बाल्ड ईगल में सीसा विषाक्तता

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में अमेरिका के लगभग आधे बाल्ड और गोल्डन ईगल पक्षियों में सीसा (लेड) विषाक्तता पाई गई है। गौरतलब है कि बाल्ड ईगल यूएसए का राष्ट्रीय पक्षी है। इस स्तर की विषाक्तता को देखते हुए इन प्रजातियों का पुनर्वास काफी मुश्किल प्रतीत होता है।

गौरतलब है कि 1960 के दशक में डीडीटी के इस्तेमाल के कारण बाल्ड ईगल (हैलीएटस ल्यूकोसेफेलस) लगभग विलुप्त हो गए थे। डीडीटी के प्रभाव से पक्षियों के अंडे के छिलके कमज़ोर होते थे और चूज़े अंडे से बाहर आने से पहले ही मर जाते थे। 1972 में डीडीटी पर प्रतिबंध लगने और 1973 के जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम ने बाल्ड ईगल को सुरक्षा प्रदान की। वर्तमान में जंगलों में 3 लाख से अधिक बाल्ड ईगल उपस्थित हैं।

यानी बाल्ड ईगल की आबादी तो ठीक-ठाक है लेकिन गोल्डन ईगल (एक्विला क्रायसाटोस) जैसे अन्य शिकारी पक्षियों की स्थिति काफी नाज़ुक है। डीडीटी की बजाय गोलाबारूद सहित अन्य सीसा संदूषक अभी भी काफी मात्रा में उपस्थित हैं। शिकार किए गए हिरण में उपस्थित कारतूस या किसी अन्य जीव के माध्यम से ग्रहण किया गया सीसा खून और लीवर में पहुंच जाता है। यदि लंबे समय तक भोजन में सीसा मिलता रहे तो यह हड्डियों में भी संग्रहित होने लगता है।

वन्यजीव पुनर्वास क्लीनिक लंबे समय से चील के पेट में कारतूस के टुकड़ों के मिलने की सूचना देते रहे हैं। चीलों में विषाक्तता के व्यापक स्तर पर फैलने के संकेत मिले हैं। इसलिए एक गैर-मुनाफा संगठन कंज़रवेशन साइंस ग्लोबल के जीव विज्ञानी विन्सेंट स्लेब और उनके सहयोगियों ने 8 वर्षों तक 1210 बाल्ड और गोल्डन ईगल के ऊतक एकत्रित किए।       

लगभग 64 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 47 प्रतिशत गोल्डन ईगल में दीर्घकालिक सीसा विषाक्तता के साक्ष्य मिले। वैज्ञानिकों को 27 से 33 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 7 से 35 प्रतिशत गोल्डन ईगल में सीसा के हालिया संपर्क के संकेत मिले हैं। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इसकी वजह से बाल्ड ईगल और गोल्डन ईगल की जनसंख्या वृद्धि में क्रमश: 3.8 प्रतिशत और 0.8 प्रतिशत की कमी आएगी। शोधकर्ताओं के अनुसार जनसंख्या वृद्धि में 3.8 प्रतिशत की गिरावट से बाल्ड ईगल की जनसंख्या पर कोई खास प्रभाव तो नहीं पड़ेगा क्योंकि कई स्थानीय आबादियों में प्रजनन न कर रहे व्यस्कों का एक समूह होता है जो फिर से प्रजनन शुरू कर सकता है। फिर भी स्थिति चिंताजनक है।

विशेषज्ञों के अनुसार सीसा विषाक्तता का प्रभाव मछलियों, स्तनधारियों और अन्य पक्षियों पर भी हुआ है। संरक्षणवादी सीसा आधारित कारतूस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कैलिफोर्निया में तो 2019 में कैलिफोर्निया कोंडोर की रक्षा के लिए इस पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। शोधकर्ता शिकारियों को सीसा विषाक्तता के बारे में जागरूक करने और तांबे के कारतूस का इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर का अंत वसंत ऋतु में हुआ था

हाल ही में जीवाश्म मछली की हड्डियों पर बारीकी से किए गए अध्ययन से डायनासौर की विलुप्ति के मौसम का पता चला है। 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व की महा-विलुप्ति का मौसम बता पाना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप से टकराने वाले 10 किलोमीटर विशाल क्षुद्रग्रह ने पृथ्वी पर तहलका मचा दिया था। इस टक्कर के कारण वायुमंडल में भारी मात्रा में धूल और गैसें भर गई थीं जिसकी वजह से एक लंबा जाड़ा शुरू हो गया था। कुछ जीव तो इस घटना के पहले दिन ही खत्म हो गए जबकि जलवायु में इतने भीषण परिवर्तन से डायनासौर सहित पृथ्वी की 75 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गईं।

क्षुद्रग्रह टकराने के स्थान से 3500 किलोमीटर दूर (वर्तमान में उत्तरी डैकोटा में) टैनिस नामक स्थल पर एक सुनामीनुमा लहर ने नदी के पानी को बाहर फेंक दिया था जिसके चलते रास्ते की सारी तलछट, पेड़ और मृत जीवों का ढेर जमा हो गया था। हाल ही में उपसला युनिवर्सिटी की जीवाश्म विज्ञानी मिलेनी ड्यूरिंग ने वहां मिली प्राचीन हड्डियों का विश्लेषण किया है। ड्यूरिंग उस टीम का हिस्सा नहीं थीं जिसने टैनिस स्थल की खोज की थी।

