नए साल की नई प्रौद्योगिकियां

ह वर्ष प्रौद्योगिकी विकास के लिए आशा भरा साबित हो सकता है। टीकों से लेकर गंध संवेदना के क्षेत्र में और तंत्रिका विज्ञान से लेकर मास स्पेक्ट्रोमेट्री तक कई नवीन तकनीक और उपकरण विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। यहां ऐसी ही सात प्रौद्योगिकियों के बारे में बात की जा रही है।

ताप-सह टीके

संक्रामक रोगों के खिलाफ टीके की प्रभाविता और सुरक्षा के आकलन को गति देने, टीका उत्पादन बढ़ाने और असुरक्षित आबादी तक टीकों की पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से वर्ष 2017 में कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन (CEPI) नामक वैश्विक संगठन की स्थापना की गई थी।

कोविड-19 महामारी से पहले कभी बहुत कम समय में टीका विकसित करने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। फिर भी, मॉडर्ना और फाइज़र कंपनी ने कोविड-19 के खिलाफ mRNA (संदेशवाहक आरएनए) आधारित टीके को महज़ चार महीनों में अनुक्रमण के चरण से लेकर प्रथम चरण के परीक्षण तक पहुंचा दिया।

लेकिन ये टीके और भी बेहतर बनाए जा सकते हैं। चूंकि mRNA बहुत नाज़ुक अणु होता है, यदि इसे सीधे कोशिका में प्रवेश कराया जाए तो हमारे शरीर के एंज़ाइम इसे छिन्न-भिन्न कर देंगे। एक नवीन टेक्नॉलॉजी में mRNA को आयनीकरण-योग्य नैनोपार्टिकल लिपिड के भीतर सुरक्षित किया जाता है। mRNA का यह लिपिड कवच शरीर की पीएच में तो उदासीन रहता है, लेकिन जब यह कोशिका के एंडोसोम में प्रवेश करता है तो वहां के अम्लीय वातावरण में आवेशित हो जाता है और कवच खुल जाता है। इस तरह mRNA कोशिका में पहुंच जाएगा। और अब, नैनोपार्टिकल लिपिड को और भी बेहतर तरीके से कार्य करने के लिए विकसित किया जा रहा है। इसमें नैनोपार्टिकल को ग्राहियों से जुड़कर किन्हीं विशिष्ट ऊतकों या कोशिकाओं को लक्षित करने के लिए तैयार किया जा रहा है।

टीकों के क्षेत्र में अन्य नवाचार टीकों की पहुंच बढ़ाने के लिए किए जा रहे हैं। जैसे कुछ तरीकों में टीके की परिष्कृत संरचना को नुकसान पहुंचाए बिना प्रभावी तरीके से फ्रीज़-ड्राय (कम तापमान पर शुष्क) करने के लिए शर्करा अणुओं का उपयोग किया जा रहा है। इससे टीकों को भंडारित करना और उनका परिवहन करना आसान हो जाएगा।

टीकों की पहुंच बढ़ाने का एक अन्य प्रयास है पोर्टेबल आरएनए-प्रिंटिंग तकनीक का विकास। कुछ ही देशों के पास बड़े पैमाने पर उच्च-गुणवत्ता वाले टीके उत्पादन करने के लिए पूंजी और विशेषज्ञता दोनों हैं। लेकिन सीमित संसाधन वाले क्षेत्र या देश भी स्वयं mRNA आधारित टीका निर्माण कर पाएं, इसके लिए फरवरी 2019 में क्कघ्क्ष् ने पोर्टेबल आरएनए-प्रिंटिंग इकाई विकसित करने के लिए CureVac कंपनी में लगभग साढ़े तीन करोड़ डॉलर का निवेश किया है। उम्मीद है कि इसकी बदौलत अगली किसी महामारी में तैयारी बेहतर होगी।

मस्तिष्क में होलोग्राम

ऑप्टोजेनेटिक्स चिन्हित मस्तिष्क कोशिकाओं और सर्किट (परिपथों) की गतिविधि को नियंत्रित करने की एक तकनीक है। इस तकनीक के उभरने के बाद से तंत्रिका विज्ञान के क्षेत्र में काफी उत्साह पैदा हुआ है। ऑप्टोजेनेटिक्स वर्ष 2005 में विकसित एक तकनीक है जिसमें न्यूरॉन्स में एक प्रोटीन (ऑप्सिन) का जीन जोड़ दिया जाता है। इस जीन से बने प्रोटीन की बदौलत वह न्यूरॉन अब प्रकाश मिलने पर सक्रिय हो उठता है। इसकी मदद से वैज्ञानिक विशिष्ट न्यूरॉन्स के साथ छेड़छाड़ तो कर पाते हैं लेकिन इसकी मदद से अभी भी कोशिकाओं की परस्पर संवाद की भाषा को समझना संभव नहीं हुआ है।

इस प्रयास में, कुछ तंत्रिका वैज्ञानिकों ने नए प्रकाश-संवेदी प्रोटीन विकसित किए हैं। इनकी मदद से किसी तंत्रिका-मार्ग को सक्रिय करने के लिए प्रकाश के विशिष्ट रंग का उपयोग किया जा सकता है। कुछ संशोधित प्रोटीन द्वि-फोटोन उद्दीपन की मदद से न्यूरॉन्स को अधिक सटीकता से सक्रिय कर सकते हैं। लेकिन लेज़र बीम कितने कम समय में किसी विशिष्ट न्यूरॉन को सक्रिय कर पाती है, इसकी सीमा है। और इसलिए नैसर्गिक गतिविधि का हू-ब-हू उद्दीपन पैटर्न बनाना मुश्किल होता है।

पिछले कुछ सालों में, किसी एक न्यूरॉन में बदलाव करने के लिए होलोग्राफी और अन्य प्रकाशीय तरीके विकसित हुए हैं। इनकी मदद से लेज़र प्रकाश को इतने सूक्ष्म पुंजों में विभाजित किया जा सकता है कि वह न्यूरॉन्स का आकार ले ले। इस तरह न्यूरॉन्स को सटीक रूप से उद्दीपन देने के लिए होलोग्राम के ज़रिए त्रि-आयामी जटिल पैटर्न बनाना संभव हुआ है।

जहां एक अकेले लेज़र पुंज से किसी एक न्यूरॉन को उद्दीप्त करने में 10-20 मिलीसेकंड का समय लगता है, होलोग्राफी की मदद से एक मिलीसेकंड से भी कम समय में यह किया जा सकता है। और एक साथ कई होलोग्राम बनाए जा सकते हैं।

लेकिन ऐसा कर पाना अब तक विशेष प्रयोगशालाओं तक ही सीमित था क्योंकि इसे अंजाम देने के लिए यह पता होना चाहिए कि विशिष्ट सूक्ष्मदर्शी कैसे बनाया जाए। और अब, कुछ कंपनियों ने अपनी द्वि-फोटॉन इमेजिंग प्रणाली में होलोग्राफी को भी जोड़ दिया है। अब तंत्रिका विज्ञानी माइक्रोस्कोप से तस्वीर खींचकर जिस न्यूरॉन को सक्रिय करना है उस विशिष्ट न्यूरॉन्स को चिन्हित कर सकते हैं, और सॉफ्टवेयर की मदद से इसे उद्दीपन देने वाले पैटर्न जैसा होलोग्राम बना सकते हैं।

बेहतर एंटीबॉडी निर्माण

1990 के मध्य दशक से ही एंटीबॉडी का उपयोग उपचार में किया जा रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ही एंटीबॉडी की संभावनाओं के बारे में पता चला है। अधिकांश एंटीबॉडी-आधारित उपचार में सामान्य, असंशोधित एंटीबॉडी का उपयोग किया जाता है जो किसी वांछित लक्ष्य, जैसे वायरस या ट्यूमर कोशिका की सतह पर मौजूद किसी प्रोटीन से जाकर जुड़ जाती हैं। लेकिन कई एंटीबॉडी प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय करने में अप्रभावी रह जाती हैं। अब, आणविक जीव विज्ञान में हुई प्रगति की मदद से हम एंटीबॉडी को संशोधित कर सकते हैं और इसके ज़रिए शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को रोग के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर सकते हैं।

इस दिशा में किंग्स कॉलेज, लंदन की प्रयोगशाला ने एक तीव्र और कुशल आणविक-क्लोनिंग विधी, PIPE (पोलीमरेज़ इनकंप्लीट प्राइमर एक्सटेंशन), की मदद से किसी भी एंटीबॉडी में मनचाहे परिवर्तन संभव कर दिए हैं। इस तरह संशोधित एंटीबॉडी किलर कोशिकाओं के साथ आसानी से जुड़ सकती हैं। इन संशोधित एंटीबॉडी द्वारा चूहों के स्तन कैंसर का उपचार करने पर पाया गया कि इनसे अधिक कैंसर कोशिकाओं की मृत्यु हुई।

इसके अलावा, इम्युनोग्लोबुलिन ई (IgE) आधारित एंटीबॉडी पर भी अध्ययन शुरू हुए हैं। चूंकि लोगों को लगता था कि IgE एलर्जी सम्बंधित एंटीबॉडी है इसलिए अधिकांश चिकित्सकीय एंटीबॉडी इम्युनोग्लोबुलिन जी (IgG) पर आधारित होती हैं। लेकिन IgE एंटीबॉडी कैंसर कोशिकाओं को लक्षित करने का शानदार ज़रिया हो सकती हैं।

वांछित संशोधन कर संशोधित एंटीबॉडी द्वारा कैंसर से लेकर ऑटो-इम्यून बीमारियों और एलर्जी का इलाज और कोविड-19 सहित कई संक्रामक रोगों के खिलाफ प्रतिरक्षा हासिल की जा सकती है।

एकल-कोशिका अध्ययन

हमारे शरीर की कोशिकाएं विभिन्न तरह के कार्य करती हैं। लेकिन इन सभी कोशिकाओं का जन्म एक कोशिका और एक जीनोम से ही होता है। सवाल है कि कैसे एक कोशिका इतनी सारी विभिन्न कोशिकाओं को जन्म देती है?

