पृथ्वी और मानवता को बचाने के लिए आहार – ज़ुबैर सिद्दिकी

लवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द अब हमारे लिए अनजाने नहीं हैं। बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से निकट भविष्य में होने वाली समस्याओं के संकेत दिखने लगे हैं। इनको सीमित करने के लिए समय-समय पर सम्मेलन आयोजित होते रहे हैं। हाल ही में ग्लासगो में ऐसा सम्मेलन हुआ था। आम तौर पर इन सम्मेलनों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, वनों की कटाई, पारिस्थितिक तंत्र आदि मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर चर्चा नहीं होती है। हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने हमारे खानपान के तरीकों से पृथ्वी पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है।    

तथ्य यह है कि विश्व में लगभग दो अरब लोग (अधिकांश पश्चिमी देशो में) अधिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं। इसके विपरीत करीब 80 करोड़ ऐसे लोग (अधिकांश निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में) भी हैं जिनको पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है। 2017 में अस्वस्थ आहार से विश्व स्तर पर सबसे अधिक मौतें हुई थीं। राष्ट्र संघ खाद्य व कृषि संगठन के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि और पश्चिमी देशों के समान अधिक से अधिक भोजन का सेवन करने के रुझान को देखते हुए अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मांस, डेयरी और अंडे के उत्पादन में लगभग 44 प्रतिशत वृद्धि ज़रूरी होगी।

यह स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण की भी समस्या है। गौरतलब है कि वर्तमान औद्योगीकृत खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लगभग एक-चौथाई के लिए ज़िम्मेदार है। इसके लिए विश्व भर के 70 प्रतिशत मीठे पानी और 40 प्रतिशत भूमि का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस चक्र को बाधित करते हैं और नदियों तथा तटों को भी प्रदूषित करते हैं।

वर्ष 2019 में 16 देशों के 37 पोषण विशेषज्ञों, पारिस्थितिकीविदों और अन्य विशेषज्ञों के एक समूह – लैंसेट कमीशन ऑन फूड, प्लेनेट एंड हेल्थ – ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें पोषण और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए व्यापक आहार परिवर्तन का आह्वान किया गया है। लैंसेट समूह द्वारा निर्धारित आहार का पालन करने वाले व्यक्ति को लचीलाहारी कहा जाता है जो अधिकांश दिनों में तो पौधों से प्राप्त आहार लेता है और कभी-कभी थोड़ी मात्रा में मांस या मछली का सेवन करता है।

इस रिपोर्ट ने निर्वहनीय आहार पर ध्यान तो आकर्षित किया है लेकिन यह सवाल भी उठा है कि क्या यह सभी के लिए व्यावहारिक है। इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिक पोषण और आजीविका को नुकसान पहुंचाए बिना स्थानीय माहौल के हिसाब से पर्यावरणीय रूप से निर्वहनीय आहार का परीक्षण करने का प्रयास कर रहे हैं।

खानपान से होने वाला उत्सर्जन

खाद्य उत्पादन से होने वाला ग्रीनहाउस उत्सर्जन इतना अधिक है कि वर्तमान दर पर सभी राष्ट्र गैर-खाद्य उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म भी कर देते हैं तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया जा सकता है। खाद्य प्रणाली उत्सर्जन का 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा तो केवल जंतु सप्लाई चेन से आता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञों के अनुसार 2050 तक शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण भोजन सम्बंधी उत्सर्जन में 80 प्रतिशत तक वृद्धि होने की सम्भावना है।

यदि सभी लोग अधिक वनस्पति-आधारित आहार का सेवन करने लगें और अन्य सभी क्षेत्रों से उत्सर्जन को रोक दिया जाए तो वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को पूरा करने की 50 प्रतिशत उम्मीद होगी। यदि भोजन प्रणाली में व्यापक बदलाव के साथ आहार में भी सुधार किया जाता है तो यह संभावना बढ़कर 67 प्रतिशत हो जाएगी।

अलबत्ता, ये निष्कर्ष मांस उद्योग को नहीं सुहाते। 2015 में यूएस कृषि विभाग की सलाहकार समिति ने आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों में संशोधन करते समय शोधकर्ताओं के हस्तक्षेप के चलते पर्यावरणीय पहलू को भी शामिल करने पर विचार किया था। लेकिन उद्योगों के दबाव के कारण इस विचार को खारिज कर दिया गया। फिर भी इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान तो गया।

यूके-आधारित वेलकम संस्थान द्वारा वित्तपोषित EAT-लैंसेट कमीशन ने एक मज़बूत केस प्रस्तुत किया। पोषण विशेषज्ञों ने संपूर्ण खाद्य पदार्थों से बना एक बुनियादी स्वस्थ आहार तैयार किया जिसमें कार्बन उत्सर्जन, जैव-विविधता हानि और मीठे पानी, भूमि, नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस के उपयोग को शामिल किया गया। इस प्रकार से टीम ने आहार की पर्यावरणीय सीमाएं निर्धारित की। टीम के अनुसार इन पर्यावरणीय सीमाओं का उल्लंघन करने का मतलब इस ग्रह को मानव जाति के लिए जीवन-अयोग्य बनाना होगा।

इस आधार पर उन्होंने एक विविध और मुख्यतः वनस्पति आधारित भोजन योजना तैयार की है। इस योजना के तहत औसत वज़न वाले 30 वर्षीय व्यक्ति के लिए 2500 कैलोरी प्रतिदिन के आहार के हिसाब से एक सप्ताह में 100 ग्राम लाल मांस खाने की अनुमति है। यह एक आम अमेरिकी की खपत से एक-चौथाई से भी कम है। यह भी कहा गया है कि अत्यधिक परिष्कृत खाद्य पदार्थ (शीतल पेय, फ्रोज़न फूड और पुनर्गठित मांस, शर्करा और वसा) के सेवन से भी बचना चाहिए।

आयोग का अनुमान है कि इस प्रकार के आहार के ज़रिए पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचाए बिना 10 अरब लोगों को अधिक स्वस्थ भोजन दिया जा सकता है। कई वैज्ञानिकों ने EAT-लैंसेट द्वारा तैयार किए गए आहार प्लान की सराहना की है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या यह आहार कम संसाधन वाले लोगों के लिए भी पर्याप्त पोषण प्रदान करेगा। जैसे वाशिंगटन स्थित ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन के टाय बील का निष्कर्ष है कि यह आहार 25 वर्ष से ऊपर की आयु के व्यक्ति के लिए आवश्यक जिंक का 78 प्रतिशत और कैल्शियम का 86 प्रतिशत ही प्रदान करता है और प्रजनन आयु की महिलाओं को आवश्यक लौह का केवल 55 प्रतिशत प्रदान करता है।

इन आलोचनाओं के बावजूद, यह आहार पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं को केंद्र में रखता है। रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद विश्व भर के जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक इस आहार को सभी तरह के लोगों के लिए व्यावहारिक बनाने पर अध्ययन कर रहे हैं।

समृद्ध आहार

कई पोषण शोधकर्ता जानते हैं कि अधिकांश उपभोक्ता आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते। कई वैज्ञानिक लोगों को यह संदेश देने के कारगर तरीके तलाश रहे हैं। कुछ पोषण वैज्ञानिक स्कूलों में बगैर हो-हल्ले के एक निर्वहनीय आहार का परीक्षण कर रहे हैं, जिसमें मौसमी सब्ज़ियों और फ्री-रेंज मांस (जिन जंतुओं को दड़बों में नहीं रखा जाता) जैसे पारंपरिक और निर्वहनीय खाद्य की खपत को बढ़ावा दिया जाता है।

