हाथियों की मृत्यु का कारण सायनोबैक्टीरिया! – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

स साल 25 मई को बोत्सवाना के ओकावांगो पैनहैंडल के ऊपर विमान से निगरानी करते हुए वन संरक्षकों की टीम को 169 मृत हाथी दिखाई दिए। और अधिक खोज करने पर 356 हाथी मृत पाए गए। हत्यारों की खोज में जुटे विशेषज्ञों को कुछ खास सुराग नहीं मिल रहा था। चूंकि इतने सारे हाथियों का एक साथ मरना कोई सामान्य घटना तो थी नहीं, इसलिए संदेह था कि या तो उन्हें ज़हर देकर मारा गया है या इलाके में कोई अज्ञात बीमारी फैली है।

दुनिया भर के एक-तिहाई हाथी बोत्सवाना में पाए जाते हैं। हाथी और गेंडे के अवैध शिकार की कुछेक छुटपुट घटनाओं के अलावा बोत्सवाना हाथियों के संरक्षण के लिए सुरक्षित एवं महत्वपूर्ण ठिकाना साबित हुआ है।

किसी भी हाथी के शरीर में गोलियों के निशान नहीं थे और हाथी दांतों का ना निकाला जाना भी इस बात का सबूत था कि शायद इनका शिकार बहुमूल्य दांतों के लिए नहीं किया गया है। ज़मीन में पाए जाने वाले एंथ्रेक्स बैक्टीरिया के संक्रमण को भी बोत्सवाना की शासकीय प्रयोगशाला ने नकार दिया था।

प्रारंभ में बोत्सवाना सरकार द्वारा देश के बाहर से सहायता ना लेने और चुप्पी साधने के कारण हाथियों की हत्याओं का रहस्य बरकरार था।

फिर महीनों तक जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और अमेरिका के विशेषज्ञों ने मामले की जांच की। बोत्सवाना के अधिकारियों ने बताया कि हाथियों की मृत्यु का कारण सायनोबैक्टीरिया द्वारा उत्पन्न तंत्रिका विष है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह विष पीने के पानी के साथ हाथियों के शरीर में पहुंचा और उसने मस्तिष्क की कोशिकाओं पर बुरा असर डाला। नीले-हरे शैवाल के रूप में मशहूर सायनोबैक्टीरिया ठहरे हुए पानी में पाए जाते हैं और सायनोटॉक्सिन नामक विष बनाते हैं, जो मानव व जंतुओं को गंभीर रूप से बीमार कर सकता है। गर्मी बढ़ने से तथा फॉस्फोरस की उपलब्धता में सायनोबैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करते हैं और सायनोटॉक्सिन अधिक मात्रा में उत्पन्न करते हैं। सायनोटॉक्सिन तंत्रिका तंत्र के अलावा लीवर और त्वचा पर भी गंभीर प्रभाव डालता है।

यद्यपि अधिकारिक घोषणा में सायनोबैक्टीरिया को हाथियों की मृत्यु का कारण बताया गया परंतु पानी पीने के स्थानों पर अन्य जानवरों की लाशें प्राप्त नहीं हुर्इं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि शायद हाथी सायनोटॉक्सिन के प्रति अति संवेदनशील होते हैं और दूसरे जानवर प्रतिरोधी। इसके अलावा हाथी एक बार में 150 लीटर पानी पी जाते हैं, इसलिए छोटे जंतुओं की तुलना में उनके शरीर में सायनोटॉक्सिन की मात्रा अधिक गई होगी। यह भी हो सकता है कि कीचड़ में लोटने और पानी से ज़्यादा देर खेलने के कारण विष त्वचा को भेदकर शरीर में फैल गया हो। परंतु गिद्धों वगैरह में विष का प्रभाव नहीं देखा गया। इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि तंत्रिका विष तो मस्तिष्क एवं मेरु रज्जू में जमा हुआ होगा जिसे जानवर नहीं खाते हैं। बहरहाल, उक्त निष्कर्ष को लेकर संदेह भी व्यक्त किए गए हैं। जैसे केन्या के एक संरक्षणकर्ता कैथ लिंडसे कहते हैं कि बोत्सवाना सरकार द्वारा पड़ताल के प्रारंभिक चरण में अन्य संस्थाओं से सहयोग न लेने के कारण हम एक रहस्य को उजागर करने में पीछे रह गए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वुडरैट के घोंसलों में एंटीबायोटिक निर्माता बैक्टीरिया

वुडरैट चूहे जैसा एक जंतु होता है जो अपने बिल में प्राय: टहनियां वगैरह जमा करता है। फ्लोरिडा के निकट छोटे-छोटे टापुओं पर पाए जाने वाले की लार्गो वुडरैट्स जंगल में फेंकी गई पुरानी कारों, नौकाओं और छोटे प्लास्टिक घरों में अपने घोंसले बनाने लगे हैं। उनके आवास गंदगी से घिरे होने के कारण, उनका जीवन जोखिमपूर्ण लगता है। लेकिन हाल के एक अध्ययन से सर्वथा विपरीत स्थिति सामने आई है। उनके घोंसले ना सिर्फ कृंतकों यानी कुतरने वाले जंतुओं में होने वाले आम रोगों से मुक्त थे, बल्कि उनमें एंटीबायोटिक बनाने वाले बैक्टीरिया भी थे।

1800 के अंत में, अनानास की खेती के लिए की लार्गो के जंगलों को साफ किया गया था। तब वुडरैट बचे-खुचे जंगलों में रहने लगे लेकिन जिन पेड़ों पर वे अपने बिल बनाते थे वे अधिकांश नष्ट हो चुके थे। 1980 के आसपास द्वीप के उत्तरी छोर पर फिर से जंगल पनपना शुरू हुआ, और अब वहां 1000 हैक्टर से भी कम संरक्षित क्षेत्र में कुछ हज़ार वुडरैट बसे हैं।

