क्यों करती है व्हेल हज़ारों किलोमीटर का प्रवास

वैज्ञानिकों को समझ नहीं आता था कि तमाम किस्म की व्हेल – हम्पबैक, ब्लू व्हेल, स्पर्म व्हेल और किलर व्हेल – हर साल हज़ारों किलोमीटर की प्रवास यात्राएं क्यों करती हैं। ये व्हेल आर्कटिक और अंटार्कटिक के अपने सामान्य भोजन स्थल से कई हज़ार कि.मी. दूर गर्म समुद्रों में प्रवास करती हैं। आने-जाने में यह यात्रा करीब 18,000 कि.मी. की होती है।

पहले कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि शायद ये व्हेल प्रजनन हेतु प्रवास करती हैं। उनका कहना था कि आर्कटिक और अंटार्कटिक में कई शिकारी पाए जाते हैं, जिसकी वजह से यहां बच्चे पैदा करना खतरे से खाली नहीं है। लेकिन इनके प्रवास के सही कारण का पता करने हेतु हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ये व्हेल प्रजनन हेतु नहीं बल्कि अपनी त्वचा को स्वस्थ रखने हेतु प्रवास करती हैं।

ओरेगन विश्वविद्यालय के मरीन मैमल्स इंस्टिट्यूट के रॉबर्ट पिटमैन और उनके साथियों ने चार किस्म की किलर व्हेल पर 62 उपग्रह बिल्ले चस्पा कर दिए जिनकी मदद से वे इनकी गतिविधियों पर नज़र रख सकते थे। दक्षिणी गोलार्ध की 8 गर्मियों तक नज़र रखने के बाद शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि ये व्हेल पश्चिमी दक्षिण अटलांटिक महासागर तक 9400 कि.मी. की यात्रा करती हैं। लेकिन वे यह यात्रा प्रजनन के लिए नहीं करतीं क्योंकि तस्वीरों में साफ दिख रहा था कि उनके नवजात शिशु तो अंटार्कटिक महासागर में अठखेलियां कर रहे थे। यानी प्रजनन हेतु प्रवास की परिकल्पना सही नहीं है।

शोधकर्ता जानते थे कि मनुष्यों के समान व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं भी लगातार झड़ती रहती हैं। यह झड़ना इतना अधिक होता है कि आप सिर्फ झड़ी हुई कोशिकाओं की लकीर देखकर पता कर सकते हैं कि व्हेल किस ओर गई है। लेकिन व्हेल के सामान्य निवास अंटार्कटिक का पानी बहुत ठंडा होता है जिसकी वजह से शायद व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं झड़ नहीं पाती हैं। इन कोशिकाओं पर डायटम नामक सूक्ष्मजीवों की मोटी परत बन जाती है जहां बैक्टीरिया वगैरह घर बना लेते हैं। यह व्हेल के लिए हानिकारक होता है। पिटमैन का कहना है कि व्हेल इतनी लंबी यात्रा गर्म समुद्रों में कोशिकाओं की इस परत और बैक्टीरिया से छुटकारा पाने के लिए करती हैं। वैसे कुछ शोधकर्ताओं ने 2012 में सुझाया था कि अंटार्कटिक के ठंडे पानी में शरीर की गर्मी को बचाने के लिए किलर व्हेल खून का प्रवाह चमड़ी से थोड़ा दूर अंदर की ओर कर देती हैं। इसकी वजह से त्वचा की कोशिकाओं का पुनर्निर्माण रुक-सा जाता है। इसी वजह से अंतत: व्हेल गर्म पानी की ओर चल पड़ती हैं जहां उनकी शरीर क्रियाएं और त्वचा का झड़ना और पुनर्निर्माण तेज़ हो जाता है। मरीन मैमल साइन्स में प्रकाशित नए अध्ययन के आधार पर सुझाया गया है कि सिर्फ किलर व्हेल ही नहीं बल्कि तमाम किस्म की व्हेल त्वचा-मोचन के लिए यात्रा करती हैं। वैसे देखा जाए तो यह भी अभी एक परिकल्पना ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नींद को समझने में छिपकली की मदद

नींद की उत्पत्ति को समझते हुए वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया की एक छिपकली में कुछ महत्वपूर्ण सुराग हासिल किए हैं। ऑस्ट्रेलियन दढ़ियल ड्रेगन (Pogona vitticeps) में नींद से जुड़े तंत्रिका संकेतों को देखकर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि जटिल नींद का विकास शायद पक्षियों और स्तनधारियों से बहुत पहले हो चुका था। और उनका मानना है कि यह अनुसंधान मनुष्यों को चैन की नींद सुलाने में मददगार साबित होगा।

गौरतलब है कि पक्षियों और स्तनधारियों में नींद दो प्रकार की होती है। एक है रैपिड आई मूवमेंट (REM) नींद जिसके दौरान आंखें फड़फड़ाती हैं, विद्युत गतिविधि मस्तिष्क में गति करती है और मनुष्यों में सपने आते हैं। ङकग् नींद के बीच-बीच में ‘धीमी तरंग’ नींद होती है। इस दौरान मस्तिष्क की क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं और विद्युत सक्रियता एक लय में चलती हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि इस हल्की-फुल्की नींद के दौरान स्मृतियों का निर्माण होता है और उन्हें सहेजा जाता है।

2016 में मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर ब्रेन रिसर्च के गिल्स लॉरेन्ट ने खोज की थी कि सरिसृपों में भी दो तरह की नींद पाई जाती है। हर 40 सेकंड में दढ़ियल ड्रेगन इन दो नींद के बीच डोलता है। लेकिन यह पता नहीं लग पाया था कि मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा इन दो तरह की नींदों का संचालन करता है। लॉरेन्ट की टीम ने दढ़ियल ड्रेगन के मस्तिष्क की पतली कटानों में इलेक्ट्रोड्स की मदद से देखने की कोशिश की कि कौन-सी विद्युतीय गतिविधि धीमी तरंग नींद से सम्बंधित है। गौरतलब है कि ऐसी विद्युतीय सक्रियता मृत्यु के बाद भी जारी रह सकती है।

पता चला कि ड्रेगन के मस्तिष्क के अगले भाग में विद्युत क्रिया होती है। यह एक हिस्सा है जिसका कार्य अज्ञात था। और इसके बाद एक अनपेक्षित मददगार बात सामने आई।

