युरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप है

हाल ही में वैज्ञानिकों ने दक्षिण युरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप खोजा है। ग्रेटर एड्रिया नामक यह महाद्वीप 14 करोड़ वर्ष पहले मौजूद था। शोधकर्ताओं ने इसका विस्तृत मानचित्र बनाया है।

साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, ग्रेटर एड्रिया 24 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना से टूटने के बाद उभरा था। गौरतलब है कि गोंडवाना वास्तव में अफ्रीका, अंटार्कटिका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अन्य प्रमुख भूखंडों से बना एक विशाल महाद्वीप था।

ग्रेटर एड्रिया काफी बड़ा था जो मौजूदा आल्प्स से लेकर ईरान तक फैला हुआ था। लेकिन यह पूरा पानी के ऊपर नहीं था। उट्रेक्ट विश्वविद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंसेज़ के प्रमुख वैन हिंसबरगेन और उनकी टीम ने बताया है कि यह छोटे-छोटे द्वीपों के रूप में नज़र आता होगा। उन्होंने लगभग 30 देशों में फैली ग्रेटर एड्रिया की चट्टानों को इकट्ठा कर इस महाद्वीप के रहस्यों को समझने की कोशिश की।

गौरतलब है कि पृथ्वी कई बड़ी प्लेटों से ढंकी हुई है जो एक दूसरे के सापेक्ष खिसकती रहती हैं। हिंसबरगेन बताते हैं कि ग्रेटर एड्रिया का सम्बंध अफ्रीकी प्लेट से था, लेकिन यह अफ्रीका महाद्वीप का हिस्सा नहीं थी। यह प्लेट धीरे-धीरे युरेशियन प्लेट के नीचे खिसकते हुए दक्षिणी युरोप तक आ पहुंची थी।

लगभग 10 से 12 करोड़ वर्ष पहले ग्रेटर एड्रिया युरोप से टकराया और इसके नीचे धंसने लगा। अलबत्ता कुछ चट्टानें काफी हल्की थीं और वे पृथ्वी के मेंटल में डूबने की बजाय एक ओर इकठ्ठी होती गर्इं। इसके फलस्वरूप आल्प्स पर्वत का निर्माण हुआ।

हिंसबरगेन और उनकी टीम ने इन चट्टानों में आदिम बैक्टीरिया द्वारा निर्मित छोटे चुंबकीय कणों के उन्मुखीकरण को भी देखा। बैक्टीरिया इन चुंबकीय कणों की मदद से खुद को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सीध में लाते हैं। बैक्टीरिया तो मर जाते हैं, लेकिन ये कण तलछट में बचे रह जाते हैं। समय के साथ यह तलछट चट्टान में परिवर्तित हो जाती और चुंबकीय कण उसी दिशा में फिक्स हो जाते हैं। टीम ने इस अध्ययन से बताया कि यहां की चट्टानें काफी घुमाव से गुजरी थीं।

इसके बाद के अध्ययन में टीम ने कई बड़ी-बड़ी चट्टानों को जोड़कर एक समग्र तस्वीर बनाने के लिए कंप्यूटर की मदद ली ताकि इस महाद्वीप का विस्तृत नक्शा तैयार किया जा सके और यह पुष्टि की जा सके कि यूरोप से टकराने से पहले यह थोड़ा मुड़ते हुए उत्तर की ओर बढ़ गया था।

इस खोज के बाद, हिंसबरगेन अब प्रशांत महासागर में लुप्त हुई अन्य प्लेट्स की तलाश कर रहे हैं। अध्ययन की जटिलता को देखते हुए, किसी निष्कर्ष के लिए 5-10 साल की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तकनीक से बेहतर होता फिंगरप्रिंट विज्ञान – नवनीत कुमार गुप्ता

र्षों से व्यक्तियों की पहचान के लिए उंगलियों के निशान की मदद ली जाती रही है। बैंक, जीवन बीमा आदि अनेक स्थानों पर उंगलियों या अंगूठे के निशान लिए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि फिंगरप्रिंट विज्ञान का आरंभ प्राचीन काल में एशिया में हुआ था। भारतीय सामुद्रिक शास्त्र में शंख, चक्र तथा चापों का विचार भविष्य गणना में किया जाता रहा है। चीन में दो हज़ार वर्ष से भी पहले फिंगरप्रिंट का उपयोग व्यक्ति की पहचान के लिए होता था।

आधुनिक फिंगरप्रिंट विज्ञान का जन्म हम सन 1823 से मान सकते हैं, जब पोलैंड स्थित ब्रेसला विश्वविद्यालय के प्राध्यापक जोहान एवेंजेलिस्टा परकिंजे ने फिंगरप्रिंट के स्थायित्व को स्थापित किया था। वर्तमान फिंगरप्रिंट प्रणाली का प्रारंभ 1858 में इंडियन सिविल सर्विस के सर विलियम हरशेल ने बंगाल के हुगली ज़िले में किया था। 1892 में प्रसिद्ध अंग्रेज़ वैज्ञानिक सर फ्रांसिस गाल्टन ने फिंगरप्रिंट पर अपनी एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसमें उन्होंने हुगली के सब-रजिस्ट्रार श्री रामगति बंद्योपाध्याय द्वारा दी गई सहायता के लिए कृतज्ञता प्रकट की थी। उन्होंने फिंगरप्रिंट का स्थायित्व सिद्ध करते हुए उनके वर्गीकरण तथा उनका अभिलेख रखने की एक प्रणाली बनाई जिससे संदिग्ध व्यक्ति की ठीक से पहचान हो सके। किंतु यह प्रणाली कुछ कठिन थी। दक्षिण प्रांत (बंगाल) के पुलिस इंस्पेक्टर जनरल सर ई. आर. हेनरी ने उक्त प्रणाली में सुधार करके फिंगरप्रिंट के वर्गीकरण की सरल प्रणाली विकसित की। इसका वास्तविक श्रेय पुलिस सब-इंस्पेक्टर श्री अजीज़ुल हक को जाता है, जिन्हें सरकार ने 5000 रुपए का पुरस्कार भी दिया था। इस प्रणाली की अचूकता देखकर भारत सरकार ने 1897 में फिंगरप्रिंट द्वारा पूर्व दंडित व्यक्तियों की पहचान के लिए विश्व का प्रथम फिंगरप्रिंट कार्यालय कलकत्ता में स्थापित किया था।

