पुतली का आकार और बुद्धिमत्ता

हते हैं कि आंखें दिल की ज़ुबां होती हैं। लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि ये हमारे मस्तिष्क का हाल भी बयां करती हैं। आंखों की पुतलियां न सिर्फ प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया देती हैं बल्कि उत्तेजना, रुचि तथा मानसिक थकावट के संकेत भी देती हैं। कई खुफिया एजेंसियां झूठ पकड़ने के लिए भी इनका उपयोग करती हैं।

पुतली आंख के बीच स्थित काले गोलाकार भाग को कहते हैं। इसका आकार लगभग 2 से 8 मिलीमीटर होता है। यह पुतली परितारिका नामक रंगीन क्षेत्र से घिरी होता है जो पुतली के आकार को नियंत्रित करता है।

इस विषय में जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में किए गए अध्ययन से पता चला है कि पुतली का मूल आकार बुद्धिमत्ता से निकट सम्बंध दर्शाता है। तार्किकता, एकाग्रता और स्मृति जांच में पाया गया कि जितनी बड़ी पुतली, उतनी ही अधिक बुद्धि। तीन अध्ययनों में किए गए संज्ञानात्मक परीक्षणों में सबसे अधिक और सबसे कम अंक प्राप्त करने वाले लोगों की पुतली के आकार में स्पष्ट अंतर देखे गए हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पुतली के फैलाव की तकनीक का उपयोग किया। पुतली के आकार और बुद्धि के बीच के सम्बंध को समझने के लिए एटलांटा समुदाय के 18 से 35 वर्षों के 500 से अधिक लोगों पर अध्ययन किया गया। इसके बाद उन्होंने शक्तिशाली कैमरा और कंप्यूटर से लैस ऑई ट्रैकर की मदद से उनकी पुतली के आकार का मापन किया। इस प्रक्रिया में प्रतिभागियों को लगभग चार मिनट तक कंप्यूटर का खाली स्क्रीन देखने को कहा गया और इस दौरान उनकी पुतली की स्थिर अवस्था को मापा गया। इसके आधार पर प्रत्येक प्रतिभागी की पुतली के औसत आकार की गणना की गई। तेज़ रोशनी में पुतलियां सिकुड़ जाती हैं, इसलिए अध्ययन के दौरान रोशनी मंद रखी गई।              

अध्ययन के अगले भाग में प्रतिभागियों की ‘तरल बुद्धिमत्ता’ (नई समस्याओं के प्रति तर्क करने की क्षमता), ‘कामकाजी स्मृति क्षमता’ (एक समय अवधि तक किसी जानकारी को याद रखने की क्षमता) और ‘एकाग्रता नियंत्रण’ (खलल की स्थिति में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता) को मापने के लिए कई संज्ञानात्मक परीक्षण किए गए।

उदाहरण के तौर पर, प्रतिभागियों को कंप्यूटर स्क्रीन के एक सिरे पर बड़े से टिमटिमाते तारे से ध्यान बचाते हुए स्क्रीन के विपरीत सिरे पर एक अक्षर की पहचान करना थी। यह अक्षर कुछ ही क्षणों के लिए प्रकट होता था, इसलिए क्षण भर भी इस टिमटिमाते तारे की ओर ध्यान दिया तो अक्षर नहीं देख पाएंगे। गौरतलब है कि मनुष्य में परिधीय दृष्टि से गुज़रने वाली वस्तुओं पर प्रतिक्रिया करने की प्रवृत्ति होती है लेकिन इस कार्य में अक्षर पर ध्यान केंद्रित करने का निर्देश दिया गया था।     

शोधकर्ताओं ने पाया कि पुतली का मूल आकार तरल बुद्धिमत्ता, एकाग्रता नियंत्रण, और कुछ हद तक कामकाजी स्मृति क्षमता से जुड़ा है। पुतली का आकार उम्र के साथ घटता जाता है। विश्लेषण में इस बात का ध्यान रखते हुए भी यह सम्बंध बना रहता है।

सवाल है कि पुतली के आकार का सम्बंध बुद्धि से कैसे है? शोधकर्ताओं का मानना है कि पुतली का आकार मस्तिष्क के ऊपरी स्टेम में स्थित लोकस कोर्यूलियस की गतिविधि से सम्बंधित है। यह मस्तिष्क के अन्य हिस्सों से तंत्रिकाओं के माध्यम से जुड़ा होता है। लोकस कोर्यूलियस एक रसायन नॉरएपिनेफ्रिन मुक्त करता है जो मस्तिष्क और शरीर में तंत्रिका-संप्रेषक और हॉर्मोन के रूप में कार्य करता है। इसके साथ ही यह अनुभूति, एकाग्रता, सीखने और स्मृति जैसी प्रक्रियाओं को भी नियंत्रित करता है। यह मस्तिष्क की गतिविधियों का समन्वय भी करता है ताकि मस्तिष्क के दूरस्थ क्षेत्र चुनौतीपूर्ण कार्यों और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मिलकर काम कर सकें।

लोकस कोर्यूलियस के काम में गड़बड़ी की वजह से मस्तिष्क के कार्यों में समन्वय अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसका सम्बंध अल्ज़ाइमर एवं एकाग्रता के अभाव से देखा गया है। मस्तिष्क की गतिवधियों में समन्वय बहुत महत्वपूर्ण है और मस्तिष्क अपनी अधिकांश ऊर्जा इसको बनाए रखने में खर्च करता है।

एक परिकल्पना यह है कि जिन लोगों में पुतलियों का आकार बड़ा होता है उनमें लोकस कोर्यूलियस की गतिविधि भी अधिक होती है जो संज्ञानात्मक प्रदर्शन के लिए लाभदायक है। फिर भी बड़े आकार की पुतलियों और बुद्धि का सम्बंध समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। आंखों में अभी काफी रहस्य हैं जिनको अभी और गहराई से समझना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निएंडरथल की विरासत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

स्सी पार के मेरे जैसे लोग तो कलाई पर घड़ी सिर्फ समय देखने के लिए बांधते हैं, लेकिन आज के ‘फैशनपरस्त’ युवा आम तौर पर करीने से फटी हुई जींस और कई सुविधाओं से लैस घड़ी पहनते हैं, जो न केवल समय बताती है बल्कि उनके लिए सही ट्वीट्स, फिल्में और आज का संगीत भी सुनाती हैं। उनकी तुलना में मेरे जैसे लोग म्यूज़ियम में रखे जाने लायक नमूने हैं। लेकिन जब मैं उनमें से कुछ अधिक ‘ज्ञानियों’ से यह पूछता हूं कि यह तकनीकी प्रगति कितने पहले शुरू हुई थी, तो वे गर्व से बताते हैं कि दिल्ली में स्थित कुतुब मीनार और उसका लौह स्तंभ, दोनों ही लौह युग के हैं।