लेकिन द्वीप पर सीमित जगह होने की वजह से यह जंगल पुरानी कारों और वाशिंग मशीन का डंपिंग ग्राउंड बन गया। तब अप्रत्याशित रूप से वुडरैट्स इस डंपिंग ग्राउंड में बसने लगे। कबाड़ बन चुकी कारों में वुडरैट्स लकड़ी और पत्तियों से अपने घोंसले बनाने लगे। संरक्षणकर्ताओं ने इस ओर ध्यान दिया और जिन इलाकों में घोंसला बनाने की प्राकृतिक सामग्री कम थी वहां उन्हें कबाड़ मुहैया कराया। और प्लास्टिक पाइप और पत्थरों से 1000 से अधिक कृत्रिम घोंसले भी तैयार किए।

यह जानने के लिए कि कृत्रिम घोंसलों में रोगजनक सूक्ष्मजीव तो नहीं पनप रहे, कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के सूक्ष्मजीव पारिस्थितिकीविद मेगन थेम्स और उनके साथियों ने 10 कृत्रिम घोंसलों में पनपने वाले सूक्ष्मजीवों का पता लगाया। इसकी तुलना उन्होंने लकड़ियों और पत्तियों से बने 10 ‘प्राकृतिक’ घोंसलों, उनके आसपास के स्थानों की मिट्टी और वुडरैट्स की त्वचा से लिए गए नमूनों से की। उन्होंने बैक्टीरिया के डीएनए का अनुक्रमण भी किया।

शोधकर्ताओं को किसी भी घोंसले में बैक्टीरिया जनित कोई रोग नहीं मिला। यहां तक कि चूहों में आम तौर पर फैलने वाली बीमारी प्लेग और लेप्टोस्पायरोसिस भी घोंसलों से नदारद थी। इकोस्फीयर पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि वुडरैट्स में भी बीमारियों का प्रसार कम दिखा। वहीं वुडरैट के कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों घोंसलों में ऐसे बैक्टीरिया मिले जो एरिथ्रोमाइसिन सहित कई एंटीबायोटिक बनाते हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि एंटीबायोटिक बनाने वाले ये बैक्टीरिया ही रोगजनकों को घोंसलों से दूर रखते हैं। लेकिन घोंसले में सूक्ष्मजीवों की विविधता और प्रचुरता एक कारक ज़रूर हो सकता है।

अध्ययन रेखांकित करता है कि जीवों के संरक्षण प्रयास में यह जानना महत्वपूर्ण है कि संरक्षण के प्रयास जानवरों और पर्यावरण के सूक्ष्मजीव संसार की विविधता को किस तरह प्रभावित करते हैं। सौभाग्यवश वुडरैट के संरक्षण के फलस्वरूप कृत्रिम आवास में उनका सूक्ष्मजीव संसार नहीं बदला था। शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि वुडरैट्स के घोंसलों मे एंटीबायोटिक बनाने वाले बैक्टीरिया आते कहां से हैं।

अन्य स्तनधारियों में रोगजनकों का सफाया करने वाले सूक्ष्मजीव किस तरह कार्य करते हैं इसे समझना मनुष्यों के अपने रोगों के खिलाफ लड़ने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि में मददगार हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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हमिंगबर्ड की जीवन-रक्षक तंद्रा

ऊंचे एंडीज़ पर्वतों पर पाई जाने वाली हमिंगबर्ड की प्रजातियां वहां कुल्फी जमा देने वाली ठंड का सामना करती हैं। ये नन्हीं और फुर्तीली हमिंगबर्ड ठंड से बचने के लिए विचित्र रास्ता अपनाती हैं। वे अपने शरीर का तापमान रात में कम कर लेती हैं। और अब हालिया अध्ययन में पता चला है कि बर्फीली रातों में जीवित बचने के लिए ये अपने शरीर का तापमान सामान्य की तुलना में 33 डिग्री सेल्सियस तक कम कर सकती हैं।

अपने छोटे आकार के हिसाब से हमिंगबर्ड की चयापचय दर सभी कशेरुकी जीवों की तुलना में सबसे अधिक होती है। यह मनुष्यों की चयापचय दर से लगभग 77 गुना अधिक होती है। इसी वजह से उन्हें लगातार खाते रहना पड़ता है। लेकिन जब बहुत ठंड हो जाती है या अंधेरा हो जाता है तो भोजन तलाशना मुश्किल हो जाता है। यदि शरीर का तापमान सामान्य बनाए रखना है तो बहुत अधिक ऊर्जा की खपत होती है, जिसकी पूर्ति के लिए भोजन मिलना मुश्किल होता है। इसलिए ये अपने शरीर का तापमान बहुत कम कर लेती हैं, जो उन्हें भूख से मरने से बचाता है।

इस अवस्था को टॉरपोर या तंद्रा की अवस्था कहते हैं। टॉरपोर में पक्षी गतिहीन हो जाते हैं और किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। इस अवस्था में इन्हें देखने पर पता भी नहीं चलता कि ये जीवित हैं या नहीं। लेकिन सुबह होते ही वापस सक्रिय होकर भोजन की तलाश शुरू कर देते हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ न्यू मेक्सिको के वुल्फ और उनके साथी देखना चाहते थे कि इन ऊंचे स्थानों पर हमिंगबर्ड की विभिन्न प्रजातियां टॉरपोर अवस्था का कितना उपयोग करती हैं। इसके लिए उन्होंने मार्च 2015 में समुद्र तल से लगभग 3800 मीटर ऊपर पेरू एंडीज़ पर्वत से छह विभिन्न प्रजातियों की 26 हमिंगबर्ड पकड़ीं, जिनमें मेटालुरा फीब सबसे छोटी और पैटागोना गिगाससबसे बड़ी थी। यहां रात का तापमान शून्य के करीब पहुंच जाता है।

अध्ययनकर्ताओं ने हरेक हमिंगबर्ड को कैंप के नज़दीक चिड़ियों के एक छोटे दड़बे में रखा। और उनके क्लोएका (मल त्यागने, अंडे देने का मार्ग) में एक तार फिट कर दिया। इस तार की मदद से उन्होंने पूरी रात पक्षियों के शरीर के तापमान पर नज़र रखी।