लॉरेन्ट के कुछ शोध छात्र छिपकली के मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में जीन्स की सक्रियता की तुलना चूहों के मस्तिष्क में जीन अभिव्यक्ति से करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पाया कि छिपकली के मस्तिष्क का जो हिस्सा धीमी तरंग नींद पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार है उसमें जीन्स की सक्रियता चूहों के दिमाग के उस हिस्से से मेल खाती है जिसे क्लॉस्ट्रम कहते हैं। जीन अभिव्यक्ति में इस समानता से संकेत मिला कि संभवत: सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया जाता है। लॉरेन्ट का कहना है कि क्लॉस्ट्रम नींद को शुरू या खत्म नहीं करता बल्कि मस्तिष्क में नींद के केंद्र से संकेत ग्रहण करता है और फिर पूरे दिमाग में धीमी तरंगें प्रसारित करता है।

चूंकि सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया गया है, इसलिए ये जंतु नींद के अध्ययन के लिए अच्छे मॉडल का काम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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आसान नहीं है चीतों का पुनर्वास – प्रमोद भार्गव

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में औद्योगिक विकास और बढ़ते शहरीकरण के चलते वन्य जीवों के सामने चुनौतीपूर्ण हालात उत्पन्न हो गए हैं। उनके संरक्षण एवं पुनर्वास की अनेक कोशिशों के बावजूद न तो संरक्षण की स्थिति संतोषजनक हुई है और न ही गिरवन के सिंह जैसे दुर्लभ प्राणियों का पुनर्वास कूनो-पालपुर अभयारण्य में संभव हो पाया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने 74 साल पहले भारत में पूरी तरह लुप्त हो चुके चीते के पुनर्वास की अनुमति मध्यप्रदेश सरकार के वन विभाग को दी थी। टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश में इन चीतों को दक्षिण अफ्रीका के नमीबिया से लाकर सागर जिले के नौरादेही अभयारण्य में नया ठिकाना बनाया जाएगा। यहां पिछले एक दशक से चीतों को बसाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई जा रही हैं। दरअसल, चीते को घास के मैदान वाले जंगल पसंद हैं और नौरादेही इसी के लिए जाना जाता है। हालांकि इन्हें बसाने के विकल्प के रूप में श्योपुर ज़िले का कूनो-पालपुर अभयारण्य और राजस्थान के शाहगढ़ व जैसलमेर के थार क्षेत्र भी तलाशे गए थे, लेकिन इन वनखंडों में चीतों के अनुकूल प्राकृतिक आहार, प्रजनन व आवास की सुविधा न होने के कारण नौरादेही को ज़्यादा श्रेष्ठ माना गया। यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका पर दी गई है।

एक समय था जब चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान हुआ करती थी। लेकिन 1947 आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई। 1948 में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था जिसे मार गिराया गया था। चीता तेज़ रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट लोचपूर्ण देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के कारण यह सबसे तेज़ धावक था। इसलिए इसे जंगल की बिजली भी कहा गया।

मध्यप्रदेश में चीतों की बसाहट की जाती है तो नौरादेही के 53 आदिवासी बहुल ग्रामों को विस्थापित करना होगा। इस अभयारण्य के विस्तार के लिए 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र प्रस्तावित है। यह इलाका सागर, नरसिंहपुर एवं छतरपुर ज़िलों में फैला हुआ है। सबसे ज़्यादा विस्थापित किए जाने वाले 20 गांव सागर ज़िले में हैं। इनमें से 10 गांवों का विस्थापन पहले ही किया जा चुका है। शेष छतरपुर व नरसिंहपुर ज़िलों के राजस्व ग्राम हैं, जिनका विस्थापन होना है। अर्थात जितना कठिन चीतों का पुनर्वास है, उससे ज़्यादा कठिन व खर्चीला काम गांवों का विस्थापन है। देश में चीतों एवं सिंहों के पुनर्वास के प्रयत्न अब तक असफल ही रहे हैं। 

दरअसल, 1993 में चार चीते दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से दिल्ली के चिड़ियाघर में लाए गए थे। वैसे चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना होती है लेकिन चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त उपाय किए गए थे। लिहाज़ा उम्मीद थी कि ये वंशवृद्धि करेंगे और इनकी संतानों को देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभयारण्यों में स्थानांतरित किया जाएगा। बदकिस्मती से, प्रजनन से पहले ही चीते मर गए।

बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई देशों में पाए जाने वाला चीते अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं। राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्वे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगटी राष्ट्रीय उद्यान और नमीबिया के जंगलों में भी गिनती के चीते ही हैं।

प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा रही है। ज़ुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो चुके थे। अब पूरी दुनिया में केवल 7100 चीते बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश केन्या के मासाईमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन अब वहां इनकी संख्या गिनती की रह गई है।  

इस सदी के पांचवे दशक तक चीते अमेरिका के चिड़ियाघरों में भी थे। प्राणि विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956 में शिशुओं को जन्म भी दिया था। पर किसी भी शिशु को बचाया नहीं जा सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी, जो नाकाम रही। जंगल के हिंसक जीवों का प्रजनन चिड़ियाघरों में आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावित होता है, इसलिए शेर, बाघ, तेंदुए व चीते चिड़ियाघरों में जोड़ा बनाने की इच्छा नहीं रखते हैं।

भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी के कुछ सदस्य 1947 में बस्तर-सरगुजा के घने जंगलों में देखे गए थे। प्रदेश अथवा भारत सरकार इनके संरक्षण के ज़रूरी उपाय करने हेतु हरकत में आती, इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों को भी शिकार के शौकीन राजा-महाराजाओं ने मार गिराया। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम लग गया।

हमारे देश के राजा-महाराजाओं को घोड़ों और कुत्तों की तरह चीते पालने का भी शौक था। चीता-शावकों को पालकर इनसे जंगल में शिकार कराया जाता था। राजा लोग जब जंगल में आखेट के लिए जाते थे, तो प्रशिक्षित चीते को बैलगाड़ी में बिठाकर साथ ले जाते थे। उसकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती थी, ताकि वह किसी मामूली वन्य जीव पर न झपटे। जब शिकार राजाओं की दृष्टि के दायरे में आ जाता, तो चीते की आंखों की पट्टी खोलकर शिकार की दिशा में हाथ से इशारा कर दिया जाता था। पलक झपकते ही शिकार चीते के कब्जे में होता। शिकार का यह अद्भुत करिश्मा देखना भी रोमांच की बात रही होगी।

भारत के कई राजमहलों में पालतू चीतों से शिकार करवाने के अनेक चित्र अंकित हैं। मुगल काल में अकबर ने सैकड़ों चीतों को बंधक बनाकर पाला। मध्यप्रदेश में मांडू विजय से लौटने के बाद अकबर ने चंदेरी और नरवर (शिवपुरी) के जंगलों में चीतों से वन्य प्राणियों का शिकार कराया। नरवर के जंगलों में अकबर ने जंगली हाथियों का भी खूब शिकार किया। ग्वालियर रियासत में सिंधिया राजा ने भी चीते पाले हुए थे, लेकिन चीतों को पाले जाने का शगल ग्वालियर रियासत में उन्नीसवीं सदी के अंत तक ही संभव रहा।

