गंध से याददाश्त में सुधार

हम दैनिक जीवन में गंध का बहुत इस्तेमाल करते हैं, लेकिन फिर भी उसे इतनी तवज्जो नहीं देते। गलती से गैस खुली छूट जाए या गैस पर दूध चढ़ा कर भूल जाएं, तो गैस की या जलने की बू हमें हमारी भूल का एहसास करा देती है। अब, एक अध्ययन में गंध से हमारी याददाश्त में सुधार की संभावना दिख रही है।
सूंघने की शक्ति क्षीण पड़ने का सम्बंध कई स्वास्थ्य समस्याओं से देखा गया है; जैसे अवसाद, संज्ञान क्षमता में कमी वगैरह। इस बात के भी प्रमाण मिले हैं कि नियमित रूप से तीक्ष्ण गंध सूंघने से इस तरह की दिक्कतों से बचाव संभव है। और अब, युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के माइकल लियोन के दल ने नींद के दौरान लोगों को गंध सुंघाकर उनका संज्ञान प्रदर्शन बेहतर करने में सफलता प्राप्त की है।
अध्ययन के लिए 60 वर्ष से अधिक उम्र के सामान्यत: स्वस्थ 20 प्रतिभागियों को चुना गया। उन्हें लगातार छह महीने तक रोज़ रात को एक गंध सुंघाई गई – गुलाब, संतरा, नीलगिरी, नींबू, पेपरमिंट, गुलमेंहदी और लैवेंडर; यानी सप्ताह की हर रात अलग गंध। फ्रंटियर्स इन न्यूरोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि नियंत्रण समूह (जिसे गंध नहीं सुंघाई गई थी) की तुलना में गंध उपचािरत समूह के सदस्यों ने अधिक शब्द याद रखे थे।
हालांकि शोधकर्ता अभी यह पुख्ता तौर पर नहीं जानते कि गंध ने यह कमाल कैसे दिखाया, लेकिन उनका अनुमान है कि गंध संवेदना में शामिल तंत्रिकाओं का मस्तिष्क के स्मृति और भावना से जुड़े क्षेत्र से सीधा सम्बंध होता है। उनके इस अनुमान का आधार एमआरआई की रिपोर्ट है, जिसमें उन्हें गंध उपचारित प्रतिभागियों के मस्तिष्क की उस संरचना में परिवर्तन दिखा है जो स्मृति और भावनात्मक केंद्रों को जोड़ती है – यह कड़ी अक्सर बढ़ती उम्र में, खासकर अल्ज़ाइमर से ग्रस्त लोगों में कमज़ोर पड़ जाती है।
हालांकि ये परिणाम प्रारंभिक हैं और एक छोटे समूह में दिखे हैं लेकिन यदि यह उपचार बड़े परीक्षणों में सफल साबित होता है तो यह इस तरह की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए मददगार हो सकता है।
बड़े पैमाने का अध्ययन कई अनसुलझे सवालों के जवाब ढूंढने में भी मददगार होगा। जैसे इस अध्ययन में सात खुशनुमा गंधों का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी भी तरह की गंध (तीखी, बुरी गंध) भी इसी तरह के परिणाम दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विचित्र खोजों के लिए इगनोबल पुरस्कार

र वर्ष की तरह इगनोबल पुरस्कार विचित्र खोजों के लिए दिए गए हैं। पिछले 33 वर्षों से इगनोबल पुरस्कार ऐसे सवालों के जवाब खोजने के लिए दिए जाते रहे हैं जो पहली नज़र में तो हास्यास्पद लगते हैं लेकिन हमें सोचने को मजबूर कर देते हैं।

पहला पुरस्कार इस सवाल का जवाब खोजने के लिए दिया गया: भूगर्भ वैज्ञानिक चट्टानों को क्यों चाटते हैं? लाइसेस्टर विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक यान ज़लासिविक्ज़ के मुताबिक इस सवाल का जवाब बहुत आसान है – चट्टानों में उपस्थित खनिज कण सूखी चट्टान की अपेक्षा गीली सतह पर बेहतर नज़र आते हैं। लिहाज़ा, गीला करने पर मैदानी परिस्थिति में चट्टानों की पहचान करना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है।

और तो और, ज़लासिविक्ज़ याद करते हैं कि एक समय ऐसा भी था जब भूगर्भ वैज्ञानिक चट्टानों को सिर्फ चाटते नहीं थे बल्कि वे उन्हें पकाते थे और कभी-कभी तो उन्हें खा भी लेते थे। इस संदर्भ में उन्होंने 2017 में पैलिऑन्टोलॉजिल एसोसिएशन के न्यूज़लेटर में लिखा भी था, “हमने चखकर चट्टानों को पहचानने की कला गंवा दी है।”

इसी सिलसिले में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के मूत्र विशेषज्ञ (यूरोलॉजिस्ट) सेउंगमिन पार्क को एक ‘स्मार्ट लैटरीन’ के आविष्कार के लिए पुरस्कृत किया गया है। पार्क इसे स्टैनफोर्ड टॉयलेट कहते हैं और इसकी विशेषता है कि यह व्यक्ति के मल व मूत्र की जांच करके उसकी सेहत का विश्लेषण कर सकती है। जिस तरह से आप जो कुछ खाते-पीते हैं, उसकी तहकीकात कर सकते हैं, उसी तरह से आप अपने उत्सर्जित पदार्थों की भी निगरानी कर सकते हैं। पेशाब में एक डिपस्टिक परीक्षण संक्रमण, मधुमेह या अन्य रोगों का संकेत दे देगा। इस लैट्रीन में एक कंप्यूटर दृष्टि तंत्र लगा है जो पेशाब की मात्रा और उसके त्याग की रफ्तार का हिसाब रखेगा; और एक सेंसर व्यक्ति के गुदा द्वार के विशिष्ट गुणधर्मों के आधार पर उसकी पहचान करता है। यह लगभग फिंगरप्रिंट की तरह काम करता है।

साहित्य के क्षेत्र में इस वर्ष का इगनोबल पुरस्कार उन शोधकर्ताओं के मिला है जिन्होंने एक अजीबोगरीब परिघटना की तहकीकात की है। यह परिघटना सामान्य देजावु (जिसमें व्यक्ति को लगता है कि वर्तमान में वह जो देख-सुन रहा है, वह पहले भी हो चुका है) के विपरीत है – जमाइ वु। इसमें व्यक्ति को जानी-पहचानी चीज़ें भी अपरिचित लगने लगती हैं। इसके शोधकर्ता दल के अकीरा ओकोनोर ने बताया है कि इस स्थिति को प्रयोगशाला में निर्मित किया जा सकता है – व्यक्तियों को एक ही शब्द बार-बार, बार-बार, इतनी बार दोहराने को कहा जाए कि वह शब्द अनजाना सा लगने लगे।

अब कुछ मज़ेदार अनुसंधान पर गौर फरमाइए। उदाहरण के लिए चिकित्सा में जिस टीम को इगनोबल पुरस्कार मिला उसने मानव शवों की नाक में ताक-झांक करके यह देखने की कोशिश की है कि क्या दोनों नथुनों में बालों की संख्या बराबर होती है। इस टीम का नेतृत्व कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, इर्विन की त्वचा विशेषज्ञ नताशा मेसिंकोव्स्का ने किया। उन्होंने बताया है कि उक्त जानकारी शारीरिकी की पाठ्य पुस्तकों में उपलब्ध नहीं थी, इसलिए उन्हें यह काम हाथ में लेना पड़ा।