आधुनिक मनुष्य

‘आधुनिक’ मनुष्य अपने अन्य होमिनिन पूर्वजों के साथ लौह युग के बहुत पहले, लगभग तीन लाख साल पहले, से पृथ्वी पर रह रहे हैं। लेकिन ये ‘अन्य’ लोग कौन थे? इनमें से एक ‘अन्य’ मानव पूर्वज है ‘निएंडरथल’, जिनकी हड्डियां सबसे पहले जर्मनी के डसेलडोर्फ के पूर्व में स्थित निएंडर घाटी में मिली थीं। इसलिए इन्हें ‘निएंडरथल’ कहा गया। ये होमिनिन लगभग 4,30,000 साल पहले पृथ्वी पर अस्तित्व में आए थे, लेकिन होमो सेपियन्स के विपरीत इनका विकास (या फैलाव) अफ्रीका में नहीं हुआ। प्रारंभिक मनुष्यों से पहली बार इनका सामना तब हुआ जब मनुष्य अफ्रीका से बाहर निकले।

तब होमो सेपियन्स और इनके बीच प्रतिस्पर्धा हुई या उनके बीच सहयोग का सम्बंध बना? एशिया और युरोप के जिन स्थानों पर इन दो प्रजातियों का आमना-समाना हुआ वहां के लोगों की आनुवंशिकी का अध्ययन कर इन सवालों के जवाब पता लगे हैं। इस तरह के विश्लेषण करने की तकनीकें अब तेज़ी से उन्नत होती जा रही हैं – इसके लिए अब ज़रूरत होती है सिर्फ हड्डी के एक टुकड़े की, और दांत मिल जाए तो और भी अच्छा। विश्लेषण में, हड्डी या दांत में छेद करके कुछ मिलीग्राम पाउडर निकाला जाता है और उस जंतु का डीएनए प्राप्त किया जाता है। फिर उसे अनुक्रमित किया जाता है। कभी-कभी तो इन टुकड़ों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि प्राचीन मनुष्यों के आवास स्थलों – जैसे गुफाओं – की तलछट में ही विश्लेषण योग्य डीएनए मिल जाते हैं! आनुवंशिकी की सभी तकनीकी और बौद्धिक प्रगति के पीछे स्वीडिश आनुवंशिकीविद स्वांते पाबो और जैव रसायनज्ञ जोहानेस क्राउस का उल्लेखनीय योगदान है।

‘आधुनिक’ मनुष्य इन क्षेत्रों के स्थानीय लोगों के साथ अंतर-जनन करते थे। साइंस पत्रिका के 9 अप्रैल के अंक में प्रकाशित लेख, निएंडरथल से आधुनिक मनुष्य कब संपर्क में आए, में डॉ. एन गिब्स बताती हैं कि हाल ही में इस अंतर-जनन से जन्मी संकर संतान की जांघ की हड्डी प्राप्त हुई है। प्राप्त नमूनों के हालिया आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि बुल्गारिया की बाचो किरो गुफा में निएंडरथल पहले आए थे (50,000 साल से भी पहले) और वहां वे अपने पत्थरों के औजार छोड़ गए थे। इसके बाद आधुनिक मानव दो अलग-अलग समयों पर, लगभग 45,000 पहले और 36,000 साल पहले, वहां आकर रहे, और गुफा में मनके और पत्थर छोड़ गए। 45,000 साल पूर्व इस गुफा में रहने वाले तीन मानव नरों के जीनोम डैटा से पता चलता है कि तीनों की कुछ ही पीढ़ियों पूर्व निएंडरथल इनकी वंशावली में शामिल थे। इससे स्पष्ट रूप से पता चलता है कि इस क्षेत्र में आधुनिक मनुष्य ने वहां के स्थानीय लोगों के साथ अंतर-जनन किया था, और निएंडरथल और आधुनिक मनुष्य का एक संकर समूह बना था। इस संकर समूह में निएंडरथल की विरासत 3.4 प्रतिशत से 3.8 प्रतिशत के बीच थी, (आधुनिक गैर-अफ्रीकियों में यह विरासत लगभग 2 प्रतिशत है)। यह विरासत गुणसूत्र खंड के लंबे-लंबे टुकड़ों के रूप में है, जो प्रत्येक अगली पीढ़ी में छोटे होते जाते हैं। इन टुकड़ों की लंबाई को मापकर यह अनुमान लगाया गया कि निएंडरथल 6-7 पीढ़ी पहले उक्त तीनों के पूर्वज रहे होंगे।

एक अन्य अध्ययन में चेक गणराज्य में ज़्लेटी कुन पहाड़ी से लगभग साबुत मिली एक स्त्री की खोपड़ी, जो लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी बाचो किरो से मिले तीन व्यक्तियों के अवशेष, के विश्लेषण में पता चलता है कि लगभग 70 पीढ़ियों (2000 साल) पूर्व निएंडरथल उसके पूर्वज थे।

इन चारों की आनुवंशिक वंशावली का अध्ययन थोड़ा अचंभित करता है कि वर्तमान युरोपीय लोगों में उनके कोई चिंह नहीं मिलते। हालांकि वे वर्तमान के पूर्वी-एशियाई लोगों और मूल अमरीकियों के सम्बंधी हैं। इन युरेशियन गुफा वासियों के वंशज पूर्व की ओर पलायन कर गए, हिम-युगीन बेरिंग जलडमरूमध्य को पार करने की कठिनाई झेली और अमेरिका की वीज़ा-मुक्त यात्रा का आनंद लिया।

इसके बाद आगे के अध्ययनों में निएंडरथल के जीनोम की आधुनिक मनुष्य के साथ तुलना की गई, जिसमें दोनों के डीएनए अनुक्रमों में आनुवंशिक परिवर्तन दिखे। आधुनिक मनुष्य में निएंडरथल से विरासत में मिले गुणसूत्र के खंड घटकर दो प्रतिशत रह गए, लेकिन विरासत में मिले इन नए जींस ने मनुष्यों को क्या लाभ पहुंचाए? इस विरासत की वजह से मनुष्य 4 लाख साल पूर्व ठंडे क्षेत्रों में रहने के लिए अनुकूलित हुआ। निएंडरथल ने हमें अफ्रीकी मनुष्यों से हटकर ठंड के अनुकूल त्वचा और बालों के रंग में भिन्नताएं दीं। इसके साथ ही, अनुकूली चयापचय और प्रतिरक्षा भी दी जिसने नए खाद्य स्रोतों और रोगजनकों के साथ बेहतर तालमेल बैठाने में मदद दी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्तनधारी अपनी आंतों से सांस ले सकते हैं

म तौर पर हमारी आंत भोजन से पोषण लेने का काम करती है और गुदा मल को बाहर निकालने का। लेकिन कृंतकों और सूअरों पर हुए ताज़ा अध्ययन में देखा गया है कि स्तनधारियों की आंत ऑक्सीजन का भी अवशोषण कर सकती है, जो श्वसन संकट की स्थिति से उबरने में मदद कर सकता है। कहा जा रहा है कि भविष्य में इस तरीके से मनुष्यों को ऑक्सीजन की कमी से बचाया जा सकेगा, खासकर उन जगहों पर जहां ऑक्सीजन देने की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