मार्को पोलो ने तेरहवीं शताब्दी के एक दस्तावेज़ के हवाले से बताया है कि कुबलई खान ने अपने कारोबारी पड़ाव पर एक हज़ार से भी अधिक चीते पाल रखे थे। इन चीतों के लिए अलग-अलग अस्तबल थे। चीते इस पड़ाव की चौकीदारी भी करते थे। बड़ी संख्या में चीतों को पालतू बनाने से इनके प्रकृतिजन्य स्वभाव और प्रजनन क्रिया पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ा। गुलामी की ज़िंदगी व सईस के हंटर की फटकार की दहशत ने इन्हें मानसिक रूप से दुर्बल बना दिया। जब चाहे तब भेड़-बकरियों की तरह हांक लगा देने से भी इनकी सहजता प्रभावित हुई। चीतों की ताकत में कमी न आए इसके लिए इन्हें मादाओं से अलग रखा जाता था। बैलों की तरह नर चीतों को बधिया करने की क्रूरताएं भी राजा-महाराजाओं ने खूब अपनार्इं।

चीते की लंबाई साढ़े चार से पांच फीट होती है। बिल्ली प्रजाति के प्राणियों में चीते की पूंछ सबसे ज़्यादा लंबी होती है। पूंछ की लंबाई तीन से साढ़े तीन फीट होती है। इसकी टांगें लंबी और कमर पतली होती है। पूरे तन पर छोटे-बड़े काले गोल-गोल धब्बे होते हैं। इसकी आंखों की कोरों से काली धारियां निकलकर इसके मुख तक आती हैं। ये धारियां बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों में नहीं होतीं। इसके गालों का हिस्सा उभरा हुआ होता है तथा सिर शरीर के अनुपात में थोड़ा छोटे होने के साथ धनुषाकार होता है, जिससे दौड़ते वक्त फेफड़ों से छोड़ी गई हवा के आवागमन कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

चीते की तेज़ गति में सबसे ज़्यादा सहायक है इसकी छल्लों युक्त रीढ़ की हड्डी। इन्हीं छल्लों के कारण रीढ़ की हड्डी में ज़बरदस्त लोच होता है। गति पकड़ने के लिए अगले व पिछले पैर फेंकते वक्त यह आश्चर्यजनक ढंग से झुक जाती है व स्प्रिंग की तरह फैल जाती है। इसी विशिष्टता के कारण चीता जब दौड़ने की शुरुआत करता है, तो दो सेकंड के भीतर 72 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ लेता है। बाद में इसकी यह रफ्तार 115 से 120 किलोमीटर प्रति घंटा तक पहुंच जाती है। यह क्षमता जंगल के किसी अन्य प्राणी में नहीं पाई जाती। लेकिन चीते की यह रफ्तार कुछ गज़ की दूरी तक ही स्थिर रह पाती है। अपनी इसी रफ्तार के कारण चीता काला हिरण को दबोचने वाला एकमात्र हिंसक प्राणी था। काला हिरण शाकाहारी प्राणियों में सबसे तेज़ दौड़ने वाले प्राणी है। अब खुले जंगल में काले हिरण को पकड़ने का बीड़ा बिल्ली प्रजाति का कोई भी प्राणि नहीं उठाता।

चीता बिल्ली प्रजाति के अन्य प्राणियों की तरह अपना शिकार रात में न करके दिन में करता है। इसके ज़्यादातर शिकार छोटे प्राणी होते हैं। शिकार दृष्टिगत होते ही चीता शिकार की तरफ दबे पैरों से आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता है और जैसे ही शिकार इसकी तूफानी गति के दायरे में आ जाता है, यह तत्परता से गति में आकर शिकार को दबोच लेता है। यह कार्रवाई इतनी आनन-फानन में होती है कि शिकार संभल भी नहीं पाता। चीता अपनी कोशिश में यदा-कदा ही नाकाम होता है। इसके प्रिय शिकार काला हिरण और चिंकारा हैं। शिकार से उदरपूर्ति करने के बाद चीता चट्टानों की गहरी गुफाओं अथवा घने जंगलों में आराम फरमाता है।

चीते दो-तीन के झुंडो में भी रह लेते हैं, और अकेले भी, लेकिन ज़्यादातर अकेले रहना पसंद करते हैं। इनके जोड़ा बनाने का समय तय नहीं होता। ये पूरे साल जोड़ा बनाने में सक्षम होते हैं।

शिशुओं की उम्र तीन माह की हो जाने के बाद ही इनके बदन पर काले धब्बे उभरना शुरू होते हैं। चिड़ियाघरों में चीतों की आयु 15-16 वर्ष तक देखी गई है। इनकी औसत आयु 20 साल तक होती है।

दरअसल, एक ओर तो हम विलुप्त होते प्राणियों के संरक्षण में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ आधुनिक विकास इनके प्राकृतिक आवास उजाड़ रहा है। पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें, लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएं, इनके स्वाभाविक जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। यहां चीते जैसे प्राणियों के आचार-व्यवहार के साथ संकट यह भी है कि ये नई जलवायु में आसानी से ढल नहीं पाते हैं। अत: यह आशंका बरकरार है कि कहीं कूनो-पालपुर की तरह करोड़ों रुपए खर्च करने और 22 ग्रामों को विस्थापित करने के बाद भी नौरादेही में चीते की चाल स्वप्न बनकर ही न रह जाए। (स्रोत फीचर्स)

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बिल्ली को मिली कृत्रिम पैरों की सौगात

हाल ही में रूस के नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय के पशु चिकित्सकों ने अपने चारों पैर गंवा चुकी एक बिल्ली में 3-डी प्रिंटिंग की मदद से बनाए गए कृत्रिम पैर सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिए हैं। इनकी मदद से वह चल-फिर सकती है, दौड़ सकती है और यहां तक कि सीढ़ियां भी चढ़ सकती है।

भूरे बालों वाली डाइमका नामक यह बिल्ली दिसंबर 2018 में साइबेरिया के नोवाकुज़नेत्स्क नाम की जगह पर एक मुसाफिर को बर्फ में दबी हुई मिली थी। उसने उसे वहां से निकालकर नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय पहुंचा दिया था। डाइमका तुषाराघात की शिकार हुई थी और अपने चारों पैर, कान और पूंछ गंवा चुकी थी।

