बोतल से दूध पिलाने की प्रथा हज़ारों सालों से है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब्रिस्टल विश्वविद्यालय, ब्रिटेन की जूली डन के नेतृत्व में युरोप के  पुरातत्वविदों की एक टीम ने काफी दिलचस्प रिपोर्ट प्रस्तुत की है। “Milk of ruminants in ceramic baby bottles from prehistoric child graves” (बच्चों की प्रागैतिहासिक कब्रों में सिरेमिक बोतलों पर जुगाली करने वाले जानवरों के दूध के अवशेष) शीर्षक से यह रिपोर्ट नेचर पत्रिका के 10 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित हुई है। इस टीम को बच्चों की प्राचीन कब्रों में शिशुओं की कुछ बोतलें मिली है जिनमें कुछ अंडाकार और हैंडल वाली हैं और कुछ बोतलों में टोंटी जैसी रचना है जिसके माध्यम से तरल पदार्थ को ढाला या चूसा जा सकता था। सबसे पुरानी बोतल युरोपीय नवपाषाण युग (लगभग 10,000 वर्ष पहले) की है जबकि अन्य बोतलें कांस्य और लौह युग (4000-1200 ईसा पूर्व) स्थलों से पाई गई हैं।       

नेचर की इस रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात और है। सिरेमिक से बनी शिशु बोतलों के अंदरूनी हिस्से पर कुछ कार्बनिक रसायन के अवशेष चिपके मिले जिनका विश्लेषण संभव था। टीम ने उन अवशेषों को अलग करके नवीनतम रासायनिक और वर्णक्रमदर्शी विधियों की मदद से उनमें उपस्थित अणुओं का विश्लेषण किया। सभी अवशेषों में वसा अम्ल (जैसे पामिटिक और स्टीयरिक अम्ल) पाए गए जो आम तौर पर गाय-भैंस, भेड़ या अन्य पालतू जानवरों के दूध में तो पाए जाते हैं लेकिन मानव दूध में नहीं। इस आधार पर टीम का निष्कर्ष है कि “रासायनिक प्रमाण और बच्चों की कब्रों में पाए गए विशेष रूप से बने तीन पात्र दर्शाते हैं कि इनका उपयोग शिशुओं और पूरक आहार के तौर पर बच्चों को (मानव दूध की बजाय) पशुओं का दूध पिलाने के लिए किया जाता था।”                    

पशु दूध की शुरुआत

उपरोक्त शोध पत्र में राशेल हॉउक्रॉफ्ट और स्टॉकहोम युनिवर्सिटी, स्वीडन की पुरातात्विक अनुसंधान प्रयोगशाला के अन्य लोगों द्वारा पूर्व में प्रस्तुत एक दिलचस्प रिपोर्ट “The Milky Way: The implications of using animal milk products in infant feeding” (दुग्धगंगा: शिशु आहार में जंतु दुग्ध उत्पादों के उपयोग के निहितार्थ) का उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका जर्नल में प्रकाशित हुई है [47-31-43 (2012)], जो नेट से फ्री डाउनलोड की जा सकती है। मेरी सलाह है कि इस विषय में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें। प्रसंगवश बताया जा सकता है कि एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका का अर्थ होता है मनुष्यों और अन्य जंतुओं के बीच अंतरक्रिया का अध्ययन।

मानव शिशुओं को पशुओं का दूध पिलाने की प्रथा जानवरों के पालतूकरण के बाद ही शुरू हुई होगी। पालतूकरण की शुरुआत तब हुई होगी जब मनुष्यों ने समुदाय में बसना शुरू किया तथा कृषि एवं अन्य कामों के लिए पशुओं का उपयोग करना शुरू किया। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत लगभग 12,000 वर्ष पहले नव-पाषाण युग में हुई थी; सबसे पहले मध्य-पूर्व में और उसके बाद पश्चिमी और मध्य एशिया तथा युरोप के कुछ हिस्सों में। सामुदायिक जीवन, कृषि और खेती की शुरुआत के बाद से कुत्ते, मवेशियों, बकरियों, ऊंटों (बाद में घोड़ों) को पालतू बनाकर उनको मानवीय ज़रूरतों के लिए उपयोग में लाया गया। उस समय मनुष्य शिकारी-संग्रहकर्ता हुआ करते थे और शिशुओं को दो वर्ष की आयु तक सिर्फ मां का दूध ही पिलाया जाता था।       

नव-पाषाण युग ने मानव व्यवहार को बदल डाला। संतानों की संख्या में वृद्धि हुई, महिलाओं के कार्य करने के तरीकों में बदलाव आए तथा शिशुओं में मां का दूध छुड़ाने की प्रक्रिया भी जल्दी होने लगी। जैसा हॉउक्रॉफ्ट और उनके सहकर्मियों का तर्क है, इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय तक मानव शिशुओं को पूरक भोजन के रूप में पशु का दूध दिया जाने लगा था। इसने माताओं को अपनी प्रजनन रणनीति को बदलने में भी समर्थ बनाया (कितने बच्चे, कितने समय में पैदा करें और कितनी जल्दी दूध छुड़ाएं)। 

हमने कुत्तों को लगभग 10,000-4400 ईसा पूर्व के आसपास, गाय और भेड़ों को लगभग 11,000-9000 ईसा पूर्व, ऊंटों तथा घोड़ों को लगभग 3000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया। हालांकि ऊपर बताए गए जीवों में से हम केवल गायों, बकरियों और भेड़ों के दूध का उपयोग करते हैं लेकिन अफ्रीकियों द्वारा ऊंटनी के दूध का भी उपयोग किया जाता था। दूध के लिए जुगाली करने वाले जीवों को पसंद करना वास्तव में आज़माइश और उपयुक्तता के अनुभव से आया है। जुगाली करने वाले प्राणियों में गाय-भैंस, भेड़, बकरी और ऊंट आते हैं। इनका पेट अलग-अलग भागों में बंटा होता है, जिसमें भोजन जल्दी से निगल लिया जाता है और बाद में जुगाली के बाद प्रथम आमाशय में जाता है जो इन जीवों का मुख्य पाचन अंग है। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमने कभी कुत्तों या घोड़ों के दूध का उपयोग नहीं किया है – पता नहीं क्यों?

जुगाली पशुओं का दूध

हॉउक्रॉफ्ट और उनकी टीम ने अपने पेपर में मानव और जुगाली करने वाले जीवों के दूध के संघटन की तुलना की है। मानव की तुलना में भेड़ के दूध में उच्च ठोस घटक होता है: कम पानी, कम कार्बोहाइड्रेट, अधिक प्रोटीन तथा लिपिड और भरपूर उर्जा। जहां उच्च प्रोटीन युक्त दूध बोतल से दूध पीने वाले शिशुओं में तेज़ विकास में मदद कर सकता है, वहीं यह एसिडिटी और अतिसार का कारण भी बन सकता है। भेड़ की तुलना में गाय के दूध में प्रोटीन और वसा की मात्रा थोड़ी कम होती है (हालांकि, मानव दूध की तुलना में तीन गुना अधिक होती है), फिर भी यह भेड़ के दूध के समान लक्षण पैदा कर सकता है। इसके साथ ही जुगाली करने वाले जीवों के दूध में कुछ ऐसे एंज़ाइम की कमी होती है जो मानव दूध में पाए जाते हैं। ये एंज़ाइम संक्रमण से लड़ने और ज़रूरी खनिज पदार्थों को अवशोषित करने में मदद करते हैं। कुछ सुरक्षात्मक और हानिकारक अंतरों के साथ, मानव दूध के स्थान पर पूरी तरह जुगाली-जीवों के दूध का उपयोग करने की बजाय इनका उपयोग पूरक के तौर पर करना बेहतर है। इसी चीज़ को शुरुआती मनुष्यों ने कर-करके सीखा होगा। इसी के आधार पर उन्होंने ‘फीडिंग बोतल’ और चीनी मिट्टी के पात्र बनाने तथा उपयोग करना शुरू किया होगा।    