यह अध्ययन बाल गंवा रहे लोगों (एलोपेशिया से पीड़ित लोगों) के उपचार में मदद करेगा। मेसिंकोव्स्का का मत है कि एलोपेशिया से पीड़ित लोगों में प्राय: नथुने के बाल झड़ जाते हैं और वे एलर्जी और संक्रमण के प्रति दुर्बल हो जाते हैं। यह अध्ययन थोड़ा असामान्य लग सकता है लेकिन इसकी ज़रूरत का मूल यह समझने में था कि ये बाल श्वसन तंत्र की प्रथम रक्षा पंक्ति के तौर पर क्या भूमिका निभाते हैं।

एक और पुरस्कार उस अध्ययन के लिए दिया गया है जिसमें मृत मकड़ियों को पुनर्जीवित करने (ज़ॉम्बी मकड़ियों के निर्माण) का प्रयास किया गया था। मंशा यह थी कि इन मृत मकड़ियों का उपयोग चीज़ों को पकड़ने के औज़ार के रूप में किया जा सके। शोध के इस क्षेत्र को ‘नेक्रोबोटिक्स’ कहते हैं और इसमें जीवित सामग्री (या सही शब्दों में पूर्व-जीवित सामग्री) का उपयोग रोबोट बनाने में किया जाता है।

एक अन्य पुरस्कृत अध्ययन इस बाबत था कि मानव मस्तिष्क कैसे शब्दों का निर्माण करने वाली विभिन्न ध्वनियों को पहचानना सीखता है। इसे समझने के लिए टीम ने उन लोगों की मस्तिष्क गतिविधियों का अध्ययन किया जो उल्टा बोल सकते हैं – जैसे ‘कमल का फूल’ को ‘लफू का लमक’।

मज़ेदार बात यह रही कि सारे विजेताओं को 10 खरब ज़िम्बाब्वे मुद्रा का एक नकली नोट दिया गया और 6 पन्ने का एक पीडीएफ चित्र भेंट किया गया। इस तस्वीर का प्रिंटआउट लेकर फोल्ड करके ट्रॉफी बनाई जा सकती है। गौरतलब है कि यह पुरस्कार वैज्ञानिक हास्य पत्रिका एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च द्वारा प्रदान किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रसायन शास्त्र का नोबेल: दिलचस्प और उपयोगी खोज

र्ष 2023 का रसायन नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – एलेक्साई एकिमोव (पूर्व सोवियत संघ), लुई ब्रुस (यूएस) और मौंगी बावेंडी (यूएस)। इन तीनों ने मिलकर एक ऐसे प्रभाव की खोज की है जिसने इलेक्ट्रॉनिक्स व संचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। लोग इसके उपयोग से तो परिचित हैं लेकिन इसके चौंकाने वाले वैज्ञानिक धरातल से अपरिचित हैं।

इस वर्ष के रसायन नोबेल का कथानक क्वांटम यांत्रिकी से जुड़ा है। जहां एकिमोव और ब्रुस ने इस प्रभाव का अवलोकन करके इसे पहचाना, वहीं बावेंडी का प्रमुख योगदान इसे उत्पन्न करने की विधियों पर केंद्रित रहा।

यह प्रभाव साइज़ के अनुसार पदार्थों के बदलते गुणधर्मों को दर्शाता है। खास तौर से नैनो साइज़ पर यह प्रभाव बढ़-चढ़कर नज़र आने लगता है। तीनों शोधकर्ताओं ने इस बात की खोज की है कि जब हम मिलीमीटर के लाखवें-करोड़वें साइज़ के कणों के साथ काम करते हैं तो विचित्र घटनाएं होने लगती है। ऐसे कणों को क्वांटम बिंदु कहते हैं।

दरअसल, इस तरह के विचित्र प्रभाव की भविष्यवाणी काफी पहले 1930 के दशक में हरबर्ट फ्रोलिश नामक भौतिक शास्त्री कर चुके थे। फ्रोलिश ने क्वांटम यांत्रिकी की मशहूर श्रॉडिंजर समीकरण के सैद्धांतिक निहितार्थ की पड़ताल करते हुए दर्शाया था कि जब कण अत्यंत छोटे हो जाएंगे तो उनमें इलेक्ट्रॉन के लिए कम जगह रह जाएगी। परिणाम यह होगा कि इलेक्ट्रॉन (जो क्वांटम यांत्रिकी के अनुसार कण भी होते हैं और तरंगें भी) पास-पास ठस जाएंगे। फ्रोलिश का मत था कि इसका पदार्थ के गुणधर्मों पर बहुत ज़्यादा असर होगा। इसे क्वांटम प्रभाव कहते हैं जो बहुत कम साइज़ों पर नज़र आता है।

भविष्यवाणी दिलचस्प थी और वैज्ञानिक गण इसे यथार्थ में साकार करने के प्रयासों में जुट गए हालांकि बहुत कम वैज्ञानिकों को लगता था कि इस क्वांटम प्रभाव का कोई व्यावहारिक उपयोग होगा।

खैर, 1970 के दशक में शोधकर्ता इस तरह की नैनो-संरचना बनाने में कामयाब हो गए। उन्होंने एक आणविक पुंज का उपयोग करते हुए एक मोटी सतह के ऊपर एक अत्यंत महीन (नैनो मोटी) परत बना दी। और इसके ज़रिए वे यह दिखा पाए कि इस महीन परत के प्रकाशीय गुणधर्म इसकी मोटाई के अनुसार बदलते हैं – यह प्रयोग क्वांटम यांत्रिकी की भविष्यवाणी से मेल खाता था। प्रायोगिक तौर पर क्वांटम प्रभाव को दर्शाना एक बड़ी बात थी लेकिन इस व्यवस्था को बनाने के लिए लगभग परम शून्य तापमान और अत्यंत गहन निर्वात की ज़रूरत थी।

इस प्रभाव को ज़्यादा साधारण अवस्था में देखने में मदद एक अनपेक्षित दिशा से मिली। रंगीन कांच बनाने की कला ने इस क्वांटम असर के अध्ययन में बहुत मदद की। प्राचीन समय से ही कारीगर लोग विभिन्न रंगों के कांच बनाते आए थे। वे कांच बनाते समय उसमें चांदी, सोना, कैडमियम जैसे पदार्थ मिलाते थे और फिर उसे अलग-अलग तापमान पर तपाकर विभिन्न रंग पैदा कर लेते थे।

भौतिक शास्त्रियों के लिए रंगीन कांच महत्वपूर्ण साधन साबित हुए थे। इनकी मदद से वे प्रकाश में से कुछ रंगों को (यानी कुछ तरंग दैर्घ्यों को) छानकर अलग कर सकते थे। इसके चलते शोधकर्ता खुद रंगीन कांच बनाने लगे। ऐसा करते हुए उन्होंने देखा कि एक ही पदार्थ मिलाने पर कांच में कई अलग-अलग रंग पैदा किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कैडमियम सेलेनाइड और कैडमियम सल्फाइड का मिश्रण कांच में मिलाया जाए, तो वह पीला बन सकता है या लाल भी बन सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि पिघले कांच को कितना तपाया गया था और किस तरह ठंडा किया गया था। है ना आश्चर्य की बात? शोधकर्ता यह भी दर्शा पाए कि कांच में रंग उसके अंदर बनने वाले कणों से पैदा होता है और कणों की साइज़ पर निर्भर करता है।