तुषाराघात यानी फ्रॉस्ट बाइट तब होता है जब अत्यंत कम तापमान त्वचा व अंदर के ऊतकों को जमा देता है। खासकर नाक, उंगलियां और पंजे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। पैरों की हालात देखकर पशु चिकित्सक सर्जेई गोर्शकोव ने उसे कृत्रिम पैर लगाना तय किया। उन्होंने टोम्स पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर डाइमका के लिए कृत्रिम पैर तैयार किए।

इसके लिए उन्होंने कंप्यूटेड टोमोग्राफी (सीटी) एक्स-रे स्कैन की मदद से डाइमका के पैरों की माप लेकर टाइटेनियम रॉड की त्रि-आयामी प्रिंटिंग करके कृत्रिम पैर बनाए। प्रत्यारोपण के बाद डाइमका में संक्रमण और रिजेक्शन की संभावना कम करने के लिए टाइटेनियम से बने पैरों पर कैल्शियम फॉस्फेट की परत चढ़ाई गई। जुलाई 2019 में डाइमका को सामने के दो और उसके बाद पीछे के दो कृत्रिम पैर प्रत्यारोपित किए गए। प्रत्यारोपण के सात महीने बाद जारी किए गए वीडियो में डाइमका अंगड़ाई लेती, चलती और कंबल के कोने से खेलती दिखाई दी।

गोर्शकोव ने दी मास्को टाइम्स को बताया कि साइबेरिया के हाड़-मांस गला देने वाले ठंड के मौसम के दौरान उनके चिकित्सालय में हर साल ऐसी पांच से सात बिल्लियों का उपचार किया जाता है जो तुषाराघात के कारण अपने पैर, नाक, कान और पूंछ गंवा देती हैं।  

डाइमका अब दुनिया की दूसरी बिल्ली है जिसे धातु से बने चारों पैर सफलतापूर्वक लगाए जा चुके हैं। इसके पहले साल 2016 में भी इसी प्रक्रिया से एक नर बिल्ली को चारों पैर लगाए गए थे। (स्रोत फीचर्स)

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प्रथम परोपकारी पक्षी

पने परिजनों की रक्षा करना और अजनबियों को आश्रय देना मानवता का एक ऐसा अनिवार्य भाग है जिसको हमने व्यापक रूप से विकसित किया है। मनुष्यों के अलावा ओरांगुटान और बोनोबो जैसे कुछ ही अन्य जीवों में स्वेच्छा से दूसरों की मदद करने का गुण देखा गया है। अब वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने ऐसे गैर-स्तनपायी प्राणि खोज निकाले हैं जो परोपकारी होते हैं।

गौरतलब है कि पूर्व में हुए अध्ययनों से पक्षियों में बुद्धिमत्ता के प्रमाण तो मिले हैं लेकिन अफ्रीकी मटमैला तोता (Psittacus erithacus) एक ऐसा पक्षी है जो परोपकारी भी है। मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर ओर्निथोलॉजी के पशु संज्ञान वैज्ञानिकों ने असाधारण मस्तिष्क वाले अफ्रीकन मटमैले तोते और नीले सिर वाले मैकॉ (Primolius couloni) की कुछ जोड़ियों पर अध्ययन किया। सबसे पहले शोधकर्ताओं ने पक्षियों को सिखाया कि वे एक टोकन के बदले पुरस्कारस्वरूप एक काजू या बादाम प्राप्त कर सकते हैं। इस परीक्षा में दोनों प्रजाति के पक्षी सफल रहे।

लेकिन अगली परीक्षा में केवल अफ्रीकी मटमैले तोते ने बाज़ी मारी। इस परीक्षा में शोधकर्ताओं ने जोड़ी के एक ही पक्षी को टोकन दिया और वह भी ऐसे पक्षी को जो किसी भी तरह से शोधकर्ता तक या पुरस्कार तक नहीं पहुंच सकता था। अलबत्ता वह एक छोटी खिड़की से टोकन अपने साथी पक्षी को दे सकता था। और वह साथी टोकन के बदले पुरस्कार प्राप्त कर सकता था। लेकिन इसमें पेंच यह था कि काजू-बादाम जो भी मिलता उसे वही दूसरा पक्षी खाने वाला था। 

दोनों प्रजातियों में, जिन पक्षियों को टोकन नहीं मिला, उन्होंने हल्के से चिंचिंयाकर दूसरे साथी का ध्यान खींचने की कोशिश की। ऐसे में नीले सिर वाले मैकॉ अपने साथी को नज़रअंदाज़ करते हुए निकल गए लेकिन अफ्रीकी मटमैले तोतों ने पुरस्कार की चिंता किए बिना अपने साथी पर ध्यान दिया। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पहले ही परीक्षण में 8 में से 7 मटमैले तोतों ने अपने (वंचित) साथी को टोकन दे दिया। जब इन भूमिकाओं को पलट दिया गया तब तोतों ने अपने पूर्व सहायकों की भी उसी प्रकार मदद की। इससे लगता है कि उनमें परस्परता का कुछ भाव होता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि यदि उनका साथी कोई करीबी दोस्त या रिश्तेदार नहीं है तब भी उनमें उदारता दिखी। और यदि वह उनका करीबी रिश्तेदार है तब तो वे और अधिक टोकन दे देते थे। मैकॉ के व्यवहार से तो लगता था कि उन्हें साथी चाहिए ही नहीं। बल्कि अपने खाने का कटोरा साझा करना भी उन्हें पसंद नहीं था।  

शोधकर्ताओं का मानना है कि इन दोनों प्रजातियों के बीच का अंतर उनके अलग-अलग सामाजिक माहौल के कारण हो सकता है। जहां अफ्रीकी मटमैले तोते अपने झुंड बदलते रहते हैं वहीं मैकॉ छोटे समूहों में रहना पसंद करते हैं। वैसे कुछ अन्य पक्षी वैज्ञानिकों को लगता है कि तोतों के परोपकार के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है किवे शायद आपस में भाई-बहन रहे हों, जिनके बीच आधे जीन तो एक जैसे होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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उल्टी चलती चींटियां घर कैसे पहुंचती हैं?

