जापान एक बार फिर एक क्षुद्रग्रह के नमूने पृथ्वी पर लाने में
सफल रहा है। इन नमूनों पर वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी पर पानी और कार्बनिक अणुओं के
प्राचीन वितरण के सुरागों की छानबीन की जाएगी। हयाबुसा-2 का कैप्सूल रयूगू
क्षुद्रग्रह का लगभग 5.3 अरब किलोमीटर का फासला तय करके 6 दिसंबर को ऑस्ट्रेलिया
के वूमेरा रेगिस्तान में पैराशूट से उतारा गया। इसके बाद एक हेलीकॉप्टर की मदद से
कैप्सूल को सुरक्षित जापान ले जाया गया।
गौरतलब है कि हयाबुसा-2 को जापान एयरोस्पेस
एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जाक्सा) द्वारा 2014 में प्रक्षेपित किया गया था। इसने 18
महीनों तक रयूगू का चक्कर लगते हुए दूर से अवलोकन किया। इस दौरान डैटा एकत्र करने
के लिए क्षुद्रग्रह पर कई छोटे रोवर भी उतारे गए। इसके अलावा सतह और सतह के नीचे
से नमूने एकत्रित करने के लिए दो बार यान क्षुद्रग्रह पर उतरा भी। इसका उद्देश्य
100 मिलीग्राम कार्बन युक्त मृदा और चट्टान के टुकड़े एकत्र करना था। नमूने की असल
मात्रा तो टोक्यो स्थित क्लीन रूम में कैप्सूल को खोलने के बाद ही पता चलेगी।
इसके पहले 2010 में हयाबुसा मिशन के तहत ही
इटोकावा क्षुद्रग्रह से सामग्री पृथ्वी पर लाई गई थी। क्षुद्रग्रहों में दिलचस्पी
का कारण उनमें उपस्थित वह पदार्थ है जो 4.6 अरब वर्ष पूर्व सौर मंडल के निर्माण के
समय से मौजूद है। ग्रहों पर होने वाली प्रक्रियाओं के विपरीत यह सामग्री दबाव एवं
गर्मी के प्रभाव से परिवर्तित नहीं हुई है और अपने मूल रूप में मौजूद है।
वास्तव में रयूगू एक कार्बनमय या सी-प्रकार
का क्षुद्रग्रह है जिसमें कार्बनिक पदार्थ और हाइड्रेट्स मौजूद हैं। इन दोनों में
रासायनिक रूप से बंधा हुआ पानी काफी मात्रा में होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार जब
इस तरह के क्षुद्रग्रह अरबों वर्ष पहले नवनिर्मित पृथ्वी से टकराए होंगे तब इन
मूलभूत सामग्रियों से जीवन की शुरुआत हुई होगी। वैसे दूर से किए गए अवलोकनों से
संकेत मिल चुके हैं यहां पानी युक्त खनिज और कार्बनिक पदार्थ मौजूद है।
रयूगू पर पानी की मात्रा के आधार पर पता
लगाया जा सकेगा कि अरबों वर्ष पहले पृथ्वी पर क्षुद्रग्रहों से कितना पानी आया है।
नासा के अवलोकनों के अनुसार बेनू क्षुद्रग्रह पर रयूगू से अधिक मात्रा में पानी
है।
बहुत कम वैज्ञानिक क्षुद्रग्रहों के ज़रिए
पृथ्वी पर जीवन के आगमन के विचार के समर्थक हैं। अलबत्ता,
रयूगू जैसे
क्षुद्रग्रहों से उत्पन्न कार्बन युक्त उल्कापिंडों से अमीनो अम्ल और यहां तक कि
आरएनए भी उत्पन्न होने के संकेत मिले हैं। तो हो सकता है कि प्राचीन पृथ्वी पर
जीवन की उत्पत्ति जैविक-पूर्व रासायनिक क्रियाओं के कारण हुई हो। अत: रयूगू से
प्राप्त सामग्री के विश्लेषण में कई अन्य वैज्ञानिक रुचि ले रहे हैं।
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में कैप्सूल को छोड़ने के बाद हयाबुसा-2 एक बार फिर 1998 केवाय-26 क्षुद्रग्रह के मिशन पर रवाना हो गया है। यान के शेष र्इंधन के आधार पर जाक्सा को उम्मीद है कि हयाबुसा अपने नए मिशन में भी सफल रहेगा। इसी बीच नासा के ओसिरिस-रेक्स मिशन के तहत सितंबर 2023 में बेनू क्षुद्रग्रह से नमूने प्राप्त होने हैं। नासा और जाक्सा अपने-अपने मिशनों से प्राप्त नमूनों की अदला-बदली पर भी सहमत हुए हैं। इकोटावा नमूनों सहित तीनों नमूनों की तुलना करने पर सौर मंडल के निर्माण सम्बंधी काफी जानकारियां प्राप्त हो सकती हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/hayabusa_1280p.jpg?itok=50kUWjQu
दुनिया राजनैतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से उथल-पुथल
के दौर में है। ऐसी परिस्थिति में महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग यह कहकर धरती से
रुखसत हो चुके हैं कि महज़ 200 वर्षों के भीतर मानव जाति का अस्तित्व हमेशा के लिए
खत्म हो सकता है और इस संकट का एक ही समाधान है कि हम अंतरिक्ष में कॉलोनियां
बसाएं।
हाल के वर्षों में हुए अनुसंधानों से पता
चलता है कि भविष्य में पृथ्वीवासियों द्वारा रिहायशी कॉलोनी बनाने के लिए सबसे
उपयुक्त स्थान हमारा पड़ोसी ग्रह मंगल है। मंगल ग्रह और पृथ्वी में अनेक समानताएं
हैं। हालांकि मंगल एक शुष्क और ठंडा ग्रह है,
लेकिन वहां पानी, कार्बन
डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन आदि मौजूद हैं जो इसे जीवन के अनुकूल बनाते हैं।
मंगल अनोखे रूप से सर्वाधिक उपयोगी और उपयुक्त ग्रह है। मंगल अपनी धुरी पर एक
चक्कर लगाने में लगभग पृथ्वी के बराबर समय लेता है। मंगल पर पृथ्वी के समान
ऋतुचक्र होता है। पृथ्वी की तरह मंगल पर भी वायुमंडल मौजूद है, हालांकि
बहुत विरल है।
हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा
