वैज्ञानिकों
ने एक ऐसे जीन का पता लगाया है जिसका उत्परिवर्तित रूप तो कैंसर का कारण बनता है
लेकिन उसका सामान्य रूप व्यक्ति को अपने शरीर की ज़्यादा चर्बी को जलाकर छरहरा बने
रहने में मदद करता है।
यह
देखा गया है कि कुछ लोग खूब खाएं, जो मर्ज़ी खाएं,
तो भी मोटे नहीं होते। आम तौर पर जब मोटापे की बात होती है
तो ध्यान इस बात पर होता है कि व्यक्ति क्या व कितना खाता है। लेकिन सेल
नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित नया शोध बताया है कि मोटापे और छरहरेपन का नियंत्रण
जेनेटिक स्तर पर भी होता है।
ब्रिटिश
कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी जोसेफ पेनिंजर और उनके साथियों ने
मोटापे के जेनेटिक आधार खोजने के प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने एस्टोनिया के
जीनोम सेंटर में उन लोगों की जीनोम सम्बंधी जानकारी को खंगाला जो सबसे दुबले-पतले बताए गए थे।
इसमें से उन्होंने उन लोगों को छांटकर अलग कर दिया जिनके बारे में कहा गया था कि
उनमें भूख न लगने (एनोरेक्सिया) या ऐसी किसी अन्य
दिक्कत थी जिसकी वजह से वे दुबले रह जाते हैं।
शेष
छरहरे लोगों में उन्होंने जेनेटिक समानता के चिंह खोजना शुरू किया। इस संदर्भ में
एक खास जीन ने उनका ध्यान आकर्षित किया – एक एंज़ाइम एनाप्लास्टिक लिम्फोमा काइनेज़
यानी ALK का
जीन। यह तो पहले से पता था कि डीएनए के इस खंड का उत्परिवर्तित रूप कैंसर से
सम्बंधित है। लेकिन मज़ेदार बात यह थी कि किसी ने नहीं सोचा था कि इसका सामान्य रूप
क्या काम करता है।
तो
पेनिंजर और उनके साथियों ने उत्परिवर्तित फल मक्खी और उत्परिवर्तित चूहों का
निर्माण किया। वे यह दर्शाना चाहते थे कि जो जीन मनुष्यों को छरहरा रखता है वह
मक्खियों और चूहों में भी वैसा ही असर दिखाता है। देखा गया कि ALK जीन की उपस्थिति की वजह से ये उत्परिवर्तित मक्खियां और
चूहे दुबले बने रहते हैं, हालांकि वे कम तो
बिलकुल नहीं खाते।
शोधकर्ताओं
का मत है कि ALKजीन मस्तिष्क पर क्रिया करता है जिसके असर
से मस्तिष्क वसा कोशिकाओं को ज़्यादा वसा जलाने का निर्देश देता है। चूंकि यह जीन
मक्खियों, चूहों और मनुष्यों,
सबमें कारगर होता है, इसलिए
ऐसा लगता है कि यह जैव विकास के इतिहास में बहुत समय से मौजूद रहा है। यह दुबलेपन
के अनुसंधान में नया अध्याय जोड़ सकता है।
वर्तमान में भी ऐसी दवाइयां उपलब्ध हैं, जो कैंसरकारी ALK की क्रिया को बाधित करती हैं। यानी ALK को औषधियों के लिए एक उपयुक्त लक्ष्य माना जाता है। तो हो सकता है कि इसके आधार पर हमें छरहरे बने रहने के लिए गोली मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://acenews.pk/wp-content/uploads/2019/01/dna2.jpg
13मार्च को जॉन
हॉपकिंस युनिवर्सिटी के संक्रामक रोग विशेषज्ञ आर्टूरो कसाडेवल और एक अन्य साथी
द्वारा दी जर्नल ऑफ क्लीनिकल इंवेस्टीगेशन में प्रकाशित शोध पत्र में कोविड-19 के प्रभावी उपचार के
लिए इस रोग से उबर चुके लोगों के रक्त प्लाज़्मा के उपयोग पर चर्चा की गई थी। इनके
प्लाज़्मा में विकसित एंटीबॉडी से नए रोगियों का इलाज किया जा सकता है।
हाल
ही में अमेरिका के कई अस्पतालों में 16,000 रोगियों पर प्रायोगिक तौर पर इस उपचार का उपयोग किया गया।
इसके अलावा चीन और इटली में किए गए कुछ छोटे अध्ययनों से भी काफी आशाजनक नतीजे
मिले। पूर्व में इसका उपयोग अन्य रोगों के लिए किया जा चुका है। चीन, इटली तथा अन्य देशों में किए गए प्रयोगों
के परिणाम भी आशाजनक रहे हैं।
अलबत्ता, कुछ परिणाम निराशाजनक भी हैं। 2015 में युनिवर्सिटी
मेडिकल सेंटर हैम्बर्ग द्वारा गिनी में 84 एबोला रोगियों पर किए गए अध्ययन में
प्लाज़्मा उपचार के कोई लाभ नज़र नहीं आए थे। इसके अलावा प्लाज़्मा प्रत्यारोपण में
रक्त-जनित
संक्रमण का जोखिम भी रहता है। कुछ मामलों में तो फेफड़ों को गंभीर नुकसान भी हो
सकता है। कई बार रोगी का शरीर रक्त की अतिरिक्त मात्रा के अनुकूल नहीं हो पाता
जिससे मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। फिलहाल शोधकर्ताओं द्वारा एकत्र किए गए डैटा
से ऐसे गंभीर मामलों की संख्या काफी कम पाई गई है। यूएस में शुरुआती 5000 लोगों का प्लाज़्मा
उपचार करने पर केवल 36 मामले
गंभीर पाए गए हैं।
बोस्टन
युनिवर्सिटी के संक्रामक रोग चिकित्सक नाहिद भादेलिया के अनुसार यदि यह उपचार
कारगर साबित हो जाता है तो बड़े स्तर पर उपचार के लिए प्लाज़्मा की आवश्यकता को पूरा
करना एक चुनौती बन सकता है। एक बार में एक व्यक्ति से लगभग 690-880 मिलीलीटर प्लाज़्मा मिलता है जो मात्र एक-दो रोगियों के लिए
ही पर्याप्त होगा। वैसे ठीक होने के बाद एक व्यक्ति कई बार प्लाज़्मा दान कर सकता
है और इसकी उपलब्धता को लेकर कोई समस्या होने की संभावना कम है।
एक
समस्या यह हो सकती है कि विभिन्न दाताओं की एंटीबॉडी के घटकों और सांद्रता में
काफी भिन्नता होती है यही वजह है कि प्लाज़्मा उपचार के संदर्भ में प्रमाण काफी
कमज़ोर हैं। इसके लिए जापानी औषधि कंपनी टेकेडा कई अन्य सहयोगियों के साथ
हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन नामक एक उत्पाद पर काम कर रही है। इसमें सैकड़ों ठीक हुए
रोगियों के रक्त को मिलाकर एंटीबॉडी का सांद्रण किया जाएगा। हाइपरइम्यून
ग्लोब्युलिन को प्लाज़्मा की तुलना में अधिक समय तक रखा जा सकता है। चूंकि कुल आयतन
बहुत कम होता है, इसलिए