शोधकर्ता आगे बताते हैं कि दूध से दही बनाकर इसे संरक्षित किया जा सकता है। यह लैक्टोज़ की मात्रा कम करता है और पाचन में मदद करता है। इसके पीछे एंज़ाइम लैक्टेज़ की भूमिका है। उनका निष्कर्ष है कि “प्रागैतिहासिक शिशुओं के लिए यह दुग्धगंगा शायद इतनी अच्छी न रही हो, लेकिन दही उनके लिए और लैक्टेज़ एंज़ाइम के प्रसार के लिए अच्छा रहा होगा।” 

गौरतलब है कि वसंत शिंदे और पुणे के कुछ सहयोगियों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता के स्थानों का व्यापक सर्वेक्षण किया था। उन्होंने 2500 ईसा पूर्व के कालीबंगन के हड़प्पा स्थल से सिरेमिक फीडिंग बोतल के ठोस सबूत पाए थे। हड़प्पावासियों ने भी अपने बच्चों को जानवरों के दूध का सेवन करवाया था। लेकिन वह पशु कौन-सा था? यदि हम इन बोतलों से कोई अवशेष प्राप्त करके अपनी प्रयोगशालाओं में विश्लेषण करने में कामयाब होते हैं तो यह काफी रोमांचक होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ब्रह्माण्ड में कई सौर मंडल हैं – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

र्षों कुछ समय पूर्व हबल नामक अंतरिक्ष दूरबीन से ब्राहृांड में स्थित 15 नवनिर्मित तारों के चारों ओर घूमते हुए गैस तथा धूल कणों से निर्मित तश्तरियों के चित्र खींचे गए हैं। खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार ये चित्र इस बात के स्पष्ट तथा सशक्त प्रमाण हैं कि हमारे सौर परिवार के बाहर भी ग्रहों का अस्तित्व है। सूर्य के अतिरिक्त अन्य तारों के चारों ओर ग्रहों के अस्तित्व की जानकारी मिलने से वैज्ञानिकों के इस अनुमान को भी सशक्त आधार प्राप्त होता है कि जीवन का अस्तित्व ब्रह्माण्ड में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य तारों के ग्रहों पर भी सम्भव है।

खगोलविदों के अनुसार हबल दूरबीन से प्राप्त चित्रों को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि लगभग चार अरब वर्ष पूर्व सूय के इर्द-गिर्द ग्रहों का निर्माण किस प्रकार हुआ होगा। हबल से प्राप्त चित्र कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ग्रहों की उत्पत्ति के सम्बंध में प्रस्तुत परिकल्पनाओं की पुष्टि करते हैं। ये चित्र इस बात का संकेत देते हैं कि किसी नवजात तारे के चारों ओर मौजूद धूल कण इतनी तेज़ी से घूमते रहते हैं कि नवजात तारे का आकर्षण उन्हें अपनी ओर खींच नहीं पाता है। इसकी बजाय वे नवजात तारे के चारों ओर तश्तरी की आकृति में फैलते जाते हैं। यही कण समय के साथ विभिन्न ग्रहों के रूप में परिणित होकर उस नवजात तारे का चक्कर लगाने लगते हैं।

उपरोक्त तथ्य का पता ह्रूस्टन स्थित राइस विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक रॉबर्ट ओ’डेल द्वारा लगाया गया तथा प्राप्त इसकी घोषणा नासा द्वारा की गई। रॉबर्ट ओ’डेल ने उपरोक्त तथ्य का पता हबल द्वारा प्राप्त ओरायन नेबुला के चित्रों के अध्ययन के आधार पर लगाया। हमसे लगभग 1500 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित यह नेबुला हमारे सौर मंडल का निकटतम पड़ोसी है। इन चित्रों से पता चलता है कि धूल कणों से निर्मित उपरोक्त तश्तरियां लगभग 15 नवजात तारों के चारों ओर उपस्थित हैं। इनमें से प्रत्येक नवजात तारा दस लाख वर्ष से कम उम्र का है। इन तारों के चारों ओर उपस्थित धूल कणों का आकार बालू के कणों के समान है। इन तश्तरियों में से कुछ तो इतनी चमकदार हैं कि उन्हें सीधे देखा जा सकता है। इन तश्तरियों के चित्रों के अध्ययन से पता चलता है कि उपरोक्त 15 नवजात तारों के चारों ओर अभी ग्रणों का निर्माण प्रारम्भ नहीं हुआ है परन्तु ग्रह निर्माण की परिस्थितियां तैयार हो रही हैं। तश्तरियों की आकृति वाले उपरोक्त सभी नेबुला हमारे सौर मंडल से अधिक मोटे तथा इससे बड़े व्यास वाले हैं। ओ’डेल का विचार है कि उपरोक्त सभी नेबुला में धूल कणों की मात्रा इतनी है कि उनसे हमारे सौर मंडल के ग्रहों के समान ग्रह बन सकते हैं।

ओरायन तारामंडल के अध्ययन से पता चलता है कि इसमें लगभग 40 प्रतिशत तारे ऐसे हैं जिनके इर्द-गिर्द तश्तरी के रूप में बिखरे धूल कण एवं गैस के बादल मौजूद हैं। एमहर्स्ट स्थित मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के खगोलविद स्टीफेन ई. स्ट्रॉम के अनुसार, चूंकि यह एक सामान्य निहारिका है, अत: इसके अधिकांश तारों के इर्द-गिर्द धूल कणों का तश्तरी की आकृति में सजना एक सामान्य घटना है। ओ’डेल का विश्वास है कि ओरायन निहारिका के अधिकांश तारों के इर्द-गिर्द ग्रह निर्माण के लिए आवश्यक पदार्थ मौजूद है। अत: किसी दिन इनके चारों और उसी प्रकार ग्रहों का निर्माण होगा जिस प्रकार हमारे सौर मंडल में हुआ था।

विगत वर्षों में खगोल वैज्ञानिकों को ऐसे संकेत प्राप्त हुए हैं जिनसे पता चलता है कि ग्रह निर्माण सम्बंधी उनका सिद्धांत सही है जिसके अनुसार सौर मंडल के ग्रहों का निर्माण उन कणों के आपस में संगठित होने से हुआ है जो सूर्य के चारों ओर उपस्थित तश्तरीनुमा बादल में मौजूद थे। इस बादल में उपस्थित गैस एवं कण ग्रहीय घूर्णन के नियम के अनुसार भ्रमण करते थे। इस प्रकार की तश्तरियों की उपस्थिति के प्रमाण अभी तक सिर्फ चार तारों के इर्द-गिर्द पाए गए थे। ये चार तारे हैं- 1. बीटा पिक्टोरिस 2. अल्फा लाइरी 3. अल्फा पायसिस ऑस्ट्रीनी, तथा 4. एप्सिलॉन एरिजनी। ये तारे ओरायन निहारिका में देखे गए तारों से पुराने हैं। बीटा पिक्टोरिस के चारों ओर उपस्थित पदार्थ के कण गिट्टियों के आकार के हैं।