इस कार्यक्रम में प्राथमिक विद्यालय के 2000 छात्रों के स्कूल लंच का विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर एल्गोरिदम का उपयोग किया गया है। जिससे उन्हें आहार को अधिक पौष्टिक और जलवायु के अनुकूल बनाने के तरीकों के सुझाव मिले, जैसे मांस की मात्रा को कम करके फलियों और सब्ज़ियों की मात्रा में वृद्धि। शोधकर्ताओं ने बच्चों और उनके अभिभावकों को लंच में सुधार की सूचना दी लेकिन उनको इसका विवरण नहीं दिया गया। इसकी ओर बच्चों ने भी ध्यान नहीं दिया और पहले के समान भोजन की बर्बादी भी नहीं हुई। इस कवायद के माध्यम से शोधकर्ता बच्चों में टिकाऊ आहार सम्बंधी आदतें विकसित करना चाहते हैं जो आगे भी जारी रहें। वैसे यह आहार EAT-लैंसेट से काफी अलग है। यह EAT-लैंसेट आहार को स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर तैयार करने के महत्व को रेखांकित करता है।

इसी तरह से कुछ शिक्षाविद और रेस्तरां भी कम आय वाली परिस्थिति में मुफ्त आहार का परीक्षण कर रहे हैं। इस संदर्भ में जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इस तरह का आहार लेने वाले 500 लोगों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 93 प्रतिशत लोगों ने इस आहार को काफी पसंद किया। देखा गया कि प्रत्येक मुफ्त आहार की कीमत 10 अमेरिकी डॉलर है जो वर्तमान में यूएस फूड स्टैम्प द्वारा प्रदान की जाने वाली राशि का पांच गुना है। इससे पता चलता है कि यदि आप आहार में व्यापक बदलाव करें तो पर्यावरण पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन इसमें सांस्कृतिक और आर्थिक बाधाएं रहेंगी।

पेट पर भारी

फिलहाल शोधकर्ता कम या मध्यम आय वाले देशों में भविष्य का आहार खोजने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा यह पता लगाना है कि इन देशों के लोग वर्तमान में कैसे भोजन ले रहे हैं। देखा जाए तो भारत के लिए यह जानकारी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक भूख सूचकांक में 116 देशों में भारत का स्थान 101 है। और तो और, यहां अधिकांश बच्चे ऐसे हैं जो अपनी काफी दुबले हैं।

इस मामले में उपलब्ध डैटा का उपयोग करते हुए आई.आई.टी. कानपुर के फूड सिस्टम्स वैज्ञानिक अभिषेक चौधरी, जो EAT-लैंसेट टीम का हिस्सा भी रहे हैं, और उनके सहयोगी स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैभव कृष्णा ने भारत के सभी राज्यों के लिए आहार डिज़ाइन तैयार करने के लिए स्थानीय पानी, उत्सर्जन, भूमि उपयोग और फॉस्फोरस एवं नाइट्रोजन उपयोग के पर्यावरणीय डैटा का इस्तेमाल किया। इस विश्लेषण ने एक ऐसे आहार का सुझाव दिया जो पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा करता है, खाद्य-सम्बंधी उत्सर्जन को 35 प्रतिशत तक कम करता है और अन्य पर्यावरणीय संसाधनों पर दबाव भी नहीं डालता है। लेकिन आवश्यक मात्रा में ऐसा भोजन उगाने के लिए 35 प्रतिशत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी या उपज बढ़ानी होगी। इसके अलावा भोजन की लागत 50 प्रतिशत अधिक होगी।

भारत ही नहीं स्वस्थ और टिकाऊ आहार अन्य स्थानों पर भी महंगा है। EAT-लैंसेट द्वारा प्रस्तावित विविध आहार जैसे नट, मछली, अंडे, डेयरी उत्पाद आदि को लाखों लोगों तक पहुंचाना असंभव है। यदि खाद्य कीमतों के हालिया आंकड़ों (2011) को देखा जाए तो इस आहार की लागत एक सामान्य पौष्टिक भोजन की लागत से 1.6 गुना अधिक है।

कई अन्य व्यावहारिक दिक्कतों के चलते फिलहाल वैज्ञानिकों को कम और मध्यम आय वाले देशों में पर्यावरण संरक्षण से अधिक ध्यान पोषण प्रदान करने पर देना चाहिए। वर्तमान में एक समिति के माध्यम से EAT-लैंसेट के विश्लेषण पर एक बार फिर विचार किया जा रहा है।

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि गरीब देशों में वहनीय आहार की खोज समुदायों और किसानों के साथ मिलकर काम करने से ही संभव है। खाद्य प्रणाली से जुड़े वैज्ञानिकों को लोगों को बेहतर आहार प्रदान करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बनाने के तरीके खोजने की भी आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कम खाएं, स्वस्थ रहें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

धुनिक मनुष्यों के लिए स्वस्थ और बुद्धिमान रहने के लिए दिन में तीन बार भोजन करना आदर्श नुस्खा लगता है। फिर भी जैव विकास के नज़रिए से देखें तो हमारा शरीर कभी-कभी उपवास के लिए या कुछ समय भूखा रहने के लिए अनुकूलित हुआ है क्योंकि मनुष्यों के लिए लगातार भोजन उपलब्ध रहेगा इसकी गारंटी नहीं थी ।

निस्संदेह उपवास हमारी पंरपरा का एक हिस्सा है; यह कई संस्कृतियों में प्रचलित है – हिंदुओं में एकादशी से लेकर करवा चौथ तक के व्रत; यहूदियों के योम किप्पुर, जैनियों का पर्युषण पर्व, मुसलमानों के रमज़ान के रोज़े, ईसाइयों में लेंट अवधि वगैरह। तो सवाल है कि क्या व्यापक स्तर पर उपवास का चलन यह संकेत देता है कि यह मन को संयमित रखने के अलावा स्वास्थ्य लाभ देता है।

वर्ष 2016 में दी लैसेंट पत्रिका में प्रकाशित 186 देशों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला है कि अब मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या कम-वज़न वाले लोगों की संख्या से अधिक है। दो पीढ़ी पहले की तुलना में हमारा जीवनकाल भी काफी लंबा है। इन दोनों कारकों ने मिलकर समाज पर बीमारी का बोझ काफी बढ़ाया है। और व्यायाम के अलावा, सिर्फ उपवास और कैलोरी कटौती या प्रतिबंध (CR) यानी कैलोरी को सीमित करके स्वस्थ जीवन काल में विस्तार देखा गया है।

उपवास बनाम कैलोरी कटौती

उपवास और कैलोरी कटौती दोनों एक बात नहीं है। कैलोरी कटौती का मतलब है कुपोषण की स्थिति लाए बिना कैलोरी सेवन की मात्रा में 15 से 40 प्रतिशत तक की कमी करना। दूसरी ओर, उपवास कई तरीकों से किए जाते हैं। रुक-रुककर उपवास यानी इंटरमिटेंट फास्टिंग (IF) में आप बारी-बारी 24 घंटे बिना भोजन के (या अपनी खुराक का 25 प्रतिशत तक भोजन ग्रहण करके) बिताते हैं और फिर अगले 24 घंटे सामान्य भोजन करके बिताते हैं। सावधिक उपवास (पीरियॉडिक फास्टिंग) में आप हफ्ते में एक या दो दिन का उपवास करते हैं और हफ्ते के अगले पांच दिन सामान्य तरह से भोजन करते हैं। समय-प्रतिबंधित आहार (TRF) में पूरे दिन का भोजन 4 से 12 घंटे के भीतर कर लिया जाता है। और उपवासनुमा आहार यानी फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट (FMD) में महीने में एक बार लगातार पांच दिनों के लिए अपनी आवश्यकता से 30 प्रतिशत तक कम भोजन किया जाता है। इसके अलावा, भोजन की मात्रा घटाने के दौरान लिए जाने वाले वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट के अनुपात को कम-ज़्यादा किया जा सकता है ताकि पर्याप्त वसा मिलती रहे।