चींटियों को भोजन का छोटा टुकड़ा मिले तो वे उसे धकेलकर अपनी बांबी तक ले जाती हैं। लेकिन यदि टुकड़ा बड़ा हो तो वे उसे खींचकर ले जाती हैं। सवाल यह है कि इस तरह उल्टे चलते हुए उन्हें दिशा का अंदाज़ कैसे लगता है। पहले वैज्ञानिक सोचते थे कि चींटियों को अपने सामने की ओर कुछ परिचित चिंह देखना पड़ते हैं और उन्हीं की मदद से वे अपनी मंज़िल तक पहुंच पाती हैं। लेकिन अब एक अनुसंधान दल ने स्पष्ट किया है कि उल्टे चलते हुए भी वे पुराने परिचित दृश्यों को पहचान सकती हैं।

बात स्पैनिश रेगिस्तानी चींटियों (Cataglyphis velox) की है। ये जब उल्टी चलती हैं तो दिशा निर्धारण के लिए ‘पाथ इंटीग्रेशन’ नामक रणनीति का इस्तेमाल करती हैं। वे यह याद रखती हैं कि घर से किसी जगह तक पहुंचने में वे कितने कदम चली थीं और रास्ते में कितने मोड़ या पेंच आए थे। वे अपनी स्थिति को याद रखने के लिए सूर्य से बनने वाले कोण की भी मदद लेती हैं। और वे घर से किसी जगह तक चलते हुए मुड़-मुड़कर देखती रहती हैं और नज़र आने वाले पहचान चिंहों को याद रखती हैं जो वापसी यात्रा में मददगार हो सकते हैं।

लेकिन अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि उल्टे चलते हुए उन्हें पता कैसे चलता है कि वे कहां जा रही हैं। कभी-कभी चींटियां भोजन को नीचे रखकर मुड़कर देख भी लेती हैं। पौल सेबेटियर विश्वविद्यालय के सेबेस्टियन श्वार्ज़ और उनके साथी इसी का अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने उन चींटियों को चुना जो रेगिस्तान में अपने घर से निकलकर गंतव्य तक पहुंच चुकी थीं। यानी पाथ इंटीग्रेशन के ज़रिए उन्हें मालूम था कि वे कहां हैं। शोधकर्ताओं ने घर के एकदम बाहर से कुछ ऐसी चींटियां भी पकड़ी जिन्हें लगता था कि वे घर पहुंच चुकी हैं। इन सब चींटियों को उन्होंने बांबी से थोड़ी दूर उनके पसंदीदा भोजन के टुकड़ों के पास छोड़ दिया।

जब चींटियां भोजन को लेकर घर की ओर चलीं, तो कभी-कभी शोधकर्ता दृश्यों में थोड़ा फेरबदल कर देते। जब ऐसे बदले हुए पहचान चिंहों से सामना हुआ तो चींटियों ने 8 मीटर के रास्ते में 3.2 मीटर चलने के बाद मुड़कर देखा जबकि परिचित रास्ते पर चींटियां बगैर मुड़े 6 मीटर तक चलती रह सकती हैं। इससे पता चलता है कि वे उल्टे चलते हुए अपने आसपास के परिवेश पर ध्यान देती हैं और समय-समय पर पीछे मुड़कर देखती हैं।

उम्मीद के मुताबिक, उन चींटियों का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा जिन्हें पहले से पता था कि वे कहां हैं। वे बगैर मुड़े ज़्यादा दूरी तय कर पार्इं और अपना भोजन लेकर घर भी ज़्यादा संख्या में पहुंचीं। जिन चींटियों के पास रास्ते की जानकारी नहीं थी, उनमें से कुछ तो भटक गर्इं लेकिन शेष चींटियां घर पहुंच गर्इं जबकि उनके पास पाथ इंटीग्रेशन द्वारा मिली जानकारी नहीं थी। वे शायद अपनी दृश्य स्मृतियों अथवा सूर्य से बने कोण की मदद से घर पहुंची थीं।

चींटियों की आंखें काफी विस्तृत दृश्य देख पाती हैं – वे सिरे को घुमाए बगैर लगभग 360 डिग्री का क्षेत्र देखती हैं जबकि मनुष्य अपने आसपास का एक हिस्सा ही देख पाते हैं। श्वार्ज़ का कहना है कि संभवत: कीट घर से दूर जाते समय अपने बाजू और पीछे के दृश्य की जानकारी भी हासिल करते रहते हैं और वापसी में इसका उपयोग कर लेते हैं।

श्वार्ज़ इस संदर्भ में कुछ और प्रयोग करने को उत्सुक हैं। जैसे वे कोशिश कर रहे हैं कि चींटी की एक आंख को बंद करके देखा जाए या उनके लिए एक ट्रेडमिल बनाई जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पेशाब पर ज़िन्दा चींटियां

स्ट्रेलिया के कंगारु द्वीप पर वन्य जीवों का अध्ययन करने वाली सोफी पेटिट का सामना एक विचित्र जीव से हुआ। दरअसल जीव तो जाना-पहचाना था – शकर चींटी (Camponotus terebrans) लेकिन उसके व्यवहार ने पेटिट को अचंभित कर दिया।

कंगारु द्वीप का वातावरण रेगिस्तानी है। सूखी रेत और उस पर उगे सूखे झाड़-झंखाड़। यहां कंगारु खूब पाए जाते हैं। पेटिट ने देखा कि उस स्थान पर बड़ी संख्या में शकर चींटियां मंडरा रही हैं जहां कोई दो घंटे पहले उन्होंने पेशाब की थी। उससे भी ज़्यादा अचरज की बात थी कि वे चींटियां उसी जगह पर कई रातों तक आती रहीं। पेटिट जानना चाहती थीं कि चींटियों को वहां क्या मिल रहा है।

कुछ महीनों बाद वही सवाल लेकर वे अपने एक अन्य साथी को लेकर वहां पहुंच गर्इं। आखिर पेशाब में इन चींटियों को क्या मिलता है? रासायनिक दृष्टि से देखें तो पानी के अलावा पेशाब में मुख्य रूप से यूरिया होता है। यूरिया एक नाइट्रोजनी यौगिक है और नाइट्रोजन तो समस्त जीवों के लिए अनिवार्य है। तो शोधकर्ताओं ने यूरिया के अलग-अलग घोल बनाए। किसी में मनुष्य या कंगारु के पेशाब में पाया जाने वाला 2.5 प्रतिशत यूरिया मिलाया तो किसी घोल में 10 प्रतिशत। इसके अलावा शकर के अलग-अलग सांद्रता वाले घोल भी बना लिए। इन अलग-अलग घोलों को रेत पर अलग-अलग स्थानों पर उंडेलकर इंतज़ार करते रहे।

पूरे एक महीने तक अवलोकन करने के बाद एक निष्कर्ष स्पष्ट था – घोल में यूरिया की सांद्रता जितनी अधिक होती है, शकर चींटियां भी उतनी ही अधिक संख्या में आती हैं। और तो और, ऑस्ट्रेलियन इकॉलॉजी पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ये चींटियां शकर के घोल की बजाय यूरिया के घोल को तरजीह देती हैं।