अधिकांश स्तनधारी जीव अपने मुंह और नाक से सांस लेते हैं, और फेफड़े के ज़रिए पूरे शरीर में ऑक्सीजन भेजते हैं। यह तो ज्ञात था कि समुद्री कुकंबर और कैटफिश जैसे जलीय जीव आंत से सांस लेते हैं। स्तनधारी जीव आंतों से दवाइयों का अवशोषण तो कर लेते हैं लेकिन यह मालूम नहीं था कि क्या वे श्वसन भी कर सकते हैं।

यही पता लगाने के लिए सिनसिनाटी चिल्ड्रन हॉस्पिटल के गैस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट ताकानोरी ताकबे और उनके साथियों ने चूहों और सूअरों पर कई परीक्षण किए। पहले 11 चूहे लिए। इनमें से चार चूहों की आंतों के अस्तर को रगड़ कर पतला किया ताकि ऑक्सीजन अच्छी तरह अवशोषित हो सके, और फिर इन चूहों के मलाशय से शुद्ध, दाबयुक्त ऑक्सीजन प्रवेश कराई। शेष 7 चूहों की आंत के अस्तर को पतला नहीं किया गया था। उनमें से 4 की आंत में ऑक्सीजन प्रवेश कराई। और शेष तीन चूहों की न तो आंतों की सफाई की और न उन्हें ऑक्सीजन दी। इसके बाद सभी चूहों के शरीर में ऑक्सीजन की कमी पैदा कर दी (वे ‘हाइपॉक्सिक’ हो गए)।

मेड पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार जिन चूहों की आंत की सफाई नहीं की गई थी और ऑक्सीजन भी नहीं दी गई थी वे औसतन 11 मिनट जीए। जिन्हें आंत साफ किए बिना गुदा के माध्यम से ऑक्सीजन दी गई थी वे 18 मिनट तक जीए। और जिन्हें आंत साफ कर ऑक्सीजन दी गई थी वे चूहे लगभग एक घंटा जीवित रहे।

लेकिन शोधकर्ता आंत साफ करने की मुश्किल और जोखिमपूर्ण प्रक्रिया हटाना चाहते थे। इसलिए अगले अध्ययन में उन्होंने दाबयुक्त ऑक्सीजन की जगह परफ्लोरोकार्बन का उपयोग किया, जो ऑक्सीजन अधिक मात्रा में संग्रह करता है और अक्सर सर्जरी के दौरान रक्त के विकल्प के रूप में इसका उपयोग किया जाता है। उन्होंने तीन हाइपॉक्सिक चूहों और सात हाइपॉक्सिक सूअरों की आंत में ऑक्सीजन युक्त परफ्लोरोकार्बन प्रवेश कराया। नियंत्रण समूह के दो हाइपॉक्सिक चूहों और पांच हाइपॉक्सिक सूअरों की आंत में सलाइन प्रवेश कराई।

नियंत्रण समूह के चूहों और सूअरों में ऑक्सीजन का स्तर घट गया। लेकिन जिन चूहों में ऑक्सीजन प्रवेश कराई गई थी उनमें ऑक्सीजन का स्तर सामान्य रहा व सूअरों में ऑक्सीजन में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जिससे वे हाइपॉक्सिया के लक्षणों से उबर पाए। कुछ ही देर में उनकी त्वचा की रंगत और गर्माहट भी लौट आई थी।

दोनों अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि स्तनधारी अपनी आंतों के माध्यम से ऑक्सीजन को अवशोषित कर सकते हैं, और ऑक्सीजन देने का यह नया तरीका सुरक्षित है। हालांकि मनुष्यों में इसके प्रभावों और सुरक्षा को देखा जाना अभी बाकी है लेकिन उम्मीद है कि यह तरीका ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे लोगों को बचाने में कारगर साबित हो सकता है। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि पारंपरिक श्वसन उपचारों से इसकी तुलना करके देखना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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एक महिला की कोशिकाओं पर बरसों से शोध – ऋषि राज राय

जकल ज़्यादातर दवाइयां-टीके बनाने, एचआईवी के परीक्षण, कोशिकाओं में संपन्न क्रियाओं व उनसे जुड़े सिद्धांत एवं कई अन्य बीमारियों को समझने के लिए वैज्ञानिक प्रयोगशाला में मानव कोशिकाओं का संवर्धन करते हैं। वैज्ञानिकों को कैंसर जैसी जटिल बीमारी को समझने तथा शोध करने के लिए ऐसी कोशिकाओं की ज़रूरत पड़ती है, जो लगातार समरूपता के साथ विभाजित होती रहें ताकि कृत्रिम परिस्थिति में उन कोशिकाओं की मदद से बीमारियों की उत्पत्ति, बीमारियों की क्रियाविधि और इलाज के विभिन्न तरीके खोजे जा सकें।

वैज्ञानिकों को समरूपी कोशिकाओं की ज़रूरत इसलिए भी पड़ती है क्योंकि उन्हें एक तरह के प्रयोग बार-बार दोहराने पड़ते हैं और अपने नतीजों की तुलना दूसरे वैज्ञानिकों के अवलोकनों के साथ करनी पड़ती है। परंतु 1951 तक वैज्ञानिकों के पास ऐसा कोई कोशिका-वंश नहीं था जो वर्षों तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक जैसी समरूप कोशिकाओं को जन्म दे सके। जो कोशिका-वंश उपलब्ध भी थे या जिन्हें बनाने की कोशिश की गई थी उनकी कोशिकाएं ज़्यादा से ज़्यादा एक-दो दिन में मर जाती थीं और उनका अध्ययन करना मुश्किल होता था।

हेनरीटा लैक्स

फिर संयुक्त राज्य अमरीका के जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जॉर्ज गे की प्रयोगशाला में अजीबो-गरीब दिखने वाले ट्यूमर का एक नमूना आया। यह ट्यूमर कुछ हल्के बैंगनी रंग का, जेली जैसा चमकदार था। यह नमूना इसलिए भी कुछ खास था क्योंकि इसकी कुछ कोशिकाएं लगातार विभाजित होते हुए समरूपी कोशिकाओं को जन्म दे रहीं थीं। उन्होंने देखा कि जब कोई पुरानी कोशिका मरती है तो उसके जैसी ही कोशिका की प्रतियां उसकी जगह ले लेती हैं। इससे हुआ यह कि उसी कोशिका की संतानें आज तक मौजूद हैं और उनकी मदद से कई शोध कार्य भी हो रहे हैं।

