कारखानों में मांस बनाने की कोशिशें

प्रयोगशाला में विकसित मांस एक बार फिर चर्चा में है। इस क्षेत्र में पहली सफलता 2013 में मिली थी, जब मास्ट्रिक्ट युनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियर मार्क पोस्ट ने पहला कल्चर्ड बीफ बर्गर तैयार किया था, जिसकी कीमत 3,25,000 अमेरिकी डॉलर (लगभग 2.5 करोड़ रुपए!) थी। वर्तमान में विश्व भर की लगभग 150 से अधिक कंपनियां कल्चर्ड मांस (बीफ, चिकन, पोर्क और मछली), दूध और चमड़े सहित कई अन्य उत्पादों के मैदान में उतर चुकी हैं।

अमेरिकी नियामक एजेंसियों ने फिलहाल सिर्फ बर्कले स्थित अपसाइड फूड्स और कैलिफोर्निया स्थित गुड मीट कंपनियों को प्रयोगशाला विकसित मुर्गे का मांस (चिकन) बाज़ार में बेचने की अनुमति दी है। उम्मीद है कि इस साल अमेरिकी रेस्टॉरेंट्स में कल्चर्ड मांस परोसा जाने लगेगा। एक ओर उत्पादन संयंत्रों का निर्माण और अरबों का निवेश किया जा रहा है, वहीं कोशिका संवर्धन तकनीकें भी काफी तेज़ी से विकसित हो रही हैं।

जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से कल्चर्ड मांस को एक विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि पशुपालन में बहुत भूमि लगती है, और यह वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में लगभग 15 प्रतिशत योगदान देता है। इसके अलावा लाल मांस के सेवन से हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर वगैरह का जोखिम रहता है। मुर्गी फार्म से एवियन इन्फ्लुएंज़ा का और एंटीबाोटिक प्रतिरोध बढ़ने का खतरा भी रहता है।

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि बढ़ती वैश्विक आबादी के कारण 2031 तक मांस की वैश्विक मांग 15 प्रतिशत तक बढ़ने की संभावना है। ज़ाहिर है इससे वैश्विक जलवायु भी प्रभावित होगी। इससे निपटने के लिए विभिन्न स्तर पर वैकल्पिक प्रोटीन स्रोतों को विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं जिसमें मांस को प्राथमिकता दी गई है।

अलबत्ता, कल्चर्ड मांस उत्पादन की अपनी चुनौतियां हैं। कल्चर्ड मांस के उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा उपयोग, टेक्नॉलॉजी के विकास और पारंपरिक मांस की तुलना में इसका सैकड़ों गुना महंगा होना है। एक अनुमान के अनुसार 30 करोड़ टन की वार्षिक मांग के 10 प्रतिशत को भी कल्चर्ड मांस से पूरा करने के लिए हज़ारों संयंत्र लगाने होंगे। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक कल्चर्ड मांस स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण के लिए हानिकारक होगा।

कल्चर्ड मांस बनाने के लिए जानवर के ऊतकों को लिया जाता है। इसके बाद कोशिकाओं को पोषक माध्यम में रखा जाता है जिससे कोशिकाएं में संख्या-वृद्धि करती हैं। फिर इनमें से मांसपेशीय कोशिकाओं को अलग किया जाता है और इन्हें तंतुओं का रूप दिया जाता है। कुछ उत्पादों में प्राणि कोशिकाओं के साथ पादप कोशिकाओं का भी उपयोग किया जाता है जबकि कुछ कंपनियां मांस की जटिल संरचनाएं बनाने का प्रयास कर रही हैं। इन पेचीदगियों से यह तो ज़ाहिर है अंतिम उत्पाद काफी महंगा होगा।

अनुमान है कि आदर्श परिस्थितियों में उत्पादन लागत लगभग 6 डॉलर (480 रुपए) प्रति किलोग्राम हो सकती है। पारंपरिक मांस के लिए लागत 2 डॉलर (160 रुपए) प्रति किलोग्राम होती है। पूर्व में हुए अध्ययन कल्चर्ड मांस की लागत 37 डॉलर (लगभग 3000 रुपए) प्रति किलोग्राम आंकते हैं।   

इससे निपटने के लिए मांस निर्माण प्रक्रिया में काफी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मुख्यत: विभिन्न प्रकार की प्रारंभिक कोशिकाओं का उपयोग किया जा रहा है जो अलग-अलग गति या घनत्व से बढ़ सकती हैं और विभिन्न बनावट या पोषण प्रोफाइल का उत्पादन करने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए नीदरलैंड की एक कंपनी गाय से लिए गए ऊतकों का उपयोग कर रही है जिसकी कोशिकाएं मात्र 30 से 50 बार विभाजित हो सकती हैं। सिद्धांतत: तो एक बायोप्सी से सैकड़ों-हज़ारों किलोग्राम मांस का निर्माण किया जा सकता है लेकिन निरंतर नई कोशिकाओं की आपूर्ति ज़रूरी होगी। यह भी देखा जा रहा है कि किस तरह छोटे अणुओं का मिश्रण मांसपेशी स्टेम कोशिकाओं को बढ़ने और साथ ही साथ विभिन्न परिपक्व मांसपेशी बनने में मदद कर सकता है।

एक अन्य विकल्प ‘अमर’ कोशिका वंश का उपयोग है जिसमें सैद्धांतिक रूप से एक ही बायोप्सी से सभी के लिए भोजन बनाया जा सकता है। इन्हें या तो आनुवंशिक संशोधन के माध्यम से तैयार किया जा सकता है या संयोगवश हुए उत्परिवर्तन के कारण बनी ‘अमर’ कोशिका हाथ लग जाए। एक अध्ययन के अनुसार ऐसी मांसपेशीय कोशिकाएं तेज़ी से और काफी आसानी से बढ़ती हैं और इन्हें वसा जैसी कोशिकाओं में परिवर्तित भी किया जा सकता है। उत्पादन लागत भी कम हो सकती है।

हालांकि, ऐसी उत्परिवर्तित ‘अमर’ कोशिकाओं में ट्यूमर की संभावना ज़्यादा होती है जिसके चलते इनकी सुरक्षा पर सवाल उठे हैं। अलबत्ता, खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार ऐसी कोशिकाओं के पैकेजिंग, पकाने और पाचन प्रक्रिया में जीवित रहने और नुकसान पहुंचाने की संभावना नगण्य है।

इन सबमें सबसे महंगी प्रक्रिया कोशिकाओं के लिए आवश्यक ‘भोजन’ तैयार करना है। यह अमीनो एसिड, प्रोटीन, शर्करा, लवण और विटामिन का एक शोरबा होता है। प्रयोगशाला में कोशिका वंशों के लिए सबसे बेहतरीन भोजन मवेशियों का फीटल बोवाइन सीरम है लेकिन पशु-कल्याण और अन्य मुद्दों के कारण इसका उपयोग संभव नहीं है। इसको कृत्रिम रूप से तैयार करने की लागत लाखों-करोड़ों रुपए है। शोधकर्ता इसके सस्ते वनस्पति-आधारित विकल्प तलाशने के प्रयास कर रहे हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि लाल मांस से होने वाली कई हानिकारक स्वास्थ्य समस्याएं कल्चर्ड मांस में भी बनी रहेंगी। एफएओ को अन्य खाद्य पदार्थों के समान कल्चर्ड मांस के लिए भी हानिकारक बैक्टीरिया, एलर्जी, एंटीबायोटिक अवशेष, वृद्धि हार्मोन और अन्य कारकों की सीमा निर्धारित करना होगी।