इस वर्ष के एक नोबल विजेता, एलेक्साई एकिमोव, ने इसी बात को आगे बढ़ाया। उन्हें यह बात थोड़ी बेतुकी लगी कि एक ही पदार्थ कांच में अलग-अलग रंग पैदा कर सकता है। लेकिन खुशकिस्मती से एकिमोव प्रकाशीय अध्ययनों से वाकिफ थे। लिहाज़ा, 1970 दशक में उन्होंने इनकी मदद से रंगीन कांचों की तहकीकात शुरू कर दी। उन्होंने व्यवस्थित रूप से कॉपर क्लोराइड से रंजित कांचों का निर्माण किया और पिघले हुए कांच को 500 से 700 डिग्री सेल्सियस पर अलग-अलग अवधियों (1 से लेकर 96 घंटे) तक तपाया। एक्सरे विश्लेषण से पता चला कि निर्माण की प्रक्रिया का असर कॉपर क्लोराइड के कणों की साइज़ पर हुआ था – कुछ नमूनों में ये कण मात्र 2 नैनोमीटर के थे जबकि कुछ नमूनों में इनकी साइज़ 30 नैनोमीटर तक थी।

सबसे दिलचस्प बात यह रही कि इन कणों की साइज़ का असर कांच द्वारा सोखे गए प्रकाश पर पड़ रहा था – बड़े कण तो प्रकाश को उसी तरह सोख रहे थे जैसे कॉपर क्लोराइड सामान्यत: सोखता है लेकिन कण की साइज़ जितनी कम होती थी, वे उतना ही अधिक नीला प्रकाश सोखते थे।

भौतिक शास्त्री होने के नाते एकिमोव क्वांटम यांत्रिकी के नियमों से परिचित थे और फौरन समझ गए कि वे जिस चीज़ का अवलोकन कर रहे हैं, वह साइज़-आधारित क्वांटम प्रभाव है। यह पहली बार था कि किसी ने जानबूझकर क्वांटम बिंदु निर्मित किए थे। क्वांटम बिंदु यानी ऐसे नैनो-कण जो साइज़-आधारित प्रभाव उत्पन्न करें।

दिक्कत यह हुई कि एकिमोव ने अपनी खोज के परिणाम एक सोवियत शोध पत्रिका में प्रकाशित किए। शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ से बाहर इस शोध पत्र पर किसी का ध्यान ही नहीं गया।

सो, इस वर्ष के दूसरे नोबेल विजेता लुई ब्रुस ने 1983 में यह खोज दोबारा की। दरअसल, ब्रुस तो कोशिश कर रहे थे कि सौर ऊर्जा की मदद से रासायनिक क्रियाओं को गति दे सकें। उन्होंने कैडमियम सल्फाइड के अत्यंत छोटे कण एक घोल में बनाए। छोटे कण बनाने का मकसद था कि उनकी सतह का क्षेत्रफल अधिकतम रहे। लेकिन ऐसा करते हुए ब्रुस ने एक अजीब-सा अवलोकन किया – जब वे इन कणों को प्रयोगशाला की बेंच पर कुछ समय के लिए छोड़ देते थे, तो उनके गुणधर्म बदल जाते थे। उन्होंने अनुमान लगाया कि शायद ऐसा इसलिए हो रहा होगा क्योंकि रखे-रखे वे कण बड़े हो जाते होंगे। अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने कैडमियम सल्फाइड के लगभग 4.5 नैनोमीटर के कण बनाए और इनके प्रकाशीय गुणधर्मों की तुलना 12.5 नैनोमीटर के कणों से की। निष्कर्ष यह निकला कि बड़े कण तो उसी तरंग दैर्घ्य का प्रकाश अवशोषित करते हैं जो कैडमियम सल्फाइड सामान्य रूप से करता है लेकिन छोटे कणों के मामले में अवशोषण थोड़ा नीले रंग की ओर सरक जाता है। ब्रुस भी समझ गए कि उन्होंने साइज़-आधारित क्वांटम प्रभाव का अवलोकन किया है। 1983 में अपने परिणाम प्रकाशित करने के बाद उन्होंने कई पदार्थों के साथ प्रयोग करके पाया कि जितने छोटे कण होते हैं, अवशोषण नीली तरंग दैर्घ्यों की ओर खिसकता जाता है।

अब सवाल उठता है कि इससे क्या फर्क पड़ता है। जवाब है कि यदि एक ही पदार्थ के कणों की साइज़ बदलने से उसका प्रकाश अवशोषण बदल जाता है, तो इसका मतलब हुआ कि उसमें कुछ तो बुनियादी रूप से बदल गया है। किसी भी पदार्थ के प्रकाशीय गुण उसके इलेक्ट्रॉन पर निर्भर करते हैं और उसके रासायनिक गुण भी। यानी किसी पदार्थ के रासायनिक गुण सिर्फ इलेक्ट्रॉन कक्षकों की संख्या और सबसे बाहरी कक्षा में इलेक्ट्रॉनों की संख्या से तय नहीं होते बल्कि नैनो पैमाने पर साइज़ पर भी निर्भर करते हैं।

धीरे-धीरे स्पष्ट होता गया कि क्वांटम बिंदु के कई व्यावहारिक उपयोग हैं। ये आज क्वांटम बिंदु नैनो-टेक्नॉलॉजी का एक महत्वपूर्ण औज़ार हैं और तमाम उत्पादों में नज़र आते हैं। इनका सबसे अधिक उपयोग रंगीन प्रकाश पैदा करने में किया गया है। यदि क्वांटम बिंदुओं पर नीला प्रकाश डाला जाए तो ये उसे सोख लेते हैं और किसी अन्य रंग का प्रकाश छोड़ते हैं। उत्सर्जित प्रकाश का रंग क्वांटम बिंदु की साइज़ पर निर्भर करता है। इस तरह नीले प्रकाश को अलग-अलग रंगों में बदलकर तीन प्राथमिक रंग (नीला, लाल और हरा) बनाए जा सकते हैं। इनकी मदद से एलईडी लैम्प के प्रकाश का रंग व तीव्रता भी नियंत्रित किए जा सकते हैं।

क्वांटम बिंदुओं का उपयोग जैव-रसायन और चिकित्सा में भी किया जा सकता है। जैसे क्वांटम बिंदुओं को जैविक अणुओं से जोड़कर कोशिकाओं तथा अंगों का अध्ययन किया जा सकता है। और तो और, शरीर में ट्यूमर ऊतकों पर नज़र रखने में भी क्वांटम बिंदुओं के उपयोग पर काम शुरू हुआ है। माना जा रहा है कि भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में ये निहायत उपयोगी साबित होने जा रहे हैं।

अलबत्ता सही मनचाही साइज़ के क्वांटम बिंदु बनाना टेढ़ी खीर थी। जब तक उम्दा गुणवत्ता के क्वांटम बिंदु बनाने का कोई आसान तरीका सामने नहीं आता तब तक इनका उपयोग करना असंभव था। और यहीं तीसरे नोबेल विजेता मौंगी बावेंडी के योगदान को सम्मान दिया गया है। उन्होंने वह टेक्नॉलॉजी विकसित जिसकी मदद से नियंत्रित ढंग से क्वांटम बिंदुओं का निर्माण करना संभव हुआ। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आदित्य मिशन से लेकर इगनोबल तक – चक्रेश जैन

सरो द्वारा प्रक्षेपित सूर्य मिशन आदित्य एल-1 ने सेल्फी ली और पृथ्वी तथा चंद्रमा की तस्वीरें भेजीं। चार महीनों बाद अपने गंतव्य तक पहुंचने वाला आदित्य एल-1 मौसम की उत्त्पति के कारणों का अध्ययन करेगा। उसने सम्बंधित आंकड़े जुटाना शुरू कर दिया है। इसमें एक विशेष दूरबीन लगाई गई है, जिससे सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों की जानकारी मिल सकेगी। इससे ओज़ोन परत पर पराबैंगनी किरणों के असर के बारे में भी नई जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी।

