ये हाल
ही में अलग-अलग हुई हैं।
अलबत्ता,
बैक्ट्रिएनस गौरैया
ने आज तक अपने प्राचीन पारिस्थितिक गुणधर्म बचाकर रखे हैं। बैक्ट्रिएनस मानव के
साथ नहीं जुड़ी है बल्कि मानव बस्तियों से दूर प्राकृतिक आवासों में (जैसे नदी, झाड़ियों, घास
के मैदानों और पेड़ों पर) रहती है। इनकी तुलना करके हम घरेलू गौरैया के मनुष्यों
से रिश्ता बनने में हुए परिवर्तनों को देख सकते हैं।
शरद ऋतु में बैक्ट्रिएनस गौरैया अपने
प्रजनन स्थल मध्य एशिया से बड़ी तादाद में सर्दियां बिताने के लिए उड़कर
दक्षिण-पूर्वी ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी भागों में पहुंच जाती है।
गौरतलब है कि बैक्ट्रिएनस मुख्य रूप से जंगली घास के बीज खाती है जबकि मानव के साथ
रहने वाली गौरैया खेती में उगने वाली गेहूं और जौं जैसी फसलों के बीज खाती हैं।
अध्ययन से पता चला है कि अस्थि संरचनाओं का विकास प्रवासी बैक्ट्रिएनस गौरैया की
तुलना में घरेलू गौरैया में संभवत: जल्दी हुआ क्योंकि प्रवासी व्यवहार के चलते
पक्षी पर वज़न सम्बंधी अड़चनें ज़्यादा आएंगी जबकि एक ही जगह पर रहने वाली गौरैया
के लिए इस तरह की अड़चन बाधक नहीं बनेगी क्योंकि उन्हें दूर-दूर तक उड़कर तो जाना
नहीं है। इसलिए प्रवासी व्यवहार का परित्याग करने के साथ ही घरेलू गौरैया की चोंच
और खोपड़ी मज़बूत होने लगी।
गौरैया में प्रवास के परित्याग के फलस्वरूप
चोंच व खोपड़ी में होने वाले परिवर्तन एक प्रकार से अपने नए भोजन के साथ अनुकूलन
है। जंगली अनाज के दानों और खेती में उगाए गए अनाज के दानों के बीच कई अंतर हैं।
फसली बीजों का आकार बढ़ने लगा और ये बीज जंगली बीजों से कठोर व बनावट में अलग थे।
अत: बीजों के गुणधर्मों में परिवर्तन के चलते खोपडी और चोंच पर प्राकृतिक चयन का
दबाव बढा।
खेती में उगाए जाने वाले अनाज के दाने पौधे
में एक डंडी (रेकिस) पर काफी पास-पास मज़बूती से बंधे होते हैं जबकि जंगली घास के
पौधों में पकने पर रेचिस के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। बैक्ट्रिएनस उप प्रजाति
मानवों से दूर ही रही और उनकी चोंच व खोपड़ी में कोई फर्क नहीं आया। यह भी देखा
गया कि मानव के निकट रहने वाली गौरैया की उप प्रजाति डील-डौल में भी थोड़ी बड़ी
है।
गौरैया ने मानव सभ्यता के साथ रहते हुए
अपने आपको मानव-निर्भर पर्यावरण के अनुसार ढाल लिया है। प्राकृतिक चयन की
प्रक्रिया ने उन आनुवंशिक परिवर्तनों को सहारा दिया या उन्हें संजोया जिनके चलते
इनकी खोपड़ी के आकार में बदलाव के अलावा इनमें मांड या स्टार्च को पचाने की क्षमता
भी विकसित होती गई।
आखिर कृषि ने कैसे गौरैया के जीनोम को
प्रभावित किया होगा? घरेलू गौरैया में ऐसे जीन मिले हैं जो इसके करीबी जंगली
रिश्तेदार में नहीं हैं।
घरेलू गौरैया में प्रमुख रूप से ऐसे दो जीन मिले हैं। इनमें से एक जीन जानवरों की खोपड़ी की संरचना के लिए ज़िम्मेदार होता है और दूसरा स्टार्च के पाचन में प्रमुख भूमिका अदा करता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/6/6e/Passer_domesticus_male_(15).jpg