पर्यावरण की दृष्टि से, प्रयोगशाला में मांस तैयार करने में पानी और भूमि का उपयोग कम होगा। लेकिन ऊर्जा की खपत एक गंभीर मुद्दा है। 2030 तक कल्चर्ड मांस के निर्माण में प्रति किलोग्राम लगभग 60 प्रतिशत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होगी। यदि यह ऊर्जा नवीकरणीय स्रोतों से आती है तो कल्चर्ड मांस का कार्बन पदचिन्ह पारंपरिक मांस की तुलना में कम हो सकता है।

एक सवाल कल्चर्ड मांस की स्वीकृति का है। सर्वेक्षणों में कल्चर्ड मांस खाने की इच्छा में भिन्नता नज़र आती है। चीन में मांस की बढ़ती मांग के चलते इसे अपनाए जाने की संभावना ज़्यादा है। दूसरी ओर, पश्चिमी देशों में कल्चर्ड मांस की अधिक मांग शाकाहारियों के बीच होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनंत तक गैर-दोहराव देने वाली टाइल खोजी गई

गैर-दोहराव वाली पच्चीकारी

टाइलिंग या पच्चीकारी उसे कहते हैं जब एक आकृति या आकृतियों के एक समूह को किसी समतल सतह पर इस तरीके से दोहराया या बिछाया जा सके कि कहीं खाली जगह न बचे और न ही आकृतियां एक के ऊपर चढ़ें, और इस बिसात को उस समतल सतह की चारों दिशाओं में अनंत तक आगे बढ़ाया जा सके। आम तौर पर इस तरह की पच्चीकारी में किसी पैटर्न का दोहराव होता है। जैसे कि आपको फुटपाथ पर बिछाई गई फर्शियों, इमारतों की नक्काशियों/जालियों, कपड़ों, मधुमक्खी के छत्ते वगैरह में दिखता है।

लेकिन वर्षों से वैज्ञानिक ऐसी आकृति की तलाश में थे जिससे अनंत तक टाइलिंग की जा सके और उसमें कोई दोहराव वाला पैटर्न न मिले। अब गणितज्ञों को एक ऐसी ही एक वास्तविक आकृति मिल गई है जो बिना दोहराव वाला पैटर्न (एपीरियोडिक टाइलिंग) दे सकती है।

1960 के दशक में पहली बार 20,426 तरह की टाइल इस्तेमाल करके एपीरियोडिक टाइलिंग की गई थी। तब से लगातार इस दिशा में काम होता रहा और एपीरियोडिक टाइलिंग देने वाली एकल आकृति खोजने की कोशिश जारी रही।

एपीरियोडिक आकृति

इसी प्रयास में नोबेल विजेता गणितज्ञ रॉजर पेनरोज़ ने दो ऐसी अलग-अलग आकृतियां तलाश ली थीं जो मिलकर एपीरियोडिक टाइलिंग कर सकती थीं।

हाल में, ब्रिडलिंगटन (यू.के) के एक शौकिया गणितज्ञ डेविड स्मिथ ने ऐसी ही आकृति की खोज की है। तीन पेशेवर गणितज्ञों के साथ मिलकर उन्होंने दिखाया कि यह आकृति और इसका दर्पण प्रतिबिम्ब अनंत तक एपीरियोडिक टाइलिंग दे सकती है (अभी प्रमाण की समकक्ष समीक्षा बाकी है।)

अब, गणितज्ञों के इसी समूह ने अपनी मूल टाइल में कुछ संशोधन करके एक ऐसी आकृति हासिल कर ली है जो अकेली ही अनंत तक एपीरियोडिक टाइलिंग कर सकती है। इसके प्रमाण आर्काईव प्रीप्रिंट सर्वर पर उपलब्ध हैं और फिलहाल समकक्ष समीक्षा के मुंतज़िर हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चीन का दोबारा उपयोगी अंतरिक्ष यान पृथ्वी पर उतरा

हाल ही में चीन का एक अंतरिक्ष यान पृथ्वी की कक्षा में नौ महीने बिताने के बाद धरती पर लौट आया है। इसके साथ ही चीन उन चुनिंदा राष्ट्रों की श्रेणी में भी शामिल हो गया है जिसने अंतरिक्ष यान का पुन: उपयोग करने में सफलता हासिल की है। हालांकि चीन ने अंतरिक्ष यान के डिज़ाइन और संचालन के बारे में ज़्यादा जानकारी तो नहीं दी है लेकिन उपलब्ध जानकारी के आधार पर अनुमान है कि इसका उपयोग अनुसंधान और सैन्य कार्यों के लिए किया जा रहा था।

इस मिशन से यह स्पष्ट है कि चीन ने अंतरिक्ष यान को पुन: उपयोग करने के लिए हीट शील्ड और लैंडिंग उपकरण जैसी तकनीकें विकसित कर ली हैं। इससे पहले अमेरिकी कंपनी बोइंग, स्पेसएक्स और नासा ने अंतरिक्ष यानों को धरती पर उतार लिया था। गौरतलब है कि अंतरिक्ष यान का एक बार उपयोग करने की अपेक्षा बार-बार उपयोग करने से पूंजीगत लागत काफी कम हो जाती है। इससे पहले, सितंबर 2020 में चीन का इसी तरह का एक प्रायोगिक अंतरिक्ष यान कक्षा में दो दिन बिताने के बाद पृथ्वी पर लौट आया था।

कई वैज्ञानिकों का विचार है कि चीनी यान संभवत: अमेरिकी अंतरिक्ष यान बोइंग एक्स-37बी के समान है। वैसे एक्स-37बी को बनाने का उद्देश्य तो अज्ञात है लेकिन 2010 में इसका खुलासा होने के बाद से ही चीनी सरकार इस यान की सैन्य क्षमताओं को लेकर चिंतित थी। ऐसी संभावना है कि इस यान को एक्स-37बी के जवाब में तैयार किया गया है।

इस यान की उड़ान और लॉप नूर सैन्य अड्डे पर उतरने के पैटर्न को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक विमान है। जबकि स्पेसएक्स ड्रैगन कैप्सूल जैसे अन्य पुन: उपयोग किए जाने वाले अंतरिक्ष यान लॉन्च रॉकेट से जुड़े मॉड्यूल हैं जो ज़मीन पर उतरने के लिए पैराशूट का उपयोग करते हैं।

एक्स-37बी की तरह चीनी यान भी आकार में काफी छोटा है। लॉन्च वाहन की 8.4 टन की पेलोड क्षमता से स्पष्ट है कि इसका वज़न 5 से 8 टन के बीच रहा होगा। यह नासा के सेवानिवृत्त अंतरिक्ष शटल कोलंबिया और चैलेंजर से बहुत छोटा है जिनको चालक दल सहित कई मिशनों के लिए उपयोग किया गया था। वर्तमान चीनी यान चालक दल को ले जाने के लिए बहुत छोटा है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में इसे चालक दल ले जाने वाला बड़ा अंतरिक्ष यान भी बनाया जा सकता है।