इस सवाल का जवाब पता करने के लिए पिछले कुछ समय से एकल-कोशिका को अनुक्रमित करने की तीन नई तकनीकों पर काम हो रहा है। इनमें से एक तकनीक है हाइ-सी (Hi-C) विधि, जिसकी मदद से जीनोम की त्रि-आयामी संरचना का अध्ययन किया जा सकता है। इसकी मदद से चूहे के भ्रूण के प्रारंभिक विकास के विभिन्न चरणों के दौरान एकल-कोशिका में मातृ और पितृ गुणसूत्रों का अध्ययन करने पर पाया गया कि मातृ और पितृ जीनोम निषेचन के तुरंत बाद मिश्रित नहीं होते, एक कोशिका से 64 कोशिका बनने के चरणों के बीच एक ऐसा क्षण आता है जहां मातृ जीनोम की संरचना पितृ जीनोम से अलग दिखती है। हालांकि अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि कुछ समय की यह विषमता क्यों होती है। लेकिन अनुमान है कि आगे जाकर लिंग-विशिष्ट जीन अभिव्यक्ति को शुरू करने में इसकी भूमिका होगी।

दूसरी तकनीक है कट एंड टैग (या काटो-निशान लगाओ) तकनीक। इसकी मदद से जीनोम के विशिष्ट जैव-रासायनिक ‘चिन्हों’ को पहचान कर यह पता किया जा सकता है कि किस तरह इन रसायनों में परिवर्तन प्रत्येक जीवित कोशिका में किसी जीन को चालू-बंद करता है।

और तीसरी तकनीक है SHARE-seq। यह तकनीक दो अनुक्रमण विधियों का मिश्रण है। इसकी मदद से जीनोम के उन हिस्सों की पहचान की जा सकती है जहां अनुलेखन सक्रिय करने वाले अणु हो सकते हैं।

इन तकनीकों से विकासशील भ्रूण का अध्ययन कर पता किया जा सकता है कि जीनोम की कुछ खास विशेषताएं भ्रूण विकास में कैसे किसी कोशिका का भाग्य लिखती हैं।

कोशिका में बल संवेदना

वृद्धि कारकों और अन्य अणुओं के अलावा कोशिकाएं भौतिक बल भी महसूस करती हैं। बल का प्रभाव जीन अभिव्यक्ति, कोशिका संख्या वृद्धि, विकास और संभवत: कैंसर को नियंत्रित कर सकता है।

बल का अध्ययन करना मुश्किल है क्योंकि यह केवल एक प्रभाव के रूप में दिखता है – जब हम किसी चीज़ को धक्का लगाते हैं तो उसमें विकृति या हलचल होती है। लेकिन अब, दो उपकरणों की मदद से जीवित कोशिकाओं में बल को समझा जा सकता है और उसमें बदलाव किया जा सकता है। और इस तरह भौतिक बल और कोशिकीय कार्यों के बीच कार्य-कारण सम्बंध पता किया जा सकता है।

इंपीरियल कॉलेज, लंदन द्वारा विकसित GenEPi दो अणुओं को जोड़ सकता है। इनमें से एक अणु है पीज़ो-1। यह एक आयन मार्ग है जो कोशिका झिल्ली पर तनाव महसूस होने पर अपने छिद्रों से कैल्शियम आयनों का संचार करता है। दूसरा अणु इन आयनों की पहचान करता है – यह कैल्शियम से जुड़ने के बाद और अधिक चमकता है।

पूर्व में कोशिकाओं पर बल के प्रभाव को पता करने के लिए भौतिक या भेदक उपकरणों का उपयोग किया जाता था। लेकिन GenEPi की मदद से वास्तविक वातावरण में बदलाव किए बिना कोशिकाओं का अध्ययन किया जा सकता है। सभी तरह के कोशिका द्रव्य कैल्शियम पर नज़र रखने वाले पूर्व के सेंसरों के विपरीत, GenEPi केवल उन कैल्शियम गतिविधियों पर नज़र रखता है जो पीज़ो-1 के ज़रिए बल संवेदना से जुड़ी होती हैं। इस तरह वैज्ञानिकों ने परमाणु बल सूक्ष्मदर्शी कैंटीलीवर से ह्मदय की मांसपेशियों की कोशिकाओं में उद्दीपन देकर GenEPi प्रतिदीप्ति में बदलाव करने में सफलता प्राप्त की है।

दूसरा उपकरण है ActuAtor। इसे रोगजनक सूक्ष्मजीव लिस्टेरिया मोनोसाइटोजीनस के प्रोटीन ActA की मदद से बनाया है। जब यह बैक्टीरिया किसी स्तनधारी कोशिका को संक्रमित करता है तो ActA प्रोटीन मेज़बान कोशिका की मशीनरी पर अपना नियंत्रण कर लेता है ताकि बैक्टीरिया की सतह पर एक्टिन पोलीमराइज़ेशन शुरू कर सके। इससे बल उत्पन्न होता है जो कोशिका द्रव्य में बैक्टीरिया को इधर-उधर धकेलता है।

बैक्टीरिया की इस नियंत्रण प्रणाली का उपयोग हम अपने उद्देश्य के लिए कर सकते हैं। ActA प्रोटीन में बदलाव करके, प्रकाश या रासायनिक उद्दीपन देकर कोशिका के भीतर किसी भी वांछित स्थान पर एक्टिन पॉलीमराइज़ेशन किया जा सकता है। ActuAtor की मदद से कोशिका के बहुत अंदर तक बल लगाया जा सकता। जैसे, ActuAtor को माइटोकॉन्ड्रिया की सतह पर छोड़ने पर यह इसे छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ सकता है। इस तरह क्षतिग्रस्त माइटोकॉन्ड्रिया चयनित रूप से तोड़ा जा सकता है, और माइटोकॉण्ड्रिया द्वारा एटीपी संश्लेषण भी अप्रभावित रहता है।

पूर्व में ऐसे कामों को अंजाम देना मुश्किल था क्योंकि हमारे पास जीवित कोशिका को भेदे बिना कोशिकांग को क्षतिग्रस्त करने वाले उपकरण नहीं थे। ActuAtor ऐसा करने में सक्षम पहला उपकरण है।

नैदानिक मास स्पेक्ट्रोमेट्री

मास स्पेक्ट्रोमेट्री जटिल नमूनों में से भी सैकड़ों-हज़ारों तरह के अणुओं के बारे में तुरंत और सटीकता से पता कर सकती है। कुछ वैज्ञानिक मास स्पेक्ट्रोमेट्री की मदद से जैविक ऊतकों की बारीकी से पड़ताल करने के लिए बेहतर तकनीक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। और कुछ शोधकर्ता मास स्पेक्ट्रोमेट्री को सरल बनाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि चिकित्सकीय नैदानिक कार्यों में इसका इस्तेमाल हो सके।

MALDI (मैट्रिक्स-असिस्टेड लेज़र डीसॉर्प्शन/ऑयनाइज़ेशन) एक मास स्पेक्ट्रोमेट्री इमेजिंग तकनीक है जिसका उपयोग जैविक ऊतकों का विश्लेषण करने में किया जाता है। लेकिन अणुओं को ऊतकों से निकालना और निर्वात में उन्हें आयनित करना मुश्किल काम होता है। इसलिए 2017 में MALDI में किए गए कुछ बदलावों ने निर्वात के बजाय हवा की उपस्थिति में ही आयन में बदलाव करना संभव बनाया। इस बदलाव से MALDI प्रणाली और भी सरल हुई। और इस कारण मिश्रित सूक्ष्मदर्शी, जैवदीप्ति चित्रण, ब्लॉकफेस इमेजिंग और एमआरआई जैसी अन्य तकनीकों के साथ इसका उपयोग संभव हुआ। इतनी विविध कार्यक्षमता के कारण ही सूक्ष्मजीव और मेज़बान की अंत:क्रिया, और आणविक और ऊतकीय सटीकता के साथ चयापचय परिवर्तनों का बारीकी से अध्ययन संभव हो सका।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने एक MasSpec पेन बनाया है, जिसे हाथ से पकड़कर मास स्पेक्ट्रोमेट्री की जा सकती है। इसकी मदद से सर्जन ट्यूमर ऊतकों और उनके फैलाव को देख सकते हैं। यह उपकरण शरीर के चयापचय उत्पादों पर आधारित है जिसमें अभिक्रिया में बने उत्पादों के आधार पर यह पेन सामान्य ऊतक और ट्यूमर ऊतक की पहचान करता है। इस प्रक्रिया में ऊतक पर पानी की एक बूंद डाली जाती है जिसमें चयापचय उत्पाद घुल जाते हैं और फिर इनकी मास स्पेक्ट्रोमेट्री की जाती है। यह हमें पता चल गया है कि प्रयोगशाला में सामान्य ऊतक और ट्यूमर ऊतक के चयापचय उत्पाद में कौन-कौन से अणु होते हैं। अब वास्तविक परिस्थिति में परीक्षण किया जा रहा है। इस साल स्तन कैंसर, गर्भाशय के कैंसर और अग्नाशय कैंसर, या रोबोटिक प्रोस्टेट कैंसर सर्जरी में MasSpec पेन को जांचने की योजना है।

सूंघ कर बीमारी पता करना

दृष्टि, श्रवण और स्पर्श के विपरीत, गंध के रासायनिक संवेदक काफी जटिल हैं। वे सैकड़ों-हज़ारों रसायनों के मिश्रण की पहचान करते हैं। कोरिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ता कृत्रिम घ्राण प्रणाली को बेहतर बनाने की कोशिश में हैं।

इनमें से एक तरीका है द्वि-स्तरीय डिज़ाइन कर गैस-संवेदी पदार्थों की विविधता को बढ़ाना। मसलन, गैस-संवेदना को बेहतर करने के लिए 10 विभिन्न संवेदी पदार्थों पर 10 विभिन्न उत्प्रेरक पदार्थों की परत चढ़ाना, जिससे 100 विभिन्न सेंसर बन सकते हैं। यह 100 अलग-अलग संवेदी पदार्थों के उपयोग से कहीं अधिक आसान होगा।