आखिरकार जिस दिन का हम सबको डर था वह जल्द ही आ सकता है। एक
हालिया अध्ययन से मालूम चला है कि तिलचट्टे धीरे-धीरे अजेय होते जा रहे हैं।
अध्ययनों के अनुसार कम से कम जर्मन तिलचट्टा (Blattella germanica) लगभग हर तरह के रासायनिक कीटनाशकों के प्रति तेज़ी से
प्रतिरोध विकसित कर रहा है।
गौरतलब है कि सभी कीटनाशक एक समान क्रिया
नहीं करते। कुछ तंत्रिका तंत्र को नष्ट करते हैं,
जबकि अन्य बाहरी
कंकाल पर हमला करते हैं और उन्हें अलग-अलग अवधि तक छिड़कना होता है। लेकिन
तिलचट्टे सहित कई कीड़ों ने सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशक के खिलाफ
प्रतिरोध विकसित कर लिया है। तिलचट्टे का जीवन लगभग 100 दिनों का होता है, इसलिए
प्रतिरोध तेज़ी से फैल सकता है। सबसे ज़्यादा प्रतिरोधी काकरोचों का प्रतिरोधी जीन
अगली पीढ़ी को मिल जाता है।
जर्मन तिलचट्टे में प्रतिरोध का परीक्षण
करने के लिए, शोधकर्ताओं ने 6 महीनों तक इंडियाना और इलिनॉय में कई
इमारतों में तीन अलग-अलग तिलचट्टा कॉलोनियों का चयन किया किया। उन्होंने तिलचट्टों
की आबादी पर तीन अलग-अलग कीटनाशकों – एबामेक्टिन,
बोरिक एसिड और
थियामेथोक्सैम – के खिलाफ प्रतिरोध स्तर की जांच की। एक उपचार में उन्होंने 3-3
महीने के दो चक्रों में एक-के-बाद-एक तीनों कीटनाशकों का उपयोग किया। अन्य उपचार
में, शोधकर्ताओं ने पूरे 6 महीनों तक कीटनाशकों के मिश्रण का
उपयोग किया। अंतिम उपचार में केवल एक रसायन का उपयोग किया गया जिसके प्रति
तिलचट्टों की आबादी में कम प्रतिरोध था।
साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अलग-अलग उपचारों के बावजूद, अधिकतर
तिलचट्टा आबादियों में समय के साथ कोई कमी देखने को नहीं मिली। ठीक यही स्थिति तब
भी रही जब कई कीटनाशकों का मिलाकर इस्तेमाल किया गया। अक्सर कीट नियंत्रण में इसी
तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। इन परिणामों से यह अनुमान लगाया गया कि तिलचट्टे
तीनों रसायनों के खिलाफ तेज़ी से प्रतिरोध विकसित कर रहे हैं। एक सकारात्मक बात यह
दिखी कि यदि तिलचट्टों में निम्न स्तर का प्रतिरोध है तो एबामेक्टिन उपचार कॉलोनी
के एक बड़े हिस्से को मिटा सकता है।
अगर इन निष्कर्षों को मान लिया जाए तो मात्र रसायनों से तिलचट्टों के प्रकोप का मुकाबला करना असंभव हो सकता है। शोधकर्ताओं के सुझाव में एकीकृत कीट प्रबंधन का उपयोग करना होगा। रसायनों के साथ-साथ पिंजड़ों, सतहों की सफाई या वैक्यूम से खींचकर इनको खत्म किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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अठारवीं सदी में शिपवर्म (एक
प्रकार का कृमि) ने लोगों को काफी परेशान किया था। जहाज़ों को डुबाना,
तटबंधों को खोखला करना और यहां तक कि समुद्र की लहरों से