निकट भविष्य में चीन अन्य तकनीकों का परीक्षण कर सकता है। कक्षीय पथ में परिवर्तन या सौर पैनल का खुलना ऐसी दो तकनीकें हैं जो भविष्य में काफी उपयोगी होंगी। इसके अलावा कक्षा में रहते हुए उपग्रहों को छोड़ने और उठाने का भी परीक्षण किया गया होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष अक्टूबर में अंतरिक्ष यान द्वारा एक वस्तु को कक्षा में छोड़ने का पता चला था। यह वस्तु जनवरी में कक्षा से गायब हो गई थी और मार्च में फिर से प्रकट हुई थी। संभवत: अंतरिक्ष यान ने वस्तु को पकड़ा और दोबारा कक्षा में छोड़ दिया। यानी अंतरिक्ष यान का उपयोग उपकरणों और उपग्रहों को ले जाने के लिए भी किया गया होगा। (स्रोत फीचर्स)

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डायपर मिश्रित कॉन्क्रीट से बना पहला घर

जिस ओर देखो पर्यावरण प्रदूषण की कोई न कोई समस्या सिर उठाए खड़ी है। ताज़ा अध्ययन में जापान के शोधकर्ताओं ने एक साथ दो पर्यावरणीय समस्याओं  – डायपर का बढ़ता कचरा और बढ़ता रेत खनन – को हल करने की कोशिश की है। उन्होंने रेत-सीमेंट-गिट्टी के गारे में फेंके गए डायपर्स की कतरन मिलाकर एक भवन तैयार किया। इसमें रेत की 9 से 40 प्रतिशत तक बचत हुई, और भवन की मज़बूती भी अप्रभावित रही।

विश्व में भवन निर्माण में सालाना 50 अरब टन रेत की खपत होती है। रेत खनन कई पर्यावरणीय चिंताओं का कारण है – जैसे इसके कारण जलजीवन और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है, भूस्खलन और बाढ़ जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।

दूसरी ओर, हर जगह डायपर का चलन तेज़ी से बढ़ा है। मैकऑर्थर फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल लगभग 3.8 करोड़ टन डायपर फेंके जाते हैं। नतीजतन डायपर का कचरा बढ़ता जा रहा है। यह कचरा अधिक चिंता की बात इसलिए भी है क्योंकि एक तो यह सड़ता नहीं है, दूसरा इसे रीसायकल भी नहीं किया जा सकता।

कितक्युशु विश्वविद्यालय की सिविल इंजीनियर सिसवंती ज़ुरैदा और उनकी टीम ने सोचा कि क्या भवन निर्माण में रेत की जगह कुछ मात्रा में डायपर का कचरा मिलाया जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने डायपर इकट्ठे करके धोए, सुखाए और उनकी बारीक कतरन बनाई। फिर उन्होंने सीमेंट, गिट्टी और पानी में रेत और डायपर को विभिन्न अनुपात में मिलाकर गारा तैयार किया और इससे कॉन्क्रीट की सिल्लियां तैयार कीं। दल ने रेत को 40 प्रतिशत तक कम करके उसकी जगह उतने डायपर की कतरन मिलाई थी।

सिल्लियां बनने के एक महीने बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक अनुपात के मिश्रण वाली सिल्लियों की मज़बूती परखी और पता लगाया कि अधिकतम कितनी रेत का स्थान डायपर ले सकते हैं।

उन्होंने पाया कि कॉन्क्रीट में जितना अधिक डायपर कचरा होगा, कॉन्क्रीट उतना कम मज़बूत होगा। इसलिए भवनों के कॉलम और बीम जैसे ढांचागत हिस्सों को बनाने के लिए कम डायपर कचरा मिलाना ठीक होगा जबकि दीवारों जैसे आर्किटेक्चरल हिस्सों में अधिक डायपर का मिश्रण चल जाएगा। उनकी गणना के अनुसार एक-मंज़िला मकान बनाने के लिए गारे में लगभग 27 प्रतिशत रेत की जगह डायपर कचरा और तीन मंज़िला मकान में सिर्फ 10 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाए जा सकते हैं।

जहां दीवार वगैरह के गारे में 40 प्रतिशत रेत का स्थान डायपर का कचरे ले सकता है वहीं फर्श में केवल 9 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाया जा सकता है क्योंकि वहां मज़बूती ज़रूरी है।

कॉन्क्रीट सिल्लियों की मज़बूती परखने के बाद शोधकर्ताओं ने इससे 36 वर्ग मीटर का प्रायोगिक घर भी बनाया। यह घर बनाने में उन्होंने तकरीबन 1.7 घन मीटर डायपर का कचरा ठिकाने लगा दिया और लगभग 27 प्रतिशत रेत बचा ली।

प्रायोगिक तौर पर तो यह ठीक है लेकिन वास्तव में डायपर कचरे को कचरे के ढेर से निकाल कर उपयोग करने लायक बनाने और फिर चलन में लाने के लिए काफी लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा क्योंकि अधिकतर जगहों पर अपशिष्ट प्रबंधन व पृथक्करण बहुत कारगर तरीके से काम नहीं करता है। रीसायकल होने वाली कुछ चीज़ों को तो छांट लिया जाता है लेकिन चूंकि डायपर रीसायकल नहीं होते तो उनकी छंटाई नहीं होती और इन्हें जला दिया जाता है। फिर भी इनकी उपयोगिता के मद्देनज़र कचरे से डायपर की छंटनी कर भी ली जाती है, तो क्या आम लोग डायपर वेस्ट से घर बनवाने को राज़ी होंगे या ऐसे लंगोट/पोतड़ों से बने मकान खरीदने या उनमें रहने को तैयार होंगे? यह भी देखना होगा कि ये मकान कितने टिकाऊ होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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शिक्षण में चैटजीपीटी का उपयोग

पिछले वर्ष नवंबर के अंत में एआई आधारित एक ऐसा आविष्कार बाज़ार में आया जिसने शोध और शिक्षण समुदाय से जुड़े लोगों को चिंता में डाल दिया। ओपनएआई द्वारा जारी किया गया चैटजीपीटी एक प्रकार का विशाल भाषा मॉडल (एलएलएम) एल्गोरिदम है जिसे भाषा के विपुल डैटा से प्रशिक्षित किया गया है।

कई शिक्षकों व प्रोफेसरों का ऐसा मानना था कि छात्र अपने निबंध और शोध सार लेखन के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करके चीटिंग कर सकते हैं। छात्रों का कार्य मौलिक हो और उसमें शैक्षणिक बेईमानी न हो, इस उद्देश्य से कुछ विश्वविद्यालयों ने तो चैटजीपीटी आधारित टेक्स्ट को साहित्यिक चोरी की श्रेणी में रखा जबकि कई अन्य ने इसके उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध ही लगा दिया। हालांकि युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग (यू.के.) जैसे कई विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जिन्होंने इस सम्बंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं।

इस युनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर हांग यैंग चैटजीपीटी को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने के पक्ष में नहीं हैं। यैंग के अनुसार इस तकनीक द्वारा लिखे गए काम का पता लगाना काफी मुश्किल है लेकिन छात्रों को अधुनातन टेक्नॉलॉजी से दूर रखना भी उचित नहीं है। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें ऐसी तकनीकों के साथ काम करना होगा। वे अभी इसका सही उपयोग करना नहीं सीखेंगे तो यकीनन पीछे रह जाएंगे। लिहाज़ा, इसे शिक्षण में एकीकृत करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। एक उदाहरण… 