इसके अलावा, सेंसरों को त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार करने की भी आवश्यकता है। प्रकृति से सीखकर हम सेंसरों को त्वरित प्रतिक्रिया के लिए तैयार कर सकते हैं। जैसे संवेदी सतह का क्षेत्रफल बढ़ाना।

कृत्रिम घ्राण-तंत्र का उपयोग निदान में भी किया जा सकता है। जैसे दमा से पीड़ित लोगों की सांस में नाइट्रिक ऑक्साइड की उच्च सांद्रता का पता करने के लिए। इसके अलावा वायु प्रदूषण, खाद्य गुणवत्ता जांचने में और पौधों के हार्मोन संकेतों के आधार पर स्मार्ट खेती करने में कृत्रिम घ्राण-तंत्र का उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायरस का नया संस्करण और प्रतिरक्षा

कुछ साक्ष्यों से पता चला है कि कोरोनावायरस के नए संस्करण टीकों और पिछले संक्रमणों से उत्पन्न प्रतिरक्षा को चकमा दे सकते हैं। फिलहाल शोधकर्ता प्रयोगशाला से प्राप्त अध्ययनों की मदद से इस वायरस के उभरते हुए संस्करणों और उत्परिवर्तनों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के प्रतिरक्षा विज्ञानी डेनियल ऑल्टमन के अनुसार कोविड-19 टीकों की प्रभाविता में कमी आ सकती है।

लेकिन ऑल्टमन और अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार डैटा अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। अध्ययनों में टीका प्राप्त या कोविड-19 से स्वस्थ हो चुके लोगों में मात्र एंटीबॉडीज़ द्वारा विभिन्न संस्करणों को बेअसर करने की ही जांच की गई है। प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य घटकों के प्रभावों पर अध्ययन नहीं किया गया है। इसके अलावा अध्ययनों में इस सम्बंध में कोई संकेत नहीं मिले हैं कि एंटीबॉडी की गतिविधियों में परिवर्तन के कारण टीके की प्रभाविता या पुन:संक्रमण की संभावना पर कोई असर होगा या नहीं।

शोधकर्ता सबसे अधिक चिंतित 2020 के अंत में दक्षिण अफ्रीका में पाए गए संस्करण से है। डरबन स्थित युनिवर्सिटी ऑफ क्वाज़ूलू-नेटल के जैव-सूचना विज्ञानी टूलियो डी ओलिवेरा के नेतृत्व में एक टीम ने नए संस्करण (501Y.V2) को पूर्वी केप प्रांत में सबसे तेज़ी से फैलने वाला प्रकोप बताया है। यह दक्षिण अफ्रीका से अन्य देशों में भी फैल गया है। इसकी मुख्य विशेषताओं में स्पाइक प्रोटीन में उत्परिवर्तन हैं जो वायरस को मेज़बान कोशिकाओं की पहचान करने और संक्रमित करने में मदद करते हैं। इसमें कुछ बदलाव ऐसे भी हुए हैं जो वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी को भी कमज़ोर करते हैं। 

अधिक गहराई से जांच करने के लिए ओलिवेरा की टीम ने 501 Y.V2 को अलग किया। फिर उन्होंने इस संस्करण के नमूनों का परीक्षण रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी युक्त भाग से किया जिसे सीरम कहते हैं। ये नमूने 6 ऐसे लोगों से लिए गए थे जो वायरस के किसी अन्य संस्करण से बीमार हुए थे और अब स्वस्थ हो चुके थे। उम्मीद थी कि स्वस्थ हो चुके लोगों की सीरम (उपशमक सीरम) में ऐसी एंटीबॉडीज़ होंगी जो संक्रमण को रोकने में सक्षम होंगी। लेकिन शोधकर्ताओं ने पाया कि यह उपशमक सीरम महामारी के शुरुआती वायरस संस्करणों की तुलना में 501 Y.V2 के विरुद्ध बेअसर रहा। हालांकि, कुछ लोगों के प्लाज़्मा ने 501 Y.V2 के विरुद्ध बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन क्षमता काफी कम पाई गई।  

एक अन्य अध्ययन में नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर कम्यूनिकेबल डिसीसेज़ के विषाणु विज्ञानी पेनी मूर के नेतृत्व में एक टीम ने 501 Y.V2 में पाए जाने वाले स्पाइक उत्परिवर्तनों के विभिन्न संयोजनों में इस उपशमक सीरम के प्रभावों की जांच की। यह उन्होंने एक ‘कूट-वायरस’ (यानी एच.आई.वी. का एक रूप जो स्पाइक प्रोटीन की मदद से कोशिका में प्रवेश करता है) की मदद से किया। इन प्रयोगों से पता चला कि 501 Y.V2 में ऐसे उत्परिवर्तन हुए हैं जो न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी के प्रभावों को कमज़ोर करते हैं। 501 Y.V2 उत्परिवर्तन वाले कूट-वायरस 44 में से 21 प्रतिभागियों के उपशमक सीरम से अप्रभावित रहे और अन्य लोगों के सीरम के लिए भी आंशिक रूप से प्रतिरोधी रहे। इन परिणामों के बाद ओलिवेरा का अनुमान है कि दक्षिण अफ्रीका में पुन:संक्रमण के पीछे 501 Y.V2 संस्करण मुख्य कारण हो सकता है।

फिलहाल दोनों ही टीमें जल्द ही कोविड-19 टीका परीक्षण में शामिल लोगों के सीरम से 501 Y.V2 संस्करण का परीक्षण करने वाली हैं। गौरतलब है कि इन लोगों को जो टीका लगा था वह वायरस के मूल संस्करण के लिहाज़ से बना था। इसके अलावा अन्य प्रयोगशालाओं में भी फाइज़र या मॉडर्ना mRNA टीका प्राप्त लोगों के सीरम एकत्रित कर इस तरह के परीक्षण किए जा रहे हैं। अब तक के प्रयोग बताते हैं कि इन व्यक्तियों के सीरम की एंटीबॉडी कुछ हद तक नए संस्करण पर भी प्रभावी हैं। लेकिन अन्य उत्परिवर्तनों पर जांच करना ज़रूरी होगा।

कोविड-19 टीके उच्च स्तर की एंटीबॉडी जारी करते हैं जो स्पाइक प्रोटीन के विभिन्न क्षेत्रों को लक्षित करती हैं। ऐसे में कुछ अणु तो वायरस के संस्करणों को अवरुद्ध करने में सक्षम हो सकते हैं। और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य घटक (जैसे टी-कोशिकाएं) शायद वायरस में उत्परिवर्तनों से प्रभावित न हों।

फिलहाल चल रहे प्रभाविता परीक्षण और विभिन्न देशों के टीकाकरण अभियान वायरस के अलग-अलग संस्करणों पर टीकों के प्रभावों को उजागर कर पाएंगे। दक्षिण अफ्रीका में कई टीकों के परीक्षण चल रहे हैं और शोधकर्ता काफी गंभीरता से 501 Y.V2 संस्करण वाले कोविड-19 की क्षमता में गिरावट की उम्मीद कर रहे हैं।

इसके साथ ही यूके में तेज़ी से फैल रहे B.1.1.7 संस्करण के बारे में भी सुराग मिलने लगे हैं। बायोएनटेक द्वारा कूट-वायरस प्रयोगों से पता चला है कि B.1.1.7 के उत्परिवर्तित स्पाइक पर 16 लोगों के सीरम का बहुत कम प्रभाव पड़ा है। इन 16 लोगों को फाइज़र का टीका लगा था। इसी दौरान कैंब्रिज विश्वविद्यालय के विषाणु विज्ञानी रवीन्द्र गुप्ता ने 15 लोगों के सीरम पर अध्ययन किया, जिनको यही टीका लगा था। उन्होंने पाया कि 10 लोगों का सीरम अन्य सार्स-कोव-2 संस्करणों की तुलना में B.1.1.7 के विरुद्ध कम प्रभावी रहा।

देखा जाए तो हाल में प्राप्त परिणाम अभी काफी अस्पष्ट हैं। फिलहाल शोधकर्ताओं की पहली प्राथमिकता यह पता लगाने की है कि 501 Y.V2 उत्परिवर्तन पुन:संक्रमण के लिए ज़िम्मेदार है या नहीं। यदि है तो झुंड प्रतिरक्षा का विचार एक कल्पना मात्र ही रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी के नए भूगोल के अनुमान

तीत में कोलंबिया, रोडिनिया, पैंजिया जैसे सुपर-महाद्वीप पृथ्वी पर बने और बिखर गए। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि सुपर-महाद्वीप बनने का एक नियमित चक्र चलता रहता है, जो 60 करोड़ वर्ष में पूरा होता है। पृथ्वी के मेंटल में गर्म पिघली चट्टानों के प्रवाह के आधार पर यह अनुमान भी लगाया गया है कि पृथ्वी पर अगला सुपर-महाद्वीप कब और कहां बनेगा।

हमारे महाद्वीप टेक्टॉनिक प्लेटों पर स्थित हैं, और ये टेक्टॉनिक प्लेटें पृथ्वी के मेंटल पर तैरती रहती हैं। मेंटल पानी उबालने वाले बर्तन की तरह कार्य करता है: पृथ्वी का गर्म पिघला कोर मेंटल के निचले हिस्से में मौजूद चट्टानों को गर्म करता है, जिससे वे धीरे-धीरे ऊपर उठने लगती हैं। इसी दौरान, धंसान क्षेत्र में पृथ्वी की भूपर्पटी के निचले हिस्से में मौजूद ठंडी चट्टानें मेंटल के निचले हिस्से की ओर जाने लगती हैं। चट्टानों के इस चक्रीय प्रवाह को मेंटल संवहन कहते हैं।

मेंटल संवहन महाद्वीपीय प्लेटों के प्रवाह को गति और दिशा देता है, जिससे लाखों-करोड़ों वर्षों में उनका स्थान बदलता रहता है। इस दौरान कभी-कभी ये महाद्वीप आपस में जुड़कर सुपर-महाद्वीप बनाते हैं।