डॉ. गे की एक प्रयोगशाला सहायक ने इस अमर कोशिका का नाम ‘हेला’ (HeLa) रखा। हेला नाम हेनरीटा लैक्स नामक कैंसर पीड़ित महिला के नाम पर रखा गया था जिनके ट्यूमर से डॉ. गे ने इस कोशिका-वंश की खोज की थी। हेनरीटा लैक्स का जन्म संयुक्त राज्य के वर्जीनिया में हुआ था और वे तम्बाकू के खेत में काम किया करती थीं। हुआ यह कि लैक्स जिस चिकित्सक के यहां इलाज करवा रही थीं, वे डॉ. गे की प्रयोगशाला के लिए कैंसर के ऊतकों के नमूने इकट्ठा कर रहे थे। बरसों से डॉ. गे और उनकी नर्स पत्नी मार्गरेट मानव कोशिकाओं को कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में पनपाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन बाकी वैज्ञानिकों की तरह इनके द्वारा संवर्धित कोशिकाएं कुछ पीढ़ियों तक विभाजित होने के बाद मर जाती थीं। लैक्स की मौत गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से हुई थी और उनकी मौत के कुछ ही महीनों बाद डॉ. गे की प्रयोगशाला में उनके शरीर के ट्यूमर कोशिकाओं की मदद से इस अमर कोशिका-वंश को खोजा गया।

अब सवाल यह उठता है कि हेनरीटा लैक्स की ट्यूमर कोशिकाओं में ऐसा क्या खास है जिससे वे मरती नहीं हैं और विभाजित होते हुए लगातार समरूपी कोशिकाओं को जन्म देती रहती हैं? सच कहें तो इसका उत्तर आज भी पूरी तरह पता नहीं है।

होता यह है कि सामान्य कोशिकाएं औसतन पचास बार विभाजन करने के बाद एपोप्टोसिस नामक प्रक्रिया से खुद-ब-खुद खत्म हो जाती हैं। इसी कारण ज़्यादातर कोशिका-वंश भी एक समय के बाद खत्म हो जाते हैं। लेकिन हेला कोशिकाओं के साथ ऐसा नहीं होता, क्योंकि हेला कोशिकाओं में टेलोमरेज़ नामक एंज़ाइम अत्यधिक सक्रिय होता है। इससे कोशिकाएं एपोप्टोसिस की प्रक्रिया से न गुज़रकर लगातार विभाजित होती रहती हैं।

विभाजन से हाल ही में बनी हेला कोशिकाओं का इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से प्राप्त चित्र

डॉ. गे ने अमर कोशिका-वंश ‘हेला’ के कई नमूने दुनिया भर की प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिकों के पास भेजे। जल्दी ही दुनिया में असंख्य हेला कोशिकाएं हर हफ्ते बनने और इस्तेमाल होने लगीं।

1950 के दशक में पोलियो की महामारी बुरी तरह फैली हुई थी। जोनास साल्क ने इन्हीं हेला कोशिकाओं का इस्तेमाल कर पोलियो के टीके का परीक्षण किया था। हेला कोशिकाओं को कई तरह की बीमारियों, जैसे चेचक, एचआईवी और इबोला को समझने और उन पर परीक्षण करने के लिए इस्तेमाल में लिया गया है।

ऐसा माना जाता है कि वाल्टर फ्लेमिंग ने 1882 में गुणसूत्रों की खोज की, पर लगभग 70 वर्ष बाद इन्हीं हेला कोशिकाओं की मदद से तीज़ो और लेवान ने उन रासायनिक रंजकों को खोजा जिनसे रंजित होकर गुणसूत्र दिखने लगते हैं और फिर उन्होंने मानव कोशिकाओं में गुणसूत्रों की सही संख्या की गिनती की। हेला कोशिकाएं पहली कोशिकाएं थीं जिन्हें क्लोन किया गया। इन कोशिकाओं को अंतरिक्ष में भी ले जाया गया है। टेलोमरेज़ जैसे एंज़ाइम जिसके कारण कैंसर कोशिकाएं एपोप्टोसिस से बचकर लगातार विभाजित होती रहती हैं, उसकी खोज भी हेला कोशिकाओं की मदद से ही की गई।

एक और गजब की बात है कि जिस गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से हेनरीटा लैक्स की मौत हुई थी, उसके कारक ह्यूमन पैपिलोमा वायरस का भी पता हेला कोशिकाओं की मदद से चला था और आज तो इस वायरस से बचने के लिए टीका भी उपलब्ध है।

हेला कोशिकाओं के कारण असंख्य नई खोजें हुई हैं। वैज्ञानिकों ने हेनरीटा लैक्स की कोशिकाओं की मदद से कई शोध किए, इलाज ढूंढे, आविष्कार किए। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसकी जानकारी उनके परिवार को नहीं थी। दशकों बाद ही उनके परिवार को पता चला कि लैक्स की कोशिकाओं ने मानव इतिहास पर इतना बड़ा असर डाला है। यह उपेक्षा हेला कोशिकाओं के साथ काम करने वाले वैज्ञानिकों के ऊपर नैतिक प्रश्न भी उठाती है।

खैर कुछ भी हो, हेनरीटा लैक्स की कोशिकाओं के कारण करोड़ों लोगों के जीवन पर बड़ा ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा, कई जानें बचीं और आगे भी बचती रहेंगी और इसके लिए पूरी मानवता हेनरीटा लैक्स और डॉ. जॉर्ज गे की कृतज्ञ रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

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अंतरिक्ष स्टेशन पर मिले उपयोगी बैक्टीरिया

पिछले 20 वर्षों से अंतरिक्ष यात्रियों का घर – अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) – कुछ अनोखे बैक्टीरिया का मेज़बान भी बन गया है। स्पेस स्टेशन पर पाए गए चार बैक्टीरिया स्ट्रेन में से तीन के बारे में पूर्व में कोई जानकारी नहीं थी। फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन बैक्टीरिया स्ट्रेन्स का उपयोग भविष्य में लंबी अंतरिक्ष उड़ानों के दौरान पौधे उगाने के लिए किया जा सकता है।

गौरतलब है कि कई वर्षों से पृथ्वी से पूरी तरह से अलग होने से स्पेस स्टेशन एक अनूठा पर्यावरण है। ऐसे में यह जानने के लिए तरह-तरह के प्रयोग किए गए हैं कि यहां कौन-से बैक्टीरिया मौजूद हैं। पिछले 6 वर्षों में स्पेस स्टेशन के 8 विशिष्ट स्थानों पर निरंतर सूक्ष्मजीवों और बैक्टीरिया की वृद्धि की जांच की जा रही है। इन स्थानों में वह स्थान भी शामिल है जहां सैकड़ों वैज्ञानिक प्रयोग किए जाते हैं, पौधों की खेती का प्रकोष्ठ भी शामिल है और वह जगह भी जहां क्रू-सदस्य भोजन और अन्य अवसरों पर साथ आते हैं। इस तरह सैकड़ों नमूने पृथ्वी पर विश्लेषण के लिए आए हैं और कई हज़ार अभी कतार में हैं।