उस टीम द्वारा प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित शोधपत्र में जीवाश्मित मछलियों के गलफड़ों में फंसे कांच के छोटे कणों का वर्णन किया गया था। इस टकराव की तीव्रता इतनी अधिक थी कि इससे उत्पन्न मलबा वातावरण में काफी तेज़ी से फैला, क्रिस्टलीकृत हुआ और 15 से 20 मिनट बाद बरसने लगा। गलफड़ों में कांच के कणों की मौजूदगी से पता चलता है कि घटना के तुरंत बाद ही मछलियों की मृत्यु हो गई थी।

2017 में ड्यूरिंग ने उत्तरी डैकोटा के इस स्थल से मछलियों के छह जीवाश्म हासिल किए और शक्तिशाली एक्स-रे से इन की हड्डियों का अध्ययन किया। उन्होंने मछलियों के पंखों की अस्थि कोशिकाओं की परतों की छानबीन की जिनकी मोटाई मौसमों के अनुसार बदलती है। वसंत में ये परतें मोटी हो जाती हैं, गर्मियों में मज़बूती से बढ़ती हैं और ठंड में घटने लगती हैं।         

शोधकर्ताओं ने मछलियों की हड्डियों के कार्बन समस्थानिकों का भी मापन किया। गर्म महीनों में मछली जंतु-प्लवकों का सेवन करती थीं जो कार्बन-13 से भरपूर होते थे। पंख की हड्डियों की वसंत परतें इसी समस्थानिक से निर्मित हुई थीं। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मछली के विकास के पैटर्न और समस्थानिक डैटा इस बात का संकेत देते हैं कि ये छह मछलियां वसंत के मौसम में मारी गई थीं। अन्य मछली जीवाश्मों में पाई गई विकास परतों और कार्बन-ऑक्सीजन समस्थानिक के अनुपात से भी पता चलता है कि इन मछलियों की मृत्यु वसंत ऋतु के अंत या गर्मियों के मौसम में हुई थी।

क्षुद्रग्रह तो पृथ्वी से कभी-भी टकरा सकते हैं लेकिन उत्तरी गोलार्ध में वसंत के मौसम में इनका टकराना जीवों के लिए काफी हानिकारक रहा होगा। आम तौर पर इस मौसम जीव-जंतु अधिकांश समय खुले में और प्रजनन में बिताते हैं। यदि क्षुद्रग्रह ठंड के मौसम में गिरता तो शायद कहानी अलग होती। (स्रोत फीचर्स)

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छिपकली की पूंछ की गुत्थी

ब जान पर बनती है तो कुछ जीव अपने अंग त्याग कर जान बचाने का विकल्प चुनते हैं। इस तरह स्वेच्छा से अंग त्यागने की क्षमता को आत्म-विच्छेदन (ऑटोटॉमी) कहते हैं। खतरा आने पर मकड़ियां अपने पैरों को त्याग देती हैं, केंकड़े पंजे त्याग देते हैं और कुछ छोटे कृंतक थोड़ी त्वचा त्याग देते हैं। कुछ समुद्री घोंघे तो परजीवी-संक्रमित शरीर से छुटकारा पाने के लिए सिर धड़ से अलग कर लेते हैं।

ऑटोटॉमी का जाना-माना उदाहरण छिपकलियों का है। शिकारियों से बचने के लिए कई छिपकलियां अपनी पूंछ त्याग देती हैं और पूंछ छटपटाती रहती है। यह व्यवहार शिकारी को भ्रमित कर देता है और छिपकली को भागने का समय मिल जाता है। हालांकि छिपकली के पूंछ खोने के घाटे भी हैं – पूंछ पैंतरेबाज़ी करने, साथी को रिझाने और वसा जमा करने के काम आती हैं – लेकिन उसे त्यागकर जान बच जाती है। और तो और, कई छिपकलियां में नई पूंछ बनाने में की क्षमता भी होती है।

वैज्ञानिकों के लिए छिपकली का यह व्यवहार अध्ययन का विषय रहा है। लेकिन यह अनसुलझा ही रहा कि ऐसी कौन सी संरचनाएं हैं जिनकी मदद से छिपकली अपनी पूंछ को एक पल में छिटक सकती है जबकि सामान्य स्थिति में वह कसकर जुड़ी रहती है? न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी अबू धाबी के बायोमेकेनिकल इंजीनियर योंग-अक सोंग इसे ‘पूंछ की गुत्थी’ कहते हैं।

डॉ. सोंग और उनके साथियों ने कई ताज़ा कटी हुए पूंछों का अध्ययन करके गुत्थी हल करने का सोचा। उन्होंने तीन प्रजातियों की छिपकलियों पर अध्ययन किया: दो प्रकार की गेको और एक रेगिस्तानी छिपकली (श्मिट्स फ्रिंजटो छिपकली)।

अध्ययन के लिए उन्होंने छिपकलियों की पूंछ को अपनी अंगुलियों से खींचा, ताकि वे अपनी पूंछ त्याग दें। छिपकलियों की इस प्रतिक्रिया को उन्होंने 3,000 फ्रेम प्रति सेकंड की रफ्तार से कैमरे में कैद किया। फिर वैज्ञानिकों ने छटपटाती पूंछों का इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से अवलोकन किया। उन्होंने पाया कि हर वह जगह जहां से पूंछ शरीर अलग हुई थी, कुकुरमुत्तों जैसे खंभों से भरी हुई थी। अधिक ज़ूम करने पर उन्होंने देखा कि प्रत्येक संरचना की टोपी पर कई सूक्ष्म छिद्र थे। शोधकर्ता यह देखकर हैरत में थे कि पूंछ के शरीर से जुड़ाव वाली जगह इंटरलॉकिंग के बजाय प्रत्येक खंड पर सघनता से सूक्ष्म खंभे केवल हल्के से स्पर्श कर रहे थे।