वायु प्रदूषण के शिक्षक के रूप में यैंग ने अपने छात्रों से कॉलेज परिसर में वायु-गुणवत्ता डैटा एकत्रित करने के लिए छोटे समूहों में काम करने कहा। डैटा विश्लेषण और व्यक्तिगत निबंध लिखने के लिए उन्हें सांख्यिकीय तरीकों का उपयोग करना था। इस काम में कई छात्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का आकलन करने के लिए उपयुक्त विधि खोजने में संघर्ष कर रहे थे। तब यैंग ने प्रोजेक्ट डिज़ाइन करने के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करने का सुझाव दिया। इस मॉडल की मदद से उन्हें कार्बन डाईऑक्साइड निगरानी उपकरणों के लिए स्थान की पहचान करने से लेकर उपकरण स्थापित करने, डैटा एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने तथा परिणामों को प्रस्तुत करने के बेहतरीन सुझाव मिले। 

इस प्रोजेक्ट में छात्र-वैज्ञानिकों ने विश्लेषण और निबंध लिखने का सारा काम किया लेकिन उन्होंने यह भी सीखा कि कैसे एलएलएम की मदद से वैज्ञानिक विचारों को तैयार किया जाता है और प्रयोगों की योजना बनाई जा सकती है। चैटजीपीटी की मदद से वे सांख्यिकीय परीक्षण करने तथा प्राकृतिक और मानव निर्मित परिसर में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तरों का विश्लेषण करने में काफी आगे जा पाए।                   

इस अभ्यास के बाद से यैंग ने मूल्यांकन के तरीकों में भी परिवर्तन किया ताकि छात्र शैक्षिक सामग्री को बेहतर ढंग से समझें और चोरी करने से बच सकें। निबंध लिखने की बजाय यैंग ने प्रोजेक्ट के निष्कर्षों को साझा करने के लिए छात्रों को 10 मिनट की मौखिक प्रस्तुति देने को कहा। इससे न केवल साहित्यिक चोरी की संभावना में कमी आई बल्कि मूल्यांकन प्रक्रिया अधिक संवादनुमा और आकर्षक हो गई।  

हालांकि, चैटजीपीटी के कई फायदों के साथ नकारात्मक पहलू भी हैं। उदाहरण के तौर पर यैंग ने ग्रीनहाउस गैसों के व्याख्यान के दौरान चैटजीपीटी से जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित किताबों और लेखकों की सूची मांगी। इसी सवाल में उन्होंने नस्ल और भाषा के पूर्वाग्रह को रोकने के लिए खोज में “जाति और भाषा का ख्याल किए बगैर” जैसे शब्दों को भी शामिल किया। लेकिन फिर भी चैटजीपीटी के जवाब में सभी किताबें अंग्रेज़ी में थीं और 10 में से 9 लेखक श्वेत और 10 में से 9 लेखक पुरुष थे।  

वास्तव में एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए पुरानी किताबों और वेबसाइटों की जानकारी का उपयोग करने से हाशिए वाले समुदायों के प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण नज़र आता है, जबकि वर्चस्वपूर्ण वर्ग की उपस्थिति बढ़ जाती है। मेटा कंपनी के गैलेक्टिका नामक एलएलएम को इसीलिए हटाया गया है क्योंकि यह नस्लवादी सामग्री उत्पन्न कर रहा था। गौरतलब है कि एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला अधिकांश डैटा अंग्रेज़ी में है, इसलिए वे उसी भाषा में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। एलएलएम का व्यापक उपयोग विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के अति-प्रतिनिधित्व को बढ़ा सकता है, और पहले से ही कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को और हाशिए पर धकेल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पिघलता, आकार बदलता रोबोट

छोटे आकार का एक ऐसा रोबोट बनाया गया है जो अपना आकार बदलने में माहिर है। यह दुर्गम स्थानों तक पहुंचकर काम कर सकता है और पिंजरों से बाहर भी निकल सकता है। ऐसी संभावना है कि इसका उपयोग हैंड्स-फ्री सोल्डरिंग मशीन या फिर निगली गई ज़हरीली वस्तुओं को निकालने वाले उपकरण के रूप में किया जा सकेगा।

मानव शरीर में पाए जाने वाले संकीर्ण और नाज़ुक स्थानों पर काम करने के किए नर्म और लचीले रोबोट तो पहले से ही मौजूद हैं लेकिन वे दबाव नहीं झेल पाते और अधिक भार भी नहीं उठा पाते। इस समस्या से निपटने के लिए पेनसिल्वेनिया स्थित कार्नेजी मेलन युनिवर्सिटी के कार्मल मजीदी और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा रोबोट तैयार किया है जो न सिर्फ अपना आकार बदल सकता है बल्कि तरल और ठोस अवस्था में परिवर्तन के ज़रिए शक्तिशाली या दुर्बल भी बन सकता है।

मिलीमीटर साइज़ के रोबोट को तैयार करने के लिए तरल धातु गैलियम के साथ नीयोडिमियम, लोहे तथा बोरोन से बने चुम्बकीय पदार्थों के सूक्ष्म टुकड़ों का उपयोग किया गया है। ठोस अवस्था में यह रोबोट अपने वज़न से 30 गुना अधिक वज़न उठा सकता है। चुम्बकों की मदद से इसे लचीला, नर्म बनाया जा सकता है, गति करवाई जा सकती है और तरल में बदला जा सकता है। रोबोट में मौजूद चुम्बकीय टुकड़े इसे अलग-अलग दिशाओं में विकृत कर सकते हैं।   

शोधकर्ताओं ने रोबोट को छलांग लगवाने के लिए अधिक मज़बूत चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग किया। इसके अलावा, परिवर्तनशील चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करने पर रोबोट की तरल धातुओं में विद्युत धारा उत्पन्न हुई जिसने रोबोट को गर्म किया और अंतत: पिघला दिया। इस लचीलेपन का फायदा उठाते हुए टीम ने दो रोबोट तैयार किए जो एक सर्किट बोर्ड में छोटे प्रकाश बल्ब को सोल्डर करने के लिए बनाए गए थे। अपने लक्ष्य पर पहुंचने पर ये रोबोट बल्ब के किनारों के चारों ओर पिघल गए और बल्ब सर्किट बोर्ड में जुड़ गया।

एक प्रयोग में कृत्रिम आमाशय के अंदर शोधकर्ताओं ने अलग तरह से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न किया ताकि रोबोट एक वस्तु तक पहुंचकर पिघलकर चिपक जाए और वस्तु को खींचकर बाहर निकाला जा सके।

इसी क्रम में उन्होंने रोबोट को एक छोटे से लेगो का आकार दिया और उसे एक पिंजरे में कैद कर दिया। पिघलने पर यह रोबोट पिंजरे की सलाखों के बीच से बहकर बाहर आ गया। जब यह पिघला हुआ रोबोट पुन: एक सांचे में गिरा तो वह अपनी मूल, ठोस अवस्था में वापस आ गया।

इन पिघलने वाले रोबोट्स का उपयोग आपातकालीन स्थिति में किया जा सकता है जहां मानव या पारंपरिक रोबोटिक हाथ अव्यवहारिक हो जाते हैं। जैसे यह रोबोट अंतरिक्ष यान के खोए हुए पेंच के स्थान पर पहुंचकर स्वयं को पिघलाकर उस स्थान पर जम सकता है। अलबत्ता मनुष्यों या किसी जीव के शरीर में इसका उपयोग करने के लिए. सुरक्षा की दृष्टि से, ज़रूरी होगा कि हर कदम पर इसकी स्थिति पता लगाने का कोई तरीका हो (स्रोत फीचर्स)