साइड प्रभावों का जोखिम भी कम रहता है।
आखिरी बार टेकेडा ने हाइपरइम्यून ग्लोब्युलिन का उत्पादन 2009 में एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा के लिए किया था। कंपनी ने 16,000 लीटर प्लाज़्मा की मदद से एंटीबॉडी का संकेंद्रण किया था जिससे हज़ारों रोगियों का उपचार संभव हो सकता था। लेकिन फ्लू स्ट्रेन उम्मीद से काफी कमज़ोर निकला और इस उपचार का उपयोग कभी करना ही नहीं पड़ा। उम्मीद है कि इस बार स्वस्थ हो चुके मरीज़ों की एंटीबॉडी ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाएंगी। (स्रोत फीचर्स)
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हाल
ही में चूहों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि शरीर में उपस्थित टी-कोशिकाएं हमें
रोगाणुओं से बचाने के अलावा उम्र बढ़ने की गति को भी तेज़ कर सकती हैं।
देखा
जाए तो आयु में वृद्धि के साथ टी-कोशिकाओं की रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है।
इसके कारण वृद्धजन संक्रमण के प्रति अधिक और टीकों के प्रति कम संवेदनशील हो जाते
हैं। टी-कोशिकाओं
के कमज़ोर होने का एक कारण उनके माइटोकांड्रिया की सक्रियता में कमी है,
जो कोशिकाओं को शक्ति प्रदान करने का काम करते हैं। लेकिन
टी-कोशिकाओं
के आधार पर न सिर्फ बुढ़ापे का अनुमान लगाया जा सकता है बल्कि ये बुढ़ापे को तेज़
करने में मदद भी करती हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि टी-कोशिकाएं शोथ-उत्तेजक अणु छोड़ती हैं जिससे बुढ़ाने की
प्रक्रिया तेज़ हो जाती है।
इन
परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए युनिवर्सिटी हॉस्पिटल 12 की प्रतिरक्षा विज्ञानी मारिया मिटलब्रान
और उनके सहयोगियों ने कुछ चूहों में आनुवंशिक रूप से ऐसा बदलाव किया कि उनके
माइटोकांड्रिया में एक प्रोटीन समाप्त हो गया। इसकी वजह से ये कोशिकाएं
माइटोकांड्रिया-आधारित
कुशल ऊर्जा तंत्र की बजाय मजबूरन एक कम कार्यकुशल प्रणाली का उपयोग करने लगती हैं।
साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस परिवर्तन के बाद चूहों में 7 माह की आयु,
जो उनकी युवावस्था होती है, में
ही बुढ़ापे के लक्षण नज़र आने लगे। वे सुस्त हो गए थे, मांसपेशियां
कमज़ोर हो गई थीं और संक्रमण के प्रति प्रतिरोध भी कम हो गया था।
वैज्ञानिकों
ने देखा कि परिवर्तित चूहों की टी-कोशिकाएं ऐसे अणु छोड़ रही थीं जो शोथ पैदा करते हैं। इससे
लगता है कि इन चूहों के शारीरिक क्षय में टी-कोशिकाओं की भी भूमिका है।
तो
वैज्ञानिकों ने उम्र बढ़ने की गति को धीमा करने के लिए इससे उल्टे प्रयोग भी करके
देखे। सबसे पहले उन्होंने ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर अल्फा (टीएनएफ-अल्फा) को ब्लॉक करने वाली दवा दी। टीएनएफ-अल्फा वास्तव में टी-कोशिकाओं द्वारा
छोड़ा जाने वाला शोथ-उत्प्रेरक
अणु है। टीएनएक-अल्फा
को ब्लॉक करने से चूहों की पकड़ मज़बूत हुई, भूलभुलैया
में रास्ता खोजने में उनका प्रदर्शन बेहतर हुआ और ह्मदय की क्षमता में भी वृद्धि
हुई।
इसके
अलावा मिटलब्रन ने चूहों को एक
ऐसा पदार्थ भी दिया जो एनएडी नामक अणु के स्तर को बढ़ाता है। यह अणु कोशिकाओं को
भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के सक्षम बनता है और उम्र के साथ इसके स्तर में कमी आती
है। लेकिन चूहों में इसका स्तर बढ़ाने से वे अधिक सक्रिय बन गए और उनके ह्मदय भी
मज़बूत हो गए।
वर्तमान में रुमेटाइड आथ्र्राइटिस और क्रोहन रोग जैसी बीमारियों के लिए टीएनएफ-अल्फा का उपयोग किया जा रहा है और कई कम्पनियां एनएडी का स्तर बढ़ाने वाली औषधियां बेचती हैं। इसलिए मिटलब्रान का सुझाव है कि इनके क्लीनिकल परीक्षण करना चाहिए कि क्या ये बुढ़ाने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती हैं। वैसे कई शोधकर्ताओं को इन परिणामों की प्रासंगिकता पर संदेह है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)
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बकरियां
सख्तजान होती हैं। इन्होंने कोलंबस के साथ अटलांटिक महासागर की लंबी यात्राएं कीं
और मेफ्लावर तीर्थ यात्रियों के साथ रहीं – इस दौरान सूखे और परजीवियों का सामना किया।
हाल ही में एक शोध ने इनकी सहनशीलता की उत्पत्ति का खुलासा किया है। प्राचीन समय
में कुछ हेराफेरी के ज़रिए इस पालतू प्रजाति (Capra
aegagrushircus) में
जंगली बकरी से एक जीन आया जो इसे कृमि संक्रमण से बचाता है। अन्य जीन्स के साथ
जुड़कर इस जीन ने बकरी को सबसे पहला पालतू जानवर बनाने में मदद की। स्मिथसोनियन
संस्थान के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में मानव विज्ञानी पुरातत्वविद मेलिंडा
ज़ेडर का कहना है कि इस खोज से पालतूकरण के शुरुआती दिनों में जंगली प्रजातियों के
साथ परस्पर प्रजनन का महत्व स्पष्ट होता है।
कई
शोधकर्ता मानते हैं कि बकरियां प्रथम पालतू पशु हैं। इन्हें लगभग 11 हज़ार साल पहले
फर्टाइल क्रीसेंट में पालतू बनाया गया था। माना जाता है कि तुर्की और ईरान में
मनुष्य ने सबसे पहले पालतू बकरियों के जंगली वंशज बेजोर को बाड़ों में पालना शुरू
किया था। लेकिन तब से लेकर अब तक क्या हुआ यह एक रहस्य ही रहा है।
नॉर्थवेस्ट
ए एंड एफ युनिवर्सिटी के पशु आनुवंशिकीविद ज़ियांग यू और एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने
दुनिया भर की 88 पालतू
