ऊर्जा क्षेत्र में अपरिहार्य परिवर्तन – अश्विन गंभीर, श्रीहरि दुक्कीपति, अश्विनी चिटनिस

अक्षय उर्जा में वृद्धि का असर डिस्कॉम्स की वित्तीय हालत पर होगा। यदि ठीक तरह से प्रबंधन न किया गया, तो छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को कष्ट उठाना पड़ सकता है। लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से जुड़े हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों पर तीन लेखों में से अंतिम है

बीसवीं शताब्दी में नियोजन का प्रमुख मकसद था भविष्य में बिजली की मांग का अनुमान लगाना, अधिक से अधिक पारंपरिक बिजली उत्पादन क्षमता स्थापित करना और इसे ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से लोड केंद्रों से जोड़ना।

उपभोक्ताओं को बिजली की आपूर्ति किसी एकाधिकार प्राप्त संस्था द्वारा की जाती थी जिसमें आपूर्ति शृंखला के सभी स्तरों का एक ही मालिक होता था। मूल्य निर्धारण क्रॉस सब्सिडी के सिद्धांत पर आधारित होता था, जिसमें बड़े औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ता ऊंचे शुल्क का भुगतान करते थे ताकि कृषि और घरों के लिए सस्ता शुल्क सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन इसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है, मुख्यत: राष्ट्रीय नीतिगत पहल और वैश्विक तकनीकी-आर्थिक परिवर्तनों के कारण।

एक तरफ अक्षय उर्जा सस्ती हो रही है तथा बैटरी भंडारण की लागत भी कम हो रही हैं तथा दूसरी ओर कोयला आधारित बिजली की लागत बढ़ रही है। इनका मिला-जुला परिणाम होगा कि बिजली आपूर्ति में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ेगी। लंबे समय में, इससे परिवहन, खाना पकाने और उद्योगों जैसे कई अन्य क्षेत्रों में विद्युतीकरण बढ़ने की संभावना है। इससे स्थानीय वायु प्रदूषण, ऊर्जा सुरक्षा और बढ़ते ऊर्जा आयात बिल जैसी समस्याओं को आंशिक रूप से संबोधित किया जा सकता है। ये रुझान ऊर्जा क्षेत्र में आमूल बदलाव ला सकते हैं।

सबके लिए बिजली की सस्ती और भरोसेमंद पहुंच के साथ–साथ खाना पकाने के आधुनिक और स्वच्छ र्इंधन के के प्रति सभी दलों ने व्यापक प्रतिबद्धता दिखाई है जो स्वागत योग्य है। अलबत्ता, इसे टिकाऊ वास्तविकता में बदलने के लिए बहुत काम करना होगा।

वर्तमान में, सरकार के भीतर ज़रूरतों के आकलन और प्राथमिकताएं तय करने, तथा परिवर्तन और जोखिमों का अंदाज़ा लगाकर उनके लिए तैयारी करने को लेकर एक सीमित गंभीरता है। इसके चलते संसाधनों के फंस जाने और पुराने रास्ते पर निर्भरता की समस्या हो सकती है क्योंकि निवेश लंबे समय के लिए होते हैं और पूंजी पर निर्भर होते हैं।

इस तरह की दिक्कत से बचने के लिए दो कदम महत्वपूर्ण हैं। सबसे पहले, महत्वपूर्ण डैटा की सार्वजनिक उपलब्धता की खामियों और विसंगतियों को संबोधित किया जाना चाहिए। दूसरा, सरकार के भीतर विश्लेषणात्मक क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए।

ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय

नीति और निर्णय में सरकार की मदद करने के लिए, एक विश्लेषणात्मक एजेंसी की स्थापना करने की आवश्यकता है जिसे डैटा एकत्र करने और तालमेल बैठाने, रुझानों का विश्लेषण करने, रिपोर्ट प्रकाशित करने और नीतिगत हस्तक्षेपों का सुझाव देने का अधिकार हो। यह एजेंसी मौजूदा तकनीकी एजेंसियों जैसे केंद्रीय विद्युत अभिकरण (सीईए), पेट्रोलियम नियोजन व विश्लेषण प्रकोष्ठ (पीपीएसी) और सीसीओ से अधिक से अधिक लाभ उठाएगी।

इस एजेंसी को ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय (ईएओ) कह सकते हैं। इसमें कई मंत्रालयों को शामिल किया जाना चाहिए। ऐसे कार्यालय के प्रभावी होने के लिए दो प्रमुख शर्तें हैं: नीतिगत प्रासंगिकता और राजनीतिक प्रभाव से स्वतंत्रता।

यह संतुलन बनाने के लिए ईएओ को कार्यपालिका के प्रशासनिक नियंत्रण में रखा जा सकता है किंतु इसके बजट की स्वीकृति तथा कार्य की समीक्षा संसद द्वारा की जाए। ईएओ को ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों के प्रति दीर्घकालिक दृष्टिकोण रखना चाहिए और कार्यपालिका को नीति सम्बंधी इनपुट प्रदान करना चाहिए। जन भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

छोटे पर ध्यान

ऊर्जा के क्षेत्र में, अक्षय ऊर्जा और उसके भंडारण में विकास के चलते बड़े उपभोक्ताओं के लिए वैकल्पिक व सस्ते स्रोत खोजने के कई अवसर पैदा हो रहे हैं। लेकिन, यही उपभोक्ता ऊंचा भुगतान करते हैं। येहाथ से निकल जाने पर राजस्व की जो हानि होगी, वह बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के वर्तमान व्यापार मॉडल के अंत का संकेत है।

डिस्कॉम के भविष्य को लेकर दो गंभीर निहितार्थ हैं। आपूर्ति की लागत में से 70 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा तो बिजली खरीद का होता है। जब मांग अनिश्चित हो जाएगी तो बिजली की खरीद अधिक जटिल और जोखिम भरा काम हो जाएगा। इसके साथ ही, क्रॉस सब्सिडी देने वाले उपभोगताओं के कम होने से या तो छोटे, ग्रामीण और कृषि उपभोगताओं से वसूला जाने वाला शुल्क बढ़ेगा या राज्य द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की राशि में तेज़ी से वृद्धि ज़रूरी हो जाएगी।