यूरिया को पसंद करने तक तो ठीक था क्योंकि कई जीव यूरिया से पोषण प्राप्त करते हैं किंतु आश्चर्य की बात तो यह थी कि ये चींटियां पेशाब के सूख जाने के बाद भी रेत को खोदती रहीं। वे तो पेशाब के हल्के से दाग को भी खोदने लगती थी। यह पहली बार है कि किसी जीव द्वारा सूखे यूरिया का उपयोग पोषण प्राप्त करने के लिए होता देखा गया है। (स्रोत फीचर्स)

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कुत्ते संख्या समझते हैं

हो सकता है कि कुत्ते 10 तक गिनती ना कर पाएं लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक कुत्तों को इसका अंदाज़ा होता है कि उनकी प्लेट में कितनी हड्डियां हैं। इस अध्ययन के मुताबिक हम मनुष्यों की तरह कुत्तों में भी मात्रा (या संख्या) की समझ जन्मजात होती है।

किसी समूह में वस्तुओं की संख्या का मोटा-मोटा अनुमान एक नज़र में लगाने की क्षमता मनुष्यों में होती है। पहले हुए कई अध्ययन यह दर्शा चुके थे कि बंदरों, मछलियों, मधुमक्खियों और कुत्तों में भी ‘लगभग संख्या’ का अनुमान लगाने की क्षमता होती है। लेकिन इनमें से कई अध्ययन प्रशिक्षित जानवरों के साथ किए गए थे जिनका इसी दक्षता के लिए बार-बार परीक्षण हुआ था और परीक्षण के दौरान पारितोषिक मिल चुके थे। तो सवाल यह उठा कि क्या मनुष्यों की तरह कुत्तों में भी यह क्षमता जन्मजात होती है?

इसी सवाल का जवाब खोजने के लिए एमरी युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी ग्रेगरी बन्र्स और उनके साथियों ने अलग-अलग नस्ल के 11 अप्रशिक्षित कुत्तों के साथ यह अध्ययन किया, जैसे बॉर्डर कॉलीस, पिटबुल और लेब्रोडॉर गोल्डन रिट्रीवर। अपने अध्ययन में वे देखना चाहते थे कि क्या मस्तिष्क में संख्या के एहसास से जुड़ी कोई सक्रियता नज़र आती है।

यह जांचने के लिए उन्होंने फंक्शनल मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेजिंग (ढग्ङक्ष्) की मदद से कुत्तों के मस्तिष्क को स्कैन किया। उन्होंने कुत्तों को ढग्ङक्ष् स्कैनर में उनकी मर्जी से प्रवेश कराया और उनका सिर एक ब्लॉक पर स्थिर किया। फिर कुत्तों को एक काले पर्दे पर हल्के भूरे रंग के छोटे और बड़े बिंदुओं के कुछ समूह दिखाए। तस्वीरें 300 मिलीसेंकड प्रति तस्वीर की रफ्तार से बदल रही थी। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि मनुष्य या अन्य प्राइमेट की तरह यदि कुत्तों के मस्तिष्क में भी संख्याओं के लिए एक निश्चित हिस्सा है तो समान संख्या में बिंदु (4 छोटे बिंदु के बाद 4 बड़े बिंदु) की तुलना में असमान संख्या (जैसे 3 छोटे बिंदु के बाद 10 बड़े बिंदु) आने पर मस्तिष्क के इस हिस्से में कुछ गतिविधि दिखनी चाहिए। 

अध्ययन में 11 में से 8 कुत्तों के मस्तिष्क में अपेक्षित गतिविधि दिखी। आश्चर्य की बात यह रही कि हर कुत्ते के मस्तिष्क के थोड़े अलग हिस्से में गतिविधि दिखी। यह शायद अलग-अलग नस्ल के कुत्तों के बीच का फर्क हो।

वेस्टर्न युनिवर्सिटी की क्रिस्टा मेकफर्सन का कहना है कि ये नतीजे ‘लगभग संख्या प्रणाली’ की हमारी समझ का समर्थन करते हैं। पूर्व में हुए अध्ययन में इन बातों को कुत्तों के व्यवहार के आधार पर दर्शाया गया था। इसलिए यह अध्ययन कुत्तों में संज्ञान को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वे आगे कहती हैं, चूंकि अध्ययन दर्शाता है कि कुत्ते वस्तु की संख्याओं की ओर अधिक ध्यान देते हैं इसलिए यह कुत्तों का प्रशिक्षण करने वालों के लिए दिलचस्प साबित हो सकता है। वे कुत्तों को पुरस्कार स्वरूप एक बड़ी चीज़ देने की बजाय अधिक संख्या में चीज़ें दे सकते हैं।

बन्र्स का कहना है कि कुत्तों और मनुष्यों के बीच जैव विकास के विशाल अंतर को देखते हुए ये नतीजे इस बात का पुख्ता साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि अधिकतर स्तनधारियों में गिनने की क्षमता जन्मजात होती है। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों गायब हुए मनुष्य के शरीर के बाल? -डॉ. अरविंद गुप्ते

ब डार्विन ने जैव विकास का सिद्धांत प्रकाशित किया था, तब दुनिया में तहलका मच गया था। सिद्धांत का आशय यह था कि जैव विकास ऐसी प्रक्रिया है जिसमें नई प्रजातियां बनती रहती हैं और पुरानी प्रजातियां नष्ट होती जाती हैं। इस सिद्धांत का एक निष्कर्ष यह भी था कि मनुष्य का विकास बंदरों के समान जंतुओं से हुआ है। विज्ञान ने इस सिद्धांत की पुष्टि निर्विवाद रूप से कर दी है।

यह बात आज भी कई लोगों के गले नहीं उतरती। वे सोचते हैं कि हमारे आसपास पाया जाने वाला कोई बंदर मनुष्य कैसे बन सकता है। किंतु ऐसा नहीं होता, आज का कोई बंदर मनुष्य नहीं बन सकता। इस प्रक्रिया में लाखों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैं। सबसे सटीक उदाहरण डायनासौर का है जो मगरमच्छों और छिपकलियों के सम्बंधी थे और 25 करोड़ से लेकर 6 करोड़ वर्ष पूर्व तक पृथ्वी पर उनकी बादशाहत थी। कुछ मांसाहारी डायनासौर बहुत खूंखार और विशालकाय थे। किंतु कालांतर में सभी डायनासौर नष्ट हो गए और जैव विकास की प्रक्रिया में कुछ डायनासौर से पक्षी विकसित हो गए। बंदर से मनुष्य बनना कुछ ऐसा ही है जैसा डायनासौर से पक्षियों का बनना।