सुपर-महाद्वीप चक्र के बारे में अधिक जानने के लिए चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के भूवैज्ञानिक रॉस मिशेल और उनके साथियों ने ‘मेगा-महाद्वीपों’ पर ध्यान केंद्रित किया। मेगा-महाद्वीप सुपर-महाद्वीप से छोटे होते हैं और कभी उनका हिस्सा रहे होते हैं। जैसे गोंडवाना मेगा-महाद्वीप जो लगभग 52 करोड़ साल पहले बना था, और इसके 20 करोड़ वर्ष बाद इसी से पैंजिया सुपर-महाद्वीप बनने की शुरुआत हुई थी।

गोंडवाना से पैंजिया कैसे बना, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने जीवाश्मों और विभिन्न काल के उपलब्ध अन्य प्रमाणों के आधार पर विभिन्न काल में महाद्वीपीय प्लेटों की स्थिति को चित्रित किया, और पता लगाया कि महाद्वीपों की स्थितियां मेंटल प्रवाह के विभिन्न मॉडल्स से किस तरह मेल खाती हैं।

पाया गया कि महाद्वीप का प्रवाह धंसान क्षेत्र की ओर बहाव की दिशा में था – इस क्षेत्र में मेंटल के ऊपरी हिस्से में मौजूद चट्टानें ठंडी होकर नीचे की ओर खिसकती हैं। लेकिन यहां मिशेल इस क्षेत्र को ‘धंसान घेरा’ कहते हैं क्योंकि महाद्वीपीय प्लेटें बहुत मोटी होती हैं जो नीचे नहीं जा पातीं और इसलिए इस क्षेत्र में जाकर ‘अटक’ जाती है। वे केवल इस घेरे की परिधि से लगकर घूम सकती हैं और इस प्रक्रिया में अन्य महाद्वीपों से जुड़ सकती हैं। इस तरह गोंडवाना से पैंजिया बना।

शोधकर्ता यह भी बताते हैं कि अब आगे क्या होगा। जियोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित उनके निष्कर्षों के अनुसार जब पैंजिया लगभग 17.5 करोड़ साल पहले टूटा तो प्रशांत महासागर के तटीय इलाकों के पास इसने रिंग ऑफ फायर नामक धंसान क्षेत्र का निर्माण किया, जहां ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंप जैसी घटनाएं होती रहती हैं। वर्तमान मेगा-महाद्वीप – युरेशिया – को बनाने वाले कई महाद्वीप पहले ही जुड़ चुके हैं। और युरेशिया रिंग ऑफ फायर के विपरीत दिशा में जा रहा है। इस तरह बहते-बहते 5-20 करोड़ वर्ष बाद युरेशिया अमेरिका से टकराएगा, जो एक नए सुपर-महाद्वीप को जन्म देगा। भूवैज्ञानिकों ने इस अगले सुपर-महाद्वीप को ‘अमेशिया’ नाम दिया है। इस बात पर बहस जारी है कि अमेशिया कहां जाकर रुकेगा, लेकिन मिशेल के मॉडल के अनुसार संभवत: यह वर्तमान के आर्कटिक महासागर के केंद्र में होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुछ ततैया चेहरे को समग्रता से पहचानती हैं

गोल्डन पेपर ततैया सामाजिक जीव हैं। वे चेहरों से अपने साथियों को पहचानती और याद रखती हैं। अब, हाल ही में हुए एक अध्ययन में पता चला है कि ठीक मनुष्यों की तरह गोल्डन पेपर ततैया भी चेहरे की पहचान चेहरे की सारी विशेषताओं को एक साथ रख कर करती हैं। कीटों में ‘समग्र’ तरीके से चेहरा पहचानने का यह पहला प्रमाण है। अध्ययन के परिणाम दर्शाते हैं कि समग्र पहचान के लिए बड़ा और जटिल मस्तिष्क ज़रूरी नहीं है।

अधिकांश मनुष्य चेहरों को उसकी किसी एक खासियत (जैसे आंख या नाक की खास बनावट या किसी पहचान चिन्ह) से नहीं पहचानते बल्कि चेहरे की सभी विशेषताओं-बनावटों को एक साथ जोड़ते हुए पहचानते हैं।

पूर्व में हुए अध्ययन बताते हैं कि लोग आंख-नाक या चेहरे की किसी अन्य बनावट को पूरे चेहरे के संदर्भ में ही पहचान पाते हैं। एक-एक लक्षण को अलग से दिखाने पर पहचानना मुश्किल होता है कि चेहरा किसका है। चिम्पैंज़ियों सहित अन्य प्राइमेट्स भी इसी तरह पहचान करते हैं। और तो और, अध्ययनों से यह भी पता चल चुका है कि मानव-चेहरे को पहचानने के लिए प्रशिक्षित मधुमक्खियों और ततैया को पूरे चेहरे की तुलना में आंशिक चेहरा पहचानने में अधिक कठिनाई होती है। यह इस बात के संकेत देता है कि ये कीट समग्र रूप से चेहरे की पहचान करते हैं।

लेकिन क्या ये कीट अपने साथियों की पहचान करने के लिए भी समग्र पहचान का तरीका अपनाते हैं? यह जानने के लिए मिशिगन विश्वविद्यालय की वैकासिक जीव विज्ञानी एलिज़ाबेथ टिबेट्स और उनके साथियों ने गोल्डन पेपर ततैया पर अध्ययन किया। सबसे पहले उन्होंने इन ततैयों की तस्वीरें लीं और फिर हर तस्वीर में ततैया के चेहरे के अंदरुनी हिस्सों को बदल दिया। इस तरह शोधकर्ताओं के पास तस्वीरों की जोड़ियां थी – दोनों तस्वीरों में बाकी शरीर, पैर और एंटीना एक समान थे लेकिन चेहरा भिन्न था। फिर जोड़ी में से एक तस्वीर एक बक्से की सभी तरफ की दीवारों पर लगाई और दूसरी तस्वीर दूसरे बक्से की सभी दीवारों पर। फिर दोनों बक्सों में ततैयों को प्रवेश कराया।

एक बक्से में प्रवेश करने पर ततैयों को हल्का बिजली का झटका दिया गया ताकि वे असहज हो जाएं लेकिन आहत न हों। इस तरह झटकेदार चेहरा ‘दुष्ट ततैया’ का बन गया। दूसरे बक्से में झटका नहीं लगता था और उस बक्से के चेहरे को ‘भली ततैया’ की तरह पहचानना सिखा दिया गया।

प्रशिक्षण के बाद, एक बड़े बक्से में एक तरफ ‘भली ततैया’ और दूसरी तरफ ‘दुष्ट ततैया’ की तस्वीरें लगाई गर्इं और फिर बक्से में ततैयों को प्रवेश कराया गया। इस बक्से में इस तरह व्यवस्था की गई थी कि बक्से के बीचों-बीच प्रशिक्षित ततैया 5 सेकंड तक रुकी रहे ताकि वे दोनों ओर के चेहरों को देख-पहचान सकें। फिर ततैयों को आगे बढ़ने दिया और देखा कि ततैया किस चेहरे की ओर जाती हैं।

जैसा कि अपेक्षित था, ततैया ‘भली’ ततैया की तरफ गर्इं। फिर, अगले चरण के परीक्षण में ततैयों को चेहरे का सिर्फ एक हिस्सा – आंखें और नाक वाला हिस्सा – दिखाया गया। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में शोधकर्ता बताते हैं कि चेहरे का हिस्सा दिखाने पर ततैया हमेशा भली ततैया की तरफ नहीं गर्इं, जिससे लगता है कि ततैया समग्र तरह से चेहरा पहचान करती हैं।

इसी प्रयोग को जब शोधकर्ताओं ने गोल्डन पेपर ततैया की करीबी प्रजाति युरोपीय पेपर ततैया पर दोहराया तो उन्होंने पाया कि ये ततैया संपूर्ण चेहरा पहचान की जगह विशेष लक्षणों से पहचान करती हैं। दो प्रजातियों के बीच यह अंतर बताता है कि गोल्डन पेपर ततैया को समग्र पहचान का तरीका कई अलग-अलग चेहरों को तेज़ी से ठीक-ठीक पहचानने में मदद करता होगा।

लेकिन कुछ शोधकर्ता इन परिणामों पर संदेह करते हैं। अभी इसी बात पर बहस चल रही है कि पहचान का समग्र तरीका क्या है और इसका सही तरह से आकलन कैसे किया जाए। और, अध्ययन में ततैया पर इस्तेमाल किया गया ‘पूर्ण/भाग’ तरीका मानवों की चेहरे की पहचान को जांचने का मानक तरीका नहीं माना जाता। इसके अलावा, अध्ययन में परीक्षण सिर्फ एक तरीके से किया गया है, विभिन्न तरीकों से परीक्षण अधिक स्पष्ट निष्कर्ष दे सकते थे – जैसे विभिन्न चेहरों की विभिन्न विशेषताओं को आपस में मिलाकर तैयार तस्वीर के साथ परीक्षण। बहरहाल कुछ शोधकर्ता इन नतीजों से काफी उत्साहित हैं। उनके अनुसार यह अध्ययन मनुष्यों के चेहरा पहचान परीक्षण के परिवर्तित रूप पर आधारित है और बताता है कि ततैया चेहरे की पहचान समग्र ढंग से करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या कोविड टीकाकरण कार्यक्रम कारगर है?