बचाव करने वाले डच डाइक को भी खा जाना इस कृमि की करामातें थी। लकड़ी इनकी खुराक
है। शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसे शिपवर्म की खोज की है जिसका आहार लकड़ी नहीं
बल्कि पत्थर है। मीठे पानी में पाया जाने वाला यह मोटा, सफेद, और कृमि जैसा दिखने वाला जीव एक मीटर तक लंबा हो सकता है। शोधकर्ताओं ने इस
प्रजाति (Lithoredo abatanica) को पहली बार 2006 में फिलीपींस स्थित अबाटन नदी के चूना
पत्थर में अंगूठे की साइज़ के बिलों में देखा था। लेकिन इस जीव का विस्तार से
अध्ययन 2018 में किया गया।
चट्टान को चट करने वाला यह
शिपवर्म लकड़ीभक्षी शिपवर्म से काफी अलग है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी
बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सभी शिपवर्म वास्तव में कृमि नहीं बल्कि
क्लैम होते हैं। इनमें दो सिकुड़े हुए कवच रूपांतरित होकर बरमे की तरह काम करते
हैं। लकड़ी खाने वाले कृमि के कवच पर सैकड़ों तेज़ अदृश्य दांत होते हैं वहीं
चट्टान खाने वाले कृमि में दजऱ्न भर मोटे, मिलीमीटर साइज़ के दांत होते हैं जो चट्टान को खरोंचने में
सक्षम होते हैं।
लकड़ीभक्षी समुद्री शिपवर्म में विशेष पाचक थैली होती है जहां बैक्टीरिया लड़की को पचाते हैं। अन्य शिपवर्म की तरह चट्टान खाने वाले शिपवर्म भी कुतरे हुए पदार्थ को निगलते ज़रूर हैं लेकिन इसमें पाचक थैली और बैक्टीरिया का अभाव रहता है। चट्टान के चूरे से इन्हें कोई पोषण नहीं मिलता। पोषण के लिए वे पिछले सिरे से चूसे गए भोजन के भरोसे रहते हैं जिसे गलफड़ों में उपस्थित बैक्टीरिया पचाते हैं। बहरहाल, लकड़ीभक्षी और चट्टानभक्षी शिपवर्म में एक समानता है। दोनों काफी नुकसान कर सकते हैं। लकड़ीभक्षी ने तो जहाज़ों और लकड़ी से बनी अन्य रचनाओं को तहस-नहस किया था और दूसरा चट्टान को खोखला कर नदी के रास्ते को भी बदल सकता है। लेकिन इसका एक उजला पक्ष भी है। कृमि द्वारा बनाई गई दरारें केकड़ों, घोंघों और मछलियों के लिए बेहतरीन घर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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जैव विविधता पर तरह तरह के खतरों और मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रजातियों के ह्यास के बीच हाल में संरक्षणवादियों के लिए दो अच्छी खबरें आई है। गुड़हल की जाति के एक विलुप्त माने जा रहे पौधे को पुन: खोज लिया गया है और रेल समूह के एक पक्षी में विकास की एक दुर्लभ घटना देखी गई है।
एक समाचार यह है कि हिबिस्काडेल्फस वूडी नाम का एक पौधा शायद विलुप्त नहीं हुआ है। वनस्पतिविदों ने हवाई द्वीप पर पाए जाने वाले इस दुर्लभ फूलधारी पौधे को एक बार पुन: खोज लिया है और ऐसा संभव हुआ है एक ड्रोन की सहायता से। गौरतलब है कि ड्रोन बहुत छोटे विमान होते हैं जिन्हें सुदूर संचालन से चलाया जाता है। इनका उपयोग जासूसी कार्य के अलावा प्रकृति के अध्ययन में किया जाता है।