फिंगरप्रिंट द्वारा पहचान दो सिद्धांतों पर टिकी है। एक तो यह कि दो व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट कभी एक-से नहीं हो सकते और दूसरा यह कि व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट जीवन भर ही नहीं अपितु जीवनोपरांत भी नहीं बदलते। अत: किसी भी विचाराधीन फिंगरप्रिंट को किसी व्यक्ति के फिंगरप्रिंट से तुलना करके यह निश्चित किया जा सकता है कि विचाराधीन फिंगरप्रिंट उसके हैं या नहीं। घटनास्थल की विभिन्न वस्तुओं पर अंकित फिंगरप्रिंट की तुलना संदिग्ध व्यक्ति के फिंगरप्रिंट से करके वह निश्चित किया जा सकता है कि अपराध किसने किया है।

अनेक अपराधी ऐसे होते हैं जो स्वेच्छा से अपने फिंगरप्रिंट नहीं देना चाहते। अत: कैदी पहचान अधिनियम, 1920 द्वारा भारतीय पुलिस को बंदियों के फिंगरप्रिंट लेने का अधिकार दिया गया है। भारत के प्रत्येक राज्य में एक सरकारी फिंगरप्रिंट कार्यालय है जिसमें दंडित व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट के अभिलेख रखे जाते हैं।

फिंगरप्रिंट का प्रयोग पुलिस विभाग तक ही सीमित नहीं है, अपितु अनेक सार्वजनिक कार्यों में यह अचूक पहचान के लिए उपयोगी साबित हुआ है। नवजात बच्चों की अदला-बदली रोकने के लिए विदेशों के अस्पतालों में प्रारंभ में ही शिशुओं की पद छाप तथा उनकी माताओं के फिंगरप्रिंट ले लिए जाते हैं।

आम तौर पर उंगलियों के निशान इंसानों के शरीर समेत किसी भी ठोस सतह पर पाए जा सकते हैं। जांच करने वाले फिंगरप्रिंट को तीन वर्गों में बांटते हैं। ये वर्गीकरण उस सतह के प्रकार पर निर्भर करता है, जिन पर वे पाए जाते हैं और देखे जा सकते हैं या अदृश्य रहते हैं। साबुन, वैक्स तथा गीले पेंट जैसी कोमल सतहों पर पाए जाने वाले उंगलियों के निशान त्रि-आयामी प्लाटिक निशान होते हैं। कठोर सतहों के निशान प्रत्यक्ष या छिपे हुए हो सकते हैं। जब रक्त, धूल, स्याही, पेंट आदि किसी उंगली से या अंगूठे से होकर सतह पर गिरता है तो प्रत्यक्ष या दिखने वाले निशान बनते हैं। ऐसे निशान, चिकनी, खुरदरी, छिद्रयुक्त या बिना छिद्रयुक्त सतहों पर पाए जा सकते हैं। शरीर से उत्पन्न प्राकृतिक तेल या त्वचा का पसीना किसी दूसरी सतह पर जमा होता है तो छिपे हुए या अदृश्य निशान बनते हैं। इंसानों की उंगलियों की टोपोलॉजी के मुताबिक वे किसी सतह के संपर्क में आने पर अनोखे निशान बनाती हैं। लिहाजा अपने अनोखेपन तथा पैटर्न की पेचीदगी के चलते अपराध विज्ञान में व्यक्तिगत पहचान के लिए उंगलियों के निशान सर्वश्रेष्ठ सुराग होते हैं।

अब तक पारंपरिक विधियों में चिकनी या बिना छिद्र वाली सतह पर काला पाउडर डालकर विभिन्न प्रकाशीय तस्वीरें खींचने की विधियों से सफलतापूर्वक उंगलियों के निशान प्राप्त किए जाते थे। लेकिन प्रकाशीय तस्वीरों से जांच की विधियों में कुछ खामियां थीं। उंगलियों के निशान तलाशने से जुड़ी सभी संभावित खामियों को दूर करने के लिए दुर्गापुर के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में भौतिकी विभाग की सूक्ष्म विज्ञान प्रयोगशाला में प्रोफेसर पथिक कुम्भकार के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक विधि विकसित की है। इस विधि में पारंपरिक विधियों की खामियों को दूर कर स्मार्ट फोन की मदद से उंगलियों के निशान तलाशने के लिए सूक्ष्म प्रौद्योगिकी पर आधारित एक अनोखा पदार्थ विकसित किया गया है।

प्रोफेसर कुम्भकार के अनुसार “अपराध विज्ञान समेत विभिन्न शाखाओं में सूक्ष्म विज्ञान तकनीकी के विस्तृत अनुप्रयोग हैं। इनमें उंगलियों के छिपे हुए निशान तलाशना हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। हमने तांबा तथा मैंगनीज़ आधारित एक द्विआयामी जिंक सल्फाइड तैयार किया है। इस पदार्थ का उपयोग उंगलियों के छिपे निशान तलाशने के लिए किया जाता है।”