ना सिर्फ प्रत्येक प्रजाति की हमिंगबर्ड टॉरपोर अवस्था में गई, बल्कि कई हमिंगबर्ड के शरीर का तापमान शून्य डिग्री के करीब पहुंच गया। मेटालुरा फीब हमिंगबर्ड के शरीर का तापमान तो 3.3 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था, जो पक्षियों और गैर-हाइबरनेटिंग जीवों में सबसे कम दर्ज तापमान है। बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक टॉरपोर की अवस्था में हमिंगबर्ड्स के शरीर का तापमान सक्रिय अवस्था की तुलना में औसतन 26 डिग्री सेल्सियस घट जाता है (यानी यह औसतन 5 से 10 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है), जो कि लगभग वातावरण के तापमान के बराबर है। इससे उनकी चयापचय दर 95 प्रतिशत तक कम हो जाती है, और शरीर को गर्म रखने और ह्रदय गति सामान्य बनाए रखने जैसे कार्यों में लगने वाली ऊर्जा की बचत होती है। सामान्यत: उड़ान के वक्त हमिंगबर्ड का ह्रदय एक मिनट में 1000 से 1200 बार धड़कता है लेकिन टॉरपोर अवस्था में यह एक मिनट में महज़ 50 बार धड़कता है।

वैसे तो किसी जीव का सुप्तावस्था में जाना जोखिमपूर्ण हो सकता है, क्योंकि इस अवस्था में वे आसानी से शिकार हो सकते हैं। लेकिन ऊंचाई पर शिकारी अपेक्षाकृत कम होते हैं तो शिकार बनने का खतरा भी कम होता है। शोधकर्ता अपने अध्ययन में आगे देखना चाहते हैं कि हमिंगबर्ड अपने शरीर को इतना ठंडा कैसे कर लेती हैं।(स्रोत फीचर्स)

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चर्चित वनस्पति गिलोय – डॉ. किशोर पंवार

कोविड-19 के प्रकोप और खौफ के चलते बाज़ार में तरह-तरह की दवाओं और एंटीडोट के साथ-साथ इम्यूनिटी बूस्टर पदार्थों एवं दवाइयों की बाढ़-सी आ गई है। प्रोटीन जैसे सप्लीमेंट जो पहले मसल पॉवर बढ़ाने की बात करते थे, वे अचानक इम्यूनिटी बूस्टर हो गए हैं। जिन दवाइयों का विज्ञापन पहले शक्तिवर्धक के रूप में किया जाता था वे ही अचानक बाज़ार को देखते हुए इम्यूनिटी बूस्टर हो गई हैं।

पत्र-पत्रिकाओं में भी प्राकृतिक इम्यूनिटी बूस्टर फलों एवम पदार्थों की चर्चाएं हैं। जैसे खट्टे फल, नींबू, संतरा, अंगूर, लहसून, अदरख आदि। कोरोना के डर के चलते ग्रीन टी, पपीता, दही, कीवी, सूरजमुखी के बीज की मांग बढ़ गई है। विटामिन सी से भरपूर खट्टे फलों के बारे में कहा जाता है कि ये श्वेत रक्त कोशिकाओं को बढ़ाते हैं जो रोगकारकों से होने वाले संक्रमण से लड़ने का काम करते हैं। इसी तरह हल्दी में उपस्थित करक्यूमिन को भी इम्यूनिटी बूस्टर और एंटी-वायरल बताया जा रहा है। बचाव और सावधानी के लिए गोल्डन मिल्क आजकल खूब पिया जा रहा है।

सवाल यह है कि आखिर इम्यूनिटी है क्या, जिसे बूस्ट करने की ज़रूरत आन पड़ी है।

दरअसल शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली या रोग रोधक क्षमता को ही इम्यूनिटी कहा जाता है। इससे बैक्टीरिया, कवक, विषाणु जैसे संक्रमणकारी रोगजनक से लड़ने की हमारी शरीर की क्षमता बढ़ती है। इन दिनों इम्यूनिटी बूस्टर के नाम पर सर्वाधिक चर्चा में जो औषधियां हैं वे हैं तुलसी ड्रॉप्स और गिलोय वटी। आइए आज गिलोय के बारे में चर्चा करते हैं।    

डॉ. विजय नेगीहॉल द्वारा लिखित पुस्तक हैंडबुक ऑफ मेडिसिनल प्लांट्स में इसके कई नाम दिए गए हैं। आप और हम जिसे मात्र गिलोय के नाम से जानते हैं उसे आयुर्वेद में गुडुची के नाम से जाना जाता है। वनस्पति शास्त्र में गिलोय का टीनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया  है। आयुर्वेद की किताबों में गुणों के आधार पर इस पौधे के कई नाम मिलते हैं। जैसे पत्तियों से शहद जैसा गाढ़ा रस निकलता है तो नाम दे दिया मधुपर्णी। कटे हुए तने से फूटकर नया पौधा बन जाता है तो नाम हो गया छिन्नरूहा। इसका एक और नाम तंत्रिका है जो बेल से नीचे की ओर लटकती हवाई, तंतुनुमा, लंबी पतली धागों जैसी जड़ों के कारण दिया गया है। एक और नाम चक्रलक्षणिका है क्योंकि तने की आड़ी काट गाड़ी के पहियों जैसी नज़र आती है। किसी ने तो इसे कान के कुंडल की तरह देखा और नाम दे दिया कुंडलिनी।

अंत में सबसे खास नाम है अमृता। किंवदंती है कि अमृत मंथन के बाद निकले अमृत की बूंदें पृथ्वी पर जहां-जहां गिरीं उन्हीं बूंदों से इस वनस्पति की उत्पत्ति हुई। अत: इसे नाम दिया गया अमृता।

यह औषधीय महत्व की एक बहुवर्षीय, आरोही लता है जो बड़े-बड़े पेड़ों पर चढ़कर उन पर छा जाती है। यह मुख्यत: भारतीय उपमहाद्वीप का पौधा है और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। श्रीलंका और म्यांमार में भी मिलता है। यह तेज़ी से फैलने वाली झाड़ी है। पत्तियां बड़ी-बड़ी 15 सेंटीमीटर तक की होती हैं। बेल खेतों की मेड़ों, पहाड़ी चट्टानों और जंगलों में पेड़ों पर चढ़ी हुई पाई जाती है। पौधे एकलिंगी होते हैं, अर्थात नर बेल अलग और मादा बेल अलग होती है। ग्रीष्म ऋतु में पर्णहीन अवस्था में इस पर फूल आते हैं जो हरे पीले रंग के लंबी डंडियों पर लगते हैं। नर फूल समूह में जबकि मादा फूल अकेले ही खिलते हैं। फल चटक लाल नारंगी रंग के होते हैं जो 2 -3 के झुंड में लगते हैं। बीजों का फैलाव बुलबुल पक्षी के माध्यम से होता है।

