कहावत है कि भूखे पेट भजन न होए गोपाला! लेकिन हालिया अध्ययन में देखा गया है कि चूहों को ‘उल्लू’ बनाया जा सकता है कि वे हल्की-फुल्की भूख होने पर भी भोजन की बजाय विपरीत लिंग के साथ मेलजोल को प्राथमिकता देने लगें।
यह तो मालूम था कि लेप्टिन नामक हार्मोन मस्तिष्क में तंत्रिकाओं के एक समूह को सक्रिय कर भूख के एहसास को दबाता है। कोलोन विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट ऐनी पेटज़ोल्ड और उनके साथी यह देखना चाह रहे थे कि भोजन या साथी के बीच चुनाव करने में लेप्टिन की क्या भूमिका है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कुछ नर चूहों को लेप्टिन दिया और उनका अवलोकन किया। अध्ययन के दौरान, पूरे दिन के भूखे चूहे भी खाने से भरे कटोरे की ओर नहीं गए (जैसी कि अपेक्षा थी) लेकिन साथ ही वे चुहियाओं के साथ मेलजोल बढ़ाते भी दिखे।
सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित ये नतीजे सामाजिक व्यवहार में लेप्टिन की एक नई व आश्चर्यजनक भूमिका दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों को तंत्रिका विज्ञान के एक अहम सवाल के जवाब की ओर एक कदम आगे बढ़ाते हैं – कि कैसे जीव अपनी मौजूदा ज़रूरतों के सामने विभिन्न व्यवहारों को प्राथमिकता देते हैं।
शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के तथाकथित भूख केंद्र (पार्श्व हाइपोथैलेमस) की तंत्रिकाओं की जांच की। टीम ने देखा कि लेप्टिन के प्रति संवेदी तंत्रिकाएं तब सक्रिय हुईं जब चूहे विपरीत लिंग के चूहों से मिले। ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक की मदद से इन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने से भी इस बात की संभावना बढ़ गई कि चूहे विपरीत लिंग के चूहों के पास जाएंगे। ये दोनों परिणाम बताते हैं कि लेप्टिन नामक हार्मोन सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाता है।
लेकिन जब चूहों को पांच दिन तक सीमित भोजन दिया गया तब उन्होंने साथी की बजाय भोजन को प्राथमिकता दी। अर्थात लंबी भूख ने अन्य प्रणालियों को सक्रिय कर दिया और भोजन को वरीयता मिलने लगी। लेप्टिन आम तौर पर तब पैदा होता है जब जंतु की ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति हो गई हो। तब वह अपनी अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दे सकता है, अपने व्यवहार की प्राथमिकताएं बदल सकता है।
शोधकर्ताओं ने उन तंत्रिकाओं का भी अध्ययन किया जो न्यूरोटेंसिन नामक हार्मोन बनाती हैं – यह हार्मोन प्यास से सम्बंधित है। देखा गया कि इन तंत्रिकाओं की सक्रियता ने भोजन या सामाजिक व्यवहार की बजाय प्यास बुझाने को तवज्जो दी।
चूहों में लेप्टिन और सामाजिक व्यवहारों के बीच सम्बंध समझकर इस बारे में समझा जा सकता है कि क्यों ऑटिज़्म से ग्रस्त कुछ लोग खाने की विचित्र प्रकृति दर्शाते हैं, या बुलीमिया से ग्रस्त कुछ लोगों में सामाजिक भय (सोशल फोबिया) दिखता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.technologynetworks.com/production/dynamic/images/content/370522/mice-choose-sex-over-food-even-when-hungry-370522-960×540.jpg?cb=12174802
प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका दी प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी: बायोलॉजिकल साइंसेज़ का कहना है कि वह एनीमोन मछली के व्यवहार पर प्रकाशित एक शोध पत्र वापस नहीं लेगा, जबकि विश्वविद्यालय की एक लंबी जांच में यह पाया गया है कि यह मनगढ़ंत है।
डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र खोजी पैनल ने पिछले साल एक मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के इस अध्ययन में विसंगतियां और दिक्कतें पाई गईं थीं। लेकिन पत्रिका ने अपने 1 फरवरी के संपादकीय नोट में कहा है कि उनकी अपनी जांच में इस अध्ययन में धोखाधड़ी के पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, और कुछ जगहों पर लेखकों द्वारा किए गए सुधार ने शोध पत्र की प्रमुख समस्या हल कर दी है।
डीकिन युनिवर्सिटी के मत्स्य शरीर-क्रिया विज्ञानी टिमोथी क्लार्क का कहना है कि पत्रिका का यह निर्णय तकलीफदेह है। क्लार्क उस अंतर्राष्ट्रीय समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने इस शोध पत्र में समस्याएं पाई थीं और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी।
डेलावेयर विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिकीविद डेनिएल डिक्सन और सदर्न क्रॉस युनिवर्सिटी की अन्ना स्कॉट द्वारा लिखित यह शोध पत्र वर्ष 2008 से 2018 के बीच प्रकाशित उन 22 अध्ययनों में से एक है जिन्हें क्लार्क और उनके साथियों ने फर्ज़ी बताया है। आरोप विशेषकर डिक्सन और उनके साथी फिलिप मुंडे पर हैं। लेकिन दोनों ने इस आरोप को गलत बताया है।
डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र पैनल ने डिक्सन के काम की जांच में पाया था कि डिक्सन के कई शोध पत्रों में लगातार लापरवाही बरतने, रिकॉर्ड ठीक से न रखने, डैटा शीट में दोहराव (कॉपी-पेस्ट) करने और त्रुटियां करने का पैटर्न दिखता है। यह भी निष्कर्ष निकला था कि कई शोध पत्र में शोध कदाचार भी दिखता है। इसलिए डेलावेयर विश्वविद्यालय ने पत्रिकाओं से उनके तीन शोध पत्र वापस लेने को कहा था।
उनमें से एक 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें अध्ययन में लगा समय शोध पत्र में वर्णित प्रयोगों की बड़ी संख्या को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं लगता और उनके द्वारा साझा की गई एक्सेल डैटा शीट में 100 से अधिक आंकड़ों का दोहराव मिला था। इससे पता चलता है कि यह डैटा वास्तविक नहीं हो सकता। साइंस पत्रिका ने अगस्त 2022 में यह शोध पत्र वापस ले लिया था।
जांच समिति के अनुसार प्रोसीडिंग्स बी में प्रकाशित शोध पत्र भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रस्त था। इस पेपर का निष्कर्ष है कि एनीमोन मछलियां “सूंघकर” भांप सकती हैं कि प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) बदरंग हैं या स्वस्थ। उनका यह निष्कर्ष प्रयोगों की एक शृंखला पर आधारित था जिसमें मछलियों को एक प्रयोगशाला उपकरण (जिसे चॉइस फ्लूम कहा जाता है) में रखा गया था, जिसमें वे तय कर सकती थीं कि उन्हें किस दिशा में तैरना है।
ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार, डिक्सन ने 9-9 मिनट लंबे 1800 परीक्षणों से अध्ययन का डैटा एकत्रित किया था। जांच समिति का कहना है कि यदि डिक्सन ने एक ही फ्लूम इस्तेमाल किया है तो इतने परीक्षणों को पूरा करने के लिए उन्हें अविराम 12 घंटे काम करते हुए 22 दिन लगेंगे, जिसमें बीच में किसी तरह की तैयारी, उपकरणों को जमाना, सफाई, मछलियों को बाल्टी से उपकरण में स्थानांतरित करने आदि का समय शामिल नहीं है। (और इसी दौरान, डिक्सन को प्रयोग कक्ष के अंदर-बाहर 1800 लीटर समुद्री जल भी लाना ले जाना होगा।) लेकिन डिक्सन के शोध पत्र के अनुसार यह प्रयोग 12 से 24 अक्टूबर 2014 तक चला, यानी केवल 13 दिन में यह परीक्षण पूरा हो गया।
इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स बी के प्रधान संपादक स्पेंसर बैरेट का कहना है कि विश्वविद्यालय ने पिछले साल शोध पत्र वापसी का अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने हमारे साथ समिति की जांच रिपोर्ट यह कहते हुए साझा नहीं की थी कि वह गोपनीय है। मैं जानना चाहता हूं कि उनके उक्त अनुरोध के पीछे सबूत क्या थे।
बैरेट आगे कहते हैं कि पत्रिका के तीन संपादकों ने स्वतंत्र विशेषज्ञों की मदद से 6 महीने में मामले की जांच की, जिसके परिणामस्वरूप 59 पन्नों की जांच रिपोर्ट तैयार हुई है। इसी बीच, स्कॉट और डिक्सन ने जुलाई 2022 में पेपर में एक सुधार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रयोग वास्तव में 5 अक्टूबर से 7 नवंबर 2014 के बीच यानी 33 दिन चला, और उन्होंने एक साथ दो फ्लूम का इस्तेमाल किया था। (डिक्सन ने अन्य अध्ययनों में भी दो फ्लूम उपयोग करने के बारे में बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय की जांच समिति यह समझ नहीं पा रही है कि वे हर 5 सेकंड में एक साथ दो फ्लूम में मछली के व्यवहार को किस तरह देख और दर्ज कर सकते हैं।)
प्रोसीडिंग्स बी पत्रिका इन सुधारों पर विश्वास करती लग रही है। लेकिन सवाल है कि कोई 33 दिनों तक एक प्रयोग को चलाएगा और गलती से इस तरह क्यों लिख देगा कि यह 12 दिन में किया गया है।
इस पर बैरेट का कहना है कि प्रोसीडिंग्स बी के जांचकर्ताओं ने नई समयावधि की सत्यता की जांच नहीं की है। “मैं मानता हूं कि समयावधि में परिवर्तन और उपयोग किए गए फ्लूम की संख्या विचित्र है, लेकिन हमने इसे सुधार के तौर पर स्वीकार किया है।”
सुधार के आलवा डिक्सन और स्कॉट ने अध्ययन का डैटा भी अपलोड किया है, जो पहले नदारद था जबकि शोध पत्र में कहा गया था कि यह ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन इस डैटा ने एक नई समस्या उठाई है। डैटा के विश्लेषण से पता चलता है कि साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र की तरह इसमें भी डैटा का दोहराव हुआ है।
जांच समिति को शिकायत है कि पत्रिका की जांच ने पेपर को स्वतंत्र ईकाई के रूप में जांचा है, जबकि साइंस पत्रिका द्वारा वापस लिए शोधपत्र में भी ऐसी ही समस्याएं थीं। इस पर बैरेट का कहना है कि पत्रिका की प्रक्रिया उन अध्ययनों की जांच करना है जिन्हें स्वयं उसने प्रकाशित किया है, अन्य पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित अध्ययन की जांच करना नहीं। प्रत्येक अध्ययन को स्वतंत्र मानकर काम किया जाता है।
डिक्सन ने इस संदर्भ में अभी कुछ नहीं कहा है।
समिति की मसौदा रिपोर्ट बताती है कि तीसरा समस्याग्रस्त शोध पत्र वर्ष 2014 में नेचर क्लाइमेट चेंज में मुंडे, डिक्सन और साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र है। जिसमें इसी तरह की समस्याएं दिखती हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान में नेचर क्लाइमेट चेंज इस पेपर की जांच कर रहा है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adh1493/full/_20230210_on_fish.jpg
लगभग 5000 साल पहले स्पेन के टैरागोना की एक गुफा में किसी ने चुपके से एक वृद्ध व्यक्ति के सिर पर पीछे से एक भोथरे हथियार से वार किया था, संभवतः उसकी मृत्यु वहीं हो गई थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में ऐसे कई हमले दर्ज हैं, फिर भी शोधकर्ताओं को यह पता करने में मशक्कत करनी पड़ती है कि वास्तव में क्या हुआ था। अब एक नए अध्ययन की बदौलत शोधकर्ता यह सब जानने के बहुत करीब पहुंच गए हैं।
नवीन अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनेक नकली खोपड़ियां पर अलग-अलग हथियारों से वार किया और उनका अवलोकन किया। शुरुआत उन्होंने पुराने समय के दो औज़ारों, कुल्हाड़ी और बसूला, से की। बसूला हथौड़ा और कुल्हाड़ी का मिला-जुला सा औज़ार है। दोनों नवपाषाण युग (10,000 से 4500 ईसा पूर्व तक) के लोकप्रिय औज़ार थे, इसी समय मानव संपर्क बढ़ा था और हिंसा भी। शोधकर्ताओं ने पॉलीयुरेथेन और रबर ‘त्वचा’ से कृत्रिम खोपड़ी बनाई और मस्तिष्क के नरम ऊतक के एहसास के लिए उसमें जिलेटिन से भर दिया। फिर, उन पर जानलेवा वार करने के काम को अंजाम दिया!
जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित इस रिपोर्ट के खूनी परिणाम दर्शाते हैं कि दोनों हथियारों ने अलग-अलग तरह के फ्रैक्चर पैटर्न दिए। उदाहरण के लिए, कुल्हाड़ी के वार ने बसूले की तुलना में अधिक सममित, अंडाकार फ्रैक्चर बनाया। फ्रैक्चर ने हमलावर और पीड़ित के बीच डील-डौल के अंतर के भी संकेत दिए; उदाहरण के लिए ‘मस्तिष्क’ तक भेदने वाला वार संकेत देता है कि हमलावर कद में मृतक से ऊंचा था। तो इससे लगता है कि वैज्ञानिकों ने इस प्राचीन स्पेनिश व्यक्ति की मृत्यु के रहस्य को सुलझा लिया है: ऐसा लगता है कि उसे किसी बसूले से मारा गया था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.news18.com/ibnlive/uploads/2023/02/news18-17-10-16768852783×2.png?im=Resize,width=360,aspect=fit,type=normal?im=Resize,width=320,aspect=fit,type=normal
अधिकांश लोग अपने जीवन में एक या दो भाषाएं सीख लेते हैं। लेकिन कई लोग 5 से अधिक भाषाएं बोल लेते हैं। ये लोग बहुभाषी या पॉलीग्लॉट कहलाते हैं। और जो 10 से अधिक भाषाएं बोलते हैं ऐसे दुर्लभ लोगों को हायपरपॉलीग्लॉट कहते हैं। वाशिंगटन डी. सी. में रहने वाले वॉग स्मिथ एक हायपरपॉलीग्लॉट हैं जो 24 भाषाएं बोल लेते हैं।
हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ऐसे ही बहुभाषियों के मस्तिष्क में झांका और देखा कि उनके मस्तिष्क का भाषा-सम्बंधी क्षेत्र अलग-अलग भाषाओं के सुनने पर कैसी प्रतिक्रिया देता है। देखा गया कि परिचित भाषाओं ने अपरिचित भाषाओं की तुलना में सशक्त प्रतिक्रिया दी, लेकिन अपवाद के रूप में देखा गया कि मातृभाषा को सुनने पर मस्तिष्क में अपेक्षाकृत कम हलचल दिखी। इससे शोधकर्ताओं को लगता है कि वे भाषाएं मस्तिष्क में कुछ विशिष्ट स्थान रखती हैं जिन्हें हम बचपन में सीख लेते हैं।
दरअसल उम्दा भाषा कौशल वाले लोगों (पॉलीग्लॉट्स) के मस्तिष्क में क्या हो रहा होता है इसे समझने पर बहुत ही कम अध्ययन हुए हैं। इसका एक कारण यह भी है कि दुनिया भर में पॉलीग्लॉट्स की संख्या बहुत ही कम है; महज एक प्रतिशत। तो शोध के लिए प्रतिभागी मिलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पॉलीग्लॉट्स पर अध्ययन मनुष्यों के ‘भाषा तंत्र’ को समझने में मदद कर सकता है।
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के संज्ञान तंत्रिकाविज्ञानी ईव फेडोरेंको और उनका दल यह जानना चाहता था कि मस्तिष्क पांच से अधिक भाषाओं को कैसे प्रोसेस करता है। इसके लिए उन्होंने 25 पॉलीग्लॉट्स के मस्तिष्क का स्कैन किया, जिनमें से 16 हायपरपॉलीग्लॉट्स थे और एक प्रतिभागी तो ऐसा था जो 50 से अधिक भाषाएं बोल सकता था। मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क को चित्रित करने के लिए उन्होंने fMRI तकनीक का उपयोग किया, जो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को मापती है।
जब प्रतिभागी fMRI मशीन के अंदर थे तो उन्हें आठ अलग-अलग भाषाओं में 16-16 सेकंड लंबी रिकॉर्डिंग सुनाई गईं। हर रिकॉर्डिंग या तो बाइबल या फिर ऐलिसेज़ एडवेंचर्स इन वंडरलैंड के गद्यांश के क्रमश: 25 और 46 भाषाओं में अनुवाद की रिकॉर्डिंग थी। प्रतिभागियों के लिए रिकॉर्डिंग का चुनाव बेतरतीब तरीके से किया गया था। आठ भाषाओं की रिकॉर्डिंग में से एक उनकी मातृभाषा में थी, तीन उन भाषाओं में थीं जो उन्होंने अपेक्षाकृत देर से सीखी थीं, और चार अपरिचित भाषाओं में थीं। दो अपरिचित भाषाएं ऐसी थीं जो उनकी परिचित भाषा की निकट सम्बंधी थी जैसे इतालवी मातृभाषा के लोगों को स्पेनिश सुनाई गई। और अन्य दो अपरिचित भाषाएं उनकी परिचित भाषाओं से कोई सम्बंध नहीं रखती थीं।
शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी भी भाषा के लिए मस्तिष्क में रक्त हमेशा एक-जैसे क्षेत्रों की ओर प्रवाहित हुआ। अर्थात सभी भाषाओं के लिए मस्तिष्क ने अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही बुनियादी नेटवर्क का उपयोग किया, जो एकभाषी व्यक्ति द्वारा ध्वनि को सुनकर उसे प्रोसेस करने में किया जाता है।
इसके अलावा, प्रतिभागी कितनी अच्छी तरह भाषा को जानते थे उस आधार पर मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क की गतिविधि में उतार-चढ़ाव आया। भाषा जितनी अधिक परिचित थी, प्रतिक्रिया उतनी ही अधिक सशक्त थी। मस्तिष्क की गतिविधि विशेष रूप से तब बढ़ गई जब प्रतिभागियों ने उन अपरिचित भाषाओं को सुना जो उनकी भली-भांति परिचित भाषा से मिलती-जुलती थीं। ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि मस्तिष्क ने भाषाओं की बीच समानता के आधार पर अर्थ समझने के लिए अतिरिक्त काम किया होगा।
एक अपवाद भी मिला: अपनी मातृभाषा सुनने पर प्रतिभागियों का भाषा नेटवर्क अन्य परिचित भाषाओं की तुलना में शांत दिखा; ऐसा तब भी दिखा जब प्रतिभागी अन्य परिचित भाषाओं पर अच्छी पकड़ रखते थे। बायोआर्काइव्स नामक प्रीप्रिंट में शोधकर्ता बताते हैं कि इससे लगता है कि शुरुआती जीवन (बचपन) में सीखी गई भाषाओं को प्रोसेस करने में मस्तिष्क को कम मेहनत करनी पड़ती है।
यह देखा गया है कि किसी कार्य में महारत हासिल होने पर उसे करने में दिमाग को कम मशक्कत करनी पड़ती है। तो संभावना है कि भाषा के मामले में भी ऐसा हो। इस बात की भी संभावना दिखती है कि कम उम्र में सीखने पर संज्ञानात्मक दक्षता चरम तक पहुंच सकती है। चूंकि ये परिणाम विशुद्ध रूप से वर्णनात्मक हैं, इसलिए निष्कर्ष अभी भी अस्थायी हैं।
हालांकि कई पॉलीग्लॉट्स और हायपरपॉलीग्लॉट्स भाषा सीखने में किसी विशेष प्रतिभा के धनी होने से इन्कार करते हैं। लेकिन फिर भी शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि पॉलीग्लॉट्स कैसे इतनी भाषाएं सीख लेते हैं, जो अन्य लोगों को मुश्किल लगता है। क्या यह जन्मजात है, या सिर्फ दिलचस्पी या मौका मिलने की बात है। भाषा सीखने की क्रिया को समझने से स्ट्रोक या मस्तिष्क क्षति के बाद लोगों को फिर से भाषा सीखने में बेहतर मदद दी जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adh0055/abs/_20230202_on_polyglots.jpg
छोटे आकार का एक ऐसा रोबोट बनाया गया है जो अपना आकार बदलने में माहिर है। यह दुर्गम स्थानों तक पहुंचकर काम कर सकता है और पिंजरों से बाहर भी निकल सकता है। ऐसी संभावना है कि इसका उपयोग हैंड्स-फ्री सोल्डरिंग मशीन या फिर निगली गई ज़हरीली वस्तुओं को निकालने वाले उपकरण के रूप में किया जा सकेगा।
मानव शरीर में पाए जाने वाले संकीर्ण और नाज़ुक स्थानों पर काम करने के किए नर्म और लचीले रोबोट तो पहले से ही मौजूद हैं लेकिन वे दबाव नहीं झेल पाते और अधिक भार भी नहीं उठा पाते। इस समस्या से निपटने के लिए पेनसिल्वेनिया स्थित कार्नेजी मेलन युनिवर्सिटी के कार्मल मजीदी और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा रोबोट तैयार किया है जो न सिर्फ अपना आकार बदल सकता है बल्कि तरल और ठोस अवस्था में परिवर्तन के ज़रिए शक्तिशाली या दुर्बल भी बन सकता है।
मिलीमीटर साइज़ के रोबोट को तैयार करने के लिए तरल धातु गैलियम के साथ नीयोडिमियम, लोहे तथा बोरोन से बने चुम्बकीय पदार्थों के सूक्ष्म टुकड़ों का उपयोग किया गया है। ठोस अवस्था में यह रोबोट अपने वज़न से 30 गुना अधिक वज़न उठा सकता है। चुम्बकों की मदद से इसे लचीला, नर्म बनाया जा सकता है, गति करवाई जा सकती है और तरल में बदला जा सकता है। रोबोट में मौजूद चुम्बकीय टुकड़े इसे अलग-अलग दिशाओं में विकृत कर सकते हैं।
शोधकर्ताओं ने रोबोट को छलांग लगवाने के लिए अधिक मज़बूत चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग किया। इसके अलावा, परिवर्तनशील चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करने पर रोबोट की तरल धातुओं में विद्युत धारा उत्पन्न हुई जिसने रोबोट को गर्म किया और अंतत: पिघला दिया। इस लचीलेपन का फायदा उठाते हुए टीम ने दो रोबोट तैयार किए जो एक सर्किट बोर्ड में छोटे प्रकाश बल्ब को सोल्डर करने के लिए बनाए गए थे। अपने लक्ष्य पर पहुंचने पर ये रोबोट बल्ब के किनारों के चारों ओर पिघल गए और बल्ब सर्किट बोर्ड में जुड़ गया।
एक प्रयोग में कृत्रिम आमाशय के अंदर शोधकर्ताओं ने अलग तरह से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न किया ताकि रोबोट एक वस्तु तक पहुंचकर पिघलकर चिपक जाए और वस्तु को खींचकर बाहर निकाला जा सके।
इसी क्रम में उन्होंने रोबोट को एक छोटे से लेगो का आकार दिया और उसे एक पिंजरे में कैद कर दिया। पिघलने पर यह रोबोट पिंजरे की सलाखों के बीच से बहकर बाहर आ गया। जब यह पिघला हुआ रोबोट पुन: एक सांचे में गिरा तो वह अपनी मूल, ठोस अवस्था में वापस आ गया।
इन पिघलने वाले रोबोट्स का उपयोग आपातकालीन स्थिति में किया जा सकता है जहां मानव या पारंपरिक रोबोटिक हाथ अव्यवहारिक हो जाते हैं। जैसे यह रोबोट अंतरिक्ष यान के खोए हुए पेंच के स्थान पर पहुंचकर स्वयं को पिघलाकर उस स्थान पर जम सकता है। अलबत्ता मनुष्यों या किसी जीव के शरीर में इसका उपयोग करने के लिए. सुरक्षा की दृष्टि से, ज़रूरी होगा कि हर कदम पर इसकी स्थिति पता लगाने का कोई तरीका हो (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://singularityhub.com/wp-content/uploads/2023/02/012523_mp_shape-shifting-robots_feat-900×506.jpeg
साल 2022 में भारतीय विज्ञान लगातार नई सफलताओं और उपलब्धियों की ओर अग्रसर रहा। वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर टीका निर्माण में आत्मनिर्भरता का परिचय दिया।