बकरियों, 6 जंगली बकरी प्रजातियों और 4 बकरी जीवाश्मों के
जीनोम की तुलना 131 अन्य
पालतू, जंगली और प्राचीन
बकरियों की पहले से उपलब्ध जीनोमिक जानकारी के साथ की। वे यह देखना चाहते थे जीनोम
के कौन-से
महत्वपूर्ण हिस्से से बकरी का पालतू बनना तय हुआ था।
ज़ियांग
और उनके साथियों ने साइंस एडवांसेस में बताया है कि विशेष रूप से एक जीन MU6
महत्वपूर्ण है। आज लगभग हर पालतू बकरी में इस जीन का संस्करण मौजूद है। यह वेस्ट
कॉकेशियन टुर नामक जंगली बकरी से आया है। संभवत: यह जीन संस्करण संभवत: परस्पर प्रजनन के ज़रिए 7200 साल पहले पालतू बकरी
में पहुंचा था।
MU6 जीन
आंत के अस्तर के एक प्रोटीन का कोड है। अन्य जंतुओं में यह प्रतिरक्षा तंत्र का
हिस्सा है। यह देखने के लिए कि यह परजीवियों से रक्षा कर सकता है या नहीं,
शोधकर्ताओं ने जंगली टुर के जीन संस्करण वाली और इसके अन्य
संस्करणों वाली पालतू बकरियों के मल का विश्लेषण किया। देखा गया कि टुर संस्करण
वाली बकरियों के मल में कृमियों के अंडों की संख्या बहुत कम थी। अर्थात जीन का टुर
संस्करण कुछ सुरक्षा प्रदान करता है।
ज़ियांग
कहते हैं कि यह बात समझ में आती है क्योंकि टुर काले समुद्र के तट पर रहती थी जहां
का मौसम उमस वाला था, यहां परजीवियों के
संक्रमण का खतरा अन्य जगहों की बकरियों से ज़्यादा था। आजकल की बकरियों का मूल
स्थान दक्षिण-पश्चिम
एशिया का सूखा क्षेत्र था।
कुछ
शोधकर्ताओं का मानना है कि पालतू बनाने के लिए सबसे मूल्यवान कारक दूध का उत्पादन
या शारीरिक बनावट होते हैं। लेकिन इस अध्ययन में यह पता चलता है कि शायद ज़्यादा
महत्वपूर्ण यह था कि पालतू जानवर भीड़भाड़ वाली जगहों में जीवित रह सकें जहां पर
संक्रमण का खतरा ज़्यादा होता है। ज़ियांग का कहना है कि स्वस्थ मवेशी पाने की इच्छा
और टुर के इस जीन संस्करण के फायदों के चलते यह 1000 वर्षों में ही 60 प्रतिशत पालतू बकरियों में फैल गया।
टीम को पालतू बकरियों में कई और जीन्स मिले हैं जिनका सम्बंध शायद बकरियों के दब्बू व्यवहार से हो लेकिन और शोध के बगैर कुछ कहा नहीं जा सकता।(स्रोत फीचर्स)
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हाल
ही में मोन्टाना के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने जीवाश्म विज्ञानियों को राहत
दी है। कोर्ट ने फैसले में कहा है कि जीवाश्म कानूनी रूप से सोने-चांदी जैसे खनिजों
से भिन्न हैं। इन पर आधिपत्य उसका होगा जिसकी भूमि पर वे मिले हैं,
ना कि भूमि के नीचे के खनिज भंडार मालिकों का।
दरअसल,
मामला पूर्वी मोन्टाना के भूभाग में साल 2006 में प्राप्त
डायनासौर के दो जीवाश्मों से जुड़ा है। मरे दम्पति ने पूर्वी मोन्टाना में सेवरसन
बंधुओं से ज़मीन खरीदी थी। उन्होंने निजी जीवाश्म खोजियों के साथ मिलकर उस भूखंड से
टायरानेसौरस रेक्स के कंकाल सहित कई बड़ी खोजें कीं। जिसमें सबसे अनोखी खोज थी
डायनासौर के कंकालों की एक जोड़ी, जिसे देखने पर लगता
है कि वे दोनों लड़ते हुए मारे गए थे।
ज़मीन
बेचते समय सेवरसन बंधु ने उक्त भूमि के नीचे दबे खनिज पर दो तिहाई मालिकाना हक
अपने पास रखा था। इसलिए इस खोज के बाद उन्होंने इन जीवाश्म पर आंशिक मालिकाना हक
का दावा किया। गौरतलब है कि यूएस के कुछ प्रांतों में भूमि का स्वामित्व और उसके
नीचे दबे तेल, गैस या अन्य खनिजों
का स्वामित्व अलग-अलग
लोगों या संस्थाओं का हो सकता है। इस मामले में संघीय जिला अदालत ने मरे दम्पति के
पक्ष में फैसला सुनाया। लेकिन सेवरसन बंधु की याचिका पर तीन सदस्यों की एक अदालत
में दो सदस्यों ने कहा कि जीवाश्म पर अधिकार खनिज मालिकों का है। पुन: सुनवाई की गुहार
लगाने पर अदालत ने सुनवाई के पहले मामला मोन्टाना सुप्रीम कोर्ट भेज दिया। शीर्ष
अदालत ने पिछले फैसले को पलटते हुए कहा कि उसमें ‘जीवाश्म’ और ‘खनिज’ को एक श्रेणी में रखने की गलती की गई थी।
शब्दों के सामान्य और व्यावहारिक अर्थ के अनुसार मरे दम्पति की भूमि पर प्राप्त
डायनासौर के जीवाश्म खनिज नहीं हैं।
यह
फैसला वैज्ञानिकों के लिए एक जीत है। वैज्ञानिकों की चिंता थी कि यदि जीवाश्मों को
खनिज अधिकारों के साथ जोड़कर देखा जाएगा तो खुदाई करने की अनुमति प्राप्त करना
मुश्किल हो सकता है और जो जीवाश्म पहले प्राप्त हो चुके हैं उनके मालिकाना हक पर
भ्रम पैदा हो सकता है।
हालांकि
2019 में
ही मोन्टाना विधायिका ने एक कानून पारित कर दिया था जिसके तहत कहा गया था कि
जीवाश्म पर अधिकार भू-स्वामियों
का होगा। अब कोर्ट का यह फैसला हक की इस जंग का अंतिम वार रहा।
इंडियाना
युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी डेविड पॉली कहते हैं कि हालांकि यह फैसला अन्य
राज्यों पर लागू नहीं होता लेकिन यह फैसला इस मायने में अहमियत रखता है कि यदि ऐसे
मुद्दे फिर उठे तो इस फैसले को नज़ीर के तौर पर पेश किया जा सकता है।
इस फैसले से उक्त जीवाश्म की बिक्री का रास्ता साफ हो जाएगा जिसका अनुबंध मरे दम्पति ने एक म्यूज़ियम से किया है। इससे वैज्ञानिकों को एक और बड़ी राहत मिलेगी कि डायनासौर के जीवाश्म निजी संग्रहकर्ताओं के हाथ में जाने से बच जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
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इस गर्मी
का मौसम जब उतार पर होता है तब अक्सर दो सांपों का आपस में लिपटना हर किसी का
ध्यान आकर्षित करता है। लगता है, दोनों लिपटते हुए
नृत्य कर रहे हों।
सांपों