इस बेल की पत्तियों, तने और जड़ में लगभग 29 प्रकार की एंडोफायटिक फफूंद पाई जाती हैं जो पौधे को कोई हानि नहीं पहुंचातीं। इन एंडोफायटिक फफूंद का रस एक बहुभक्षी पतंगे के नियंत्रण में बहुत उपयोगी पाया गया है।

इस औषधीय पौधे पर वर्तमान में दुनिया भर में शोध चल रहा है। सोहम साहा और शामश्री घोष द्वारा 2012 में एनशिएन्ट साइंस ऑफ लाइफ में प्रकाशित ‘वन प्लांट मैनी रोल्स’ के अनुसार इसमें एल्केलाइड्स, स्टेरॉयड्स, टरपीनॉइड्स और ग्लाइकोसाइड्स जैसे सक्रिय तत्व पाए गए हैं। एंटीडायबेटिक और एंटीबायोटिक प्रभाव के कारण विभिन्न बीमारियों में इसका काफी उपयोग किया जा रहा है।

गिलोय के इम्यूनोमॉड्यूलेटरी गुण अच्छी तरह से ज्ञात है। मिथाइल पायरोलीडोन, हाइड्रोक्सीमस्किटोन फार्माइल लेनोलेन जैसे सक्रिय तत्वों के प्रभाव प्रतिरक्षा तंत्र पर और कोशिका-विष के रूप में दर्ज किए जा चुके हैं।

जर्नल ऑफ एथ्नोफार्मेकोलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र में इसमें सात इम्यूनोमॉड्यूलेटरी सक्रिय पदार्थ रिपोर्ट किए गए। 2019 में प्रियंका शर्मा और अन्य द्वारा हैलियोन में प्रकाशित केमिकल कांस्टीट्यूएंट्स एंड डायवर्स फार्मेकोलॉजिकल इम्पॉर्टेन्स ऑफ टीनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया में 100 से अधिक सक्रिय तत्व पहचाने गए हैं। इनमें से कई इम्यूनोलॉजिकली सक्रिय पदार्थ हैं।

श्रीलंका विश्वविद्यालय एवं आयुर्वेद संस्थान के दिसानायके और सहयोगियों द्वारा 2020 में प्रकाशित एक पर्चे इम्यूनोमॉड्यूलेटरी एफिशिएंसी ऑफ टीनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया अगेंस्ट वायरल इंफेक्शन में बताया गया है कि इसमें ऐसे पदार्थ पाए गए हैं जो इम्यूनिटी को बढ़ाते हैं। उन्होंने पाया कि पौधों के शुष्क तने में इम्यूनोमॉड्यूलेटरी प्रोटीन पाया गया है जो मानव में इम्यूनोलॉजिकल क्रिया बढ़ाता है।

गिलोय के सक्रिय पदार्थ कब तक असरकारी रहते हैं इस संदर्भ में शांतिकुंज हरिद्वार द्वारा प्रकाशित पुस्तक जड़ी-बूटियों द्वारा स्वास्थ्य संरक्षण में अमृता के बारे में लिखा गया है कि इसके सक्रिय तत्व 2 महीने से ज़्यादा उपयोगी नहीं रहते। घनसत्व को भी 2 महीने से ज़्यादा सक्रिय नहीं माना जाता। अत: अच्छे लाभ के लिए ताज़े रस की ही सलाह दी जाती है। वैसे छाया में सुखाए गए तने को 3 महीने के अंदर उपयोग में लेने की बात कही गई है। तो यह शोध का विषय है कि फिर आयुर्वेदिक दवाइयों की एक्सपायरी डेट दो-तीन साल तक कैसे हो सकती है?

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गिलोय में बहुत सारे सक्रिय तत्व हैं जिनका गहन परीक्षण करने की ज़रूरत है। इसके औषधीय गुणों का ज़िक्र चरक और भाव प्रकाश निघंटु में भी किया गया है। इतनी उपयोगी इस बेल पर और गंभीरता से शोध की ज़रूरत है ।

एक और महत्वपूर्ण बात जो गिलोय के बारे में अक्सर पढ़ी-सुनी जाती है, वह यह कि नीम के ऊपर चढ़ी हुई गिलोय की बेल ज़्यादा औषधीय महत्व की होती है। इस पर भी शोध की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)

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मोटे लोगों में कोविड-19 अधिक घातक क्यों?

ब से कोविड-19 महामारी फैली है, कई अध्ययन बता चुके हैं कि कोविड-19 के गंभीर रूप से पीड़ित मरीज़ों में मोटापे से ग्रस्त लोगों की संख्या सबसे अधिक है। हाल में हुए कुछ अध्ययन भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि थोड़े से अधिक वज़न वाले लोगों में भी कोविड-19 के संक्रमण का अधिक जोखिम होता है। मसलन ओबेसिटी रिव्यू में प्रकाशित एक मेटा-विश्लेषण कहता है कि कोविड-19 के मरीज़ों में, सामान्य वज़न वाले लोगों की तुलना में मोटे लोगों के अस्पताल में भर्ती होने की संभावना 113 प्रतिशत अधिक, आईसीयू में पहुचंने की संभावना 74 प्रतिशत अधिक, और मृत्यु की संभावना 48 प्रतिशत अधिक थी।

