एक ही लिंग के चूहों के बच्चे

संतानोत्पत्ति के लिए नर और मादा लिंगों की ज़रूरत से तो सब वाकिफ हैं। लेकिन यह बात सिर्फ स्तनधारियों के लिए सही है। पक्षियों, मछलियों और छिपकलियों की कुछ प्रजातियों में एक ही लिंग के दो जंतु मिलकर संतान पैदा कर लेते हैं। मगर अब वैज्ञानिकों ने दो मादा चूहों (जो स्तनधारी होते हैं) के डीएनए से संतानें पैदा करवाने में सफलता प्राप्त कर ली है। और तो और, इन संतानों की संतानें भी पैदा हो चुकी हैं। वैसे वैज्ञानिकों ने दो नर चूहों कीजेनेटिक सामग्री लेकर भी संतानोत्पत्ति के प्रयास किए मगर इनसे उत्पन्न संतानें ज़्यादा नहीं जी पार्इं।

आखिर क्या कारण है कि एक ही लिंग के जीव आम तौर पर संतान पैदा नहीं कर पाते? वैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसा जेनेटिक छाप या इम्प्रिंट के कारण होता है। जेनेटिक इम्प्रिंट छोटेछोटे रासायनिक बिल्ले होते हैं जो डीएनए से जुड़ जाते हैं और किसी जीन को निष्क्रिय कर देते हैं। वैज्ञानिक अब तक ऐसे 100 Ïम्प्रट खोज पाए हैं। इनमें से कुछ ऐसे जीन्स पर पाए जाते हैं जो भ्रूण के विकास को प्रभावित करते हैं। कई जीन्स एक लिंग में चिंहित किए जाते हैं मगर दूसरे लिंग में अचिंहित रहते हैं। यदि दोनों के जीन्स चिंहित हों (जैसा कि एक ही लिंग के पालकों में होगा) तो भ्रूण जीवित नहीं रह पाता है।

बेजिंग के चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ के की ज़ाऊ इसी समस्या से निपटना चाहते थे। उनकी टीम ने शुक्राणु या अंडाणु की स्टेम कोशिकाएं लीं। इन कोशिकाओं में गुणसूत्रों की जोड़ियां नहीं बल्कि एक ही सेट होता है। अन्य कोशिकाओं के समान इनमें भी ऐसे जेनेटिक हिस्से होते हैं जो इÏम्प्रट पैदा कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन जेनेटिक हिस्सों को एकएक करके हटाया। वे यह देखना चाहते थे कि कौनसे हिस्सों को हटाने से भ्रूण का विकास बाधित नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने एक मादा चूहे की स्टेम कोशिका को दूसरे मादा चूहे के अंडे में प्रविष्ट कराया ताकि बच्चे पैदा हो सकें। ऐसा ही प्रयोग उन्होंने शुक्राण स्टेम कोशिकाओं पर भी किया। एक अंडे में से उसका केंद्रक (यानी जेनेटिक सामग्री) हटा दी। इस केंद्रकविहीन अंडे में उन्होंने एक नर का शुक्राणु और दूसरे नर की शुक्राणु स्टेम कोशिका डाल दी।

तीन जेनेटिक हिस्से हटा देने के बाद शोधकर्ता दो मादाओं से 20 जीवित संतानें पैदा कर पाए। दूसरी ओर, दो नरों से 12 संतान पैदा करवाने के लिए उन्हें सात जेनेटिक हिस्से हटाने पड़े थे। मगर दो नरों से पैदा ये संतानें मात्र दो दिन जीवित रहीं।

यह शोध कार्य चौंकाने वाला ज़रूर है किंतु इससे मुख्य बात यह पता चली है कि वे कौनसे जेनेटिक हिस्से हैं जो स्तनधारियों में संतानोत्पत्ति के लिए ज़रूरी हैं और जिनकी वजह से प्रजनन क्रिया में उन्हें दो लिगों की ज़रूरत पड़ती है। वैसे अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि अब दो स्त्रियां मिलकर बच्चे पैदा करने लगेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चिकित्सा नोबेल पुरस्कार – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से दिया गया है। इन दोनों ने ही कैंसर के उपचार में शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी अनुसंधान किया है। अलबत्ता, कैंसर के उपचार में प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका को समझने के प्रयासों का इतिहास काफी पुराना है।

आम तौर पर कैंसर के उपचार में कीमोथेरपी, विकिरण और सर्जरी का सहारा लिया जाता है। इन सबकी अपनीअपनी समस्याएं है। उनमें न जाते हुए हम बात करेंगे कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र किस तरह से कैंसर का मुकाबला कर सकता है और जब कर सकता है, तो करता क्यों नहीं है। और नए अनुसंधान ने इसे कैसे संभव बनाया है।