पृथक किए गए बैक्टीरिया के चारों स्ट्रेन मिथाइलोबैक्टीरिएसी कुल से हैं। मिथाइलोबैक्टीरियम प्रजातियां विशेष रूप से पौधों की वृद्धि में और रोगजनकों से लड़ने में सहायक होती हैं। हालांकि इन चार में से एक (मिथाइलोरुब्रम रोडेशिएनम) पहले से ज्ञात था जबकि छड़ आकार के तीन अन्य बैक्टीरिया अज्ञात थे। इनके आनुवंशिक विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने पाया कि ये बैक्टीरिया प्रजातियां मिथाइलोबैक्टीरियम इंडीकम के निकट सम्बंधी हैं। अब इनमें से एक बैक्टीरिया का नाम भारतीय जैव-विविधता वैज्ञानिक मुहम्मद अजमल खान के सम्मान में मिथाइलोबैक्टीरियम अजमाली रखा गया है।

इस बैक्टीरिया के संभावित अनुप्रयोगों को समझने के लिए नासा जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के वैज्ञानिक कस्तूरी वेंकटेश्वरन और नितीश कुमार ने इस शोध पर काम किया है। वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि यह नया स्ट्रेन पौधों की वृद्धि में उपयोगी हो सकता है। न्यूनतम संसाधनों वाले क्षेत्रों में यह जीवाणु मुश्किल परिस्थितियों में भी पौधे के बढ़ने में सहायक होगा। पत्तेदार सब्ज़ियों और मूली को तो सफलतापूर्वक अंतरिक्ष स्टेशन पर उगाया गया है लेकिन फसलों को उगाने में थोड़ी कठिनाई होती है। ऐसे में मिथाइलोबैक्टीरियम इस संदर्भ में उपयोगी हो सकता है।

अभी इस बैक्टीरिया के सही उपयोग को समझने के लिए समय और कई प्रयोगों की ज़रूरत है। आईएसएस पर मिले ये तीन स्ट्रेन अलग-अलग समय पर और अलग-अलग स्थानों से लिए गए थे इसलिए आईएसएस में इनके टिकाऊपन और पारिस्थितिक महत्व का अध्ययन करना होगा। मंगल पर मानव को भेजा जाए, उससे पहले इस तरह के अध्ययन महत्वपूर्ण और ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स)

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ग्वारपाठा के जीनोम का खुलासा

हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER), भोपाल द्वारा किए गए एक आनुवंशिक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ग्वारपाठा (एलो वेरा) में सूखा प्रतिरोधी जीन्स की पहचान की है। ये जीन्स ग्वारपाठा को अत्यंत गर्म और शुष्क जलवायु में पनपने में मदद करते हैं।

संस्थान के विनीत के. शर्मा और उनके साथियों ने ग्वारपाठा के पूरे जीनोम का अनुक्रमण किया है, जिसमें उन्होंने 86,000 से अधिक प्रोटीन-कोडिंग जीन्स की पहचान की। यह अध्ययन iScience नामक शोध पत्रिका में फरवरी 2021 में प्रकाशित हुआ है।

पहचाने गए कुल जीन्स में से टीम ने सिर्फ उन 199 जीन्स का बारीकी से अध्ययन किया, जिनकी भूमिका पौधे के विकास और अनुकूलन में महत्वपूर्ण देखी गई। इनमें से कुछ जीन्स पौधे को सूखे की स्थिति में पुष्पन में मदद करते हैं और इस तरह उनके प्रजनन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने अनुक्रम-विशिष्ट डीएनए से जुड़ने वाले जीन्स भी पहचाने हैं जो बाहरी उद्दीपनों पर संकेत देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उन्होंने ग्वारपाठा में ऐसे जीन्स भी देखे जो कार्बोहाइड्रेट को तोड़कर ऊर्जा बनाने में मदद करने के अलावा कम या उच्च तापमान, पानी की कमी, उच्च लवणीयता और पराबैंगनी विकिरण जैसी तनावपूर्ण स्थितियों में प्रतिक्रिया को नियंत्रित करते हैं।

सूखे की स्थिति से निपटने में इस पौधे के कम से कम 90 जीन्स भूमिका निभाते हैं। ये जीन भौतिक रूप से भी एक-दूसरे के साथ संपर्क में आते हैं, जिससे लगता है कि ग्वारापाठा में सूखा से निपटने वाले तंत्र का अनुकूली विकास हुआ होगा।

उम्मीद है कि यह अध्ययन भविष्य में इस पौधे के विकास के साथ-साथ इसके औषधीय गुणों को भी समझने में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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गर्मी में गर्म पेय ठंडक पहुंचा सकते हैं!

र्मी का मौसम आते ही गन्ने का रस, जलज़ीरा, नींबू पानी जैसे ठंडे पेय की दुकानें सज जाती है। ठंडे पेय लोगों को गर्मी से राहत देते हैं। किंतु कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि गर्म पेय भी गर्मियों में ठंडक पहुंचा सकते हैं। अब तक वैज्ञानिकों को इस पर संदेह रहा है क्योंकि गर्म चीज़ें पीकर तो आप शरीर को ऊष्मा दे रहे हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि गर्मियों में कुछ विशेष परिस्थितियों में गर्म पेय वाकई आपको ठंडक दे सकते हैं।

होता यह है कि गर्म पेय पीने से हमारे शरीर की ऊष्मा में इज़ाफा होता है, जिससे हमें पसीना अधिक आता है। जब यह पसीना वाष्पीकृत होता है तो पसीने के साथ हमारे शरीर की ऊष्मा भी हवा में बिखर जाती है, जिसके परिणामस्वरूप हमारे शरीर की ऊष्मा में कमी आती है और हमें ठंडक महसूस होती है। शरीर की ऊष्मा में आई यह कमी उस ऊष्मा से अधिक होती है जितनी गर्म पेय पीने के कारण बढ़ी थी।

यह हो सकता है कि पसीना आना हमें अच्छा न लगता हो, लेकिन पसीना शरीर के लिए अच्छी बात है। ठंडक पहुंचाने में अधिक पसीना आना और उसका वाष्पन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पसीना जितना अधिक आएगा, उतनी अधिक ठंडक देगा लेकिन उस पसीने का वाष्पन ज़रूरी है।

यदि हम किसी ऐसी जगह पर हैं जहां नमी या उमस बहुत है, या किसी ने बहुत सारे कपड़े पहने हैं, या इतना अधिक पसीना आए कि वह चूने लगे और वाष्पीकृत न हो पाए, तो फिर गर्म पेय पीना घाटे का सौदा साबित होगा। क्योंकि वास्तव में तो गर्म पेय शरीर में गर्मी बढ़ाते हैं। इसलिए इन स्थितियों में जहां पसीना वाष्पीकृत न हो पाए, ठंडे पेय पीना ही राहत देगा।