भारत में पिछले वर्ष अंतरिक्ष को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया, जिसकी झलक 2022 में दिखाई दी। गुज़रे साल नवंबर में देश का पहला प्राइवेट रॉकेट लॉन्च किया गया। इस रॉकेट का नाम महान वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर ‘विक्रम एस’ रखा गया है। यह दुनिया का पहला ऑल कम्पोज़िट रॉकेट है। इसका निर्माण हैदराबाद की स्टार्ट अप कंपनी स्कायरूट एयरोस्पेस ने किया ने किया है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चंद्रयान-2 ऑर्बाइटर ने चंद्रमा पर पहली बार प्रचुर मात्रा में सोडियम का पता लगाया। यह काम ऑर्बाइटर में लगे एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर ने कर दिखाया। इससे चंद्रमा पर सोडियम की सटीक मात्रा का पता लगाने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। चंद्रयान-2 श्रीहरिकोटा से 22 जुलाई 2019 में लॉन्च किया गया था।
देश के वैज्ञानिकों ने पहली बार मंगल ग्रह पर भवन निर्माण के लिए अंतरिक्ष ईंट बनाई। इसरो और भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलूरू के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष ईंटें बनाने के लिए मंगल की प्रतिकृति मिट्टी, यूरिया और एक बैक्टीरिया (स्पोरोसारसीना पाश्चुरी) का उपयोग किया।
इसरो ने 23 अक्टूबर को जीएसएलवी-एमके-3 के ज़रिए 36 व्यावसायिक उपग्रहों का एक साथ सफल प्रक्षेपण कर नया इतिहास रचा। इसी वर्ष 26 नवंबर को ‘ओशनसेट’ उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया गया और जम्मू में उत्तर भारत का पहला अंतरिक्ष केंद्र शुरु हुआ। राज्य सभा में बताया गया कि इसरो अंतरिक्ष में पर्यटन क्षमताओं का विकास कर रहा है।
फरवरी में ‘विज्ञान सर्वत्र पूज्यते’ उत्सव भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों का गवाह बना। इसका आयोजन 22 से 28 फरवरी के दौरान देश के 75 स्थानों पर किया गया था। इस उत्सव की थीम थी: ‘दीर्घकालीन भविष्य के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में एकीकृत दृष्टिकोण की ज़रूरत’।
संसद में परिपाटी से दूर डिजिटल बजट पेश किया गया। सौर ऊर्जा और रसायन मुक्त खेती को विशेष प्राथमिकता दी गई। विज्ञान से जुड़े विभागों – डीएसटी, डीबीटी और डीएसआईआर के बजट में दो हज़ार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई। इन तीनों मंत्रालयों ने कोविड-19 महामारी से निपटने में अहम भूमिका निभाई है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को 2653.51 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। महासागरीय मिशन को बढ़ावा देने के लिए 650 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया। देश के गगन यान सहित चंद्रयान और आदित्य एल-1 जैसे बड़े अभियानों को ध्यान में रखते हुए इसरो को 13,700 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। स्टार्ट अप को प्रोत्साहित करने के लिए विज्ञान बजट में धनराशि बढ़ाई गई।
इसी साल भारत ने महिलाओं को गर्भाशय-ग्रीवा (सरवाइकल) कैंसर से बचाने के लिए क्वाड्रिवेलेंट एचपीवी वैक्सीन लॉन्च की। इस स्वदेशी वैक्सीन को सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने मिलकर बनाया है। भारत ने 18 महीनों के में दो सौ करोड़ कोविड टीके लगाए और ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की।
गुज़रे साल आज़ादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर 5 जुलाई से 17 सितंबर के बीच 75 दिवसीय ‘स्वच्छ सागर, सुरक्षित सागर’ महाअभियान आयोजित किया गया। इसका उद्देश्य महासागरों के बारे में जागरूकता पैदा करना था।
इसी साल जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बाइरैक) की स्थापना का एक दशक पूरा हुआ। इस सिलसिले में 09-10 जून के दौरान नई दिल्ली के प्रगति मैदान में बायोटेक स्टार्टअप एक्सपो का आयोजन किया गया था। यहां जैव प्रौद्योगिकी के अब तक के सफर और नवीनतम उपलब्धियों की झलक दिखाई दी।
जम्मू की ‘पल्ली’ देश की पहली कार्बन उदासीन पंचायत बन गई। गुज़रे साल देश की पहली स्वदेशी हाइड्रोजन ईंधन सेल आधारित बस लॉन्च की गई। इसी साल मध्यप्रदेश हिंदी में चिकित्सा विज्ञान (एमबीबीएस) पाठ्यक्रम शुरु करने वाला देश का पहला राज्य बन गया। 16 अक्टूबर को एमबीबीएस प्रथम वर्ष के लिए हिंदी में प्रकाशित तीन पुस्तकों का विमोचन हुआ।
भारत की पहली नाइट स्काई सेंक्चूरी लद्दाख में बनाई जाएगी। गुजरात में देश का पहला सेमीकंडक्टर संयंत्र स्थापित किया जा रहा है। सेमीकंडक्टर का उपयोग कारों से लेकर मोबाइल फोन और एटीएम कार्ड के निर्माण में किया जाता है। अनुमान है कि 2026 तक भारत का सेमीकंडक्टर बाज़ार 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा।
17 सितंबर को नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को मध्यप्रदेश के कुनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ा गया। बड़े मांसाहारी जंगली जानवरों के अंतर महाद्वीपीय स्थानांतरण की यह विश्व की पहली परियोजना है। इसी साल चीतों को भारत लाने के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए थे।
जनवरी, 2022 में हैदराबाद में देश के प्रथम ओपन रॉक म्यूज़ियम का शुभारंभ हुआ। इस म्यूज़ियम में भारत के विभिन्न भागों से एकत्रित की गई 35 अलग-अलग प्रकार की चट्टानें प्रदर्शित की गई हैं। म्यूज़ियम का उद्देश्य जन सामान्य को रोचक भू-वैज्ञानिक जानकारियों से परिचित कराना है।
साइंस सिटी अहमदाबाद में पहली बार देश के सभी राज्यों के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रियों का सम्मेलन हुआ, जिसमें वर्ष 2047 का वैज्ञानिक रोडमैप तैयार करने पर विमर्श हुआ।
अक्टूबर में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की शोध प्रयोगशालाओं के प्रमुखों की बैठक में अनाज और बाजरे की नई किस्मों में पौष्टिकता बढ़ाने के लिए तकनीकी समाधान पर विचार किया गया। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स’ (आईवाईएम) घोषित किया है। भारत मोटे अनाज पैदा करने वाले अग्रणी देशों में शामिल है। विश्व पैदावार में भारत का अनुमानित योगदान लगभग 41 फीसदी है।
इसी वर्ष भारत की पहली तरल दर्पण दूरबीन उत्तराखंड में आर्यभट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ आब्ज़र्वेशनल साइंसेज़ की देवस्थल वेधशाला परिसर में स्थापित की गई। इसे भारत सहित तीन देशों के वैज्ञानिकों के सहयोग से स्थापित किया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि तरल दर्पण दूरबीन खगोलीय दृश्यों के अवलोकन के साथ ही अंतरिक्ष मलबे, क्षुद्रग्रह आदि परिवर्तनशील वस्तुओं की पहचान में भी मददगार होगी।
9 अक्टूबर को गुजरात का मोढेरा गांव देश का पहला ऐसा गांव बन गया, जो पूरी तरह सौर ऊर्जा से चलेगा। दिन में सोलर पैनल से और रात को बैटरी से बिजली की आपूर्ति की जाएगी।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की मेज़बानी में दूसरी संयुक्त राष्ट्र भू-स्थानिक सूचना कांग्रेस 10-14 अक्टूबर के दौरान हैदराबाद में संपन्न हुई, जिसमें 120 देशों के लगभग 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस आयोजन में विचार मंथन का मुख्य विषय ‘जियो इनेबलिंग दी ग्लोबल विलेज, नो वन शुड बी लेफ्ट बिहाइंड’ चुना गया था। भू-स्थानिक यानी जियो स्पेशियल डैटा सभी क्षेत्रों में विकास रणनीतियों और जनहित योजनाओं को तैयार करने में बेहद उपयोगी है। यही नहीं पिछड़े क्षेत्रों की पहचान करके उनके आर्थिक और सामाजिक विकास में इसकी अहम भूमिका सामने आई है। सटीक भू-स्थानिक सूचनाओं ने कोविड-19 महामारी से कारगर ढंग से निपटने में बहुत सहायता की थी।
साल 2022 में जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (जीईएसी) ने जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) सरसों को मंज़ूरी दे दी। हमारे यहां जीएम फसलों का पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभावों को लेकर विरोध हो रहा है। देश में पिछले दो दशकों से जीएम फसलों की खेती की अनुमति को लेकर विभिन्न मंचों पर बहस जारी है।
इसी वर्ष रुड़की स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के 175 वर्ष पूरे हुए। यह 1847 में स्थापित देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज था। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की का विश्व स्तरीय शिक्षा देने के साथ शोधकार्यों में भी अहम योगदान रहा है। यह वही संस्थान है, जिसने देश को सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में विभिन्न नवाचार दिए हैं।
इसी वर्ष होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (एचएसटीपी) के 50 वर्ष पूरे हुए। यह कार्यक्रम 1972 में किशोर भारती और फ्रेंड्स रूरल सेंटर ने मिलकर शुरू किया था, जिसका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों के स्कूली बच्चों के विज्ञान शिक्षण में नवाचारों को बढ़ावा देना था। विज्ञान शिक्षण के इस अभिनव कार्यक्रम में मध्यप्रदेश के 14 ज़िलों की लगभग 600 माध्यमिक शालाओं के बच्चों के बच्चे शामिल थे।
मौलिक चिंतक और वैज्ञानिक डॉ. अनिल सद्गोपाल और उनके सहयोगियों ने इस कार्यक्रम से टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और उच्च विज्ञान शिक्षण संस्थाओं को जोड़ने में सफलता प्राप्त की। बाद में मध्यप्रदेश सरकार ने इस कार्यक्रम से प्रभावित होकर होशंगाबाद जिले की सभी सरकारी/निजी माध्यमिक शालाओं को इससे जोड़ दिया। वर्ष 1982 में एकलव्य की स्थापना के साथ एचएसटीपी ने नए दौर में प्रवेश किया।