वैसे तो, सामान्य वज़न वाले लोगों की तुलना में मोटापे के शिकार लोगों में दिल की समस्या, फेफड़े सम्बंधित समस्या और मधुमेह जैसी अन्य बीमारियां होने की संभावना अधिक ही होती है। ये बीमारियां अपने आप में ही कोविड-19 के जोखिम को बढ़ाती हैं। मोटे लोगों में चयापचय सिंड्रोम होने की संभावना भी रहती है, जिसमें रक्त शर्करा का स्तर, वसा का स्तर, या दोनों का स्तर असामान्य रहता है और उच्च रक्तचाप की समस्या हो जाती है जिससे जोखिम और बढ़ता है। लेकिन सिर्फ और सिर्फ मोटापे से शिकार लोगों में कोविड-19 अधिक गंभीर रूप ले सकता है। ऐसा मोटापे की वजह से शरीर की कुछ प्रणालियों पर पड़े प्रभाव के कारण होता है। इनमें प्रतिरक्षा तंत्र की दुर्बलता, खून के थक्के जमने की प्रवृत्ति शामिल हैं जो कोविड-19 को गंभीर बना सकती हैं।

दरअसल एक तो होता यह है कि पेट की अधिक चर्बी डायफ्राम को ऊपर धकेलती है जिसके कारण फेफड़ों पर दबाव पड़ता है और वायु प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। इससे फेफड़ों का आयतन कम हो जाता है और फेफड़ों के निचले हिस्से की वायु थैलियां बंद हो जाती हैं। फेफड़ों के ऊपरी हिस्से की तुलना में निचले हिस्से में ऑक्सीजन के लिए अधिक रक्त आता है, लेकिन मोटापे के कारण वहां वायु कम पहुंच रही होती है। ऐसे में कोविड-19 का संक्रमण तेज़ी से गंभीर रूप से ले लेता है।

इसके अलावा मोटे लोगों के रक्त में थक्का बनने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, जो संक्रमण की गंभीरता में और अधिक इज़ाफा करते हैं। सामान्यत: रक्त वाहिकाओं की आंतरिक सतह की कोशिकाएं रक्त का थक्का ना बनने देने के संकेत देती हैं। लेकिन कोविड-19 का संक्रमण होने पर संभवत: वायरस इन कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त कर देते हैं, और रक्त को गाढ़ा करने वाला तंत्र सक्रिय हो जाता है।

मोटे लोगों का प्रतिरक्षा तंत्र भी कमज़ोर होता है। दरअसल, तिल्ली, अस्थि मज्जा और थाइमस जैसे अंगों में, जहां प्रतिरक्षा कोशिकाएं बनती हैं और सहेजी जाती हैं, वहां वसा कोशिकाएं घुसपैठ कर लेती हैं। फलस्वरूप प्रतिरक्षा ऊतकों की जगह वसा ऊतक ले लेते हैं, और प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या में कमी आती है प्रतिरक्षा प्रणाली कम प्रभावी हो जाती है। यह देखा गया है कि फ्लू का टीका दिए जाने के बाद भी सामान्य वज़न वाले लोगों की तुलना में मोटे लोगों में इसके संक्रमण की संभावना दोगुनी होती है। यानी कोविड-19 के टीकों के परीक्षण में मोटे लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि ये उन पर कम प्रभावी हो सकते हैं।

इसके अलावा मोटापे से शिकार लोग जीर्ण, निम्न स्तर की शोथ से पीड़ित रहते हैं। वसा कोशिकाएं शोथ पैदा करने वाले साइटोकाइन संदेशवाहक रसायन स्रावित करती हैं, और प्रतिरक्षा कोशिकाएं मृत वसा कोशिकाओं का सफाया करती हैं। ये दोनों मिलकर साइटोकाइन्स की गतिविधि को बेलगाम कर देते हैं जिसके कारण कोविड-19 का संक्रमण गंभीर रूप ले सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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हीमोफीलिया का नया उपचार

हीमोफिलिया एक ऐसा विकार है जिससे पीड़ित व्यक्ति में रक्त का थक्का नहीं बन पाता। ऐसे में थोड़ी भी चोट लगने पर खून बहना जल्द बंद नहीं होता। अब तक हीमोफीलिया से गंभीर रूप से पीड़ित व्यक्ति को हफ्ते में तीन से चार बार तक रक्त का थक्का जमाने वाले फैक्टर लेना पड़ता था क्योंकि एक बार लेने के बाद यह शरीर में थोड़े समय तक ही टिकता है। लेकिन हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस फैक्टर में एक छोटा प्रोटीन जोड़ने पर पाया कि यह फैक्टर तुलनात्मक रूप से लंबे समय तक शरीर में टिका रह सकता है। पीड़ित को हफ्ते में 3-4 बार की बजाय सिर्फ एक बार इसे लेना होगा।

सामान्यत: हीमोफीलिया दो तरह का होता है: टाइप ए और टाइप बी। टाइप ए हीमोफीलिया शरीर में थक्का जमाने वाले फैक्टर VIII की कमी से होता है और टाइप बी हीमोफीलिया थक्का जमाने वाले फैक्टर IX की कमी से। यह विकार पुरुषों में अधिक देखा गया है। इसमें भी अधिकतर पुरुष टाइप ए हीमोफीलिया से पीड़ित होते हैं। इससे पीड़ित लोगो को क्लॉटिंग डिसऑर्डर, जोड़ों की समस्या और जानलेवा रक्त स्राव (कभी-कभी साल में 30 से भी अधिक बार तक) होता है। इसके उपचार के लिए फैक्टर VIII या अन्य थक्का जमाने वाले प्रोटीन लिए जाते हैं।

सामान्यत: फैक्टर VIII शरीर के एक अन्य प्रोटीन वॉन विलब्रांड फैक्टर (VWF) से जुड़ जाता है जो फैक्टर VIII को शरीर में टिकाऊ बनाता है और इसे विघटित होने से बचाता है। लेकिन VWF भी फैक्टर VIII की हाफ-लाइफ शरीर में 15 घंटे से अधिक नहीं कर पाता है। इसलिए फैक्टर VIII की खुराक एक हफ्ते में तीन से चार बार तक लेनी पड़ती है।