हालांकि समय-समय पर कई वैज्ञानिकों ने अन्य तारों के आसपास ग्रहों की उपस्थिति के सम्बंध में अटकलें लगाई हैं, परन्तु उनकी पुष्टि नहीं हो पाई थी। अपने सौर मंडल के अतिरिक्त सिर्फ एक ग्रह मंडल की उपस्थिति के सम्बंध में कुछ स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। कुछ समय पूर्व कुछ रेडियो खगोलविदों ने घोषणा की थी कि एक नष्ट होते हुए तारे से उत्पन्न रेडियो तरंगों के विचलन के अध्ययन के आधार पर उस तारे के आसपास दो-तीन ग्रहों की उपस्थिति की पुष्टि होती है। ये ग्रह उपरोक्त नष्टप्राय तारे के अवशेष के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं। इस प्रकार के अवशिष्ट तारे को न्यूट्रॉन तारा या पल्सर कहा जाता है। यदि ये घूमते हुए पदार्थ सचमुच ग्रह हैं तो वैज्ञानिकों के अनुसार इन पर जीवन की उपस्थिति की संभावना बिलकुल नगण्य है।

हबल द्वारा लिए गए चित्रों से पता चलता है कि जिस आदिम बादल से तारे बन रहे हैं उसमें उच्च शक्ति वाले बड़े-बड़े बवंडर एवं भंवर मौजूद हैं। कुछ चित्रों से पता चलता है कि कणों की आंधी के कारण गैस पराध्वनि वेग से परों के गुच्छों की आकृति में खिंचा चला जा रहा है। निकट के गर्म तारे से प्राप्त विकिरण के कारण तारे की तश्तरी की सतह पर उपस्थित पदार्थ उबलने लगता है। परन्तु तश्तरी की सतह पर उठने वाली कणों की आंधी के कारण उबला हुआ पदार्थ पुन: धूमकेतु की पूंछ के समान वापस खिंच जाता है।

ग्रीष्म ऋतु में आकाश गंगा में एक हल्का नीला तारा दिखाई पड़ता है जिसका नाम है वेगा। यह तारा हमारी आकाश गंगा के दक्षिणी भाग में स्थित है। कुछ समय पूर्व किए गए अध्ययनों से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आए हैं। इन्फ्रारेड खगोलीय उपग्रह द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि वेगा के चारों ओर एक घेरा मौजूद है। खगोलविदों के अनुसार चट्टानों से निर्मित यह घेरा लगभग वैसा ही है जैसा हमारा सौर मंडल अपने विकास के प्रारम्भिक काल में था। कहने का तात्पर्य यह है कि वेगा के आसपास में उन क्रियाओं के संकेत मिले हैं जो हमारे सौर मंडल के आरम्भिक काल में आज से लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुई थी। इन्हीं क्रियाओं के फलस्वरूप हमारे सौर मंडल का जन्म हुआ था। इन क्रियाओं का महत्व इसलिए और भी अधिक है क्योंकि ये एक ऐसे तारे में घटित हो रही हैं जो हमसे केवल 27 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है।

अध्ययनों से पता चला है कि वेगा सूर्य से लगभग दुगना गर्म और लगभग 60 गुना अधिक प्रकाशमान है। यही कारण है कि खगोल शास्त्री इस तारे को एक मानक के रूप में लेते हैं। सन 1983 में पता चला कि वेगा सामान्य की अपेक्षा अधिक विकिरण उत्सर्जित करता है। शुरू-शुरू में वैज्ञानिकों ने समझा कि ये विकिरण वेगा के पीछे स्थित किसी निहारिका से आ रहे हैं। परंतु कुछ समय बाद अध्ययनों से मालूम हुआ कि वेगा एक घेरे में घिरा हुआ है। इस घेरे का तापमान 150 डिग्री सेल्सियस है और व्यास है 24 अरब किलोमीटर है। हमारे सौर मंडल का व्यास सिर्फ 12 अरब किलोमीटर है। अपने आसपास के धूल कणों को वेगा ने काफी पहले ही अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। खगोलविदों द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार वेगा की आयु अधिक से अधिक एक अरब वर्ष होनी चाहिए। अर्थात् वह एक नया तारा है। इसी कारण खगोलविद मानते हैं कि वेगा के चारों ओर का घेरा एक ग्रहीय प्रणाली है जो अभी विकास के प्रथम चरण में है। संसार भर के खगोल विज्ञानी ब्रह्माण्ड के अध्ययन में निरन्तर लगे हुए हैं। आशा है कि इन अध्ययनों के आधार पर ब्रह्माण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे तारों का पता लगाया जाएगा जिनके सूर्य के समान ही अपने-अपने ग्रहमंडल मौजूद हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व की ओर बढ़ता देश – अभय एस.डी. राजपूत

भारत सरकार, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) की तर्ज़ पर, विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (Scientific Social Responsibility) के लिए एक नई नीति लागू करने जा रही है। इस नई नीति का प्रारूप तैयार कर लिया गया है जिसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की वेबसाइट (www.dst.gov.in) पर टिप्पणियों के लिए उपलब्ध कराया गया है।

अगर यह नीति लागू हो जाती है तो विज्ञान के क्षेत्र में सामाजिक दायित्व के लिए ऐसी नीति बनाने वाला भारत दुनिया का संभवत: पहला देश होगा।

यह नीति भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों और वैज्ञानिकों को विज्ञान संचार और प्रसार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करेगी। ऐसा होने से वैज्ञानिकों और समाज के बीच संवाद बढ़ेगा जिससे दोनों के बीच ज्ञान आधारित खाई को भरा जा सकेगा। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में सुप्त पड़ी क्षमता का भरपूर उपयोग कर विज्ञान और समाज के बीच सम्बंधों को मज़बूत करना और देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है जिससे इस क्षेत्र को नई ऊर्जा मिल सके।

यह नीति वैज्ञानिक ज्ञान और संसाधनों तक जनमानस की पहुंच को सुनिश्चित करने और आसान बनाने के लिए एक तंत्र विकसित करने, वर्तमान और भावी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान के लाभों का उपयोग करने, तथा विचारों और संसाधनों को साझा करने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने, और सामाजिक समस्याओं को पहचानने एवं इनके हल खोजने के लिए सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में भी मार्गदर्शन करेगी। इस ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी  से सम्बंधित सभी संस्थानों और व्यक्तिगत रूप से सभी वैज्ञानिकों को उनके वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के बारे में जागरूक और प्रेरित करना होगा।

भारत सरकार ने पहले भी विज्ञान से सम्बंधित कुछ नीतियां बनाई हैं। वैज्ञानिक नीति संकल्प 1958, प्रौद्योगिकी नीति वक्तव्य 1983, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति 2003 और विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार नीति 2013 इनमें प्रमुख हैं। वर्तमान वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व नीति का प्रारूप भी इन नीतियों को आगे बढ़ाता है। हालांकि इस नई नीति में कुछ व्यावहारिक और प्रासंगिक प्रावधान हैं जिससे विज्ञान व प्रौद्योगिक संस्थानों और वैज्ञानिकों (यानी ज्ञानकर्मियों) को समाज के प्रति अधिक उत्तरदायी और ज़िम्मेदार बनाया जा सकता है।