कटी हुई पूंछ का ठूंठ

हालांकि, पूंछ के विच्छेदन वाली जगह की कंप्यूटर मॉडलिंग करने पर पता चला कि ये सूक्ष्म संरचनाएं संग्रहित ऊर्जा को मुक्त करने में माहिर होती हैं। इसका एक कारण यह है कि इन संरचनाओं की टोपियों में सूक्ष्म रिक्त स्थान होते हैं। ये रिक्त स्थान हर झटके की ऊर्जा अवशोषित कर लेते हैं और पूंछ को जोड़े रखते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि ये सूक्ष्म संरचनाए खींचने जैसे झटके तो झेल जाती हैं और पूंछ जोड़े रखती हैं लेकिन ऐंठनको नहीं झेल पाती हैं – हल्की सी ऐंठन से ही पूंछ अलग हो सकती है। पूंछ खींचने की तुलना में पूंछ मोड़ने पर पूंछ अलग होने की संभावना 17 गुना अधिक थी। शोधकर्ताओं द्वारा लिए गए स्लोमोशन वीडियो में दिखा कि छिपकलियों ने शरीर से पूंछ को अलग करने के लिए बहुत ही सफाई से अपनी पूंछ को घुमाया था। साइंस पत्रिका में प्रकाशित  निष्कर्ष बताते हैं कि कैसे पूंछ में मज़बूती और नज़ाकत के बीच संतुलन दिखता है।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी कानपुर के केमिकल इंजीनियर अनिमांगशु घटक बताते हैं कि छिपकली की पूंछ की संरचना गेको और पेड़ के मेंढकों के पैर की उंगलियों पर पाई जाने वाली चिपचिपी सूक्ष्म संरचनाओं की याद दिलाते हैं। वे बताते हैं कि चिपकने और अलग होने के बीच सही संतुलन होना चाहिए, क्योंकि यह इन जानवरों को खड़ी सतहों पर चढ़ने में सक्षम बनाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि छिपकली की पूंछ को अलग करने की प्रणाली को समझकर इस तंत्र उपयोग का कृत्रिम अंग लगाने, त्वचा प्रत्यारोपण वगैरह में किया जा सकता है। इससे रोबोट को टूटे हुए हिस्सों को अलग करने में भी सक्षम बनाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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बच्चों को बचाने के लिए मादा इश्क लड़ाती है

पारिस्थितिक विज्ञानी डायना स्टासियुकिनास को जंगल में एक प्रेमी जोड़ा दिखाई दिया: दरअसल, कोलंबिया के ऊष्णकटिबंधीय सवाना क्षेत्र में हाटो ला ऑरोरा नेचर रिज़र्व में बड़ी-बड़ी घास के बीच जैगुआर (तेंदुए/चीते जैसे प्राणि) का एक जोड़ा प्रणय पुकार कर रहा था।

स्टासियुकिनास ने जब जैगुआर जोड़े की गुपचुप मुलाकात का यह वीडियो देखा तो वे थोड़ा सोच में पड़ गईं। क्योंकि थोड़े ही दिनों पहले इस जोड़े की मादा अपने 5 महीने के शावक के साथ खेलते और शिकार करते देखी गई थी। और अब वह एक नर जैगुआर के साथ इश्क लड़ा रही थी। और इस इश्कबाज़ी के दौरान कुछ दिनों तक उसका बच्चा कहीं नहीं दिखाई दिया। फिर कुछ दिनों बाद वही जैगुआर मादा फिर से अपने उसी बच्चे के साथ दिखाई दी। तब स्टासियुकिनास को लगा कि नर जैगुआर के साथ यह प्रेम प्रदर्शन अपने शावकों को हत्या से बचाने की रणनीति हो सकती है।

दरअसल, कभी-कभी नर जैगुआर मादा के साथ संभोग के लिए उन शावकों को मार देते हैं जो उनके अपने नहीं होते। जब तक मादा के साथ उसके शावक होते हैं, वह नर के साथ नहीं जाती। शावकों की हत्या मादा को मुक्त कर देती है, भविष्य के प्रतिस्पर्धी भी खत्म हो जाते हैं।

लिंगों के बीच इस तरह की लड़ाई अन्य बड़ी बिल्लियों में भी होती है। मां शेरनी और प्यूमा अपने शिशुओं को नर से बचाने के लिए संभोग के दौरान कहीं छुपा देती हैं। यह युक्ति नर को यह विश्वास दिला सकती है कि इसके बाद मादा के साथ दिखा शावक उसका अपना है और वह उसे नहीं मारता। मादा का इश्किया व्यवहार नर को यौन सफलता का गुमान दे सकता है जिससे संतानों को मारने की संभावना कम हो जाती है।

और अब एक्टा एथोलॉजिका में स्टासियुकिनास और उनके साथियों ने बताया है कि मादा जैगुआर भी अपने शावकों को हत्या से बचाने के लिए ‘छुपाने और इश्क लड़ाने’ की रणनीति अपनाती हैं। वीडियो देखने के बाद स्टासियुकिनास ने प्रकाशनों की खोजबीन की लेकिन जैगुआर के ऐसे व्यवहार के बारे में कुछ नहीं मिला। अलबत्ता, ब्राज़ील की एक साथी का भी ऐसा ही अनुभव था। कोलंबिया और ब्राज़ील में दो मामलों में मां जैगुआर नर के साथ इश्क लड़ाने के बाद पुन: अपने शावकों के साथ दिखाई दी थी।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कुछ दिन के लिए छिपाए गए ये शावक अपने दिन कैसे गुज़ारते हैं। ऐसे ही मामले में, जब फ्लोरिडा पैंथर मादा अपने बच्चों को छुपाकर नर के साथ होती है तो उसके बच्चों के वज़न में लगभग 20 प्रतिशत की कमी आती है। जैगुआर के बारे में अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है।

अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि हालांकि इस रणनीति के उदाहरण बहुत ही कम दिखे हैं लेकिन इस प्रजाति के प्राकृतिक इतिहास के बारे में इस तरह का अधिक डैटा एकत्रित करने की ज़रूरत है। यह भी पता लगाना महत्वपूर्ण होगा कि विभिन्न पर्यावरणों में यह व्यवहार किस तरह बदलता है, खासकर उन स्थितियों में जहां विकास और मनुष्यों के दखल के कारण जानवरों के छिपने की जगह प्रभावित हो रही है। मनुष्यों के कारण जैगुआर सीमित दायरे में सिमट सकते हैं, सीमित जगह में अधिक जानवर होने से भोजन और साथी के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। इस तरह पास-पास होने से नर द्वारा शावकों की हत्या करने की अधिक संभावना होगी, और इसे रोकने के लिए मादा जैगुआर विभिन्न रणनीतियां अपनाने के लिए प्रेरित हो सकती है। इसके अलावा सघन वर्षा वनों में रहने वाले जैगुआर की रणनीति अलग हो सकती है। यह समझना शावकों की हत्या को कम करने में मदद कर सकता है कि अलग-अलग पर्यावरण में मादा जैगुआर अपने शावकों को छिपाने की कैसी रणनीतियां अपनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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शीतनिद्रा में गिलहरियां कैसे कमज़ोर नहीं होतीं?

म सभी को आराम की ज़रूरत होती है, लेकिन बहुत अधिक आराम से हमारा शरीर सख्त हो सकता है, अकड़ सकता है। लगातार 10 दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहें तो हमारी 14 प्रतिशत तक मांसपेशीय क्षति हो सकती है। लेकिन शीतनिद्रा में जाने वाले प्राणियों की बात ही कुछ और है। शीतनिद्रा के दौरान ग्राउंड गिलहरियां कमज़ोर नहीं पड़तीं – वे अपनी शीतनिद्रा में भोजन के बिना भी मांसपेशियों का निर्माण कर लेती हैं।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि मांसपेशियों के निर्माण में उनकी आंतों में पलने वाले बैक्टीरिया मदद करते हैं। ये बैक्टीरिया उनके शरीर के अपशिष्ट का पुनर्चक्रण करते हैं और मांसपेशी निर्माण का कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। शीतनिद्रा में आंतों के सूक्ष्मजीवों की भूमिका पहली बार दर्शाई गई है।

शीतनिद्रा में ग्राउंड गिलहरी अपनी मांसपेशियों को कैसे बनाए रखती हैं, यह पता लगाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के शोधकर्ताओं ने यूरिया नामक अपशिष्ट रसायन की भूमिका की पड़ताल की। नई मांसपेशियां बनाने के लिए शरीर को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर भोजन से मिलती है। पूर्व के अध्ययनों ने बताया है कि शीतनिद्रा में ग्राउंड गिलहरियां यूरिया को रीसायकल करके नाइट्रोजन प्राप्त करती है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वे ऐसा कैसे करती हैं।

यह समझने के लिए शोधकर्ताओं ने ग्राउंड गिलहरियों में ऐसा यूरिया प्रविष्ट कराया जिसमें नाइट्रोजन का एक समस्थानिक था जिसकी मदद से यह देखा जा सकता था कि वह यूरिया शरीर में कहां-कहां पहुंचा। यह चिंहित नाइट्रोजन गिलहरी के लीवर, आंत और मांसपेशियों में दिखी।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने गिलहरियों की आंत के सूक्ष्मजीव संसार को कमज़ोर करने के लिए एंटीबायोटिक दवाएं दी। ऐसा करने पर गिलहरियां पहले जितनी मात्रा में यूरिया को प्रोटीन बनाने में उपयोगी नाइट्रोजन में परिवर्तित नहीं कर पाईं। स्वस्थ सूक्ष्मजीव संसार वाली गिलहरियों की तुलना में असंतुलित सूक्ष्मजीव संसार वाली गिलहरियों की आंत, यकृत और मांसपेशियों में कम नाइट्रोजन दिखी। इससे पता चलता है कि शीतनिद्रा के दौरान ग्राउंड गिलहरियां मांसपेशी निर्माण के लिए ज़रूरी नाइट्रोजन पाने के लिए यूरिया पुनर्चक्रित करने वाले आंत के सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करती हैं। ये नतीजे साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

जब गिलहरी शीतनिद्रा में जाती है, तो उसकी आंत के सूक्ष्मजीवों को भी नियमित भोजन नहीं मिलता। भोजन का यह अभाव सूक्ष्मजीवों को यूरिया को पुनर्चक्रित करने के लिए उकसाता है। और जैसे-जैसे शीतनिद्रा काल बीतने लगता है सूक्ष्मजीव पुनर्चक्रण में और अधिक कुशल होते जाते हैं। गिलहरी अधिक यूरिया आंत में पहुंचाकर सूक्ष्मजीवों की मदद करती हैं। आंत के सूक्ष्मजीव पुनर्चक्रण के फलस्वरूप बनी नाइट्रोजन की अच्छी-खासी मात्रा तो अपने लिए रख लेते हैं, लेकिन कुछ नाइट्रोजन वे गिलहरी के लिए भी मुक्त करते हैं।