जापान में ओकिनावा द्वीप में स्वस्थ शतायु लोगों की संख्या काफी अधिक है, क्योंकि वहां के वयस्क हारा हाची बू का पालन करते हैं – जब पेट 80 प्रतिशत भर गया होता है तो वे खाना बंद कर देते हैं। कुछ संप्रदायों के बौद्ध भिक्षु दोपहर में अपना अंतिम भोजन (TRF) कर लेते हैं।

कई अध्ययनों में कृन्तकों और मनुष्यों पर व्रत के ये विभिन्न तरीके जांचे गए हैं – हम मनुष्यों को अक्सर प्रतिबंधित आहार लेने के नियम का पालन करना मुश्किल होता है! लेकिन जब भी इनका ठीक से पालन किया गया है तो देखा गया है कि इन तरीकों ने मोटापे को रोकने, ऑक्सीकारक तनाव और उच्च रक्तचाप से सुरक्षा दी है। साथ ही इन्होंने कई उम्र सम्बंधी बीमारियों को कम किया है और इनकी शुरुआत को टाला है।

उम्र वगैरह जैसी व्यक्तिगत परिस्थितियों को देखते हुए व्रत का उपयुक्त तरीका चुनने के लिए सावधानीपूर्वक जांच और विशेषज्ञ की सलाह आवश्यक है।

ग्लायकोजन भंडार

हम ग्लूकोज़ को लीवर में ग्लायकोजन के रूप में जमा रखते हैं; शरीर की ऊर्जा की मांग इसी भंडार से पूरी होती है। एक दिन के उपवास से रक्त शर्करा के स्तर में 20 प्रतिशत की कमी होती है और ग्लायकोजन का भंडार घट जाता है। हमारा शरीर चयापचय की ऐसी शैली में आ जाता है जिसमें ऊर्जा की प्राप्ति वसा-व्युत्पन्न कीटोन्स और लीवर के बाहर मौजूद ग्लूकोज़ से होती है। इंसुलिन का स्तर कम हो जाता है और वसा कोशिकाओं में वसा अपघटन के द्वारा लिपिड ट्राइग्लिसराइड्स को नष्ट किया जाता है।

मेटाबोलिक सिंड्रोम जोखिम कारकों का एक समूह है जो हृदय रोग और मधुमेह की संभावना दर्शाते हैं। साल्क इंस्टीट्यूट के सच्चिदानंद पंडा ने अपने अध्ययन में रोगियों में 10 घंटे TRF के लाभों पर प्रकाश डाला है, और रक्तचाप, हृदय की अनियमितता और शारीरिक सहनशक्ति में उल्लेखनीय सुधार देखा है। उनका यह अध्ययन सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित हुआ है।

देखा गया है कि रुक-रुककर उपवास आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को भी बदलता है। इससे बैक्टीरिया की विविधता बढ़ती है। लघु-शृंखला वाले फैटी एसिड बनाने वाले बैक्टीरिया में वृद्धि होती है जो शोथ के ज़रिए होने वाली तकलीफों (जैसे अल्सरेटिव कोलाइटिस) को रोकने के लिए जाने जाते हैं।

वर्ष 2021 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित परिणाम दर्शाते हैं कि फलमक्खियों में काफी दिनों तक रात में कुछ न खाने से कोशिकाओं में पुनर्चक्रण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। इसे ऑटोफेगी या स्व-भक्षण कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके जीवन काल में 15 से 20 प्रतिशत तक का इजाफा होता है।

स्वभक्षण अधिकतर रात में होता है और यह शरीर की आंतरिक घड़ी द्वारा नियंत्रित होता है। तंत्रिकाओं की तंदुरुस्ती के लिए स्वभक्षण आवश्यक है; इस प्रक्रिया में त्रुटि से पार्किंसंस रोग की संभावना बढ़ाती हैं।

पोषक तत्वों की भरपूर आपूर्ति स्वभक्षण को रोकती है और प्रोटीन के जैव-संश्लेषण को बढ़ावा देने वाले मार्गों को सक्रिय करती है और इस प्रकार नवीनीकरण को बढ़ावा मिलता है। अपघटन और नवीनीकरण का यह गतिशील नियंत्रण बताता है कि लंबे समय तक कैलोरी प्रतिबंध की तुलना में इंटरमिटेंट फास्टिंग, टाइम-रेस्ट्रिक्टेड फीडिंग, फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट और पीरियॉडिक उपवास शरीर के लिए बेहतर हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सूरजमुखी के पराबैंगनी रंगों की दोहरी भूमिका

र्मियों के अंत में खेतों में सूरजमुखी खिले दिखते हैं। लंबे तने के शीर्ष पर लगे सूरजमुखी के फूल लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं – चटख पीले रंग की पंखुड़ियां और बीच में कत्थई रंग का गोला। लेकिन पराबैंगनी प्रकाश को देखने में सक्षम मधुमक्खियों व अन्य  परागणकर्ताओं को सूरजमुखी का फूल बीच में गहरे रंग का और किनारों पर हल्के रंग का दिखता है जैसे चांदमारी का निशाना (बुल्स आई) हो।

हाल ही में ईलाइफ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक इस बुल्स आई में पाए जाने वाले यौगिक न सिर्फ परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं, बल्कि पानी के ह्रास को भी नियंत्रित करते हैं और सूरजमुखी को अपने वातावरण में अनुकूलित होने में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं को बुल्स आई के आकार के लिए ज़िम्मेदार एक एकल परिवर्तित जीन क्षेत्र भी मिला है।

ये निष्कर्ष शोधकर्ताओं को यह समझने में मदद कर सकते हैं कि सूरजमुखी और कुछ अन्य फूल बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण अक्सर पड़ने वाले सूखे से कैसे निपटते हैं।

सूरजमुखी (हेलिएंथस प्रजातियां) कठिन आवास स्थानों के प्रति अनुकूलित होने में माहिर हैं। इस वंश के पौधे अत्यधिक दुर्गम परिस्थितियों, जैसे गर्म, शुष्क रेगिस्तान और खारे दलदल में रह सकते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के पादप आनुवंशिकीविद मार्को टोडेस्को जैव विकास और जेनेटिक्स की दृष्टि से समझना चाहते थे कि ये ऐसा कैसे करते हैं।

शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के दूरस्थ स्थानों से लाकर युनिवर्सिटी में उगाए गए 1900 से अधिक सूरजमुखी पौधों का अध्ययन किया। अध्ययन का उद्देश्य फूलों के रंग जैसे विभिन्न लक्षणों को देखना था ताकि उनका आनुवंशिक आधार खोजा जा सके।