ड्राफ्ट नीति के अनुसार प्रत्येक वैज्ञानिक को व्यक्तिगत रूप से अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए कम से कम 10 दिन प्रति वर्ष अवश्य देने होंगे। इसके अंतर्गत विज्ञान और समाज के बीच वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान में योगदान देना होगा। इस दिशा में संस्थागत स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर सही प्रयास हो सकें और ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहनों के साथ-साथ आवश्यक आर्थिक सहायता प्रदान करने का भी प्रावधान होगा। वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में जो वैज्ञानिक व्यक्तिगत प्रयास करेंगे उन्हें उनके वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन में उचित श्रेय देने का भी प्रस्ताव किया गया है।

इस नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि किसी भी संस्थान को अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व से सम्बंधित गतिविधियों और परियोजनाओं को आउटसोर्स या किसी अन्य को अनुबंधित करने की अनुमति नहीं होगी। अर्थात सभी संस्थानों को अपनी SSR गतिविधियों और परियोजनाओं को लागू करने के लिए अंदरूनी क्षमताएं विकसित करना होगा।

जब भारत में लगभग सभी विज्ञान व प्रौद्योगिक शोध करदाताओं के पैसे से चल रहा है, तो ऐसे में वैज्ञानिक संस्थानों का यह एक नैतिक दायित्व है कि वे समाज और अन्य हितधारकों को कुछ वापस भी दें। यहां पर हमें यह समझना होगा कि SSR न केवल समाज पर वैज्ञानिक प्रभाव के बारे में है, बल्कि यह विज्ञान पर सामाजिक प्रभाव के बारे में भी है। इसलिए SSR विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करेगा और समाज के लाभ के लिए विज्ञान का उपयोग करने में दक्षता लाएगा।

इस नीति दस्तावेज़ में समझाया गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में कार्यरत सभी ज्ञानकर्मियों का समाज में सभी हितधारकों के साथ ज्ञान और संसाधनों को स्वेच्छा से और सेवा भाव एवं जागरूक पारस्परिकता की भावना से साझा करने के प्रति नैतिक दायित्व ही वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (SSR) है। यहां, ज्ञानकर्मियों से अभिप्राय हर उस व्यक्ति से है जो ज्ञान अर्थव्यवस्था में मानव, सामाजिक, प्राकृतिक, भौतिक, जैविक, चिकित्सा, गणितीय और कंप्यूटर/डैटा विज्ञान और इनसे सम्बंधित प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भाग लेता है।

ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में SSR गतिविधियों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए DST में एक केंद्रीय और नोडल एजेंसी की स्थापना की जाएगी। इस नीति के एक बार औपचारिक हो जाने के बाद, केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों, राज्य सरकारों और S&T संस्थानों को अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार SSR को लागू करने के लिए अपनी योजना बनाने की आवश्यकता होगी। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों को अपने ज्ञानकर्मियों को समाज के प्रति उनकी नैतिक सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में संवेदनशील बनाने, SSR से सम्बंधित संस्थागत परियोजनाओं और व्यक्तिगत गतिविधियों का आकलन करने के लिए एक SSR निगरानी प्रणाली बनानी होगी और SSR गतिविधियों  पर आधारित एक वार्षिक रिपोर्ट भी प्रकाशित करनी होगी। संस्थागत और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर SSR गतिविधियों की निगरानी एवं मूल्यांकन के लिए उपयुक्त संकेतक विकसित किए जाएंगे जो इन गतिविधियों के प्रभाव को लघु-अवधि, मध्यम-अवधि और दीर्घ-अवधि के स्तर पर मापेंगे।

नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, एक राष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल की स्थापना की जाएगी जिस पर ऐसी सामाजिक समस्याओं का विवरण होगा जिन्हें वैज्ञानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह पोर्टल कार्यान्वयनकर्ताओं के लिए और SSR गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिए एक मंच के रूप में भी काम करेगा।

नई नीति के अनुसार सभी फंडिंग एजेंसियों को SSR का समर्थन करने के लिए:

क) व्यक्तिगत SSR परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करनी होगी,

ख) हर प्रोजेक्ट में SSR के लिए वित्तीय सहायता के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय करना होगा,

ग) वित्तीय समर्थन के लिए प्रस्तुत किसी भी परियोजना के लिए उपयुक्त SSR की आवश्यकता की सिफारिश करनी होगी।

यदि इसे ठीक से और कुशलतापूर्वक लागू किया जाता है, तो यह नीति विज्ञान संचार के मौजूदा प्रयासों को मज़बूत करते हुए, सामाजिक समस्याओं के लिए वैज्ञानिक और अभिनव समाधान लाने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगी। इस के साथ-साथ, क्षमता निर्माण, कौशल विकास के माध्यम से सभी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, ग्रामीण नवाचारों को प्रोत्साहित करने, महिलाओं और कमज़ोर वर्गों को सशक्त बनाने, उद्योगों और स्टार्ट-अप की मदद करने आदि में यह नीति योगदान दे सकती है। सतत विकास लक्ष्यों, पर्यावरण लक्ष्यों और प्रौद्योगिकी विज़न 2035 की प्राप्ति में भी यह नीति योगदान दे सकती है।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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युरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप है

हाल ही में वैज्ञानिकों ने दक्षिण युरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप खोजा है। ग्रेटर एड्रिया नामक यह महाद्वीप 14 करोड़ वर्ष पहले मौजूद था। शोधकर्ताओं ने इसका विस्तृत मानचित्र बनाया है।

साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, ग्रेटर एड्रिया 24 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना से टूटने के बाद उभरा था। गौरतलब है कि गोंडवाना वास्तव में अफ्रीका, अंटार्कटिका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अन्य प्रमुख भूखंडों से बना एक विशाल महाद्वीप था।

ग्रेटर एड्रिया काफी बड़ा था जो मौजूदा आल्प्स से लेकर ईरान तक फैला हुआ था। लेकिन यह पूरा पानी के ऊपर नहीं था। उट्रेक्ट विश्वविद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंसेज़ के प्रमुख वैन हिंसबरगेन और उनकी टीम ने बताया है कि यह छोटे-छोटे द्वीपों के रूप में नज़र आता होगा। उन्होंने लगभग 30 देशों में फैली ग्रेटर एड्रिया की चट्टानों को इकट्ठा कर इस महाद्वीप के रहस्यों को समझने की कोशिश की।

गौरतलब है कि पृथ्वी कई बड़ी प्लेटों से ढंकी हुई है जो एक दूसरे के सापेक्ष खिसकती रहती हैं। हिंसबरगेन बताते हैं कि ग्रेटर एड्रिया का सम्बंध अफ्रीकी प्लेट से था, लेकिन यह अफ्रीका महाद्वीप का हिस्सा नहीं थी। यह प्लेट धीरे-धीरे युरेशियन प्लेट के नीचे खिसकते हुए दक्षिणी युरोप तक आ पहुंची थी।

लगभग 10 से 12 करोड़ वर्ष पहले ग्रेटर एड्रिया युरोप से टकराया और इसके नीचे धंसने लगा। अलबत्ता कुछ चट्टानें काफी हल्की थीं और वे पृथ्वी के मेंटल में डूबने की बजाय एक ओर इकठ्ठी होती गर्इं। इसके फलस्वरूप आल्प्स पर्वत का निर्माण हुआ।