हिबिस्काडेल्फस वूडी हवाई द्वीप के पहाड़ों की खड़ी चट्टानों के मुहाने पर उगता है। यहां उगने के कई फायदे हैं। एक तो भूखी भेड़ें ऐसी चट्टानों पर चढ़कर इसे नहीं खा सकती, और न ही वे लोग यहां पहुंच पाते हैं जो कीमती पौधों को पैरों तले रौंद डालते हैं। हिबिस्काडेल्फस वूडी हमारे जाने पहचाने गुड़हल यानी जासौन की जाति का है। इस पौधे को अंतिम बार 2009 में देखा गया था। अप्रैल 2019 में ड्रोन की मदद से की गई नई खोज का मतलब है कि मात्र एक दशक की अवधि में यह विलुप्त प्रजातियों की सूची से बाहर आ चुका है। हिबिस्काडेल्फस वूडी को ग्रीन हाउस में उगाने के प्रयास बार-बार हुए परंतु सफलता नहीं मिली। कलम लगाना, टिप कटिंग करना और पर-परागण द्वारा भी इसे उगाना संभव नहीं हो पाया था।
सैकड़ों हजारों साल के विकास ने इस पौधे में कुछ विलक्षण गुण उत्पन्न किए हैं। जैसे इसका फूल नलिकाकार है जो उम्र बढ़ने के साथ पीले से गहरा लाल हो जाता है। इसके फूल की रचना वहीं के एक स्थानीय परागणकर्ता हनीक्रीपर नामक पक्षी की चोंच से एकदम मेल खाती है।
इसे पुन: खोजे जाने पर वनस्पति शास्त्री केन वुड का कहना है कि प्रजातियों का विलुप्तिकरण कभी भी एक सटीक विज्ञान नहीं रहा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कहां और कैसे खोज रहे हैं। केन वुड ने अपना सारा समय नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन में विलुप्तप्राय वनस्पतियों की खोज में बिताया है। वे अक्सर हवाई द्वीपों की कवाई पहाडि़यों की दरारों पर हेलीकॉप्टर से बाहर लटकते हुए ऐसी प्रजातियों को बचाने में लगे रहते हैं जिनके मुश्किल से 5-10 प्रतिनिधि ही बचे हैं। इनमें से कुछ स्थान ऐसे हैं जहां पर वे और उनके साथी स्टीलमैन रस्सियों और हेलीकॉप्टर की सहायता से भी नहीं पहुंच पाए थे। 2016 में ड्रोन विशेषज्ञ बेन नायबर्ग ने नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन के साथ कवाई द्वीप की दुर्गम घाटियों में ऐसे स्थानों पर ड्रोन की सहायता से ऐसी दुर्गम घाटियों पर खोजबीन में मदद की। 2019 की फरवरी में एक धूप भरे दिन ड्रोन कैमरे से उन्होंने एक पौधे के झुंड को खोजा जो केलालू घाटी की खड़ी चट्टानों की दरारों से 700 फीट नीचे था। इससे और नीचे पहुंचने के लिए 800 फीट के नीचे उन्होंने वहां अपना ड्रोन उड़ाया और एक पौधे के समूह को अपने मॉनिटर पर देखा। उन्होंने पाया कि हिबिस्काडेल्फस वूडी वहां जीता-जागता खड़ा है।
यह पहला मौका था जब किसी प्रजाति को खोजने के लिए ड्रोन का उपयोग किया गया। इनका मानना है कि इन जगहों पर कुछ और नई प्रजातियां या ऐसी प्रजातियां भी मिल सकती हैं जिन्हें विलुप्त मान लिया गया है।