इसरो प्रमुख द्वारा आदित्य एल-1 को यात्रा पर विदा करने के पहले पूजा-अर्चना करने पर इस बार भी कुछ टेलीविज़न चैनलों पर यह मुद्दा उठा कि विज्ञान जगत में तर्क और तथ्यों का स्थान है। अतः वैज्ञानिकों को सफलताओं के लिए मंदिरों अथवा धार्मिक स्थलों पर नहीं जाना चाहिए। पीछे मुड़कर देखें तो इसके प्रथम निदेशक विक्रम साराभाई और द्वितीय निदेशक सतीश धवन ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया था।

चंद्रयान-1 से मिले डैटा का विश्लेषण कर रहे वैज्ञानिकों ने पाया कि पृथ्वी के उच्च ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉन चंद्रमा पर पानी बना रहे हैं। चंद्रमा पर पानी की सांद्रता को जानना, इसके बनने और विकास को समझने के लिए अहम है और मानव सहित मिशन्स के लिए पानी उपलब्ध कराने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

नए विज्ञान पुरस्कार

भारत सरकार ने 14 सितंबर को पद्म पुरस्कारों की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार शुरू करने की घोषणा की। इसके साथ ही विभिन्न विज्ञान विभागों द्वारा दिए जा रहे लगभग 300 पुरस्कारों को रद्द कर दिया गया है। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों को चार श्रेणियों में रखा गया है। 1) विज्ञान रत्न पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जीवन पर्यन्त उपलब्धियों के लिए। 2) विज्ञानश्री पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए। 3) विज्ञान युवा शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए 45 वर्ष की आयु तक के युवा वैज्ञानिकों को। और 4) विज्ञान टीम पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी में एक टीम के रूप असाधारण योगदान देने वाली तीन या अधिक की टीम को।

शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार

भारत का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार की घोषणा हर साल 26 सितंबर को वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के स्थापना दिवस पर की जाती है। लेकिन इस बार कुछ दिनों पहले ही 12 वैज्ञानिकों के नामों की घोषणा कर दी गई। चिंताजनक बात यह है कि इस सूची में एक भी महिला वैज्ञानिक नहीं है। आज तक सम्मानित 600 वैज्ञानिकों  में सिर्फ 19 महिला वैज्ञानिक हैं।

संसद में अंतरिक्ष विज्ञान

संसद के विशेष सत्र में सांसदों ने अंतरिक्ष विज्ञान की ताज़ा उपलब्धियों पर वैज्ञानिकों को बधाई दी। राज्य सभा में केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने बताया कि 2020 में श्रीहरिकोटा के द्वार आम जनता के लिए खोल दिए गए। उन्होंने बताया कि 2023-24 में अंतरिक्ष विभाग का बजट बढ़ाकर बारह हज़ार करोड़ रुपए किया गया है।

निपाह वायरस

केरल में चौथी बार निपाह वायरस का संक्रमण फैला और लगभग 1500 लोग इसकी चपेट में आ गए। यह रोग जानवरों (इस मामले में चमगादड़ों) से मनुष्य में फैलता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे कोविड की तुलना में अधिक खतरनाक बताया है। इसके लक्षणों में सिरदर्द, खांसी, बुखार, सांस लेने में कठिनाई, चक्कर, मस्तिष्क में सूजन आदि शामिल हैं। अभी तक इसके लिए कोई वैक्सीन नहीं है।

नदी जोड़ो योजना जल संकट बढ़ा सकती है

मुंबई के आईआईटी, पुणे के आईआईटीएम व कई संस्थानों द्वारा किए गए एक अध्ययन (विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित) के अनुसार सूखे और बाढ़ का स्थायी हल खोजने के लिए प्रस्तावित ‘नदी जोड़ो योजना’ जल संकट बढ़ा सकती है। और तो और, इससे देश में बारिश का रुझान भी बदल सकता है।

जी-20 में विज्ञान

जी-20 अपनी स्थापना के बाद आर्थिक सहयोग के एक प्रमुख मंच के रूप में उभरा है। भारत की अध्यक्षता में साइंस-20 की बैठकें पुडुचेरी, अगरतला, बेंगलूरू और भोपाल में हो चुकी हैं जहां स्वच्छ ऊर्जा, कृत्रिम बुद्धि, क्वाटंम कम्प्यूटिंग, मशीन लर्निंग से जुड़े मुद्दों पर विचार किया गया।

जी-20 के झण्डे तले साइंस-20 एंगेजमेंट ग्रुप की स्थापना 2017 में की गई थी। इस वर्ष भारत की अध्यक्षता में हुई साइंस-20 बैठक की थीम चुनी गई थी- ‘डिसरप्टिव साइंस फॉर इनोवेटिव एंड सस्टेनेएबल डेवलपमेंट गोल्स’।

इगनोबल पुरस्कार 2023

14 सितंबर को 33वें इगनोबल पुरस्कारों की घोषणा की गई, जिसमें दस उपलब्धियों के लिए विजेताओं को सम्मानित किया गया। दरअसल यह बिलकुल भिन्न प्रकार का पुरस्कार है, जो पहले हंसाता है और बाद में विचार मंथन के लिए प्रेरित करता है।

मृत मकड़ियों को ग्रिपिंग औज़ारों के रूप में इस्तेमाल करने, चट्टानों को चाटने (सूखी सतह के बजाय गीली सतह पर खनिज बेहतर दिखते हैं, इसलिए खनिज पहचान करने में मदद मिलती है),‘स्मार्ट’ शौचालय का निर्माण (जो व्यक्तियों के मल-मूत्र की निगरानी और विश्लेषण कर उनके स्वास्थ्य के बारे में बताता है), नासिका में बालों की संख्या गिनने (एलोपेशिया से ग्रसित लोगों के लिए उपचार तलाशना), साहित्य में ‘देजा वु’ के विपरीत ‘जमाइ वु’ ( जिसमें कोई परिचित चीज़ (या शब्द) बार-बार दोहराने से अपरिचित लगने लगते हैं) पर शोध के लिए दिए गए।


रैफ्लेसिया पुष्प खतरे में

प्लांट्स पीपुल प्लेनेट जर्नल में प्रकाशित ताज़ा जानकारी के अनुसार दुनिया के सबसे बड़े पुष्प रैफ्लेसिया का अस्तित्व खतरे में है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसकी 42 प्रजातियां ज्ञात हैं, जिनमें से साठ प्रतिशत पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। रैफ्लेसिया पुष्प का वजन 6.8 किलोग्राम तक होता है और यह तीन फुट तक का हो सकता है।


नोबेल पुरस्कार राशि में वृद्धि

नोबेल पुरस्कार फाउंडेशन ने पुरस्कार राशि बढ़ाने का फैसला किया है। पुरस्कार राशि एक करोड़ क्रोनर (9,00,000 अमेरिकी डॉलर) से बढ़ाकर 1 करोड़ 10 लाख क्रोनर (9,86,270 अमेरिकी डॉलर) कर दी गई है।