गर्म पेय का सेवन ठंडक क्यों पहुंचाता है, यह जानने के लिए ओटावा विश्वविद्यालय के स्कूल फॉर ह्यूमन काइनेटिक्स के ओली जे और उनके साथियों ने प्रयोगशाला में सायकल चालकों पर अध्ययन किया। प्रत्येक सायकल चालक की त्वचा पर तापमान संवेदी यंत्र लगाए और शरीर के द्वारा उपयोग की गई ऑक्सीजन और बनाई गई कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नापने के लिए एक माउथपीस भी लगाया। ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बताती है कि शरीर के चयापचय में कितनी ऊष्मा बनी। साथ ही उन्होंने हवा के तापमान और आर्द्रता के साथ-साथ अन्य कारकों की भी बारीकी से जांच की। इस तरह एकत्रित जानकारी की मदद से उन्होंने पता किया कि प्रत्येक सायकल चालक ने कुल कितनी ऊष्मा पैदा की और पर्यावरण में कितनी ऊष्मा स्थानांतरित की। देखा गया कि गर्म पानी (लगभग 50 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) पीने वाले सायकल चालकों के शरीर में अन्य के मुकाबले में कम ऊष्मा थी।

वैसे यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि गर्म पेय शरीर को अधिक पसीना पैदा करने के लिए क्यों उकसाते हैं, लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है कि ऐसा करने में गले और मुंह में मौजूद ताप संवेदकों की भूमिका होगी। इस पर आगे अध्ययन की ज़रूरत है।

फिलहाल शोधकर्ताओं की सलाह के अनुसार यदि आप नमी वाले इलाकों में हैं तो गर्मी में गर्म पानी न पिएं। लेकिन सूखे रेगिस्तानी इलाकों के गर्म दिनों में गर्म चाय की चुस्की ठंडक पहुंचा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दूसरों के सपनों में ताक-झांक की कोशिश

र्ष 2010 में क्रिस्टोफर नोलन द्वारा निर्देशित एक फिल्म आई थी इंसेप्शन। इसमें लियोनार्डो डीकैप्रियो दूसरों के सपनों में जाकर, उनसे बातचीत कर उनसे खुफिया जानकारी उगलवाते दिखते हैं। और यह फिल्मी कल्पना अब हकीकत बनने की ओर कदम बढ़ाती दिखती है।

शोधकर्ताओं ने पहली बार सवालों के माध्यम से सपना देखने वाले उन लोगों के साथ सपनों में संवाद साधा है जिन्हें ये पता होता है कि वे सपना देख रहे हैं। ऐसे लोगों को ल्यूसिड ड्रीमर कहते हैं। चार अलग-अलग प्रयोगशालाओं में 36 प्रतिभागियों पर किए गए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि लोग सोते समय बाहरी परिवेश से संकेत ग्रहण कर सकते हैं और उन पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं।

यह अध्ययन नींद की मूलभूत परिभाषा को भी चुनौती देता है, जो कहती है कि नींद एक ऐसी अवस्था है जिसमें मस्तिष्क का बाहरी परिवेश से संपर्क नहीं रहता और नींद में मस्तिष्क अपने आस-पास के परिवेश से अनभिज्ञ रहता है।

ल्यूसिड ड्रीमिंग एक ऐसी अवस्था है जिसमें सपने में व्यक्ति को एहसास होता है कि वह सपना देख रहा है, और अपने सपनों पर उसका कुछ हद तक नियंत्रण भी होता है। ल्यूसिड ड्रीमिंग का उल्लेख सबसे पहले चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के लेखन में मिलता है। और 1970 के बाद से वैज्ञानिक इस पर अध्ययन करते रहे हैं। देखा गया है कि प्रत्येक दो में से एक व्यक्ति को कम से कम एक बार तो ल्यूसिड ड्रीमिंग का अनुभव होता है, और लगभग 10 प्रतिशत लोगों को महीने में एक या उससे अधिक बार ल्यूसिड ड्रीमिंग अनुभव होता है। हालांकि ल्यूसिड ड्रीमिंग दुर्लभ है लेकिन प्रशिक्षण देकर इसके अनुभव को बढ़ाया जा सकता है।

पूर्व में कुछ अध्ययनों में रोशनी, बिजली के झटकों और ध्वनियों के माध्यम से लोगों के सपनों में प्रवेश कर उनसे संवाद करने की कोशिश की गई थी, लेकिन उनमें संपर्क करने पर लोगों की तरफ से बहुत कम प्रतिक्रिया मिली थी, और उनसे जटिल जानकारियां या सूचनाएं भी नहीं हासिल हो सकी थीं।

फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित चार प्रयोगशालाओं के दल ने पूर्व में हुए इन अध्ययनों को आगे बढ़ाने की सोची, जिसमें उन्होंने सवालों-संकेतों की मदद से सपनों में लोगों से दो-तरफा संवाद स्थापित किया। इसके लिए उन्होंने 36 प्रतिभागी चुने। इनमें से कुछ प्रतिभागियों को पहले ही ल्यूसिड ड्रीमिंग का अनुभव था, और कुछ को नहीं लेकिन उन्हें हफ्ते में कम से कम एक सपना याद रहता था।

शोधकर्ताओं ने सभी प्रतिभागियों को ल्यूसिड ड्रीमिंग से परिचित कराया और ध्वनियों, रोशनियों या उंगली की थाप के माध्यम प्रतिभागियों को सपना देखने के एहसास से वाकिफ होने के लिए प्रशिक्षित किया।

अध्ययन में अलग-अलग समय पर नींद के सत्र रखे गए थे। कुछ सत्र रात के थे और तो कुछ सत्र अल-सुबह रखे गए थे। प्रतिभागियों के साथ सपनों में संवाद करने के लिए चारों प्रयोगशालाओं ने अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया। प्रतिभागियों को कहा गया कि जब उन्हें एहसास हो जाए कि वे सपनों में प्रवेश कर गए हैं तो तय संकेतों (जैसे आंखो को बार्इं ओर तीन बार घुमाकर, चेहरा घुमाकर) के माध्यम से इसका संकेत दे दें।

प्रतिभागियों के नींद में पहुंचने पर वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क की गतिविधि, आंखों की गति और चेहरे की मांसपेशियों के संकुचन की निगरानी ईईजी हेलमेट की मदद से की। नींद के कुल 57 सत्रों में से, छह लोगों ने 15 बार यह संकेत दिए कि वे सपनों में प्रवेश कर गए हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों से कुछ सवाल किए जिनके जवाब या तो हां या ना में दिए जा सकते थे, या गणित के कुछ सवाल पूछे, जैसे आठ में से छह गए तो कितने बचे। इनका जवाब प्रतिभागियों को कुछ तय संकेतों के माध्यम से देना था – जैसे मुस्कराकर या त्यौरियां चढ़ा कर, या गणित का सवाल हल करने पर आए जवाब के बराबर संख्या में आंखों को हिलाकर वगैरह।