द्वारा निर्मित ये दृश्य अक्सर अखबारों की सुर्खियां भी बनते हैं। एक अखबार के
ब्यूरो चीफ ने मुझसे सांपों के बीच चलने वाली इस दिलचस्प लीला के बारे जानना चाहा।
उन्होंने यह भी पूछा कि क्या यह सच है कि नर और मादा सांपों के बीच यह प्रणय लीला
है? उनके पास आपस में लिपटे हुए दो विशाल
सांपों का चित्र छपने के लिए आया था। वे उस चित्र का चंद पंक्तियों में कैप्शन
देना चाह रहे थे। आम तौर पर इस घटना को नर और मादा का समागम समझा जाता है जो वाकई
में मिथ्या है। यह तो दो प्रतिद्वंदी नर सांपों के बीच युद्ध है। दरअसल,
धामन नामक सांप की प्रजाति (Ptyas mucosa) के नर सदस्यों के
बीच यह दृश्य देखा जाना आम बात है।
धामन
आम तौर पर खेतों, जंगलों,
झाड़ियों में बहुतायत से पाया जाता है और चूहे खाता है। इसकी
अधिकतम लंबाई 8 फीट
तक हो सकती है। यह एक अत्यंत सक्रिय सांप है और प्रजनन काल में इसकी सक्रियता का
बढ़ना स्वाभाविक ही है।
इस
प्रकार के दृश्य अक्सर गर्मी के उतार और मानसून की बौछार के साथ शहरों व कस्बों के
खुले मैदानों में अधिक दिखने लगते हैं। इसमें दो सांप रस्सी में एंठन की तरह लिपट
जाते हैं। दोनों का सिर वाला हिस्सा ऊपर की ओर उठा होता है। दोनों एक दूसरे को
पटखनी देने की जी-तोड़
कोशिश करते हैं। इस युद्ध में वे एक दूसरे से लिपटते हैं और अपने थूथन से एक दूसरे
पर वार करते हैं। युद्ध लगभग घंटे भर तक चलता रहता है जब तक कि एक नर दूसरे को
पटखनी न दे दे। इस युद्ध में जो सांप पस्त होकर ज़मीन पर गिर जाता है वह समझो हार
चुका होता है। युद्ध में जीतने वाला नर सांप फिर आसपास मौजूद मादा के साथ समागम
करता है। इसके बाद मादा धामन किसी सुरक्षित जगह पर 6 से 15 की संख्या में अंडे देती है।
सांपों
में इस युद्ध को लेकर अधिक अध्ययन नहीं हुए हैं। अमेरिका में सांपों की कई
प्रजातियों में यह व्यवहार देखने को मिलता है जिनमें इंडिगो स्नेक,
रेटल स्नेक, और कॉटनमाउथ सांप
प्रमुख हैं। इन प्रजातियों में मादाओं की तुलना में नर बड़े होते हैं। दो नरों की
लड़ाई में वे ज़मीन के लंबवत खड़े होते हैं। इस दौरान सांप एक दूसरे को काटते नहीं।
त्रुटिवश
धामन सांप में इस घटना को नर और मादा के समागम के रूप में समझा जाता है। लेकिन
समागम की प्रक्रिया में नर और मादा इस तरह से आपस में खड़े होकर लिपटते नहीं हैं।
नर सांप मादा के शरीर पर रेंगता है। कभी-कभी नर सांप मादा के सिर को दांतों से
काटता है। माना जाता है कि यह काटना महज़ मादा के प्रति प्यार दर्शाना हो सकता है।
सर्प विज्ञानी युद्ध और प्रणय की इन दोनों घटनाओं की बारीकियों को समझने की कोशिश
कर रहे हैं।
प्रजनन काल में नर सांपों के बीच शक्ति प्रदर्शन के लिए होने वाला युद्ध सर्प के दो परिवारों बोइडी व कोल्यूब्राोइडी की लगभग 70 प्रजातियों में देखा गया है। शोधकर्ताओं को क्रिटेशियस काल के बोइडी व कोल्यूब्राोइडी के साझा पूर्वजों में ऐसे व्यवहार के प्रमाण मिले हैं। हालांकि इस दिशा में अभी और सुराग हाथ लगना बाकी है। (स्रोत फीचर्स)
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टीकों
पर काम जनवरी में कोविड-19 के
लिए ज़िम्मेदार SARS-CoV-2 के जीनोम के खुलासे
के बाद शुरू हुआ था। इंसानों में टीके की सुरक्षा का पहला परीक्षण मार्च मे शुरू
हुआ। इस समय दुनिया भर में वैज्ञानिक कोरोनावायरस के खिलाफ 135 से ज़्यादा टीकों पर काम कर रहे हैं। हो
सकता है कि इनमें से कुछ मनुष्य के प्रतिरक्षा तंत्र को वायरस के खिलाफ कारगर
एंटीबॉडी बनाने को तैयार करे।
टीका
विकसित करने की प्रक्रिया आसान नहीं होती। इसके कई चरण होते हैं:
प्री–क्लीनिकल चरण: वैज्ञानिक संभावित
टीका चूहों या बंदर जैसे किसी जंतु को देकर देखते हैं कि उनमें प्रतिरक्षा
प्रतिक्रिया पैदा होती है या नहीं।
चरण 1: टीका थोड़े से मनुष्यों को दिया जाता है
ताकि उसकी सुरक्षितता, खुराक की जांच के
अलावा यह देखा जा सके कि मनुष्य में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उभरती है या नहीं।
चरण 2: टीका सैकड़ों लोगों को दिया जाता है,
और विभिन्न समूहों (जैसे बच्चों, बुज़ुर्गों) को अलग-अलग दिया जाता है।
मकसद चरण 1 के
समान ही होता है।
चरण 3: टीका हज़ारों लोगों को देकर इंतज़ार किया
जाता है कि उनमें से कितनों को संक्रमण हो जाता है। इस चरण में एक समूह ऐसे लोगों
का भी होता है जिन्हें टीके की बजाय वैसी ही कोई औषधि दी जाती है। इस चरण में पता
चलता है कि क्या वह टीका लोगों को संक्रमण से बचाता है।
फिलहाल
विकसित किए जा रहे टीके विभिन्न चरणों में हैं:
प्री–क्लीनिकल चरण
चरण 1
चरण 2
चरण 3
स्वीकृत
125
8
8
2
0
अभी इंसानी परीक्षण तक नहीं पहुंचे हैं
सुरक्षा और खुराक की जांच
विस्तृत सुरक्षा जांच
असर की व्यापक जांच
स्वीकृत
कभी-कभी टीके के विकास
को गति देने के लिए एकाधिक चरणों को जोड़कर एक साथ सम्पन्न किया जाता है। इस वायरस
के मामले में ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत ऐसा किया जा रहा है। टीके विभिन्न
किस्म के हैं।
जेनेटिक
टीके
ये
ऐसे टीके हैं जिनमें वायरस की अपनी जेनेटिक सामग्री के किसी खंड का उपयोग किया
जाता है।
मॉडर्ना ने ऑपरेशन
वार्प स्पीड के तहत वायरस के एम-आरएनए पर आधारित टीके का परीक्षण मात्र 8 लोगों पर करके चरण 1 व 2 को साथ-साथ पूरा किया,
हालांकि वैज्ञानिकों ने इसके परिणामों पर शंका ज़ाहिर की है।
ऑपरेशन वार्प स्पीड