ने एक रिव्यू रिपोर्ट के ज़रिए यह घोषणा की है कि वह युरोपियन स्पेस एजेंसी ईसा के
साथ मिलकर ‘मार्स सैम्पल रिटर्न मिशन’ के तहत मंगल ग्रह की सतह के नमूने पृथ्वी पर
लाएगा। इसकी बड़ी वजह यह है कि अगर हमें मंगल ग्रह के बारे में अच्छे से जानना है, तो
हमें उसकी सतह के नमूनों का बारीकी से अध्ययन करना होगा। इसी से हम यह जान सकेंगे
कि मंगल ग्रह की सतह में किस प्रकार के कार्बनिक अणु मौजूद हैं, और
क्या वहां किसी तरह की फसल उगाई जा सकती है।
नमूने इकट्ठा करके धरती पर लाने के लिए
रोवर, लैंडर और ऑर्बाइटर का निर्माण काफी पहले ही शुरू हो चुका
है। इसके लिए मंगल पर कुछ खास प्रयोग और अन्वेषण करने के लिए ‘परसेवियरेंस रोवर’
रवाना हो चुका है और जो फरवरी में मंगल पर पहुंचेगा।
परसेवियरेंस का मंगल पर सबसे महत्वपूर्ण
प्रयोग है ऑक्सीजन का उत्पादन। इसके लिए रोवर के साथ मार्स ऑक्सीजन इनसीटू रिसोर्स
युटिलाइजेशन एक्सपेरिमेंट (मॉक्सी) भेजा है। मॉक्सी मंगल की कार्बन डाईऑक्साइड को
ऑक्सीजन में बदलने का काम करेगा, जो भविष्य के मंगल यात्रियों के लिए स्वच्छ
जीवनदायक हवा मुहैया कराएगी।
परसेवियरेंस अलग-अलग स्थानों से मंगल ग्रह की सतह में मौजूद मिट्टी और चट्टानों के नमूने इकट्ठा करेगा। दूसरे चरण में ईसा का ‘एक्सोमार्स रोवर’ परसेवियरेंस रोवर द्वारा इकट्ठा किए गए सैंपल कैपस्यूल्स को अलग-अलग स्थानों से उठाकर एक जगह पर इकट्ठा करेगा। तीसरे चरण में एक्सोमार्स रोवर इन कैपस्यूल्स को ‘मार्स सैंपल रिट्रीवल लैंडर’ तक ले जाएगा। मार्स सैंपल रिट्रीवल लैंडर अपने विशेष सॉलिड रॉकेट की सहायता से इन कैपस्यूल्स को मंगल ग्रह की कक्षा में तकरीबन 350 कि.मी. की ऊंचाई तक भेजेगा। चौथे चरण में ईसा का ‘अर्थ रिटर्न ऑर्बाइटर’ इन सैंपल कैपस्यूल्स को एक विशेष कंटेनर में इकट्ठा करेगा और अपने सोलर इलेक्ट्रिक आयन इंजन के ज़रिए धरती तक लाएगा। नासा के प्रशासक जिम ब्रिडेनस्टीन के मुताबिक अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो 2030 तक यह विशेष कंटेनर, सैंपल कैपस्यूल्स के साथ धरती पर उतर सकता है और करीब 500 ग्राम सैंपल हमें अध्ययन के लिए मिल जाएगा!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nasa.gov/sites/default/files/thumbnails/image/journey_to_mars.jpeg
इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार ब्लैक होल के लिए दिया
गया है। ब्लैक होल भौतिकी की एक रोमांचक गुत्थी रही है और आज भी यह कई सवालों को
जन्म देती है। इस वर्ष के पुरस्कार ने एक बार फिर विज्ञान की मूलभूत प्रकृति को
उजागर किया है। इसमें एक ओर तो सैद्धांतिक परिकल्पनाएं और सिद्धांत विकसित करना
तथा दूसरी ओर उन परिकल्पनाओं/सिद्धांतों को यथार्थ के धरातल पर परखना शामिल है।
इस वर्ष के पुरस्कार का आधा हिस्सा 92
वर्षीय रॉजर पेनरोज़ को दिया गया है और शेष आधा हिस्सा राइनहार्ड गेंज़ेल तथा
एंड्रिया गेज़ के बीच बंटा है।
सबसे पहले तो यह समझ लें कि ब्लैक होल
(कृष्ण विवर) होते क्या हैं। ये अत्यंत भारी और सघन पिंड होते हैं। इनका
गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होता है कि कोई भी चीज़ इन्हें छोड़कर जा नहीं पाती। और तो
और, प्रकाश जैसी द्रुतगामी चीज़ भी ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण
में फंसकर रह जाती है।
अल्बर्ट आइंस्टाइन ने 1915 में सामान्य
सापेक्षता का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। इस सिद्धांत ने गुरुत्वाकर्षण की ज़्यादा
संतोषजनक व्याख्या की और बताया कि कैसे वज़नदार पिंड अपने आसपास के स्थान और समय को
तोड़ते-मरोड़ते हैं। इस सिद्धांत ने सूर्य के आसपास ग्रहों के परिक्रमा पथों की
व्याख्या की, आकाशगंगा के केंद्र के इर्द-गिर्द सूर्य की परिक्रमा की
व्याख्या की। कोई भी भारी पिंड स्थान को विकृत करता है और समय की चाल को धीमा कर
देता है। और अत्यंत भारी हो तो वह स्थान के एक टुकड़े को इस तरह अपने में समा लेता
है कि वह बाहर से अदृश्य हो जाता है। ऐसे भारी सघन पिंड को ब्लैक होल कहते हैं।
आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत
का एक तकाज़ा यह था कि ब्लैक होल का अस्तित्व होना चाहिए। पेनरोज़ ने निहायत जटिल
एवं नवाचारी गणनाओं के द्वारा यह दर्शाया था कि ब्लैक होल वास्तव में हो सकते हैं।
वैसे सिद्धांत के प्रकाशन के चंद हफ्तों बाद ही जर्मन भौतिक शास्त्री कार्ल श्वार्ज़चाइल्ड
ने ब्लैक होल सम्बंधी भविष्यवाणी प्रस्तुत की थी। आगे अध्ययनों से पता चला था कि
जब कोई ब्लैक होल बनता है तो उसके आसपास एक सीमा होती है जिसे इवेंट होराइज़न कहते
हैं। इवेंट होराइज़न वह सतह है जिसके अंदर जाने के बाद कुछ भी वापिस बाहर नहीं
निकलता। जितना अधिक द्रव्यमान होगा इवेंट होराइज़न उतना ही विशाल होगा। यदि हम यह
सोचें कि सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला ब्लैक होल बनेगा तो उसका इवेंट होराइज़न