यदि ठीक तरह से प्रबंधन नहीं किया गया, तो इन परिवर्तनों के कारण डिस्कॉम के लिए गंभीर वित्तीय संकट पैदा हो जाएगा, छोटे उपभोक्ताओं के लिए आपूर्ति की गुणवत्ता में कमी आएगी, परिसंपत्तियां बेकार पड़ी रहेंगी और कंपनियों को वित्तीय संकट से निकालने के लिए बेल-आउट की व्यवस्था करनी होगी जिसका असर बेंकिंग क्षेत्र पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा।

इस तरह की समस्याओं से बचने के लिए ज़रूरी है कि डिस्कॉम्स के नियोजन और संचालन के तरीकों में मूलभूत परिवर्तन लाए जाएं। बाज़ार और प्रतिस्पर्धा बढ़ते क्रम में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। बड़े उपभोक्ताओं को अपने लिए आपूर्तिकर्ता चुनने की अनुमति देने से उन्हें लागत कम करने में मदद मिलती है, और इससे उत्पादन क्षमता में वृद्धि को भी युक्तिसंगत बनाया जा सकता है। डिस्कॉम्स को गहन मांग-आपूर्ति विश्लेषण के बिना नई बेसलोड क्षमता जोड़ने से बचना होगा।

कृषि फीडर को सौर-संयंत्रों से जोड़ने से सब्सिडी को कम करने में मदद मिलेगी और किसानों को दिन के वक्त भरोसेमंद आपूर्ति दी जा सकेगी। इन उपायों से डिस्कॉम्स को छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को आपूर्ति और सेवा में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने की गुंजाइश मिलेगी। ऊर्जा परिवर्तन एक अवसर प्रदान करता है जिसमें संसाधनों को अकार्यक्षम ढंग से उलझने से बचाया जा सकेगा और साथ में काफी पर्यावरणीय व आर्थिक लाभ भी मिलेगे। लेकिन यदि इस परिवर्तन का प्रबंधन ठीक से नहीं किया गया तो अफरा-तफरी मच जाएगी जिसका खामियाज़ा शायद छोटे व ग्रामीण व छोटे उपभोक्ता भरेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मात्र शत प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण पर्याप्त नहीं है – एन. श्रीकुमार, मानबिका मंडल, एन. जोसी

एक भरोसेमंद बिजली आपूर्ति काफी महत्वपूर्ण है। वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) को सामाजिक और वाणिज्यिक दोनों गतिविधियों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। इस लेख के लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से संबंधित हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के सामने चुनौतियों पर तीन लेखों में से पहला है

स बात की काफी संभावना है कि केंद्र सरकार घोषित करे कि देश के सभी घरों में बिजली कनेक्शन उपलब्ध है। सौभाग्य वेबसाइट पर प्रकाशित ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में केवल 20,000 परिवार ऐसे हैं जिनके पास बिजली कनेक्शन नहीं है। लेकिन इस बात की खुशी मनाते हुए यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह अच्छी शुरुआत भर है। कनेक्शन प्रदान करने की चुनौती को तो शायद पूरा कर लिया गया है, लेकिन बिजली आपूर्ति प्रदान करने की चुनौती अभी भी बनी हुई है। जीवन स्तर में सुधार और आर्थिक गतिविधियों में सहायता के लिए, सस्ती और भरोसेमंद बिजली आपूर्ति ज़रूरी है।

घरेलू कनेक्शन और गांव के विद्युतीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के चक्कर में बिजली आपूर्ति के लक्ष्य की उपेक्षा हुई है। बिजली आपूर्ति का प्रबंधन पैसों की तंगी वाली वितरण कंपनियों द्वारा किया जाता है जिनके पास गरीब ग्रामीणों को बिजली आपूर्ति देने का कोई वित्तीय प्रलोभन नहीं होता है।

इस समस्या को दूर करने के लिए आपूर्ति-केंद्रित ग्रामीण विद्युतीकरण अभियान की आवश्यकता है। आपूर्ति और सेवा के वर्तमान घटिया स्तर से मुक्त होने के लिए ऐसा अभियान आवश्यक है। एक बार उल्लेखनीय सुधार हो गया, तो उपभोक्ताओं की ओर से  आपूर्ति की गुणवत्ता के लिए वितरण कंपनियों को जवाबदेह बनाने का दबाव रहेगा, और यह जोश जारी रहेगा।

कनेक्शन से एक कदम आगे 

चूंकि पूरा ध्यान कनेक्शनों पर केंद्रित रहा है, इसलिए आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर हमारे पास बहुत कम जानकारी है। जो भी आंकड़े उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि शिकायतों की सूची में मीटरिंग, बिलिंग और भुगतान सम्बंधी शिकायतें प्रमुख हैं। नए कनेक्शन वाले घरों के बिल जारी करने में अनावश्यक विलंब होता, बिलों में गलतियां होती है, मीटर में खामियां हैं और बिल भुगतान में कठिनाइयां हैं। बिलों में विलंब या गलतियों से बिल काफी अधिक आता है, जिससे छोटे उपभोक्ताओं को भुगतान करने में मुश्किल होती है और उनके कनेक्शन कट जाते हैं।

दूसरी शिकायत बिजली कटौती को लेकर है। सरकारी रिपोट्र्स में ग्रामीण इलाकों में 16 से 24 घंटे की बिजली आपूर्ति की बात कही गई है। उपभोक्ता सर्वेक्षण और अन्य अध्ययन इससे बहुत कम घंटे बिजली आपूर्ति रिपोर्ट करते हैं। स्मार्टपॉवर के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि आधे घरों में एक दिन में आठ घंटे बिजली कटौती होती है और लगभग आधे ग्रामीण उद्यम गैर-ग्रिड विकल्प का उपयोग करते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 2017 के राष्ट्रव्यापी ग्राम सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि केवल आधे गांवों में ही 12 घंटे से अधिक बिजली आपूर्ति होती है।

प्रयास ऊर्जा समूह द्वारा 23 राज्यों में 200 मॉनिटरिंग केंद्रों से एकत्रित डैटा के अनुसार ग्रामीण इलाकों के आधे स्थानों में प्रति माह 15 घंटे से अधिक कटौती और प्रति दिन 2-4 बार व्यवधान का अनुभव होता है।

सामुदायिक सेवाएं

घरों के अलावा, ग्रामीण विद्युतीकरण को कृषि, छोटे व्यवसाय और सामुदायिक सेवाओं जैसे स्ट्रीट लाइटिंग, स्कूलों, आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए। कृषि क्षेत्र के लिए ज़्यादातर राज्यों में केवल सात से आठ घंटे की आपूर्ति प्रदान की जाती है। यह बिजली आपूर्ति ज़्यादातर रात के समय और अक्सर रुक-रुककर दी जाती है। बार-बार होने वाली रुकावटें ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक उद्यमों के संचालन को हतोत्साहित करती हैं।