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दुर्गापुर के निदेशक प्रोफेसर अनुपम बसु के अनुसार “यह एक बेहतरीन कार्य है तथा विकास की दिशा में वास्तविक कदम है। इसके द्वारा अपराध वैज्ञानिक कार्यों के लिए उंगलियों के निशान प्राप्त करने में मदद मिलेगी।” इस तकनीक में सूक्ष्म पदार्थ का उपयोग किया जाता है, जो तस्वीर को सटीक तथा सुरक्षित बनाता है। प्रोफेसर पथिक तथा उनकी टीम के द्वारा किया गया यह कार्य निश्चित रूप से प्रशंसनीय है, जिसमें सूक्ष्म विज्ञान तथा अपराध वैज्ञानिक जांच के क्षेत्र के लिए भारी संभावना है।  (स्रोत फीचर्स)

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छछूंदर: तौबा ये मतवाली चाल

वैसे तो छछूंदर ज़मीन में तेज़ी से बिल बनाने के लिए जानी जाती हैं, लेकिन अब पता चला है कि उनके चलने का तरीका भी अन्य चौपाया जानवरों से अलग है। कुत्ता या बिल्ली जैसे अन्य रीढ़धारी चौपाया जानवरों के पैर चलते वक्त उनके शरीर के नीचे रहते हैं। लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि छंछूदर चलते वक्त अपने आगे के दो पैर सामने की ओर फैलाए रखती है, जिससे चलते वक्त बिल की दीवारों से टकराने की संभावना कम रहती है।

छछूंदर कैसे चलती हैं यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने एक्स-रे मशीन के साथ एक हाई स्पीड कैमरा जोड़ा और उसकी मदद से प्लास्टिक सुरंग में चलती एक ईस्टर्न छछूंदर (Scalopus aquaticus) की चाल को रिकॉर्ड किया। वीडियो का अध्ययन करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि चलते समय छछूंदर के पैर हमेशा सामने की ओर फैले रहते हैं और उनका बाकी का शरीर इनके पीछे रहता है। दरअसल आगे बढ़ने के लिए छछूंदर अपनी छठी उंगली या फाल्स थंब (हथेली के पास उभरी उंगली समान रचना) को ज़मीन पर टेकती हैं और इसकी मदद से अपने शरीर को आगे बढ़ाती हैं, बिलकुल उसी तरह जिस तरह लाठी टेककर चलने वाला व्यक्ति आगे बढ़ता है। इस तरीके से चलने में ज़मीन के साथ कम-से-कम संपर्क बनता है, वैसे ही जैसे तेज़ दौड़ते व्यक्ति के पैर पलभर के लिए ही ज़मीन पर पड़ते हैं। इस तरह की चाल पैर सामने फैलाए रखने में मदद करती है। चूंकि संकरे बिल में चलते वक्त मुड़े हुए अंगों के साथ बिल की दीवारों से टकराने की संभावना रहती है, जिससे बिल नष्ट हो सकता है इसलिए सामने की ओर पैर फैले होने से दीवारों से टकराने से की संभावना कम हो जाती है और बिल सलामत रहता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बिल में रहने वाले छछूंदर जैसे जीवों के चलने के तरीकों को समझ कर, बेहतर बचाव और राहत रोबोट डिज़ाइन करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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शरीर के अंदर शराब कारखाना

हाल में बीएमजे ओपन गैस्ट्रोएंटरोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एक 46 वर्षीय व्यक्ति आत्म-शराब उत्पादन सिंड्रोम (एबीएस) से ग्रस्त पाया गया। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आंत में उपस्थित सूक्ष्मजीव कार्बोहाइड्रेट्स को नशीली शराब में बदल देते हैं। गेहूं, चावल, शकर, आलू वगैरह के रूप में कार्बोहाइड्रेट हमारे भोजन का प्रमुख हिस्सा होते हैं। ऐसे में जब इस विकार से ग्रस्त व्यक्ति शकर या अधिक कार्बोहाइड्रेट्स युक्त भोजन या पेय पदार्थों का सेवन करता है, तब उसकी हालत किसी नशेड़ी के समान हो जाती है। 

इस रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ. फहाद मलिक के अनुसार उक्त व्यक्ति कार्य करने में काफी असमर्थ होता था, खासकर भोजन करने के बाद। इन लक्षणों की शुरुआत वर्ष 2011 में हुई थी जब उसे अंगूठे की चोट के कारण एंटीबायोटिक दवाइयां दी गई थीं। डॉक्टरों ने ऐसी संभावना जताई है कि एंटीबायोटिक्स के सेवन से आंत के सूक्ष्मजीवों की आबादी (माइक्रोबायोम) को क्षति पहुंची होगी। उसमें निरंतर अस्वाभाविक रूप से आक्रामक व्यवहार देखा गया और यहां तक कि उसे नशे में गाड़ी चलाने के मामले में गिरफ्तारी भी झेलनी पड़ी जबकि उसने बूंद भर भी शराब का सेवन नहीं किया था।