लगभग तीन किलोमीटर व्यास का होगा और यदि पृथ्वी ब्लैक होल में परिवर्तित हुई तो
उसके इवेंट होराइज़न का व्यास मात्र 9 मि.मी. होगा।
ब्लैक होल जो भी हो, लेकिन
भौतिक शास्त्रियों के लिए ये विशालकाय तारों के जीवन चक्र के अंतिम पड़ाव होते हैं।
विशालकाय तारों के नाटकीय रूप से ढहने की सबसे पहली गणना रॉबर्ट ओपनहाइमर ने की
थी। उन्होंने बताया था कि जब सूर्य से कई गुना भारी तारे में नाभिकीय र्इंधन चुक
जाता है तो वह अचानक फैलता है और सुपरनोवा बन जाता है। फिर फैलने के लिए और ऊर्जा
न बचने पर वह अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ता है और अत्यंत सघन पिंड बन जाता
है – यही ब्लैक होल है।
लेकिन 1960 तक यह सिर्फ सैद्धांतिक गणना
थी। इसमें भारतीय वैज्ञानिक चंद्रशेखर ने गणना करके बताया था कि किसी तारे की ऐसी
स्थिति तब हो सकती है जब उसका द्रव्यमान सूर्य से डेढ़ गुना से अधिक हो, जिसे
चंद्रशेखर सीमा कहते हैं।
ब्लैक होल के अस्तित्व का मुद्दा एक बार
फिर 1963 में सुर्खियों में आया जब क्वासर की खोज हुई। खगोल शास्त्री इस अवलोकन को
लेकर चक्कर में थे कि ब्रह्मांड में रेडियो किरणों के रहस्यमय स्रोत हैं। जैसे, कन्या
तारामंडल में ऐसा ही एक स्रोत खोजा गया था – 3क्273 – जो हमसे इतना दूर है कि वहां
से चले प्रकाश को हम तक पहुंचने में अरबों साल लगते हैं। कयास लगाया गया कि यदि यह
स्रोत इतना दूर है तो अवश्य ही यह अत्यंत दैदीप्यमान – कई सैकड़ों निहारिकाओं के
बराबर चमकदार – होगा क्योंकि तभी तो उसका प्रकाश हम तक पहुंच पाएगा। इसे क्वासर
नाम दिया गया था। यह भी स्पष्ट था कि जो प्रकाश आज हम तक पहुंच रहा है वह तब
उत्पन्न हुआ होगा जब ब्रह्मांड अपने शैशव में था। क्वासर के प्रकाश का स्रोत यह
होना चाहिए कि बाहरी पदार्थ किसी ब्लैक होल में समा रहा है।
अंतत: रॉजर पेनरोज़ ने गणना करके बताया कि
किन परिस्थितियों में ब्लैक होल का निर्माण हो सकता है। उन्होंने इस गुत्थी को
सुलझाने के लिए जिस अवधारणा का सहारा लिया वह थी बंदी सतह (ट्रैप्ड सर्फेस) की
अवधारणा। बंदी सतह उसे कहते हैं जो सारी किरणों को केंद्र की ओर निर्दिष्ट करती
है। पेनरोज़ यह दर्शाने में सफल रहे थे कि ब्लैक होल अपने अंदर एक सिंगुलेरिटी को
छिपाए रखता है और इसका घनत्व अनंत होता है। गुत्थी को सुलझाने के लिए पेनरोज़ ने
जिन विधियों का विकास किया था, वे आज भी ब्रह्मांड के अध्ययन में उपयोगी
हैं।
ब्लैक होल के अंदर क्या होता है, इसे
जानने का कोई तरीका नहीं है क्योंकि एक बार जो चीज़ अंदर गई वह कभी बाहर नहीं आती।
ब्लैक होल अपने इवेंट होराइज़न के अंदर सारे राज़ दबाए रखते हैं। अलबत्ता, चाहे
हम इन्हें देख न सकें लेकिन इनके शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का अवलोकन
ज़रूर कर सकते हैं। खास तौर से ब्लैक होल के आसपास स्थित तारों की गति में इसकी छाप
नज़र आ जाती है।
राइनहार्ड गेंज़ेल और एंड्रिया गेज़ ने यही
नज़ारा देखने के लिए हमारी अपनी मंदाकिनी ‘आकाशगंगा’ के केंद्र पर नज़रें गड़ार्इं।
आकाशगंगा एक चपटी तश्तरी जैसी है और लगभग 1 लाख प्रकाश वर्ष चौड़ी है। इसमें गैसों
और धूल के अलावा चंद सैकड़ों अरब तारे हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि आकाशगंगा के
केंद्र से जो प्रकाश निकलता है, उसके और हमारे बीच मौजूद गैसें और धूल
उसमें से अधिकांश दृश्य प्रकाश को रोक देती हैं। इंफ्रारेड व रेडियो तरंग दूरबीनें
बनने के बाद ही आकाशगंगा के केंद्र को देख पाना संभव हुआ।
उस क्षेत्र के तारों के परिक्रमा पथों का
इस्तेमाल करते हुए गेंज़ेल और गेज़ ने पहली बार (1990 के दशक में) इस बात का अकाट्य
प्रमाण प्रस्तुत किया कि आकाशगंगा के केंद्र में कोई अति-वज़नी अदृश्य पिंड मौजूद
है। इसके लिए दोनों शोधकर्ताओं ने विशिष्ट उपकरणों और तकनीकों का विकास किया। इनकी
मदद से वे केंद्र में स्थित तारों की गति का बारीकी से अध्ययन कर पाए।
दोनों वैज्ञानिक ने तारों के जमघट के बीच
तीस के आसपास सबसे चमकीले तारों पर ध्यान केंद्रित किया। देखा गया है कि केंद्र से
एक प्रकाश माह की दूरी तक के तारे सबसे तेज़ चलते हैं और लगता है कि मधुमक्खियां
इधर-उधर भाग रही हैं। इसके बाहर स्थित तारे नियमित रूप से अपने-अपने अंडाकार पथों
पर गति करते हैं। ऐसा एक तारा S2 आकाशगंगा के केंद्र
की एक परिक्रमा मात्र 16 साल में पूरी कर लेता है। तुलना के लिए यह देखिए कि हमारे
सूर्य को आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा में 20 करोड़ साल लगते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गेंज़ेल और
गेज़ दोनों की टीमों के मापन में ज़बरदस्त साम्य है। उन दोनों की गणनाओं से निष्कर्ष
यह निकलता है कि आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल का द्रव्यमान हमारे सूर्य