यह बात काफी समय से पता रही है कि प्रतिरक्षा तंत्र कैंसर के नियंत्रण में कुछ भूमिका तो निभाता है। जैसे अट्ठारवीं सदी में ही यह समझ में आ गया था कि एकाध लाख मरीज़ों में से एक में कैंसर स्वत: समाप्त हो जाता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दो जर्मन वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से देखा कि कुछ मरीज़ों में एरिसिपेला बैक्टीरिया के संक्रमण के बाद उनका ट्यूमर सिकुड़ गया। इनमें से एक वैज्ञानिक ने 1868 में एक कैंसर मरीज़ को जानबूझकर एरिसिपेला से संक्रमित किया और पाया कि उसका ट्यूमर सिकुड़ने लगा। यह भी देखा गया कि कभीकभी तेज़ बुखार के बाद भी ट्यूमर दब जाता है। 1891 में विलियम कोली नाम के एक सर्जन ने लंबे समय के प्रयोगों के बाद बताया कि 1000 से ज़्यादा मरीज़ों में एरिसिपेला संक्रमण के बाद ट्यूमर सिकुड़ता है। इन सारे अवलोकनों के चलते मामला ज़ोर पकड़ने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संक्रमण के कारण जब शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र सामान्य से ज़्यादा सक्रिय होता है तो वह कैंसर कोशिकाओं को भी निशाना बनाता है।

मगर इस बीच कैंसर के उपचार के लिए कीमोथेरपी और विकिरण चिकित्सा का विकास हुआ और प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका की बात आईगई हो गई। मगर आगे चलकर विलियम कोली की बात सही साबित हुई। 1976 में वैज्ञानिकों की एक टीम ने मूत्राशय के कैंसर के मरीज़ों को बीसीजी की खुराक सीधे मूत्राशय में दी और उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुए। इससे पहले चूहों में बीसीजी टीके का कैंसररोधी असर दर्शाया जा चुका था। बीसीजी का पूरा नाम बैसिलस काल्मेटगुएरिन है और इसे टीबी के बैक्टीरिया को दुर्बल करके बनाया जाता है। आज यह मूत्राशय कैंसर के उपचार की जानीमानी पद्धति है।

यह तो स्पष्ट हो गया कि प्रतिरक्षा तंत्र (कम से कम) कुछ कैंसर गठानों का सफाया कर सकता है। लेकिन आम तौर पर कैंसर इस तंत्र से बच निकलता है और अनियंत्रित वृद्धि करता रहता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है।

प्रतिरक्षा तंत्र कई घटकों से मिलकर बना होता है। इसमें से एक हिस्सा जन्मजात होता है और उसे बाहरी चीज़ों से लड़ने के लिए किसी प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं होती। दूसरा हिस्सा वह होता है जो किसी बाहरी चीज़ के संपर्क में आने पर उसे पहचानना और नष्ट करना सीखता है और इसे याद रखता है। आम तौर पर बाहर से आए किसी जीवाणु वगैरह पर कुछ पहचान चिंह (एंटीजन) होते हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र को यह समझने में मददगार होते हैं कि वह अपना नहीं बल्कि पराया है।

अब कैंसर कोशिकाओं को देखें। यह तो सही है कि कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में कई उत्परिवर्तन यानी म्यूटेशंस के कारण उनकी पहचान थोड़ी अलग हो जाती है, उनकी सतह पर विशेष पहचान चिंह होते हैं और प्रतिरक्षा कोशिकाएं उन्हें पहचान सकती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं एक बात का फायदा उठाती हैं।

हमारी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को कोई शत्रु नज़र आए तो वे उसे मारने के साथसाथ स्वयं की संख्या बढ़ाने लगती हैं। समस्या यह आती है कि यदि यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाए तो हमारे शरीर की शामत आ जाती है क्योंकि ये कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं पर भी हल्ला बोल सकती हैं। ऐसा होने पर कई बीमारियां पनपती हैं जिन्हें स्वप्रतिरक्षा रोग या ऑटोइम्यून रोग कहते हैं। इसलिए प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर कुछ स्विच होते हैं। हमारी सामान्य कोशिकाएं इन स्विच की मदद से इन्हें काम करने से रोकती हैं। कैंसर कोशिकाएं इन्हीं स्विच का उपयोग करके प्रतिरक्षा कोशिकाओं को काम करने से रोक देती हैं। ऐसी स्थिति में होता यह है कि कैंसर कोशिकाएं तो बेलगाम ढंग से संख्यावृद्धि करती रहती हैं किंतु प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या नहीं बढ़ती।

जिस खोज के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार मिला है उसका सम्बंध इन्हीं स्विच से है जो एक तरह से ब्रोक का काम करते हैं। टेक्सास विश्वविद्यालय के ह्रूस्टन स्थित एम.डी. एंडरसन कैंसर सेंटर के जेम्स एलिसन और क्योटो विश्वविद्यालय के तसाकु होन्जो ने अलगअलग काम करते हुए दो ऐसे स्विच खोज निकाले हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र पर ब्रोक का काम करते हैं। एक स्विच का नाम है सायटोटॉक्सिक टीलिम्फोसाइट एंटीजन-4 (सीटीएलए-4) तथा दूसरे का नाम है प्रोग्राम्ड सेल डेथ 1 (पीडी-1)। शोधकर्ताओं ने इन ब्रोक को नाकाम करके प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को सक्रिय करने में सफलता प्राप्त की है और दोनों के ही आधार पर औषधियां बनाई जा चुकी हैं। हालांकि अभी प्रतिरक्षा तंत्र के ब्रोक्स को हटाकर कैंसर से लड़ाई में सफलता कुछ ही किस्म के कैंसर में मिली है किंतु पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही यह एक कारगर विधि साबित होगी।