विश्वभर में कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू हो गया है। वैज्ञानिको में इसके प्रभाव जानने की उत्सुकता है। इस्राइली शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक आकड़ों के अनुसार टीकाकृत लोगों के सार्स-कोव-2 पॉज़िटिव पाए जाने की संभावना गैर-टीकाकृत लोगों की अपेक्षा एक-तिहाई कम है। लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक टीकाकरण के व्यापक प्रभावों को स्पष्ट होने में अभी समय लग सकता है।

टीके के प्रभाव को आंकने के लिए कई कारकों का अध्ययन किया जा सकता है – टीका कितने लोगों को दिया गया है, रोग एवं संक्रमण को रोकने में टीके की प्रभाविता और संक्रमण प्रसार की दर वगैरह।

आबादी में सबसे अधिक टीका लगाने के मामले में इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात सबसे आगे हैं। इन दोनों देशों ने 20-20 लाख लोगों का टीकाकरण कर अपनी एक-चौथाई जनसंख्या का टीकाकरण कर दिया है। यूके और नॉर्वे जैसे देशों ने अपने टीकाकरण कार्यक्रम में उच्च-जोखिम वाले समूहों को लक्षित किया है। ब्रिटेन ने 40 लाख लोगों का टीकाकरण किया है जिसमें अधिकांश जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता, वृद्धजन और केयरहोम में रहने वाले लोग हैं। नॉर्वे ने नर्सिंग होम में रहने वाले 40,000 लोगों को टीका लगाया है।

इस्राइल ऐसा पहला देश है जिसने क्लीनिकल परीक्षण के बाहर टीकों के प्रभावों को रिपोर्ट किया है। इसमें फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा विकसित आरएनए आधारित टीके की दो खुराकों के शुरुआती परिणाम दर्शाए गए हैं। इनमें पता चला है कि टीके की एक खुराक संक्रमण को रोक सकती है या बीमारी की अवधि को कम कर सकती है। 60 वर्ष से अधिक आयु वाले दो-दो लाख टीकाकृत और गैर-टीकाकृत लोगों की तुलना में पाया गया कि पहली खुराक के दो सप्ताह के भीतर टीकाकृत लोगों में संक्रमण में 33 प्रतिशत की कमी आई। मैकाबी हेल्थकेयर सर्विसेस द्वारा किए गए एक अन्य विश्लेषण में इसी तरह के परिणाम मिले हैं।

क्लीनिकल परीक्षण में फाइज़र-बायोएनटेक टीका कोविड-19 को रोकने में 90 प्रतिशत प्रभावी पाया गया था। प्रारंभिक डैटा बताता है कि यह कुछ हद तक संक्रमण से सुरक्षा भी देता है। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि टीकाकृत लोग वायरस फैलाते हैं या नहीं।

अधिकांश देश टीकाकरण में गंभीर रोग और मृत्यु के उच्च जोखिम वाले लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं। ऐसे देशों में शुरुआती परिणामों का अनुमान अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीज़ों और मौतों की संख्या में कमी के आधार पर लगाया जा सकता है।

युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की जीव-सांख्यिकीविद नटाली डीन के अनुसार यदि टीके संक्रमण को रोकने में प्रभावी हैं तो इसका अप्रत्यक्ष लाभ (यानी गैर-टीकाकृत लोगों को लाभ) तभी देखा जा सकता है जब काफी लोगों को टीका लग जाए। जैसे इस्राइल में, जिसने अपनी जनसंख्या के बड़े हिस्से का टीकाकरण कर लिया है। कुछ अन्य क्षेत्रों में टीके के प्रभावी होने के संकेत उन विशेष समूहों में देखे जा सकते हैं जिनमें व्यापक टीकाकरण किया गया है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि नॉर्वे जैसे देशों में टीकों के प्रभाव का पता लगाना काफी मुश्किल होगा जहां पहले से ही वायरस को काफी हद तक नियंत्रित किया जा चुका है। लेकिन डीन के अनुसार टीकों के असर को अन्य उपायों (जैसे लॉकडाउन और सामाजिक दूरी) के प्रभावों से अलग करके परखना मुश्किल होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पांच हज़ार वर्ष पहले देश-विदेश में खाद्य विनिमय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

म सिल्क रूट या रेशम मार्ग से तो वाकिफ हैं ही, जो चीन और मध्य एशिया को दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया से जोड़ता है। हम यह भी जानते हैं कि 4000 साल पूर्व (2000 ईसा पूर्व) कैसे इन क्षेत्रों के बीच व्यापार शुरू हुआ। उस वक्त बेबीलोन (फरात नदी के पास के क्षेत्र) में हम्मुराबी राजा का शासन था जहां प्रजा के लिए सख्त नैतिक कानून थे। इस संदर्भ में, पीटर फ्रेंकओपन द्वारा लिखित एक उल्लेखनीय और पठनीय किताब है दी सिल्क रोड्स: ए न्यू हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड (रेशम मार्ग: दुनिया का नवीन इतिहास)।

इस किताब में उन्होंने बताया है कि उससे भी बहुत पहले कांस्य युग में (3000 ईसा पूर्व यानी आज से लगभग 5000 साल पहले) पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र के बीच व्यापार शुरू हो चुका था और उनके बीच सांस्कृतिक सम्बंध भी थे। तब, भूमध्यसागरीय क्षेत्र के लोग मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया के लोगों के साथ व्यापार करते थे। इन जगहों पर वे घोड़े, ऊंट और गधे लेकर गए। इसी प्रकार से वे खाड़ी क्षेत्रों से होते हुए भारत से भी जुड़े। और गेहूं, चावल, दाल, तिल, केला, सोयाबीन और हल्दी जैसे ‘विदेशी’ (गैर-देशी) खाद्य पदार्थों का व्यापार किया।

कांस्य युग के शव

अच्छी बात है कि लेवंट क्षेत्र (बिलाद-अलशाम) के अध्ययन में इस्राइल, फिलिस्तीन, लेबनान, जॉर्डन और सीरिया सहित एक बड़े इलाके की कब्राों में कांस्य युगीन लोगों के शव दफन पाए गए। इस्राइल, जर्मनी, स्पेन, यूके और यूएस के एक शोध दल द्वारा इन शवों का अध्ययन किया गया। दिसंबर 2020 में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में एक काफी रोमांचक पेपर प्रकाशित हुआ था: 2000 ईसा पूर्व दक्षिण एशिया और पूर्वी क्षेत्रों के बीच के संपर्क दर्शाते विदेशी खाद्य पदार्थ। इसे आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं। https://doi.org/10.1073/pnas.2014956117..

प्राचीन साहित्यिक स्रोत बताते हैं कि 3000 ईसा पूर्व लंबी दूरी की यात्राएं हुआ करती थीं और गधों जैसे जानवरों का परिवहन हुआ करता था – मिस्र से दक्षिणी लेवंट (आज के इस्राइल, फिलिस्तीन, जॉर्डन, सीरिया) और अम्मान, अलेप्पो, बेरूत और दमिश्क के शहरों के बीच, और यहां तक कि इटली और मेसोपोटामिया (ईरान, सीरिया और तुर्की) के बीच। वानस्पतिक साक्ष्य पुष्टि करते हैं कि कांस्य युग (2000-1500 ईसा पूर्व) में दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों से तरबूज़े-खरबूज़े, नींबू जाति के फलों और अन्य फलों के पेड़ों का आदान-प्रदान होता था। यहां भूमध्यसागरीय व्यंजनों के प्रमाण भी मिले हैं, और सिंधु घाटी सभ्यता और दक्षिण एशियाई क्षेत्र, जैसे इंडोनेशिया से दक्षिणी लेवंट – खासकर मध्य कांस्य युगीन स्थल जैसे इस्राइल, फिलिस्तीन, लेबनान और सीरिया – के बीच व्यापार के साक्ष्य भी हैं।

दंत पथरी

इस क्षेत्र में दो स्थलों, मेगिडो और तेल एरानी को अध्ययन के लिए चुना गया। शोध समूह इस क्षेत्र के कब्रगाह, कब्रिस्तान और मकबरों का अध्ययन कर सकते थे। इन स्थानों से 16 नमूने (कब्र) मिलीं, जिसमें से उन्हें हज़ारों वर्ष पूर्व मृत लोगों की हड्डियां प्राप्त हुर्इं। उन्होंने इन शवों के दांतों, खासकर जबड़े को जोड़ने वाले निचले दांतों, का विस्तार से अध्ययन किया। इस विश्लेषण को ‘दंत कलन’ कहते हैं। (वैसे इसमें कलन शब्द का गणित से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए आप इस भ्रम में न रहें कि यहां शोधकर्ताओं ने कोई उन्नत गणितीय विश्लेषण किया होगा!) यहां कलन का मतलब शव कंकाल के दांतों के प्रोटीन विश्लेषण से है, जो किसी व्यक्ति द्वारा खाए गए भोजन के बारे में जानकारी देता है – खासकर दांतों में फंस कर रह गए वानस्पतिक खाद्य के बारे में। इन वानस्पतिक खाद्य को फायटोलिथ्स कहते हैं (‘फायटो’ यानी पौधा और ‘लिथ’ यानी दांत में फंसे पौध खाद्य के ऊतक का जीवाश्म)।

शोधकर्ताओं ने मेगिडो और तेल एरानी के कब्रागाहों से प्राप्त 16 शवों के दंत कलन का विश्लेषण किया। और विश्लेषण में दंत कलन में बाजरा, खजूर, फूलधारी पौधे, घास और गेहूं, चावल, तिल, जौ, सोयाबीन, केला अदरक और हल्दी जैसे खाद्य पौधे उपस्थित पाए।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने दंत कलन का प्रोटिओम विश्लेषण किया। प्रोटिओम विश्लेषण हमें खाद्य पदार्थ या वनस्पति की कोशिकाओं में व्यक्त प्रोटीन के पूरे समूह के बारे में बताता है। इस विश्लेषण में वेनीला, दालचीनी, जायफल, चमेली, लौंग और काली मिर्च मौजूद पाए गए, जिससे पता चलता है कि दक्षिण-पूर्व और भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के बीच, और काला सागर-मृत सागर क्षेत्र में कांस्य युग (3000-1200 ईसा पूर्व) के समय से ही और लौह युग (500 ईसा पूर्व) में व्यापार मार्ग मौजूद था।

भारत में, विशेषकर देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में, कांस्य युगीन जानकारी पुरातत्वविदों और इतिहासकारों द्वारा अच्छी तरह से दर्ज की गई है। (इस क्षेत्र के दक्षिणी भाग में कांस्य युगीन विवरण के लिए अभी भी अध्ययन जारी हैं)। सिंधु घाटी सभ्यता पहले ही पाषाण युग से कांस्य युग (3300-1300 ईसा पूर्व) में प्रवेश कर गई थी। धातुकर्म का अभ्यास किया जाता था।