से 40 लाख गुना अधिक है और यह पूरा द्रव्यमान हमारे सौरमंडल की साइज़ में कैद है।
तो कहानी यह है कि आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत से यह सैद्धांतिक भविष्यवाणी सामने आई कि ब्लैक होल हो सकते हैं। रॉजर पेनरोज़ ने जटिल व नवाचारी गणनाओं की मदद से वास्तविक परिस्थितियों में ब्लैक होल के निर्माण की संभावना दर्शाई और गेंज़ेल व गेज़ ने वास्तविक अवलोकनों से इस संभावना का साकार रूप उजागर किया। और अब तो खगोलविदों ने एक ब्लैक होल की तस्वीर भी शाया कर दी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://timesofindia.indiatimes.com/thumb/msid-78513367,width-400,resizemode-4/78513367.jpg?imglength=251529
अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की स्थापना आज से दो दशक पूर्व की गई थी। एक एस्ट्रोनॉट और दो कॉस्मोनॉट के साथ यह मनुष्यों के लंबे समय तक अंतरिक्ष में रहने और पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए वैज्ञानिक प्रयोग करने की शुरुआत थी।
हालांकि शुरुआत में इस परियोजना को व्यर्थ
समझा गया था लेकिन आईएसएस में किए गए अध्ययनों से मनुष्य सहित विभिन्न जीवों पर
अंतरिक्ष उड़ान के प्रभावों तथा अंतरिक्ष में विभिन्न पदार्थों के व्यवहार के बारे
में काफी जानकारी प्राप्त हुई है। इन दो दशकों में अंतरिक्ष यात्रियों ने यहां
लगभग 3000 प्रयोगों को अंजाम दिया है। ये प्रयोग मुख्य रूप से मूलभूत भौतिकी, पृथ्वी
पर्यवेक्षण और बायोमेडिकल क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं।
आईएसएस में शून्य गुरुत्व के माहौल में
तैरते हुए नासा की जीव विज्ञानी अंतरिक्ष यात्री केट रुबिंस ने संवाददाताओं को
बताया कि वर्तमान में आईएसएस अधुनातन अनुसंधान उपकरणों से लैस है। कॉन्फोकल
माइक्रोस्कोप से लैस यह स्टेशन किसी विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय से कम नहीं है। हाल
ही में रुबिंस ने स्टेशन पर पौधा विकास चैम्बर पर काम किया है। इसके अलावा
माइक्रोग्रैविटी में तरल बूंदों के सतह के साथ संपर्क की प्रक्रिया पर भी अध्ययन
किए हैं।
गौरतलब है कि स्टेशन पर किए जाने वाले
अधिकांश प्रयोगों का उद्देश्य यह जानना रहा है कि विभिन्न क्रियाएं (जैसे
ज्वाला-दहन और कोशिकाओं के विकास की प्रक्रिया) माइक्रोग्रैविटी में कैसे काम करती
हैं। इसके बाद यह प्रयास किया जाता है कि इन प्रयोगों से प्राप्त परिणामों को
पृथ्वी पर नई तकनीकों या दवाइयों के विकास पर लागू किया जाए।
नासा की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक एलेन
स्टोफान के अनुसार लोगों को अंदाज़ नहीं है कि आईएसएस में मानव स्वास्थ्य पर भी
काफी प्रयोग किए गए हैं। जैसे, वैज्ञानिकों ने एस्ट्रोनॉट्स के स्वास्थ्य
(मांसपेशियों की क्षति और विकिरण के प्रभाव)। आगे चलकर ये अध्ययन कई अन्य विषयों
में भी फैलते गए। एक प्रयोग में प्रतिरक्षा तंत्र की टी-कोशिकाओं पर गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव पर अध्ययन किया गया। कक्षा में चक्कर काट रहे एस्ट्रोनॉट्स के कमज़ोर
प्रतिरक्षा तंत्र के कारण के बारे में पता कर वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर बेहतर
दवाइयां विकसित करने में मदद मिल सकी।
आईएसएस यूएस, रूस, कनाडा, जापान और 11 युरोपीय देशों की भागीदारी से चलाया जा रहा है। पहले इस स्टेशन को वर्ष 2024 तक जारी रखने की योजना थी लेकिन अब 2028 तक जारी रखने के प्रयास किए जा रहे हैं।(स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/0/04/International_Space_Station_after_undocking_of_STS-132.jpg
इन दिनों खगोलविद दूरस्थ सौर मंडल की खोजबीन के लिए ‘शिफ्टिंग और स्टैकिंग’ तकनीक का पुनरीक्षण कर रहे
हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि इसकी मदद से प्लूटो की कक्षा से परे के सौर मंडल
को भी देखा जा सकता है।
इस तकनीक में अंतरिक्ष दूरबीन को संभावित
कक्षा के मार्गों पर धीरे-धीरे सरकाया (शिफ्ट किया) जाता है और इस तरह प्राप्त
तस्वीरों की एक के ऊपर थप्पी (स्टैक) जमाई जाती है ताकि उनकी रोशनी को एक छवि में
संकलित किया जा सके। इस तकनीक का उपयोग पहले भी हमारे सौर मंडल के ग्रहों के
चंद्रमाओं की खोज करने के लिए किया जा चुका है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस
तकनीक की मदद से प्लैनेट-9 यानी नौंवे ग्रह और अन्य दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा
सकेगा।
येल युनिवर्सिटी में खगोल शास्त्र की
पीएचडी छात्र और इस अध्ययन की प्रमुख मैलेना राइस इस तकनीक को काफी महत्वपूर्ण
मानती हैं। राइस और उनके सहयोगी ग्रेग लाफलिन ने नासा के ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट
सर्वे सैटेलाइट (टीईएसएस) द्वारा ली गई छवियों को स्टैक किया है। गौरतलब है कि