लेकिन कैंसर कोशिकाओं के पास बचाव के और भी तरीके हैं। इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र पर आधारित कैंसर उपचार की चुनौतियां समाप्त नहीं हुई हैं। जैसे कैंसर कोशिकाएं एक और हथकंडा अपनाती हैं। वे अपने आसपास सामान्य कोशिकाओं का एक सूक्ष्म पर्यावरण बना लेती हैं। दूसरे शब्दों में कैंसर कोशिका सामान्य कोशिकाओं के बीच में छिपी बैठी रहती है और प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं वहां तक पहुंच नहीं पाती। शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि इन कोशिकाओं को उजागर करें ताकि प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें नष्ट कर पाए।(स्रोत फीचर्स)

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आंत और दिमाग की हॉटलाइन

वैज्ञानिकों के दो समूहों ने खोज की है कि हमारी आंतों का सीधा कनेक्शन दिमाग से होता है और यह कनेक्शन तंत्रिकाओं के ज़रिए होता है।

यह तो पहले से ही पता था कि हमारी आंतों के अंदरुनी अस्तर में कई कोशिकाएं होती हैं जो समय-समय पर रक्त वाहिनियों में हारमोन्स छोड़ती हैं। ये हारमोन्स दिमाग में पहुंचकर आंतों का हाल बयां कर देते हैं। दिमाग को पता चल जाता है कि पेट भर गया है या भूखा है। मगर हारमोन्स के ज़रिए दिमाग तक यह संदेश पहुंचाने में लगभग 10 मिनट का समय लगता है। मगर नए अध्ययन दर्शा रहे हैं कि आंतों का दिमाग से वार्तालाप मात्र हारमोन्स के भरोसे नहीं है। इसमें तंत्रिकाओं की भी भूमिका है और आंतों से मस्तिष्क को संदेश विद्युतीय रूप से भी पहुंचाए जाते हैं। और तंत्रिका द्वारा संप्रेषण में चंद सेकंड का ही समय लगता है।

आंतों और मस्तिष्क के बीच तंत्रिका संप्रेषण की खोज की दिशा में पहला कदम यह था कि डरहम विश्वविद्यालय के डिएगो बोहोरक्वेज़ ने इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन में पाया कि आंतों के अस्तर में उपस्थित हारमोन पैदा करने वाली कोशिकाओं में पैरों जैसे उभार हैं। ये उभार तंत्रिका कोशिकाओं के उन उभारों जैसे थे जो दो तंत्रिकाओं के बीच संपर्क बनाने में मददगार होते हैं। बोहोरक्वेज़ ने सोचा कि शायद ये उभार तंत्रिका संदेशों के आवागमन में मदद करते होंगे।

उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर कुछ चूहों की आंतों में एक चमकने वाला वायरस इंजेक्ट कर दिया। यह वायरस तंत्रिकाओं के संपर्क बिंदुओं (सायनेप्स) के माध्यम से फैलता है। साइंस नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि जल्दी ही हारमोन बनाने वाली उक्त कोशिकाओं में चमक पैदा हुई और यह चमक उनके आसपास की कोशिकाओं में भी फैली। ये आसपास की कोशिकाएं वेगस नामक तंत्रिका की कोशिकाएं थीं। मतलब यह हुआ कि हारमोन बनाने वाली कोशिकाएं संदेशों को तंत्रिकाओं के ज़रिए भी आगे बढ़ाती हैं।

जब एक तश्तरी में प्रयोग किए गए तो देखा गया कि हारमोन बनाने वाली कोशिकाओं के उभार वेगस तंत्रिका के साथ जुड़ जाते हैं और सायनेप्स बना लेते हैं। यदि तंत्रिकाओं के माध्यम से संवाद चल रहा है, तो आपके दिमाग को पेट भरने की सूचना काफी जल्दी मिल जानी चाहिए। अब वैज्ञानिक यह जानना चाहते हैं कि मोटापे जैसी समस्याओं से निपटने में इस जानकारी का उपयोग कैसे किया जा सकता है।

इसी से सम्बंधित एक और शोध पत्र में बताया गया है कि जब आंतों की तंत्रिकाओं को लेज़र से उत्तेजित किया गया तो चूहों में सुखानुभूति पैदा हुई। लेज़र किरणों ने चूहों में मूड सुधारने वाले रसायन भी पैदा किए। अब देखना यह है कि इन परिणामों का चिकित्सा के क्षेत्र में क्या उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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‘फेयर एंड लवली’ बनाम ‘डार्क एंड हैंडसम’ – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

किसी चीज़ का नामकरण एक कला है, जो चीज़ का रुतबा बढ़ा या घटा सकती है। सरकारों में और जन संपर्क से जुड़ी संस्थाओं में इस कला का उत्कृष्ट इस्तेमाल किया जाता है। संयुक्त सचिव में एक (संयुक्त) विशेषण होने के बावजूद भी शासन में संयुक्त सचिव का ओहदा सचिव की तुलना में कम है। जहां पूरे भारत का एक उपराष्ट्रपति होता है वहीं जन संपर्क संस्थाओं में दर्जनों हो सकते हैं।

इस तरह के नामकरण कृषि में भी हुए हैं। दलिया और रागी, ज्वार, जौं, बाजरा, वरगु जैसे अनाजों को मोटा अनाज कहा जाता है जबकि गेहूं और चावल को महीन अनाज कहा जाता है। पर ऐसा क्यों? क्या अनाज का आकार इतना मायने रखता है? या यह रंगभेद जैसा है? क्या महीन अनाज ‘फेयर एंड लवली’ हैं और बाजरा जैसे गहरे रंग वाले अनाज दोयम दर्जे के हैं, जिन्हें शहरी लोग नहीं खाते? ऐसी वरीयताएं मूर्खतापूर्ण है। गेहूं-चावल की तुलना में तथाकथित मोटे अनाजों में प्रति ग्राम अधिक पोषण होता है।