आज से 70 लाख वर्ष पहले अफ्रीका में रहने वाले कपि सहेलोन्थ्रोपस से दो अलग-अलग जंतुओं, चिम्पैंज़ी और आदिम मानव, का विकास हुआ (चिम्पैंज़ी, गोरिल्ला, ओरांगउटान जैसे पूंछ-रहित बड़े बंदरों को कपि और अंग्रेजी में ऐप कहते हैं)। पेड़ों पर रहने वाला यह आदिम मानव आज के मनुष्य से इतना अलग था कि उसे ऑस्ट्रेलोपिथेकस नाम दिया गया है।

अन्य कपियों के समान ही आदिम मानव के शरीर पर भी घने बालों का आवरण था। जैव विकास के दौरान मनुष्य के शरीर के बाल गायब हो गए। लेकिन ऐसा क्यों हुआ? मानव की हड्डियों के जीवाश्मों का अध्ययन करके वैज्ञानिक यह तो पता लगा सकते हैं कि मनुष्य की शरीर रचना में कब-कब और कैसे-कैसे परिवर्तन हुए। किंतु चूंकि मृत्यु के कुछ समय बाद त्चचा नष्ट हो जाती है, उससे सम्बंधित कोई भी अध्ययन लगभग असंभव होता है। फिर भी, जंतुओं और वनस्पतियों के जीवाश्मों का अध्ययन करके वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुष्य के शरीर से बालों के गायब होने का प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है।

यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि जीवधारियों में जो भी परिवर्तन होते हैं वे लाखों वर्षों की अवधि में होते हैं। इस प्रक्रिया में कई नमूने बनते हैं किंतु जीवित रहने योग्य नहीं पाए जाने पर वे नष्ट हो जाते हैं। जो नमूने सफल होते हैं वे बच जाते हैं और उनमें और अधिक परिवर्तन होते जाते हैं। इस प्रकार नई-नई प्रजातियां बनती रहती हैं।

मनुष्य का उद्भव तथा प्रारंभिक जैव विकास अफ्रीका में हुआ और उसके अधिकांश शारीरिक परिवर्तन उस महाद्वीप की परिस्थितियों से जुड़े हैं। आज से लगभग 30 लाख वर्ष पहले पूरे विश्व में एक ज़बरदस्त शीत लहर आई थी जिससे संसार के सारे जीवधारी प्रभावित हुए थे। आदिमानव के निवास स्थान – मध्य और पूर्वी अफ्रीका – में वर्षा में कमी के कारण जंगल नष्ट हो गए और उनका स्थान घास के खुले मैदानों ने ले लिया। इन जंगलों में रहने वाले ऑस्ट्रेलोपिथेकस नामक आदिमानव के प्रमुख आहार फल, पत्तियों, जड़ों और बीजों की उपलब्धता कम हो गई। इसी प्रकार, जल के स्थायी स्रोत सूख जाने के कारण पीने के पानी की भी कमी हो गई। परिणामस्वरूप, मनुष्य को भोजन और पानी की खोज में अधिक दूर तक जाना पड़ता था। भोजन के वनस्पति स्रोतों की कमी के चलते मनुष्य ने लगभग 26 लाख वर्ष पहले अन्य जंतुओं का शिकार कर उन्हें खाना शुरू कर दिया। शिकार की खोज में अधिक लंबी दूरियां तय करने और उनका पीछा करने के लिए अधिक तेज़ भागने के लिए अधिक ऊर्जा खर्च करना ज़रूरी हो गया। प्राकृतिक वरण के फलस्वरूप पेड़ों पर रहने वाले मानव की तुलना में ज़मीन पर रहने वाले मानव के हाथों और टांगों की लंबाई बढ़ गई।

अधिक तेज़ गतिविधि करने के कारण शरीर के तापमान के बढ़ने का खतरा पैदा हो गया। शरीर के बढ़े हुए तापमान को कम करने में दो बातों से फायदा मिला – शरीर से बालों का आवरण कम होना और त्वचा में स्थित पसीने का निर्माण करने वाली स्वेद ग्रंथियों की संख्या में वृद्धि।

त्वचा से बालों का आवरण हट जाने के कारण शुरूआती दौर में मनुष्य की त्वचा अन्य कपियों की त्वचा के समान हल्के गुलाबी रंग की थी। किंतु सूर्य के प्रकाश में मौजूद पराबैंगनी किरणें इस अनावृत त्वचा के लिए घातक सिद्ध होने लगीं। शरीर के लिए अत्यावश्यक विटामिन फोलेट पराबैंगनी किरणों से नष्ट हो जाता है, इसके अलावा त्वचा के कैंसर का भारी खतरा होता है। एक बार फिर प्रकृति ने अपना चमत्कार दिखाया और लगभग 12 लाख वर्ष पहले मनुष्य में एक ऐसे जीन MC1R का उद्भव हुआ जो त्वचा में मेलानिन नामक काले रंग के पदार्थ के बनने के लिए उत्तरदायी होता है। पराबैंगनी किरणों से बचने के लिए मेलानिन एक प्रभावशाली साधन है। यही कारण है कि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों और तेज़ धूप वाले समशीतोष्ण क्षेत्रों में मनुष्य की त्वचा में मेलानिन अधिक मात्रा में पाया जाता है।

जब मनुष्य ने अफ्रीका से निकल कर युरोप जैसे ठंडे प्रदेशों में रहना शुरू किया तब वहां धूप की तीव्रता कम होने के कारण पराबैंगनी किरणों का खतरा तो कम हो गया किंतु एक नया खतरा सामने आया। वह खतरा यह था कि धूप तेज़ न होने के कारण शरीर में विटामिन-डी बनना बंद हो गया। विटामिन-डी हड्डियों की मजबूती के लिए आवश्यक होता है। अत: इन क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्य की त्वचा में मेलानिन की मात्रा कम हो गई और उनकी त्वचा श्वेत होती गई।

शरीर का तापक्रम कम करने का अन्य प्रभावशाली उपाय पसीना बहाना है। कपि समूह में (जिसका सदस्य मनुष्य भी है) स्वेद ग्रंथियां पाई जाती हैं। किंतु मनुष्य में इनकी संख्या बहुत अधिक बढ़ गई है और वे त्वचा के ठीक नीचे स्थित हो गई हैं। किसी बहुत गरम दिन पर तेज़ गतिविधि करने पर एक मनुष्य के शरीर से 12 लीटर तक पसीना निकल सकता है। पसीने और बाल-रहित त्वचा का यह गठजोड़ शरीर को ठंडा करने के लिए इतना प्रभावशाली होता है कि वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार किसी बहुत गरम दिन पर लंबी दौड़ में एक स्वस्थ मनुष्य घोड़े को भी पीछे छोड़ सकता है।