अध्ययन की सह-लेखक फरीबा असादी-पोर्टर बताती हैं कि मनुष्यों की आंत के सूक्ष्मजीव भी यूरिया को रीसायकल कर सकते हैं। हालांकि हम शीतनिद्रा में नहीं जाते हैं लेकिन फिर भी कई लोगों की मांसपेशियां उम्र बढ़ने, किसी बीमारी या कुपोषण के कारण क्षीण होने लगती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि गिलहरियां सूक्ष्मजीव अपशिष्ट रसायनों का पुन: उपयोग कैसे करती हैं, इसकी बेहतर समझ मांसपेशियों की क्षति रोकने में मददगार हो सकती है। बहरहाल इस पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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हरी रोशनी की मदद से जंतु-संरक्षण

त्स्याखेट के दौरान जाल में अनचाहे जीवों का फंस जाना एक बड़ी समस्या है। इनमें कछुए, स्टिंग रे, स्क्विड और यहां तक कि शार्क जैसे जीव फंसकर बेमौत मारे जाते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए हाल ही में किया गया शोध काफी आशाजनक प्रतीत होता है। इस नई तकनीक में मछली पकड़ने के जाल में हरी एलईडी लगाने से शार्क और स्क्विड जैसे गैर-लक्षित जीवों के जाल में फंसने की संभावना कम हो जाती है और इससे ग्रूपर और हैलिबट जैसी वांछित मछलियों की गुणवत्ता और मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

आम तौर पर मछुआरों द्वारा गिलनेट का उपयोग किया जाता है जो पानी में एक कनात के रूप में लटकी रहती है। इसमें कई अनचाही प्रजातियां भी फंस जाती हैं जिन्हें ‘बायकैच’ कहा जाता है। यह बायकैच डॉल्फिन और समुद्री कछुओं सहित कई प्रजातियों के विनाश में योगदान देने के अलावा मछुआरों का काम बढ़ा देता है क्योंकि जाल की सफाई मुश्किल हो जाती है।

पूर्व में एक टीम द्वारा किए गए एक प्रयोग में जाल में हरे प्रकाश का उपयोग करने से कछुए के बायकैच में 64 प्रतिशत की कमी आई थी। इसके बाद इसे अन्य जीवों पर भी आज़माने का प्रयास किया गया। उसी टीम ने मेक्सिको स्थित बाजा कैलिफोर्निया के तट पर ग्रूपर और हैलिबट मछली पकड़ने वालों के साथ मिलकर काम किया। इस क्षेत्र को चुना गया क्योंकि मछलियों के साथ यहां बड़ी मात्रा में कछुए और अन्य बड़े समुद्री जीव पाए जाते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 28 जोड़ी जाल डाले। प्रत्येक जोड़ी में एक-एक जाल पर 10-10 मीटर की दूरी पर एलईडी लाइट लगाई गई थी। अगले दिन सुबह जालों में फंसे जीवों को तौला गया और पहचान की गई।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रकाशित जालों में 63 प्रतिशत कम बायकैच पाया गया (51 प्रतिशत कम कछुए और 81 प्रतिशत कम स्क्विड)। शार्क और स्टिंग रे समूह के साथ किए गए एक अन्य अध्ययन में अधिक बेहतर परिणाम देखने को मिले। इस तकनीक का उपयोग करने से शार्क बायकैच में 95 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे कुछ जीव खुद को हरे प्रकाश से बचा पाते हैं। इस सम्बंध में कई परिकल्पनाएं हैं।

बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन अब मछुआरों को जाल ढोने और सुलझाने में कम समय लगता है। हालांकि इन जालों की ऊंची लागत एक बड़ी बाधा है। एक जाल को रोशनी से लैस करने के लिए लगभग 140 डॉलर (लगभग 10000 रुपए) तक लागत आती है। कुछ मछुआरों के लिए यह बहुत महंगा है। फिलहाल शोधकर्ता सौर उर्जा से चलने वाली एलईडी का परीक्षण कर रहे हैं जो बैटरी चालित एलईडी की तुलना में अधिक समय तक चलती है। इसके साथ ही प्रति जाल कम संख्या में एलईडी के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि लागत को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर

पृथ्वी पर जीवन के इतिहास के बारे में हमारी समझ विकसित करने में जीवाश्मों की एक बड़ी भूमिका रही है। जीवाश्मों से हमें जैव-विकास और पौधों एवं जीव-जंतुओं में अनुकूलन के महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इन साक्ष्यों की मदद से विभिन्न प्रजातियों के आपसी सम्बंध के बारे में भी जानकारी मिलती है। लेकिन एक हालिया अध्ययन बताता है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर है। इस विश्लेषण के अनुसार 97 प्रतिशत जीवाश्म सम्बंधी डैटा अमेरिका, जर्मनी और चीन जैसे उच्च और उच्च-मध्यम आय वाले देशों के वैज्ञानिकों से प्राप्त हुआ है।

इस अध्ययन में शामिल फ्राइडरिच एलेक्जे़ंडर युनिवर्सिटी की जीवाश्म वैज्ञानिक नुसाइबा रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड के उच्च आय वाले देशों के वैज्ञानिकों के पास संकेंद्रित होने की संभावना तो थी लेकिन इतने अधिक प्रतिशत की उम्मीद नहीं थी। रजा और उनकी टीम का मानना है कि जीवाश्म रिकॉर्ड का अमीर देशों की ओर झुकाव जीवन के इतिहास के बारे में शोधकर्ताओं की समझ को प्रभावित कर सकता है। यह अध्ययन नेचर इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है।        