हाल ही में यह बात दो पेशेवर संदर्भों में व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हुई। पहला था डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन के सम्मान में आयोजित सेमीनार। यह सेमीनार 7 अगस्त को स्वामीनाथन के 90 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में आयोजित किया गया था। सेमीनार की थीम थी ‘भूख से पूर्ण मुक्ति की चुनौती पूरी करने के लिए विज्ञान, टेक्नॉलाजी और जन नीतियां’। दूसरे शब्दों में, भूख मुक्त दुनिया का लक्ष्य कैसे पूरा करें। क्या दबंग लक्ष्य है! दूसरा, कोलंबिया विश्वविद्यालय की डॉ. रुथ डीफ्राइस और उनके सहकर्मियों द्वारा साइंस पत्रिका के 17 जुलाई के अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट में, जिसका शीर्षक है: ‘भूमि के अभाव में कृषि के मानक’ और उपशीर्षक है ‘पौष्टिकता को योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए’।

स्वामिनाथन ‘हरित क्रांति’ के योजनाकार रहे हैं। हरित क्रांति से भारत का खाद्य उत्पादन 60 सालों में 5 गुना बढ़ गया। इसकी बदौलत 4 गुना बढ़ी जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति होती है। (डीफ्राइस और अन्य भी यही कहते हैं कि खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि के चलते अनाज आपूर्ति में 3.2 गुना की वृद्धि हुई है और इसने 2.3 गुना बढ़ी जनसंख्या को पीछे छोड़ दिया है।) पिछले कुछ वर्षों में स्वामिनाथन ने ‘सदाहरित क्रांति’ की ज़रूरत पर बल दिया है। उनके द्वारा उजागर की गई ‘छिपी भूख’ को संबोधित करने की ज़रूरत है।

भूख का मतलब तो हम सभी समझते हैं मगर यह ‘छिपी भूख’ क्या बला है? चाहे हम गेहूं और चावल का अधिक उत्पादन और अधिक खपत कर रहे हैं तो भी क्या हमारे शरीर और मस्तिष्क को विकास और वृद्धि के लिए पर्याप्त पोषण मिला है? छिपी भूख का सम्बंध स्टार्च से मिली कैलोरी के अलावा शरीर में बाकी ज़रूरी पोषक तत्वों की पूर्ति से है। ये विटामिन, लौह, जस्ता, आयोडीन, कैल्शियम और अन्य तत्व हैं, जिन्हें ‘सूक्ष्म पोषक तत्व’ कहते हैं। इनकी शरीर में थोड़ी मात्रा में ज़रूरत होती है। पोषक तत्वों के मामले में मोटे अनाज गेहूं और चावल से बाजी मार लेते हैं। (गांधीजी संभवत: यह बात जानते थे, इसीलिए वे चाहते थे कि हम अनाज को पॉलिश ना करें बल्कि हाथ से कुटा धान खाएं। इस प्रक्रिया में सूक्ष्म पोषक तत्व सुरक्षित रहते हैं)। मक्का, जई या बाजरा की तुलना में महीन अनाज में आयरन और ज़िंक की बहुत कम मात्रा होती है। बाजरा में आयरन की मात्रा चावल से चार गुना अधिक है। जौं में ज़िंक गेंहू की तुलना में चार गुना ज़्यादा है। और सारे अनाज़ों की तुलना में मक्के में सबसे ज़्यादा पोषण है। ग्रामीण गरीब ज़्यादातर यही मोटे अनाज खाते हैं, पर अफसोस कि यह उन्हें पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता।

तो कृषि क्रांति के अगले चरण में हम कैसी योजना बनाएं कि पूरी दुनिया को संपूर्ण आहार मुहैया करा सकें, ना कि सिर्फ कैलोरी युक्त अनाज। पर्यावरणीय परिणामों – अधिक मात्रा में उर्वरक पानी की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, कीटनाशकों का विषैलापन, जैव विविधता में कमी वगैरह – के चलते हरित क्रांति की आलोचना की गई है (चिड़िया द्वारा खेत चुग लिए जाने के बाद)।

इसे ज़्यादा स्वीकार्य बनाने के प्रयास चालू हो चुके हैं। अपेक्षा है कि पोषण युक्त मोटे अनाज की खेती पर्यावरण पर कम दबाव डालेगी (कम पानी और उर्वरक की ज़रूरत) और इसके अधिक पर्यावरण अनुकूल होने की भी उम्मीद है।

वास्तव में हमें अपनी सोच बदलने और मिश्रित खेती की रणनीति अपनाने की ज़रूरत है। डीफ्राइस के अनुसार उत्पादन को टन प्रति हैक्टर में नापने (जैसा आज किया जाता है) की बजाय हमें एक नया पैमाना अपनाना चाहिए, जिसे उन्होंने ‘पोषण उपज’ कहा है। इसका मतलब यह है कि प्रति वर्ष 1 हैक्टर में इतना खाद्य उत्पादन हो कि 100 वयस्कों को साल भर ज़रूरी पौष्टिक भोजन मिल सके।