के तहत ही जर्मन कम्पनी बायोएनटेक, फाइज़र और एक चीनी
दवा कम्पनी ने मई में अपने टीके के इंसानी परीक्षण की घोषणा की और उम्मीद है कि
जल्दी ही यह बाज़ार में आ जाएगा।
इम्पीरियल कॉलेज
लंदन के वैज्ञानिकों ने आरएनए टीका विकसित किया है जो खुद अपनी प्रतिलिपियां बनाता
है। उन्होंने 15 जून
से चरण 1 व 2 के परीक्षण शुरू किए
हैं।
अमेरिकी कम्पनी
इनोवियो ने मई में प्रकाशित किया कि उसका डीएनए-आधारित टीका चूहों में एंटीबॉडी पैदा करता
है। अब चरण 1 का
परीक्षण चल रहा है।
वायरस–वाहित
टीके
इन
टीकों में किसी वायरस की मदद से कोरोनावायरस के जीन्स को कोशिका में पहुंचाकर
प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उकसाई जाती है।
ब्रिटिश-स्वीडिश कम्पनी
एस्ट्रा-ज़ेनेका
और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय मिलकर जो टीका विकसित कर रहे हैं उसमें चिम्पैंज़ी
एडीनोवायरस ChAdOx1 का
उपयोग एक वाहक के रूप में किया गया है। इसके चरण 2 व 3 के परीक्षण इंग्लैंड व ब्राज़ील में जारी
हैं और अक्टूबर तक इमर्जेंसी टीका मिलने की उम्मीद है।
चीनी कम्पनी
कैनसाइनो बॉयोलॉजिक्स और चीन की ही एकेडमी ऑफ मिलिट्री साइन्सेज़ के इंस्टीट्यूट ऑफ
बायोलॉजी मिलकर एक एडीनोवायरस Ad5 पर आधारित टीके के विकास में लगे हैं। मई में पहली बार
कोविड-19 के
किसी टीके के चरण 1 के
परिणाम किसी वैज्ञानिक जर्नल (लैंसेट) में प्रकाशित हुए थे।
बोस्टन का बेथ इस्राइल
डेकोनेस मेडिकल सेंटर बंदरों के एडीनोवायरस Ad26 पर आधारित टीके का परीक्षण कर रहा है।
जॉनसन एंड जॉनसन
ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत जुलाई में चरण 1 व 2 के परीक्षण शुरू करने वाला है।
स्विस कम्पनी
नोवार्टिस जीन उपचार पर आधारित टीके का उत्पादन करेगा जिसके चरण 1 के परीक्षण 2020 के अंत तक शुरू
होंगे। इस टीके में एडीनो-एसोसिएटेड
वायरस की मदद से कोरानावायरस के जीन के टुकड़े कोशिकाओं में पहुंचाए जाएंगे।
मर्क नामक अमरीकी
कम्पनी ने घोषणा की है कि वह वेसिकुलर स्टोमेटाइटिस वायरस से टीके का विकास करेगी।
वह इसी तरीके से एबोला के खिलाफ एकमात्र स्वीकृत टीका बना चुकी है।
प्रोटीन–आधारित
टीके
ये
वे टीके हैं जो कोरोनावायरस के प्रोटीन या प्रोटीन-खंड की मदद से हमारे शरीर में प्रतिरक्षा
प्रतिक्रिया उकसाते हैं।
मई में नोवावैक्स ने
कोरोनावायरस प्रोटीन्स के अत्यंत सूक्ष्म कणों से बने टीके पर चरण 1 व 2 के परीक्षण शुरू
किए।
क्लोवर
वायोफार्माश्यूटिकल्स ने कोरोनावायरस के एक प्रोटीन के आधार पर टीका विकसित किया
है जिसका परीक्षण जंतुओं पर किया जाएगा।
बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन
के शोधकर्ताओं ने 2002 की
सार्स महामारी के बाद जो टीका विकसित किया था, उसी
पर वे टेक्सास बाल चिकित्सालय के साथ मिलकर आगे काम कर रहे हैं क्योंकि सार्स का
वायरस और नया वायरस काफी मिलते-जुलते हैं। अभी यह जंतु परीक्षण के चरण में है।
पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय
ने PittCoVacc
नामक टीका विकसित किया है। यह चमड़ी पर एक पट्टी के रूप में लगाया जाता है जिसके
ज़रिए वायरस-प्रोटीन
शरीर में पहुंच जाता है। अभी यह जंतु परीक्षण के चरण में है।
क्वींसलैंड विश्वविद्यालय
(ऑस्ट्रेलिया) द्वारा एक परिवर्तित
वायरस प्रोटीन से विकसित टीका चरण 1 में है।
सैनोफी नामक कम्पनी
ने जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए परिवर्तित कोरोनावायरस से प्रोटीन प्राप्त करके
टीके के जंतु परीक्षण शुरू किए हैं। यह वायरस कीटों के शरीर में पाला जा सकता है।
वेक्सार्ट द्वारा
विकसित टीका एक गोली के रूप में है, जिसमे
विभिन्न वायरस प्रोटीन्स हैं। इसके चरण 1 के परीक्षण जल्दी ही शुरू होंगे।
संपूर्ण
वायरस के टीके
इन
टीकों में दुर्बलीकृत या निष्क्रिय कोरोनावायरस का उपयोग करके प्रतिरक्षा
प्रतिक्रिया को उकसाया जाता है।
चीनी कम्पनी
साइनोवैक निष्क्रिय किए गए कोरोनावायरस से बने टीके (CoronaVac) के चरण 1 व 2 के परीक्षण पूरे
करके चरण 3 के
परीक्षण की तैयारी कर रही है।
सरकारी चीनी कम्पनी
साइनोफार्म ने निष्क्रिय किए गए वायरस से बने टीके के चरण 1 व 2 का परीक्षण शुरू किया है।
चाइनीज़ एकेडमी ऑफ
मेडिकल साइन्सेज़ का इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल बायोलॉजी, जिसने
पोलियो और हिपेटाइटिस-ए
का टीका बनाया था, कोविड-19 के लिए निष्क्रिय
वायरस आधारित टीके का चरण 1 का परीक्षण कर रहा है।
पुराने
टीकों का नया उपयोग
ऐसे
टीकों को उपयोग करना जो अन्य बीमारियों के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
टीबी के खिलाफ
बीसीजी टीके का आविष्कार 1900
के दशक में हुआ था। ऑस्ट्रेलिया के मर्डोक चिल्ड्रंस रिसर्च
इंस्टीट्यूट तथा कई अन्य स्थानों पर चरण 3 के परीक्षण चल रहे हैं कि क्या बीसीजी टीका
कोरोनावायरस के खिलाफ कुछ सुरक्षा प्रदान करता है।
स्रोत: विश्व स्वास्थ्य संगठन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिसीज़ेस, नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नॉनॉलॉजी इंफर्मेशन, न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://api.time.com/wp-content/uploads/2020/03/moderna-labs.jpg?quality=85&w=1012&h=569&crop=1
भारत यह
तो सब जानते हैं कि कई बैक्टीरिया हमारे लिए फायदेमंद होते हैं। जैसे हमारी आंत
में बसे बैक्टीरिया भोजन पचाने में मददगार हैं, जीभ