दसवां भोपाल विज्ञान मेला

इस महीने भोपाल में दसवां भोपाल विज्ञान मेला आयोजित किया गया, लेकिन बारिश ने मज़ा फीका कर दिया। मेले में नवाचारी विद्यार्थियों ने अपने नवाचारी मॉडल प्रदर्शित किए। आम लोगों तक विज्ञान की बातें पहुंचाने के लिए विज्ञान मेलों की ज़रूरत है लेकिन देखा गया है कि ऐसे आयोजनों में वैज्ञानिक सोच का मुद्दा हाशिए पर ही चला जाता है।


.प्र. का प्रथम बायोटेक पार्क

मध्यप्रदेश का प्रथम बायोटेक पार्क नीमच ज़िले की जावद तहसील में 39 हैक्टर भूमि पर 50 करोड़ की लागत से स्थापित किया जाएगा। यह देश का दसवां और मध्यप्रदेश का प्रथम बायोटेक पार्क है। (स्रोत फीचर्स)

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इलेक्ट्रॉन अवलोकन का साधन: भौतिकी नोबेल पुरस्कार

र्ष 2023 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार उन प्रायोगिक विधियों के लिए दिया गया है जिनकी मदद से प्रकाश की अत्यंत अल्प अवधि (एटोसेकंड) चमक पैदा करके पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की गतियों का अध्ययन किया जा सकता है। पुरस्कार ओहायो विश्वविद्यालय के पियरे एगोस्टिनी, मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ क्वांटम ऑप्टिक्स के फेरेंक क्राउज़, तथा लुंड विश्वविद्यालय के एन एलहुइलियर को संयुक्त रूप से दिया गया है।

इन तीन भौतिक शास्त्रियों ने वैज्ञानिकों को ऐसे औज़ार उपलब्ध कराए हैं जिनकी मदद से परमाणुओं और अणुओं के अंदर इलेक्ट्रॉन्स का बेहतर अध्ययन संभव हो जाएगा। दरअसल, अणु-परमाणु में इलेक्ट्रॉन्स की गतियां बहुत तेज़ रफ्तार से होती हैं और उनकी गति या ऊर्जा में परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए वैसे ही त्वरित अवलोकन साधन की ज़रूरत होती है। आम तौर पर इतनी तेज़ रफ्तार घटनाएं एक-दूसरे पर इस कदर व्याप्त हो जाती हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई फिल्म देखते हैं तो उनकी अलग-अलग तस्वीरें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि हमें एक निरंतर चलती तस्वीर का आभास होता है। इलेक्ट्रॉन के स्तर पर तो सब कुछ इतनी तेज़ी से होता है कि प्रत्येक परिघटना 1 एटोसेकंड के दसवें भाग में सम्पन्न हो जाती है। कहते हैं कि एक एटोसेकंड इतना छोटा होता है कि एक सेकंड में उतने ही एटोसेकंड होते हैं जितने सेकंड ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर अब तक बीते हैं।

इस वर्ष के नोबेल विजेता प्रकाश का ऐसा पल्स पैदा करने में सफल रहे हैं जो एक एटोसेकंड को नाप सकता है। इसकी मदद से हम अणु-परमाणु के अंदर चल रही प्रक्रियाओं की तस्वीरें प्राप्त कर सकते हैं।

बहरहाल उनके इस काम को वैज्ञानिक स्तर पर समझना काफी मुश्किल होगा और हमें इन्तज़ार करना होगा कि कोई भौतिक शास्त्री उसे हमारे स्तर पर समझाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भूमिगत हाइड्रोजन भंडारों की खोज

मेरिका की एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी-एनर्जी (एआरपीए-ई) भूमिगत स्वच्छ हाइड्रोजन का पता लगाने के लिए 2 करोड़ डॉलर का निवेश कर रही है। यह निवेश स्वच्छ उर्जा उत्पादन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। एआरपीए-ई उन्नत ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान एवं विकास को वित्तीय सहायता प्रदान करने वाला एक सरकारी संस्थान है।

ऐसा माना जा रहा है कि हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन का एक विकल्प हो सकती है। लेकिन कम ऊर्जा घनत्व, उत्पादन के पर्यावरण प्रतिकूल तौर-तरीकों और बड़ी मात्रा में जगह घेरने के कारण हाइड्रोजन के उपयोग की कई चुनौतियां भी हैं। वर्तमान में हाइड्रोजन का उत्पादन औद्योगिक स्तर पर भाप और मीथेन की क्रिया से किया जाता है जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जो एक ग्रीनहाउस गैस है। इससे निपटने के लिए दुनिया भर में ब्लू हाइड्रोजन (जिसमें उत्पादन के दौरान उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड को कैद कर लिया जाता है) और ग्रीन हाइड्रोजन (पानी के विघटन) जैसे तरीकों से स्वच्छ हाइड्रोजन उत्पादन के प्रयास चल रहे हैं।

हाइड्रोजन उत्पादन की इस दौड़ में अब ‘भूमिगत’ या ‘प्राकृतिक’ हाइड्रोजन को खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल साबित हो सकता है। हाल ही में पश्चिमी अफ्रीका स्थित माली के नीचे विशाल हाइड्रोजन क्षेत्र की खोज और पुराने बोरहोल में शुद्ध हाइड्रोजन की रहस्यमयी उपस्थिति ने इस क्षेत्र में पुन: रुचि उत्पन्न की है। फिलहाल हाइड्रोजन खोजी लोग महाद्वीपों के प्राचीन, क्रिस्टलीय कोर का अध्ययन कर रहे हैं। इन स्थानों पर लौह-समृद्ध चट्टानों में खोज चल रही है जो सर्पेन्टिनाइज़ेशन नामक प्रक्रिया से हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ावा दे सकते हैं।

गौरतलब है कि एआरपीए-ई कार्यक्रम मौजूदा भंडारों का पता लगाने पर नहीं बल्कि कृत्रिम ढंग से सर्पेन्टिनाइज़शन के माध्यम से हाइड्रोजन उत्पादन में तेज़ी लाने के तरीके खोजने पर केंद्रित है।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि हाइड्रोजन उत्पादन दक्षता बढ़ाने के उद्देश्य से एआरपीए-ई फंडिंग का अधिकांश हिस्सा मॉडलिंग और प्रयोगशाला-आधारित अनुसंधान के लिए होगा। इसके अतिरिक्त, इन अभिक्रियाओं को समझने तथा भूपर्पटी में पदार्थों को इंजेक्ट करने से जुड़े जोखिमों का आकलन करने के लिए भी फंड निधारित किया गया है।

पिछले कुछ समय से प्राकृतिक हाइड्रोजन की खोज ने कई स्टार्टअप कंपनियों को जन्म दिया है। ये कंपनियां कम ताप और दाब पर हाइड्रोजन उत्पादन के तरीकों की खोज कर रही हैं जिनकी मदद से ओमान जैसे स्थानों में सतह के पास पाए जाने वाले लौह-समृद्ध भंडार से हाइड्रोजन उत्पन्न की जा सकेगी।

इस क्षेत्र में अपार संभावनाओं को देखते हुए कई प्रमुख तेल कंपनियां भी इस क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं। निवेश के उत्साह को देखते हुए पृथ्वी में छिपे हुए हाइड्रोजन भंडार की खोज में तेज़ी आएगी और हम भविष्य में एक स्वच्छ और लंबे समय तक प्राप्य ऊर्जा स्रोत की उम्मीद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानव भ्रूण का एक अनजाना अंग

क्षियों, सरिसृपों जैसे अंडा देने वाले जंतुओं में भ्रूण का विकास शरीर के बाहर होता है जबकि मनुष्यों व स्तनधारियों में भ्रूण का लगभग पूरा विकास मादा शरीर के अंदर गर्भाशय में होता है। अंडा देने वाले जंतुओं में भ्रूण के विकास हेतु पोषण अंडे में ही संग्रहित रहता है और यह धीरे-धीरे चुकता जाता है। इन जंतुओं में यह पोषण योक थैली नामक एक अंग में भरा रहता है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि मनुष्यों के भ्रूण में भी योक थैली पाई जाती है, हालांकि इसकी भूमिका अस्पष्ट ही रही है। पहली बात तो यह है कि इस थैली में योक नहीं पाया जाता और दूसरी बात कि गर्भ की दूसरी तिमाही में यह सिकुड़ने लगती है। दरअसल मनुष्य व अन्य स्तनधारियों में विकसित होते भ्रूण को पोषण प्रदान करने का प्रमुख ज़रिया आंवल होती है। तो यह थैली करती क्या है?