इसी दौरान उसके किसी रिश्तेदार को ओहायो में इसी तरह के एक मामले के बारे में पता चला और उसने ओहायो के डॉक्टरों से परामर्श किया। डॉक्टरों ने उस व्यक्ति के मल का परीक्षण शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति देखने के लिए किया। इसमें सेकरोमायसेस बूलार्डी (Saccharomyces boulardii) और सेकरोमायसेस सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) पाए गए। दोनों शराब बनाने वाले खमीर हैं। पुष्टि के लिए डॉक्टरों ने उसे कार्बोहाइड्रेट्स का सेवन करने को कहा। आठ घंटे बाद, उसके रक्त में अल्कोहल की सांद्रता बढ़कर 0.05 प्रतिशत हो गई जिससे इस विचित्र निदान की पुष्टि हुई।  

आखिरकार स्टेटन आइलैंड स्थित रिचमंड युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर, न्यू यॉर्क में उपचार के दौरान डॉक्टरों ने उसे एंटीबायोटिक दवाइयां देकर दो महीने तक निगरानी में रखा। इस उपचार के बाद शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की संख्या कम तो हुई लेकिन कार्बोहाइड्रेट युक्त खुराक लेने पर समस्या फिर बिगड़ गई। इसके बाद उसकी आंत में बैक्टीरिया को बढ़ावा देने के लिए प्रोबायोटिक्स दिए गए जो काफी सहायक सिद्ध हुआ और धीरे-धीरे वह आहार में कार्बोहाइड्रेट्स शामिल कर सका – नशे और लीवर क्षति से डरे बिना। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क स्वयं की मौत को नहीं समझता

क स्तर पर हर कोई जानता है कि वह मरने वाला है। इस्राइल के बार इलान विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं की परिकल्पना थी कि जब बात खुद की मृत्यु की आती है तब हमारे मस्तिष्क में ऐसा कुछ है जो “पूर्ण समाप्ति, अंत, शून्यता” जैसे विचारों को समझने से इन्कार करता है।   

इस्राइल के एक शोधकर्ता याइर डोर-ज़िडरमन का यह अध्ययन एक ओर मृत्यु के शाश्वत सत्य और मस्तिष्क के सीखने के तरीके के बीच तालमेल बैठाने का एक प्रयास है। उनका मानना है कि हमारा मस्तिष्क ‘पूर्वानुमान करने वाली मशीन’ है जो पुरानी जानकारी का उपयोग करके भविष्य में वैसी ही परिस्थिति में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगाता है। यह जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण है। एक सत्य यह है कि एक न एक दिन हम सबको मरना है। तो हमारे मस्तिष्क के पास कोई तरीका होना चाहिए कि वह स्वयं हमारी मृत्यु का अनुमान लगा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है।

इस विषय पर अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने 24 लोगों को चुना और यह समझने की कोशिश की कि स्वयं उनकी मृत्यु के मामले में उनके मस्तिष्क का पूर्वानुमान तंत्र कैसे काम करता है।

ज़िडरमैन और उनकी टीम ने मस्तिष्क के एक विशेष संकेत पर ध्यान दिया जो ‘अचंभे’ का द्योतक होता है। यह संकेत दर्शाता है कि मस्तिष्क पैटर्न को देख रहा है और उनके आधार पर भविष्यवाणी कर रहा है। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी व्यक्ति को संतरे के तीन चित्र दिखाते हैं और फिर उसके बाद एक सेब का चित्र दिखाते हैं तब मस्तिष्क में ‘अचंभे’ का संकेत पैदा होता है क्योंकि पूर्व पैटर्न के आधार पर भविष्यवाणी संतरा देखने की थी।  

टीम ने वालंटियर्स को चेहरों की तस्वीरें दिखार्इं – या तो उनका अपना या किसी अजनबी का। इन सभी तस्वीरों के साथ कुछ नकारात्मक शब्द या मृत्यु से जुड़े शब्द, जैसे ‘कब्र’ जोड़े गए थे। इसी दौरान मैग्नेटोएनसेफेलोग्राफी की मदद से इन वालंटियर्स की मस्तिष्क की गतिविधियों को मापा गया।  

किसी चेहरे को मृत्यु सम्बंधी शब्दों से जोड़ना सीखने के बाद, वालंटियर्स को एक अलग चेहरा दिखाया गया। ऐसा करने पर उनके मस्तिष्क में ‘अचंभा’ संकेत देखा गया। क्योंकि उन्होंने एक विशिष्ट अजनबी चेहरे के साथ मृत्यु की अवधारणा को जोड़ना सीख लिया था, एक नया चेहरा दिखाई देने पर वह आश्चर्यचकित थे। 

लेकिन एक दूसरे परीक्षण में वालंटियर्स को मृत्यु शब्द के साथ उनकी अपनी तस्वीर दिखाई गई। इसके बाद जब उनको एक अलग चेहरे की तस्वीर दिखाई गई तब मस्तिष्क ने ‘अचंभा’ संकेत नहीं दिया। यानी जब एक व्यक्ति को खुद की मौत से जोड़ने की बात आई तब उसके भविष्यवाणी तंत्र ने काम करना बंद कर दिया।  

दिक्कत यह है कि जैव विकास की प्रक्रिया में चेतना का जन्म हुआ और इसके साथ ही हम समझने लगे कि मृत्यु अवश्यंभावी है। कुछ सिद्धांतकारों के अनुसार, मृत्यु के बारे में जागरूकता से प्रजनन की संभावना कम हो सकती है क्योंकि आप मौत से डरकर जीवन साथी चुनने के लिए आवश्यक जोखिम नहीं उठाएंगे। एक परिकल्पना है कि दिमाग के विकास के साथ मौत जैसी वास्तविकता से इन्कार करने की क्षमता विकसित होना अनिवार्य था। अध्ययन के निष्कर्ष जल्द ही न्यूरोइमेज जर्नल में प्रकाशित किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
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दा विंची द्वारा डिज़ाइन किया गया सबसे लंबा पुल