वितरण कंपनी का राजस्व सिर्फ तभी बढ़ सकता है जब ऐसे उपभोक्ता अधिक बिजली का उपभोग करें। इससे पहले कि उपभोक्ता ग्रिड द्वारा आपूर्ति में विश्वास खो दें, बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता में सुधार के लिए कदम उठाना आवश्यक है। सरकारी सर्वेक्षणों की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में, 40 प्रतिशत स्कूलों और 25 प्रतिशत स्वास्थ्य उप-केंद्रों में बिजली कनेक्शन नहीं थे। ग्रामीण वितरण के बुनियादी ढांचे को सुधारना आवश्यक है, जो फिलहाल मात्र घरेलू मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

बिजली आपूर्ति अभियान

कनेक्शन-उपरांत के मसलों पर ध्यान देना ज़रूरी है। जैसे प्रथम बिल जारी होना, बिजली आपूर्ति के घंटे, वितरण ट्रांसफॉर्मर की विफलता दर और गैर-घरेलू उपभोक्ता कनेक्शन में बढ़ोतरी। एकीकृत उर्जा विकास योजना (आईपीडीएस) वर्तमान में शहरों पर केंद्रित है; इसे ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ाया जाना चाहिए। बेकार पड़ी बिजली उत्पादन क्षमता, पुराने पड़ चुके उर्जा संयंत्रों और अप्रयुक्त क्षमता से उत्पन्न बिजली डिस्कॉम्स को रियायती दरों पर दी जा सकती है। इसका उपयोग वे निर्धारित ग्रामीण क्षेत्रों में भरोसेमंद आपूर्ति हेतु कर सकती हैं।

राज्य वितरण कंपनियां मीटरिंग और बिलिंग में सुधार कर सकती हैं और बिल भुगतान के लिए ज़्यादा केंद्र स्थापित कर सकती हैं। इसमें वे पंचायत कार्यालयों, डाकघरों या स्वास्थ्य केंद्रों की मदद ले सकती हैं। मोबाइल ऐप्लिकेशन और जन सुनवाई के माध्यम से शिकायत निवारण प्रक्रियाओं को सरल बनाया जा सकता है।

घटिया बिजली आपूर्ति के लिए वितरण कंपनियों को नियामक आयोगों द्वारा आर्थिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए। आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए, लगभग 300 युनिट की खपत वाले छोटे उद्यमों को सस्ते शुल्क का आश्वासन दिया जाना चाहिए।

स्वास्थ्य केंद्रों जैसी सामुदायिक सुविधाओं के लिए जहां विश्वसनीय आपूर्ति महत्वपूर्ण है, बैटरी बैकअप वाले छोटे सौर संयंत्र लगाने की योजना बनाई जा सकती है। प्रीपेड मीटर, स्मार्ट मीटर और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसे प्रयासों को बढ़ावा देने से पहले पायलट परियोजनाओं के रूप में आज़माया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

*यह लेख अंग्रेज़ी में “द हिन्दू बिज़नेस लाइन” में “100% rural electrification is not enough” नाम से प्रकाशित हो चुका है। इसका लिंक यहां दिया गया है
https://www.thehindubusinessline.com/opinion/100-rural-electrification-is-not-enough/article26645721.ece

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindubusinessline.com/opinion/w23se2/article26645720.ece/alternates/WIDE_615/BL27THINKPOWER

माइक्रोवेव में रखे अंगूर से चिंगारियां

माइक्रोवेव ओवन में रखे जाने पर अंगूर से चिंगारियां निकलते हुए दिखाने वाले कई वीडियो इंटरनेट पर मौजूद हैं। इन वीडियो में एक अंगूर को दो हिस्सों में इस तरह काटते हैं कि अंगूर का छिलका दोनों टुकड़ों से जुड़ा रहे। फिर इसे माइक्रोवेव में रख दिया जाता है। ये टुकड़े आपस में जहां से जुड़े रहते हैं कुछ देर बाद वहां से चमक पैदा करती गैस निकलती है। ऐसा होने का कारण यह बताया जाता है कि अंगूर के दो टुकड़े माइक्रोवेव विकिरण के लिए एंटिना का काम करते हैं और अंगूर के छिलके की नमी इन दोनों टुकड़ों के बीच चालक का। दोनो एंटिना के बीच अंगूर के छिलके से होते हुए विद्युत बहती है और चमक पैदा होती है।

कनाडा स्थित ट्रेन्ट विश्वविद्यालय के आरोन स्लेपकोव का कहना है कि इंटरनेट पर बताया जा रहा यह कारण सही नहीं है। आरोन के अनुसार वास्तव में होता यह है कि अंगूर के दो टुकड़े दर्पणनुमा केविटी (गड्ढा) बनाते हैं जिनका केन्द्र दोनों टुकड़ों का जुड़ा हुआ हिस्सा (छिलका) होता है। ये केविटी माइक्रोवेव विकिरण को अवशोषित करती हैं और केंद्र पर फोकस कर देती हैं। इसके कारण केन्द्र बहुत गर्म हो जाता है। तब अंगूर के छिलके में मौजूद सोडियम और पोटेशियम के परमाणु आवेशित हो जाते हैं और आवेशित गैस (प्लाज़्मा) का निर्माण करते हैं। जिससे चमक पैदा होती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आरोन और उनके साथियों ने थर्मल इमेजिंग और कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद ली। उन्होंने साबूत अंगूर, अंगूर के टुकड़ों और हाइड्रोजेल मोतियों को माइक्रोवेव में अलग-अलग स्थितियों में रखकर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र की थर्मल इमेजिंग की। देखा गया कि प्लाज़्मा पैदा करने के पीछे दो टुकड़ों के बीच का छिलका मुख्य कारण नहीं है। वास्तव में अंगूर का साइज़ और पर्याप्त नमी विकिरण को अवशोषित करने में भूमिका निभाते हैं। अंगूर के अलावा ब्लैकबेरी, गूज़बेरी और हाइड्रोजेल मोती को माइक्रोवेव में आपस में सटाकर रखने पर भी यही प्रभाव होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबके लिए शीतलता – आदित्य चुनेकर और श्वेता कुलकर्णी

भारत का शीतलता प्लान एक सकारात्मक कदम है किंतु इसे कारगर बनाने के लिए काफी काम करने की ज़रूरत है।