साइन्स में प्रकाशित एक अध्ययन में खुलासा किया गया है कि मनुष्यों में योक थैली एक नहीं बल्कि तीन-तीन अंगों का काम करती है। लीवर और गुर्दों का विकास काफी देर से होता है और तब तक योक थैली इन अंगों का काम निपटाती रहती है। अब तक इन बातों का खुलासा न होने का प्रमुख कारण यह रहा है कि वैज्ञानिक जिन भ्रूण का अध्ययन करते हैं, वे उन्हें गर्भपात के बाद मिलते हैं और उनमें योक थैली नहीं होती।

यह तो पता रहा है कि चूहों में योक थैली भ्रूण की प्रारंभिक रक्त कोशिकाएं बनाती है। इसके अलावा यह गर्भाशय द्वारा निर्मित पोषक अणुओं को भ्रूण तक पहुंचाने का काम भी करती है। और तो और, वयस्क चूहों के कुछ ऊतकों में मैक्रोफेज नाम प्रतिरक्षा कोशिकाएं, दरअसल, योक थैली की कोशिकाओं की ही वंशज होती हैं। अर्थात यह कोई अवशिष्ट अंग नहीं है। अब वेलकम सैंगर रिसर्च इंस्टीट्यूट की सारा टाइकमैन, मुज़लिफा हनीफा और उनके साथियों ने मनुष्यों में योक थैली की भूमिका पर प्रकाश डाला है।

अपने अध्ययन के लिए उन्होंने योक थैली ऊतक के नमूने यू.के. स्थित एक बायोबैंक से प्राप्त किए थे। ये नमूने 4-8 सप्ताह के भ्रूणों से प्राप्त हुए थे। शोधकर्ताओं ने इन ऊतकों में जीन्स की गतिविधि की तस्वीर बनाई ताकि यह पता चल सके कि कौन-कौन सी कोशिकाएं उपस्थित हैं और वे क्या कर रही हैं।

इस डैटा से पुष्टि हो गई कि मानव योक थैली भी भ्रूण की प्रारंभिक रक्त कोशिकाएं बनाती है। गर्भधारण के महज 4 सप्ताह बाद इस थैली में रक्त बनाने वाली स्टेम कोशिकाएं, मैक्रोफेज और परिसंचरण तंत्र से सम्बंधित अन्य कोशिकाएं पाई गईं। भ्रूण के परिवर्धन के साथ योक थैली यह काम विकसित हो रहे लीवर को सौंप देती हैं और आगे चलकर लीवर यह भूमिका अस्थि मज्जा के हवाले कर देता है।

यानी अध्ययन बताता है कि मानव योक थैली एकाधिक भूमिका निभाती है। इसमें ऐसे प्रोटीन्स भी मिले जो हानिकारक विषैले पदार्थों को नष्ट करते हैं, और यह रक्त का थक्का जमने के लिए ज़रूरी प्रोटीन्स भी बनाती है। मानव योक थैली में कई ऐसे एंज़ाइम्स भी मिले हैं जो वसा व शर्करा के पाचन में काम आते हैं। इसका अर्थ है कि योक थैली पोषण में कुछ भूमिका तो निभाती है हालांकि उसमें कोई पोषक पदार्थ नहीं होते।

टाइकमैन और हनीफा के दल को एक महत्वपूर्ण बात यह पता चली है कि योक थैली मैक्रोफेज के निर्माण हेतु एक शॉर्टकट अपनाती है। आम तौर पर इन कोशिकाओं को एक मध्यवर्ती अवस्था से गुज़रना होता है लेकिन योक थैली में इस अवस्था को बायपास कर दिया जाता है। इसका मतलब है कि प्रयोगशाला में इस विधि का इस्तेमाल करके अधिक तेज़ी से मैक्रोफेज बनाए जा सकते हैं।

कुल मिलाकर मानव भ्रूण के शुरुआती विकास के दौरान योक थैली एक अस्थायी रचना होती है जो कई अहम भूमिकाएं निभाकर लुप्त हो जाती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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Y गुणसूत्र ने बहुत छकाया, अब हाथ में आया

भी ऐसा माना जाता था कि Y गुणसूत्र का पूरा अनुक्रमण करना (यानी उसमें क्षारों का क्रम पता लगाना) मुश्किल ही नहीं, नाममुकिन है। कारण यह है कि इस गुणसूत्र के डीएनए में क्षारों की ऐसी लड़ियां भरी पड़ी हैं जो बार-बार दोहराई जाती हैं और पलटकर लगी होती हैं। ऐसा होने पर डीएनए के टुकड़ों में क्षार का क्रम पता होने पर भी उन्हें जोड़कर पूरा गुणसूत्र बनाना असंभव हो जाता है। लेकिन अब नेचर में प्रकाशित दो शोध पत्रों में इस समस्या को सुलझा लिया गया है। इन दोनों टीमों ने दुनिया भर के दर्जनों पुरुषों के Y गुणसूत्र का खुलासा कर दिया है।

एक शोध पत्र में यह बताया गया है कि दोहराए जाने वाले क्षेत्र किस तरह जमे होते हैं। इस शोध पत्र में कई नए जीन्स की भी पहचान की गई है। दूसरे शोध पत्र में बताया गया है कि उक्त जमावट तथा जीन्स की संख्या को लेकर व्यक्ति-व्यक्ति में भारी अंतर होते हैं।

वैज्ञानिक मानते आए हैं कि X और Y गुणसूत्र किसी समय एक समान थे। फिर समय के साथ Y गुणसूत्र का वह हिस्सा सिकुड़ गया जिसमें जीन्स पाए जाते हैं। यह सिकुड़कर X गुणसूत्र के जीन्स वाले हिस्से का छठा हिस्सा रह गया। आज Y गुणसूत्र में X के मुकाबले मात्र आधे जीन्स ही हैं। कई शोधकर्ताओं का तो मत है कि यह क्षय जारी रहेगा और हो सकता है कि अंतत: Y गुणसूत्र पूरी तरह नदारद हो जाए। कुछ जंतु वंशों में ऐसा हुआ भी है।

छोटे आकार के बावजूद Y गुणसूत्र का अनुक्रमण टेढ़ी खीर रहा है। यहां तक कि मानव जीनोम अनुक्रमण के शुरुआती प्रयासों में तो Y गुणसूत्र के अनुक्रमण की कोशिश भी नहीं की गई थी। कुछ हद तक इसका कारण यह भी था कि Y गुणसूत्र को जीन्स का कब्रिस्तान माना जाता है जहां के सारे जीन्स अंतत: गुम हो जाएंगे। इसके अलावा दोहराने वाले हिस्सों के चलते इसे शरारती गुणसूत्र भी माना जाता है।