शोधकर्ताओं द्वारा सूरजमुखी की पराबैंगनी तस्वीरें लेने पर पता चला कि हरेक सूरजमुखी के फूल के लिए बुल्स आई का आकार बहुत अलग था – फूल के बीच में छोटे से घेरे से लेकर पूरी पंखुड़ियों पर बड़े घेरे तक बने थे। ये भिन्नता न केवल अलग-अलग प्रजातियों में थी बल्कि एक ही प्रजाति के फूलों के बीच भी थी, जिससे लगता है कि इसका कोई वैकासिक महत्व होगा।

अन्य प्रजातियों के फूल परागणकर्ताओं को आकर्षित करने के लिए इसी तरह के पैटर्न का उपयोग करते हैं, इसलिए शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या सूरजमुखी के मामले में भी ऐसा ही है। जैसी कि उम्मीद थी, परागणकर्ता छोटे या बड़े बुल्स आई वाले फूलों की तुलना में मध्यम आकार की बुल्स आई वाले फूलों पर 20-30 प्रतिशत बार अधिक आए। सवाल उठा कि यदि मध्यम आकार परागणकर्ताओं के लिए सबसे आकर्षक है तो फिर इन फूलों में बुल्स आई के इतने भिन्न आकार क्यों दिखते हैं? शोधकर्ताओं का अनुमान था कि बुल्स आई का कोई अन्य कार्य भी होगा जिसके चलते आकार में इतनी विविधता है।

इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका वाले सूरजमुखी (हेलिएन्थस एन्नस) के विभिन्न आकार की बुल्स आई का भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से मानचित्र बनाया। जैसी कि उम्मीद थी उन्हें विविधता में एक स्पष्ट भौगोलिक पैटर्न दिखाई दिया।

पहले तो शोधकर्ताओं को लगा था कि बुल्स आई, जिसमें पराबैंगनी सोखने वाले रंजक होते हैं, सूरजमुखी को अतिरिक्त सौर विकिरण से बचाती होगी। लेकिन सूरजमुखी के मूल भौगोलिक क्षेत्र में पराबैंगनी किरणों की तीव्रता और बुल्स आई के औसत आकार के बीच कोई सम्बंध नहीं दिखा।

फिर शोधकर्ताओं को लगा कि शायद तापमान का इससे सम्बंध होगा। पूर्व अध्ययनों ने बताया गया था कि सूरजमुखी के फूल ऊष्मा को अवशोषित करने के लिए सूरज की तरफ रुख करते हैं, जो उन्हें तेज़ी से बढ़ने और परागणकर्ताओं को आकर्षित करने में मदद करता है। इसलिए शोधकर्ताओं का विचार था कि बड़ी बुल्स आई फूलों को ऊष्मा देने में मदद करती होगी ताकि परागणकर्ता भी आकर्षित हों और वृद्धि भी तेज़ी से हो। लेकिन जब शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकार के बुल्स आई वाले फूलों से आने वाली गर्मी की मात्रा की तुलना की तो उन्हें इसमें दिन में किसी भी समय कोई अंतर नहीं दिखा।

अंत में, उन्होंने देखा कि बड़े बुल्स आई वाले सूरजमुखी शुष्क इलाकों से लाए गए थे, जबकि छोटी बुल्स आई वाले सूरजमुखी नम इलाकों से लाए गए थे। इस आधार पर शोधकर्ताओं का विचार था कि बुल्सआई के आकार का सम्बंध नमी रोधन से होगा। इस परिकल्पना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने फूलों से पंखुड़ियों को अलग किया और अलग-अलग आकार की बुल्स आई वाले फूलों को सूखने में लगने वाला समय का मापन किया।

उन्होंने पाया कि बहुत शुष्क स्थानों से लाए गए फूलों की बहुत बड़ी बुल्स आई थी, और बड़ी बुल्स आई वाले पौधों ने बहुत धीमी दर से पानी खोया। और यदि स्थानीय जलवायु नम और गर्म दोनों है तो छोटे पैटर्न अधिक वाष्पोत्सर्जन होने देते हैं जो फूलों को बहुत गर्म होने से बचाता है। यानी ये पैटर्न दोहरी भूमिका निभाते हैं – परागणकर्ताओं को आकर्षित करना और सही मात्रा में नमी बनाए रखना।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने देखा कि इस विविधता के लिए कौन-से जीन ज़िम्मेदार हैं। सूरजमुखी की दो प्रजातियों एच. एन्नस और एच. पेटियोलारिस के जीनोम का अध्ययन किया गया। अकेले एच. एन्नस में एक जीन में बहुरूपता मिली जो फूलों के पैटर्न में 62 प्रतिशत विविधता के लिए ज़िम्मेदार थी। एच. पेटियोलारिस में स्पष्ट परिणाम नहीं दिखे।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि ये निष्कर्ष अन्य फूलों पर भी लागू हो सकते हैं। और इस तरह के अध्ययन यह समझने में मदद कर सकते हैं कि पौधे जलवायु परिवर्तन के प्रति किस तरह की प्रतिक्रिया दे सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर का अंत वसंत ऋतु में हुआ था

हाल ही में जीवाश्म मछली की हड्डियों पर बारीकी से किए गए अध्ययन से डायनासौर की विलुप्ति के मौसम का पता चला है। 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व की महा-विलुप्ति का मौसम बता पाना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप से टकराने वाले 10 किलोमीटर विशाल क्षुद्रग्रह ने पृथ्वी पर तहलका मचा दिया था। इस टक्कर के कारण वायुमंडल में भारी मात्रा में धूल और गैसें भर गई थीं जिसकी वजह से एक लंबा जाड़ा शुरू हो गया था। कुछ जीव तो इस घटना के पहले दिन ही खत्म हो गए जबकि जलवायु में इतने भीषण परिवर्तन से डायनासौर सहित पृथ्वी की 75 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गईं।

क्षुद्रग्रह टकराने के स्थान से 3500 किलोमीटर दूर (वर्तमान में उत्तरी डैकोटा में) टैनिस नामक स्थल पर एक सुनामीनुमा लहर ने नदी के पानी को बाहर फेंक दिया था जिसके चलते रास्ते की सारी तलछट, पेड़ और मृत जीवों का ढेर जमा हो गया था। हाल ही में उपसला युनिवर्सिटी की जीवाश्म विज्ञानी मिलेनी ड्यूरिंग ने वहां मिली प्राचीन हड्डियों का विश्लेषण किया है। ड्यूरिंग उस टीम का हिस्सा नहीं थीं जिसने टैनिस स्थल की खोज की थी।

उस टीम द्वारा प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित शोधपत्र में जीवाश्मित मछलियों के गलफड़ों में फंसे कांच के छोटे कणों का वर्णन किया गया था। इस टकराव की तीव्रता इतनी अधिक थी कि इससे उत्पन्न मलबा वातावरण में काफी तेज़ी से फैला, क्रिस्टलीकृत हुआ और 15 से 20 मिनट बाद बरसने लगा। गलफड़ों में कांच के कणों की मौजूदगी से पता चलता है कि घटना के तुरंत बाद ही मछलियों की मृत्यु हो गई थी।

2017 में ड्यूरिंग ने उत्तरी डैकोटा के इस स्थल से मछलियों के छह जीवाश्म हासिल किए और शक्तिशाली एक्स-रे से इन की हड्डियों का अध्ययन किया। उन्होंने मछलियों के पंखों की अस्थि कोशिकाओं की परतों की छानबीन की जिनकी मोटाई मौसमों के अनुसार बदलती है। वसंत में ये परतें मोटी हो जाती हैं, गर्मियों में मज़बूती से बढ़ती हैं और ठंड में घटने लगती हैं।         