पिछली एक सदी में भारत 1 डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है और इसमें भी गर्मी बढ़ने की रफ्तार पिछले दो दशकों में सबसे तेज़ रही है। अध्ययन दर्शाते हैं कि भविष्य में इंतहाई ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति में कई गुना की वृद्धि होगी। ग्रीष्म-आधारित मौतों पर गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है। शहरीकरण की वजह से गर्मी का असर और भी बुरा हो जाता है क्योंकि इमारतों, सड़कों और प्रदूषण की वजह से गर्मी कैद हो जाती है। इसके अलावा, गर्मी भोजन, दवाइयों और टीकों को बरबाद करती है क्योंकि इनका प्रभावी जीवनकाल गर्मी के कारण सिकुड़ जाता है।

इस मामले में भारत दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है। एक ओर तो देश को यह सुनिश्चित करना होगा कि जोखिम से घिरे व्यक्तियों को ऐसे साधन किफायती ढंग से और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों जो उन्हें गर्मी से राहत प्रदान करें। दूसरी ओर, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मशीनीकृत शीतलन उपकरणों और प्रक्रियाओं में जो ऊर्जा व रेफ्रिजरेंट रसायन इस्तेमाल होते हैं उनकी वजह से नुकसान कम से कम हो।

इस चुनौती से निपटने के लिए पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल ही में इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) का मसौदा जारी किया है। प्लान में अनुमान लगाया गया है कि 2017-18 के मुकाबले 2037-38 तक देश में कूलिंग की मांग आठ गुना बढ़ जाएगी। प्लान में 2037-38 तक कूलिंग मांग में अनुमानित वृद्धि को 20-25 प्रतिशत कम करने के लिए लघु, मध्यम व दीर्घ अवधि के लिए सिफारिशों की सूची भी शामिल की गई है। इन सिफारिशों का प्रमुख लक्ष्य समाज के लिए पर्यावरणीय तथा सामाजिक-आर्थिक लाभ सुरक्षित रखते हुए सबके लिए शीतलन व उष्मीय सहूलियत प्रदान करना है। यह योजना मंत्रालय की वेबसाइट पर लोगों की टिप्पणियों के लिए उपलब्ध है। यह प्लान घोषित लक्ष्य की ओर एक सकारात्मक कदम है किंतु इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी काम करना होगा।

सबसे पहले, रणनीति के स्तर पर, प्लान में 2037-38 तक रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में 20-25 प्रतिशत कमी लाने, कूलिंग के लिए ऊर्जा की ज़रूरत में 25-40 प्रतिशत की कमी लाने वगैरह के लिए समय सीमाओं सहित लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। अलबत्ता, प्लान में इन लक्ष्यों की दिशा में प्रगति को आंकने के लिए निगरानी व सत्यापन की ज़रूरत को कम करके आंका गया है। इसके अंतर्गत भविष्य में कूलिंग, ऊर्जा तथा रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में कमी की गणना करने के लिए विधियां निर्र्धारित की जा सकती हैं और यह भी स्पष्ट किया जा सकता है कि मांग में कमी के सत्यापन के लिए समय-समय पर किस तरह के आंकड़े एकत्रित करने होंगे। योजना में उसके घोषित उद्देश्यों के विभिन्न पहलुओं पर बराबर ज़ोर दिए जाने की आवश्यकता है।

हाल की एक वैश्विक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की सबसे अधिक आबादी कूलिंग सम्बंधी जोखिम का सामना कर रही है। ICAP में शहर व गांव दोनों जगह के सबसे जोखिमग्रस्त लोगों को किफायती व पर्याप्त कूलिंग साधन मुहैया कराने के लिए बहुत कम हस्तक्षेपों की सिफारिश की गई है। प्लान की सिफारिशों में कई सारे नीतिगत व नियामक हस्तक्षेप सुझाए गए हैं किंतु उन्हें क्रियांवित करने के लिए ज़रूरी संसाधनों को मात्रात्मक रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्लान की सफलता के लिए ज़रूरी है कि वित्तीय खाई को पहचाना जाए और उसकी पूर्ति की योजना बनाई जाए।

दूसरा, कामकाजी स्तर पर, प्लान में विभिन्न वर्तमान नीतियों से सीखे गए सबकों को शामिल करके सिफारिशों को सशक्त बनाया जा सकता है। मसलन, इस प्लान की एक सिफारिश है कि छत के पंखों के लिए एक अनिवार्य मानक व लेबलिंग कार्यक्रम होना चाहिए और एयर कंडीशनर्स तथा रेफ्रिजरेटर्स के लिए कार्य कुशलता के मानक उच्चतर  स्तर के बनाए जाने चाहिए। इस कार्यक्रम के तहत 1-स्टार (सबसे कम कार्यकुशल) से लेकर 5-स्टार (सर्वाधिक कार्यकुशल) तक की रेटिंग होती है। ऊर्जा-दक्षता के प्रति जागरूकता बढ़ाने में यह कार्यक्रम सफल रहा है किंतु इसकी सीमाएं भी हैं। छत के पंखों के मामले में कुल निर्मित पंखों में से मात्र 10 प्रतिशत पर स्टार लेबल होते हैं। अधिकांश निर्माताओं ने 2010 के बाद से दक्षता मानक को बेहतर बनाने का विरोध किया है। हालांकि ये मानक हर 2-3 साल में अधुनातन किए जाते हैं किंतु यह प्रक्रिया कमोबेश अनुपयोगी ही रही है। दूसरी ओर, रेफ्रिजरेटर्स के मामले में, मानक नियमित रूप से अधुनातन किए गए हैं। आज ये मानक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मानकों में से हैं। इस मामले में निर्माताओं ने इसका जवाब कम स्टार रेटिंग वाले मॉडल्स बेचकर दिया है। वर्ष 2017-18 में निर्मित कुल 25 लाख उपकरणों में से मात्र 2000 ही 5-स्टार रेटिंग वाले थे। लिहाज़ा, प्लान की सिफारिशों के क्रियांवयन को ठोस रूप देना होगा ताकि ऐसे लक्ष्यों की व्यावहारिक धरातल पर पूर्ति की जा सके।