लियोनार्डो दा विंची बहुज्ञानी व्यक्ति थे जिन्होंने अपने समय के पर्यवेक्षकों को कई विषयों में फैले अपने जटिल डिज़ाइनों से प्रभावित किया था। वैसे तो दा विंची मोनालिसा और लास्ट सपर जैसी प्रसिद्ध पेंटिंग्स के लिए जाने जाते हैं, लेकिन उनका एक काम ऐसा भी है जिससे काफी कम लोग परिचित हैं। 16वीं सदी में दा विंची ने ओटोमान साम्राज्य के लिए उस समय के सबसे लंबे पुल का डिज़ाइन तैयार किया था।        

1502 में सुल्तान बेज़िद द्वितीय ने कॉन्स्टेनटिनोपल (आजकल का इस्तांबुल) से गलाटा तक पुल तैयार करने के प्रस्ताव आमंत्रित किए थे। एक प्रस्ताव दा विंची का भी था लेकिन जाने-माने कलाकार और आविष्कारक होने के बाद भी उनके डिज़ाइन को स्वीकार नहीं किया गया। हाल ही में एमआईटी के शोधकर्ताओं ने यह परखने की कोशिश की है कि यदि इस पुल का निर्माण होता तो यह कितना मज़बूत होता। 

शोधकर्ताओं ने 500 वर्ष पहले उपलब्ध निर्माण सामग्री और औज़ारों तथा उस इलाके की भूवैज्ञानिक स्थितियों पर विचार करते हुए पुल का प्रतिरूप तैयार किया। इस अध्ययन में शामिल एमआईटी की छात्र कार्ली बास्ट के अनुसार उस समय पत्थर ही एक ऐसा विकल्प था जिसके उपयोग से पुल को मज़बूती मिल सकती थी। शोधकर्ताओं ने यह भी माना कि पुल बिना किसी गारे के केवल पत्थरों की मदद से खड़ा रहने के लिए डिज़ाइन किया गया था।   

पुल की मज़बूती को जांचने के लिए, टीम ने 126 3-डी ब्लाक तैयार किए जो पुल के हज़ारों पत्थरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका मॉडल दा विंची की डिज़ाइन से 500 गुना छोटा था, जो लगभग 280 मीटर लंबा रहा होगा। हालांकि यह आधुनिक पुलों की तुलना में बहुत छोटा होता लेकिन यह अपने समय का सबसे लंबा पुल होता।

टीम ने बताया कि उस समय बनाए जाने वाले अधिकांश पुल अर्ध-वृत्ताकार मेहराब के रूप में तैयार किए जाते थे जिनमें 10 या उससे अधिक खम्बों की आवश्यकता होती थी। लेकिन दा विंची का डिज़ाइन एक ही मेहराब से बना था जिसे ऊपर से सपाट किया गया था। इसके नीचे से पाल वाली नावें आसानी से गुज़र सकती थी। टीम ने पुल का निर्माण करते समय मचान का सहारा दिया था लेकिन आखिरी पत्थर रखते ही मचान को हटा दिया गया। दिलचस्प बात यह रही कि पुल खड़ा रहा। शोधकर्ताओं के अनुसार यह अपने ही वज़न के दबाव से खड़ा है। दा विंची जानते थे कि इस क्षेत्र में भूकंप का भी खतरा है, इसलिए डिज़ाइन में ऐसी संरचनाएं (एबटमेंट्स) बनाई थीं जो इसके किनारों पर किसी भी प्रकार की हरकत होने पर पुल को स्थिर रखें।

इस परीक्षण पर ध्यान दिया जाए तो यह बात स्पष्ट है कि दा विंची ने इस विषय में काफी सोचने-समझने के बाद यह डिज़ाइन तैयार किया होगा। 

टीम ने अपने परिणामों को बार्सिलोना, स्पेन में आयोजित इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर शेल एंड स्पेशियल स्ट्रक्चर्स सम्मेलन में प्रस्तुत किया है। (स्रोत फीचर्स)
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सबसे ज्यादा चांद बृहस्पति नहीं शनि के पास हैं – प्रदीप

हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने हमारे सौर मंडल में शनि ग्रह के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते 20 नए चंद्रमाओं (प्राकृतिक उपग्रहों) की खोज की है। इन नए चंद्रमाओं को मिलाकर अब शनि के पास कुल 82 चांद हो गए हैं। इसके पहले तक सबसे ज़्यादा 79 चांद होने का तमगा सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के पास था। अब नए चंद्रमाओं के साथ शनि ने प्राकृतिक उपग्रहों के मामले में बृहस्पति से बाज़ी मार ली है। और इसी के साथ हमारे सौरमंडल में विभिन्न ग्रहों के चंद्रमाओं की कुल संख्या 210 हो गई है।