हिंसबरगेन और उनकी टीम ने इन चट्टानों में आदिम बैक्टीरिया द्वारा निर्मित छोटे चुंबकीय कणों के उन्मुखीकरण को भी देखा। बैक्टीरिया इन चुंबकीय कणों की मदद से खुद को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सीध में लाते हैं। बैक्टीरिया तो मर जाते हैं, लेकिन ये कण तलछट में बचे रह जाते हैं। समय के साथ यह तलछट चट्टान में परिवर्तित हो जाती और चुंबकीय कण उसी दिशा में फिक्स हो जाते हैं। टीम ने इस अध्ययन से बताया कि यहां की चट्टानें काफी घुमाव से गुजरी थीं।

इसके बाद के अध्ययन में टीम ने कई बड़ी-बड़ी चट्टानों को जोड़कर एक समग्र तस्वीर बनाने के लिए कंप्यूटर की मदद ली ताकि इस महाद्वीप का विस्तृत नक्शा तैयार किया जा सके और यह पुष्टि की जा सके कि यूरोप से टकराने से पहले यह थोड़ा मुड़ते हुए उत्तर की ओर बढ़ गया था।

इस खोज के बाद, हिंसबरगेन अब प्रशांत महासागर में लुप्त हुई अन्य प्लेट्स की तलाश कर रहे हैं। अध्ययन की जटिलता को देखते हुए, किसी निष्कर्ष के लिए 5-10 साल की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)
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तकनीक से बेहतर होता फिंगरप्रिंट विज्ञान – नवनीत कुमार गुप्ता

र्षों से व्यक्तियों की पहचान के लिए उंगलियों के निशान की मदद ली जाती रही है। बैंक, जीवन बीमा आदि अनेक स्थानों पर उंगलियों या अंगूठे के निशान लिए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि फिंगरप्रिंट विज्ञान का आरंभ प्राचीन काल में एशिया में हुआ था। भारतीय सामुद्रिक शास्त्र में शंख, चक्र तथा चापों का विचार भविष्य गणना में किया जाता रहा है। चीन में दो हज़ार वर्ष से भी पहले फिंगरप्रिंट का उपयोग व्यक्ति की पहचान के लिए होता था।

आधुनिक फिंगरप्रिंट विज्ञान का जन्म हम सन 1823 से मान सकते हैं, जब पोलैंड स्थित ब्रेसला विश्वविद्यालय के प्राध्यापक जोहान एवेंजेलिस्टा परकिंजे ने फिंगरप्रिंट के स्थायित्व को स्थापित किया था। वर्तमान फिंगरप्रिंट प्रणाली का प्रारंभ 1858 में इंडियन सिविल सर्विस के सर विलियम हरशेल ने बंगाल के हुगली ज़िले में किया था। 1892 में प्रसिद्ध अंग्रेज़ वैज्ञानिक सर फ्रांसिस गाल्टन ने फिंगरप्रिंट पर अपनी एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसमें उन्होंने हुगली के सब-रजिस्ट्रार श्री रामगति बंद्योपाध्याय द्वारा दी गई सहायता के लिए कृतज्ञता प्रकट की थी। उन्होंने फिंगरप्रिंट का स्थायित्व सिद्ध करते हुए उनके वर्गीकरण तथा उनका अभिलेख रखने की एक प्रणाली बनाई जिससे संदिग्ध व्यक्ति की ठीक से पहचान हो सके। किंतु यह प्रणाली कुछ कठिन थी। दक्षिण प्रांत (बंगाल) के पुलिस इंस्पेक्टर जनरल सर ई. आर. हेनरी ने उक्त प्रणाली में सुधार करके फिंगरप्रिंट के वर्गीकरण की सरल प्रणाली विकसित की। इसका वास्तविक श्रेय पुलिस सब-इंस्पेक्टर श्री अजीज़ुल हक को जाता है, जिन्हें सरकार ने 5000 रुपए का पुरस्कार भी दिया था। इस प्रणाली की अचूकता देखकर भारत सरकार ने 1897 में फिंगरप्रिंट द्वारा पूर्व दंडित व्यक्तियों की पहचान के लिए विश्व का प्रथम फिंगरप्रिंट कार्यालय कलकत्ता में स्थापित किया था।

फिंगरप्रिंट द्वारा पहचान दो सिद्धांतों पर टिकी है। एक तो यह कि दो व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट कभी एक-से नहीं हो सकते और दूसरा यह कि व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट जीवन भर ही नहीं अपितु जीवनोपरांत भी नहीं बदलते। अत: किसी भी विचाराधीन फिंगरप्रिंट को किसी व्यक्ति के फिंगरप्रिंट से तुलना करके यह निश्चित किया जा सकता है कि विचाराधीन फिंगरप्रिंट उसके हैं या नहीं। घटनास्थल की विभिन्न वस्तुओं पर अंकित फिंगरप्रिंट की तुलना संदिग्ध व्यक्ति के फिंगरप्रिंट से करके वह निश्चित किया जा सकता है कि अपराध किसने किया है।

अनेक अपराधी ऐसे होते हैं जो स्वेच्छा से अपने फिंगरप्रिंट नहीं देना चाहते। अत: कैदी पहचान अधिनियम, 1920 द्वारा भारतीय पुलिस को बंदियों के फिंगरप्रिंट लेने का अधिकार दिया गया है। भारत के प्रत्येक राज्य में एक सरकारी फिंगरप्रिंट कार्यालय है जिसमें दंडित व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट के अभिलेख रखे जाते हैं।

फिंगरप्रिंट का प्रयोग पुलिस विभाग तक ही सीमित नहीं है, अपितु अनेक सार्वजनिक कार्यों में यह अचूक पहचान के लिए उपयोगी साबित हुआ है। नवजात बच्चों की अदला-बदली रोकने के लिए विदेशों के अस्पतालों में प्रारंभ में ही शिशुओं की पद छाप तथा उनकी माताओं के फिंगरप्रिंट ले लिए जाते हैं।

आम तौर पर उंगलियों के निशान इंसानों के शरीर समेत किसी भी ठोस सतह पर पाए जा सकते हैं। जांच करने वाले फिंगरप्रिंट को तीन वर्गों में बांटते हैं। ये वर्गीकरण उस सतह के प्रकार पर निर्भर करता है, जिन पर वे पाए जाते हैं और देखे जा सकते हैं या अदृश्य रहते हैं। साबुन, वैक्स तथा गीले पेंट जैसी कोमल सतहों पर पाए जाने वाले उंगलियों के निशान त्रि-आयामी प्लाटिक निशान होते हैं। कठोर सतहों के निशान प्रत्यक्ष या छिपे हुए हो सकते हैं। जब रक्त, धूल, स्याही, पेंट आदि किसी उंगली से या अंगूठे से होकर सतह पर गिरता है तो प्रत्यक्ष या दिखने वाले निशान बनते हैं। ऐसे निशान, चिकनी, खुरदरी, छिद्रयुक्त या बिना छिद्रयुक्त सतहों पर पाए जा सकते हैं। शरीर से उत्पन्न प्राकृतिक तेल या त्वचा का पसीना किसी दूसरी सतह पर जमा होता है तो छिपे हुए या अदृश्य निशान बनते हैं। इंसानों की उंगलियों की टोपोलॉजी के मुताबिक वे किसी सतह के संपर्क में आने पर अनोखे निशान बनाती हैं। लिहाजा अपने अनोखेपन तथा पैटर्न की पेचीदगी के चलते अपराध विज्ञान में व्यक्तिगत पहचान के लिए उंगलियों के निशान सर्वश्रेष्ठ सुराग होते हैं।