और त्वचा पर बसे बैक्टीरिया हमें रोगजनकों से सुरक्षा देते हैं। और अब हाल ही में
शोधकर्ताओं को हमारी नाक में भी लाभदायक बैक्टीरिया मिले हैं। सेल पत्रिका में
प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह नासिका सूक्ष्मजीव संसार नासूर (गंभीर साइनस समस्या) या एलर्जी से बचाने
में मददगार हो सकता है।
युनिवर्सिटी
ऑफ एंटवर्प की सूक्ष्मजीव विज्ञानी सारा लेबीर और उनके साथियों ने 100 स्वस्थ लोगों की नाक
में बसे सूक्ष्मजीवों की जासूसी की और उनकी तुलना नाक या साइनस की जीर्ण सूजन वाले
मरीज़ों की नाक के सूक्ष्मजीवों से की। उन्हें सामान्य तौर पाए जाने वाले
सूक्ष्मजीवों के अलावा एक बैक्टीरिया समूह लैक्टोबेसिलस दिखा,
जो स्वस्थ लोगों की नाक में 10 गुना अधिक संख्या में था। लैक्टोबेसिलस
सूक्ष्मजीव-रोधी
और सूजन-रोधी
होते हैं।
आम
तौर पर लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया कम ऑक्सीजन वाले क्षेत्रों में पनपते हैं,
इसलिए इंसानों की नाक में इनकी मौजूदगी से शोधकर्ता हैरान
थे, क्योंकि नाक तो ताज़ा हवा से भरपूर होती है।
लेकिन बारीकी से अवलोकन करने पर पता चला है कि इस बैक्टीरिया में केटालेसेस नामक
खास जीन्स मौजूद हैं जो अन्य लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया से अलग हैं। केटालेसेस
सुरक्षित तरीके से ऑक्सीजन को बेअसर कर देते हैं। अर्थात ये लैक्टोबेसिलस नाक के
परिवेश के लिए अनुकूलित हैं।
बैक्टीरिया
पर बहुत छोटे-छोटे
बाल के समान उपांग भी दिखे जो बैक्टीरिया को नाक की आंतरिक सतह पर लंगर डालने में
मदद करते हैं। और लेबीर का विचार है कि बैक्टीरिया इन रोमिल उपांगों का उपयोग नाक
की त्वचा की कोशिकाओं के ग्राहियों से जुड़ने के लिए करते हैं,
जिससे कोशिकाओं में प्रवेश मार्ग बंद हो जाता है। यदि
कोशिकाएं कम खुली रहेंगी तो एलर्जी पैदा करने वाले और नुकसानदेह बैक्टीरिया का
कोशिका में प्रवेश मुश्किल होगा।
लेकिन
लेबीर यह भी जानती हैं कि स्वस्थ लोगों की नाक में लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया की
उपस्थिति मात्र के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये बीमारी से सुरक्षा देते हैं।
इसकी पुष्टि के लिए जंतु मॉडल पर परीक्षण करना भी मुश्किल होता है क्योंकि उनकी
नाक हम मनुष्यों से बहुत अलग होती है।
कुछ
विशेषज्ञ इस बात से भी सहमत नहीं है कि जो लैक्टोबेसिलस मनुष्यों की नाक में मिले
हैं वे नाक में बसने के लिए अनुकूलित हैं। हमारे मुंह में भी लाखों लैक्टोबेसिलस
बसते हैं और हो सकता है कि छींक के माध्यम से वे नाक में पहुंच गए हों।
बहरहाल लेबीर का इरादा नासिका प्रोबायोटिक्स का उपयोग करके इलाज विकसित करने का है। वैसे तो साइनस का उपचार उपलब्ध है लेकिन गंभीर साइनस की समस्या में लगातार उपचार करने की ज़रूरत होती है जिससे एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित होने की संभावना होती है। इन बैक्टीरिया के लाभकारी हिस्से का उपयोग कर दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध हासिल करने के जोखिम को कम किया जा सकता है। इसके पहले चरण में उन्होंने नाक के लिए एक स्प्रे विकसित किया है जिसमें लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया हैं। इसके परीक्षण में रोगियों की नाक में बिना किसी दुष्प्रभाव के लैक्टोबेसिलस बैक्टीरिया बस गए। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/bacteria_700p.jpg?itok=SuPZStNn
पिछले
कुछ दिनों में कई समाचार पत्रों में राजस्थान-गुजरात
के रेगिस्तानी इलाकों से आए टिड्डी दल के बारे में कई विश्लेषणात्मक लेख प्रकाशित
हुए हैं, जिनके
उड़ने का रुख अब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ओर है। ये टिड्डी दल फसलों को भारी नुकसान
पहुंचाते हैं। लेखों में यह भी बताया गया है कि कैसे सदियों से भारत (और निश्चित ही पाकिस्तान भी) इस
प्रकोप से निपटता आ रहा है। (वास्तव में तो
महाभारत काल से ही: याद कीजिए, पांडव सेना को
चुनौती देते हुए कर्ण कहते हैं, ‘हम आप पर शलभासन – टिड्डियों
के झुंड – की तरह टूट पड़ेंगे’)।
ब्रिटिश
सरकार ने 1900 के दशक की शुरुआत में ही भारत के जोधपुर और
कराची में टिड्डी चेतावनी संगठन (LWO) की स्थापना की थी। आज़ादी के बाद केंद्रीय
कृषि मंत्रालय ने इन संगठनों को बनाए रखा और इनमें सुधार किया। फरीदाबाद स्थित
टिड्डी चेतावनी संगठन प्रशासनिक मामलों और जोधपुर स्थित टिड्डी चेतावनी संगठन इसके
तकनीकी पहलुओं को संभालते हैं और साथ में कई और स्थानीय शाखाएं भी हैं। वे खेतों
में हवाई स्प्रे (आजकल ड्रोन से) और
मैदानी कार्यकर्ताओं की मदद से कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं।
टिड्डी
नियंत्रण
कृषि
मंत्रालय की vikaspedia.in
नाम से एक वेबसाइट है जिस पर टिड्डी नियंत्रण और पौधों की सुरक्षा और उनसे निपटने
के वर्तमान तरीकों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है। और मंत्रालय के
वनस्पति संरक्षण,
क्वारेंटाइन एवं भंडारण निदेशालय की वेबसाइट (ppqs.gov.in) पर रेगिस्तानी टिड्डों के आक्रमण, प्रकोप और उनके
फैलाव के नियंत्रण की आकस्मिक योजना के बारे में बताया गया है।
टिड्डों
की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों, पश्चिमी एशिया, ईरान और ऑस्ट्रेलिया