शोधकर्ताओं ने मछलियों की हड्डियों के कार्बन समस्थानिकों का भी मापन किया। गर्म महीनों में मछली जंतु-प्लवकों का सेवन करती थीं जो कार्बन-13 से भरपूर होते थे। पंख की हड्डियों की वसंत परतें इसी समस्थानिक से निर्मित हुई थीं। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मछली के विकास के पैटर्न और समस्थानिक डैटा इस बात का संकेत देते हैं कि ये छह मछलियां वसंत के मौसम में मारी गई थीं। अन्य मछली जीवाश्मों में पाई गई विकास परतों और कार्बन-ऑक्सीजन समस्थानिक के अनुपात से भी पता चलता है कि इन मछलियों की मृत्यु वसंत ऋतु के अंत या गर्मियों के मौसम में हुई थी।

क्षुद्रग्रह तो पृथ्वी से कभी-भी टकरा सकते हैं लेकिन उत्तरी गोलार्ध में वसंत के मौसम में इनका टकराना जीवों के लिए काफी हानिकारक रहा होगा। आम तौर पर इस मौसम जीव-जंतु अधिकांश समय खुले में और प्रजनन में बिताते हैं। यदि क्षुद्रग्रह ठंड के मौसम में गिरता तो शायद कहानी अलग होती। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सेंटीपीड से प्रेरित रोबोट्स

सेंटीपीड एक रेंगने वाला जीव है। कुछ मिलीमीटर से लेकर 30 सेंटीमीटर लंबे और अनेक टांगों वाले ये जीव विभिन्न परिवेशों में पाए जाते हैं। यह अकशेरुकी जीव रेत, मिट्टी, चट्टानों और यहां तक कि पानी पर भी दौड़ सकता है। जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जीव विज्ञानी डेनियल गोल्डमैन और उनके सहयोगी सेंटीपीड की इस विशेषता का अध्ययन कर रहे थे। हाल ही में टीम ने सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक के दौरान बताया कि उन्होंने एक ऐसा सेंटीपीड रोबोट तैयार किया है जो खेतों से खरपतवार निकालने में काफी उपयोगी साबित होगा।

दरअसल, सेंटीपीड का लचीलापन ही उसे विभिन्न प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित करने में सक्षम बनाता है। वैसे नाम के अनुरूप सेंटीपीड के 100 पैर तो नहीं होते लेकिन हर खंड में एक जोड़ी टांगें होती हैं। यह संरचना उन्हें तेज़ रफ्तार और दक्षता से तरह-तरह से चलने-फिरने की गुंजाइश देती है हालांकि सेंटीपीड की चाल को समझना लगभग असंभव रहा है।

गोल्डमैन के एक छात्र इलेक्ट्रिकल इंजीनियर और रोबोटिक्स वैज्ञानिक यासेमिन ओज़कान-आयडिन ने जब यह पता किया कि कई खंड और टांगें होने का क्या महत्व है तो अध्ययन का तरीका सूझा। इसके लिए ओज़कान-आयडिन ने चार पैर वाले दो-तीन रोबोट्स को एक साथ जोड़ दिया। साइंस रोबोटिक्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह संयुक्त मशीन चौड़ी दरारों और बड़ी-बड़ी बाधाओं को पार करने के सक्षम थी। इसके अलावा युनिवर्सिटी की एक अन्य छात्र एवा एरिकसन ने अन्य जीवों की तुलना में सेंटीपीड की चाल को और गहराई से समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि घोड़े और मनुष्य अपनी रफ्तार बढ़ाने के लिए अपने पैरों अलग-अलग ढंग से चलाते हैं। वीडियो ट्रैकिंग प्रोग्राम का उपयोग करते हुए एरिकसन ने बताया कि सेंटीपीड अपनी चाल में परिवर्तन उबड़-खाबड मार्ग की चुनौतियों के अनुसार करता है।

आम तौर पर सेंटीपीड के पैर एक तरंग के रूप में चलते हैं। लेकिन कई बार इस तरंग की दिशा में परिवर्तन आता है। समतल सतहों पर इस लहर की शुरुआत पिछले पैर से होते हुए सिर की ओर जाती है लेकिन कठिन रास्तों पर इस लहर की दिशा बदल जाती है और कदम जमाने के लिए सबसे पहले आगे का पैर हरकत में आता है। और तो और, प्रत्येक पैर ठीक उसी स्थान पर पड़ता है जहां पिछला कदम पड़ा था।

सेंटीपीड खुद को बचाने के लिए पानी पर तैरने में भी काफी सक्षम होते हैं। तैरने के लिए भी वे अपनी चाल में परिवर्तन करते हैं। लिथोबियस फॉरफिकैटस प्रजाति का सेंटीपीड अपने पैरों को पटकता है और फिर अपने शरीर को एक ओर से दूसरी ओर लहराते हुए आगे बढ़ता है। यहां दो तरंगें पैदा होती हैं – एक पैरों की गति की तथा दूसरी शरीर के लहराने की। इन दो तरंगों के बीच समन्वय को समझने के लिए एक अन्य छात्र ने गणितीय मॉडल का उपयोग किया। इस मॉडल में पैरों और शरीर की तरंगों के विभिन्न संयोजन तैयार किए गए। पता चला कि दो तरंगों के एक साथ चलने की बजाय इनके बीच थोड़ा अंतराल होने पर रोबोट अधिक तेज़ी से आगे बढ़ता है। इसी तरह से कुछ संयोजनों से रोबोट को पीछे जाने में भी मदद मिलती है। गोल्डमैन और टीम ने इसको आगे बढ़ाते हुए बताया कि यदि रोबोट के पैरों में जोड़ हों और शरीर के खंडों में लोच हो तो रोबोट ज़्यादा बेहतर काम कर सकता है। गोल्डमैन द्वारा तैयार किए गए वर्तमान रोबोट काफी लचीले हैं और वे किसी भी स्थान के कोने-कोने तक पहुंच सकते हैं। आगे वे इन्हें प्रशिक्षित करना चाहते हैं ताकि वे खरपतवार को पहचान सकें और निंदाई का काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

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साफ-सफाई की अति हानिकारक हो सकती है

स्वच्छता का एक नकारत्मक पहलू भी हो सकता है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि सफाई के लिए सुगंधित उत्पादों का उपयोग करने से लगभग उतने ही वायुवाहित सूक्ष्म कणों का उत्पादन होता है जितना शहर की एक व्यस्त सड़क पर होता है। और इन छोटे कणों के निरंतर संपर्क में रहने से सफाईकर्मियों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

कभी-कभी घरों, स्कूलों और कार्यालयों के अंदर का वातावरण बाहर के वातावरण से भी अधिक प्रदूषित हो सकता है। मोमबत्ती, धूप, सिगरेट जलाना स्थिति को और गंभीर बना सकते हैं। गैस स्टोव और खाना पकाने से भी हवा में हानिकारक कण उत्सर्जित होते हैं जो दमा और अन्य समस्याओं को जन्म देते हैं।

इसके अतिरिक्त, साफ-सफाई में उपयोग होने वाले उत्पादों से भी प्रदूषण होता है जिनमें उपस्थित वाष्पशील कार्बनिक यौगिक हवा में उपस्थित ओज़ोन के साथ क्रिया करते हैं और एयरोसोल में परिवर्तित हो जाते हैं। इन उत्पादों में मौजूद लिमोनीन तथा अन्य मोनोटरपीन इमारतों में उपस्थित ओज़ोन से अभिक्रिया कर परॉक्साइड, अल्कोहल और अन्य कणों में परिवर्तित होते हैं। ये कण फेफड़ों में गहराई तक प्रवेश कर दमा जैसी समस्याओं को जन्म दे सकते हैं। कुछ लोगों में ये कण दिल के दौरे और स्ट्रोक का कारण बन सकते हैं।

अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने एक छोटे कमरे (50 क्यूबिक मीटर) का उपयोग किया। सुबह टरपीन आधारित क्लीनर से फर्श को 12-14 मिनट तक साफ किया गया। इसके बाद अत्याधुनिक उपकरणों की मदद से अगले 90 मिनट तक कमरे में अणुओं और कणों की निगरानी की गई।

एकत्रित डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं ने यह गणना की कि पोंछा लगाने वाला व्यक्ति आधे माइक्रॉन से छोटे कितने कण सांस में लेगा। एडवांसेस साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक व्यक्ति के शरीर में सांस के साथ प्रति मिनट एक अरब से 10 अरब नैनोपार्टिकल्स प्रवेश करेंगे। यह किसी व्यस्त सड़क के बराबर है।  

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने हाइड्रॉक्सिल और हाइड्रोपेरॉक्सिल जैसे रेडिकल्स (अल्पकालिक अणुओं) का भी पता लगाया जो आम तौर पर बाहरी (आउटडोर) वातावरण के कणों में पाए जाते हैं। ऐसे अणु कमरे के भीतर भी पाए गए जो मोनोटरपीन्स और ओज़ोन की क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं।

तो क्या किया जाए? पर्याप्त वेंटिलेशन एक अच्छा उपाय है लेकिन यह बाहर से खतरनाक ओज़ोन को भी अंदर आने का रास्ता देता है। इसके लिए एक्टिवेटिड कार्बन फिल्टर का उपयोग किया जा सकता है।

ओज़ोन स्तर को सीमित रखना भी एक उपाय हो सकता है। सफाई का काम सुबह-शाम करना उचित होगा क्योंकि इस समय वातावरण में ओज़ोन का स्तर काफी कम होता है। लिमोनीन और अन्य प्रकार के टरपीन आधारित उत्पादों के उपयोग को भी खत्म करना चाहिए। इसके अलावा, सफाई के कुछ घंटों बाद इन छोटे कणों का आकार बड़ा हो जाता है और वे भारी होकर नीचे बैठ जाते हैं। तब ये हानिरहित हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स) 

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बाल्ड ईगल में सीसा विषाक्तता

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में अमेरिका के लगभग आधे बाल्ड और गोल्डन ईगल पक्षियों में सीसा (लेड) विषाक्तता पाई गई है। गौरतलब है कि बाल्ड ईगल यूएसए का राष्ट्रीय पक्षी है। इस स्तर की विषाक्तता को देखते हुए इन प्रजातियों का पुनर्वास काफी मुश्किल प्रतीत होता है।

गौरतलब है कि 1960 के दशक में डीडीटी के इस्तेमाल के कारण बाल्ड ईगल (हैलीएटस ल्यूकोसेफेलस) लगभग विलुप्त हो गए थे। डीडीटी के प्रभाव से पक्षियों के अंडे के छिलके कमज़ोर होते थे और चूज़े अंडे से बाहर आने से पहले ही मर जाते थे। 1972 में डीडीटी पर प्रतिबंध लगने और 1973 के जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम ने बाल्ड ईगल को सुरक्षा प्रदान की। वर्तमान में जंगलों में 3 लाख से अधिक बाल्ड ईगल उपस्थित हैं।

यानी बाल्ड ईगल की आबादी तो ठीक-ठाक है लेकिन गोल्डन ईगल (एक्विला क्रायसाटोस) जैसे अन्य शिकारी पक्षियों की स्थिति काफी नाज़ुक है। डीडीटी की बजाय गोलाबारूद सहित अन्य सीसा संदूषक अभी भी काफी मात्रा में उपस्थित हैं। शिकार किए गए हिरण में उपस्थित कारतूस या किसी अन्य जीव के माध्यम से ग्रहण किया गया सीसा खून और लीवर में पहुंच जाता है। यदि लंबे समय तक भोजन में सीसा मिलता रहे तो यह हड्डियों में भी संग्रहित होने लगता है।

वन्यजीव पुनर्वास क्लीनिक लंबे समय से चील के पेट में कारतूस के टुकड़ों के मिलने की सूचना देते रहे हैं। चीलों में विषाक्तता के व्यापक स्तर पर फैलने के संकेत मिले हैं। इसलिए एक गैर-मुनाफा संगठन कंज़रवेशन साइंस ग्लोबल के जीव विज्ञानी विन्सेंट स्लेब और उनके सहयोगियों ने 8 वर्षों तक 1210 बाल्ड और गोल्डन ईगल के ऊतक एकत्रित किए।       

लगभग 64 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 47 प्रतिशत गोल्डन ईगल में दीर्घकालिक सीसा विषाक्तता के साक्ष्य मिले। वैज्ञानिकों को 27 से 33 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 7 से 35 प्रतिशत गोल्डन ईगल में सीसा के हालिया संपर्क के संकेत मिले हैं। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इसकी वजह से बाल्ड ईगल और गोल्डन ईगल की जनसंख्या वृद्धि में क्रमश: 3.8 प्रतिशत और 0.8 प्रतिशत की कमी आएगी। शोधकर्ताओं के अनुसार जनसंख्या वृद्धि में 3.8 प्रतिशत की गिरावट से बाल्ड ईगल की जनसंख्या पर कोई खास प्रभाव तो नहीं पड़ेगा क्योंकि कई स्थानीय आबादियों में प्रजनन न कर रहे व्यस्कों का एक समूह होता है जो फिर से प्रजनन शुरू कर सकता है। फिर भी स्थिति चिंताजनक है।

विशेषज्ञों के अनुसार सीसा विषाक्तता का प्रभाव मछलियों, स्तनधारियों और अन्य पक्षियों पर भी हुआ है। संरक्षणवादी सीसा आधारित कारतूस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कैलिफोर्निया में तो 2019 में कैलिफोर्निया कोंडोर की रक्षा के लिए इस पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। शोधकर्ता शिकारियों को सीसा विषाक्तता के बारे में जागरूक करने और तांबे के कारतूस का इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जीएम खाद्यों पर पूर्ण प्रतिबंध ही सबसे उचित नीति है – भरत डोगरा

जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) खाद्यों के नियमन के लिए सरकारी नीति पर हाल के समय पर तीखी बहस देखी गई है। सरकारी स्तर पर जनता व विशेषज्ञों से इस बारे में राय मांगी गई। अनेक संगठनों व संस्थानों ने कहा कि जीएम खाद्यों पर पहले से जो पूर्ण प्रतिबंध चला आ रहा है, वही जारी रहना चाहिए। हाल ही में भारत के 160 डॉक्टरों का एक संयुक्त बयान जारी हुआ है जिसमें जीएम खाद्यों के अनेक खतरों को बताते हुए इन पर लगे प्रतिबंध को जारी रखने का आग्रह किया गया है।

भारत में जीएम सरसों व बीटी बैंगन पर बहस के दौरान भी जीएम खाद्यों पर पर्याप्त जानकारियां सामने आ चुकी हैं। दूसरी ओर, आयातित जीएम खाद्यों व विशेषकर प्रोसेस्ड आयातों पर से रोक हटाने के लिए दबाव बढ़ रहा है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त की गई फसलों का मनुष्यों व सभी जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रुले (जुआ) में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में आमाशय, लीवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने तथा मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