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लेज़र की मदद से तड़ित पर नियंत्रण

स्विट्ज़रलैंड के कुछ भौतिकविदों ने शक्तिशाली लेज़र की मदद से वज्रपात को नियंत्रित करने का दावा किया है। दावा है कि इस तकनीक का उपयोग हवाई अड्डों, रॉकेट लॉन्चपैड और अन्य संवेदनशील इमारतों की सुरक्षा हेतु किया जा सकेगा। वैसे, यह स्पष्ट नहीं है कि यह अत्यधिक महंगी तकनीक अपेक्षाकृत सस्ते तड़ित चालक से बेहतर काम कर सकती है या नहीं।

जब आकाशीय विद्युत रास्ता बनाते हुए धरती पर किसी वस्तु से टकराती है तब बादलों से धरती तक 30,000 एम्पियर का करंट बहता है। इस ज़ोरदार करंट से इमारतों की दीवारें टूट सकती है या आग लग सकती है।        

वर्तमान में तड़ित से होने वाली क्षति से सुरक्षा के लिए तड़ित चालक का उपयोग किया जाता है जिसका आविष्कार 1752 में बेंजामिन फ्रेंकलिन ने किया था। तड़ित चालक इमारत की छत पर धातु की एक नुकीली रॉड होती है और उसे एक तार या धातु की पट्टी से ज़मीन से जोड़ दिया जाता है। छड़ एक मज़बूत विद्युत क्षेत्र बनाती है जो तड़ित को इमारत से दूर रखता है। यदि बिजली इस छड़ से टकरा जाए तो धरती से जुड़ा तार करंट को सुरक्षित रूप से धरती में पहुंचा देता है।

1960 के दशक में लेज़र के आविष्कार के बाद से ही वैज्ञानिक इसका उपयोग एक तड़ित चालक के रूप में करने पर विचार करते रहे हैं – लेज़र पुंज आयनित हवा का एक सीधा मार्ग बनाएगा जिससे विद्युत धारा आसानी से प्रवाहित हो जाएगी। लेकिन शक्तिशाली लेज़र के साथ किए गए शुरुआती प्रयास विफल रहे थे क्योंकि थोड़ी दूरी के भीतर ही आयनित हवा ने लेज़र के प्रकाश को अवशोषित कर लिया जिससे आयनित वायु मार्ग बहुत उबड़-खाबड़ हो गया।        

1990 के दशक में फेम्टोसेकंड पल्स वाला लेज़र तैयार हुआ। यह एक सुचालक चैनल बनाने में काफी प्रभावी साबित हुआ। लेज़र प्रकाश कुछ हवा को आयनित कर देता है जो एक लेंस की तरह काम करती है जो प्रकाश को एक महीन लंबे फिलामेंट में केंद्रित कर देता है। इस पतले पुंज ने हवा को गर्म किया जिससे एक कम घनत्व वाली हवा का चैनल तैयार हुआ जो बिजली का बेहतर चालक होता है। प्रयोगशाला सफलता के बावजूद प्राकृतिक तड़ित को नियंत्रित करने के प्रयास विफल रहे।      

हाल ही में जेनेवा विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञानी लेज़र पुंज की मदद से तड़ित को नियंत्रित करने में सफल रहे। उन्होंने 124 मीटर ऊंचे एक दूरसंचार टॉवर के पास एक फेम्टोसेकंड लेज़र स्थापित किया। इस टॉवर पर साल में 100 से अधिक बार बिजली गिरती है।       

प्रयोग के दौरान टॉवर पर कम से कम 15 बार बिजली टकराई जिसमें से चार बार लेज़र प्रणाली चालू थी। नेचर फोटोनिक्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जिस समय लेज़र प्रणाली चालू थी तब बिजली गिरने की 4 घटनाओं में बिजली ने लेज़र पुंज के मार्ग का अनुसरण किया।

इस बार सफलता का एक कारण यह रहा कि लेज़र को प्रति सेकंड 1000 बार फायर किया गया था जबकि पूर्व में प्रति सेकंड 10 बार फायर किया जाता था। शोधकर्ताओं के अनुसार निरंतर फायर करने से उथल-पुथल भरे वातावरण में भी एक स्थिर प्रवाही चैनल बना रहा। इसके अलावा उन्होंने स्थान भी ऐसा चुना था जहां बिजली हमेशा एक ही बिंदु पर गिरती है।  

पांच वर्ष में तैयार किए गए इस लेज़र उपकरण की लागत लगभग 36 करोड़ रुपए है। उपयोग करने से पहले इसके विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग करके पहाड़ी पर ले जाया गया, वहां उन्हें जोड़ा गया और इसे रखने के लिए भवन निर्माण हेतु एक विशाल हेलीकाप्टर की मदद ली गई। इसकी कुशलता को साबित करने के लिए प्रयोग तो चलते रहेंगे लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि क्या 36 करोड़ रुपए की लागत वाला लेज़र सस्ते तड़ित चालक का मुकाबला कर पाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चैट-जीपीटी – अजूबा या धोखेबाज़ी का नया औज़ार? – लाल्टू

मैं जिस संस्थान में काम करता हूं, पिछले ढाई महीनों से वहां कई अध्यापक ईमेल पर ‘चैट-जीपीटी’ पर चर्चा कर रहे हैं। दरअसल पूरी दुनिया में तालीम और अध्यापन से जुड़े लोगों में बड़ी संजीदगी से यह चर्चा चल रही है। खास तौर पर मौलिक लेखन को लेकर एक संकट सा फैलता दिख रहा है। तो चैट-जीपीटी क्या है?

कृत्रिम बुद्धि में मील का पत्थर – चैट-जीपीटी

हाल में कंप्यूटर साइंस और सूचना टेक्नॉलॉजी में जो तरक्की हुई है, उसी की एक कड़ी एआई यानी कृत्रिम बुद्धि में हुए शोध की है। इसके कई पहलुओं में रोबोटिक्स, भाषा की प्रोसेसिंग या नैचुरल लैंग्वेज़ प्रोसेसिंग (एन.एल.पी.) आदि हैं। चैट-जीपीटी ओपन-एआई नामक एक कंपनी द्वारा बनाया ऐसा सॉफ्टवेयर है, जिससे कोई पहले से प्रशिक्षित (प्री-ट्रेन्ड) कंप्यूटर, किसी विषय को समझ कर उसके बारे में नए लेख ‘उत्पन्न’ यानी अपनी ओर से पेश कर सकता है। इसके और भी कई चमत्कार हैं, जैसे कलाकृतियां या गीत आदि पेश करना, परंतु ज़्यादा शंकाएं इसकी लेखन-महारत को लेकर हैं।

लार्ज लैंग्वेज़ मॉडल –  चैटबॉट

नवंबर 2022 के आखरी दिन बाज़ार में आया यह सॉफ्टवेयर दरअसल लंबे समय से चले आ रहे शोध की एक कड़ी है। पूर्व के ऐसे मॉडल GPT-3 शृंखला के लार्ज लैंग्वेज़ मॉडल (LLM) या चैट-बॉट (chatbot) कहलाते थे। बॉट शब्द रोबोट से आया है। ‘चैट’ यानी गुफ्तगू। तो चैटबॉट हुआ कंप्यूटर से गुफ्तगू। जब इंटरनेट पर मौजूद किसी सॉफ्टवेयर-प्रोग्राम से बार-बार खास किस्म का काम करवाया जा सके (भला या बुरा कुछ भी), तो उसे बॉट कहा जाता है। चैट-जीपीटी भी चैट-बॉट ही है; इसकी खासियत पूर्व मॉडल्स की तुलना में कहीं ज़्यादा बेहतर समझ और उसके मुताबिक लेख तैयार करने में है।