के कुछ हिस्सों में भी है। रोम स्थित संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन इस
प्रकोप का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रों को सलाह देता है और वित्तीय रूप से मदद
करता है। खाद्य एवं कृषि संगठन का लोकस्ट एनवायरनमेंटल बुकलेट नामक
सूचनाप्रद दस्तावेज टिड्डी दल की स्थिति और उससे निपटने के तरीकों के बारे में
नवीनतम जानकारी देता है। टिड्डी दल और उसके प्रबंधन की उत्कृष्ट नवीनतम जानकारी
हैदराबाद स्थित अंतर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क ऊष्णकटिबंधीय
फसल अनुसंधान संस्थान (ICRISAT) के विकास केंद्र (IDC) द्वारा 29 मई
को प्रकाशित की गई है (नेट पर उपलब्ध)।
आम
तौर पर टिड्डी दल से निपटने का तरीका ‘झुंड को ढूंढ-ढूंढकर मारो’ है, जिसका उपयोग दुनिया
के तमाम देश करते हैं। निश्चित तौर पर हमें इस प्रकोप से लड़ने और उससे जीतने के
लिए बेहतर और नए तरीकों की ज़रूरत है।
टिड्डियां
झुंड कैसे बनाती हैं
यहां
महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रश्न उठता है कि टिड्डियां क्यों और कैसे हज़ारों की संख्या
में एकत्रित होकर झुंड बनाती हैं। काफी समय से कीट विज्ञानी यह जानते हैं कि
टिड्डी स्वभाव से एकाकी प्रवृत्ति की होती है, और आपस में एक-दूसरे
के साथ घुलती-मिलती नहीं हैं। फिर भी जब फसल कटने का
मौसम आता है तो ये एकाकी स्वभाव की टिड्डियां आपस में एकजुट होकर पौधों पर हमला
करने के लिए झुंड रूपी सेना बना लेती हैं। इसका कारण क्या है? वह क्या जैविक
क्रियाविधि है जिसके कारण उनमें यह सामाजिक परिवर्तन आता है? यदि हम इस
क्रियाविधि को जान पाएं तो उनके उपद्रव को रोकने के नए तरीके भी संभव हो सकते हैं।
कैम्ब्रिज
युनिवर्सिटी के स्टीफन रोजर्स, ये दल क्यों और कैसे बनते हैं, इसके जाने-माने विश्वस्तरीय विशेषज्ञ हैं। साल 2003 में
प्रकाशित अपने एक पेपर में वे बताते हैं कि जब एकाकी टिड्डी भोजन की तलाश में
संयोगवश एक-दूसरे के पास आ जाती हैं और संयोगवश एक-दूसरे को छू लेती हैं तो यह स्पर्श-उद्दीपन
(यहां तक कि पिछले टांग के छोटे-से हिस्से में ज़रा-सा स्पर्श भी) उनके व्यवहार को बदल देता है। यह यांत्रिक उद्दीपन टिड्डी
के शरीर की कुछ तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है जिससे उनका व्यवहार बदल जाता है और
वे एक साथ आना शुरू कर देती हैं। और यदि और अधिक टिड्डियां पास आती हैं तो उनका दल
बनना शुरू हो जाता है। और छोटा-सा कीट आकार में बड़ा
हो जाता है, और
उसका रंग-रूप बदल जाता है। अगले पेपर में वे बताते
हैं कि टिड्डी के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को नियंत्रित करने वाले कुछ रसायनों में
परिवर्तन होता है;
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण रसायन है सिरोटोनिन। सिरोटोनिन
मिज़ाज (मूड) और सामाजिक व्यवहार
को नियंत्रित करता है।
इन
सभी बातों को एक साथ रखते हुए रोजर्स और उनके साथियों ने साल 2009 में साइंस पत्रिका में एक पेपर प्रकाशित किया था
जिसमें वे बताते हैं कि वास्तव में सिरोटोनिन दल के गठन के लिए ज़िम्मेदार होता है।
इस अध्ययन में उन्होंने प्रयोगशाला में एक प्रयोग किया जिसमें उन्होंने एक पात्र
में एक-एक करके टिड्डियों को रखा। जब टिड्डियों की
संख्या बढ़ने लगी तो उनके समीप आने ने यांत्रिक (स्पर्श) और न्यूरोकेमिकल (सिरोटोनिन) उद्दीपन को प्रेरित किया, और कुछ ही घंटो में
झुंड बन गया! और जब शोधकर्ताओं ने सिरोटोनिन के उत्पादन
को बाधित करने वाले पदार्थों (जैसे 5HT या
AMTP अणुओं) को जोड़ना शुरू किया तो उनके जमावड़े में काफी कमी आई।
झुंड
बनने से रोकना
अब
हमारे पास इस टिड्डी दल को बनने से रोकने का एक संभावित तरीका है! तो क्या हम जोधपुर और अन्य स्थानों में स्थित टिड्डी
चेतावनी संगठन के साथ मिलकर,
दल बनना शुरू होने पर सिरोटोनिन अवरोधक रसायनों का छिड़काव
कर सकते हैं? रोजर्स
साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में पहले ही यह सुझाव दे चुके हैं।
क्या यह एक मुमकिन विचार है या यह एक अव्यावहारिक विचार है? इस बारे में
विशेषज्ञ हमें बताएं। इसे आज़मा कर तो देखना चाहिए।
और अंत में टिड्डी दल पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों (खासकर मेलेथियोन) के दुष्प्रभावों को जांचने की ज़रूरत है हालांकि कई अध्ययन बताते हैं कि यह बहुत हानिकारक नहीं है। फिर भी हमें प्राकृतिक और पशु उत्पादों का उपयोग कर जैविक कीटनाशकों पर काम करने की ज़रूरत है जो पर्यावरण, पशु और मानव स्वास्थ्य के अनुकूल हों।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/jlu1if/article31768086.ece/ALTERNATES/FREE_960/07TH-SCILOCUST-LONE
मैंने
पहले एक लेख में कहा था कि इस बात की प्रबल संभावना है कि वर्तमान महामारी के लिए
ज़िम्मेदार वायरस (SARS-Cov-2) का विकास इस तरह होगा कि उसकी उग्रता या अनिष्टकारी
प्रवृत्ति कम होती जाएगी। मुझे ऐसी उम्मीद इसलिए है कि एक ओर तो लगभग सारे देश
सारे ज्ञात कोरोना-पॉज़िटिव
प्रकरणों में सख्त क्वारेंटाइन लागू कर रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर,
हम बहुत व्यापक परीक्षण नहीं करवा पाएंगे,
जिसका परिणाम यह होगा कि बहुत सारे प्रकरणों में लक्षण-रहित व्यक्तियों की
जांच नहीं हो पाएगी। ये लोग घूमते-फिरते रहेंगे और वायरस को फैलाते रहेंगे।
वायरस
बड़ी आबादी तक पहुंचता है और इसकी उत्परिवर्तन की दर भी काफी अधिक होती है। इस वजह