अब तक पारंपरिक विधियों में चिकनी या बिना छिद्र वाली सतह पर काला पाउडर डालकर विभिन्न प्रकाशीय तस्वीरें खींचने की विधियों से सफलतापूर्वक उंगलियों के निशान प्राप्त किए जाते थे। लेकिन प्रकाशीय तस्वीरों से जांच की विधियों में कुछ खामियां थीं। उंगलियों के निशान तलाशने से जुड़ी सभी संभावित खामियों को दूर करने के लिए दुर्गापुर के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में भौतिकी विभाग की सूक्ष्म विज्ञान प्रयोगशाला में प्रोफेसर पथिक कुम्भकार के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक विधि विकसित की है। इस विधि में पारंपरिक विधियों की खामियों को दूर कर स्मार्ट फोन की मदद से उंगलियों के निशान तलाशने के लिए सूक्ष्म प्रौद्योगिकी पर आधारित एक अनोखा पदार्थ विकसित किया गया है।

प्रोफेसर कुम्भकार के अनुसार “अपराध विज्ञान समेत विभिन्न शाखाओं में सूक्ष्म विज्ञान तकनीकी के विस्तृत अनुप्रयोग हैं। इनमें उंगलियों के छिपे हुए निशान तलाशना हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। हमने तांबा तथा मैंगनीज़ आधारित एक द्विआयामी जिंक सल्फाइड तैयार किया है। इस पदार्थ का उपयोग उंगलियों के छिपे निशान तलाशने के लिए किया जाता है।”

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दुर्गापुर के निदेशक प्रोफेसर अनुपम बसु के अनुसार “यह एक बेहतरीन कार्य है तथा विकास की दिशा में वास्तविक कदम है। इसके द्वारा अपराध वैज्ञानिक कार्यों के लिए उंगलियों के निशान प्राप्त करने में मदद मिलेगी।” इस तकनीक में सूक्ष्म पदार्थ का उपयोग किया जाता है, जो तस्वीर को सटीक तथा सुरक्षित बनाता है। प्रोफेसर पथिक तथा उनकी टीम के द्वारा किया गया यह कार्य निश्चित रूप से प्रशंसनीय है, जिसमें सूक्ष्म विज्ञान तथा अपराध वैज्ञानिक जांच के क्षेत्र के लिए भारी संभावना है।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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छछूंदर: तौबा ये मतवाली चाल

वैसे तो छछूंदर ज़मीन में तेज़ी से बिल बनाने के लिए जानी जाती हैं, लेकिन अब पता चला है कि उनके चलने का तरीका भी अन्य चौपाया जानवरों से अलग है। कुत्ता या बिल्ली जैसे अन्य रीढ़धारी चौपाया जानवरों के पैर चलते वक्त उनके शरीर के नीचे रहते हैं। लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि छंछूदर चलते वक्त अपने आगे के दो पैर सामने की ओर फैलाए रखती है, जिससे चलते वक्त बिल की दीवारों से टकराने की संभावना कम रहती है।

छछूंदर कैसे चलती हैं यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने एक्स-रे मशीन के साथ एक हाई स्पीड कैमरा जोड़ा और उसकी मदद से प्लास्टिक सुरंग में चलती एक ईस्टर्न छछूंदर (Scalopus aquaticus) की चाल को रिकॉर्ड किया। वीडियो का अध्ययन करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि चलते समय छछूंदर के पैर हमेशा सामने की ओर फैले रहते हैं और उनका बाकी का शरीर इनके पीछे रहता है। दरअसल आगे बढ़ने के लिए छछूंदर अपनी छठी उंगली या फाल्स थंब (हथेली के पास उभरी उंगली समान रचना) को ज़मीन पर टेकती हैं और इसकी मदद से अपने शरीर को आगे बढ़ाती हैं, बिलकुल उसी तरह जिस तरह लाठी टेककर चलने वाला व्यक्ति आगे बढ़ता है। इस तरीके से चलने में ज़मीन के साथ कम-से-कम संपर्क बनता है, वैसे ही जैसे तेज़ दौड़ते व्यक्ति के पैर पलभर के लिए ही ज़मीन पर पड़ते हैं। इस तरह की चाल पैर सामने फैलाए रखने में मदद करती है। चूंकि संकरे बिल में चलते वक्त मुड़े हुए अंगों के साथ बिल की दीवारों से टकराने की संभावना रहती है, जिससे बिल नष्ट हो सकता है इसलिए सामने की ओर पैर फैले होने से दीवारों से टकराने से की संभावना कम हो जाती है और बिल सलामत रहता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बिल में रहने वाले छछूंदर जैसे जीवों के चलने के तरीकों को समझ कर, बेहतर बचाव और राहत रोबोट डिज़ाइन करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शरीर के अंदर शराब कारखाना

हाल में बीएमजे ओपन गैस्ट्रोएंटरोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एक 46 वर्षीय व्यक्ति आत्म-शराब उत्पादन सिंड्रोम (एबीएस) से ग्रस्त पाया गया। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आंत में उपस्थित सूक्ष्मजीव कार्बोहाइड्रेट्स को नशीली शराब में बदल देते हैं। गेहूं, चावल, शकर, आलू वगैरह के रूप में कार्बोहाइड्रेट हमारे भोजन का प्रमुख हिस्सा होते हैं। ऐसे में जब इस विकार से ग्रस्त व्यक्ति शकर या अधिक कार्बोहाइड्रेट्स युक्त भोजन या पेय पदार्थों का सेवन करता है, तब उसकी हालत किसी नशेड़ी के समान हो जाती है। 

इस रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ. फहाद मलिक के अनुसार उक्त व्यक्ति कार्य करने में काफी असमर्थ होता था, खासकर भोजन करने के बाद। इन लक्षणों की शुरुआत वर्ष 2011 में हुई थी जब उसे अंगूठे की चोट के कारण एंटीबायोटिक दवाइयां दी गई थीं। डॉक्टरों ने ऐसी संभावना जताई है कि एंटीबायोटिक्स के सेवन से आंत के सूक्ष्मजीवों की आबादी (माइक्रोबायोम) को क्षति पहुंची होगी। उसमें निरंतर अस्वाभाविक रूप से आक्रामक व्यवहार देखा गया और यहां तक कि उसे नशे में गाड़ी चलाने के मामले में गिरफ्तारी भी झेलनी पड़ी जबकि उसने बूंद भर भी शराब का सेवन नहीं किया था।

इसी दौरान उसके किसी रिश्तेदार को ओहायो में इसी तरह के एक मामले के बारे में पता चला और उसने ओहायो के डॉक्टरों से परामर्श किया। डॉक्टरों ने उस व्यक्ति के मल का परीक्षण शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति देखने के लिए किया। इसमें सेकरोमायसेस बूलार्डी (Saccharomyces boulardii) और सेकरोमायसेस सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) पाए गए। दोनों शराब बनाने वाले खमीर हैं। पुष्टि के लिए डॉक्टरों ने उसे कार्बोहाइड्रेट्स का सेवन करने को कहा। आठ घंटे बाद, उसके रक्त में अल्कोहल की सांद्रता बढ़कर 0.05 प्रतिशत हो गई जिससे इस विचित्र निदान की पुष्टि हुई।  