मनुष्य और चिम्पैंज़ी के डीएनए में 99 प्रतिशत समानता होती है किंतु उनमें एक महत्वपूर्ण अंतर यह होता है कि मनुष्य में ऐसे जीन पाए जाते हैं जो उसकी त्वचा को जल और खरोचों के प्रति रोधक बनाते हैं। बालरहित त्वचा के लिए यह गुणधर्म ज़रूरी है। ये जीन चिम्पैंज़ी में नहीं पाए जाते।

इस सबके बावजूद यह सवाल रह जाता है कि मनुष्य के सिर और बगलों तथा जांघों के जोड़ों पर बाल क्यों रह गए। सिर के बालों के कार्य के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि अफ्रीका में रहने वाले पूर्वज मनुष्य के बाल घने और घुंघराले थे (जैसे आज भी अफ्रीकी मूल के लोगों के होते हैं)। ऐसे बालों के कारण सिर की त्वचा और बालों के बीच एक रिक्त स्थान बन जाता है जिसमें हवा की एक परत होती है। तेज़ धूप में बाल ऊष्मा को सोख लेते हैं और सिर की त्वचा से निकलने वाले पसीने की भाप हवा की परत में चली जाती है और सिर का तापक्रम कम हो जाता है। बगलों तथा जांघों के जोड़ों पर स्थित बालों के बारे में वैज्ञानिकों की राय है कि वे चलने या दौड़ने के दौरान इन जोड़ों में घर्षण को कम रखते हैं।

बालों का एक उपयोग स्तनधारी आक्रामकता को प्रदर्शित करने के लिए भी करते हैं। सबसे परिचित उदाहरण कुत्तों और बिल्लियों में देखा जाता है जो खतरे से सामना होने पर अपने बालों को खड़ा कर लेते हैं। मनुष्य के पास अब यह सुविधा नहीं है, किंतु उसने कई अन्य तरीकों से अपनी भावनाओं को व्यक्त करना सीख लिया है, जैसे चेहरे तथा शरीर के हावभावों से या बोल कर या लिख कर। (स्रोत फीचर्स)

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सूर्य की स्थिति देखकर करती है प्रवास यह तितली

त्तरी अमेरिका में पाई जाने वाली मोनार्क तितलियां (Danaus plexippus) हर साल बड़ी संख्या में उड़कर मेक्सिको में जाड़े का मौसम बिताने के लिए पहुंचती हैं। इस यात्रा में ये लगभग 3000 किलोमीटर की दूरी तय करती हैं। प्रवास के लिए इतनी लंबी दूरी तय करने वाले ये एकमात्र कीट हैं। इन तितलियों की यह प्रवास यात्रा वैज्ञानिकों के लिए लंबे समय से एक गुत्थी रही है कि आखिर कौन-से कारक इन तितलियों को प्रवास के लिए उकसाते हैं। गुत्थी अब सुलझती नज़र आ रही है। फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड एंवायरमेंट में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक मध्यान्ह के समय क्षितिज से सूरज का कोण मोनार्क तितलियों को प्रवास के लिए प्रेरित करता है।

हालांकि पूर्व में हुए अध्ययन में यह तो बता चुके थे कि मोनार्क तितलियों के एंटीना में मौजूद जैविक घड़ी सूर्य की क्षैतिज स्थिति के मुताबिक इन्हें दिशा सम्बंधी ज्ञान कराती है लेकिन यह अज्ञात था कि इस यात्रा के लिए इन्हें प्रेरित कौन करता है और वे अपनी दैनिक यात्रा कैसे तय करती हैं।

इसे विस्तार से समझने के लिए एक गैर-मुनाफा संस्था मोनार्क वॉच ने 1992 में एक कार्यक्रम शुरू किया था। इसके तहत हज़ारों वॉलंटियर्स को नाखून की साइज़ के गुलाबी रंग के चिपकू टैग वितरित किए गए थे। इन वालंटियर्स ने अपने इलाके से गुज़रने वाली मोनार्क तितलियों पर ये टैग चिपकाए और टैग चिपकाने का स्थान और तारीख नोट की। 1998 से 2005 के बीच 13 लाख से अधिक मोनार्क तितलियों पर टैग चिपकाए गए। प्रवास में जब तितलियां दक्षिण-पश्चिम मेक्सिको में अपनी मंज़िल पर पहुंचने लगीं, वहां मौजूद वालंटियर्स ने इन पर लगे टैग जांचे। उन्हें लगभग 13,000 तितलियों पर टैग चिपके मिले।

इसके बाद कार्यक्रम के संस्थापक ओर्ले टेलर और उनके साथियों ने प्रत्येक तितली पर टैग लगाने के स्थान पर मध्यान्ह सूर्य के क्षितिज से बनने वाले कोण की गणना की। वे यह मानकर चले कि जब तितलियों पर टैग लगाया गया तब वे प्रवास शुरू कर रही थीं। आंकड़ों के आधार पर उन्होंने पाया कि अधिकांश तितलियां ने अपनी प्रवास यात्रा तब शुरू की जब मध्यान्ह का सूरज क्षितिज से 57 अंश के कोण पर था। कुल मिलाकर मोनार्क अपनी प्रवास यात्रा तब शुरू करती हैं जब यह कोण 48 से 57 अंश के बीच होता है।

इसके अलावा यह भी लगता है कि मोनार्क तितली अपनी आगे की यात्रा भी सूरज के क्षितिज से बनने वाले कोण के मुताबिक पूरी करती हैं। तितलियों पर टैग लगाने के स्थान और तारीख के आंकड़ों के विश्लेषण में टीम ने पाया कि दक्षिण की ओर प्रवास यात्रा की शुरुआत में तितलियों की गति 17 किलोमीटर प्रतिदिन होती है जो मध्य प्रवास में बढ़कर 47 किलोमीटर प्रतिदिन तक हो जाती है। उसके बाद और दक्षिण में पहुंचकर गति घटकर 17 किलोमीटर प्रतिदिन हो जाती है। उनकी गति का यह पैटर्न उत्तर से दक्षिण की ओर सूर्य के बदलते कोण से मेल खाता है।

तितलियों की यात्रा की यह गति एक अन्य अध्ययन के निष्कर्ष से मेल खाती है। यह अध्ययन प्रवास यात्रा के दौरान पेड़ों पर तितलियों द्वारा डाले गए पड़ावों पर किया गया था, जहां ये प्रवासी तितलियां रात्रि विश्राम करती हैं।

इस तरीके से संरक्षणवादियों को यह जानने में मदद मिल सकती  है कि जलवायु परिवर्तन जैसे बाहरी कारक इन तितलियों की इस प्रवास यात्रा को कैसे प्रभावित करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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