तीसरा, प्लान में लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु मुख्य रूप से टेक्नॉलॉजी, नियमन और प्रलोभन-प्रोत्साहन स्कीमों पर ध्यान दिया गया है। कूलिंग की चुनौती का एक निर्णायक आयाम मानव व्यवहार है, जिसे प्लान में अनदेखा किया गया है। उदाहरण के लिए, मानव व्यवहार को समझने से एयर कंडीशंड जगहों के लिए थोड़ा ऊंचा डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करने में मदद मिलेगी। यह एक ऐसा तापमान होगा जिस पर लोग सुकून महसूस करेंगे। इससे बिजली के उपयोग में काफी बचत की जा सकेगी। ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी द्वारा जारी किए गए ताज़ा दिशानिर्देश इसी बात का अनुमोदन करते हैं। साथ ही मानव व्यवहार को समझकर यह जानने में भी मदद मिलेगी कि यदि ऊर्जा-दक्षता बढ़ाकर एयर कंडीशनिंग संयंत्रों को चलाना सस्ता हो जाता है, तो क्या लोग उन्हें ज़्यादा देर तक चलाने लगेंगे? इसे रिबाउंडिंग प्रभाव कहते हैं और इसकी वजह से ऊर्जा दक्षता बढ़ाने से अर्जित लाभ काफी हद तक निरस्त हो जाते हैं।

अंत में, अध्ययनों ने यह भी दर्शाया है कि खरीदार के व्यवहार में छोटे-छोटे किंतु उपयुक्त बदलाव करने से लागत और उपभोक्ता द्वारा खरीदी के निर्णय पर काफी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब उपभोक्ता के सामने विकल्पों की सूची रखी जाती है तो वे प्राय: समझौता करके मध्यम विकल्प को चुनने की प्रवृत्ति दर्शाते हैं। क्या इसका परिणाम यह होता है कि उपभोक्ता 3-स्टार रेटिंग वाला विकल्प चुनेंगे और क्या इससे निपटने के लिए मात्र 4 व 5-रेटिंग वाले विकल्प पेश करना ठीक रहेगा? इस तरह के सवालों के जवाब से कम लागत हस्तक्षेपों को इस तरह से विकसित करने में मदद मिलेगी ताकि उनसे अधिकतम लाभ मिल सके।

कूलिंग एक्शन प्लान भारत के सामने उपस्थित एक गंभीर समस्या से निपटने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। एक समग्र व संतुलित नज़रिया और साथ में रणनीतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण तथा उन्हें संदर्भ-अनुकूल बनाना भारत की कूलिंग चुनौती का सामना करने की कुंजी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खेती के लिए सौर फीडर से बिजली – अश्विन गंभीर और शांतनु दीक्षित

भारत में कुल सींचित क्षेत्र में से दो तिहाई भूजल के पंपिंग पर आश्रित है। इसके लिए 2 करोड़ पंप को बिजली से तथा 75 लाख पंप को डीज़ल से ऊर्जा मिलती है। भूजल की उपलब्धता मूलत: विश्वसनीय और किफायती बिजली आपूर्ति पर निर्भर होती है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि इसका सम्बंध ग्रामीण गरीबों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से है। कृषि क्षेत्र बिजली का एक प्रमुख उपभोक्ता है। कई राज्यों में कुल बिजली खपत में से एक-चौथाई से लेकर एक-तिहाई तक कृषि में जाती है।

1970 के दशक से कई राज्यों में खेती के लिए बिजली या तो निशुल्क या बहुत कम कीमत पर मिल रही है। अधिकांश कृषि सप्लाई का मीटरिंग नहीं किया जाता। कम कीमत और राजस्व वसूली की खस्ता हालत के चलते कृषि को दी गई बिजली को वितरण कंपनियों के वित्तीय घाटे का प्रमुख कारण माना जाता है। इस घाटे की कुछ भरपाई तो अन्य उपभोक्ताओं (जैसे औद्योगिक व व्यावसायिक) पर अधिक शुल्क लगाकर की जाती है। इसे क्रॉस सबसिडी कहते हैं। शेष घाटे की पूर्ति सरकार द्वारा सीधे सबसिडी देकर की जाती है।

चूंकि कृषि को बिजली सप्लाई की दृष्टि से घाटे का क्षेत्र माना जाता है, इसलिए खेती को अक्सर घटिया गुणवत्ता की सप्लाई मिलती है। इसकी वजह से पंप का बार-बार जलना और बिजली न मिलने जैसे समस्याएं पैदा होती हैं। सप्लाई को बहाल करने में बहुत समय लगता है। इसके अलावा नए कनेक्शन मिलने में काफी समय लगता है। और तो और, सप्लाई अविश्वसनीय होती है और प्राय: देर रात में ही मिल पाती है। इन सब कारणों से किसानों में वितरण कंपनियों को लेकर अविश्वास पनपा है।

अगले 10 वर्षों में खेती में बिजली की मांग दुगनी होने की संभावना है। सप्लाई की लागत बढ़ने के साथ-साथ कृषि सबसिडी की समस्या भी विकराल होती जाएगी। यदि इस मामले में नए विचार नहीं आज़माए गए तो खेती में बिजली सप्लाई की स्थिति बिगड़ती जाएगी। समाधान कुछ भी हो किंतु उसमें सबसे पहले किसानों को दिन के समय पर्याप्त बिजली की विश्वसनीय सप्लाई उचित दरों पर सुनिश्चित करनी होगी। इससे किसानों और वितरण कंपनियों के बीच परस्पर विश्वास बढ़ेगा। यदि ऐसे किसी समाधान को राष्ट्र के स्तर पर कारगर बनाना है तो इसमें सबसिडी की मात्रा भी कम की जानी चाहिए।

इस संदर्भ में तीन ऐसे विकास हुए हैं जो सर्वथा नई उत्साहवर्धक संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। पहला, सौर ऊर्जा से सस्ती दरों पर बिजली की उपलब्धता – चूंकि इसमें र्इंधन की कोई लागत नहीं है इसलिए यह बिजली स्थिर कीमत के अनुबंध के आधार पर अगले 25 वर्षों तक 2.75 से लेकर 3.00 रुपए प्रति युनिट की दर से मिल सकती है। दूसरा, सौर ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि का राष्ट्रीय लक्ष्य पूरा करने के लिए राज्यों को सौर ऊर्जा की खरीद में तेज़ी से वृद्धि करनी होगी। तीसरा और अंतिम, कि भारत में ग्रिड हर गांव में पहुंच चुकी है तथा कृषि फीडर्स को अलग करने का काम भी काफी तेज़ी से आगे बढ़ा है। फीडर पृथक्करण के ज़रिए पंप को मिलने वाली बिजली और गांव को मिलने वाली बिजली को भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता है। फीडर पृथक्करण का दो-तिहाई लक्ष्य हासिल कर लिया गया है।