2600 ईसा पूर्व के आसपास सिंधु घाटी सभ्यता, मोहनजो-दाड़ो और हड़प्पा के शहरों में अपने शहरीकरण के लिए अच्छी तरह से पहचानी जाती है, जो अब पाकिस्तान में है। फिर भारत के उत्तर-पश्चिमी इलाके में लिखित ग्रंथों, कृषि, जल प्रबंधन, खगोल विज्ञान और दर्शन का उपयोग दिखता है। इस पर और अधिक जानकारी इस वेबसाइट से प्राप्त की जा सकती है: study.com/academy/lesson/the-bronze-age-in-india-history-culture-technology.html। कृषि में, हम देखते हैं कि बाजरा, चावल, गेहूं, घास उगाए जाते थे। प्रोद्योगिकी में, जल प्रबंधन किया जाता था। व्यापार में, इस क्षेत्र और मध्य एशिया, मेसोपोटामिया और दक्षिणी लेवंट के बीच व्यापार किया जाता था। और यह सब रेशम मार्ग बनने के बहुत पहले हो रहा था। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया सहेजेंगे डिजिटल जानकारी

मौजूदा डिजिटल स्टोरेज डिवाइसेस में कई टेराबाइट डैटा सहेजा जा सकता है। किंतु नई टेक्नॉलॉजी आने पर ये तकनीकें पुरानी पड़ जाती हैं और इनसे डैटा पढ़ना मुश्किल हो जाता है, जैसा कि मैग्नेटिक टेप और फ्लॉपी डिस्क के साथ हो चुका है। अब, वैज्ञानिक जीवित सूक्ष्मजीव के डीएनए में इलेक्ट्रॉनिक रूप से डैटा लिखने की कोशिश में हैं।

डैटा सहेजने के लिए डीएनए कई कारणों से आकर्षित करता है। पहला तो यह कि डीएनए हमारी सबसे कॉम्पैक्ट हार्ड ड्राइव से भी हज़ार गुना ज़्यादा सघन है; नमक के एक दाने के बराबर टुकड़े में यह 10 डिजिटल फिल्में सहेज सकता है। दूसरा, चूंकि डीएनए जीव विज्ञान का केंद्र बिंदु है इसलिए उम्मीद है कि डीएनए को पढ़ने-लिखने की तकनीक समय के साथ सस्ती और अधिक बेहतर हो जाएंगी।

वैसे डीएनए में डैटा सहेजना कोई बहुत नया विचार नहीं है। शुरुआत में शोधकर्ता डीएनए में डैटा सहेजने के लिए डिजिटल डैटा (0 और 1) को चार क्षार – एडेनिन, गुआनिन, साइटोसीन और थायमीन – के संयोजनों के रूप में परिवर्तित करते थे। डीएनए संश्लेषक की मदद से यह परिवर्तित डैटा डीएनए में लिखा जाता था। यदि कोड बहुत लंबा हो तो डीएनए सिंथेसिस की सटीकता पर फर्क पड़ता है, इसलिए डैटा को छोटे-छोटे हिस्सों (200 से 300 क्षार लंबे डैटा खंड) में तोड़कर डीएनए में लिखा जाता है। प्रत्येक डैटा खंड को एक इंडेक्स नंबर दिया जाता है, जो अणु में उसका स्थान दर्शाता है। डीएनए सीक्वेंसर की मदद से डैटा पढ़ा जाता है। लेकिन यह तकनीक बहुत महंगी है; एक मेगाबिट डैटा लिखने में लगभग ढाई लाख रुपए लगते हैं। और डीएनए जिस पात्र में सहेजा जाता है वह समय के साथ खराब हो सकता है।

इसलिए टिकाऊ और आसानी से लिखे जाने वाले विकल्प के रूप में पिछले कुछ समय से शोधकर्ता सजीवों के डीएनए में डैटा सहेजने पर काम कर रहे हैं। कोलंबिया विश्वविद्यालय के तंत्र जीव विज्ञानी हैरिस वांग ने जब ई.कोली बैक्टीरिया की कोशिकाओं में फ्रुक्टोज़ जोड़ा तो उसके डीएनए के कुछ हिस्सों की अभिव्यक्ति में वृद्धि हुई।

फिर, क्रिस्पर की मदद से अधिक अभिव्यक्त होने वाले खंड को कई भागो में काट दिया और इनमें से कुछ को बैक्टीरिया के डीएनए के उस विशिष्ट हिस्से में जोड़ा जो पूर्व में हुए वायरस के हमलों को ‘याद’ रखता है। इस तरह जोड़ी गई जेनेटिक बिट डिजिटल 1 दर्शाती है। फ्रुक्टोज़ संकेत की अनुपस्थिति में डीएनए कोई रैंडम बिट सहेजता है जो डिजिटल 0 दर्शाती है। ई. कोली के डीएनए को अनुक्रमित कर डैटा पढ़ा जा सकता है।

लेकिन इस व्यवस्था में भी सीमित डैटा ही सहेजा जा सकता है इसलिए वांग की टीम ने फ्रुक्टोज़ की जगह इलेक्ट्रॉनिक संकेतों का उपयोग किया। उन्होंने ई. कोली बैक्टीरिया में कुछ जीन जोड़े जो विद्युत संकेत दिए जाने पर डीएनए की अभिव्यक्ति में वृद्धि करते हैं। अभिव्यक्ति में वृद्धि बैक्टीरिया के डीएनए में 1 सहेजती है। डीएनए को अनुक्रमित कर 0-1 के रूप में लिखा डैटा पढ़ा जा सकता है। नेचर केमिकल बायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि इस तकनीक की मदद से उन्होंने 72 बिट लंबा संदेश ‘हैलो वर्ल्ड!’ लिखा है। संदेशयुक्त ई. कोली को मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों के साथ भी जोड़कर उनमें डैटा सहेजा जा सकता है।

बैक्टीरिया में उत्परिवर्तन से डैटा में बदलाव या उसकी हानि हो सकती है, जिस पर काम करने की आवश्यकता है। बहरहाल यह तकनीक जासूसी फिल्मों-कहानियों को जानकारी छुपाने के एक और खुफिया तरीके का विचार तो देती ही है। (स्रोत फीचर्स)

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खाया-पीया पता करने की नई विधि

ल्द ही वैज्ञानिक दांतों में जमा टार्टर का विश्लेषण कर बता सकेंगे कि प्राचीन लोग किन (मादक) पदार्थों का सेवन किया करते थे। नई विकसित विधि से उन्नीसवीं सदी के कंकाल पर किए गए परीक्षण में शोधकर्ताओं को ड्रग्स के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा हाल ही में मृत 10 शवों पर मानक रक्त परीक्षण विधि से किए गए ड्रग परीक्षण की तुलना में नई विधि से अधिक ड्रग्स की उपस्थिति का पता चला है।

अब तक, खुदाई में प्राप्त धूम्रपान या मद्यपान के पात्रों में जमा अवशेषों के आधार पर प्राचीन मनुष्यों की औषधियों और मादक पदार्थों के सेवन की आदतों के बारे में पता किया जाता था। लेकिन इस तरह के विश्लेषण में अक्सर उन ड्रग्स का पता नहीं चलता जिनके सेवन के लिए पात्रों की ज़रूरत नहीं पड़ती जैसे भ्रांतिजनक मशरूम। इसके अलावा पात्रों के विश्लेषण से यह भी पता नहीं चलता कि सेवन किसने किया था।

लीडेन युनिवर्सिटी के पुरातत्वविद ब्योर्न पियरे बार्थहोल्डी का अनुमान था कि उन्नीसवीं सदी में, जब डॉक्टर नहीं थे, ग्रामीण अपनी बीमारियों और दर्द का इलाज स्वयं ही करते होंगे। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने कंकालों के दांतों पर जमा कठोर परत से प्राचीन लोगों के आहार की पड़ताल करने वाली एक तकनीक का सहारा लिया। दांतों पर जमा इस कठोर परत को टार्टर कहते हैं। टार्टर में खाते-पीते वक्त भोजन, पेय या अन्य पदार्थ के कुछ कण फंस जाते हैं, जो जीवाश्मो में लगभग 10 लाख सालों तक बने रह सकते हैं।

लेकिन अफीम, भांग और अन्य औषधियों के फंसे हुए अवशेषों के बारे में पता करने की कोई मानक विधि नहीं थी। इसलिए शोधकर्ताओं ने ऑरहस युनिवर्सिटी के फॉरेंसिक डेंटिस्ट डॉर्थे बाइंडस्लेव की मदद से जीवित या हाल ही में मृत लोगों के रक्त या बालों के नमूनों में ड्रग्स की उपस्थिति का पता लगाने की मानक विधि में बदलाव कर कंकालों में ड्रग्स की उपस्थिति पता लगाने की एक नई विधि विकसित की।

शोधकर्ताओं ने टार्टर का मुख्य खनिज हाइड्रॉक्सीएपैटाइट लिया और उसमें कैफीन, निकोटीन और कैनबिडिओल जैसे वैध ड्रग्स नपी-तुली मात्रा मिलाए और ऑक्सीकोडोन, कोकीन और हेरोइन जैसे कुछ प्रतिबंधित ड्रग्स मिलाए। फिर इन नमूनों की उन्होंने मास स्पेक्ट्रोमेटी की। इस तरह मिश्रण में उन्हें 67 ड्रग्स और ड्रग के पाचन से बने पदार्थ मिले। मास स्पेक्ट्रोमेट्री में पदार्थ के आवेश और भार के अनुपात के आधार पर विभिन्न रसायनों का पता लगाया जाता है।

इसके बाद उन्होंने हाल ही में मृत 10 शवों में नई परीक्षण विधि से ड्रग्स की उपस्थिति जांची और इन परिणामों की तुलना रक्त आधारित मानक ड्रग परीक्षण के नतीजों से की। फॉरेंसिक साइंस इंटरनेशनल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार नई विधि से इन शवों में हेरोइन, हेरोइन मेटाबोलाइट और कोकीन सहित 44 ड्रग्स और मेटाबोलाइट्स मिले, जो मानक रक्त परीक्षण में मिले कुल ड्रग्स से थोड़े अधिक थे।