शंकाएं

कमाल इस बात का है कि हालांकि चैट-जीपीटी से तैयार किए गए लेख पूरी तरह सही नहीं होते, और ध्यान से पढ़ने पर उनमें गलतियां दिख जाती हैं, फिर भी हर किस्म के लेखन की दुनिया में इसे लेकर बड़ी चिंता जताई जा रही है। नेचर समेत विज्ञान की नामी शोध पत्रिकाओं में आम पाठकों और वैज्ञानिक समुदाय को इसके गलत इस्तेमाल पर सचेत करते हुए आलेख छपे हैं। यह आशंका जताई गई है कि आधुनिक विज्ञान की जटिलता की वजह से चैट-जीपीटी की मदद से तैयार जाली लेख के सार पढ़कर विषय के माहिर यह ताड़ नहीं पाएंगे कि लेख जाली है और उसे छापने की रज़ामंदी दे देंगे।

न्यूरॉन-तंत्र से प्रेरित सॉफ्टवेयर

चैट-बॉट को समझने का एक आसान तरीका गूगल-ट्रांसलेशन हो सकता है। अगर आप गूगल कंपनी की इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, तो आप जानते होंगे कि बार-बार इस्तेमाल करने से तर्जुमे की गुणवत्ता बेहतर होती जाती है: पहली कोशिश में जो गलतियां होती हैं और हम उन्हें सुधारते हैं तो कंप्यूटर उस सुधार को समझ लेता है और अगली कोशिश में वह संशोधित शब्द या वाक्य ही सामने लाता है। चैट-बॉट में इसे और भी ऊंचे स्तर तक ले जाया गया है। कृत्रिम बुद्धि के शोध में इसे मशीन-लर्निंग (मशीन का सीखना) कहा जाता है। जैविक न्यूरॉन-तंत्र से प्रेरित जटिल सॉफ्टवेयर तैयार किए गए हैं, जिनमें जैविक-तंत्र की तरह ही सूचना की प्रोसेसिंग होती है, और जैसे हमारा ज़हन किसी प्राप्त जानकारी के प्रति कोई प्रतिक्रिया पेश करता है, उसी तरह कंप्यूटर भी दी गई जानकारी को सीख कर किसी कहे मुताबिक एक प्रतिक्रिया पेश करता है।

इसी तरह के शोध की सबसे अगली कड़ी में चैट-बॉट होते हैं। इनका इस्तेमाल दरअसल लेखन को बेहतर बनाने के लिए यानी गलतियों को कम करने के लिए ही किया जाना चाहिए। इसका फायदा उठाते हुए कई लोगों ने शोध के आंकड़ों को चैट-बॉट में दर्ज करके बेहतरीन पर्चे तैयार किए हैं। जाहिर है, पूरी तरह चैट-बॉट का लिखा पर्चा सही नहीं हो सकता, क्योंकि मशीन आखिर मशीन है और उससे सौ फीसदी सही नतीजा नहीं आ सकता।

फिर भी गड़बड़ी की आशंका बेवजह नहीं है – जैसे किसी विशेषज्ञ की किसी बिलकुल नए शोध पर भरपूर महारत ना होना, या व्यस्तता के कारण सामने आए लेख को सरसरी निगाह से देखना जैसी कई वजहों से, अक्सर पूरी तरह सही ना होते हुए भी लेख छप जाते हैं। इसी तरह अध्यापक अगर बड़ी तादाद में छात्रों की कॉपियां जांचते हैं तो अक्सर किसी का लिखा पूरा पढ़ पाना मुमकिन नहीं होता; तब तजुर्बे के आधार पर जितना हो सके पढ़कर जांच का नतीजा तय हो जाता है – यहीं पर चैट-जीपीटी जैसे ताकतवर सॉफ्टवेयर से खतरा पेश आता है।

आम तौर पर नकल या जाली काम पकड़ने के लिए प्लेजिएरिज़्म यानी नकल-पकड़ चेकर (plagiarism checker)  सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल होता है। ऐसा पाया गया है कि अक्सर चैट-बॉट से तैयार लेखों के सार इस तरह की जांच से बच निकलते हैं। इससे वैज्ञानिक लेखन की नैतिकता को लेकर बड़े सवाल सामने आए हैं और नेचर पत्रिका और ए-आई के मशहूर सम्मेलनों में आने वाले पर्चों के लिए चैट-जीपीटी के इस्तेमाल की मनाही हो गई है। दुनिया भर में तालीम के संस्थान चैट-जीपीटी पर नई नीतियां तय कर रहे हैं; मसलन न्यूयॉर्क शहर में सभी स्कूलों में चैट-जीपीटी के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी गई है, यानी इन स्कूलों में मौजूद किसी भी कंप्यूटर पर और इंटरनेट के जरिए उपलब्ध संसाधनों में चैट-जीपीटी पर रोक लगा दी गई है। यह रोक मिल रही जानकारी की प्रामाणिकता को लेकर शंकाओं की वजह से लगाई गई है। कई विषयों में सामान्य जानकारियां सुनकर चैट-बॉट बेहतरीन निबंध तैयार कर सकता है। इससे छात्रों को अभ्यास के लिए दी गई सामग्री की जांच के नतीजे सही ना हो पाने की आशंका बढ़ गई और ऐसा लगने लगा कि चैट-बॉट की मदद से जाली काम और नकल को बढ़ावा मिलेगा। अमेरिका के कई दूसरे शहरों में भी इस तरह के प्रतिबंध पर सोचा जा रहा है।

रोक हल नहीं है

ऐसी शंकाएं पहले तब भी जताई जा चुकी हैं, जब चैट-बॉट जैसे ताकतवर सॉफ्टवेयर नहीं होते थे और कंप्यूटर या ए-आई टेक्नॉलॉजी में कोई विलक्षण तरक्की नहीं हुई थी। इसलिए कई माहिरों का कहना है कि रोक लगाने से समस्या का निदान नहीं होता है। दूसरी ओर, चैट-जीपीटी से जो फायदे होने हैं, रोक के चलते छात्र उनसे वंचित रह जाएंगे। बेहतर यह है कि अभ्यास के लिए कैसा काम दिया जाए, इस पर सोचा जाए। जैसे हाल में मिली जानकारियों पर आधारित काम दिए जा सकते हैं, जिन पर चैट-जीपीटी के तंत्र में जानकारी नहीं होगी।

ऐसा भी किया सकता है कि छात्रों से सचेत रूप से चैट-जीपीटी का इस्तेमाल करने को कहा जाए और इससे मिले आउटपुट पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने को कहा जाए, ताकि यह पता चल सके कि छात्र को वाकई विषय की कितनी समझ है। या क्लास में उनसे सवाल पूछे जाएं, जिससे उनकी काबिलियत का सही अंदाज़ा हो सके।

मूल समस्या पूंजीवादी व्यवस्था

मूल समस्या यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में कम लागत में ज़्यादा से ज़्यादा काम लेने की कोशिश की वजह से ये सारे उपाय नाकामयाब रह जाते हैं; अक्सर अध्यापकों के पास इतना वक्त नहीं होता कि वे जांच के लिए ज़रूरी भरपूर ध्यान दें। साथ ही जहां समाज में गैर-बराबरी है, अगर चैट-जीपीटी का कोई फायदा है तो बस उनके लिए है जो इसके इस्तेमाल का खर्चा उठा पाएंगे।