इन तीन चीज़ों का फायदा उठाते हुए महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री सौर कृषि फीडर कार्यक्रम के तत्वाधान में एक नवाचारी कार्यक्रम शुरू किया गया है। सौर कृषि फीडर मूलत: 1-10 मेगावॉट का समुदाय स्तर का सौर फोटो-वोल्टेइक संयंत्र होता है जिसे 33/11 केवी सबस्टेशन से जोड़ा जाता है। एक मेगावॉट क्षमता का सौर संयंत्र 5-5 हॉर्स पॉवर के करीब 350 पंप को संभाल सकता है और इसे लगाने के लिए लगभग 5 एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। संयंत्र को लगाने में कुछ महीने लगते हैं और किसानों को अपने छोर पर कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ते। उन्हें इसकी स्थापना और संचालन की ज़िम्मेदारी भी नहीं उठानी पड़ती। पृथक्कृत कृषि फीडर से जुड़े सारे पंप्स को दिन के समय (सुबह 8 से शाम 6 बजे तक) 8-10 घंटे विश्वसनीय बिजली मिलेगी। जब सौर बिजली का उत्पादन कम होगा तब शेष बिजली वितरण कंपनी से ली जा सकती है। दूसरी ओर, जब पंपिंग की मांग कम है (जैसे बरसात के मौसम में) तब अतिरिक्त बिजली वितरण कंपनी को दी जा सकती है। इसके चलते संयंत्र का यथेष्ट आकार निर्धारित किया जा सकता है। प्रोजेक्ट डेवलपर्स का चयन प्रतिस्पर्धी नीलामी के द्वारा होता है और संयंत्र से बनने वाली सारी बिजली को वितरण कंपनी 25 साल के अनुबंध के ज़रिए खरीद लेगी। इसके एवज में वितरण कंपनी सम्बंधित फीडर से जुड़े किसानों को बिजली देती रहेगी।

किसानों को दिन के समय विश्वसनीय बिजली मिलने के अलावा इस तरीके का एक फायदा यह है कि इसके लिए सरकार की ओर से किसी पूंजीगत सबसिडी की ज़रूरत नहीं होगी। दरअसल यह तरीका लागत-क्षम है और इससे सबसिडी में कमी आएगी। एक फायदा यह भी है कि इसके लिए कोई नई ट्रांसमिशन लाइन डालने की ज़रूरत नहीं है। नई ट्रांसमिशन लाइन डालने का काम कई बड़े पैमाने के पवन व सौर ऊर्जा की निविदाओं के संदर्भ में प्रमुख अवरोध बन गया है। ऐसे सौर फीडर स्थापित करना वर्तमान नियामक व्यवस्था के तहत संभव है और यह बिजली उत्पादन कंपनियों के नवीकरणीय ऊर्जा खरीद दायित्व (आरपीओ) की पात्रता रखता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस तरीके में स्थानीय युवाओं को संयंत्र के निर्माण, संचालन व रख-रखाव के कार्य में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के रास्ते भी खुलेंगे। इस तरीके के लाभों का प्रदर्शन करने के बाद ऐसे सौर फीडर्स को आपस में जोड़ा सकता है। इससे अनाधिकृत उपयोग/कनेक्शंस कम किए जा सकेंगे, मीटरिंग व शुल्क वसूली को बेहतर बनाया जा सकेगा। ऊर्जा-क्षम पंप तथा पानी की बचत के कार्यक्रम लागू किए जा सकेंगे।

फिलहाल महाराष्ट्र में इस योजना के तहत कुल लगभग 2-3 हज़ार मेगावॉट के सौर संयंत्र निविदा और क्रियांवयन के विभिन्न चरणों में हैं। यह करीब 7.5 लाख पंप यानी महाराष्ट्र के कुल पंप्स में 20 प्रतिशत को सौर बिजली सप्लाई करने के बराबर है। दिसंबर 2018 तक लगभग 10 हज़ार किसानों को इस योजना के तहत दिन के समय विश्वसनीय बिजली सप्लाई मिलने भी लगी है। और तो और, वितरण कंपनी अगले तीन से पांच सालों में इसे 7.5 लाख पंप के शुरुआती लक्ष्य से आगे ले जाने पर विचार कर रही है। राज्य वितरण कंपनी द्वारा बिजली सप्लाई की लागत करीब 5 रुपए प्रति युनिट है (और बढ़ती जा रही है), वहीं सौर बिजली की कीमत अगले 25 वर्षों के लिए 3 रुपए प्रति युनिट पर स्थिर रहेगी। 2 रुपए प्रति युनिट की यह बचत 5 हॉर्स पॉवर के एक पंप के लिए सालाना 10,000 रुपए होती है। किसी फीडर पर 500 पंप हों तो अगले 20 वर्षों में यह बचत 4.5 करोड़ रुपए होगी। भारत सरकार ने इसी तरह की एक योजना राष्ट्रीय स्तर पर भी घोषित की है। कुसुम नामक इस योजना का लक्ष्य 10,000 मेगावॉट है।

देश के हर गांव में बिजली ग्रिड की उपस्थिति तथा साथ में राष्ट्रीय फीडर पृथक्करण कार्यक्रम मिलकर इस लागत-क्षम व आसानी से बड़े पैमाने पर लागू किए जा सकने वाले इस तरीके को समूचे राष्ट्र में व्यावहारिक बना देते हैं। कृषि क्षेत्र के लिए दिन के समय किफायती व विश्वसनीय बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य इस तरीके को अनिवार्य बना देता है। यह किसान, सरकार व वितरण कंपनियों तीनों के लिए लाभ का सौदा है और यह बिजली क्षेत्र के लिए किसान-केंद्रित रास्ता खोलता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत के ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का मूल्यांकन – आदित्य चुनेकर, संजना मुले, मृदुला केलकर

भारत के अपने नागरिकों को विश्वसनीय, किफायती, सुरक्षित और टिकाऊ ऊर्जा उपलब्ध करवाने के लक्ष्य में ऊर्जा दक्षता काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। भारत में पिछले कुछ सालों में ऊर्जा संरक्षण, बेहतर ऊर्जा दक्षता और ऊर्जा आपूर्ति प्रबंधन से सम्बंधित कई नीतियां और कार्यक्रम लागू किए गए हैं। इन कार्यक्रमों के स्तर और दायरे दोनों ही बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए उजाला कार्यक्रम बड़े स्तर पर परिवारों को कम दामों में एलईडी बल्ब उपलब्ध कराता है।