शोधकर्ताओं ने कुल 158 सवाल पूछे। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित निष्कर्ष बताते हैं कि शोधकर्ताओं को 18.6 प्रतिशत सही जवाब मिले। 3.2 प्रतिशत सवालों के गलत जवाब मिले; 17.7 प्रतिशत जवाब स्पष्ट नहीं थे और 60.8 प्रतिशत सवालों के कोई जवाब नहीं मिले। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह संख्या दर्शाती है कि मुश्किल ही सही, लेकिन नींद में किसी व्यक्ति से संपर्क साधा जा सकता है, और दो-तरफा संवाद किया जा सकता है।

प्रतिभागियों के जागने के बाद उनसे उनके सपनों का वर्णन भी पूछा गया। कुछ प्रतिभागियों को पूछे गए सवाल उनके सपनों के हिस्से के रूप में याद रहे थे। एक प्रतिभागी को लगा था कि सपने में सवाल कोई कार रेडियो पूछ रहा है, तो एक अन्य प्रतिभागी को सवाल किसी सूत्रधार की आवाज़ में सुनाई पड़ा।

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह प्रयोग सपनों का अध्ययन करने का एक बेहतर तरीका प्रदान करता है। अब तक सपनों के बारे में जानने का आधार सपना देखने वाले द्वारा दिए गए विवरण थे, जिनमें गड़बड़ की उम्मीद रहती थी। उम्मीद है कि भविष्य में इस तकनीक से सदमे, अवसाद से गुज़र रहे लोगों के सपनों को प्रभावित कर इस स्थिति से उबरने में उनकी मदद की जा सकेगी। इसके अलावा सपनों में ‘संवाद’ कर लोगों की समस्याओं को हल करने, नए कौशल सीखने या किसी रचनात्मक विचार को लाने में भी मदद मिल सकेगी। वैसे यह तकनीक व्यक्ति द्वारा दिए गए विवरण की पूरक ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड के स्रोत की जांच अभी भी जारी

विगत 9 फरवरी को वुहान में आयोजित पत्रकार वार्ता में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की टीम ने कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर महीने भर की जांच के अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। अपनी रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला से वायरस के गलती से लीक होने के विवादास्पद सिद्धांत को निरस्त कर दिया है। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 ने किसी जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया है। यह अन्य शोधकर्ताओं के निष्कर्षों से मेल खाता है। टीम ने अपनी रिपोर्ट में चीन सरकार और मीडिया द्वारा प्रचारित दो अन्य परिकल्पनाएं भी प्रस्तुत की हैं: यह वायरस या इसका कोई पूर्वज चीन के बाहर किसी जीव से आया और एक बार लोगों में फैलने पर यह फ्रोज़न वन्य जीवों और अन्य कोल्ड पैकेज्ड सामान में भी फैल गया।

अलबत्ता, रिपोर्ट पर अन्य शोधकर्ताओं की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही है। वाशिंगटन स्थित जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वायरोलॉजिस्ट एंजेला रैसमुसेन के अनुसार वायरस उत्पत्ति सम्बंधी निष्कर्ष दो सप्ताह में दे पाना संभव नहीं है। हालांकि ये निष्कर्ष चीन सरकार के सहयोग से एक लंबी जांच का आधार तो बनाते ही हैं। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार चीनी और अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की इस टीम ने गंभीर सवाल उठाए हैं और व्यापक रूप से डैटा का भी अध्ययन किया है। आने वाले समय में अधिक विस्तृत रिपोर्ट की उम्मीद की जा सकती है।

लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह जांच कोई नई जानकारी प्रदान नहीं करती। इस रिपोर्ट में वायरस के किसी जंतु के माध्यम से फैलने के प्रचलित नज़रिए की ही बात कही गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में चीनी सरकार द्वारा प्रचारित दो परिकल्पनाओं पर ज़ोर दिया गया है। साथ ही चीन में ‘कोल्ड फूड चेन’ के माध्यम से शुरुआती संक्रमण फैलने का विचार भी सीमित साक्ष्यों पर आधारित है। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि टीम के पास अभी भी ऐसी जानकारी हो सकती है जिसे सार्वजनिक नहीं किया गया है। इस विषय में डबल्यूएचओ टीम के सदस्य और मेडिकल वायरोलॉजिस्ट डोमिनिक डायर का अनुमान है कि कोरोनावायरस का संक्रमण चीनी बाज़ारों में दूषित मछली और मांस के कारण फैला है जिसकी अधिक जानकारी लिखित रिपोर्ट में प्रस्तुत की जाएगी।

डबल्यूएचओ ने वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने के विचार पर भी अध्ययन किया है। इस बारे में अध्ययन के प्रमुख और खाद्य-सुरक्षा एवं ज़ूनोसिस विशेषज्ञ पीटर बेन एम्बरेक ने इस संभावना को खारिज किया है। क्योंकि वैज्ञानिकों के पास दिसंबर 2019 के पहले इस वायरस की कोई जानकारी नहीं थी इसलिए प्रयोगशाला से लीक होने का विचार बेतुका है। इसके साथ ही टीम को प्रयोगशाला में किसी प्रकार की दुर्घटना के भी कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं। हालांकि टीम ने प्रयोगशाला की फॉरेंसिक जांच नहीं की है।                      

कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह निष्कर्ष वुहान में हुई घटनाओं को तो ठीक तरह से प्रस्तुत करते हैं लेकिन महामारी के बढ़ने और इसके राजनीतिकरण होने की वजह से प्रयोगशाला से वायरस के लीक होने और प्राकृतिक उत्पत्ति के सिद्धांतों के बीच टकराव अधिक गहरा हो गया है और टीम इसे सुलझाने में नाकाम रही है।

गौरतलब है कि टीम द्वारा अधिकांश जांच वुहान में वायरस के फैलने के शुरुआती दिनों पर केंद्रित है और रिपोर्ट में शहर के शुरुआती संक्रमण के समय को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। टीम ने वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में वुहान शहर और हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अध्ययन किया है। इसमें इन्फ्लुएंज़ा जैसी बीमारियों के असामान्य उतार-चढ़ावों पर ध्यान दिया गया है और यह देखा गया कि वहां खांसी-जुकाम की औषधियों की बिक्री में किस तरह के बदलाव आए थे। विशेष रूप से निमोनिया से सम्बंधित मौतों की तलाश की गई है। इसके अलावा टीम ने सार्स-कोव-2 वायरल आरएनए का पता लगाने के लिए 4500 रोगियों के नमूनों की जांच की और वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी के लिए रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। इन सभी जांचों में शोधकर्ताओं को वायरस के दिसंबर 2019 के पहले फैलने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।

फिर भी डायर का मानना है कि संक्रमण के स्पष्ट संकेतों की कमी का मतलब यह नहीं कि वायरस समुदाय में पहले ही फैल नहीं चुका था। देखा जाए तो टीम का विश्लेषण सीमित डैटा और एक ऐसी निगरानी प्रणाली पर आधारित था जो किसी नए वायरस के फैलाव को पकड़ पाने के लिए तैयार नहीं की गई थी। वायरस के फैलाव का सही तरह से आकलन करने के लिए शोधकर्ताओं को न केवल स्वास्थ्य केंद्रों में, बल्कि समुदाय स्तर पर अध्ययन करना होगा।