जनवरी में रॉकेट विज्ञान के विशेषज्ञ डॉ. एस. सोमनाथ को इसरो का चेयरमैन नियुक्त किया गया। उन्होंने स्वदेशी क्रॉयोजेनिक इंजन और पीएसएलवी के ग्यारह सफल प्रक्षेपणों में अहम भूमिका निभाई है। इसी वर्ष वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एन. कलैसेल्वी को सीएसआईआर का महानिदेशक नियुक्त किया गया। वे इस पद पर पहुंचने वाली पहली महिला वैज्ञानिक हैं। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर ने वर्ष 2023 के लिए चुने गए पांच विषिष्ट व्यक्तियों की सूची में डॉ. एन. कलैसेल्वी को भी शामिल किया है। केंद्रीय विद्युत रासायनिक अनुसंधान संस्थान कराईकुडी में निदेशक और वरिष्ठ वैज्ञानिक रह चुकी डॉ. कलैसेल्वी ने लीथियम आयन बैटरी के क्षेत्र में शोध कार्य के लिए ख्याति प्राप्त की है।
नेशनल साइंस फाउंडेशन की रिपोर्ट के एक अनुसार भारत वैज्ञानिक प्रकाशनों की ग्लोबल रैंकिंग में सातवें पायदान से तीसरे पायदान पर पहुंच गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन वर्षों में भारतीय वैज्ञानिक पेटेंट दुगने हो गए।
जुलाई में डोंगरी भाषा में विज्ञान लोकप्रियकरण की प्रथम पत्रिका का प्रकाशन विज्ञान प्रसार, नई दिल्ली, के सहयोग से आरंभ हुआ। गुज़रे साल एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत जयपुर से दैनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाचार पत्र का ऑनलाइन संस्करण प्रकाशित किया गया।
सितंबर में सूरत में आयोजित एक कार्यक्रम में देश की सबसे लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका विज्ञान प्रगति को राष्ट्रीय राजभाषा कीर्ति पुरस्कार प्रदान किया गया। इसका प्रकाशन 1952 में सीएसआईआर के प्रकाशन निदेशालय ने आरंभ किया था। यह पत्रिका देश भर के विज्ञानप्रेमी पाठकों द्वारा पढ़ी जाती है, जिनमें विद्यार्थियों से लेकर अनुसंधानकर्ता और वैज्ञानिक तक सम्मिलित हैं।
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर पिछले साल विज्ञान संचार और विज्ञान लोकप्रियकरण के क्षेत्र में विशेष योगदान करने वाली दो संस्थाओं और नौ लोगों को पुरस्कृत किया गया। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में विशेष योगदान के लिए केरल की पी. एन. पणिक्कर फाउंडेशन को राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। नवाचारों और परंपरागत तरीकों से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में विशेष योगदान के लिए उत्तरप्रदेश के नेशनल एसोसिएशन फॉर वालंटरी इनिशिएटिव एंड कोऑपरेशन को पुरस्कृत किया गया।
इस वर्ष पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री पुरस्कारों से सम्मानित व्यक्तियों में आठ वैज्ञानिक भी शामिल हैं। भारतीय मूल के खाद्य वैज्ञानिक डॉ. संजय राजाराम ने गेहूं की 480 से ज़्यादा किस्में विकसित की हैं, जिन्हें लगभग 51 देशों में उगाया जा रहा है। उन्हें यह सम्मान मरणोपरांत दिया गया है। उन्हें सन 2001 में पद्मश्री और 2014 में विश्व खाद्य पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
कर्नाटक के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. सुब्बन्ना अय्यप्पन, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता की प्रो. संघमित्रा बंद्योपाध्याय, एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, भुवनेश्वर के कुलपति प्रो. आदित्य प्रसाद दास, राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, करनाल के पूर्व निदेशक (रिसर्च), निम्बकर कृषि अनुसंधान संस्थान, फलटण, महाराष्ट्र के डॉ. अनिल कुमार राजवंशी, स्वतंत्र शोधकर्ता, प्रयागराज उत्तरप्रदेश के डॉ. अजय कुमार सोनकर और राष्ट्रीय फॉरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय, गुजरात के कुलपति डॉ. जयंत कुमार मगनलाल व्यास को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश के चिकित्सक डॉ. नरेन्द्र प्रसाद मिश्रा को भोपाल गैस पीड़ितों और कोविड-19 के लिए उपचार प्रोटोकॉल विकसित करने में विशेष योगदान के लिए मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
हिंदी दिवस पर आयोजित विशेष समारोह में मध्यप्रदेश शासन द्वारा स्थापित गुणाकर मुले सम्मान ‘इलेट्रॉनिकी आपके लिए’ पत्रिका के संपादक संतोष चौबे को प्रदान किया गया। उन्हें यह सम्मान हिंदी में विज्ञान लेखन को बढ़ावा देने के लिए दिया गया है।
23 मई को वरिष्ठ विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद का देहांत हो गया। इलाहाबाद में जन्मे शुकदेव प्रसाद ने स्वतंत्र विज्ञान पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष पहचान बनाई। उन्होंने समाचार पत्रों, संवाद एजेंसियों और विज्ञान पत्रिकाओं में लगभग तीन हज़ार आलेख लिखे। विज्ञान भारती और विज्ञान वैचारिकी पत्रिकाओं का संपादन भी किया। शुकदेव प्रसाद ने विज्ञान कथाओं पर केंद्रित छह खंडों में प्रकाशित विज्ञान कथा कोश का संपादन किया। उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले, जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, डॉ. आत्माराम और मेघनाथ साहा पुरस्कार उल्लेखनीय हैं।
वर्ष 2022 के दौरान छह भारतीय वैज्ञानिकों की जन्मशती मनाई गई। शुरुआत नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविन्द खुराना की जन्मशती से हुई। 9 जनवरी 1922 को जन्मे डॉ. खुराना को कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण में जेनेटिक कोड की भूमिका पर मौलिक अनुसंधान के लिए 1968 में चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आज विश्व भर में प्रयुक्त हो रही जीनोम सीक्वेंसिंग तकनीक के पुरोधा डॉ. हरगोविन्द खुराना थे।
जनवरी में ही राजेश्वरी चटर्जी की जन्मशती मनाई गई। 24 जनवरी 1922 को जन्मी राजेश्वरी चटर्जी को कर्नाटक से पहली महिला इंजीनियर होने का विशेष सम्मान प्राप्त है। उन्होंने माइक्रोवेव और एंटीना इंजीनियरिंग में विशेष योगदान किया। राजेश्वरी चटर्जी के शोधकार्य का उपयोग अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में किया गया।
30 जनवरी को विख्यात न्यूरोसर्जन प्रो. बी. रामामूर्ति की जन्मशती पर विभिन्न आयोजन हुए और उन्हें याद किया गया। भारत में उन्हें न्यूरो सर्जरी के पितृ पुरुष का सम्मान प्राप्त है। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान एकेडमी (इन्सा) का मानद सदस्य नियुक्त किया गया था।
प्रो. जी. एस. लड्ढा का जन्मशती के मौके पर स्मरण किया गया। 26 अगस्त 1922 को जन्मे केमिकल इंजीनियर जी. एस. लड्ढा ने आज़ादी के पहले देश में अनेक रासायनिक उद्योगों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान किया था। प्रो. लड्ढा ने भौतिकी में क्रिस्टल ग्रोथ में विशेष शोधकार्य किया था।
वर्ष 2022 में वैज्ञानिक येलावर्ती नायुडम्मा की जन्मशती पर सीएसआईआर की मद्रास स्थित केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान प्रयोगशाला में विचार गोष्ठियों का आयोजन हुआ। नायुडम्मा का जन्म 10 सितंबर 1922 के दिन हुआ था। उन्होंने केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान प्रयोगशाला में एक छोटे से पद से अपना करियर शुरू किया और आगे चलकर इसी संस्थान के निदेशक और बाद में सीएसआईआर के महानिदेशक पद तक पहुंचे। उन्हें पद्मश्री सहित अनेक राष्ट्रीय सम्मान मिले।
इसी साल अक्टूबर में डॉ. जी. एन. रामचंद्रन की जन्मशती मनाई गई। वे उन कुछ चुनिंदा भारतीय वैज्ञानिकों में शामिल थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कोलेजन की ट्रिपल हेलिकल संरचना का विचार प्रस्तुत किया था। इस महत्त्वपूर्ण खोज ने उन्हें विश्व भर में प्रसिद्धि दिलाई थी। उन्हें 1961 में शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.bl.uk/britishlibrary/~/media/subjects%20images/business/patents800.jpg?w=624&h=351&hash=A7758FD29B3F433A7FE596A614B8DD61
साल 2022 की अहम वैज्ञानिक घटनाओं और अनुसंधानों को मिलाकर देखें तो लगता है पूरा साल विज्ञान जगत में अभिनव प्रयोगों, अन्वेषणों और उपलब्धियों का रहा। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने सुर्खियों के लिए अलग-अलग घटनाओं का चयन किया है। अधिकांश विज्ञान पत्र-पत्रिकाओं ने जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप को सुखिर्यों में विशेष स्थान दिया है। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस ने जहां एक ओर वर्ष की दस प्रमुख उपलब्धियों (ब्रेकथ्रू) में जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप को प्रथम स्थान पर रखा है, वहीं दूसरी ओर इस वर्ष की विफलताओं (ब्रेकडाउन) की सूची में ‘ज़ीरो कोविड नीति’ को प्रमुखता से शामिल किया है।
बीते वर्ष 12 जुलाई को जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से ली गई ब्रह्मांड की पहली पूर्ण रंगीन तस्वीर जारी की गई। जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से लिए गए चित्रों से ब्रह्मांड की उत्त्पत्ति की जड़ों को तलाशने में मदद मिलेगी। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस मौके पर कहा था कि यह टेलीस्कोप मानवता की महान इंजीनियरिंग उपलब्धियों में से एक है। दस अरब डॉलर की लागत से तैयार इस टेलीस्कोप को साल 2021 में क्रिसमस उत्सव के मौके पर लॉन्च किया गया था। इसे हबल टेलीस्कोप का उत्तराधिकारी कहा जा सकता है। इस टेलीस्कोप में लगे विशाल प्रमुख दर्पण की मदद से अंतरिक्ष में किसी भी अन्य टेलीस्कोप की तुलना में अधिक दूरी तक देखा जा सकता है। जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप ने ब्रह्मांड में सबसे दूरस्थ और प्राचीनतम निहारिकाओं के चित्र भेजे हैं। इस नए दमदार टेलीस्कोप से पहली बार ब्रह्मांड के शुरुआत की झलक सामने आई, जिसमें निहारिकाओं के नृत्य और तारों की मृत्यु की तस्वीरें शामिल हैं।