वैज्ञानिकों के संगठन युनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट्स ने कुछ समय पहले कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि ये असुरक्षित हैं। इनसे उपभोक्ताओं, किसानों व पर्यावरण को कई खतरे हैं। 11 देशों के वैज्ञानिकों की इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने जीएम फसलों के स्वास्थ्य के लिए अनेक संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है। जैसे प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल असर, एलर्जी, जन्मजात विकार, गर्भपात आदि। भारत में सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के पूर्व निदेशक प्रो. पुष्प भार्गव ने कहा था कि बीटी बैंगन को स्वीकृति देना एक बड़ी आपदा बुलाने जैसा है।

भारत में बीटी बैंगन के संदर्भ में विश्व के 17 विख्यात वैज्ञानिकों ने एक पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई थी। पत्र में कहा गया है कि जीएम प्रक्रिया से गुज़रने वाले पौधे का जैव-रासायनिक संघटन व कार्यिकी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाते हैं जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का प्रवेश हो सकता है व उसके पोषण गुण/परिवर्तित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए गैर-जीएम मक्का की तुलना में मक्के की जीएम किस्म जीएम एमओएन 810 में 40 प्रोटीनों की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण हद तक बदल जाती है।

जीव-जंतुओं पर जीएम खाद्य के नकारात्मक स्वास्थ्य असर किडनी, लीवर, आहार नली, रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन व प्रतिरोधक क्षमता पर सामने आ चुके हैं।

17 वैज्ञानिकों के इस पत्र में आगे कहा गया कि जिन जीएम फसलों को स्वीकृति मिल चुकी है उनके संदर्भ में भी अध्ययनों में यही नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आए हैं, जिससे पता चलता है कि कितनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर जीएम फसलों स्वीकृति दे दी जाती है।

बीटी मक्का पर मानसेंटो कंपनी के अनुसंधान का जब पुनर्मूल्यांकन हुआ तो अल्प-कालीन अध्ययन में भी नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम दिखाई दिए। बीटी के विषैलेपन से एलर्जी का खतरा जुड़ा हुआ है। बीटी बैंगन जंतुओं को खिलाने के अध्ययनों पर महिको-मानसेंटो ने के दस्तावेज में लीवर, किडनी, खून व पैंक्रियास पर नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आते हैं। अल्पकालीन (केवल 90 दिन या उससे भी कम) अध्ययन में भी प्रतिकूल परिणाम नज़र आए। लंबे समय के अध्ययन से और भी प्रतिकूल परिणाम सामने आते। अत: इन वैज्ञानिकों ने कहा कि बीटी बैंगन के सुरक्षित होने के दावे का कोई औचित्य नहीं है।

बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डॉ. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं। पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है। भेड़ बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गई थीं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी काटन बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आईं।

बीटी बैंगन पर रोक लगाते हुए तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जो दस्तावेज जारी किया था, उसमें उन्होंने बताया था कि स्वास्थ्य के खतरे के बारे में उन्होंने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक व भारतीय सरकार के औषधि नियंत्रक से चर्चा की थी। इन दोनों अधिकारियों ने कहा कि विषैलेपन व स्वास्थ्य के खतरे सम्बंधी स्वतंत्र परीक्षण होने चाहिए।

लगभग 100 डाक्टरों के एक संगठन ‘खाद्य व सुरक्षा के लिए डाक्टर’ ने भी पर्यावरण मंत्री को जीएम खाद्य व विशेषकर बीटी बैंगन के खतरे के बारे में जानकारी भेजी। उनके दस्तावेज में बताया गया कि पारिस्थितिकीय चिकित्सा शास्त्र की अमेरिका अकादमी ने अपनी संस्तुति में कहा है कि जीएम खाद्य से बहुत खतरे जुड़े हैं व इन पर मनुष्य के स्वास्थ्य की सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त परीक्षण नहीं हुए हैं।

तीन वैज्ञानिकों मे वान हो, हार्टमट मेयर व जो कमिन्स ने जेनेटिक इंजीनियंरिंग की विफलताओं की पोल खोलते हुए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज इकॉलाजिस्ट पत्रिका में प्रकाशित किया है। इस दस्तावेज के अनुसार बहुचर्चित चमत्कारी ‘सूअर’ या ‘सुपरपिग’, जिसके लिए मनुष्य की वृद्वि के हारमोन प्राप्त किए गए थे, बुरी तरह ‘फ्लॉप’ हो चुका है। इस तरह जो सूअर वास्तव में तैयार हुआ उसको अल्सर थे, वह जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, अंधा था और नपुसंक था।

इसी तरह तेज़ी से बढ़ने वाली मछलियों के जीन्स प्राप्त कर जो सुपरसैलमन मछली तैयार की गई उसका सिर बहुत बड़ा था, वह न तो ठीक से देख सकती थी, न सांस ले सकती थी, न भोजन ग्रहण कर सकती थी व इस कारण शीघ्र ही मर जाती थी।

बहुचर्चित भेड़ डॉली के जो क्लोन तैयार हुए वे असामान्य थे व सामान्य भेड़ के बच्चों की तुलना में जन्म के समय उनकी मृत्यु की संभावना आठ गुणा अधिक पाई गई।

इन अनुभवों को देखते हुए जीएम खााद्यों को हम कितना सुरक्षित मानेंगे यह विचारणीय विषय है। इनके बारे में सामान्य नागरिक को सावधान रहना चाहिए व उपभोक्ता संगठनों को नवीनतम जानकारी नागरिकों तक पहुंचानी चाहिए। पर सबसे ज़रूरी कदम तो यह उठाना चाहिए कि जीएम फसलों के प्रसार पर कड़ी रोक लगा देनी चाहिए।

इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए रेखांकित करना ज़रूरी है कि जीएम खाद्यों पर जो विज्ञान आधारित प्रतिबंध भारत में लगा हुआ है उसे जारी रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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छिपकली की पूंछ की गुत्थी

ब जान पर बनती है तो कुछ जीव अपने अंग त्याग कर जान बचाने का विकल्प चुनते हैं। इस तरह स्वेच्छा से अंग त्यागने की क्षमता को आत्म-विच्छेदन (ऑटोटॉमी) कहते हैं। खतरा आने पर मकड़ियां अपने पैरों को त्याग देती हैं, केंकड़े पंजे त्याग देते हैं और कुछ छोटे कृंतक थोड़ी त्वचा त्याग देते हैं। कुछ समुद्री घोंघे तो परजीवी-संक्रमित शरीर से छुटकारा पाने के लिए सिर धड़ से अलग कर लेते हैं।

ऑटोटॉमी का जाना-माना उदाहरण छिपकलियों का है। शिकारियों से बचने के लिए कई छिपकलियां अपनी पूंछ त्याग देती हैं और पूंछ छटपटाती रहती है। यह व्यवहार शिकारी को भ्रमित कर देता है और छिपकली को भागने का समय मिल जाता है। हालांकि छिपकली के पूंछ खोने के घाटे भी हैं – पूंछ पैंतरेबाज़ी करने, साथी को रिझाने और वसा जमा करने के काम आती हैं – लेकिन उसे त्यागकर जान बच जाती है। और तो और, कई छिपकलियां में नई पूंछ बनाने में की क्षमता भी होती है।