इस नए पैमाने का उपयोग मिश्रित फसलों की ऐसी नीतियां तैयार करने के लिए किया जा सकता है जिनमें पोषण युक्त अनाज और पैदावार का संतुलन बना रहे। यह छिपी भूख की समस्या का समाधान करेगा और आने वाली पीढ़ी स्वस्थ और सुपोषित होगी।

अलग तरह से कहें, तो ‘डार्क एंड हैंडसम’ और ‘फेयर एंड लवली’ साथ-साथ चलें ताकि दुनिया भर के 16.5 करोड़ (अकेले भारत में 2.3 करोड़) कुपोषित बच्चों की संख्या को अगले एक दशक में बहुत कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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थोड़ी-सी शराब भी हानिकारक है – भरत डोगरा

शराब बनाने वाली कंपनियों ने तरह-तरह के मिथक फैलाने के कुप्रयास किए, पर आखिर विशेषज्ञों के बहुचर्चित अध्ययन में यह तथ्य सामने आ गया कि शराब की थोड़ी-सी मात्रा भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

यह तो सब जानते हैं कि शराब स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है, पर शराब उद्योग यह मिथक फैलाने के लिए प्रयासरत रहा है कि थोड़ी-सी शराब पीने से नुकसान नहीं होता है। यह केवल एक मिथक ही है। सच्चाई हाल के अध्ययन में सामने आई है जो प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल दी लैंसेट में अगस्त 24 को प्रकाशित हुआ।

लगभग 500 विशेषज्ञों के समूह के मुख्य लेखक मैक्स ग्रिसवोल्ड ने इस अध्ययन के निष्कर्ष के बारे में बताया है, “अल्कोहल की कोई ऐसी सुरक्षित मात्रा नहीं है (न्यूनतम मात्रा से भी नुकसान होता है)। आगे जैसे-जैसे अल्कोहल का प्रतिदिन का उपयोग बढता जाता है, वैसे-वैसे स्वास्थ्य के खतरे भी बढ़ते जाते हैं।”

यदि शराब न पीने वालों की दुनिया से तुलना करें तो एक दिन में मात्र एक ड्रिंक (यानि 10 ग्राम अल्कोहल) लेने से एक वर्ष में विश्व में एक लाख मौतें अधिक होंगी।

इस अध्ययन में 24 स्वास्थ्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए बताया गया है कि एक दिन में यदि 5 ड्रिंक शराब ली जाए तो स्वास्थ्य समस्याएं 37 प्रतिशत बढ़ जाती हैं।

15 से 49 वर्ष आयु वर्ग के पुरुषों को देखें तो 12 प्रतिशत मौतें शराब के कारण होती हैं। इस आयु वर्ग में मौत प्राय: बहुत दुखद व परिवार के लिए बहुत संकट की स्थिति पैदा करती है। यह एक बडी चेतावनी है कि इस आयु में 12 प्रतिशत मौतें मात्र शराब के कारण होती हैं।

विश्व में लगभग 32.5 प्रतिशत लोग शराब का सेवन करते हैं। (39 प्रतिशत पुरुष, 25 प्रतिशत महिलाएं)।

विभिन्न अध्ययनों के अनुसार एक वर्ष में 28 लाख से 33 लाख मौतें शराब के कारण होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कंप्यूटर बताएगा रसायनों का विषैलापन

म रोज़ाना कई रसायनों का उपयोग करते हैं। ये रसायन औषधियों से लेकर सौंदर्य प्रसाधन सामग्री तक में इस्तेमाल किए जाते हैं। किंतु उन चीज़ों को बाज़ार में उतारने से पहले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी होता है कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है, आखों में जलन पैदा नहीं करेंगे, चमड़ी पर फुंसियां पैदा नहीं करेंगे वगैरह। और इस जांच के लिए आम तौर पर जंतुओं पर प्रयोग किए जाते हैं। लेकिन अब कंप्यूटर विशेषज्ञों ने एक ऐसी विधि तैयार की है जिसमें जंतु प्रयोगों की ज़रूरत नहीं रहेगी या बहुत कम हो जाएगी।

रसायनों की विषाक्तता की जांच आम तौर पर चूहों, खरगोशों और गिनी पिग्स (एक प्रकार का चूहा) पर की जाती है। किंतु इन जांच के परिणाम बहुत वि·ासनीय नहीं होते और ये प्रयोग बहुत महंगे भी होते हैं। नैतिकता व जंतु अधिकारों के सवाल तो इन प्रयोगों के साथ जुड़े ही हैं।

कंप्यूटर आधारित विधि का प्रकाशन थॉमस ल्यूक्टफेल्ड और साथियों ने टॉक्सिकोलॉजिकल साइन्सेज़ नामक शोध पत्रिका में किया है। यह विधि एक विशाल डैटाबेस पर आधारित है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने पिछले वर्षों में किए गए लगभग 8 लाख जंतु प्रयोगों के आंकड़े शामिल किए हैं। ये प्रयोग 10,000 रसायनों के परीक्षण से सम्बंधित हैं।

एक कंप्यूटर प्रोग्राम में ये सारे आंकड़े डाल दिए गए हैं। अब यह प्रोग्राम इनका विश्लेषण करके इन रसायनों को संरचना के आधार पर विषाक्तता के विभिन्न समूहों में रखता है। आजकल इस तरीके का उपयोग खूब हो रहा है और इसे मशीन लर्निंग कहते हैं जिसमें कंप्यूटर प्रोग्राम विशाल आंकड़ों के आधार पर पैटर्न निर्मित करता है।