विदा हो चुके साल 2022 में चंद्रमा पर पहुंचने की दौड़ जारी रही। निजी क्षेत्र भी मैदान में सक्रिय दिखाई दिया। अमेरिका, रूस, चीन, जापान, भारत और कोरिया ने पिछले वर्ष ही अपना भावी कार्यक्रम घोषित कर दिया था। 1972 में अपोलो-17 मिशन के साथ ही चंद्रमा पर मानव सहित यान भेजने का अभियान थम गया था। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पांच दशकों बाद फिर से चंद्रमा पर मानव अवतरण का अभियान शुरू किया है। इसे ‘आर्टेमिस मिशन’ नाम दिया गया है। इसी वर्ष नवंबर में आर्टेमिस-1 के ज़रिए ओरायन अंतरिक्ष यान भेजा गया, जिसने चंद्रमा की सतह से नब्बे किलोमीटर ऊपर विभिन्न प्रयोग किए। इस अभियान की सफलता ने आर्टेमिस-2 और आर्टेमिस-3 को भेजने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। वैज्ञानिकों ने इस दशक के अंत तक चंद्रमा पर मनुष्य को बसाने का दावा भी किया है।
युरोपीय स्पेस एजेंसी ने अपने भावी अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए 22,500 आवेदकों में से 17 व्यक्तियों का चुनाव किया है। इनमें ब्रिटेन के जॉन मैकफाल भी हैं। उन्होंने 2008 में एक पैर नहीं होने के बावजूद पैरालिंपिक में कांस्य पदक जीता था। यह पहला अवसर है, जब किसी विकलांग को अंतरिक्ष यात्री के रूप में चुना गया है।
सितंबर में नासा ने एक नए प्रयोग को अंजाम दिया, जिसका उद्देश्य पृथ्वी से टकरा सकने वाले छोटे ग्रहों से बचाव की तैयारी है। इसका नाम है डबल एस्टेरॉयड रिडायरेक्शन टेस्ट (डार्ट) मिशन। नासा ने नवंबर 2021 में डॉर्ट मिशन अंतरिक्ष में भेजा था। दस महीने के सफर के बाद डार्ट अपने अभीष्ट निशाने के पास तक पहुंचा और अपूर्व कार्य संपन्न किया। इस मिशन के अंतर्गत पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करने वाले क्षुद्र ग्रहों अथवा एस्टोरॉयड की दिशा को बदला जा सकेगा। यह प्रक्रिया अंतरिक्ष यान के ज़रिए की जा सकेगी। जानकारों के मुताबिक आने वाले वर्षों में इस दिशा में बहुत से प्रयोग होंगे।
साल 2022 ‘अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष’ के रूप में मनाया गया। 2017 में माइकल स्पाइरो ने युनेस्को द्वारा आयोजित वैज्ञानिक बोर्ड की बैठक में वर्ष 2022 को अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष के रूप में मनाने का विचार रखा था। प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय घटनाओं की व्याख्या में मूलभूत विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है। कोरोना वायरस की संरचना को समझने और उससे फैले संक्रमण का सामना करने के लिए टीकों के निर्माण में मूलभूत विज्ञान का योगदान रहा है। यही नहीं अंतरिक्ष के क्षेत्र में मिली तमाम उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में मूलभूत विज्ञान का बहुत बड़ा हाथ है। सच तो यह है कि पृथ्वी ग्रह का सतत और समावेशी विकास मूलभूत विज्ञान में अनुसंधान की अनदेखी करके नहीं हो सकता।
बीते वर्ष जीव विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं ने कैरेबिया के मैन्ग्रोव वनों में एक नया बैक्टीरिया खोजा जिसे देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी की ज़रूरत नहीं होती। वैज्ञानिकों ने नए बैक्टीरिया को थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका नाम दिया है। यह बैक्टीरिया अपने बड़े आकार के कारण कोशिका विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं के बीच चर्चा का विषय रहा। इसमें कई विशेषताएं हैं। इसका जीनोम एक झिल्ली में कैद होता है, जबकि सामान्य बैक्टीरिया की जेनेटिक सामग्री झिल्ली में नहीं होती है। इस बैक्टीरिया के बड़े आकार और झिल्लीयुक्त जीनोम को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह जटिल कोशिकाओं के उद्भव को समझने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। साइंस के संपादकों ने दस प्रमुख खोजों की सूची में नए बैक्टीरिया की खोज को स्थान दिया है।
विज्ञान जगत की एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ने इस साल की दस प्रमुख घटनाओं में मंकीपॉक्स वायरस को भी शामिल किया है। मई में युरोप और अमेरिका में इस वायरस के हमले का पता चला। लगभग 100 से अधिक देश इसकी चपेट में आ गए। यह वायरस भी कोरोना वायरस की तरह खतरनाक है, जो जंतुओं से मनुष्यों में फैलता है। इससे संक्रमित व्यक्ति में चेचक जैसे लक्षण दिखते हैं। मंकीपॉक्स वायरस पाक्सविरिडी कुल का सदस्य है। इस वायरस की खोज 1958 में हुई थी। अध्ययनकर्ताओं को बंदरों की कॉलोनी में चेचक जैसा रोग मिला, इसलिए इसका नाम मंकीपॉक्स रख दिया गया। इससे संक्रमित लोग बिना उपचार के अपने आप स्वस्थ हो जाते हैं। वर्तमान में इसके लिए कोई स्वीकृत एंटी वायरस नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसका नाम मंकीपॉक्स से बदल कर ‘एमपॉक्स’ कर दिया है। वैज्ञानिकों को अंदेशा है कि भविष्य में यह वायरस म्युटेशन की चपेट में आ सकता है।
गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने ग्रीनलैंड में सबसे प्राचीन डीएनए को खोजने में बड़ी सफलता प्राप्त की। प्राचीन डीएनए बीस लाख साल पुराना है। लगभग चालीस अनुसंधानकर्ता सोलह वर्षों तक प्राचीन डीएनए के रहस्य का पता लगाने में जुटे रहे। इस खोज ने उस इतिहास में झांकने का अवसर प्रदान किया, जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। अमेरिकी एसोसिएशन फॉर दी एडवांसमेंट ऑफ साइन्स के जर्नल ने इसे ‘टॉप टेन इन साइंस’ की सूची में सम्मिलित किया है।
वर्ष 2022 में पूर्वी और मध्य पनामा के वनों में मेंढक की नई प्रजाति मिली। पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के योगदान को रेखांकित और सम्मानित करने के लिए इसका नाम उन्हीं के नाम पर Pristimantis gretathunbergae रखा गया है।
साल की शुरुआत में 15 जनवरी को दक्षिणी प्रशांत महासागर में टोंगा ज्वालामुखी फट पड़ा। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि पिछले 100 सालों में यह सबसे भयानक ज्वालामुखी विस्फोट था, जिसने धरती को दो बार हिला दिया।
गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने मनुष्य द्वारा मोबाइल फोन, लेपटॉप और अन्य उपकरणों का अधिक और लगातार उपयोग करने से शारीरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों का एक मॉडल तैयार किया है। इस मॉडल से 800 वर्षों में मनुष्य की शारीरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों की झलक मिलती है। वैज्ञानिकों ने थ्री डिज़ायनर से तैयार मॉडल के आधार पर बताया कि वर्ष 3000 तक पीठ में कुबड़ निकल आएगी, गर्दन मोटी हो जाएगी, हाथ के पंजे मुड़े हुए होंगे और आंखों में एक और झिल्ली उग आयेगी।
खगोल विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं की टीम ने जीजे-1002 तारे के आसपास पृथ्वी जैसे दो ग्रहों की खोज की। लाल रंग का यह बौना तारा सौर मंडल से अधिक दूर नहीं है (मात्र 16 प्रकाश वर्ष दूर!)। इन दो ग्रहों की खोज के साथ ही अब हम सूर्य के समीप सौर मंडलों में मौजूद सात ऐसे ग्रहों के बारे में जानते हैं, जो पृथ्वी से मिलते-जुलते हैं।
साल 2022 में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण विभिन्न प्रजातियों के विलुप्त होने की वास्तविक स्थिति के आकलन के लिए ‘वर्चुअल अर्थ’ का विकास किया। इस मॉडल के अनुसार इस सदी के अंत तक पृथ्वी से जीव-जंतुओं की 27 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।
वर्ष 2022 में अमेरिका को नाभिकीय संलयन प्रक्रिया से स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिली। कैलिर्फोनिया स्थित लारेंस लीवरमोर नेशनल लेबोरेटरी के अनुसंधानकर्ताओं ने पहली बार नाभिकीय संलयन से खर्च से अधिक ऊर्जा प्राप्त की। नाभिकीय संलयन में दो परमाणु जुड़कर एक भारी परमाणु बनाते हैं। सूर्य में भी इसी प्रक्रिया से ऊर्जा उत्पन्न होती है। जानकारों का कहना है कि इस उपलब्धि से जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी।
विज्ञान जगत की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस साल की 22 अद्भुत अनुसंधानों की चयन सूची में माइक्रोप्लास्टिक को सम्मिलित किया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि माइक्रोप्लास्टिक मनुष्य की प्रजनन क्षमता पर असर डालता है। माइक्रोप्लास्टिक का आकार पांच मिलीमीटर से कम होता है। यह खिलौनों, कार के पुराने टायर आदि में पाया जाता है। यह हमारे पास से होते हुए समुद्र में पहुंच रहा है। प्लास्टिक के कण नंगी आंखों से दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि आम आदमी को इसके बारे में जानकारी नहीं होती। वैज्ञानिकों ने 2021 में माइक्रोप्लास्टिक के असर पर अनुसंधान में पाया कि मनुष्य प्रतिदिन लगभग सात हज़ार माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े सांस के ज़रिए लेता है।
दिसंबर में मॉन्ट्रियल में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन कॉप-15 में 190 से अधिक देशों ने प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार के लिए ऐतिहासिक जैव विविधता संधि को मंज़ूरी दे दी। ये देश सन 2030 तक पृथ्वी के तीस प्रतिशत हिस्से के संरक्षण पर सहमत हुए हैं। बायोलॉजिकल कंज़र्वेशन में प्रकाशित शोध के अनुसार पिछले डेढ़ सौ वर्षों में कीटों की पांच से दस प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं।
संयुक्त राष्ट्र का दो हफ्ते चला सालाना जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन सीओपी-27 मिस्त्र के शर्म-अल-शेख में आयोजित किया गया, जिसमें दुनिया भर के प्रतिनिधियों ने जलवायु संकट की चुनौतियों से निपटने के लिए अपने विचार साझा किए। सम्मेलन में मुख्य मुद्दे इस बार भी नहीं सुलझे। सम्मेलन में दुनिया के आठ अरब लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए कृषि और अनुकूलन के मुद्दों पर मंथन हुआ। अंत में वार्ताकारों के बीच ‘जलवायु आपदा कोश’ बनाने पर सहमति बनी। इसका उपयोग जलवायु आपदा से प्रभावित देशों के लिए किया जाएगा।