रजा और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन के लिए पैलियोबायोलॉजी डैटाबेस (पीबीडीबी) का उपयोग किया। पीबीडीबी में 80,000 शोध पत्रों से 15 लाख से अधिक जीवाश्म रिकॉर्ड शामिल हैं। टीम ने अपने अध्ययन में 1990 से 2020 के बीच पीबीडीबी में शामिल किए गए 29,039 शोध पत्रों का विश्लेषण किया है। इनमें से एक तिहाई से अधिक रिकॉर्ड अमेरिकी वैज्ञानिकों के पाए गए जबकि शीर्ष पांच में जर्मनी, यूके, फ्रांस और कनाडा के वैज्ञानिक शामिल थे। इस विश्लेषण में शोधकर्ताओं के अपने देश में पाए गए जीवाश्मों के साथ-साथ विदेशों में पाए गए जीवाश्म भी शामिल हैं।

आंकड़ों के मुताबिक अमेरिकी शोधकर्ताओं ने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय जीवाश्म दोनों पर लगभग समान रूप से काम किया जबकि युरोपीय देशों के वैज्ञानिकों ने अधिकांश जीवश्मीय अध्ययन विदेशों में किए हैं। जैसे, स्विट्ज़रलैंड के वैज्ञानिकों की 86 प्रतिशत जीवश्मीय खोजें विदेशों में की गई हैं।

विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि कई देशों में दशकों पहले खत्म हुए औपनिवेशिक सम्बंध आज भी जीवाश्म विज्ञान को प्रभावित कर रहे हैं। मोरक्को, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया में एक चौथाई से अधिक जीवाश्मीय अध्ययन फ्रांसीसी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए हैं। ये तीनों देश पूर्व फ्रांसीसी कॉलोनी रहे हैं। इसके अलावा, दक्षिण अफ्रीका और मिस्र में जीवाश्म का अध्ययन करने वाले 10 प्रतिशत शोध पत्रों में यूके के शोधकर्ता शामिल हैं जबकि तंज़ानिया के जीवाश्मों पर प्रकाशित 17 प्रतिशत शोध पत्र जर्मन वैज्ञानिकों के हैं।

कई मामलों में इन शोध कार्यों में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किया गया है। इस तरीके को आम तौर पर ‘पैराशूट विज्ञान’ कहा जाता है। रजा और उनकी टीम ने एक पैराशूट सूचकांक तैयार किया है जो यह दर्शाता है कि किसी देश का कितना जीवाश्मीय डैटा स्थानीय वैज्ञानिकों को शामिल किए बिना तैयार किया गया है। यह अनुपात म्यांमार और डोमिनिक गणराज्य में सर्वाधिक रहा। इन दोनों देशों में काफी मात्रा में एम्बर में संरक्षित जीवाश्म पाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है कि जीवाश्म विज्ञान पर अमीर देशों का अत्यधिक प्रभाव जीवन के इतिहास के बारे में एक विकृत दृष्टिकोण पैदा कर सकता है। पीबीडीबी जैसे संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवाश्म विज्ञान का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि जीवाश्म रिकॉर्ड अनगिनत पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है। इनमें चट्टान की उम्र और उसका प्रकार शामिल है जिसमें जीवाश्म संरक्षित रह सकते हैं। लेकिन आम तौर पर जीवाश्म को एकत्रित करने वाले व्यक्ति के पूर्वाग्रहों पर कम ध्यान दिया जाता है। रजा के अनुसार जीवाश्म रिकॉर्ड को प्रभावित करने वाले भौतिक कारकों पर तो बात होती है लेकिन मानवीय कारकों के बारे में नहीं।

कुछ अन्य जीवाश्म विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते हैं जो पैराशूट विज्ञान जैसी प्रवृत्तियों को उजागर कर सकते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि वैज्ञानिक ज्ञान को कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं रखना चाहिए और न ही इसे मुट्ठी भर देशों के शोधकर्ताओं द्वारा निर्मित किया जाना चाहिए। पैराशूट विज्ञान से न सिर्फ जीवाश्म विज्ञान प्रभावित होता है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी नुकसान होता है। जीवाश्म खोजें पर्यटकों को संग्रहालयों की ओर आकर्षित करके स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहायता प्रदान करती हैं। यदि विदेशी वैज्ञानिक इन जीवाश्मों को अपने देश ले जाते हैं तो स्थानीय लोग इनका लाभ नहीं प्राप्त कर पाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बर्फ में दबा विशाल मछली प्रजनन क्षेत्र

रवरी 2021 में, एक बड़ा जर्मन शोध जहाज़ आरवी पोलरस्टर्न समुद्री जीवन का अध्ययन करने के लिए वेडेल सागर की ओर रवाना हुआ था। अध्ययन में वैज्ञानिकों को वेडेल सागर के नीचे मछलियों की सबसे बड़ी और घनी आबादी वाली प्रजनन कॉलोनी मिली है। अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्व में स्थित आइसफिश की यह कॉलोनी लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली है जिसमें इनके अनगिनत घोंसले नियमित अंतराल पर बने हैं।

अल्फ्रेड वेगनर इंस्टीट्यूट के ऑटन पर्सर और उनके दल ने जब समुद्र सतह से आधा किलोमीटर नीचे, समुद्र के पेंदे के नज़दीक, वीडियो कैमरा और अन्य उपकरण डाले तो उन्हें वहां लगभग 75-75 सेंटीमीटर चौड़े हज़ारों आइसफिश के घोंसले दिखे। इन गोलाकार घोंसलों को वयस्क आइसफिश अपने पेल्विक फिन से बजरी और रेत को हटाकर बनाती हैं। हर घोंसले में एक वयस्क आइसफिश थी और प्रत्येक में 2100 तक अंडे थे।

सोनार तकनीक की मदद से पता लगा कि मछलियों के ये घोंसले सैकड़ों मीटर तक फैले हैं। उच्च विभेदन वाले वीडियो और कैमरों ने 12,000 से अधिक वयस्क आइसफिश (नियोपैगेटोप्सिस आयोना) को कैद किया।