अमेरिका के कार्नेगी इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ के अंतरिक्ष विज्ञानी स्कॉट एस. शेफर्ड के नेतृत्व में खगोल विज्ञानियों की एक टीम ने शनि के नए उपग्रहों की खोज हवाई द्वीप में स्थित सुबारू टेलीस्कोप की मदद से की है। शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले इन नए चंद्रमाओं का व्यास तकरीबन 5-5 किलोमीटर है। इनमें से तीन चांद शनि की परिक्रमा उसी दिशा में कर रहे हैं जिस दिशा में शनि स्वयं अपने अक्ष पर घूर्णन करता है। इसे प्रोग्रेड परिक्रमा कहते हैं। अन्य 17 चांद उसकी विपरीत दिशा में (रेट्रोग्रेड) चक्कर लगा रहे हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक तीन चांद जो शनि की दिशा में ही उसकी परिक्रमा कर रहे हैं, उनमें से दो चांद तीसरे की तुलना में इस ग्रह के नजदीक हैं। इन दो चंद्रमाओं को शनि की परिक्रमा करने में दो साल का समय लगता है, जबकि तीसरे को बहुत ज़्यादा दूर होने की वजह से तीन साल का समय लगता है। शनि की विपरीत दिशा में चक्कर लगा रहे बाकी 17 चंद्रमाओं को भी शनि की परिक्रमा पूरी करने में तीन-तीन साल का वक्त लगता है।  इस खोज का खुलासा इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल यूनियन के माइनर प्लैनेट सेंटर द्वारा किया गया है।

इस खोज के लिए साल 2004 से 2007 के बीच जटिल आंकड़ों के विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर प्रणाली का उपयोग किया गया, जिसमें सुबारू टेलिस्कोप की भी सहायता ली गई। संभावित चंद्रमाओं की पहचान के लिए नए डैटा का पुराने डैटा के साथ मिलान किया गया और तब जाकर एस. शेफर्ड और उनकी टीम ने 20 नए चंद्रमाओं की कक्षाओं को सुनिश्चित करने में सफलता प्राप्त की।

एस. शेफर्ड के मुताबिक “यह पता करना बेहद मज़ेदार था कि शनि चांद की संख्या के मामले में सौर मंडल का सरताज बन गया है।” वे मज़ाकिया लहजे में कहते हैं कि “बृहस्पति एक मामले में खुद को सांत्वना दे सकता है कि उसके पास अभी भी सौर मंडल के सभी ग्रहों में सबसे बड़ा चांद है।” बृहस्पति ग्रह का चांद गैनिमेड आकार में तकरीबन पृथ्वी से आधा है। खगोल विज्ञानियों ने शनि का चक्कर लगाने वाले 5 किलोमीटर व्यास वाले और बृहस्पति का चक्कर लगाने वाले 1.6 किलोमीटर व्यास वाले छोटे चांदों का पता लगा लिया है। भविष्य में इनसे छोटे खगोलीय पिंडों के बारे में पता लगाने के लिए और बड़ी दूरबीनों की ज़रूरत होगी। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले छोटे-छोटे चांदों की संख्या 100 से भी अधिक हो सकती है, जिनकी खोज अभी जारी है।

खोजे गए सभी चांद उन चीज़ों के अवशेष से निर्मित हैं जिनसे स्वयं ग्रहों का निर्माण हुआ था। ऐसे में इनका अध्ययन करने से खगोल विज्ञानियों को ग्रहों के निर्माण के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, हो सकता है कि ये छोटे-छोटे चांद किसी बड़े चांद के टूटने से बने हों। एस. शेफर्ड के मुताबिक, ये छोटे चांद अपने मुख्य चांद से टूट कर भी शनि की परिक्रमा करने में सक्षम हैं, जो कि बहुत महत्वपूर्ण बात है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन से यह भी पता लगाया है कि शनि की उल्टी दिशा में परिक्रमा कर रहे चांद अपने अक्ष पर उतना ही झुके हुए हैं, जितना इनसे पहले खोजे गए चांद हैं। इससे इस संभावना को और बल मिलता है कि ये सभी चांद एक बड़े चांद के टूटने से बने हैं। शेफर्ड कहते हैं, इस तरह के बाहरी चंद्रमाओं का समूह बृहस्पति के आसपास भी दिखाई देता है। इससे लगता है कि इनका निर्माण शनि तंत्र में चंद्रमाओं के बीच या बाहरी चीज़ों (क्षुद्रग्रहों या धूमकेतुओं) के साथ टकराव के चलते हुआ होगा।

बहरहाल, कार्नेगी इंस्टीट्यूट ने इन नए चंद्रमाओं को नाम देने के लिए एक ऑनलाइन कॉन्टेस्ट (प्रतियोगिता) का आयोजन किया है। इनके नाम उनके वर्गीकरण के आधार पर तय किए जाने हैं। वैज्ञानिक यह भी जानने में लगे हैं कि क्या सौरमंडल से बाहर के किसी अन्य ग्रह के इर्द-गिर्द परिक्रमारत इससे भी अधिक चांद हैं। फिलहाल चांद के मामले में हमारे सौरमंडल का सरताज शनि ही है! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पौधों के सूखे से निपटने में मददगार रसायन

पानी की कमी या सूखा पड़ने जैसी समस्याएं फसल बर्बाद कर देती हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन के अनुसार ओपाबैक्टिन नामक रसायन इस समस्या से निपटने में मदद कर सकता है। ओपाबैक्टिन, पौधों द्वारा तनाव की स्थिति में छोड़े जाने वाले हार्मोन एब्सिसिक एसिड (एबीए) के ग्राही को लक्ष्य कर पानी के वाष्पन को कम करता है और पौधों में सूखे से निपटने की क्षमता बढ़ाता है।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के पादप जीव वैज्ञानिक सीन कटरल और उनके साथियों ने 10 साल पहले पौधों में उन ग्राहियों का पता लगाया था जो एबीए से जुड़कर ठंड और पानी की कमी जैसी परिस्थितियों से निपटने में मदद करते हैं। लेकिन पौधों पर बाहर से एबीए का छिड़काव करना बहुत महंगा था और लंबे समय तक इसका असर भी नहीं रहता था। इसके बाद कटलर और उनके साथियों ने साल 2013 में क्विनबैक्टिन नामक ऐसे रसायन का पता लगाया था जो एरेबिडोप्सिस और सोयाबीन के पौधों में एबीए के ग्राहियों के साथ जुड़कर उनमें सूखे को सहने की क्षमता बढ़ाता है। लेकिन क्विनबैक्टिन के साथ भी दिक्कत यह थी कि वह कुछ फसलों में तो कारगर था लेकिन गेहूं और टमाटर जैसी प्रमुख फसलों पर कोई असर नहीं करता था। इसलिए शोधकर्ता क्विनबैक्टिन के विकल्प ढूंढने के लिए प्रयासरत थे।