दूसरी अच्छी खबर एक पक्षी के बारे में है जो करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार साल पहले विलुप्त हो गया था पर फिर नए अवतार में प्रकट हुआ है। इसका नाम है व्हाइट थ्रोटेड रेल। यह मुर्गी के आकार का पक्षी है। यह जैव विकास की एक विलक्षण और दुर्लभ घटना है। ज़ुऑलॉजिकल जर्नल ऑफ लिनियन सोसायटी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार किस्सा यह है कि व्हाइट थ्रोटेड रेल मेडागास्कर का मूल निवासी है। मगर ये प्रवास करके अलग-अलग दीपों में समुदाय बनाकर रहते थे और संख्या बढ़ने पर ये आसपास के द्वीपों पर माइग्रेट हो जाते थे। इनमें से कई उत्तर और दक्षिण के दीपों पर चले गए जो समुद्र का तल बढ़ने से पानी में डूब कर समाप्त हो गए। जो कुछ अफ्रीका में गए थे वहां उन्हें शिकारियों ने खा लिया। वे पक्षी जो पूर्व की ओर गए वे मारीशस, रीयूनियन द्वीप और अलडबरा द्वीप पर पहुंचे। अलडबरा एक छल्ले के आकार का कोरल द्वीप है जो आज से लगभग 4 लाख वर्ष पूर्व बना था। यहां भोजन प्रचुरता से उपलब्ध था और मारीशस के द्वीपों की तरह यहां पर भी कोई शिकारी नहीं था। अत: ये रेल इस प्रकार विकसित हुए कि अपनी उड़ने की क्षमता खो बैठे।
फिर करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार वर्ष पूर्व एक बड़ी बाढ़ के दौरान अलडबरा द्वीप समुद्र में डूब गया था। परिणामस्वरूप यहां की सारी वनस्पतियां तथा कई जंतु मारे गए। इनमें उड़ान-विहीन रेल भी शामिल थे। शोधकर्ताओं ने 1 लाख साल पुराने जीवाश्मों का अध्ययन किया है। यह वह समय था जब हिम युग के कारण समुद्र के तल में गिरावट आई थी। जीवाश्म से पता चला कि यह द्वीप पुन: न उड़ पाने वाले रेल पक्षी समुदाय से बस गया था। द्वीप के डूबने के पूर्व और द्वीप के वापिस उभरने के बाद के रेल पक्षियों के जीवाश्म की हड्डियों की तुलना से पता चलता है कि ये दोनों पक्षी मैडागास्कर से उड़कर यहां पहुंचे थे और दोनों बार इन्होंने उड़ने की क्षमता गंवाई।
इसका अर्थ यह है कि मेडागास्कर की एक ही प्रजाति ने न उड़ने वाली रेल की दो उप-प्रजातियों को अलडबरा में कुछ हजार वर्षों के अंतराल पर जन्म दिया। प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जूलियन ह्रूम कहते हैं कि ये विशिष्ट जीवाश्म इस बात के अकाट-प्रमाण हैं कि इन द्वीपों पर रेल के दोनों समुदाय मेडागास्कर से ही आए थे, और यहीं आकर अलग-अलग समय पर दो न उड़ने वाले रेल बन गए। यह दोनों घटनाएं दर्शाती है कि जैव विकास के दौरान एक ही गुण का बार-बार प्रकट होना कोई अनहोनी नहीं है। जैव विकास की भाषा में इसे इटरेटिव विकास कहते हैं। इटरेटिव विकास उसे कहते हैं जब वही या मिलती जुलती रचनाएं एक साझा पूर्वज से अलग-अलग समय पर विकसित हों। इसका अर्थ यह है कि एक ही पूर्वज से शुरू करके एक-से जीव वास्तव में दो बार अलग-अलग समय अथवा स्थान पर इस धरती पर विकसित हुए हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चंद हज़ार सालों के अंतराल पर एक ही पूर्वज प्रजाति से दो उप-प्रजातियां निकली हैं और वे सचमुच अलग-अलग उप प्रजातियां हैं। यह किसी उप प्रजाति का पुनर्जन्म नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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