टीईएसएस का उपयोग पृथ्वी की कक्षा से बाह्र दुनिया का पता लगाने के लिए किया जाता
है।
एक परीक्षण में शोधकर्ताओं ने तीन अज्ञात
नेप्च्यून-पार पिंडों के कमज़ोर संकेत शिफ्टेड और स्टैक्ड छवियों में देखे। ये पिंड
नेपच्यून की कक्षा से परे सूर्य का चक्कर लगा रहे थे। इसके बाद वैज्ञानिकों ने
आकाश की दो दूरस्थ पट्टियों की बेतरतीब खोज की। इस दौरान उन्होंने 17 नए
नेप्च्यून-पार उम्मीदवार खोज निकाले।
राइस के अनुसार इन 17 में से एक पिंड भी
वास्तविक हुआ तो हमें बाह्य सौर मंडल की गतिशीलता और नौंवे ग्रह के संभावित गुणों
को समझने में मदद मिल सकती है। वर्तमान में शोधकर्ता धरती स्थित दूरबीन से प्राप्त
छवियों का उपयोग करके इन 17 पिंडों की पुष्टि करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने नेप्च्यून-पार पिंडों की विचित्र कक्षाओं से बाहरी सौर मंडल का
अनुमान लगाया है। उनका निष्कर्ष है कि उस स्थान पर ढेर सारे छोटे-छोटे पिंड हैं और
ये इस तरह झुंडों में व्यवस्थित है कि लगता है कि वहां कोई बड़ा पिंड स्थित है
जिसकी वजह से यह स्थिति बनी है। यह पिंड पृथ्वी से 5-10 गुना बड़ा है और पृथ्वी की
तुलना में सूर्य से सैकड़ों गुना दूर है। वैसे अन्य खगोल शास्त्रियों को लगता है कि
यही प्रभाव छोटे-छोटे पिंडों के मिले-जुले असर से भी हो सकता है।
इस अध्ययन को दी प्लैनेटरी साइंस जर्नल ने स्वीकार कर लिया है। राइस ने अपने निष्कर्ष अमेरिकन एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी डिवीज़न फॉर प्लैनेटरी साइंसेज़ की ऑनलाइन आयोजित वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किया है।(स्रोत फीचर्स)
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वर्ष
2020 में
विज्ञान की तीनों विधाओं – चिकित्सा
विज्ञान, भौतिकी और रसायन
शास्त्र – में
युगांतरकारी अनुसंधानों के लिए आठ वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया है। उल्लेखनीय
बात यह है कि रसायन विज्ञान के दीर्घ इतिहास में पहली बार यह सम्मान पूरी तरह महिलाओं
की झोली में गया है और भौतिकी में भी एक महिला सम्मानित की गई है।
चिकित्सा
विज्ञान
चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए अमेरिकी वैज्ञानिकों
हार्वे जे. आल्टर, चार्ल्स एम. राइस तथा ब्रिटिश वैज्ञानिक माइकल हाटन को
संयुक्त रूप से दिया गया है। इनके अनुसंधान की बदौलत इस रोग की चिकित्सा संभव हुई
है। इन शोधार्थियों को इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए यह सम्मान करीब चार दशक बाद
मिला है; इस शोधकार्य से
भविष्य में लाखों लोगों को नया जीवन मिलेगा।
हेपेटाइटिस
ए और हेपेटाइटिस बी वायरसों का पता 1960 के मध्य दशक में लग चुका था। हेपेटाइटिस बी वायरस की खोज के
लिए 1976 में
ब्रॉश ब्लमबर्ग को नोबेल पुरस्कार मिला था। हार्वे ने 1972 में रक्ताधान प्राप्त मरीजों पर शोध के
दौरान एक और अनजाने संक्रामक वायरस का पता लगाया। उन्होंने अध्ययन के दौरान पाया
कि मरीज़ रक्ताधान के दौरान बीमार हो जाते थे। उन्होंने आगे चलकर बताया कि संक्रमित
मरीज़ों का ब्लड चिम्पैंज़ी को देने के बाद चिम्पैंजी बीमार हो गए। चार्ल्स राइस ने
शुरुआत में अज्ञात वायरस को ‘गैर-ए, गैर-बी’ नाम दिया।
माइकल
हाटन ने 1989 में
इस वायरस के जेनेटिक अनुक्रम के आधार पर बताया कि यह फ्लेवीवायरस का ही एक प्रकार
है। आगे चलकर इसे हेपेटाइटिस सी वायरस नाम दिया गया। चार्ल्स राइस ने 1997 में चिम्पैंज़ी के
लीवर में जेनेटिक इंजीनिरिंग से तैयार वायरस प्रविष्ट कराया और बताया कि इससे
चिम्पैंज़ी संक्रमित हुआ। इन तीनों वैज्ञानिकों के स्वतंत्र योगदान को एक साथ रखकर
हेपेटाइटिस सी रोग पर विजय मिली है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में सात करोड़ लोग हेपेटाइटिस सी वायरस से
पीड़ित हैं। लगभग चार लाख लोग हर साल मौत के मुंह में चले जाते हैं। मनुष्य में
लीवर कैंसर का मुख्य कारण हेपेटाइटिस सी वायरस है,
जिसकी वजह से लीवर प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ती है। एक बात और, हेपेटाइटिस सी से संक्रमित व्यक्ति में
लक्षण देर से प्रकट होते हैं और तब तक मरीज़ लीवर कैंसर की चपेट में आ चुका होता
है। हेपेटाइटिस सी वायरस का टीका अभी तक नहीं बन पाया है क्योंकि यह वायरस बहुत
जल्दी-जल्दी
परिवर्तित हो जाता है।
भौतिक
शास्त्र
इस
साल का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से मिला है। ये
हैं – रोजर
पेनरोज़, रिनहर्ड गेनज़ेल और
एंड्रिया गेज। इन्होंने ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार व्याख्या की और हमारी समझ
के विस्तार में असाधारण योगदान दिया है।
पिछले
वर्ष 10 अप्रैल
को खगोल शास्त्रियों ने ब्लैक होल की एक तस्वीर जारी की थी। यह तस्वीर पूर्व की