अंतत: एक समूह ने Y गुणसूत्र के एक खंड का अनुक्रमण किया और पाया कि यह गुणसूत्र काफी गतिमान है, इसमें जीन्स इधर-उधर फुदकते रहते हैं और एक ही क्षार अनुक्रम के कई दर्पण प्रतिबिंब उपस्थित होते हैं। ऐसा करके यह गुणसूत्र अपने चंद बचे-खुचे जीन्स को अच्छी हालत में रखता है। मार्च में नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट और टीलोमेयर-टू-टीलोमेयर समूह ने पूरे मानव जीनोम का क्षार अनुक्रम प्रकाशित किया था (सिवाय Y गुणसूत्र के)। अब इसी समूह ने Y गुणसूत्र के 6.2 करोड़ क्षारों का पेचीदा क्रम प्रकाशित कर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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कोशिकाओं को बिजली से ऊर्जा देना

पारंपरिक बिजली संयंत्र जीवाश्म ईंधन से विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीवाश्म ईंधन में यह ऊर्जा करोड़ों साल पहले प्रकाश ऊर्जा को जैविक ऊर्जा में तबदील करके भंडारित हुई थी। लेकिन एक हालिया शोध में रसायनज्ञों ने बिजली को जैविक ऊर्जा में परिवर्तित किया है।

एक सरल रासायनिक प्रक्रिया से शोधकर्ताओं ने विद्युत ऊर्जा को एडिनोसीन ट्राइफॉस्फेट (एटीपी) में परिवर्तित किया है। एटीपी कोशिकाओं को ऊर्जा देने वाला रासायनिक ईंधन है। इस प्रक्रिया से नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके जैव कारखानों को ऊर्जा मिल सकेगी और दवाओं से लेकर प्रोटीन पूरक वगैरह बनाए जा सकेंगे।

गौरतलब है कि पौधों की कोशिकाओं के भीतर छोटी-छोटी क्लोरोप्लास्ट नामक रचनाएं प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए एटीपी बनाती हैं। एटीपी आवश्यक चयापचय क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। जब एटीपी अणु का उपयोग होता है तब यह एक फॉस्फेट को त्याग कर एडिनोसीन डायफॉस्फेट (एडीपी) बन जाता है। यह एडीपी ऊर्जा मिलने पर फिर से एटीपी में परिवर्तित हो जाता है। पौधों का उपभोग करने वाले जीव ग्लूकोज़ को ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं और उस ऊर्जा का उपयोग एटीपी-एडीपी-एटीपी चक्र चलाने के लिए करते हैं।

संशोधित सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके औद्योगिक स्तर पर विभिन्न उत्पाद तैयार किए जाते हैं। इसमें पौधे उगाकर शर्करा या अन्य खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं और खमीर (यीस्ट), बैक्टीरिया या अन्य औद्योगिक सूक्ष्मजीवों को खिलाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव इस भोजन से एटीपी उत्पन्न करते हैं, जो वांछित जैव रासायनिक क्रियाओं को ऊर्जा प्रदान करता है।

समस्या यह है कि पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का केवल 1 प्रतिशत ही उपयोगी यौगिकों में परिवर्तित कर पाते हैं, इसलिए इस प्रक्रिया की दक्षता काफी कम रहती है। इसके विपरीत सौर-सेल 20 प्रतिशत से अधिक सौर ऊर्जा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं।

इसका फायदा उठाते हुए मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर टेरेस्ट्रियल माइक्रोबायोलॉजी के टोबियास एर्ब ने बिजली को सीधे एटीपी में परिवर्तित करने पर विचार किया।

वैसे वर्ष 2016 में किए गए एक पूर्व प्रयास में एक इलेक्ट्रोड के पास एटीपी सिंथेज़ नामक एंजाइम की प्रतिलिपियां एक झिल्ली में जमाई गई थीं। प्रयोगशाला में तो यह कारगर रहा लेकिन व्यवहारिक रूप से उपयोगी साबित नहीं हुआ।

अब एर्ब की टीम ने एक सरल प्रक्रिया सुझाई है जिसे “एएए चक्र” का नाम दिया गया है। इस चक्र में चार एंजाइमों का उपयोग करके विद्युत ऊर्जा की मदद से एडीपी को एटीपी में परिवर्तित किया जाता है। इसमें एक टंगस्टन युक्त एल्डिहाइड फेरेडॉक्सिन ऑक्सीडोरिडक्टेस (एओआर) नामक एंजाइम की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह एंज़ाइम कुछ वर्ष पूर्व एक बैक्टीरिया से प्राप्त किया गया था।

एओआर एडीपी को सीधे एटीपी में परिवर्तित नहीं करता बल्कि एक ऊर्जा कनवर्टर के रूप में काम करता है। एओआर इलेक्ट्रोड से इलेक्ट्रॉन युग्म प्राप्त करके उनका उपयोग एक यौगिक को ऊर्जा प्रदान करने के लिए करता है। अन्य एंज़ाइम इस यौगिक क्रमश: इस तरह परिवर्तित करते हैं कि अंत में शुरुआती यौगिक वापिस बन जाता है और चक्र चलता रहता है। इस दौरान मुक्त ऊर्जा का उपयोग एडीपी में एक फॉस्फेट समूह जोड़कर एटीपी उत्पादन में हो जाता है।

विशेषज्ञ इस प्रक्रिया की सराहना करते हुए एओआर की सीमित स्थिरता को देखते हुए इस चक्र में सुधार करने पर भी ज़ोर दे रहे हैं। एर्ब की टीम सुधार के प्रयासों में जुट गई है। यदि सफलता मिली तो उत्पादन प्रक्रियाओं में एक बड़े परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है और जैव-इंजीनियरों को विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए ऊर्जा प्रदान करने का एक तरीका मिल जाएगा।(स्रोत फीचर्स)

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अंतरिक्ष में बड़ी उपलब्धि, पृथ्वी का बुरा हाल – चक्रेश जैन

गस्त का महीना विज्ञान जगत में अनेक अहम घटनाओं का गवाह रहा। चंद्रयान-3 के चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर सफलतापूर्वक पहुंचने की व्यापक चर्चा मीडिया में छाई रही। इस सफलता ने हमारे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ाया। इस अहम उपलब्धि पर यह सुझाव सामने आया कि इस उत्साह का उपयोग वैज्ञानिक सोच बढ़ाने में होना चाहिए।

इसरो के अनुसार चंदा मामा की गोद में खेल रहे रोवर ‘प्रज्ञान’ ने दस दिनों तक चहलकदमी की और मिशन के लिए निर्धारित  सभी काम सम्पन्न कर लिए।

सरकार ने चंद्रयान-3 मिशन की सफलता पर हर साल 23 अगस्त ‘राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस’ मनाने की घोषणा की। वैसे हमेशा की तरह सवाल यह है कि एक दिन अंतरिक्ष विज्ञान दिवस मनाने से क्या हासिल होगा? दूसरा सवाल यह है कि हमारे यहां पहले से हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस और 11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस मनाया जाता है, तो अलग से एक और दिवस मनाने की क्या ज़रूरत है?