इस प्रक्रिया में पहले तो उन्होंने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से लाखों रसायनों से लगभग 10,000 ऐसे रसायनों को छांटा जो एबीए ग्राहियों से उसी तरह जुड़ते हैं जिस तरह स्वयं एबीए हार्मोन जुड़ता है। इसके बाद पौधों पर इन रसायनों का छिड़काव करके देखा। और जो रसायन सबसे अधिक सक्रिय मिले उनके प्रभाव को जांचा।

पौधों पर ओपाबैक्टिन व अन्य रसायनों का छिड़काव करने पर उन्होंने पाया कि क्विनबैक्टिन और एबीए हार्मोन की तुलना में ओपाबैक्टिन से छिड़काव करने पर तनों और पत्तियों से पानी की हानि कम हुई और इसका प्रभाव 5 दिनों तक रहा। जबकि एबीए से छिड़काव का प्रभाव दो से तीन दिन ही रहा और सबसे खराब प्रदर्शन क्विनबैक्टिन का रहा जिसने टमाटर पर तो कोई असर नहीं किया और गेहूं पर इसका असर सिर्फ 48 घंटे ही रहा।

प्रयोगशाला में मिले इन नतीजों की पुष्टि खेतों में या व्यापक पैमाने पर करना बाकी है। इसके अलावा इसके इस्तेमाल से पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव और विषैलेपन की जांच भी करना होगी।

कटलर का कहना है कि पौधों में हस्तक्षेप कर उनकी वृद्धि या उपज बढ़ाने के लिए छोटे अणु विकसित करना, खासकर कवकनाशक, कीटनाशक और खरपतवारनाशक बनाने के लिए, अनुसंधान का एक नया क्षेत्र हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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मोनार्क तितली ज़हर को कैसे पचाती है

काले-नारंगी पंखों वाली मोनार्क तितली देखने में काफी सुंदर लगती है। एक ज़हरीले पौधे (मिल्कवीड) का सेवन करके यह तितली ज़हरीली हो जाती है और अपने रंग-रूप से संभावित शिकारियों को आगाह कर देती है कि वह ज़हरीली है। लेकिन एक ज़हरीले आहार के प्रति प्रतिरक्षा विकसित करना काफी हैरानी की बात है। बात जीन्स पर टिकी है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं की दो स्वतंत्र टीमों ने एक फल मक्खी (ड्रॉसोफिला) में तीन प्रकार के आनुवंशिक परिवर्तन करके इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है।

वास्तव में मिल्कवीड पौधा कार्डिएक ग्लाइकोसाइड नामक यौगिक का उत्पादन करता है, जो कोशिकाओं के अंदर और बाहर आयनों के उचित प्रवाह को नियंत्रित करने वाले आणविक पंपों को बाधित करता है। इस पौधे का सेवन करने वाली मोनार्क तितली और अन्य जीवों में इन पंपों का ऐसा संस्करण विकसित हुआ है कि इन जीवों पर इस रसायन का गलत असर नहीं पड़ता।

मिल्कवीड खाने वाले विभिन्न जीवों में क्या समानता है, इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी नोहा वाइटमन और उनके सहयोगियों ने मोनार्क तितली समेत 21 कीटों के आणविक पंप के जीन का मिलान किया। शोधकर्ताओं को तीन उत्परिवर्तन मिले जो इस प्रोटीन पंप के तीन एमीनो एसिड्स को बदल देते हैं। कीट परिवार में इन परिवर्तनों को देखकर टीम ने यह अनुमान लगाया कि ये एमीनो एसिड परिवर्तन किस क्रम में हुए थे। यह क्रम महत्वपूर्ण लगता है। उन्होंने जीन-संपादन तकनीक की मदद से उन परिवर्तनों को क्रमबद्ध ढंग से फल मक्खियों में करने की कोशिश की।

नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मोनार्क तितली के पूर्वजों में उत्पन्न एक उत्परिवर्तन जब फल मक्खियों में किया गया तो वह मिल्कवीड के प्रति थोड़ी प्रतिरोधी हुई। लेकिन जब उसमें एक और उत्परिवर्तन किया गया तो फल मक्खी और अधिक सुरक्षित हो गई। इसके बाद तीसरा उत्परिवर्तन करने पर तो फल मक्खी मोनार्क तितली की तरह मिल्कवीड पर बखूबी पनपने लगी। और तो और, मोनार्क तितली की तरह फल मक्खियों ने खुद के शरीर में भी कुछ विष संचित रखा जो तितली को शिकारियों से बचाता है। (स्रोत फीचर्स)

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प्लेनेट नाइन एक ब्लैक होल हो सकता है! – प्रदीप