से तमाम परिवर्तित रूप उभरते रहेंगे। जो किस्में अधिक उग्र व अनिष्टकारी होंगी,
वे गंभीर संक्रमण पैदा करेंगी,
जिसके चलते ऐसे मरीज़ों की जांच होगी और उन्हें क्वारेंटाइन
किया जाएगा।
दूसरी
ओर, कम उग्र रूप लक्षण-रहित या हल्के-फुल्के लक्षणों वाले संक्रमण पैदा करेंगे,
जो शायद स्क्रीनिंग और उसके बाद होने वाले क्वारेंटाइन से
बच निकलेंगे। इसका मतलब है कि ये फैलते रहेंगे। वायरस की कई पीढियों,
जो बहुत लंबी अवधि नहीं होती, में
प्राकृतिक चयन कम उग्र रूपों को तरजीह देगा।
जहां
वायरस सम्बंधी सारा अनुसंधान टीके के विकास, उसकी
रोगजनक पद्धति या उपचार विकसित करने पर है, वहीं
वायरस के जैव विकास पर कोई बात नहीं हो रही है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि
चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जैव विकास के लिहाज़ से सोचने की तालीम
ही नहीं दी जाती। दूसरा कारण यह है कि उग्रता/अनिष्टकारी प्रवृत्ति को नापना संभव नहीं
है। वायरस के डीएनए का अनुक्रमण करना, उसके
द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स का अध्ययन करना, संक्रमित
व्यक्ति में एंटीबॉडी खोजना वगैरह आसान है। शोधकर्ता आम तौर वही करते हैं,
जो सरल हो, न कि वह जो
वैज्ञानिक दृष्टि से ज़्यादा प्रासंगिक हो।
चूंकि
आप उग्रता में परिवर्तन को आसानी से नाप नहीं सकते, इसलिए
इस पर आधारित परिकल्पना की कोई बात भी नहीं करता। मैं इसे विज्ञान में ‘प्रमाण-पूर्वाग्रह’ कहता हूं। यदि किसी
परिकल्पना को सिद्ध करने या उसका खंडन करने के लिए प्रमाण जुटाना मुश्किल हो,
तो लोग उसके बारे में चर्चा करने से कतराते हैं,
क्योंकि उसके आधार पर शोध पत्र तो तैयार नहीं हो सकता।
महत्व इस बात का नहीं होता कि कोई परिकल्पना जन स्वास्थ्य के लिहाज़ से वैज्ञानिक
महत्व रखती है या नहीं बल्कि इस बात का होता है कि क्या आप शोध पत्र प्रकाशित कर
पाएंगे।
अलबत्ता,
विश्व स्तर पर रोग प्रसार के रुझान और भारतीय परिदृश्य से
भी निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि वायरस की उग्रता कम हो रही है। यद्यपि संक्रमण बढ़
रहा है, लेकिन समय के साथ
मृत्यु दर लगातार कम हो रही है। पैटर्न पर नज़र डालिए। मध्य अप्रैल से,
हालांकि प्रतिदिन नए संक्रमित व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है,
लेकिन प्रतिदिन मौतों की संख्या कम हुई है।
यही
भारत में भी दिख रहा है। दरअसल, भारत में रोगी
मृत्यु दर (यानी
कोविड-19 के
मरीज़ों की संख्या के अनुपात में मौतें) पहले से ही कम थी। और यह दर लगातार कम हो रही है,
हालांकि प्रतिदिन कुल मौतों की संख्या में गिरावट आना शेष
है।
मैंने यहां भारत में प्रतिदिन रिपोर्टेड पॉज़िटिव केसेस को प्रतिदिन रिपोर्टेड मौतों के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया है। यह ग्राफ उस दिन से शुरू किया है जिस दिन प्रतिदिन मृत्यु का आंकड़ा 50 से ऊपर हो गया था। यह सही है कि दिन-ब-दिन उतार-चढ़ाव दिखते हैं लेकिन फिर भी मृत्यु में लगातार कमी की प्रवृत्ति स्पष्ट है।
अब
यदि हम एक सरल सी मान्यता लेकर चलें कि यही प्रवृत्ति जारी रहेगी,
तो हम कह सकते हैं कि भारत में 35 दिनों में कोविड-19 साधारण
फ्लू जितना खतरनाक रह जाएगा। ज़ाहिर है, यह
सरल मान्यता थोड़ी ज़्यादा ही सरल है, क्योंकि
ग्राफ लगातार एक सरीखा नहीं रहेगा।
दूसरी
शर्त यह है कि केस-मृत्यु
दर को मृत्यु दर के तुल्य नहीं माना जा सकता। किसी बढ़ती महामारी में केस-मृत्यु दर मृत्यु दर
को कम करके आंकती है। 35 दिन
का उपरोक्त अनुमान थोड़ा आशावादी हो सकता है। हो सकता है थोड़ा ज़्यादा समय लगे लेकिन
दिशा तसल्ली देती है। मैंने अपने कुछ चिकित्सक दोस्तों से यह भी सुना है कि अब सघन
देखभाल की ज़रूरत वाले मरीज़ों की संख्या भी कम हो रही है।
टीके
के परीक्षण और बड़े पैमाने पर उत्पादन में कई महीने लग जाएगे और यह तत्काल उपलब्ध
नहीं हो पाएगा। और शायद यह जन साधारण के लिए बहुत महंगा साबित हो।
भारत
जैसे विशाल देश के लिए सामूहिक प्रतिरोध (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल करना दूर की कौड़ी है और यह शायद एक-दो सालों में संभव न
हो।
लेकिन इन दोनों चीज़ों से पहले संभवत: जैव विकास इस वायरस की जानलेवा प्रवृत्ति से निपट लेगा। इसमें कोई शक नहीं कि हमें क्वारेंटाइन को जारी रखना होगा और लक्षण-सहित मरीज़ों की बढ़िया चिकित्सकीय देखभाल करनी चाहिए लेकिन लक्षण-रहित व्यक्तियों को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वही हमें बचाने वाले हैं। हमें एकाध महीने इन्तज़ार करके देखना चाहिए कि क्या यह भविष्यवाणी सही होती है या नहीं। यदि यह गुणात्मक या मात्रात्मक रूप से सही साबित होती है तो चिकित्सा विज्ञान के लिए अच्छी दूरगामी सीख होगी। उग्रता प्रबंधन की रणनीति सार्वजनिक स्वास्थ्य नियोजन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यह पहली या आखरी बार नहीं है कि कोई नया वायरस प्रकट हुआ है। ऐसा तो होता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु जैव विकास की गतिशीलता को समझना निश्चित रूप से ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/height-450,width-600,resizemode-4,imgsize-200519,msid-75397580/coronavirus-updates-india-records-28380-confirmed-cases-death-toll-rises-to-886.jpg