इसके अलावा टीम ने इस वायरस के पीछे एक जंतु को ज़िम्मेदार तो ठहराया है लेकिन संभावित जंतुओं की पहचान नहीं कर पाई है। चीनी शोधकर्ताओं ने देश के कई घरेलू, पालतू और जंगली जीवों का परीक्षण किया था लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया था कि इन प्रजातियों में वायरस मौजूद है। लेकिन यदि इस महामारी को प्राकृतिक संचरण की घटना मानते हैं तो भविष्य में भी जीवों से मनुष्यों में वायरस संचरण की घटनाओं की संभावना बनी रहेगी।

टीम ने कहा है कि वुहान और आसपास के क्षेत्रों में जांच जारी रखना चाहिए। इसमें विशेष रूप से शुरुआती मामलों को ट्रैक करने का प्रयास करना चाहिए ताकि महामारी की शुरुआत का पता लगाने में मदद मिले। टीम के मुताबिक, ज़रूरत इस बात की है कि वुहान प्रांत और अन्य क्षेत्रों में ब्लड बैंक से पुराने नमूनों का विशेषण किया जाए जिनमें संक्रमण का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी परीक्षण भी शामिल हों। इसके साथ ही फ्रोज़न वन्य जीवों की संभावित भूमिका का पता लगाने के लिए और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। जंतु स्रोत की संभावना का पता लगाने के लिए भी व्यापक परीक्षण करना होंगे।

हाल ही में जापान, कंबोडिया और थाईलैंड के चमगादड़ों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कोरोनावायरस के मिलने की खबर है। ऐसे में डबल्यूएचओ की टीम ने चीन के बाहर वायरस उत्पत्ति की खोज करने की भी सिफारिश की है। इस विषय पर नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जून 2020 में थाईलैंड की गुफाओं में पाए जाने वाले हॉर्सशू चमगादड़ में नया कोरोनावायरस मिला है जिसे RaTG203 नाम दिया गया है। इस वायरस का 91.5 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। इसी तरह के नज़दीक से सम्बंधित अन्य वायरसों का पता चला है। इससे यह कहा जा सकता है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में इस महामारी वायरस के करीबी सम्बंधी अभी भी उपस्थित है।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने कंबोडिया और जापान में संग्रहित फ्रोज़न चमगादड़ों के नमूनों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कई अन्य कोरोनावायरस की पहचान की है। सार्स-कोव-2 का सबसे करीबी सम्बंधी RaTG13 चीन में पाया गया है। इसका लगभग 96 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि चीन में किए गए अध्ययन जितना पैसा और मेहनत दक्षिण-पूर्वी एशिया में लगाए जाएं तो वायरस का और अधिक गहराई से पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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गर्भनाल में मिला माइक्रोप्लास्टिक – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक के पांच मिलीमीटर से छोटे कण होते हैं। ये व्यावसायिक प्लास्टिक उत्पादन के दौरान और बड़े प्लास्टिक के टूटने से उत्पन्न होते हैं। रोज़मर्रा के जीवन में प्लास्टिक के अधिक इस्तेमाल के कारण माइक्रोप्लास्टिक ने पूरी पृथ्वी को अपनी चपेट में ले लिया है। प्रदूषक के रूप में माइक्रोप्लास्टिक पर्यावरण, मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हो सकता है।

हाल ही में वैज्ञानिकों ने गर्भवती महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक्स पाया है। यह बेहद चिंता का विषय है। नए शोध में गर्भनाल के नमूनों में अनेक प्रकार के सिंथेटिक पदार्थ भी पाए गए हैं। इटली में हुए एक अध्ययन में महिलाओं की प्रसूति में कोई जटिलता  नहीं पता चली है और इसलिए छोटे प्लास्टिक के कणों का शरीर पर प्रभाव निश्चित तौर पर अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि प्लास्टिक के रसायन गर्भस्थ शिशु की प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान अवश्य पहुंचा सकते हैं।

रोम के फेटबेनफ्रेटेली के प्रसूति और स्त्री रोग विभाग के शोध प्रमुख एंटोनियो रागुसा तब आश्चर्यचकित हो गए जब उन्होंने बच्चों के जन्म के बाद माताओं द्वारा दान में दिए गए छह में से चार गर्भनाल में 12 माइक्रोप्लास्टिक टुकड़े पाए। अनुमान है कि माओं के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक भोजन या सांस के साथ प्रवेश कर गए होंगे। अध्ययन के लिए प्रत्येक गर्भनाल से केवल तीन प्रतिशत ऊतक का नमूना लिया गया था, और उसमें भी इतनी अधिक मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक टुकड़ों का मिलना बेहद गंभीर मामला है। शोध पत्र में कहा गया है कि सभी प्लास्टिक के कण रंगीन थे। तीन नमूनों को पॉलीप्रोपायलीन के रूप में पहचाना गया, जबकि अन्य नौ अन्य नमूनों के केवल रंग की पहचान ही संभव हो पाई।

एनवायरनमेंट इंटरनेशनल नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध में शोधकर्ताओं ने बताया है कि पिछली सदी में ही प्लास्टिक का वैश्विक उत्पादन प्रति वर्ष 32 करोड़ टन तक पहुंच गया था। उत्पादन में हुई 40 प्रतिशत की वृद्धि का उपयोग एकल-उपयोग पैकेजिंग के रूप में किया जाता है। उपयोग हो जाने पर इसे कचरे के रूप में फेंक दिया जाता है।

गर्भनाल गर्भस्थ शिशु से अपशिष्ट पदार्थ को निकालने के साथ-साथ बच्चे को ऑक्सीजन और पोषण भी प्रदान करता है। 10 माइक्रॉन (0.01 मि.मी.) के माइक्रोप्लास्टिक रक्त प्रवाह में पहुंचकर मां से गर्भस्थ शिशु में भी पहुंच जाते हैं। शरीर में पहुंचते ही ये माइक्रोप्लास्टिक्स शिशु के शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करके प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्तेजित करते हैं। माइक्रोप्लास्टिक्स पर्यावरणीय प्रदूषकों और प्लास्टिक योजक सहित अन्य रसायनों के वाहक के रूप में भी कार्य कर सकता है, जिससे शरीर को अत्यधिक हानि होती है। माइक्रोप्लास्टिक्स गर्भनाल के भ्रूण और मातृ दोनों हिस्सों में पाए गए थे। ये कण शिशुओं के शरीर में प्रवेश कर गए होंगे, हालांकि वैज्ञानिक शिशु के अंदर इनका पता लगाने में असमर्थ थे। भ्रूण पर माइक्रोप्लास्टिक्स के संभावित प्रभाव में भ्रूण की सामान्य वृद्धि कम हो जाना है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि अध्ययन में शामिल दो अन्य महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक कणों का न पाया जाना बेहतर आहार, शरीर की कार्यिकी या बेहतर जीवन शैली का परिणाम हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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