गोल विज्ञानियों को ऐसा लगता है कि हमारे सौरमंडल में नेप्च्यून से परे एक और ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इस ग्रह को कोई भी देख नहीं पाया है इसलिए हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने यह सुझाव दिया है कि यह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल वगैरह की तरह पारंपरिक ग्रह न हो कर शायद कुछ और हो! इससे पहले कुछ इसे प्लेनेट नाइन तो कुछ प्लेनेट एक्स कह रहे थे।

हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने यह दावा किया है एक कारण यह भी हो सकता है कि इस नौवें ग्रह को अब तक की सबसे उन्नत दूरबीन से भी इसलिए नहीं देखा जा सका है, क्योंकि यह ग्रह न होकर एक ब्लैक होल है। दरअसल ब्लैक होल अत्यधिक घनत्व तथा द्रव्यमान वाले ऐसे पिंड होते हैं, जो आकार में तो बहुत छोटे होते हैं मगर इनके अंदर गुरुत्वाकर्षण बल इतना ज़्यादा होता है कि इनके चंगुल से प्रकाश की किरणों का भी बच निकलना नामुमकिन होता है। चूंकि यह प्रकाश की किरणों को भी अवशोषित कर लेता है, इसलिए यह हमारे लिए अदृश्य बना रहता है।

खगोल विज्ञानियों को एक अरसे से ऐसा लगता रहा है कि सौरमंडल के बिलकुल बाहरी किनारे पर, जहां से हमारी आकाशगंगा शुरू होती कही जा सकती है, एक ऐसा विशाल पिंड होना चाहिए, जिसका द्रव्यमान हमारी पृथ्वी से 5 से 10 गुना ज़्यादा है। उसे अभी देखा नहीं गया है, लेकिन खगोलीय गणनाएं यही इशारा करती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे सौरमंडल की बाहरी सीमा से परे ऊर्ट-बादल से हो कर गुज़र रहे धूमकेतु (कॉमेट) जिस तरह सौरमंडल की सीमा के भीतर खिंच जाते हैं, उससे यही लगता है कि वहां हमारी पृथ्वी से भी शक्तिशाली कोई विशाल पिंड है। वह अपने गुरुत्वाकर्षण बल से इन धूमकेतुओं को अपने रास्ते से विचलित कर सकता है। एक डच वैज्ञानिक यान हेंड्रिक ऊर्ट ने 1950 में इस बादल के होने की संभावना जताई थी। हिसाब लगाया गया है कि यह बादल सौरमंडल की बाहरी सीमा से परे 1.6 प्रकाश वर्ष की दूरी तक फैला हुआ है।

इंग्लैंड के डरहम युनिवर्सिटी के जैकब शोल्ट्ज़ और शिकागो के इलिनॉय युनिवर्सिटी के जेम्स अनविन ने हाल ही में यह नया सिद्धांत प्रस्तावित किया है कि प्लेनेट नाइन या प्लेनेट एक्स एक आदिम ब्लैक होल है। सूर्य से लगभग 10 गुना अधिक द्रव्यमान वाले तारों का  हाइड्रोजन और हीलियम रूपी र्इंधन खत्म हो जाता है, तब उन्हें फैलाकर रखने वाली ऊर्जा भी खत्म जाती है और वे अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़कर अत्यधिक सघन पिंड यानी ब्लैक होल बन जाते हैं। हम आम तौर पर ब्लैक होल शब्द का इस्तेमाल इन्हीं भारी-भरकम खगोलीय पिंडों के लिए करते हैं। मगर, आदिम ब्लैक होल के बारे में वैज्ञानिकों की मान्यता है कि इनका निर्माण ब्राहृांड की उत्पत्ति यानी बिग बैंग के समय हुआ होगा। और ये ब्लैक होल आकार में बहुत छोटे होते हैं। स्टीफन हॉकिंग का ऐसा मानना था कि इन ब्लैक होल्स के अध्ययन से ब्राहृांड की शुरुआती अवस्थाओं के बारे में पता लगाया जा सकता है।

हालिया शोध के मुताबिक इस आदिम ब्लैक होल ने सौरमंडल के बड़े ग्रहों की कक्षाओं को सूर्य के सापेक्ष 6 डिग्री तक झुका दिया है। इस ब्लैक होल की कक्षा काफी चपटी है। यह वर्तमान में अपनी कक्षा में सूर्य से अधिकतम दूरी के आसपास है। इसका परिभ्रमण काल 20 हज़ार वर्ष होना चाहिए। वैज्ञानिकों ने आकाश में 20 डिग्री गुना 20 डिग्री अर्थात 400 वर्ग डिग्री का एक क्षेत्र चिंहित किया है जिसके भीतर यह मौजूद हो सकता है। कंप्यूटर गणनाओं से यह भी पता चला है कि यह ब्लैक होल हमारे सूर्य की परिक्रमा करते हुए हर तीन करोड़ वर्षों पर धूमकेतुओं से भरे ऊर्ट बादल में उथल-पुथल मचाता है।

बहरहाल, अगर प्लेनेट नाइन वास्तव में एक ब्लैक होल है तो इसे खोजना किसी ग्रह को खोजने से बड़ी चुनौती होगी। मगर ध्यान देने वाली ज़रूरी बात यह है कि ब्लैक होल के आसपास का प्रभामंडल उच्च ऊर्जा फोटॉन प्रसारित करेगा और यह एक्स-रे और गामा किरणों के रूप में दिखाई देगा, जिससे इसकी मौजूदगी की पुष्टि की जा सकेगी। अगर हमारे सौर मंडल में ब्लैक होल की मौजूदगी साफ हो जाएगी, तो इससे सौर मंडल के मौजूदा मॉडल में बड़े बदलाव की ज़रूरत होगी! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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