चंद्रयान-2 की विफलता पर आलोचकों और टिप्पणीकारों ने कहा था कि भारत को अंतरिक्ष विज्ञान पर पैसा बर्बाद नहीं करना चाहिए, और गरीबी, अशिक्षा और भुखमरी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस बार भी टिप्पणीकारों ने कहा कि हमारे वैज्ञानिक चंद्रमा के अगम्य छोर तक पहुंच सकते हैं तो हमारे यहां के पहाड़ी शहरों को तो यकीनन बचा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि चंद्रयान-3 की कामयाबी के ठीक दूसरे दिन ही हिमाचल के कुल्लु जि़ले में भूस्खलन से कई इमारतें ध्वस्त हो गई थीं।

राजनीति के गलियारों में विज्ञान की इस बड़ी कामयाबी के श्रेय को लेकर नया विवाद शुरू हो गया। सवाल उठा कि आखिर यह श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? विभिन्न राजनैतिक दलों ने पूर्व में रही सरकारों और उनके नेतृत्व को श्रेय देते हुए यह साबित करने का भरपूर प्रयास किया कि चंद्रमा पर पहुंचने का श्रेय और सराहना उन्हें मिलना चाहिए। सच तो यह है कि आज़ादी के बाद सत्तारूढ़ रही सभी सरकारों ने अंतरिक्ष विज्ञान को उच्च प्राथमिकता दी है और यह कामयाबी सम्मिलित प्रयासों का नतीजा है।

प्रधानमंत्री ने कहा है कि चंद्रयान-3 का विक्रम लैंडर जिस जगह पर उतरा है, उसका नाम ‘शिवशक्ति पॉइंट’ रखा जाएगा। इस घोषणा को लेकर भी राजनैतिक घमासान छिड़ गया।

रूस ने सोवियत संघ से अलग होने के बाद पहली बार 11 अगस्त को चंद्रयान लूना-25 सफलतापूर्वक भेजा जो चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पहुंचने के पहले ही हादसे का शिकार हो गया। दरअसल उसने दस दिनों के भीतर चंद्रमा पर पहुंचने का सपना देखा था।

विज्ञान को अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखना समय की मांग है। दुनिया के कुछ देश पहले ही अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो चुके हैं। चंद्रयान-3 की कामयाबी से शेयर बाज़ार में उत्साह का नज़ारा दिखा। अंतरिक्ष, वैमानिकी और रक्षा क्षेत्र से सम्बंधित कंपनियों के शेयरों में निवेशकों का अत्यधिक उत्साह दिखाई दिया।

ड्रीम 2047 बंद

इसी महीने लोकप्रिय विज्ञान की मासिक पत्रिका ‘ड्रीम 2047’ का प्रकाशन बंद हो गया। आज़ादी के अमृतकाल के आरंभिक दौर में ही एक पत्रिका के अवसान ने नए सवालों को उठाया है। इसका प्रकाशन अक्टूबर 1998 में शुरू हुआ था। इस साल यह पत्रिका 25 वर्षों का सफर पूरा करते हुए अपनी रजत जयंती मनाने की दहलीज़ पर थी। यह सरकारी पत्रिका थी, जिसकी प्रसार संख्या चालीस हज़ार का आंकड़ा पार कर गई थी। यह पत्रिका लगातार और नियमित रूप से दो भाषाओं में प्रकाशित की जाती थी। इसमें नवीनतम विषयों और वैचारिक मुद्दों पर विशेषज्ञों के आलेख प्रकाशित हो रहे थे।

राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान

संसद ने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान विधेयक पारित कर दिया। इस विधेयक में गणित, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी,  पर्यावरण सहित भू-विज्ञान के क्षेत्र में शोध, नवाचार और उद्यमिता के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान (एनआरएफ) की स्थापना का प्रावधान किया गया है। इसके अंतर्गत आगामी पांच वर्षों में शोधकार्यों के लिए पचास हज़ार करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। अंग्रेज़ी में प्रकाशित लोकप्रिय विज्ञान की एक राष्ट्रीय पत्रिका ने अपने सम्पादकीय में कहा है कि इससे देश में वैज्ञानिक उत्कृष्टता का सशक्तिकरण हो सकेगा। वैज्ञानिकों के बीच इस विधेयक को लेकर अलग-अलग विचार हैं।

जैव विविधता विधेयक

संसद ने जैव विविधता (संशोधन) विधेयक भी पारित कर दिया। यह विधेयक 2002 के जैविक विविधता अधिनियम को संशोधित करता है। इस विधेयक में किए गए महत्वपूर्ण परिवर्तन औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देते हैं और पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति का समर्थन करते हैं।

परिंदों के हाल

हाल ही में ‘स्टेट ऑॅफ इंडियाज़ बर्ड्स’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में बताया गया है कि मांसाहारी पक्षियों की संख्या शाकाहारी पक्षियों की तुलना में तेज़ रफ्तार से कम हो रही है। इसी प्रकार प्रवासी पक्षियों का जीवन गैर-प्रवासी पक्षियों की तुलना में ज़्यादा खतरे में हैं। यह रिपोर्ट बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और ज़ुऑलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया सहित 13 संस्थानों के एक समूह ने प्रकाशित की है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में तीन दशकों के दौरान जिन 338 पक्षी प्रजातियों की संख्या में परिवर्तन पर अध्ययन किया गया, उनमें साठ प्रतिशत की कमी देखी गई। दरअसल इस रिपोर्ट में पर्यावरण को गहराई से समझने पर विशेष ज़ोर दिया गया है।

विविध घटनाक्रम

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और उपलब्धियों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि पत्र-पत्रिकाओं में पहले से जारी अनुसंधान के नवीनतम परिणाम प्रकाशित हुए हैं। नेचर पत्रिका में छपी ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि अध्ययनकर्ताओं ने तथाकथित अतिचालक एलके-99 की पहेली सुलझा ली है और यह साबित कर दिया है कि यह अतिचालक नहीं है, बल्कि यह कॉपर, लेड, फॉस्फोरस तथा ऑक्सीजन का यौगिक है, जो एक विशिष्ट तापमान पर अतिचालकता का गुण प्रदर्शित करता है।

इसी पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भौतिक शास्त्रियों ने एक अनूठे समस्थानिक ऑक्सीजन-28 का पता लगाया है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि यह ऑक्सीजन का एक समस्थानिक है, जिसमें 20 न्यूट्रॉन और आठ प्रोटोन हैं। इस रिसर्च ने परमाणु नाभिक की संरचना के सिद्धांतों पर मंथन की ज़रूरत पैदा कर दी है, क्योंकि सैद्धांतिक दृष्टि से तो वैज्ञानिकों का मत था कि ऑक्सीजन का यह समस्थानिक टिकाऊ होना चाहिए लेकिन वास्तव में यह क्षणभंगुर निकला।

विज्ञान जगत की ही एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने नवीनतम अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में भ्रूण को नए सिरे से परिभाषित करने का विचार पेश किया है।

युरोप की महत्वाकांक्षी मानव मस्तिष्क परियोजना (एचबीपी) के दस साल पूरे हो रहे हैं। आरंभ में इस परियोजना की जमकर आलोचना हुई थी। इस परियोजना का कंप्यूटर में मानव मस्तिष्क सृजित करने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान है।

नेचर पत्रिका में छपी रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार एक प्रयोग में बूढ़े चूहों को पीएफ-4 प्रोटीन का डोज़ देने से उनका मस्तिष्क 30-40 साल के युवाओं के समान सोचने-समझने की क्षमता प्रदर्शित करने लगा। दरअसल, पीएफ-4 प्रोटीन कोशिकाएं प्लेटलेट्स से बनती हैं। वैज्ञानिकों का विचार है कि आगे चलकर यह अध्ययन बूढ़े व्यक्तियों के दिमाग की कोशिकाओं को सक्रिय बनाने में अहम भूमिका निभा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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