लगभग 60 सेंटीमीटर लंबी यह आइसफिश अत्यधिक ठंडे वातावरण में रहने के लिए अनुकूलित है। ये एंटीफ्रीज़ किस्म के रसायनों (जो बर्फ बनने से रोकते हैं) का उत्पादन करती हैं। और इस इलाके में पानी में भरपूर ऑक्सीजन पाई जाती है जिसके चलते ये एकमात्र कशेरुकी जीव हैं जिनका रक्त हीमोग्लोबिन रहित रंगहीन होता है।

अपनी तीन यात्राओं के दौरान शोधकर्ताओं को आइसफिश के पास-पास स्थित 16,160 घोंसले दिखे। इनमें से 76 प्रतिशत घोंसलों की रक्षा एक-एक इकलौता नर कर रहा था। करंट बायोलॉजी जर्नल में शोधकर्ताओं ने अनुमान व्यक्त किया है कि यदि पूरे क्षेत्र में घोंसले इतनी ही सघनता से फैले होंगे तो लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 6 करोड़ घोंसले होंगे। इनकी इतनी अधिक संख्या देखते हुए लगता है कि आइसफिश और उनके अंडे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में प्रमुख भूमिका निभाते होंगे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि वयस्क आइसफिश पानी की धाराओं की मदद से अंडे देने के लिए उचित जगह तलाशती होंगी, जहां का पानी जंतु-प्लवकों से समृद्ध होगा और जहां उनकी संतानों के लिए पर्याप्त भोजन मिलेगा। इसके अलावा, घोंसलों की सघनता शिकारियों से बचने में मदद करती होगी।

मछलियों की नई विशाल कॉलोनी मिलना वेडेल सागर को संरक्षित क्षेत्र बनाने का एक नया कारण है। हालांकि वेडेल सागर अब तक मछलियों के शिकार जैसी गतिविधि से सुरक्षित है, लेकिन इस सुरक्षित और पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र को सुरक्षित बनाए रखने के लिए और प्रयास करने होंगे।

बहरहाल शोधकर्ता आइसफिश के प्रजनन और घोंसले बनाने सम्बंधी व्यवहार के बारे में अधिक जानने को उत्सुक व तैयार हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मनुष्य निर्मित पहला संकर पशु कुंगा

सीरिया के उम्म-अल-मारा खुदाई स्थल पर पुरातत्वविदों को 2006 में लगभग 3000 ईसा पूर्व के शाही कब्रगाहों के साथ गधे जैसे एक जानवर के अवशेष भी मिले थे। दफन की शैली को देखकर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह जानवर दुर्लभ ‘कुंगा’ होगा, जो कांस्य युगीन मेसोपोटामिया के अभिजात्य वर्ग के लिए अत्यधिक महत्व रखता था। लेकिन अब तक इस चौपाए की वास्तविक जैविक पहचान स्पष्ट नहीं हो सकी थी। अब, प्राप्त हड्डियों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि यह चौपाया दो प्रजातियों – एक नर जंगली गधे और पालतू मादा गधी – की संकर संतान थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में यह पहला मानव निर्मित संकर प्राणि है।

उस समय की कीलाक्षरी लिपि तख्तियों पर एक शक्तिशाली और नाटे कद के कुंगा का वर्णन यहां के अमीर और शक्तिशाली लोगों के पसंदीदा जानवर के तौर पर मिला है। यह ज्ञात प्रजातियों से अलग तरह का गधा था। इन तख्तियों पर पशुपालन के जटिल तरीकों के बारे में भी वर्णन मिलता है; इनमें अश्वों की दो अलग-अलग प्रजातियों का प्रजनन कराकर संकर जानवर तैयार करने का ज़िक्र है। ये तख्तियां बहुत विस्तार से जानकारी नहीं देती कि ये प्रजातियां कौन-सी थीं, और संकर संतान प्रजनन योग्य थी या नहीं। लेकिन इन पर अंकित संदेश से इतना पता चलता है कि संकर प्रजाति औसत गधों की तुलना में फुर्तीली थी।

पुरातत्वविदों को जब ये हड्डियां मिली तो वे किसी ज्ञात प्रजाति की नहीं लगीं। वैसे भी सिर्फ अवशेष देखकर यह पहचानना मुश्किल होता कि वे किस अश्व वंश की हैं, घोड़े की हैं या गधे की।

इन हड्डियों के दफन होने के स्थान और स्थिति के आधार पर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह चौपाया यहां के लोगों के लिए पौराणिक महत्व रखता होगा और अवश्य ही कुंगा होगा। लेकिन वास्तव में यह कौन-सा जानवर है इसकी पुष्टि के लिए पुरातत्वविदों ने आनुवंशिकीविद ईवा-मारिया गीगल की सहायता ली। हड्डियां बहुत भुरभुरी स्थिति में थी। इसलिए गीगल और उनके दल ने इनके नाभिकीय डीएनए के विश्लेषण के लिए अत्यधिक संवेदनशील अनुक्रमण विधियों का उपयोग किया, और साथ ही उनके मातृ और पितृ वंश को भी देखा। कुंगा के डीएनए की तुलना आधुनिक घोड़ों, पालतू गधों और विलुप्त सीरियाई जंगली गधे सहित अन्य अश्व वंश के जानवरों के जीनोम से भी की गई।

साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि हड्डियां किसी एक अश्व प्रजाति की नहीं थी, बल्कि ये दो भिन्न प्रजातियों के संकरण की पहली पीढ़ी की संतान थी; जिसमें मादा पालतू गधा प्रजाति की और नर सीरियाई जंगली गधा प्रजाति का था।