किंतु इस तरह के बड़े कार्यक्रमों के समग्र मूल्यांकन पर बहुत ही कम ध्यान दिया जा रहा है। समग्र मूल्यांकन कार्यक्रमों के विभिन्न प्रभावों और उनकी कारगरता की व्यवस्थित जांच करते हैं, इन कार्यक्रमों की विश्वसनीयता बढ़ाते हैं और कार्यक्रमों के क्रियांवयन से होने वाली ऊर्जा की बचत का अनुमान बताते हैं। समग्र मूल्यांकन वर्तमान में लागू कार्यक्रमों की समीक्षा भी करते हैं तथा भविष्य में लागू किए जाने वाले ऐसे अन्य कार्यक्रमों की डिज़ाइन को बेहतर करने में मदद करते हैं।

कई व्यवस्थागत बाधाओं के चलते भारत में ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का समग्र मूल्यांकन बहुत सीमित रहा है। एक तो ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम क्रियांवित करने वाले संस्थानों के लिए, इन कार्यक्रमों का समयसमय पर और स्वतंत्र आकलन करवाने की कोई अनिवार्यता नहीं है। ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001; विद्युत अधिनियम, 2003; राष्ट्रीय विद्युत नीति 2005 और इसके संशोधन; राष्ट्रीय शुल्क नीति, 2006; और नियामक मंच द्वारा मांग प्रबंधन के नियमन सम्बंधी दिशानिर्देशों में इन नियमों की कमी स्पष्ट दिखती है।

समग्र मूल्यांकन की राह में दूसरी बाधा यह (गलत) धारणा है कि मूल्यांकन बोझिल, असमय, और महंगा होता है। यह गलतफहमी कुछ शुरुआती कार्यक्रमों में ऊर्जा बचत मापने के लिए डैटा लॉगर्स की मदद से ऊर्जा बचत सम्बंधी वास्तविक मापन के अनुभवों से उपजी है। और खासकर छोटे स्तर के कार्यक्रमों के लिए मूल्यांकन को एक बोझ माना जाता है।

अंततः ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का सार्वजनिक डैटा दुर्लभ या बहुत कम उपलब्ध होता है। डैटा की कमी के कारण स्वतंत्र रुप से मूल्यांकन करने वाले शोधकर्ताओं, अकादमिक लोगों, और सामाजिक संगठनों द्वारा मूल्यांकन बहुत सीमित हो जाता है। इन व्यवस्थागत बाधाओं को दूर करने की ज़रूरत है ताकि भारत में इन कार्यक्रमों का समग्र मूल्यांकन किया जा सके।

ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम के किसी भी समग्र मूल्याकन में कार्यक्रम के प्रभाव का आकलन (अर्थात यह देखना कि ऊर्जा खपत में कितनी कमी आई और सर्वोच्च मांग में कितनी कमी आई), प्रक्रिया का मूल्यांकन (कार्यक्रम का क्रियान्वन कितना कारगर रहा), और बाज़ार प्रभाव मूल्यांकन (कार्यक्रम के कारण बाज़ार में आए बदलावों का आकलन) शामिल हैं।

कार्यक्रम के प्रायोगिक क्रियान्वन के दौरान मूल्यांकन का विशेष महत्व होता है क्योंकि प्रायोगिक क्रियांवयन में सामने आई खामियों या मुश्किलों को बड़े स्तर पर कार्यक्रम लागू करने से पहले दूर किया जा सकता है। इसके अलावा लागू हो चुके कार्यक्रमों का मूल्यांकन भी ज़रूरी है क्योंकि इस तरह के मूल्यांकन कार्यक्रम के कारगर और गैरकारगर बिंदुओं की ओर ध्यान दिलाते हैं।

प्रयास द्वारा तैयार रिपोर्ट में भारत में ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने के व्यापक दिशानिर्देश प्रस्तुत किए गए हैं। ये दिशानिर्देश विश्व स्तर की सर्वोत्तम परिपाटियों की समीक्षाओं पर आधारित हैं और केस स्टडीज़ की मदद से इन परिपाटियों के उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह रिपोर्ट, वर्तमान में भारत में लागू ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों के समग्र मूल्यांकन के लिए नीति निर्माताओं, वितरण कंपनियों के प्रबंधकों और नियंत्रकों के लिए है जो मूल्यांकनकर्ताओं को नियुक्त कर सकते हैं। साथ ही यह रिपोर्ट भारत के ऊर्जा दक्षता संस्थानों जैसे ऊर्जा दक्षता ब्यूरो, ऊर्जा दक्षता सेवा लिमिटेड और सरकार द्वारा निर्धारित एजेंसियों के कार्यक्रमों में समग्र मूल्यांकन को शामिल करवाने में भी उपयोगी होगी। अंत में इस रिपोर्ट में उपभोक्ताओं, सामाजिक संगठनों और शोधकर्ताओं की दृष्टि से ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम के समग्र मूल्यांकन के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। यह रिपोर्ट भारत के सभी ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों की व्यापक मार्गदर्शिका नहीं है। यह रिपोर्ट तो ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों के मूल्यांकन के लिए एक सामान्य खाका या कार्यक्रमविशेष के लिए दिशानिर्देश प्रस्तुत करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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अड़ियल फिलामेंट बल्ब – आदित्य चुनेकर, संजना मुले, मृदुला केलकर

भारत में वर्ष 2014 से एलईडी बल्ब की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यह वृद्धि मुख्य रूप से उजाला कार्यक्रम के तहत सस्ते एलईडी बल्ब उपलब्ध कराने की योजना की बदौलत हुई है। हालांकि, फिलामेंट बल्ब की मांग अभी भी काफी है, हालांकि धीरेधीरे घट रही है। 2017 में, भारत में लगभग 77 करोड़ फिलामेंट बल्ब बेचे गए थे, जो उस वर्ष बल्ब और ट्यूबलाइट की कुल बिक्री के 50 प्रतिशत से भी अधिक था।

इस आलेख में, हम भारत में फिलामेंट बल्ब के निरंतर उपयोग की जांच के लिए भारतीय घरों के लिए उपलब्ध विभिन्न प्रकाश विकल्पों की मांग और आपूर्ति के कुछ पहलुओं की जांच करेंगे। इस विश्लेषण के आधार पर, हम भारत में फिलामेंट बल्ब के उपयोग को कम करने और अंतत: समाप्त करने करने के लिए कुछ कार्यक्रम और नीतिगत हस्तक्षेपों के सुझाव भी देंगे।