आखिरकार स्टेटन आइलैंड स्थित रिचमंड युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर, न्यू यॉर्क में उपचार के दौरान डॉक्टरों ने उसे एंटीबायोटिक दवाइयां देकर दो महीने तक निगरानी में रखा। इस उपचार के बाद शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की संख्या कम तो हुई लेकिन कार्बोहाइड्रेट युक्त खुराक लेने पर समस्या फिर बिगड़ गई। इसके बाद उसकी आंत में बैक्टीरिया को बढ़ावा देने के लिए प्रोबायोटिक्स दिए गए जो काफी सहायक सिद्ध हुआ और धीरे-धीरे वह आहार में कार्बोहाइड्रेट्स शामिल कर सका – नशे और लीवर क्षति से डरे बिना। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क स्वयं की मौत को नहीं समझता

क स्तर पर हर कोई जानता है कि वह मरने वाला है। इस्राइल के बार इलान विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं की परिकल्पना थी कि जब बात खुद की मृत्यु की आती है तब हमारे मस्तिष्क में ऐसा कुछ है जो “पूर्ण समाप्ति, अंत, शून्यता” जैसे विचारों को समझने से इन्कार करता है।   

इस्राइल के एक शोधकर्ता याइर डोर-ज़िडरमन का यह अध्ययन एक ओर मृत्यु के शाश्वत सत्य और मस्तिष्क के सीखने के तरीके के बीच तालमेल बैठाने का एक प्रयास है। उनका मानना है कि हमारा मस्तिष्क ‘पूर्वानुमान करने वाली मशीन’ है जो पुरानी जानकारी का उपयोग करके भविष्य में वैसी ही परिस्थिति में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगाता है। यह जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण है। एक सत्य यह है कि एक न एक दिन हम सबको मरना है। तो हमारे मस्तिष्क के पास कोई तरीका होना चाहिए कि वह स्वयं हमारी मृत्यु का अनुमान लगा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है।

इस विषय पर अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने 24 लोगों को चुना और यह समझने की कोशिश की कि स्वयं उनकी मृत्यु के मामले में उनके मस्तिष्क का पूर्वानुमान तंत्र कैसे काम करता है।

ज़िडरमैन और उनकी टीम ने मस्तिष्क के एक विशेष संकेत पर ध्यान दिया जो ‘अचंभे’ का द्योतक होता है। यह संकेत दर्शाता है कि मस्तिष्क पैटर्न को देख रहा है और उनके आधार पर भविष्यवाणी कर रहा है। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी व्यक्ति को संतरे के तीन चित्र दिखाते हैं और फिर उसके बाद एक सेब का चित्र दिखाते हैं तब मस्तिष्क में ‘अचंभे’ का संकेत पैदा होता है क्योंकि पूर्व पैटर्न के आधार पर भविष्यवाणी संतरा देखने की थी।  

टीम ने वालंटियर्स को चेहरों की तस्वीरें दिखार्इं – या तो उनका अपना या किसी अजनबी का। इन सभी तस्वीरों के साथ कुछ नकारात्मक शब्द या मृत्यु से जुड़े शब्द, जैसे ‘कब्र’ जोड़े गए थे। इसी दौरान मैग्नेटोएनसेफेलोग्राफी की मदद से इन वालंटियर्स की मस्तिष्क की गतिविधियों को मापा गया।  

किसी चेहरे को मृत्यु सम्बंधी शब्दों से जोड़ना सीखने के बाद, वालंटियर्स को एक अलग चेहरा दिखाया गया। ऐसा करने पर उनके मस्तिष्क में ‘अचंभा’ संकेत देखा गया। क्योंकि उन्होंने एक विशिष्ट अजनबी चेहरे के साथ मृत्यु की अवधारणा को जोड़ना सीख लिया था, एक नया चेहरा दिखाई देने पर वह आश्चर्यचकित थे। 

लेकिन एक दूसरे परीक्षण में वालंटियर्स को मृत्यु शब्द के साथ उनकी अपनी तस्वीर दिखाई गई। इसके बाद जब उनको एक अलग चेहरे की तस्वीर दिखाई गई तब मस्तिष्क ने ‘अचंभा’ संकेत नहीं दिया। यानी जब एक व्यक्ति को खुद की मौत से जोड़ने की बात आई तब उसके भविष्यवाणी तंत्र ने काम करना बंद कर दिया।  

दिक्कत यह है कि जैव विकास की प्रक्रिया में चेतना का जन्म हुआ और इसके साथ ही हम समझने लगे कि मृत्यु अवश्यंभावी है। कुछ सिद्धांतकारों के अनुसार, मृत्यु के बारे में जागरूकता से प्रजनन की संभावना कम हो सकती है क्योंकि आप मौत से डरकर जीवन साथी चुनने के लिए आवश्यक जोखिम नहीं उठाएंगे। एक परिकल्पना है कि दिमाग के विकास के साथ मौत जैसी वास्तविकता से इन्कार करने की क्षमता विकसित होना अनिवार्य था। अध्ययन के निष्कर्ष जल्द ही न्यूरोइमेज जर्नल में प्रकाशित किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
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दा विंची द्वारा डिज़ाइन किया गया सबसे लंबा पुल

लियोनार्डो दा विंची बहुज्ञानी व्यक्ति थे जिन्होंने अपने समय के पर्यवेक्षकों को कई विषयों में फैले अपने जटिल डिज़ाइनों से प्रभावित किया था। वैसे तो दा विंची मोनालिसा और लास्ट सपर जैसी प्रसिद्ध पेंटिंग्स के लिए जाने जाते हैं, लेकिन उनका एक काम ऐसा भी है जिससे काफी कम लोग परिचित हैं। 16वीं सदी में दा विंची ने ओटोमान साम्राज्य के लिए उस समय के सबसे लंबे पुल का डिज़ाइन तैयार किया था।        

1502 में सुल्तान बेज़िद द्वितीय ने कॉन्स्टेनटिनोपल (आजकल का इस्तांबुल) से गलाटा तक पुल तैयार करने के प्रस्ताव आमंत्रित किए थे। एक प्रस्ताव दा विंची का भी था लेकिन जाने-माने कलाकार और आविष्कारक होने के बाद भी उनके डिज़ाइन को स्वीकार नहीं किया गया। हाल ही में एमआईटी के शोधकर्ताओं ने यह परखने की कोशिश की है कि यदि इस पुल का निर्माण होता तो यह कितना मज़बूत होता। 

शोधकर्ताओं ने 500 वर्ष पहले उपलब्ध निर्माण सामग्री और औज़ारों तथा उस इलाके की भूवैज्ञानिक स्थितियों पर विचार करते हुए पुल का प्रतिरूप तैयार किया। इस अध्ययन में शामिल एमआईटी की छात्र कार्ली बास्ट के अनुसार उस समय पत्थर ही एक ऐसा विकल्प था जिसके उपयोग से पुल को मज़बूती मिल सकती थी। शोधकर्ताओं ने यह भी माना कि पुल बिना किसी गारे के केवल पत्थरों की मदद से खड़ा रहने के लिए डिज़ाइन किया गया था।   

पुल की मज़बूती को जांचने के लिए, टीम ने 126 3-डी ब्लाक तैयार किए जो पुल के हज़ारों पत्थरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका मॉडल दा विंची की डिज़ाइन से 500 गुना छोटा था, जो लगभग 280 मीटर लंबा रहा होगा। हालांकि यह आधुनिक पुलों की तुलना में बहुत छोटा होता लेकिन यह अपने समय का सबसे लंबा पुल होता।