विज्ञान लेखन में नैतिकता

नैतिकता को ध्यान में रखकर, कई वैज्ञानिक तो चैटबॉट का इस्तेमाल करने पर लेखकों की सूची में चैट-जीपीटी को भी शामिल कर रहे हैं, पर ज़्यादातर वैज्ञानिक इसके खिलाफ हैं। यह मुमकिन है चैट-जीपीटी को लेखक कहना एक मज़ाक हो – पालतू जानवरों और नकली नामों को शामिल करने के ऐसे मज़ाक पहले भी होते रहे हैं। पर ऐसा भी हो सकता है कि शोध की जानकारियों को गलत ढंग से लिखने या जाली बातें लिख कर पकड़े जाने से बचने के लिए भी कोई चैट-जीपीटी को लेखकों में शामिल करे। इसलिए प्रकाशन-संस्थाएं इस बात को संजीदगी से ले रही हैं और लेखकों को अपने लिखे की पूरी ज़िम्मेदारी लेने के लिए कह रही हैं। वैज्ञानिक पर्चों में एक से ज़्यादा लेखकों का होना आम बात है: शोध के काम में कोई मूल सवालों पर सोचता है, कोई प्रयोग करता है आदि, और इस वजह से अलग-अलग किस्म की भागीदारी होती है, जिसका सही श्रेय मिलना लाज़मी है। 

टेक्नॉलॉजी बनाम इंसान

सूचना टेक्नॉलॉजी की बड़ी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने ओपेन-आई कंपनी में दस अरब डॉलर लगाना तय किया है। माइक्रोसॉफ्ट ने पहले ही तीन अरब डॉलर ओपेन-आई में लगाए हैं। ज़ाहिर है, बड़ी टेक-कंपनियों ने चैट-जीपीटी की कामयाबी को बड़ी संजीदगी से लिया है। पर इससे एक और खतरा सामने आता दिखता है। हाल में ही माइक्रोसॉफ्ट समेत कई कंपनियों ने बड़ी तादाद में कर्मचारियों की छंटनी की घोषणा की है। जैसे-जैसे मशीनों की काबिलियत बढ़ेगी, इंसान की मेहनत गैर-ज़रूरी होती जाएगी। इससे बेरोज़गारी बढ़ेगी और समाज में तनाव बढ़ेंगे। माइक्रोसॉफ्ट के मुख्य प्रबंधन प्रभारी सत्य नडेला ने कहा है कि दस हज़ार लोगों की छंटनी के बाद कंपनी ए-आई के शोध पर ज़्यादा फोकस कर पाएगी।

जैसा अक्सर होता है, ओपेन-आई कंपनी की शुरुआत मुनाफा न कमा कर शोध कार्य करने के लिए हुई थी, पर वक्त के साथ शोध के लिए पैसे जुटाने हेतु कंपनी में तैयार सॉफ्टवेयर को बेचा जाने लगा और आज यह चैटबॉट बनाने वाली सबसे कामयाब मुनाफादायक कंपनी बन चुकी है।

रोचक बात यह है कि टेक्नॉलॉजी से आई बीमारियों का इलाज टेक्नॉलॉजी में ही ढूंढा जाता है। बेशक जहां पर्याप्त सुविधा हो, ए-आई का इस्तेमाल बढ़ता चलेगा। इसे खारिज करना आसान नहीं है, पर सावधानी और गलत इस्तेमाल के रोकथाम की गुंजाइश रहेगी। आखिर कौन नहीं चाहता कि कोई धोखेबाज हमें उल्लू न बनाए! चैट-जीपीटी के गलत इस्तेमाल को पकड़ने के लिए कई सॉफ्टवेयर तैयार हो चुके हैं, जिनमें  ओपेन-आई-डिटेक्टर, जी-एल-टी-आर, जीपीटी-ज़ीरो आदि मुख्य हैं। इनकी मदद से अध्यापक यह पकड़ सकते हैं कि किसी छात्र ने खुद अभ्यास का काम न करके चैटबॉट की मदद से किया है। जहां इम्तिहानों में छूट दी जाती है कि छात्र घर बैठकर भी सवाल हल कर सकें, वहां भी इन चैट-जीपीटी प्रतिरोधी ऐप आदि से पकड़ना आसान हो गया है कि किसी ने मौलिक काम किया है या नहीं। इस दिशा में बहुत सारा शोध जारी है और उम्मीद यही है कि चैट-जीपीटी से जितना खतरा आंका गया है, आखिर में ऐसा न होकर इसका बेहतर इस्तेमाल ही होता रहेगा।  फिलहाल यही कहा जा सकता है कि आिखरी जीत इंसान की समझ और इल्म की ही होगी और टेक्नॉलॉजी एक हद तक ही हमें मात दे पाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन रोमन इमारतों की मज़बूती का राज़

युरोप में आज भी प्राचीन रोमन इमारतें दिखाई देती हैं। 2000 से अधिक वर्ष पूर्व निर्मित हमाम, जल प्रणालियां और समुद्री दीवारें आज भी काफी मज़बूत हैं। इस मज़बूती और टिकाऊपन का कारण एक विशेष प्रकार की कॉन्क्रीट है जो आज के आधुनिक कॉन्क्रीट की तुलना में अधिक टिकाऊ साबित हुआ है। हाल ही में इस मज़बूती का राज़ खोजा गया है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि कॉन्क्रीट के साथ अनबुझे चूने का उपयोग करने से मिश्रण को सेल्फ-हीलिंग (स्वयं की मरम्मत) का गुण मिला होगा। प्राचीन रोमन कॉन्क्रीट का अध्ययन करने वाली भूवैज्ञानिक मैरी जैक्सन के अनुसार इससे आधुनिक कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

गौरतलब है कि कॉन्क्रीट का उपयोग रोमन साम्राज्य से भी पहले से किया जा रहा था लेकिन व्यापक स्तर पर इसका उपयोग सबसे पहले रोमन समुदाय ने किया था। 200 ईसा पूर्व तक उनकी अधिकांश निर्माण परियोजनाओं में कॉन्क्रीट का उपयोग किया जाने लगा था। रोमन कॉन्क्रीट मुख्य रूप से अनबुझे चूने, ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाली गिट्टियों (टेफ्रा) और पानी से बनाया जाता था। इसके विपरीत आधुनिक कॉन्क्रीट पोर्टलैंड सीमेंट से बनता है जिसे आम तौर पर चूना पत्थर, मिट्टी, रेत, चॉक और अन्य पदार्थों के मिश्रण को पीसकर भट्टी में बनाया जाता है। इसके बावजूद यह 50 वर्षों में उखड़ने लगता है।  

पूर्व में भी वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट की मज़बूती को समझने के प्रयास किए हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि समुद्र के संपर्क में आने वाली संरचनाएं जब समुद्री जल से संपर्क में आती हैं तब कॉन्क्रीट के अवयवों और समुद्री पानी की प्रतिक्रिया नए और अधिक कठोर खनिज बनाती हैं।                        

इसकी और अधिक संभावनाओं को तलाशने के लिए मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के रसायनज्ञ एडमिर मैसिक और उनके सहयोगियों ने रोम के नज़दीक 2000 वर्ष पुराने प्रिवरनम नामक पुरातात्विक स्थल की एक प्राचीन दीवार से ठोस नमूने एकत्रित किए। इसके बाद उन्होंने कंक्रीट में जमा हुए छोटे-छोटे कैल्शियम के ढेगलों पर ध्यान दिया जिन्हें लाइम लम्प्स कहा जाता है।

कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ये लम्प्स कॉन्क्रीट को ठीक से न मिलाने के कारण रह जाते होंगे। लेकिन मैसिक की टीम ने रोमन लोगों द्वारा कॉन्क्रीट में पानी मिलाने से पहले अनबूझा चूना उपयोग करने की संभावना पर विचार किया। गौरतलब है कि अनबूझा चूना चूना पत्थर को जलाकर तैयार किया जाता है। इसमें पानी मिलाने पर एक रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिसमें काफी मात्रा में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस दौरान चूना पूरी तरह से नहीं घुल पाता और कॉन्क्रीट में चूने की गिठलियां बन जाती हैं। इसे और अच्छे से समझने के लिए वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट बनाया जो प्रिवरनम से एकत्रित नमूनों के एकदम समान था।         

साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित अध्ययन में टीम ने बताया है कि उन्होंने इस कॉन्क्रीट में छोटी-छोटी दरारें बनाईं – ठीक उसी तरह जैसे समय के साथ कॉन्क्रीट में दरारें पड़ जाती हैं। फिर उन्होंने इन दरारों में पानी डाला जिससे चूने की गिलठियां घुल गईं और सभी दरारें भर गईं। इस तरह कॉन्क्रीट की मज़बूती भी बनी रही। ।

आधुनिक कॉन्क्रीट 0.2 या 0.3 मिलीमीटर से बड़ी दरारों को ठीक नहीं करता है जबकि रोमन कॉन्क्रीट ने 0.6 मिलीमीटर तक की दरारों को ठीक तरह से भर दिया था।    

मैसिक को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में काफी मदद करेंगे। इसकी सामग्री न केवल वर्तमान कॉन्क्रीट से सस्ती है बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी काफी मदद कर सकती है। वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सीमेंट उत्पादन का हिस्सा 8 प्रतिशत है। इस तकनीक के उपयोग से इसे काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सौर जल अपघटन से हरित ऊर्जा

काफी लंबे समय से वैज्ञानिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए सूरज की ऊर्जा और पानी का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं; लगभग उसी तरह जैसे पौधे प्रकाश संश्लेषण के दौरान करते हैं। सूर्य के प्रकाश का उपयोग करते हुए पानी के अणुओं को तोड़ने की वर्तमान तकनीक इतनी कार्यक्षम नहीं है कि इसे व्यवसायिक रूप से अपनाया जा सके। अलबत्ता, हालिया शोध से कुछ उम्मीद जगी है।

पूर्व में सूर्य की ऊर्जा से पानी के अणुओं को विभाजित करने के प्रयासों में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन अणुओं के बंधन को तोड़ने के लिए ऊर्जावान फोटॉन की आवश्यकता होती है। इसके लिए कम तरंग लंबाई यानी अधिक ऊर्जावान (पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश के कम) फोटॉन यह काम कर सकते हैं। लेकिन सूर्य से जो रोशनी पृथ्वी तक पहुंचती है उसमें 50 प्रतिशत तो इन्फ्रारेड (अवरक्त) फोटॉन होते हैं जिनमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती। 

हालिया नई तकनीक में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के बंधन को तोड़ने के लिए दो रणनीतियां आज़माई गई हैं।

पहली तकनीक में प्रकाश-विद्युत-रासायनिक सेल (फोटोइलेक्ट्रोकेमिकल सेल, पीईसी) का उपयोग किया जाता है। यह उपकरण एक बैटरी के समान होता है। इसके दो इलेक्ट्रोड एक तरल इलेक्ट्रोलाइट में डूबे रहते हैं। इनमें से एक इलेक्ट्रोड एक छोटे सौर सेल की तरह काम करता हैं – सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करके उसकी ऊर्जा को विद्युत आवेश में बदल देता है। ये आवेश इलेक्ट्रोड पर उपस्थित उत्प्रेरकों को मिलते हैं और वे पानी के अणु विभाजित कर देते हैं। एक इलेक्ट्रोड पर हाइड्रोजन गैस और दूसरे पर ऑक्सीजन गैस उत्पन्न होती है।

सर्वोत्तम पीईसी सूर्य के प्रकाश की लगभग एक-चौथाई ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित करता है। लेकिन इसके लिए संक्षारक इलेक्ट्रोड की आवश्यकता होती है जो काफी तेज़ी से प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को नष्ट करता है।  

मोनोलिथिक फोटोकैटेलिटिक सेल नामक दूसरी रणनीति में बैटरी जैसा उपकरण उपयोग न करके प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को सीधे पानी में डुबाकर रखा जाता है। यह अर्धचालक सूर्य के प्रकाश का अवशोेषण करके विद्युत आवेश उत्पन्न करता है जो इसकी सतह पर उपस्थित उत्प्रेरक धातुओं को मिलता और वे पानी के अणु विभाजित कर देती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन पास-पास उत्पन्न होते हैं और फिर से जुड़कर पानी बना देते हैं।    

फोटोकैटेलिटिक सेल की दक्षता काफी कम है और सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का केवल 3 प्रतिशत ही हाइड्रोजन में परिवर्तित होता है। इसका एक समाधान अर्धचालकों के आकार को पारंपरिक सौर पैनलों के बराबर करना है। लेकिन पानी को विभाजित करने वाले अर्धचालक पारंपरिक सिलिकॉन सौर पैनलों की तुलना में काफी महंगे होते हैं जिसके कारण इनका उपयोग घाटे का सौदा है।

इस नए अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के रसायनज्ञ ज़ेटियन मी ने फोटोकैटेलिटिक उपकरण में एक बड़े-से लेंस का उपयोग किया। लेंस ने सूर्य के प्रकाश को एक छोटे-से क्षेत्र पर केंद्रित कर दिया जिससे पानी के अणुओं को तोड़ने वाले अर्धचालक के आकार और लागत को कम किया जा सका। मी ने एक परिवर्तन यह भी किया कि पानी के तापमान को 70 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया जिससे अधिकांश हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों को पुन: पानी में परिवर्तित होने से रोका जा सका।

मी द्वारा बनाया गया नवीनतम उपकरण न केवल पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश का उपयोग करता है बल्कि कम ऊर्जावान इन्फ्रारेड फोटोन के साथ भी काम करता है। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन परिवर्तनों की मदद से वैज्ञानिक सूर्य की 9.2 प्रतिशत ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित कर पाए।

मी के अनुसार पीईसी की तुलना में फोटोकैटेलिटिक सेल का डिज़ाइन काफी आसान है और बड़े पैमाने पर उत्पादन से इसकी लागत में और कमी आएगी। इसके अलावा नया सेटअप थोड़ी कम कुशलता से ही सही लेकिन समुद्री जल जैसे सस्ते संसाधन के साथ भी काम करता है। समुद्री जल को कार्बन-मुक्त ईंधन में परिवर्तित करना हरित ऊर्जा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान होगा। बहरहाल, इस तरह के उपकरण के व्यावसायिक उपयोग में कई समस्याएं आएंगी। जैसे एक समस्या तो यह होगी कि हाइड्रोजन व ऑक्सीजन गैसों को दूर-दूर कैसे रखा जाए क्योंकि अन्यथा उनकी अभिक्रिया क्रिया काफी विस्फोटक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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