इस विधि का उपयोग करते हुए शोधकर्ताओं ने कई रसायनों के जोखिमों की सही-सही भविष्यवाणी करने में सफलता प्राप्त की है। यहां तक कि उन्होंने नए रसायनों की विषाक्तता की भी भविष्यवाणी की है। अब यह कंप्यूटर प्रोग्राम व्यापारिक रूप से उपलब्ध कराने की योजना है। (स्रोत फीचर्स)

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एक अनुपस्थित रोग की दवा

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1980 में ऐलान कर दिया था कि दुनिया से चेचक का सफाया हो चुका है। चेचक से आखरी मरीज़ की मृत्यु 1978 में हुई थी। और अब एक आश्चर्यजनक आदेश के तहत चेचक के लिए एक नहीं बल्कि दो दवाइयों को मंज़ूरी मिली है। यह मंज़ूरी यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने पिछले माह दी है।

आखिर एक ऐसी बीमारी के लिए दोदो दवाइयों को मंज़ूरी क्यों दी गई है, जिसका सफाया 40 साल पहले हो चुका है। इसके कई कारण बताए जा रहे हैं। जैसे एक कारण तो यह बताया जा रहा है कि हालांकि चेचक रोग का सफाया हो चुका है किंतु चेचक पैदा करने वाले वायरस का सफाया नहीं हुआ है। चेचक उन्मूलन के बाद इसके वायरस के नमूने दो जगहों पर संभालकर रख दिए गए थे। एक स्थान था यूएस में अटलांटा स्थित रोग नियंत्रण व रोकथाम केंद्र और दूसरा स्थान था रूस में नोवोसिबिर्स्क स्थित वेक्टर नामक केंद्र। यहां इस वायरस को अनुसंधान की दृष्टि से सहेजकर रखा गया है। हाल ही में पता चला था कि यूएस के राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान में भी इस वायरस के नमूने रखे हुए हैं।

विश्व स्वास्थ्य सभा में इन वायरसों को नष्ट करने का मुद्दा कई बार उठा है और तारीखें भी तय की गई हैं किंतु हर बार विशेषज्ञ तारीखों को आगे बढ़वाते रहे हैं। विशेषज्ञों का तर्क है कि हो सकता है कि चेचक का वायरस मनुष्यों से रुखसत होने के बाद प्रकृति में मौजूद हो और किसी समय फिर से सिर उठाए। इसलिए इन नमूनों को रखना ज़रूरी है ताकि ज़रूरत पड़ने पर दवा या टीका बनाया जा सके। एक आशंका यह भी व्यक्त की गई है कि हो सकता है कि ममियों में या दफन कर दी गई लाशों में या बर्फ में दबे शवों में यह वायरस छिपा बैठा हो। फिर एक आशंका यह भी है कि इस वायरस का इस्तेमाल कोई आतंकी संगठन कर सकता है। ऐसा हुआ तो हमारे पास इनका नमूना होना चाहिए। और तो और, यह भी कहा जा रहा है कि हो सकता है कि कोई प्रयोगशाला इस वायरस का नए सिरे से निर्माण कर ले और वह जानबूझकर या गलती से पर्यावरण में फैल जाए।

कुल मिलाकर यह कहा जा रहा है कि एक ऐसे वायरस के खिलाफ दवा बनाना और ऐसी दवा के भंडार रखना मानवता के लिए अनिवार्य है जिसका सफाया चार दशक पूर्व किया जा चुका है। जब हमारे पास कई ऐसी बीमारियों के लिए दवाइयां नहीं हैं जो फिलहाल मौजूद हैं, तो यह तर्क आसानी से गले नहीं उतरता। (स्रोत फीचर्स)

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बायोमार्कर देगा सिलिकोसिस की जानकारी – नवनीत कुमार गुप्ता

गातार और लंबे समय तक सिलिका धूलकणों के संपर्क में रहने से सिलिकोसिस रोग होता है। सिलिकोसिस के लक्षण सिलिका धूलकणों के संपर्क में आने के कुछ हफ्तों से लेकर कई वर्षों बाद तक प्रकट हो सकते हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 30 लाख लोग सिलिका के संपर्क में रहने का गंभीर जोखिम झेलते हैं। 95 प्रतिशत ज्ञात चट्टानों में सिलिका मुख्य रूप से पाया जाता है। यह भी देखा गया है कि खनन एवं खदानों में लगे 50 प्रतिशत से अधिक मज़दूरों पर सिलिका के संपर्क का खतरा मंडराता रहता है।

सिलिका कणों के फेफड़ों में पहुंचने पर फेफड़ों में धब्बे पड़ने लगते हैं। खांसी इसका शुरुआती लक्षण है जो सिलिका के निरंतर प्रवेश से बढ़ती जाती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने सिलिकोसिस की पुष्टि के लिए पारंपरिक एक्स-रे, मेडिकल हिस्ट्री और स्टैंडर्ड लंग फंक्शन टेस्ट आवश्यक बताए हैं। दुर्भाग्यवश इन जांचों से भी इसकी पुष्टि तभी संभव हो पाती है जब रोग अंतिम चरण में पहुंच चुका होता है।