मानव निर्मित संकर प्राणि का यह पहला दर्ज उदाहरण है। खच्चर (घोड़े और गधे का संकर) संभवतः अगला सबसे पुराना उदाहरण है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन कांस्य युगीन मेसोपोटामिया समाज की तकनीकी क्षमताओं को दर्शाता है और इन जानवरों को जीवित रखने के लिए आवश्यक संगठन और प्रबंधन तकनीकों के स्तर को भी दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया संक्रमित कीट सर्दियों में ज़्यादा सक्रिय रहते हैं

यूएस के जंगलों में किलनियों (टिक) के माध्यम से लाइम रोग फैलने का खतरा होता है। इस रोग के डर से कई लोग यह सोचकर सर्दियों तक अपनी जंगल यात्राएं टाल देते हैं कि सर्दियों में किलनियां गायब हो जाएंगी। अब तक लोगों को यही लगता था, लेकिन हाल ही में सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक में शोधकर्ताओं ने बताया है कि लाइम रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों से संक्रमित किलनियां जाड़ों में भी सक्रिय रहती हैं और रोग फैला सकती हैं। ऐसा लगता है कि इनकी सक्रियता में वृद्धि जलवायु परिवर्तन के चलते जाड़ों के घटते-बढ़ते तापमान के कारण आई है।

यूएस में, हर साल लगभग पौने पांच लाख लोग इस रोग की चपेट में आते हैं और पिछले 20 वर्षों में मामले तीन गुना बढ़े हैं। वैसे तो बोरेलिया बर्गडॉर्फेरी बैक्टीरिया जनित यह रोग फ्लू की तरह होता है, जिसमें त्वचा पर आंखनुमा (बुल-आई) लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। लेकिन कुछ मामलों में यह मस्तिष्क, तंत्रिकाओं, हृदय और जोड़ों को भी प्रभावित करता है, जिससे गठिया या तंत्रिका क्षति जैसी समस्याएं होती है।

किलनियों और किलनी वाहित रोगों से निपटने के तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें कमी नहीं आई है। डलहौज़ी विश्वविद्यालय की इको-इम्यूनोलॉजिस्ट लौरा फर्ग्यूसन ने इस पर ध्यान दिया।

तीन सर्दियों तक, फर्ग्यूसन और उनके साथियों ने जंगल से 600 काली टांगों वाली किलनियां (Ixodes scapularis) और उसकी सम्बंधी पश्चिमी काली टांगों वाली किलनियां (I. pacificus) पकड़ीं। हरेक किलनी को एक-एक शीशी में रखा। शीशियों पर ढक्कन लगे थे और पेंदे में पत्तियां बिछी थीं। इन शीशियों को सर्दियों में बाहर छोड़ दिया, जहां पर तापमान -18 डिग्री सेल्सियस से 20 डिग्री सेल्सियस तक रहा। चार महीनों बाद उन्होंने देखा कि इनमें से कौन-सी किलनियां जीवित बचीं और इनमें से कौन-सी किलनियां बी. बर्गडोर्फेरी से संक्रमित हैं। उन्होंने पाया कि लगभग 79 प्रतिशत संक्रमित किलनियां ठंड में जीवित बच गईं थीं, जबकि केवल 50 प्रतिशत असंक्रमित किलनियां जीवित बची थीं। चूंकि सर्दियों में संक्रमित किलनियों के बचने की दर काफी अधिक रही, इसलिए आने वाले वसंत के मौसम में लाइम रोग अधिक फैलने की संभावना लगती है।

इसके बाद शोधकर्ता देखना चाहती थीं कि सर्दियों के दौरान तापमान में घट-बढ़, जैसे बे-मौसम का गर्म दिन और अचानक आई शीत लहर, किलनियों को किस तरह प्रभावित करती है। यह देखने के लिए उन्होंने अपने अध्ययन में संक्रमित और असंक्रमित किलनियों को तीन अलग-अलग परिस्थितियों में रखा: एकदम ठंडे तापमान (जमाव बिंदु) पर, 3 डिग्री सेल्सियस तापमान पर और घटते-बढ़ते तापमान पर (जैसा कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने की संभावना जताई गई है)। किलनियों की गतिविधि की निगरानी के लिए एक इंफ्रारेड प्रकाश पुंज की व्यवस्था थी; यदि किलनियां जागेंगी और शीशी से बाहर निकलने की कोशिश करेंगी तो वे इस इंफ्रारेड पुंज को पार करेंगी और पता चल जाएगा।

अध्ययन में पाया गया कि घटते-बढ़ते तापमान में संक्रमित किलनियां सबसे अधिक सक्रिय थीं। वे सप्ताह में लगभग 4 दिन जागीं बनिस्बत असंक्रमित या स्थिर तापमान पर रखी गईं किलनियों के जो सप्ताह में 1 या 2 दिन ही जागीं। इसके अलावा, संक्रमित किलनियां शीत लहर के प्रकोप के बाद असंक्रमित किलनियों की तुलना में अधिक सक्रिय देखी गईं। इससे लगता है कि बी. बोरेलिया बैक्टीरिया किलनियों को अधिक सक्रिय और काटने के लिए आतुर करता है। सर्दियों का मौसम संक्रमित किलनियों को संक्रमण को फैलाने में मदद करता है।

आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि जब अधिक ठंड पड़ती है तो कुछ नहीं होता, सब निष्क्रिय से रहते हैं। लेकिन इस अध्ययन से ठंड में भी रोग संचरण की संभावना लगती है। बहरहाल इस तरह के और अध्ययन करने की ज़रूरत है ताकि यह पता लगाया जा सके कि ऐसे मौसम रोग संचरण पर क्या असर डालते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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