वैज्ञानिकों के लिए छिपकली का यह व्यवहार अध्ययन का विषय रहा है। लेकिन यह अनसुलझा ही रहा कि ऐसी कौन सी संरचनाएं हैं जिनकी मदद से छिपकली अपनी पूंछ को एक पल में छिटक सकती है जबकि सामान्य स्थिति में वह कसकर जुड़ी रहती है? न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी अबू धाबी के बायोमेकेनिकल इंजीनियर योंग-अक सोंग इसे ‘पूंछ की गुत्थी’ कहते हैं।

डॉ. सोंग और उनके साथियों ने कई ताज़ा कटी हुए पूंछों का अध्ययन करके गुत्थी हल करने का सोचा। उन्होंने तीन प्रजातियों की छिपकलियों पर अध्ययन किया: दो प्रकार की गेको और एक रेगिस्तानी छिपकली (श्मिट्स फ्रिंजटो छिपकली)।

अध्ययन के लिए उन्होंने छिपकलियों की पूंछ को अपनी अंगुलियों से खींचा, ताकि वे अपनी पूंछ त्याग दें। छिपकलियों की इस प्रतिक्रिया को उन्होंने 3,000 फ्रेम प्रति सेकंड की रफ्तार से कैमरे में कैद किया। फिर वैज्ञानिकों ने छटपटाती पूंछों का इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से अवलोकन किया। उन्होंने पाया कि हर वह जगह जहां से पूंछ शरीर अलग हुई थी, कुकुरमुत्तों जैसे खंभों से भरी हुई थी। अधिक ज़ूम करने पर उन्होंने देखा कि प्रत्येक संरचना की टोपी पर कई सूक्ष्म छिद्र थे। शोधकर्ता यह देखकर हैरत में थे कि पूंछ के शरीर से जुड़ाव वाली जगह इंटरलॉकिंग के बजाय प्रत्येक खंड पर सघनता से सूक्ष्म खंभे केवल हल्के से स्पर्श कर रहे थे।

कटी हुई पूंछ का ठूंठ

हालांकि, पूंछ के विच्छेदन वाली जगह की कंप्यूटर मॉडलिंग करने पर पता चला कि ये सूक्ष्म संरचनाएं संग्रहित ऊर्जा को मुक्त करने में माहिर होती हैं। इसका एक कारण यह है कि इन संरचनाओं की टोपियों में सूक्ष्म रिक्त स्थान होते हैं। ये रिक्त स्थान हर झटके की ऊर्जा अवशोषित कर लेते हैं और पूंछ को जोड़े रखते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि ये सूक्ष्म संरचनाए खींचने जैसे झटके तो झेल जाती हैं और पूंछ जोड़े रखती हैं लेकिन ऐंठनको नहीं झेल पाती हैं – हल्की सी ऐंठन से ही पूंछ अलग हो सकती है। पूंछ खींचने की तुलना में पूंछ मोड़ने पर पूंछ अलग होने की संभावना 17 गुना अधिक थी। शोधकर्ताओं द्वारा लिए गए स्लोमोशन वीडियो में दिखा कि छिपकलियों ने शरीर से पूंछ को अलग करने के लिए बहुत ही सफाई से अपनी पूंछ को घुमाया था। साइंस पत्रिका में प्रकाशित  निष्कर्ष बताते हैं कि कैसे पूंछ में मज़बूती और नज़ाकत के बीच संतुलन दिखता है।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी कानपुर के केमिकल इंजीनियर अनिमांगशु घटक बताते हैं कि छिपकली की पूंछ की संरचना गेको और पेड़ के मेंढकों के पैर की उंगलियों पर पाई जाने वाली चिपचिपी सूक्ष्म संरचनाओं की याद दिलाते हैं। वे बताते हैं कि चिपकने और अलग होने के बीच सही संतुलन होना चाहिए, क्योंकि यह इन जानवरों को खड़ी सतहों पर चढ़ने में सक्षम बनाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि छिपकली की पूंछ को अलग करने की प्रणाली को समझकर इस तंत्र उपयोग का कृत्रिम अंग लगाने, त्वचा प्रत्यारोपण वगैरह में किया जा सकता है। इससे रोबोट को टूटे हुए हिस्सों को अलग करने में भी सक्षम बनाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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सूर्य के पड़ोसी तारे का पृथ्वी जैसा ग्रह मिला

हाल ही में खगोलविदों ने एक नए ग्रह की खोज की है। यह सूर्य के निकटतम तारे प्रॉक्सिमा सेंटोरी की परिक्रमा करने वाला तीसरा ग्रह है जिसे प्रॉक्सिमा सेंटोरी-डी नाम दिया गया है, और यहां तरल पानी का समंदर होने की संभावना है।

युनिवर्सिटी ऑफ पोर्तो के इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिज़िक्स एंड स्पेस साइंस के खगोलविद जोआओ फारिया और उनके साथियों ने प्रॉक्सिमा सेंटोरी तारे से आने वाले प्रकाश वर्णक्रम में सूक्ष्म विचलन को मापकर प्रॉक्सिमा सेंटोरी-डी का पता लगाया है – ग्रह का गुरुत्वाकर्षण परिक्रमा के दौरान सूर्य को अपनी ओर खींचता है। खगोलविदों ने एस्प्रेसो नामक एक अत्याधुनिक दूरबीन की मदद से यह ग्रह खोजा है। यह दूरबीन चिली की युरोपीय दक्षिणी वेधशाला में स्थापित है। ये नतीजे एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

‘डगमगाने’ की इस तकनीक में पृथ्वी की सीध में तारे की गति में बदलाव देखा जाता है; एस्प्रेसो 10 सेंटीमीटर प्रति सेकंड तक की डगमग भी पता लगा सकता है। फारिया बताते हैं कि प्रॉक्सिमा सेंटोरी पर ग्रह का कुल प्रभाव लगभग 40 सेंटीमीटर प्रति सेकंड तक है।

विचलन का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक प्रॉक्सिमा सेंटोरी के वर्णक्रम के 100 से अधिक अवलोकन किए। एस्प्रेसो को वेधशाला के एक विशेष कमरे में एक (भूमिगत) टंकी के अंदर रखा गया है ताकि इसका दाब और तापमान स्थिर रहे। इससे माप सुसंगत रहते हैं और दोहराए जा सकते हैं। एस्प्रेसो वर्णक्रम की तरंग दैर्ध्य को 10-5 ऑन्गस्ट्रॉम तक, यानी हाइड्रोजन परमाणु के व्यास के दस-हज़ारवें हिस्से तक सटीकता से माप सकता है।

तारे के स्पेक्ट्रम पर पड़ने वाले इसके प्रभाव के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह ग्रह संभवत: पृथ्वी से छोटा है, लेकिन इसका द्रव्यमान हमारी पृथ्वी के द्रव्यमान के 26 प्रतिशत से कम नहीं है।

एस्प्रेसो को मुख्य रूप से बाह्य ग्रहों की खोज करने के साथ-साथ क्वासर जैसे अत्यंत उज्ज्वल दूरस्थ पिण्डों से आने वाले प्रकाश का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था।

खगोलविदों के लिए प्रॉक्सिमा सेंटोरी का एक विशेष महत्व है। हमारा नज़दीकी तारा होने के कारण इसके बारे में हमेशा बहुत उत्सुकता रही है। यह जानना रोमांचक है कि तीन छोटे ग्रह हमारे इस निकटतम पड़ोसी तारे की परिक्रमा कर रहे हैं। उनकी समीपता ही आगे अध्ययन का मुख्य कारण है – उनकी प्रकृति कैसी है और वे कैसे बने वगैरह। (स्रोत फीचर्स)

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