चिकित्सा विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं ने सात जनवरी को जेनेटिक रूप से परिवर्तित सुअर का दिल मनुष्य के शरीर में सफलतापूर्वक लगाया। यह प्रत्यारोपण बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसने भविष्य में ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन की राह खोल दी है। प्रत्यारोपण टीम के मार्दगर्शक सर्जन मोहम्मद मोइउद्दीन हैं, जिन्हें पत्रिका नेचर ने वर्ष 2022 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में सम्मिलित किया है।
यह वही साल था, जब रोबोट की भूमिका का एक और नया आयाम सामने आया। एआई-डीए नाम के इस रोबोट ने पहली बार ब्रिटेन की संसद को संबोधित किया। ब्रिटिश सांसदों ने रोबोट से कलात्मक कृतियां बनाने के बारे में सवाल भी किए। इस रोबोट का विकास ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने किया है।
साल के उत्तरार्द्ध में चीन ने तिब्बती पठार पर दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन स्थापित की। डीएसआरटी नाम की इस दूरबीन से सौर विस्फोटों को समझने में मदद मिलेगी। इससे प्राप्त जानकारियां अन्य देशों के अनुसंधानकर्ताओं को भी उपलब्ध कराई जाएंगी।
विदा हो चुके साल में दस करोड़ साल पुराना बड़ी आंखों वाला कॉकरोच जीवाश्म मिला। अब यह प्रजाति पृथ्वी पर नहीं है। इसका वैज्ञानिक नाम हुआब्लाटुला हुई (Huablattula hui) है। यह करोड़ों वर्षों से अंबर में कैद है। अंबर में कोई भी वस्तु जीवाश्म के तौर पर करोड़ों साल तक सुरक्षित रहती है।
नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने शिशु चूहों में मनुष्य के दिमाग की कोशिकाओं को सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया। इस अनुसंधान से मनुष्य में तंत्रिका सम्बंधी विकारों को समझने और इलाज का मार्ग प्रशस्त हो गया है। कुछ विज्ञान पत्रिकाओं ने इस प्रयोग को साल के दस प्रमुख अनुसंधानों में स्थान दिया है।
वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने कॉकरोच और मशीनों को मिलाकर साइबोर्ग कॉकरोच बनाया है। ये कॉकरोच सौर पैनल से जुड़ी बैटरी से लैस हैं। साइबोर्ग कॉकरोच पर्यावरण की निगरानी और प्राकृतिक आपदा के बाद बचाव मिशन में सहायता करेंगे। इससे पहले वैज्ञानिक रोबोटिक चूहे बना चुके हैं।
इसी वर्ष हिग्ज़ बोसान की खोज के दस साल पूरे हुए। 4 जुलाई 2012 को वैज्ञानिकों ने नए उप-परमाणविक कण के अस्तित्व की विधिवत घोषणा की थी। इस कण को ‘गॉड पार्टिकल’ भी कहा गया है, परंतु सच पूछा जाए तो इस कण का ‘गॉड’ अथवा ‘ईश्वर’ से कोई लेना-देना नहीं है। बीते एक दशक में इस महाप्रयोग के परिणामों ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बंधी हमारी समझ का विस्तार किया है और इसमें कण भौतिकी की अहम भूमिका सामने आई है। वैज्ञानिकों का विचार है कि हिग्ज़ बोसॉन अनुसंधान से आने वाले दिनों में कम्प्यूटिंग और मेडिकल साइंस के क्षेत्र में नई संभावनाओं की राह खुलेगी।
इस वर्ष ‘ब्रेकथ्रू’ प्राइज़ फाउंडेशन ने साल 2023 के ‘ब्रेकथ्रू’ पुरस्कारों की घोषणा की। यह विज्ञान का अति प्रतिष्ठित और नोबेल पुरस्कार की टक्कर का पुरस्कार है, जिसकी स्थापना मार्क ज़ुकरबर्ग, सर्गेई ब्रिन और कुछ अति धनाढ्य विज्ञानप्रेमी लोगों ने मिलकर की है। इसकी पहचान ‘आस्कर ऑफ साइंस’ के रूप में है। यह पुरस्कार हर साल गणित, मूलभूत भौतिकी और जीव विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए दिया जाता है। वर्ष 2023 के लिए गणित के क्षेत्र में डेनियल ए. स्पीलमन को सम्मानित किया गया है। मूलभूत भौतिकी के क्षेत्र में इस बार पुरस्कार चार्ल्स एच. बेनेट, गाइल्स ब्रासार्ड, डेविड डॉच और पीटर शोर को दिया गया है। जीव विज्ञान में डेमिस हैसाबिस, जॉन जम्पर, एंथनी ए. हायमन, क्लिफोर्ड ब्रैंगनाइन, इमैनुएल मिग्नाट और मसाशी यानागिसावा को कृत्रिम बुद्धि के उपयोग से प्रोटीन की संरचना की भविष्यवाणी के लिए पुरस्कृत किया गया है।
वर्ष 2022 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिकी गणितज्ञ डॉ. डेनस पी. सुलिवान को दिया गया है। एबेल पुरस्कार को गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी।
अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार विज्ञान के विभिन्न विषयों के नोबेल पुरस्कार सात वैज्ञानिकों को दिए गए। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार स्वीडन के आनुवंशिकी वैज्ञानिक स्वांते पाबो को दिया गया है। उन्हें विलुप्त पूर्वजों से आधुनिक युग के मानव का विकास विषय पर शोध के लिए पुरस्कृत किया गया। भौतिकशास्त्र का नोबेल पुरस्कार एलेन ऑस्पेक्ट, जॉन क्लाज़र और एंटोन जेलिंगर को संयुक्त रूप से क्वांटम मेकेनिक्स में विशेष योगदान के लिए दिया गया। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान कैरोलिन बर्टोजी, मोर्टन मेल्डल और बैरी शार्पलेस को प्रदान किया गया। बैरी और मोर्टन ने ‘क्लिक केमिस्ट्री’ की नींव रखी, जबकि कैरोलिन ने ‘बायोआर्थोगोनल केमिस्ट्री’ को नया आयाम दिया।
यह वही वर्ष है जब जीवाणु वैज्ञानिक डॉ. टेड्रोस अधानोम गेब्रेसियस को दूसरी बार विश्व स्वास्थ्य संगठन का महानिदेशक चुना गया। उन्होंने 2017 में यह पद संभाला था। इसके पहले गेब्रेसियस 2005 से 2012 तक इथोपिया के स्वास्थ्य मंत्री और 2012 से 2016 तक विदेश मंत्री रह चुके हैं।
15 मार्च को विख्यात भौतिकशास्त्री यूजिन पार्कर का 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने पचास के दशक में सौर पवन के अस्तित्व का विचार रखा था। उन्हें 2003 में क्योटो और 2020 में क्रॉफोर्ड पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 3 जुलाई को फुलेरीन अणु के खोजकर्ता राबर्ट एफ. कर्ल जूनियर का 88 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्हें 1996 में कार्बन के नए अपररूप फुलेरीन की खोज के लिए रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान मिला था।
साल के अंत में ओमिक्रॉन वायरस के नए सब वेरिएंट बीएफ.7 की चपेट में चीन और कुछ देश आ गए। दरअसल ओमिक्रॉन वायरस बहुरूपिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कुछ छोटे-मोटे बदलावों को छोड़कर इसकी मुख्य संरचना ओमिक्रॉन वायरस जैसी ही होती है। नया वायरस इम्युनिटी को चकमा देने में माहिर है।
विज्ञान जगत के समीक्षकों और विश्लेषणकर्ताओं का कहना है कि अधिकांश देशों में अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष एक रस्म अदायगी की तरह संपन्न हुआ, कोई बड़ी पहल नहीं हुई। रूस और यूक्रेन युद्ध का असर वैज्ञानिक रिश्तों और वैज्ञानिक परियोजनाओं पर पड़ा। चीन सहित कई देश ‘ज़ीरो कोविड नीति’ का सख्ती से पालन कराने में विफल रहे। वातानुकूलित सभागारों में जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन और जैव विविधता सम्मेलन में अहम मुद्दों को उठाने के साथ विचारोत्तेजक चर्चाएं हुईं। लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/4/44/NASA%E2%80%99s_Webb_Reveals_Cosmic_Cliffs%2C_Glittering_Landscape_of_Star_Birth.jpg/1024px-NASA%E2%80%99s_Webb_Reveals_Cosmic_Cliffs%2C_Glittering_Landscape_of_Star_Birth.jpg
वर्ष 2022 विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उपलब्धियों भरा साल रहा। यहां साल 2022 के ऐसे ही समाचारों का संकलन किया गया है।
सूरज के वायुमंडल में पहुंचा अंतरिक्ष यान
अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि जब कोई यान सूरज के वायुमंडल में प्रवेश कर पाया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का पार्कर सोलर प्रोब सूरज के ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। यह यान सूरज की सतह से 79 लाख किलोमीटर की दूरी पर रहा। इसने सूरज से उत्सर्जित कणों और चुबंकीय क्षेत्र सम्बंधी महत्वपूर्ण आंकड़े जुटाए।
डायनासौर के पदचिंह
वैज्ञानिकों ने डायनासौर के पदचिंह पोलैंड में खोजे। इन निशानों से 20 करोड़ साल पहले के पारिस्थितिक तंत्र के बारे में नई जानकारी प्राप्त होगी। यह खोज पोलैंड की राजधानी वार्सा से 130 किलोमीटर दक्षिण में स्थित बोर्कोबाइस इलाके के खुले मैदान में की गई है।
शार्क का रसायन लैब में बनाया
शार्क में पाए जाने वाले स्कवेलिन नामक रसायन के लिए हर साल करीब 12 लाख शार्क का शिकार किया जाता है (एक शार्क के लीवर में मात्र 150 मिलीलीटर स्क्वेलिन मिलता है)। इसी स्क्वेलिन को प्रयोगशाला में बनाने में सफलता पाई आईआईटी जोधपुर के वैज्ञानिक राकेश शर्मा ने। उन्होंने जंगली वनस्पतियों और राजस्थानी मिट्टी की प्रोसेसिंग से स्क्वेलिन तैयार किया है।
कृत्रिम बुद्धि राइफल तैयार
आधुनिक हथियारों के निर्माण की दिशा में इस्राइल द्वारा कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित स्व-चालित राइफल बना ली गई है। इसे अरकास नाम दिया गया है। इसे इस्राइल की रक्षा उत्पाद बनाने वाली कंपनी इल्विट ने बनाया है।
अंतरिक्ष में सैलून
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने हाल ही में अंतरिक्ष यात्रियों के लिए अंतरिक्ष में हेयर कटिंग सैलून खोला है।
चीनी यान ने चांद पर खोजा पानी
चीनी यान चांग-ई-5 द्वारा अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत चंद्रमा पर पानी की खोज की गई। यह भी पता चला कि चंद्रमा पर यान के उतरने के स्थान पर मिट्टी में पानी की मात्रा 120 ग्राम प्रति टन से कम थी।
30 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान
जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका बुलेटिन में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि भू-गर्भीय दृष्टि से महत्वपूर्ण लद्दाख में सिंधु नदी के उत्तर में श्योक व न्यूब्रा घाटी में 29.9 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान खोजी गई है। इस चट्टान में गोंडवाना के समय के बीजों के जीवाश्म मिले हैं। गौरतलब है कि गोंडवाना पृथ्वी के अतीत में कभी एक महाद्वीप हुआ करता था।
दुनिया का सबसे बड़ा रोबोट
चीन ने चार पैरों पर चलने वाला दुनिया का सबसे बड़ा रोबोट याक बनाया है। यह 160 किलोग्राम तक वज़न उठा सकता है और 1 घंटे में 10 किलोमीटर तक चल सकता है।
प्लास्टिक से हल्का और स्टील से मज़बूत पदार्थ
मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने एक ऐसा पदार्थ विकसित किया है, जो प्लास्टिक से हल्का और स्टील से ज़्यादा मज़बूत है। यह बुलेटप्रुफ कांच की तुलना में 6 गुना शक्तिशाली है। इसका प्रयोग सुरक्षा तकनीकों में किया जाना है।
डार्क मैटर और न्यूट्रिनो के बीच समानता
आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने अंतरिक्ष के डार्क मैटर (अदृश्य पदार्थ) और ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले कण न्यूट्रिनो के बीच समानता का पता लगाया है। इस खोज को फिज़िकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित किया गया है।
मछली की नई प्रजाति
कोच्चि के सेंट्रल मरीन फिशरीज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा आनुवंशिक विश्लेषण की मदद से मछली की एक नई प्रजाति की खोज की गई है। यह मछली क्वीन फिश समूह में है और इसे स्कोम्बेरॉइडस पेलेजिकस (scomberoides pelagicus) नाम दिया गया है। इसे स्थानीय भाषा में पोला वट्टा कहते हैं।
विश्व की सबसे पुरानी चट्टान
अमेरिका की राष्ट्रीय स्पेस एजेंसी ने विश्व की लगभग सबसे पुरानी चट्टान को खोजने का दावा किया है। एजेंसी के अनुसार इस चट्टान पर करीब 3.45 अरब साल पुराने जीवाश्म स्ट्रोमेटोलाइट्स और सायनोबैक्टीरिया की कालोनियां हुआ करती थीं।
टेरासौर का पुराना जीवाश्म
उड़ने वाले रीढ़धारी पुरातन सरिसृप जीव टेरासौर का 17 करोड़ साल पुराना जीवाश्म स्कॉटलैंड के एक द्वीप पर प्राप्त हुआ है। यह टेरासौर की नई प्रजाति है, जिसके बारे में पहले जानकारी नहीं हुआ करती थी।
सूर्य की सबसे करीबी तस्वीर
नासा और युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के साझा सोलर ऑर्बाइटर ने सूर्य की अब तक की सबसे करीबी तस्वीर प्राप्त करने में सफलता पाई है। यह तस्वीर सूर्य से 7.40 करोड़ किलोमीटर की दूरी से ली गई है। इस तस्वीर के अध्ययन से अंतरिक्ष मौसम की भविष्यवाणी करने में मदद मिलने की संभावना है।
रेबीज़ का नया टीका
भारत की दवा कंपनी कैडिला फार्मास्युटिकल ने रेबीज़ के लिए तीन खुराक वाला टीका विकसित किया है। यह नैनोपार्टिकल आधारित प्रोटीन टीका है।
अंतरिक्ष में पहला निजी दल
अंतरिक्ष में शोध करने के लिए पहला निजी दल अप्रैल माह में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में पहुंचा। ह्यूस्टन की स्टार्टअप कंपनी एग्जि़ओम स्पेस इंक द्वारा 4 यात्रियों के इस दल को 21 घंटे में सफलतापूर्वक भेजा गया।
पहली 3डी फिंगर टिप
ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने एक 3डी फिंगर टिप बनाने में सफलता पाई है जो इंसान की त्वचा जैसी संवेदनशील है। इससे त्वचा की जटिल आंतरिक संरचना और स्पर्श के एहसास को समझने में सहायता मिलेगी।
सबसे दूर के तारे की खोज
युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बताया है कि शक्तिशाली अंतरिक्ष दूरबीन हबल ने पृथ्वी से अब तक के सबसे दूर स्थित तारे को खोज लिया है। इस तारे के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने में 12.9 अरब वर्ष का समय लगता है। इसे एरेन्डेल नाम दिया गया है।
ध्वनि की दो चालें
नासा के वैज्ञानिकों ने बताया है कि पृथ्वी पर ध्वनि 340 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चलती है लेकिन मंगल ग्रह पर ध्वनि की गति 240 मीटर प्रति सेकंड ही होती है। इसका कारण है मंगल का अल्प तापमान (औसतन ऋण 60 डिग्री सेल्सियस)
संचार की नई तकनीक
नासा ने अंतरिक्ष संचार के क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल की है। नासा के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष संचार के लिए होलोपोर्टेशन नामक एक नई तकनीक ईजाद की है। इस तकनीक द्वारा नासा के एक वैज्ञानिक ने धरती पर रहते हुए ही अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन के लोगों से स्टेशन पर अपनी एक प्रतिकृति के माध्यम से बातचीत की।
पहला स्वदेशी पॉलीसेंट्रिक घुटना
आईआईटी, मद्रास के शोधकर्ताओं ने भारत का पहला स्वदेशी पॉलीसेंट्रिक घुटना ‘कदम’ नाम से लॉन्च किया है। यह घुटने के ऊपर विकलांग हुए लोगों के लिए बेहद उपयोगी है।
विमान उतारने की नई स्वदेशी तकनीक
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन और एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने मिलकर विमान को लैंड कराने की नई उन्नत स्वदेशी तकनीक विकसित की है है। ऐसा करने वाला भारत विश्व का चौथा देश बन गया है।
रूबिक्स क्यूब हल करने वाला रोबोट
हैदराबाद के 11 साल के कक्षा 6 में अध्ययन करने वाले छात्र एस.पी.शंकर ने एक ऐसा रोबोट बनाया है, जो रूबिक्स क्यूब को स्वयं हल कर देता है। यह सफलता बिना पेशेवर मार्गदर्शन के मिली है।
विटामिन डी का स्रोत बना टमाटर
नेचर प्लांट्स जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक इंग्लैंण्ड के जॉन एनेस सेंटर के वैज्ञानिकों ने जीन संपादन टेक्नॉलॉजी की मदद से टमाटर के जीनोम में बदलाव कर उसे विटामिन डी के बढ़िया स्रोत में बदल दिया है।
चंद्रमा पर खोजे 13 नए स्थान
अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अगस्त में बताया कि उसने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के समीप 13 नए स्थानों की खोज कर ली है जहां अंतरिक्ष यानों को उतारा जा सकता है।
3-डी प्रिंटेड कॉर्निया बनाया
हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (हैदराबाद), व सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलिक्यूलर बॉयोलॉजी के शोधकर्ताओं ने 3-डी प्रिंटेड कॉर्निया बनाने में सफलता पाई है। पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से विकसित इस कॉर्निया में कोई भी सिंथेटिक घटक नहीं है।
लैब में सूर्य के समान ऊर्जा
दक्षिण कोरिया के भौतिक वैज्ञानिकों ने एक फ्यूज़न रिएक्टर में चुंबकीय क्षेत्र का प्रयोग कर सूर्य के समान ऊर्जा उत्सर्जित करने में सफलता पाई है। इस प्रयोग में 30 सेकंड तक करीब 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस का तापमान विकसित करने में सफलता मिली।
पहला हिमस्खलन रडार केंद्र
भारतीय सेना और रक्षा भू-सूचना विज्ञान और अनुसंधान प्रतिष्ठान ने संयुक्त रूप से सितंबर माह में सिक्किम राज्य में देश का पहला हिमस्खलन रडार केंद्र स्थापित किया है। यह रडार 3 सेकंड के भीतर हिमस्खलन का पता लगा सकता है।
अमेज़न का सबसे ऊंचा पेड़
वैज्ञानिकों ने अमेज़न के जंगलों में सबसे ऊंचा पेड़ खोजा है। इसकी लंबाई 88.5 मीटर है। वैज्ञानिकों ने इसकी उम्र करीब 600 वर्ष आंकी है।
प्राकृतिक आपदा और रोबोट चूहा
चीन के वैज्ञानिकों ने ऐसा रोबोटिक चूहा बनाया है जो असली चूहे की तरह खड़ा हो सकता है, मुड़ सकता है, बैठ सकता है। यह रोबोटिक चूहा अपने वज़न का 91 फीसदी भार लेकर चल भी सकता है। इसे प्राकृतिक आपदा या युद्ध क्षेत्र में मदद के लिए बनाया गया है।
3-डी प्रिंटेड कान बना
दुनिया में पहली बार 3-डी प्रिंटेड कान बनाकर एक महिला को लगाया गया है। माइक्रोटिया रोग से ग्रसित लोगों के लिए यह बेहद फायदेमंद है।
सबसे पुराना पेड़ मिला
दक्षिण चिली के एक पार्क में दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मिला है। पेरिस स्थित क्लाइमेट एंड एनवायरमेंटल साइंसेज़ लेबोरेट्री के पारिस्थितिकीविद जोनाथन बैरीचिविच के अनुसार पेड़ की उम्र 5484 साल है।
शून्य कार्बन उत्सर्जन कार
नीदरलैंड के आइंडहोवन प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शून्य कार्बन उत्सर्जन करने वाली कार का प्रोटोटाइप बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसके अधिकांश हिस्सों को 3-डी प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी की मदद से तैयार किया गया है।
माउंट एवरेस्ट से बड़ी चट्टान
वैज्ञानिकों ने भूपर्पटी और पृथ्वी के कोर के बीच (पश्चिमी अफ्रीका और प्रशांत महासागर के मध्य) चट्टान की एक गर्म मोटी परत खोजी है, जो माउंट एवरेस्ट से 100 गुना बड़ी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://solarsystem.nasa.gov/news/522/10-things-to-know-about-parker-solar-probe/
लगभग 11,000 साल पहले वर्तमान के दक्षिणी तुर्की में शिकारी-संग्रहकर्ताओं ने अपनी घूमंतू जीवन शैली त्यागकर एक जगह बसना शुरू किया था। खेती शुरू होने के सदियों पहले वहां उन्होंने पत्थर के टिकाऊ घर और स्मारक बनाए थे। अब, हाल ही में खोजी गई नक्काशी इन नवपाषाण युगीन अनातोलियन लोगों की मान्यताओं, डरों और कहानियों की एक झलक पेश करती है।
सायबुर्क गांव के नीचे दफन 3.7 मीटर लंबे पत्थर के पटल पर एक जंगली सांड, गुर्राते तेंदुए और अपने शिश्न की नुमाइश करते दो मनुष्य उकेरे गए हैं। पूर्व में इसके आसपास के अन्य खुदाई स्थलों पर पुरातत्वविदों को उग्र शिकारियों और लिंग की आकृतियां मिली थीं, लेकिन ऐसा लगता नहीं था कि इनमें उकेरे गए पात्र एक-दूसरे को देख रहे हों। अधिकांश पात्र मूर्तियों की तरह सीधे अकेले खड़े थे, नज़रें अलग-अलग कहीं देख रही थीं, इनमें आपसी संवाद जैसी कोई भंगिमा नहीं थी, न ही संवाद या संपर्क के अन्य कोई संकेत थे। लेकिन एंटीक्विटी नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि सायबुर्क में मिली ताज़ा नक्काशी के दो दृश्यों में पात्रों के बीच कुछ संवाद दिखता है। यह संभवत: इस क्षेत्र की सबसे प्राचीन कला अभिव्यक्ति है।