अब तक परीक्षणों में रक्त से ड्रग्स गायब हो जाने के बाद बालों के नमूनों से ड्रग्स के सेवन या उपस्थिति के बारे में पता किया जाता था। चूंकि टार्टर ड्रग्स सेवन का लंबे समय तक रिकॉर्ड रख सकता है इसलिए अब बालों की जगह टार्टर का उपयोग ड्रग्स की उपस्थिति पता करने के लिए किया जा सकता है। इससे ड्रग्स उपयोग के इतिहास को दोबारा लिखने में मदद मिल सकती है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि नई विधि अच्छी तो है और इसमें रेत के एक कण से भी छोटे नमूने से काम चल जाता है, लेकिन इसके लिए एक अत्यधिक संवेदनशील मास स्पेक्ट्रोमीटर की ज़रूरत पड़ती है जो सामान्य प्रयोगशालाओं में उपलब्ध नहीं होते। इसके अलावा इस विधि से परीक्षण के बाद नमूने नष्ट हो जाते हैं। कुछ रसायन टार्टर के भीतर भी समय के साथ विघटित हो जाते हैं। इसके अलावा, इस विधि में वे पौधे भी छूट गए हैं जो किसी समय में प्राचीन लोगों द्वारा मादक, उत्तेजक और औषधियों के रूप में उपयोग किए जाते थे, लेकिन आधुनिक समय में उपयोग नहीं किए जाते या इनके बारे में मालूम नहीं है। लेकिन इस काम के आधार पर हम तकनीक को और अच्छी तरह विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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2020: वैश्विक तापमान का रिकॉर्ड

र्ष 2020 में महामारी के कारण लॉकडाउन से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की संभावना जताई गई थी। लेकिन हाल ही में नासा, यूके मौसम विभाग और अन्य संस्थानों की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में लगभग 1.25 डिग्री सेल्सियस अधिक है।

विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर 2020 का औसत वैश्विक सतही तापमान वर्ष 2016 के बराबर है। गौरतलब है कि वर्ष 2016 में एल-नीनो प्रभाव के कारण तापमान में वृद्धि हुई थी। एल-नीनो प्रभाव पूर्वी प्रशांत महासागर में गहरे ठंडे पानी के प्रभाव को रोक देता है जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है। दूसरी ओर, पिछले वर्ष प्रशांत महासागर में ला-नीना के कारण शीतलन हुआ था लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसके बावजूद औसत वैश्विक तापमान बढ़ा।

गत 6 वर्ष पिछले कई सालों में सबसे गर्म रहे हैं लेकिन वायुमंडल का गर्म होना अनियमित रहा है क्योंकि इसकी प्रकृति अव्यवस्थित है। देखा जाए तो महासागरों के गर्म होने का रुझान ज़्यादा नियमित रहा है, जो वैश्विक तापमान की 90 प्रतिशत से अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं। इस मामले में भी 2020 एक रिकॉर्ड वर्ष साबित हुआ। एडवांसेज़ इन एटमॉस्फेरिक साइंस में वैज्ञानिकों ने बताया है कि महासागरों की ऊपरी सतह में 2019 की अपेक्षा 2020 में 20 ज़ीटाजूल्स (1021 जूल्स) अधिक ऊष्मा थी। यह औसत वार्षिक वृद्धि से दोगुनी थी। चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के जलवायु वैज्ञानिक लीजिंग चेंग के अनुसार उपोष्णकटिबंधीय अटलांटिक महासागर विशेष रूप से गर्म रहा जिसके चलते काफी अधिक तूफान आए।

ऊष्मा का मापन 4000 रोबोट की सहायता से महासागरों में 2000 मीटर की गहराई तक किया गया। इससे पता चला कि गर्मी समुद्रों की गहराई तक पहुंच रही है और ध्रुवों तक फैल रही है। उत्तरी प्रशांत में अत्यधिक ग्रीष्म लहर से समुद्री जीवन काफी प्रभावित हुआ। पहली बार अटलांटिक के गर्म पानी को आर्कटिक महासागर की ओर बढ़ते देखा गया जिसने बर्फ को रिकॉर्ड निचले स्तर तक पिघलाया है। महासागरों के बढ़ते तापमान और बर्फ के पिघलने से समुद्र तल में सालाना 4.8 मिलीमीटर की वृद्धि हो रही है और वृद्धि की दर बढ़ भी रही है।

भूमि पर तो हालत और खराब रही। बर्कले अर्थ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2020 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर की तुलना में 1.96 डिग्री अधिक रहा। यह एशिया, युरोप और दक्षिण अमेरिका का अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा। रूस भी पिछले रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा जबकि साइबेरिया का इलाका पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 7 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा। इस बढ़े हुए तापमान के कारण व्यापक स्तर पर आग और पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से इमारतों के गिरने और तेल रिसाव के मामले भी सामने आए।

2020 की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया में भी रिकॉर्ड-तोड़ गर्मी और सूखे से व्यापक स्तर पर आग के मामले सामने आए। इस आग से दक्षिण-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के लगभग एक-चौथाई जंगल जल गए और 3000 घर तबाह हुए। इसी बीच अमेरिका में पहले से ही काफी गर्म दक्षिण पश्चिमी भाग भी काफी तेज़ी से गर्म हुआ। एरिज़ोना राज्य स्थित फीनिक्स शहर में औसत 36 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया। यहां साल 2016 के बाद से गर्मी के कारण होने वाली मौतों ने एक नया रिकॉर्ड बनाया है। एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के जलवायु विज्ञानी डेविड होंडुला के अनुसार वर्ष 2020 में गर्मी से 300 लोगों की मौत हुई जो पिछले वर्ष की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक है।

हालांकि, कोविड-19 जनित आर्थिक मंदी से कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में लगभग 7 प्रतिशत की कमी देखी गई लेकिन, हमारे वातावरण में बढ़ी हुई कार्बन डाईऑक्साइड काफी समय से मौजूद है और पूर्व के उत्सर्जनों का भी काफी प्रभाव मौजूद है। आने वाले समय में उत्सर्जन में कमी की संभावना काफी कम है। यूके मौसम विभाग का अनुमान है कि मई में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर कई हफ्तों तक 417 पीपीएम रहेगा जो पूर्व-औद्योगिक स्तर से 50 प्रतिशत अधिक है। जलवायु विज्ञानियों के अनुसार उत्सर्जन में कमी लाने के लिए देशों को सख्त कदम उठाने होंगे।

यदि वैश्विक तापमान में वृद्धि इसी तरह से जारी रहती है तो इसे पेरिस जलवायु समझौते में निर्धारित लक्ष्यों (2035 और 2065 तक क्रमश: 1.5 डिग्री सेल्सियस और 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि) तक सीमित रखना काफी मुश्किल हो जाएगा। पिछले कई दशकों से तापमान में प्रति दशक 0.19 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके तेज़ी से बढ़ने की आशंका है। सवाल यह है कि क्या हम इस पर काबू पा सकेंगे? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0122NID_Siberia_Wildfire_online.jpg?itok=y56X4-ub

व्हाट्सऐप: निजता हनन की चिंताएं – सोमेश केलकर

व्हाट्सऐप फिलहाल भारी पलायन का सामना कर रहा है। निजता के प्रति चिंतित उपयोगकर्ता तब से और चिंता में पड़ गए हैं जब से व्हाट्सऐप ने उपयोगकर्ताओं से यह मांग की कि वे 8 फरवरी तक या तो उसकी नई निजता नीति को स्वीकार कर लें या व्हाट्सऐप का उपयोग बंद कर दें। गौरतलब है कि यह पहली बार नहीं है कि व्हाट्सऐप ने अपनी जानकारी को मूल कंपनी फेसबुक के साथ साझा करने के लिए अपनी निजता नीति में परिवर्तन किए हैं। यह समझने के लिए कि चल क्या रहा है, हमें पीछे लौटकर फरवरी 2014 में झांकना होगा जब फेसबुक ने व्हाट्सऐप को 22 अरब डॉलर में खरीदा था।

जब फेसबुक पहली बार व्हाट्सऐप का अधिग्रहण करने पर विचार कर रही थी, उस समय निजता सम्बंधी कार्यकर्ताओं ने इस बात को लेकर चिंता ज़ाहिर की थी कि इस तरह के अधिग्रहण से व्हाट्सऐप और फेसबुक के बीच डैटा साझेदारी की संभावना बढ़ जाएगी। इन चिंताओं को विराम देने के लिए व्हाट्सऐप के अधिकारियों ने यह वचन दिया था कि वे कभी भी फेसबुक के साथ जानकारी साझा नहीं करेंगे। इस तरह के आश्वासन के बाद युरोपीय आयोग, संघीय व्यापार आयोग तथा अन्य नियामक संस्थाओं ने फेसबुक द्वारा व्हाट्सऐप के अधिग्रहण को हरी झंडी दिखा दी थी।

अब हम पहुंचते हैं अगस्त 2016 में। व्हाट्सऐप ने घोषणा की कि वह अपनी कुछ जानकारी फेसबुक के साथ साझा करेगा। इसमें उपयोगकर्ताओं के फोन नंबर तथा अंतिम गतिविधि से सम्बंधित जानकारी शामिल थी। व्हाट्सऐप ने कहा था कि निजता नीति में इन परिवर्तनों के बाद फेसबुक उपयोगकर्ताओं को सर्वोत्तम मित्र सम्बंधी सुझाव दे सकेगी और उनके लिए प्रासंगिक विज्ञापन भी दिखा सकेगी। उपयोगकर्ताओं को इसे स्वीकार करने के लिए 30 दिन का समय दिया गया था और यदि 30 दिनों में इसे अस्वीकार न करते तो उनके पास जानकारी की साझेदारी को मंज़ूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। इसके अलावा, अगस्त 2016 के बाद जुड़ने वाले उपयोगकर्ताओं को तो कोई विकल्प ही नहीं दिया गया था – उन्हें तो फेसबुक के साथ जानकारी साझा करने की बात को स्वीकार करना ही था।