भारत में सिलिकोसिस के निदान के लिए सही ढंग से एक्स-रे को समझने में प्रशिक्षित व माहिर रेडियोलाजिस्ट की कमी मुख्य चुनौती है। इस रोग से प्रभावित लोगों के सिलिका धूलकणों के लगातार संपर्क में रहने के कारण चिकित्सकों के लिए इसकी रोकथाम और भी मुश्किल हो जाती है। यही नहीं, भारत में ज़्यादातर चिकित्सक पेशेजनित स्वास्थ्य रोगों की रोकथाम के लिए प्रशिक्षित भी नही हैं।

सिलिकोसिस के रोगियों में अन्य बीमारियों, जैसे टीबी, फेफड़ों में कैंसर और जीर्ण दमा का जोखिम भी बढ़ जाता है। सिलिकोसिस के लक्षण टीबी के लक्षणों से मिलते-जुलते होने के कारण भी इसकी पहचान आसान नहीं है। टीबी रोगाणुओं की घुसपैठ के कारण सिलिकोटिक नोड्यूल्ज़ की गलत पहचान होने से भी सिलिकोसिस के रोगियों के एक्स-रे की व्याख्या करना मुश्किल हो जाता है।

कुल मिलाकर, सिलिकोसिस का जल्दी पता लगाने की कोई भी उपयुक्त निदान पद्धति उपलब्ध नहीं है। इस संदर्भ में अहमदाबाद के राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक  डॉ. कमलेश सरकार और उनकी टीम ने सिलिकोसिस के लिए एक संभावित बायोमार्कर खोजने पर शोध किया है। उन्होंने फेफड़ों की छोटी-छोटी वायु-थैलियों की कोशिकाओं में पाए जाने वाले खून में क्लब सेल प्रोटीन (cc16) की खोज की है।

भारत और अन्य देशों में अनेक बायोमार्करों पर प्रयोग हुए हैं। लेकिन इनमें से cc16 के अलावा कोई भी इस रोग विशेष से अधिक सम्बंधित नहीं था। यदि cc16 को सिलिकोसिस का पता लगाने वाले बायोमार्कर के रूप में प्रयोग किया जाए तो यह उन लोगों के लिए फायदेमंद होगा जिनमें सिलिकोसिस शुरू हो रहा है। जब सिलिका के कण फेफड़ों में प्रवेश करते हैं, तब वे फेफड़ों की कोशिकाओं को नष्ट कर देते हैं। जिससे cc16 खून में पहुंचने लगता है। cc16 के स्तर के आधार पर सिलिकोसिस की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है और इसकी रोकथाम के उपाय किए जा सकते हैं। cc16 नामक यह बायोमार्कर सिलिकोसिस निदान की वर्तमान नीति में संशोधन करने के साथ ही, ऐसे रोगियों के लिए स्वास्थ्य योजना तैयार करने का भी आधार बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारी की गोपनीयता पर उठे नैतिकता के सवाल

रीज़ का इलाज करते समय चिकित्सकों के कुछ दायित्व होते हैं। कुछ देशों में डॉक्टर का अपने मरीज़ के मर्ज़ को गोपनीय रखना एक महत्वपूर्ण दायित्व है, चाहे मर्ज़ कितना भी गंभीर हो।

गोपनीयता के इस दायित्व के साथ अधिकार सम्बंधी सवाल उठे हैं। जैसे यदि मरीज़ की ऐसी गंभीर आनुवंशिक बीमारी का पता चलता है जिसके उसके बच्चों में होने की संभावना हो तो इस परिस्थिति में डॉक्टर के दायित्व क्या और किसके प्रति होंगे? एक तरफ तो मरीज़ की गोपनीयता का सवाल है और दूसरी ओर मरीज़ के परिजनों को बीमारी होने की आशंका के बारे में उन्हें जानने का हक है।

साल 2013 में एक मामला सामने आया था। एक महिला ने अदालत में मुकदमा दायर किया था कि डॉक्टर ने उन्हें पिता की गंभीर आनुवंशिक बीमारी (हंटिंगटन) के बारे मे आगाह नहीं किया। उस वक्त भी नहीं जब वह गर्भवती थी। बीमारी की गंभीरता जानते हुए डॉक्टर को पिता की मर्ज़ी के खिलाफ उन्हें आगाह करना चाहिए था ताकि वे शिशु को जन्म देने के निर्णय को बदल पातीं।

2017 में यूके की एक अदालत ने कहा था कि यदि बीमारी गंभीर आनुवंशिक हो तो डॉक्टर के दायित्व का दायरा उसके परिजनों तक बढ़ जाता है। किंतु इसके चलते मरीज़ और डॉक्टर के बीच का विश्वास टूटता है। उम्मीद है कि 2019 में यह केस ट्रायल के लिए जाएगा। कोर्ट शायद यह कहे कि यदि बीमारी आनुवंशिक हो तो गोपनीयता का दायरा मरीज़ के बच्चों तक बढ़ जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो मरीज़ के परिजन मरीज़ के रिकार्ड की मांग करने लगेंगे। पिछले कई सालों में इस तरह के और भी मामले उठे हैं।