दक्षिण-पूर्वी अनातोलिया में लगभग 12,000 से 9000 साल पहले जीवन शैली तेज़ी से बदली थी – खानाबदोश शिकारी-संग्रहकर्ता धीरे-धीरे एक स्थान पर टिकने लगे थे, और कालांतर में खेती करने लगे थे। इस परिवर्तन के समय, शुरुआती ग्रामीणों ने 10 मीटर से अधिक व्यास वाली चट्टान की शानदार गोल इमारतों का निर्माण किया था। इन इमारतों के एकल प्रस्तर खंभों पर शेर, सांप और अन्य हिंसक जानवरों की तस्वीरें हैं जो अपने सबसे घातक अंगों का प्रदर्शन कर रहे हैं – जैसे नुकीले दांत, नाखून, सींग वगैरह। इन पर सिर्फ शिश्न या शिश्न दिखाती पुरुष आकृतियां भी हैं।
इन नवपाषाण भवनों की खोज पुरातत्वविदों ने फरात नदी से लगभग 90 किलोमीटर पूर्व गोबेकली टेपे में 1990 के दशक में की थी। ये स्थल अब युनेस्को विश्व धरोहर स्थल में शामिल हैं। शुरुआत में शोधकर्ताओं को लगा था कि नवपाषाण काल के लोगों ने बड़े अनुष्ठान स्थल के रूप मे इन भवनों को बनाया होगा। लेकिन उसके बाद से तुर्की के सान्लीउर्फा में इसी तरह की नक्काशी और वास्तुशिल्प वाले एक दर्जन से अधिक भवन मिले हैं। इससे यह स्पष्ट होता लगता है कि तत्कालीन तुर्की में भवन निर्माण का यह मानक या आम तरीका था।
साल 2021 में, इस्तांबुल विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद आइलम ओज़ोगेन और उनके साथियों ने सायबुर्क में खुदाई शुरू की थी। खुदाई में उन्हें लगभग 9000 ईसा पूर्व (आज से लगभग 11 हज़ार साल पहले) के कुछ अवशेष और गोबेकली टेपे जैसी गोलाकार इमारत भी मिलीं। वे केवल आधी इमारत को खोदकर उजागर कर सके क्योंकि बाकी आधे हिस्से के ऊपर आधुनिक बस्ती बस चुकी है। उजागर पुरातन इमारत में उन्हें एक पत्थर की बेंच के पास के पटल पर शिकारियों और शिश्न की नक्काशियां मिलीं।
एक दृश्य में एक छह-उंगली वाला, पालथी मारकर बैठा मनुष्य सांप या झुनझुने जैसी कोई चीज़ एक पैने सींग वाले सांड की ओर लहराता दिख रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह दो जीवों के बीच लड़ाई जैसा दृश्य लगता है। दूसरे दृश्य में एक व्यक्ति शिश्न पकड़े सामने की ओर मुंह करके खड़ा है और इसके दोनों ओर दो तेंदुए इस व्यक्ति की ओर मुंह करके खड़े हैं। इसे शोधकर्ता खतरे के सामने ‘एक लापरवाह रवैया’ बताते हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि दीवार पर बनी आकृतियां एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं या किसी क्रम में है, लेकिन शोधकर्ताओं को लगता है कि ये नक्काशियां खानाबदोश समुदाय के एक जगह बसने के साथ उनके प्रकृति के प्रति बदलते दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं। सांड के साथ संघर्ष और तेंदुओं के प्रति उदासीनता संभवत: जंगली जीवों को वश में करना सीखने वाले लोगों की कहानी बताती होगी।
वैसे, अन्य वैज्ञानिक इन नक्काशियों को देखकर इनकी अलग व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं। जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के पुरातत्वविद मुलर-न्यूहोफ को लगता है कि सांड और उसके साथ एक-दूसरे की ओर मुंह किए तेंदुए मिलकर कोई कहानी कहते हैं। और शिश्न पकड़े खड़ा व्यक्ति आगंतुकों का अभिवादन कर रहा है या अनचाहे मेहमानों को डरा रहा है। युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एडवर्ड बैनिंग को सांड वाले दृश्य के लिए ऐसा लगता है कि यह आदमी किसी झुनझुने से डराने के बजाय जानवर को काबू करने के लिए फंदा डालने की तैयारी में है।
इन नक्काशियों के अर्थ समझने के लिए शोधकर्ताओं को इस बारे में और समझना पड़ेगा जिससे मिलकर पूरा समुदाय बनता है। अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि नक्काशियों का अर्थ स्वतंत्र रूप से सिर्फ नक्काशी देखकर निकालने के बजाए उनके साथ मिले भोजन अवशेष, मानव कंकाल और अन्य कलाकृतियों के साथ जोड़ते हुए निकालना अधिक सार्थक होगा।
बहरहाल, ये पुरातात्विक साक्ष्य जल्द उजागर होने की उम्मीद है। तुर्की सरकार इन प्राचीन इमारत के ऊपर रह रहे लोगों को अन्यत्र नए घर बनाकर दे रही है ताकि पूरी इमारत खोद कर बाहर निकाली जा सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg1940/abs/_20221207_on_neolithic_narrative.jpg
कैंसर फैलने में अहम मोड़ मेटास्टेसिस चरण में आता है, जब कोशिकाएं प्रारंभिक ट्यूमर से अलग होकर शरीर में फैलने लगती हैं और नए ट्यूमर बनाने लगती हैं। लेकिन कैंसर कोशिकाओं को आगे बढ़ने के लिए शरीर में मौजूद तरल माध्यम से गुज़रते हुए उसके प्रतिरोध का सामना पड़ता है। पूर्व में हुए प्रयोगशाला अध्ययनों में पता चला था कि (सहज बोध के विपरीत) ये कोशिकाएं गाढ़े द्रव में अधिक तेज़ी से आगे बढ़ती हैं।
अब, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि कैंसर कोशिकाएं शारीरिक द्रव के गाढ़ेपन को भांप लेती हैं और उसके मुताबिक प्रतिक्रिया देती हैं। सिरप जैसे द्रव में रखे जाने पर देखा गया कि कोशिकाएं अपनी बनावट में ऐसे परिवर्तन करती हैं जो उन्हें बाहरी प्रतिरोध में अधिक कुशलता से आगे बढ़ने में मदद करते हैं। यहां तक कि वे द्रव के गाढ़ेपन की स्मृति को सहेजकर रखती हैं और अपेक्षाकृत पतले द्रव में लौटने पर भी तेज़ी से आगे बढ़ना जारी रखती हैं।
यह जानने के लिए कि कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में कैसे आगे बढ़ती हैं, पोम्पे फेबरा युनिवर्सिटी के आणविक जीव विज्ञानी मिगुएल वेल्वरडे और उनके साथियों ने कोशिकाओं की चाल पता करने के लिए उपयोग किए गए अपने गणितीय मॉडल को थोड़ा बदलकर इसे गाढ़े द्रव के लिए अनुकूलित किया।
संशोधित मॉडल ने बताया कि बाहरी प्रतिरोध कोशिकाओं को उनके अग्रभाग की ओर एक्टिन को पुनर्गठित करने के लिए उकसाता है – एक्टिन एक प्रोटीन है जो कोशिका का आंतरिक कंकाल बनाता है। इसके बाद NHE1 नामक परिवहन प्रोटीन झिल्ली पर इकट्ठा होने लगता है और पानी के अवशोषण में मदद करता है। इससे कोशिका फूल जाती है, जिसकी वजह से झिल्ली में तनाव पैदा हो जाता है। इस तनाव के परिणामस्वरूप TRPV4 आयन चैनल खुल जाता है। इससे कैल्शियम आयन कोशिका में भर जाते हैं जो इसे सिकुड़ने के लिए उकसाते हैं। इससे एक बल उत्पन्न होता है जो कोशिका को अधिक गाढ़े द्रव के प्रतिरोध का सामना करके आगे बढ़ने में मदद करता है।
पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को अत्यधिक आवर्धन क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी से देखा। पाया गया कि जब कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में होती हैं तो उनके अग्रभाग पर एक्टिन जमा होता है। फिर शोधकर्ताओं ने व्यवस्थित रूप से प्रत्येक घटक की जांच करके घटनाओं के क्रम की पुष्टि की। उदाहरण के लिए, NHE1 रहित कोशिकाओं में जब TRPV4 को सक्रिय किया गया तो कोशिकाओं में तेज़ी से चलने की क्षमता बहाल हो गई, जिससे पता चलता है कि TRPV4 चैनल तरल के बहाव की विपरीत दिशा में कार्य करता है। ये नतीजे इस मान्यता को चुनौती देते हैं कि बाहरी चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया देने की शुरुआत आयन चैनल करती हैं।
यह भी देखा गया कि गाढ़े द्रव की परिस्थितियों की स्मृति कोशिकाएं बरकरार रखती है: मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को गाढ़े द्रव में छह दिनों तक रखकर फिर पानी जितनी सांद्रता वाले में माध्यम में स्थानांतरित करने पर पाया गया कि इन कोशिकाओं ने अपनी गति बरकरार रखी। इसी तरह, लसलसे तरल में कोशिकाओं को पनपाने के बाद जब इन्हें चूहों के शरीर में डाला गया तो इन कोशिकाओं ने कम लसलसे तरल में पनपाई गई कोशिकाओं की तुलना में अधिक व्यापक मेटास्टेसिस किया। इसी तरह के नतीजे ज़ेब्राफिश और भ्रूण-चूज़े में भी देखे गए।
ऐसा लगता है कि इस स्मृति का विकास TRPV4 पर निर्भर करता है। कोशिकाओं को एक लसलसे घोल में छह दिन तक रखने के बाद पानी के समान द्रव में स्थानांतरित किया गया तो पता चला कि जिन कोशिकाओं में आयन चैनल व्यक्त नहीं हुआ था उन्होंने चूहों में तुलनात्मक रूप से कम ट्यूमर बनाए। इससे पता चलता है कि आयन चैनल के अभाव में गाढ़ापन गति को प्रभावित नहीं करता।
शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के मेटास्टेसिस को अवरुद्ध करने के लिए TRPV4 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है। लेकिन अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि पहले सामान्य कोशिकाओं में TRPV4 की भूमिका को पूरी तरह समझना ज़रूरी है। यदि यह कोई खास भूमिका निभाता होगा तो इसे अवरुद्ध करने के घाटे भी हो सकते हैं। इसके अलावा, निष्कर्षों की सावधानीपूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। कोशिकाएं गाढ़े घोल में तेज़ चलती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अधिक कैंसर गठानें (द्वितियक कैंसर) बनाएंगी; ट्यूमर मेटास्टेसिस एक बहुत ही जटिल घटना है जिसके कई चरण होते हैं, इनमें से कुछ चरण कोशिका के विचरण से स्वतंत्र हैं।
बहरहाल, भले ही ये नतीजे सीधे तौर पर कैंसर चिकित्सा में मदद न करें लेकिन ये कोशिका-आधारित कैंसर अनुसंधान में बदलाव ला सकते हैं। फिलहाल अधिकांश अध्ययन पानी जैसी सांद्रता वाले द्रवों में किए जाते हैं। शरीर के तरल जैसी सांद्रता वाले द्रव का उपयोग मेटास्टेसिस-अवरुद्ध करने वाले लक्ष्य पहचानने में अधिक मदद कर सकते हैं। कृत्रिम वातावरण जितना अधिक शरीर के वातावरण के समान होगा उतने सटीक परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/70781/aImg/48671/cancer-cells-article-l.webp