ब्लडवर्क्स नॉर्थवेस्ट की हीमेटोलॉजिस्ट बारबरा कोंकल और उनकी टीम कृत्रिम फैक्टर लेने के इस बार-बार के झंझट से निजात दिलवाना चाहती थीं। इसलिए उनकी टीम ने एक प्रोटीन में VWF का सिर्फ वह हिस्सा जोड़कर BIVV001 नामक एक नया प्रोटीन विकसित किया जो फैक्टर VIII को स्थायित्व देता है। शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि यह नया प्रोटीन-संकुल थक्का बनाने वाले फैक्टर को शरीर में रोककर रखेगा और शरीर के VWF से नहीं जुड़ेगा।

इसकी पुष्टि करने के लिए शोधकर्ताओं ने हीमोफिलिया ए से पीड़ित और इसका उपचार लेने वाले सोलह पुरुषों पर अध्ययन किया। उन्होंने प्रतिभागियों को दो समूह में बांटा। पहले तो दोनों समूह के प्रतिभगियों को सिर्फ फैक्टर VIII की खुराक दी, लेकिन एक समूह को कम खुराक और दूसरे समूह को अधिक खुराक दी। चूंकि फैक्टर VIII तीन दिन में शरीर से खत्म हो जाता है इसलिए इसे देने के तीन दिन बाद उन्होंने प्रत्येक प्रतिभागी को नए संलयित प्रोटीन, BIVV001, का इंजेक्शन दिया। और प्रतिभागियों पर 28 दिन तक नज़र रखी।

उन्होंने पाया कि BIVV001 इंजेक्शन देने के पहले तक कम खुराक वाले लोगों में फैक्टर VIII की हाफ लाइफ 9.1 घंटे थी, और अधिक खुराक वाले लोगों में फैक्टर VIII की हाफ लाइफ 13.2 घंटे थी। लेकिन BIVV001 का इंजेक्शन देने के बाद कम खुराक वाले समूह में हाफ लाइफ औसतन 37.6 घंटे हो गई और अधिक खुराक वाले समूह में 42.5 घंटे हो गई। शोधकर्ताओं ने दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में बताया है कि उपचार के दौरान किसी भी मरीज़ ने फैक्टर VIII के लिए प्रतिरोध विकसित नहीं किया, और ना ही उनमें इसके प्रति किसी तरह की संवेदनशीलता या एलर्जी दिखी।

फिलहाल इसके तीसरे चरण का परीक्षण चल रहा है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी पर इतना पानी कहां से आया?

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पृथ्वी पर जा-ब-जा मौजूद पानी जीवन के लिए अनिवार्य भी है और वैज्ञानिकों की चिंता का मसला भी कि पृथ्वी पर इतना पानी आया कहां से। क्या पानी पृथ्वी के बनने के समय से मौजूद है, या पृथ्वी सूखी बनी थी और पानी से समृद्ध किसी बाहरी पिंड/पिंडों के टकराने के बाद पृथ्वी पर पानी आया? और अब साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक नया अध्ययन यह संभावना जताता है कि पृथ्वी पर पानी यहीं उपस्थित मूल निर्माणकारी पदार्थों से आया है।

कई वैज्ञानिक मानते आए हैं कि पृथ्वी पर पानी बर्फीली उल्काओं या धूमकेतुओं जैसे बाहरी पिंडों के पृथ्वी से टकराने के साथ आया होगा। लेकिन कुछ ग्रह विज्ञानी ऐसा नहीं मानते।

इसलिए फ्रांस के शैल व भू-रसायन विज्ञान केंद्र की लॉरेट पियानी और उनके साथियों ने 13 दुर्लभ उल्काओं का बारीकी से अध्ययन किया और उनमें पानी की मौजूदगी के संकेत तलाशे। अध्ययन के लिए शोधर्ताओं ने ऐसी उल्काओं को चुना जिनमें पृथ्वी पर गिरने के बाद परिवर्तन नहीं हुए थे। चूंकि हाइड्रोजन-ऑक्सीजन की अभिक्रिया से पानी बनता है इसलिए शोधकर्ताओं ने इन उल्काओं में हाइड्रोजन की मात्रा पता की। जितनी अधिक हाइड्रोजन इन पदार्थों में होगी, उतना अधिक योगदान ये पृथ्वी के पानी में दे सकते हैं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं को सामान्य उल्काओं की तुलना में इन उल्काओं में बहुत कम हाइड्रोजन मिली।

इसलिए इसके बाद शोधकर्ताओं ने उल्कापिंडों में ड्यूटेरियम-हाइड्रोजन का अनुपात पता किया। गौरतलब है कि ड्यूटेरियम हाइड्रोजन का ही एक भारी समस्थानिक है। उन्होंने पाया कि यह अनुपात पृथ्वी के आंतरिक भाग के ड्यूटेरियम-हाइड्रोजन अनुपात के समान है, जिसमें बहुत अधिक पानी मौजूद है। इस अतिरिक्त प्रमाण से शोधकर्ताओं को लगता है कि पृथ्वी पर मौजूद पानी और पृथ्वी के निर्माणकारी पदार्थों के बीच कुछ सम्बंध है।

इस अध्ययन पर नासा के जॉनसन स्पेस सेंटर की ग्रह विज्ञानी एनी पेसलीयर खुशी जताती हैं और कहती हैं कि यह मॉडल समझना आसान लगता है कि पृथ्वी पर पानी शुरुआत से ही है बजाय किसी बाहरी पिंड की मेहरबानी से। यदि हम मानते हैं कि पृथ्वी पर पानी किसी बाहरी पिंड से आया है तो इतने अधिक पानी के लिए किसी असामान्य घटना की ज़रूरत होगी। वे यह भी कहती हैं कि हो सकता है कि बहुत सारा पानी शुरुआत से मौजूद हो और कुछ पानी बाद में आया हो।

बहरहाल पानी से जुड़े कई रहस्य अनसुलझे हैं। जैसे अब भी यह पता लगाया जा रहा है कि पृथ्वी के अंदर कितना पानी मौजूद है। (स्रोत फीचर्स)

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मधुमक्खियों की क्षति से जुड़ी हैं गंभीर समस्याएं – भारत डोगरा