वैज्ञानिक धारणाओं से पूरी तरह मेल खाती है। आइंस्टाइन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता
सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी।
ब्लैक
होल हमेशा ही खगोल शास्त्रियों के लिए कौतूहल का विषय रहा है। पहला ब्लैक होल 1971 में खोजा गया था। 2019 में इवेंट होराइज़न
टेलीस्कोप से ब्लैक होल का चित्र लिया गया था। यह हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में
स्थित है। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है,
जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता, प्रकाश भी नहीं।
नोबेल
पुरस्कार की घोषणा में बताया गया है कि रोजर पेनरोज़ को ब्लैक होल निर्माण की मौलिक
व्याख्या और नई रोशनी डालने के लिए पुरस्कार की आधी धनराशि दी जाएगी।
वैज्ञानिक
रिनहर्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज ने 1990 के दशक के आरंभ में आकाशगंगा (मिल्कीवे) के सैजिटेरिस-ए क्षेत्र पर शोधकार्य किया है। उन्होंने
विश्व की सबसे बड़ी दूरबीन का उपयोग कर अध्ययन की नई विधियां विकसित कीं। दोनों
अध्येताओं को आकाशगंगा के केंद्र में ‘अति-भारी सघन पिंड’ की खोज के लिए पुरस्कार दिया जाएगा।
एंड्रिया
गेज आज तक भौतिकी में पुरस्कृत चौथी महिला वैज्ञानिक हैं।
रसायन
विज्ञान
रसायन
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार फ्रांस की इमैनुएल शारपेंटिए और अमेरिका की जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त
रूप से दिया जाएगा। इन्होंने जीन संपादन की क्रिस्पर कॉस-9 तकनीक की खोज में अहम योगदान दिया है। यह
सम्मान खोज के लगभग आठ वर्षों बाद मिला है।
इमैनुएल
शारपेंटिए और जेनिफर डाउडना ने क्रिस्पर कॉस-9 जेनेटिक कैंची का विकास किया है। इसे जीन
संपादन का महत्वपूर्ण औज़ार कहा जा सकता है। इसकी सहायता से जीव-जंतुओं, वनस्पतियों और सूक्ष्मजीवों के जीनोम में
बारीकी से बदलाव किया जा सकता है, सर्वथा
नए जीन्स से लैस जीव विकसित किए जा सकते हैं।
जीनोम संपादन सर्वथा नया और रोमांचक विषय है। पिछले साल नवंबर में हांगकांग में आयोजित मानव जीनोम संपादन शिखर सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने जीन संपादन तकनीक से संपादित मानव भ्रूणों से पैदा हुए दो मादा शिशुओं का दावा कर सभी को अचंभित कर दिया था। जीनोम संपादन ने जीव विज्ञान में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया है। रोगाणु मुक्त और अधिक पैदावार देने वाली फसलों के बीज तैयार किए जा सकेंगे, आनुवंशिक रोगों की चिकित्सा हो सकेगी, कोविड-19 वायरस का कारगर टीका बनाने में मदद मिलेगी। जीनोम संपादन के ज़रिए ‘स्वस्थ और प्रतिभाशाली’ शिशु पैदा किए जा सकते हैं। और यह विवाद का विषय बन गया है जिसने कई नैतिक सवालों को जन्म दिया है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2020/10/05/science/05NOBEL-PRIZE-LIST01/05NOBEL-PRIZE-LIST01-jumbo.jpg?quality=90&auto=webp
एक कंपनी – न्यूस्केल – यूएस न्यूक्लियर रेग्यूलेटरी कमीशन (NRC) से परमाणु बिजली घर (रिएक्टर) की एक नई
डिज़ाइन के लिए स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयास कर रही है। कंपनी के अनुसार यह
रिएक्टर पारंपरिक विशालकाय रिएक्टर से छोटा,
सुरक्षित और सस्ता
है। लेकिन समीक्षा प्रक्रिया के 4 साल पूरे होने पर इस डिज़ाइन में कई सुरक्षा
सम्बंधी समस्याएं पता चली हैं। डिज़ाइन के बारे में दावा किया गया है कि आपात
स्थिति में यह रिएक्टर, संचालक के हस्तक्षेप के बिना,
अपने आप बंद हो
जाएगा। आलोचकों को इस दावे में खामियां नज़र आई हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के न्यूक्लियर
इंजीनियर माइकल कोरेडिनी का कहना है कि ये समस्याएं किसी भी रिएक्टर के बारे में
उठने वाली सामान्य समस्याएं हैं। वहीं युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के भौतिक
विज्ञानी एम. वी. रामन कहते हैं कि ये समस्याएं दर्शाती हैं कि कंपनी ने अपने
आधुनिक रिएक्टर के सुरक्षित होने का दावा बढ़ा-चढ़ा कर किया था।
न्यूस्केल द्वारा तैयार इस डिज़ाइन में
प्रत्येक रिएक्टर एक स्टील कंटेनमेंट पात्र के अंदर पानी से भरे एक पूल में
स्थापित होता है। पात्र और रिएक्टर के बीच खाली जगह रहती है। जब रिएक्टर का कोर
अत्यधिक गर्म हो जाता है या रिएक्टर में रिसाव होने लगता है तो सुरक्षा वाल्व इस
खाली स्थान में भाप छोड़ने लगता है। भाप की ऊष्मा पूल में भरे पानी को गर्म करती है
और स्वयं ठंडी होकर होकर पानी बन जाती है। एकत्रित पानी वापस कोर में बहने लगता है
जो कोर को सुरक्षित रूप से जलमग्न रखता है। न्यूस्केल को अपने इस डिज़ाइन पर इतना
विश्वास था कि उसने संयंत्र के आसपास 32 किलोमीटर के दायरे को आपातकाल प्रबंधन
क्षेत्र रखे बिना इसे लगाने की अनुमति मांगी थी।