लाइसेस्टर लॉ स्कूल के लेक्चरर रॉय गिबलर और ग्रीन टेम्पटन कॉलेज के प्रोफेसर चाल्र्स फोस्टर का कहना है कि उपरोक्त फैसला ना सिर्फ मरीज़ के प्रति डॉक्टर के दायित्व को फिर से परिभाषित कर सकता है बल्कि ‘मरीज़’की परिभाषा को भी बदल सकता है।

एडिनबरा युनिवर्सिटी के चिकित्सा न्यायशास्त्र के प्रोफेसर ग्रेएम लॉरी के मुताबिक यह डॉक्टर के लिए असमंजस की स्थिति होगी कि उनकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी किसके प्रति है – मरीज़ के प्रति या उसके परिजन के प्रति। हो सकता है डॉक्टर बीमारी को सिर्फ इसलिए उजागर करें क्योंकि यह कानूनी तौर पर ज़रूरी माना जाएगा।

गोपनीयता से सम्बंधित एक अध्ययन में गंभीर आनुवंशिक बीमारी को परिजनों को बताए जाने के बारे में डॉक्टर, मरीज़ और लोगों की राय ली गई थी। देखा गया कि ज़्यादातर लोग गंभीर बीमारियों के बारे में अपने परिजनों को बता देते हैं या बताना चाहते हैं। पर कुछ लोग दोषी ठहराए जाने, ताल्लुक अच्छे ना होने, सही वक्त ना होने, साफ-साफ ना कह पाने जैसे कारणों के चलते नहीं बता पाते। एक अध्ययन में 30 प्रतिशत मरीज़ उनकी बीमारी के बारे में उनकी मर्ज़ी के खिलाफ परिजनों को बताने के पक्ष में थे जबकि 50 प्रतिशत लोगों ने कहा कि इसके लिए डॉक्टर को सज़ा मिलनी चाहिए। एक अन्य अध्ययन में एक चौथाई से भी कम मरीज़ उनकी मर्ज़ी के विपरीत परिजनों के बताने के पक्ष में थे जबकि एक अन्य अध्ययन में रिश्तेदारों के नज़रिए से सोचने पर आधे से ज़्यादा लोग परिजनों को बताने के पक्ष में थे।

आनुवंशिक बीमारियो के मामले में दो अंतर्राष्ट्रीय संधियां ‘ना जानने के अधिकार’के बारे में बात करती हैं। यदि यह फैसला आता है तो उन लोगों के इस अधिकार के बारे में क्या होगा जो बीमारी होने की आशंका के बारे में नहीं जानना चाहते और बेखौफ ज़िंदगी बिताना चाहते हैं। मामला काफी पेचीदा है और निष्कर्ष आसानी से निकलने वाला नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टेस्ट ट्यूब शिशु के चालीस साल

लुईस ब्राउन वह पहली बच्ची थी जिसका जन्म टेस्ट ट्य़ूब बेबी नाम से लोकप्रिय टेक्नॉलॉजी के ज़रिए हुआ था। आज वह 40 वर्ष की है और उसके अपने बच्चे हैं। एक मोटेमोटे अनुमान के मुताबिक इन 40 वर्षों में दुनिया भर में 60 लाख से अधिक टेस्ट ट¬ूब बच्चेपैदा हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया की 3.5 प्रतिशत आबादी टेस्ट ट्यूब तकनीक से पैदा हुए लोगों की होगी। इनकी कुल संख्या 40 करोड़ के आसपास होगी।

वैसे इस तकनीक का नाम टेस्ट ट्यूबबेबी प्रचलित हो गया है किंतु इसमें टेस्ट ट्यूब का उपयोग नहीं होता। किया यह जाता है कि स्त्री के अंडे को शरीर से बाहर एक तश्तरी में पुरुष के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है और इस प्रकार निर्मित भ्रूण को कुछ दिनों तक शरीर से बाहर ही विकसित किया जाता है। इसके बाद इसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है और बच्चे का विकास मां की कोख में ही होता है।

इस तकनीक को सफलता तक पहुंचाने में ब्रिटिश शोधकर्ताओं को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। भ्रूण वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवड्र्स ने अंडे का निषेचन शरीर से बाहर करवाया, जीन पर्डी ने इस भ्रूण के विकास की देखरेख की और स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक स्टेपटो ने मां की कोख में बच्चे की देखभाल की थी। लेकिन प्रथम शिशु के जन्म से पहले इस टीम ने 282 स्त्रियों से 457 बार अंडे प्राप्त किए, इनसे निर्मित 112 भ्रूणों को गर्भाशय में डाला, जिनमें से 5 गर्भधारण के चरण तक पहुंचे। आज यह एक ऐसी तकनीक बन चुकी है जो सामान्य अस्पतालों में संभव है।

बहरहाल, इस तरह प्रजनन में मदद की तकनीकों को लेकर नैतिकता के सवाल 40 साल पहले भी थे और आज भी हैं। इन 40 सालों में प्रजनन तकनीकों में बहुत तरक्की हुई है। हम मानव क्लोनिंग के काफी नज़दीक पहुंचे हैं, भ्रूण की जेनेटिक इंजीनियरिंग की दिशा में कई कदम आगे बढ़े हैं, तीन पालकों वाली संतानें पैदा करना संभव हो गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह की तकनीकों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो ऐसे परिवर्तन करती है जो कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेंगे। कहीं ऐसी तकनीकें लोगों को डिज़ायनर शिशु (यानी मनचाही बनावट वाले शिशु) पैदा करने को तो प्रेरित नहीं करेंगी?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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