देश व दुनिया दोनों स्तरों पर समाचार आ रहे हैं कि अनेक देशों व क्षेत्रों में मधुमक्खियों की संख्या में भारी कमी आ रही है। इसका एक स्पष्ट प्रतिकूल असर यह नज़र आता है कि अच्छी गुणवत्ता के प्राकृतिक शहद की उपलब्धि में कमी होगी। बाज़ार में इसकी डिब्बाबंद उपलब्धि अधिक नज़र आएगी पर इसमें शुद्धता व पौष्टिकता की कमी होगी, कृत्रिम पदार्थों की मिलावट अधिक होगी।

इस प्रतिकूल परिणाम के अतिरिक्त एक अन्य दुष्परिणाम इससे भी कहीं अधिक गंभीर है, वह है परागण में कमी। अनेक खाद्य फसलों व पौधों के परागण में मधुमक्खियों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि मधुमक्खियों में अत्यधिक कमी आएगी तो इसका निश्चय ही खेती व बागवानी,फसलों व पौधों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यह एक ऐसी गंभीर क्षति है जिसकी पूर्ति अन्य किसी तरीके से नहीं हो सकती है।

यह क्षति तो तभी कम हो सकती है जब मधुमक्खियों की, विशेषकर स्थानीय प्रजातियों की, रक्षा की जाए। प्राय: यह देखा गया कि परागण की जो प्राकृतिक भूमिका बहुत स्वाभाविक ढंग से और मुस्तैदी से स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियां निभाती हैं, वह बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खियां नहीं निभा सकतीं। उदाहरण के लिए, कई बार ठंडी जलवायु के देशों (जैसे इटली) की मधुमक्खियों को गर्म जलवायु के देशों (जैसे भारत) में यह कह कर लाया गया है कि इससे शहद का बेहतर उत्पादन हो सकेगा, पर हकीकत में नए इलाके की गर्म जलवायु में ये मधुमक्खियां परागण में अधिक रुचि ही नहीं लेती हैं या स्वभावगत तत्परता नहीं दिखाती हैं।

भारत के कुछ भागों में बाहरी मधुमक्खियों की प्रजातियों को लाने पर भी कुछ समस्याएं आर्इं। केरल व दक्षिण भारत के कुछ भागों में एपिस मेलीफेरा मधुमक्खी को बाहर से लाने पर एक वायरसजन्य बीमारी फैली जिससे स्थानीय मधुमक्खियां बड़ी संख्या में मारी गई। दूसरी ओर, स्थानीय परिवेश में अनुकूलन न होने के कारण बाहरी प्रजाति की मधुमक्खियां भी मरने लगीं। बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खी के पालन पर खर्च अधिक होता है, अत: छोटे किसान व निर्धन परिवार इसे नहीं अपना पाते।

यह भी देखा गया है कि मधुमक्खियों में विविधता स्थानीय पौधों की प्रजातियों की जैव विविधता से जुड़ी हुई है। इस तरह स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियों के क्षतिग्रस्त होने से पौधों की जैव विविधता की बहुत क्षति हो रही है।

कर्नाटक के वैज्ञानिक डॉ. चन्द्रशेखर रेड्डी ने एक अनुसंधान में पाया कि राज्य में बाहरी प्रजातियों की जो मधुमक्खियों कृत्रिम ढंग से स्थापित की गर्इं थी उनमें से 95 प्रतिशत खत्म हो गर्इं या विफल हो गर्इं। जो बचीं उन्हें भी बहुत चीनी खिलाकर व दवा के बल पर जीवित रखा गया। पश्चिमी घाट में कई अनुकूल पौधे होने के बावजूद ये मधुमक्खियां वहां भी बहुत कम शहद तैयार कर पार्इं।

मधुमक्खियों सम्बंधी इन विसंगति भरी नीतियों में सुधार करने के लिए यहां के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता पांडुरंग हेगड़े ने परंपरागत शहद का कार्य करने वाले गांववासियों को जोड़कर मधुमक्खी रक्षा अभियान (सेव हनी बी कैम्पैन) आरंभ किया है।

इस तरह के अभियान विश्व के कुछ अन्य भागों में भी सक्रिय हो रहे हैं। इनकी एक मुख्य मांग यह भी है कि कृषि में रासायनिक कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों व जंतुनाशकों का उपयोग न्यूनतम किया जाए क्योंकि इनका ज़हरीला संपर्क मधुमक्खियों के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध होता है। जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों का प्रसार भी मधुमक्खियों के लिए बहुत हानिकारक माना गया है।

ग्लायफोसेट कीटनाशक से स्वास्थ्य के गंभीर खतरों के बारे में जानकारियां समय-समय पर मिलती रही हैं। भारत में भी इसका उपयोग होता है। ग्लायफोसेट का उपयोग जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के साथ भी नज़दीकी तौर से जुड़ा रहा है। ऐसे खरपतवारनाशकों का उपयोग खेतों के अतिरिक्त शहरों के बाग-बगीचों आदि में भी हो रहा है। ग्लायफोसेट को प्रतिबंधित करने की मांग विश्व स्तर पर ज़ोर पकड़ रही है।

पारिस्थितिकी में मधुमक्खियों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इन विभिन्न सावधानियों को ध्यान में रखते हुए मधुमक्खियों की रक्षा की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। यदि प्राकृतिक वनों की रक्षा हो व जैविक खेती का प्रसार हो तो इससे मधुमक्खियों की रक्षा में बहुत सहायता मिलेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीटनाशक के उपयोग से पहले ही मच्छरों में प्रतिरोध

न दिनों अफ्रीकी घरों में मलेरिया वाहक मच्छरों से निपटने के लिए एक विशेष कीटनाशक के उपयोग की योजना बनाई जा रही है। लगभग 2 वर्ष पूर्व विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने क्लॉथियानिडीन के छिड़काव को घरों के भीतर मच्छर नियंत्रण का एक मुख्य हथियार माना था। वैसे तो क्लॉथियानिडीन का उपयोग लंबे समय से फसलों से कीटों का सफाया करने के लिए किया जा रहा था लेकिन कीटों में प्रतिरोध विकसित होने से इसकी प्रभावशीलता खत्म हो रही है। घरों में इसके उपयोग की योजना बनाते हुए इसके प्रति मच्छरों में पहले से मौजूद प्रतिरोध के सबूतों की तलाश की जा रही है।   