लेकिन NRC की रिएक्टर सुरक्षा सलाहकार समिति (ACRS) ने इस डिज़ाइन में खामी पाई है। दरअसल रिएक्टर को ठंडा रखने के लिए बोरान
युक्त पानी उपयोग किया जाता है जो न्यूट्रॉन को सोख लेता है। लेकिन आपात स्थिति
में केंद्र की ओर जाने वाला संघनित पानी, आसवन क्रिया के कारण, बोरान-विहीन
हो जाता है। बोरान की कमी से रिएक्टर में नाभिकीय अभिक्रिया दोबारा शुरू हो सकती
है जो कोर को पिघला सकती है। न्यूस्केल ने इस खामी के पाए जाने के बाद रिएक्टर के
डिज़ाइन में बदलाव कर कोर की ओर जाने वाले पानी में बोरान की उपस्थिति सुनिश्चित की
है।
ACRS को अन्य खामियां भी दिखी हैं। जैसे, नया स्टीम जनरेटर, जो रिएक्टर पात्र के अंदर स्थित है जिससे विनाशकारी कंपन पैदा होने की आंशका है। इन समस्याओं के बावजूद ACRS नेNRC सुरक्षा मूल्यांकन रिपोर्ट जारी करने और न्यूस्केल डिज़ाइन को प्रमाणित करने की सिफारिश की है। अगले महीने NRC की इस डिजाइन को मंज़ूरी देती हुई सुरक्षा मूल्यांकन रिपोर्ट प्रकाशित करने की योजना है, और साल के अंत तक इसके ‘नियमों’ का मसौदा जारी होने की उम्मीद है।(स्रोत फीचर्स)
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23 अप्रैल 2019 की रात करीब नौ बजे कोस्टा रिका के आसमान में
नारंगी-हरी रोशनी फूटी। कैंपोस मुनोज़ ने देखा कि उनके घर की छत की नालीदार जस्ते
की चादर में अंगूर के बराबर छेद हो गया था, एक
प्लास्टिक मेज़ टूट-फूट गई थी और फर्श पर कोयले जैसे काले रंग के कुछ टुकड़े बिखरे
पड़े थे। वास्तव में उस रात वॉशिंग मशीन के बराबर का एक उल्का पिंड कोस्टा रिका के
ऊपर टूटकर बिखरा था।
वैसे तो हर साल पृथ्वी पर हज़ारों उल्का
पिंड टूटकर बिखरते हैं। लेकिन ऐसे उल्का पिंड बहुत थोड़े से हैं, जिन्हें गिरते हुए देखा गया और जिनका नाम उनके गिरने की जगह
पर रखा गया हो। इस तरह के सिर्फ 1196 उल्का पिंड दर्ज हुए हैं। लेकिन यह उल्का
पिंड, जिसके टुकड़ों को एगुआस ज़र्कास नाम दिया गया
है, कुछ अलग ही था। चट्टानों के मान से तो वह
लगभग जीवित कहा जाएगा।
एगुआस ज़र्कास एक कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट
है जो प्रारंभिक सौर मंडल का अवशेष है। अपने नाम के मुताबिक यह उल्का कार्बन में
समृद्ध है। ना सिर्फ अजैविक कार्बन बल्कि अमीनो एसिड जैसे जटिल जैविक अणु भी इसमें
मौजूद है जो प्रोटीन निर्माण की इकाइयां होते हैं। इनसे पता लगाने में मदद मिलती
है कि अंतरिक्ष में रासायनिक अभिक्रियाओं ने कैसे जीवन के शुरुआती रूप को जन्म
दिया।
एगुआस ज़र्कास एक प्रसिद्ध कार्बोनेशियस
कॉन्ड्राइट मर्चिसन की तरह दिखता है जो 1969 में ऑस्ट्रेलिया के मर्चिसन में गिरा
था। मर्चिसन में वैज्ञानिक अब तक लगभग 100 अलग-अलग अमीनो एसिड की पहचान कर चुके
हैं जिनमें से कई पृथ्वी के जीवों के अमीनो एसिड से मेल खाते हैं लेकिन कई अमीनो
एसिड ज्ञात जीवन के अमीनो एसिड से भिन्न हैं। और तो और, मर्चिसन
में न्यूक्लियो-क्षार भी मिले थे जो डीएनए जैसे जेनेटिक अणुओं की इकाइयां हैं।
एगुआस ज़र्कास के टुकड़े मर्चिसन से 50 साल
बाद के हैं, जिससे वैज्ञानिकों को इसे संरक्षित करने और
पड़ताल करने के लिए आधुनिक तकनीकें इस्तेमाल करने में आसानी होगी। इस उल्का से उन
कार्बनिक यौगिकों की भी पड़ताल की जा सकती है जो मर्चिसन उल्का से वाष्पित हो चुके
हैं। इसके अलावा इनमें ना केवल अमीनो एसिड और शर्करा बल्कि प्रोटीन की भी पड़ताल की
जा सकती है, जिनकी अब तक किसी भी उल्का पिंड में पुष्टि
नहीं हुई है।
यह उल्का जानकारियां हासिल करने की दृष्टि से जितनी महत्वपूर्ण है, इसे पाने के लिए इसके सौदागरों में उतनी ही अधिक होड़ थी। दरअसल अलग-अलग देशों में उल्का के लिए अलग-अलग कानून हैं। जैसे डेनमार्क में इन्हें जीवाश्म की तरह माना जाता है जिस पर सरकार का अधिकार होता है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चिली, फ्रांस, न्यूज़ीलैंड और मेक्सिको में इन्हें सांस्कृतिक खजाने के रूप में देखा जाता है जिसे बिना इजाज़त बाहर नहीं ले जाया जा सकता। लेकिन कोस्टा रिका, यूएस सहित कई जगहों पर उल्का आसानी से खरीदे-बेचे जा सकते हैं और अन्य जगहों पर भेजे जा सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के घर पर ये गिरे या जिन्होंने इन्हें इकट्ठा किया उन्होंने इसके टुकड़े 50-100 डॉलर प्रति ग्राम (सोने की कीमत से भी अधिक) पर बेचे। इस तरह के रवैये पर डायरेक्टरेट ऑफ जियोलॉजी एंड माइन्स की इलियाना बॉशिनी लोपेज़ को लगता है कि कोस्टा रिका को जल्द ही इस तरह के व्यापार पर रोक लगानी चाहिए और अंतरिक्ष से गिरने वाले चीज़ों के सम्बंध में कानून बनाना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/ma_0814_NF_Meteorite_lead.jpg?itok=_HPoT8yK
चुभने वाली चीज़ें प्रकृति में कई भूमिकाएं अदा करती हैं।
कैक्टस व अन्य पौधों के कांटे उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, मच्छर