जिन नियामकों ने निजता नीति को बरकरार रखने के व्हाट्सऐप के उपरोक्त आश्वासन के बाद फेसबुक द्वारा अधिग्रहण को स्वीकृति दी थी, उन्हें यह दोगलापन रास नहीं आया। 2017 में युरोपीय आयोग ने अधिग्रहण के समय भ्रामक जानकारी देने के सम्बंध में फेसबुक पर 11 करोड़ यूरो का जुर्माना लगाया था। तब फेसबुक ने कहा था कि उसके पास व्हाट्सऐप और फेसबुक के उपयोगकर्ताओं को आपस में जोड़ने की तकनीकी सामथ्र्य ही नहीं है। 2016 से पहले भी जर्मनी तथा युनाइटेड किंगडम के डैटा सुरक्षा अधिकारियों ने फेसबुक को निर्देश दिए थे कि वह व्हाट्सऐप के उपयोगकर्ताओं का डैटा संग्रह करना बंद कर दे।

भारत में नीति परिवर्तन

भारत में व्हाट्सऐप के नीतिगत परिवर्तन एक पॉप-अप के रूप में सामने आए जिसमें उपयोगकर्ताओं को सूचित किया गया था कि व्हाट्सऐप की निजता नीति बदल गई है और उन्हें 8 फरवरी तक इन परिवर्तनों को स्वीकार करना होगा अथवा व्हाट्सऐप का उपयोग पूरी तरह बंद कर देना होगा। हालांकि अधिकांश उपयोगकर्ताओं ने ‘एग्री’ यानी सहमति पर क्लिक कर दिया ताकि इस पॉप-अप से छुटकारा मिले और वे संदेश भेजने का काम जारी रख सकें। अलबत्ता कुछ लोगों ने इस पॉप-अप में निजता नीति में किए जा रहे परिवर्तनों पर ध्यान दिया और पाया कि ये परिवर्तन काफी परेशान करने वाले हो सकते हैं क्योंकि ये उपयोगकर्ता की निजता को जोखिम में डाल सकते हैं।

इस संदर्भ में एलोन मस्क ने ट्विटर पर लिखा कि लोगों को एक अन्य मेसेजिंग सॉफ्टवेयर ‘सिग्नल’ पर चले जाना चाहिए क्योंकि वह ज़्यादा सुरक्षित है और जानकारी इकट्ठी नहीं करता। इस ट्वीट के बाद दुनिया भर में लोग व्हाट्सऐप को छोड़कर ‘टेलीग्राम’ तथा ‘सिग्नल’ जैसे ऐप्स पर जाने लगे हैं।

नीतिगत परिवर्तन क्या हैं?

नई नीति में कहा गया है कि अब व्हाट्सऐप नैदानिक व निजी जानकारी एकत्रित करता है जिसे फेसबुक के साथ साझा किया जा सकता है।

नई नीति के अनुसार व्हाट्सऐप का एकीकरण फेसबुक व इंस्टाग्राम के साथ किया जाएगा जिसके अंतर्गत इन तीनों के बीच जानकारी का आदान-प्रदान भी संभव है।

व्हाट्सऐप उपयोगकर्ताओं की जानकारी फेसबुक के स्वामित्व वाली अन्य बिज़नेस कंपनियों के साथ भी साझा कर सकेगा।

पहले निजता सम्बंधी नीति में कहा गया था, “आपके व्हाट्सऐप संदेशों की जानकारी फेसबुक पर साझा नहीं की जाएगी जहां इसे अन्य लोग देख सकें; दरअसल फेसबुक आपके व्हाट्सऐप संदेशों का उपयोग हमें सेवाओं में मदद देने के अलावा किसी अन्य उद्देश्य से नहीं करेगा।” यह हिस्सा वर्तमान नीतिगत संशोधन में विलोपित कर दिया गया है जिसका मतलब है कि व्हाट्सऐप के चैट्स का इस्तेमाल सेवा को बेहतर बनाने के अलावा अन्य कार्यों में भी किया जा सकता है।

नई निजता नीति वैश्विक संचालन तथा डैटा हस्तांतरण को भी विस्तार देती है। इसमें यह भी शामिल है कि कुछ जानकारियों का उपयोग आंतरिक रूप से फेसबुक की कंपनियों के साथ और अन्य पार्टनर्स तथा सेवा प्रदाताओं के साथ किस तरह किया जाएगा।

फेसबुक की कंपनियों और अन्य पार्टनर्स के साथ व्हाट्सऐप जो जानकारी साझा करता है, उसमें निम्नलिखित शामिल है:

1. फोन नंबर

2. डिवाइस की पहचान

3. भौगोलिक स्थिति

4. उपयोगकर्ता के संपर्क

5. उपयोगकर्ता की वित्तीय जानकारी

6. प्रोडक्ट्स सम्बंधी क्रियाकलाप

7. उपयोगकर्ता द्वारा भेजी गई तस्वीरें, संदेश वगैरह

8. उपयोगकर्ता के पहचान के लक्षण

व्हाट्सऐप द्वारा उपयोगकर्ताओं की निजता सम्बंधी नई नीतियों के खिलाफ ऑनलाइन आक्रोश शुरू होने के साथ ही, व्हाट्सऐप इस नई नीति को स्वीकार्य बनाने के लिए ऐसे बयान जारी करने लगा कि यह नई नीति मात्र उन संवादों को प्रभावित करेंगी जो कोई उपयोगकर्ता व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ करता है। अलबत्ता, ये बयान लीपापोती से ज़्यादा कुछ नहीं हैं।

व्हाट्सऐप मेसेजिंग प्लेटफॉर्म पर इस समय 5 करोड़ से ज़्यादा व्यापारिक खाते हैं। इसके चलते सारा डैटा इन व्यापार प्रतिष्ठानों के हाथ आ जाएगा। नीति में यह भी कहा गया है कि उपयोगकर्ता जो बातचीत व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ साझा करेंगे वह कंपनी के अंदर भी और कई अन्य पार्टियों द्वारा देखी जा सकेगी।

तो क्या?

इस सबका मतलब यह है कि व्हाट्सऐप कंपनी न सिर्फ उपयोगकर्ता की बातचीत को किसी तीसरे पक्ष के साथ साझा कर सकती है, बल्कि वह तीसरा पक्ष यह भी जांच कर सकता है कि उपयोगकर्ता क्या-क्या खरीदता है वगैरह। इस जानकारी के आधार पर फेसबुक, इंस्टाग्राम तथा अन्य विज्ञापन बनाए जा सकेंगे।

यह भी हो सकता है कि उपयोगकर्ता को इस तरह के लक्षित विज्ञापन अन्य वेबसाइट्स पर भी दिखने लगें, जो शायद फेसबुक से सम्बंधित न हों। ऐसे अधिकांश लक्षित विज्ञापन निशुल्क सोशल मीडिया के विश्लेषण से उभरते हैं। ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अपनी जानकारी व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बेचते हैं। इसका मतलब यह भी है कि उपयोगकर्ता की किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान से बातचीत सुरक्षित नहीं होगी और यदि उस व्यापारिक प्रतिष्ठान का डैटा लीक हुआ तो उपयोगकर्ता का खाता क्रमांक, मेडिकल जानकारी वगैरह अन्य प्रतिष्ठानों के हाथ लग सकती है।

इसके बाद है मेटा-डैटा के उपयोग का सवाल। व्हाट्सऐप काफी समय से मेटा-डैटा एकत्रित करता आ रहा है। मेटा-डैटा वह डैटा होता है जो वास्तविक डैटा के बारे में जानकारी प्रदान करता है। जैसे, यदि कोई उपयोगकर्ता व्हाट्सऐप पर बार-बार किसी स्त्रीरोग विशेषज्ञ से संपर्क करे, तो चाहे आपको संदेशों की विषयवस्तु न मालूम हो, पर आप अंदाज़ तो लगा ही सकते हैं कि उसे किस तरह की चिकित्सा समस्या है। इस तरह के मेटा-डैटा को साझा करना भी उपयोगकर्ता की निजता का उल्लंघन है।

क्या किया जाए?

व्हाट्सऐप की वर्तमान नीति-परिवर्तन अधिसूचना के मुताबिक 8 फरवरी के बाद व्हाट्सऐप का उपयोग जारी रखने के लिए उपयोगकर्ता को उक्त नीतिगत परिवर्तनों को स्वीकार करना होगा। लगता तो है कि इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता। उपयोगकर्ता को दो में से एक विकल्प चुनना होगा – या तो इन परिवर्तनों को माने या व्हाट्सऐप का उपयोग बंद कर दे।

व्हाट्सऐप या फेसबुक खाते की एक विशेषता यह भी है कि इन्होंने जो जानकारी एकत्रित कर ली है वह अपने आप मिट नहीं जाती। अर्थात यदि आप निजता की चिंता करते हैं, तो एकमात्र विकल्प यही होगा कि आप इन खातों का उपय़ोग करना बंद कर दें। यही होने भी लगा है।

निजता सम्बंधी इन परिवर्तनों की घोषणा के बाद देखा गया है कि अन्य ऐप्स बढ़ती संख्या में डाउनलोड किए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए टेलीग्राम के मासिक डाउनलोड में 15 प्रतिशत और सिग्नल के डाउनलोड में 9000 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। शायद व्हाट्सऐप द्वारा निजता में लगाई जा रही सेंध का यही सबसे अच्छा समाधान है। ये दोनों ऐप्स (टेलीग्राम और सिग्नल) दोनों सिरों पर कूटबद्ध होते हैं और ऐसी जानकारी एकत्रित नहीं करते जिससे किसी उपयोगकर्ता की पहचान की जा सके।

देखना यह है कि क्या व्हाट्सऐप अखबारों, सोशल मीडिया व अन्यत्र पड़ रहे दबाव के जवाब में अपनी नीति बदलता है और क्या व्हाट्सऐप छोड़कर जा रहे लोगों की संख्या उसे पुनर्विचार को बाध्य कर पाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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