टीम ने बताया कि उस समय बनाए जाने वाले अधिकांश पुल अर्ध-वृत्ताकार मेहराब के रूप में तैयार किए जाते थे जिनमें 10 या उससे अधिक खम्बों की आवश्यकता होती थी। लेकिन दा विंची का डिज़ाइन एक ही मेहराब से बना था जिसे ऊपर से सपाट किया गया था। इसके नीचे से पाल वाली नावें आसानी से गुज़र सकती थी। टीम ने पुल का निर्माण करते समय मचान का सहारा दिया था लेकिन आखिरी पत्थर रखते ही मचान को हटा दिया गया। दिलचस्प बात यह रही कि पुल खड़ा रहा। शोधकर्ताओं के अनुसार यह अपने ही वज़न के दबाव से खड़ा है। दा विंची जानते थे कि इस क्षेत्र में भूकंप का भी खतरा है, इसलिए डिज़ाइन में ऐसी संरचनाएं (एबटमेंट्स) बनाई थीं जो इसके किनारों पर किसी भी प्रकार की हरकत होने पर पुल को स्थिर रखें।

इस परीक्षण पर ध्यान दिया जाए तो यह बात स्पष्ट है कि दा विंची ने इस विषय में काफी सोचने-समझने के बाद यह डिज़ाइन तैयार किया होगा। 

टीम ने अपने परिणामों को बार्सिलोना, स्पेन में आयोजित इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर शेल एंड स्पेशियल स्ट्रक्चर्स सम्मेलन में प्रस्तुत किया है। (स्रोत फीचर्स)
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सबसे ज्यादा चांद बृहस्पति नहीं शनि के पास हैं – प्रदीप

हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने हमारे सौर मंडल में शनि ग्रह के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते 20 नए चंद्रमाओं (प्राकृतिक उपग्रहों) की खोज की है। इन नए चंद्रमाओं को मिलाकर अब शनि के पास कुल 82 चांद हो गए हैं। इसके पहले तक सबसे ज़्यादा 79 चांद होने का तमगा सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के पास था। अब नए चंद्रमाओं के साथ शनि ने प्राकृतिक उपग्रहों के मामले में बृहस्पति से बाज़ी मार ली है। और इसी के साथ हमारे सौरमंडल में विभिन्न ग्रहों के चंद्रमाओं की कुल संख्या 210 हो गई है।

अमेरिका के कार्नेगी इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ के अंतरिक्ष विज्ञानी स्कॉट एस. शेफर्ड के नेतृत्व में खगोल विज्ञानियों की एक टीम ने शनि के नए उपग्रहों की खोज हवाई द्वीप में स्थित सुबारू टेलीस्कोप की मदद से की है। शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले इन नए चंद्रमाओं का व्यास तकरीबन 5-5 किलोमीटर है। इनमें से तीन चांद शनि की परिक्रमा उसी दिशा में कर रहे हैं जिस दिशा में शनि स्वयं अपने अक्ष पर घूर्णन करता है। इसे प्रोग्रेड परिक्रमा कहते हैं। अन्य 17 चांद उसकी विपरीत दिशा में (रेट्रोग्रेड) चक्कर लगा रहे हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक तीन चांद जो शनि की दिशा में ही उसकी परिक्रमा कर रहे हैं, उनमें से दो चांद तीसरे की तुलना में इस ग्रह के नजदीक हैं। इन दो चंद्रमाओं को शनि की परिक्रमा करने में दो साल का समय लगता है, जबकि तीसरे को बहुत ज़्यादा दूर होने की वजह से तीन साल का समय लगता है। शनि की विपरीत दिशा में चक्कर लगा रहे बाकी 17 चंद्रमाओं को भी शनि की परिक्रमा पूरी करने में तीन-तीन साल का वक्त लगता है।  इस खोज का खुलासा इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल यूनियन के माइनर प्लैनेट सेंटर द्वारा किया गया है।

इस खोज के लिए साल 2004 से 2007 के बीच जटिल आंकड़ों के विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर प्रणाली का उपयोग किया गया, जिसमें सुबारू टेलिस्कोप की भी सहायता ली गई। संभावित चंद्रमाओं की पहचान के लिए नए डैटा का पुराने डैटा के साथ मिलान किया गया और तब जाकर एस. शेफर्ड और उनकी टीम ने 20 नए चंद्रमाओं की कक्षाओं को सुनिश्चित करने में सफलता प्राप्त की।

एस. शेफर्ड के मुताबिक “यह पता करना बेहद मज़ेदार था कि शनि चांद की संख्या के मामले में सौर मंडल का सरताज बन गया है।” वे मज़ाकिया लहजे में कहते हैं कि “बृहस्पति एक मामले में खुद को सांत्वना दे सकता है कि उसके पास अभी भी सौर मंडल के सभी ग्रहों में सबसे बड़ा चांद है।” बृहस्पति ग्रह का चांद गैनिमेड आकार में तकरीबन पृथ्वी से आधा है। खगोल विज्ञानियों ने शनि का चक्कर लगाने वाले 5 किलोमीटर व्यास वाले और बृहस्पति का चक्कर लगाने वाले 1.6 किलोमीटर व्यास वाले छोटे चांदों का पता लगा लिया है। भविष्य में इनसे छोटे खगोलीय पिंडों के बारे में पता लगाने के लिए और बड़ी दूरबीनों की ज़रूरत होगी। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले छोटे-छोटे चांदों की संख्या 100 से भी अधिक हो सकती है, जिनकी खोज अभी जारी है।

खोजे गए सभी चांद उन चीज़ों के अवशेष से निर्मित हैं जिनसे स्वयं ग्रहों का निर्माण हुआ था। ऐसे में इनका अध्ययन करने से खगोल विज्ञानियों को ग्रहों के निर्माण के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, हो सकता है कि ये छोटे-छोटे चांद किसी बड़े चांद के टूटने से बने हों। एस. शेफर्ड के मुताबिक, ये छोटे चांद अपने मुख्य चांद से टूट कर भी शनि की परिक्रमा करने में सक्षम हैं, जो कि बहुत महत्वपूर्ण बात है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन से यह भी पता लगाया है कि शनि की उल्टी दिशा में परिक्रमा कर रहे चांद अपने अक्ष पर उतना ही झुके हुए हैं, जितना इनसे पहले खोजे गए चांद हैं। इससे इस संभावना को और बल मिलता है कि ये सभी चांद एक बड़े चांद के टूटने से बने हैं। शेफर्ड कहते हैं, इस तरह के बाहरी चंद्रमाओं का समूह बृहस्पति के आसपास भी दिखाई देता है। इससे लगता है कि इनका निर्माण शनि तंत्र में चंद्रमाओं के बीच या बाहरी चीज़ों (क्षुद्रग्रहों या धूमकेतुओं) के साथ टकराव के चलते हुआ होगा।

बहरहाल, कार्नेगी इंस्टीट्यूट ने इन नए चंद्रमाओं को नाम देने के लिए एक ऑनलाइन कॉन्टेस्ट (प्रतियोगिता) का आयोजन किया है। इनके नाम उनके वर्गीकरण के आधार पर तय किए जाने हैं। वैज्ञानिक यह भी जानने में लगे हैं कि क्या सौरमंडल से बाहर के किसी अन्य ग्रह के इर्द-गिर्द परिक्रमारत इससे भी अधिक चांद हैं। फिलहाल चांद के मामले में हमारे सौरमंडल का सरताज शनि ही है! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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