की सूंड उसे खून पीने में मदद करती है, साही का कंटीला आवरण उसे बचाता है। ये सभी
सीधी रचनाएं हैं जो एक सिरे पर नुकीली होती हैं। भौतिकविदों के लिए इनकी रचना में
समानताएं कौतूहल का विषय रही हैं।
वैज्ञानिकों ने पहली समानता तो यह देखी कि
चाहे वह नैनोमीटर की साइज़ के बैक्टीरियाभक्षी वायरस के तंतु हों या आर्कटिक सागर
में पाई जाने वाली नारव्हेल की 2-3 मीटर लंबी सूंड हो,
सभी लंबूतरे, पतले
शंकु होते हैं जिनके आधार का व्यास उनकी कुल लंबाई की तुलना में बहुत कम होता है।
किसी भी चुभने वाली चीज़ का आकार दो परस्पर
विरोधी बाधाओं से निर्धारित होता है। पहली,
लक्ष्य को बेधने के
लिए उसे इतना बल लगाना पड़ेगा जो लक्ष्य द्वारा उत्पन्न घर्षण के दबाव को पार कर
सके। और दूसरी, यह बल इतना भी नहीं हो सकता कि बेधक रचना टूट जाए या मुड़
जाए।
वैसे तो इन दो सीमाओं को साधने के लिए कई
आकृतियां – पतली और लंबी से लेकर चौड़ी और छोटी – उपयोगी हो सकती हैं लेकिन प्रकृति
ने जिस आकृति को सामान्य रूप से अपनाया है उसमें आधार के व्यास और लंबाई का अनुपात
लगभग 0.06 होता है। यानी यदि चुभने वाली रचना की लंबाई 5 से.मी. है तो उसके आधार
का व्यास लगभग 0.3 से.मी. होगा।
डेनमार्क के तकनीकी विश्वविद्यालय के भौतिक
शास्त्री कारे जेंसन का कहना है कि प्रकृति में आम तौर पर इस आकृति का चयन होने का
कारण है कि प्रकृति ‘किफायत’ से काम करती है। यह सही है कि मोटे बेधक ज़्यादा टिकाऊ
होंगे लेकिन उनमें कुल पदार्थ भी तो ज़्यादा लगेगा,
जो सम्बंधित जीव को
ही भरना पड़ेगा। इसलिए जैव विकास ऐसी रचना को वरीयता देगा जो लक्ष्य को बेधने के
लिए बस पर्याप्त मज़बूत हो। नेचर फिज़िक्स में प्रकाशित शोध पत्र में जेंसन
की टीम ने डिज़ाइन के इस सिद्धांत की मदद से बेधने वाली चीज़ों की आकृतियों का सटीक
पूर्वानुमान प्रस्तुत किया है।
जेंसन की टीम ने ठोस शंक्वाकार बेधक चीज़ों
के लिए एक सैद्धांतिक मॉडल विकसित किया। उनकी गणनाओं से पता चला कि आधार का यथेष्ट
व्यास मात्र तीन बातों पर निर्भर करता है – बेधक की लंबाई,
उसके पदार्थ की
कठोरता और लक्षित ऊतक द्वारा उत्पन्न घर्षण का दबाव। उन्होंने यह भी पाया कि
पदार्थ की कठोरता और घर्षण का दबाव ज़्यादा असर नहीं डालता। उनके अनुसार मुख्य बात
आधार के व्यास और लंबाई के अनुपात की है।
पहले प्रकाशित एक मॉडल में कहा गया था कि
आधार का व्यास लंबाई की तुलना में 2/3 के अनुपात में बदलता है। यानी यदि लंबाई
दुगनी हो तो व्यास में 59 प्रतिशत की वृद्धि होगी। जेंसन की समीकरण दर्शाती है कि
इन दो के बीच सम्बंध समानुपात का है – लंबाई दुगनी होगी तो व्यास भी दुगना हो
जाएगा।
अपनी समीकरण को परखने के लिए जेंसन और उनके साथियों ने सजीवों में उपस्थित 140 बेधक अंगों, कांटों वगैरह का अध्ययन किया। इनमें कशेरुकी-अकशेरुकी, जलचर-थलचर, पौधे, शैवाल और वायरस शामिल थे। इन सभी में बेधक समीकरण से मेल खाते पाए गए। इनके अलावा मानव निर्मित सुइयां, कीलें, तीर वगैरह भी इस समीकरण पर खरे उतरे। तो लगता है समीकरण सही है। वैसे अभी इसमें कई अन्य बातों को जोड़ना शेष है – जैसे कई ऐसी रचनाएं खोखली होती हैं, कई इस तरह बनी होती हैं कि बेधते समय वे मुड़ें, या घुमावदार होती हैं वगैरह। इस प्रकार के विश्लेषण के कई वास्तविक अनुप्रयोग हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/DFD9D551-6694-4889-A6F04A2FB4D7F376_source.jpg?w=590&h=800&68625947-A1CC-40CD-964556A3FD8E4B79
हाल
ही में युरोपियन सदर्न ऑब्ज़र्वेटरी की विशालकाय दूरबीन की सहायता से सूर्य के समान
एक दूरस्थ तारे की परिक्रमा करते 2 ग्रहों को देखा गया।
पृथ्वी
से लगभग 300 प्रकाश वर्ष दूर यह तारा, TYC 8998-760-1,
दिखने में तो हमारे सूर्य के समान है लेकिन यह सूर्य से
लगभग साढ़े चार अरब वर्ष बाद पैदा हुआ था। मई में अध्ययन के दौरान खगोलविदों की टीम
ने पाया कि गैस का बना एक विशाल ग्रह इस तारे की परिक्रमा कर रहा है। उसूलन इसे TYC 8998-760-1बी नाम दिया गया। इसके सिर्फ 2 महीने बाद इसी टीम ने उसी तारे की परिक्रमा करते हुए एक और
ग्रह का पता लगाया जिसे TYC8998-760-1सी का नाम दिया गया।
यह ग्रह TYC8998-760-1 से और भी अधिक दूर
पाया गया।
इस खोज को एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स में प्रकाशित किया गया है। क्योंकि पहली बार हमारे सूर्य के समान एक बहुग्रही सिस्टम को प्रत्यक्ष रूप से देखा गया है, इस खोज को ग्रह अध्ययन के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। केयू लेवेन, बेल्जियम की खगोलविद और इस अध्ययन की सह-लेखक मैडलिना रेजियानी और उनकी टीम गैस के बने इन दो विशाल ग्रहों की तस्वीर लेने में कामयाब रही है।(स्रोत फीचर्स)
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