हमने अपने द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया कि लोग, विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में, एलईडी बल्ब और उसके लाभों से पर्याप्त रूप से परिचित नहीं हैं। संभावित उपभोक्ता की प्रमुख चिंता एलईडी बल्ब द्वारा उत्सर्जित प्रकाश की गुणवत्ता और देश में खराब बिजली आपूर्ति के मद्देनज़र उनके टिकाऊपन को लेकर है। एलईडी बल्ब की एकमुश्त ऊंची कीमत अभी भी एक चुनौती है क्योंकि अधिकांश सर्वेक्षित घरों ने वित्त पोषित योजना को पसंद किया है। सर्वेक्षण में स्थानीय बाज़ारों, विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में एलईडी बल्बों की सीमित उपलब्धता का भी पता चला है।

जहां तक फिलामेंट बल्ब की आपूर्ति का सवाल है, मुट्ठी भर कंपनियां भारत में अधिकांश फिलामेंट बल्ब का उत्पादन करती हैं। फिलामेंट बल्ब का उत्पादन करने वाले कारखाने पुराने, घिसेपिटे और स्वचालित हैं। फिलामेंट बल्ब के उत्पादन में शोध, गारंटी और विपणन की लागत बहुत कम होती है। इस कारण से कंपनियां फिलामेंट बल्ब बहुत कम कीमत पर बेच पाती हैं। इसके अलावा, फिलामेंट बल्ब उद्योग में कोई नया प्रवेशकर्ता भी नहीं है।

दूसरी तरफ, एलईडी लाइटिंग उद्योग हाल ही के वर्षों में उजाला कार्यक्रम द्वारा उत्पन्न मांग पर चल रहा है। चूंकि शुरुआती पूंजी निवेश कम लगता है और बल्ब के पुर्ज़ों को हाथ से जोड़ा जा सकता है, इसलिए मांग को पूरा करने के लिए लघु उद्योग भी मौजूद है। भारतीय मानक ब्यूरो और ऊर्जा दक्षता ब्यूरो के पास एलईडी बल्बों के प्रदर्शन और सुरक्षा सम्बंधी अनिवार्य मानक हैं। हालांकि, बाज़ार में उपलब्ध उत्पादों में इन मानकों के अनुपालन को लेकर स्थिति चिंताजनक है। मात्र कीमत में कमी पर ध्यान केन्द्रित किए जाने के कारण शायद एलईडी बल्ब की गुणवत्ता के साथ समझौता हुआ होगा। खास तौर से उन पहलुओं की उपेक्षा हुई होगी जो उनके जीवनकाल और प्रदर्शन को प्रभावित कर सकते हैं। मौजूदा मानकों में शायद इन्हें सटीक रूप से पकड़ा नहीं जा सका है।

फिलामेंट बल्ब को बाज़ार से दूर करने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। अब तक अपनाए गए मूल्यकेंद्रित हस्तक्षेप एलईडी बल्ब की कीमत को कम करके उनकी मांग में वृद्धि करने में सफल रहे हैं। किंतु फिलामेंट बल्ब से पूरी तरह से निजात पाने के लिए मूल्यकेंद्रित हस्तक्षेप से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। जैसे ऊर्जा दक्षता ब्यूरो लोगों को एलईडी बल्ब के लाभों के बारे में जागरूक करने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान आयोजित कर सकता है। ऐसे अभियान ऊर्जा दक्षता ब्यूरो के स्टार रेटिंग कार्यक्रम द्वारा प्रमाणित अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब खरीदने के बारे में जागरूकता भी बढ़ा सकते हैं। ऊर्जा दक्षता ब्यूरो और भारतीय मानक ब्यूरो समयसमय पर मानकों के अनुपालन की जांच कर सकते हैं और अनुपालन न करने वालों की जानकारी प्रकाशित भी कर सकते हैं। उजाला की कार्यान्वयन एजेंसी, ऊर्जा दक्षता सेवा लिमिटेड (ईईएसएल), खरीदे गए एलईडी बल्बों की गुणवत्ता की जांच कर सकती है और अनुपालन न करने वाले निर्माताओं को ब्लैकलिस्ट कर सकती है। ईईएसएल सुनिश्चित कर सकता है कि गारंटीशुदा बल्बों को बदलने की प्रक्रिया आसान हो। इससे लोगों में एलईडी बल्ब की गुणवत्ता को लेकर विश्वास पैदा करने में मदद मिलेगी। एलईडी बल्ब के ऊंचे मूल्य के मुद्दे को हल करने के लिए, ईईएसएल बिल भुगतान के समय वित्त पोषण प्रक्रिया पर अधिक ध्यान दे सकता है। यह उजाला कार्यक्रम का हिस्सा तो रहा है, लेकिन इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। ईईएसएल ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच बढ़ाने के लिए डाकघर, पेट्रोल पंप और ग्राम स्वराज अभियान के माध्यम से वितरण की अपनी वर्तमान पहल को जारी रख सकता है। सरकार का विद्युतीकरण कार्यक्रम सौभाग्य नव विद्युतीकृत घरों में एलईडी बल्ब के उपयोग को बढ़ावा देने का एक और तरीका हो सकता है।

एलईडी बल्ब के बारे में जागरूकता बढ़ाने, उनकी गुणवत्ता में सुधार करने, उनकी कीमत को कम करने और उनकी उपलब्धता में वृद्धि करने और आसान बनाने जैसे हस्तक्षेपों से भारत में फिलामेंट बल्ब के उपयोग को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है। लेकिन आज की स्थिति में तो अन्य समस्याओं को संबोधित किए बिना फिलामेंट बल्ब को एकाएक विदा करने की सिफारिश नहीं की जा सकती है। ऐसा करने से इसका बोझ मुख्य रूप से निम्न आय वर्ग और नव विद्युतीकृत घरों पर पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)

पुणे स्थित प्रयास (ऊर्जा समूह) ने हाल ही में एलईडी बल्बों के उपयोग सम्बंधी एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी ऑब्स्टिनेट बल्ब मूविंग बियॉण्ड प्राइस फोकस्ड इंटरवेंशन्स टु टेकल इंडियाज़ पर्सिस्टेंट इनकेंडेसेंट बल्ब प्रॉबलम। यह रिपोर्ट निम्नलिखित वेबसाइट पर उपलब्ध है: http://www.prayaspune.org/peg/publications/item/380यहां उस रिपोर्ट का सारांश प्रस्तुत है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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