सेंटर फॉर रिसर्च इन इंफेक्शियस डिसीज़ेस, कैमरून के वैज्ञानिकों ने इसके प्रमाण खोज निकाले हैं। उन्होंने हाल ही में कैमरून की राजधानी याउंडे के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों से कुछ मच्छरों पर अध्ययन किया जिनमें दो प्रमुख मलेरिया वाहक भी शामिल थे। bioRxivप्रीप्रिंट के माध्यम से वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक अतिसंवेदनशील परीक्षण में एनॉफिलीस कोलुज़ी (Anopheles coluzzii) प्रजाति के मच्छरों को एक घंटे तक क्लॉथियानिडीन के संपर्क में रखने पर सभी मच्छरों का सफाया हो गया जबकि एनॉफिलीस गेम्बिए(Anopheles coluzzii) प्रजाति की 55 प्रतिशत आबादी पर इस कीटनाशक का कोई असर नहीं हुआ।

यह मलेरिया वाहक मच्छरों में क्लॉथियानिडीन के प्रतिरोध की पहली रिपोर्ट है। अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता कॉलिन्स कामडेम के अनुसार यदि इस प्रकार का डैटा पहले मौजूद होता तो WHO इस कीटनाशक को कभी स्वीकृति न देता। अध्ययन से यह भी पता चलता है कि एक कीटनाशक को उपयोग में लाने से पहले प्रतिरोध के लिए मलेरिया वाहक परीक्षण कितना महत्वपूर्ण है। पिछले 2 दशक में कीटनाशक लेपित मच्छरदानी और घरों में छिड़काव से मलेरिया मृत्यु दर और रुग्णता में कमी आई है। इन कार्यक्रमों में 4 वर्गों के कीटनाशकों का उपयोग किया गया लेकिन सबसे अधिक निर्भरता प्राकृतिक रूप से निर्मित पायरेथ्रोइड्स पर रही। ये सस्ते हैं और मनुष्यों सहित अन्य स्तनधारियों के लिए हानिकारक भी नहीं हैं।

वास्तव में मच्छरों में पायरेथ्रोइड्स प्रतिरोध विकसित होने से WHO द्वारा क्लॉथियानिडीन को मंज़ूरी दी गई। इसके पूर्व कृषि कीटनाशकों के रूप में निकोटीन आधारित नियोनिकोटिनोइड्स के उपयोग की भी काफी आलोचना हुई है। क्लॉथियानिडीन भी इसी वर्ग का कीटनाशक है। परागणकर्ताओं पर इसके दुष्प्रभाव के चलते युरोप में कृषि उपयोग के लिए इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। जबकि कैमरून और अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों में कीटनाशक के रूप में इनका काफी अधिक उपयोग किया जा रहा है। कामडेम के अनुसार कृषि क्षेत्रों में नियोनिकोटिनॉइड कीटनाशक-अवशेषों से ही मच्छरों में इनके विरुद्ध प्रतिरोध विकसित हुआ है।  

हालांकि कई बड़ी कंपनियां घरों में छिड़काव के लिए मिश्रित कीटनाशक तैयार कर रही हैं लेकिन कामडेम इन सभी का परीक्षण मच्छरों पर करने की सलाह देते हैं। अब तक WHO द्वारा इस अध्ययन की समीक्षा नहीं की गई है लेकिन संभवत: क्लॉथियानिडीन प्रतिरोध अन्य कीटनाशकों की तुलना में कम व्यापक लगता है और इसलिए यह अभी तो एक उपयोगी विकल्प है लेकिन ऐसा कब तक रहेगा, कहना मुश्किल है।(स्रोत फीचर्स)

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सपनों का विश्लेषण करते एल्गोरिदम

म में से कई लोगों को अजीबो-गरीब सपने आते हैं। मनोविज्ञानी इन सपनों का विश्लेषण करके मरीज़ को तनाव की स्थिति से उबरने में मदद करते हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने एक ऐसा एल्गोरिदम विकसित किया है जो सपनों का विश्लेषण कर मरीज़ों के तनाव और मानसिक समस्या का कारण पहचानने में मदद कर सकता है।

वैसे तो सपनों के आधार पर निष्कर्ष निकालना प्राचीन काल से चला आ रहा है। लेकिन आजकल के अधिकांश मनोविज्ञानी ‘सातत्य परिकल्पना’ के तहत मानते हैं कि सपने हमारे जागते जीवन की निरंतरता होते हैं। वे सपनों को अलग-अलग वर्गों में छांटते हैं और उनमें किसी तरह का पैटर्न देखने की कोशिश करते हैं। इसमें समय लगता है। इस समय को घटाने के लिए नोकिया बेल लैब के कंप्यूटेशनल सोशल साइंटिस्ट लुसा मारिया एइलो और उनके साथियों ने एक एल्गोरिदम तैयार किया है। इस एल्गोरिदम की मदद से उन्होंने 24,000 से अधिक सपनों का विश्लेषण किया। इन सपनों के विवरण उन्होंने सपनों के सार्वजनिक डैटाबेस DreamBank.net से लिए थे।

यह एल्गोरिदम सपनों के विवरणों की भाषा को छोटे-छोटे हिस्सो में तोड़ता है: पैराग्राफ को वाक्यों में, वाक्यों को वाक्यांश में, और वाक्यांश को शब्दों में। फिर, हर शब्द का एक-दूसरे से सम्बंध पता करने के लिए एक वृक्ष बनाता है। वृक्ष का प्रत्येक शब्द एक पत्ती और शब्दों को जोड़ने वाली शाखाएं व्याकरण के नियम दर्शाती हैं। एल्गोरिदम इन शब्दों को अलग-अलग वर्गों में बांटता है (जैसे लोग या जानवर) और उन्हें सकारात्मक या नकारात्मक भावनाओं से जोड़ता है। शब्दों के बीच आक्रामक, दोस्ताना या लैंगिक सम्बंध भी देखे जाते हैं।

फिर, मनोविज्ञानियों के बीच लोकप्रिय एक कोडिंग प्रणाली का उपयोग कर एल्गोरिदम हर सपने के लिए स्कोर की गणना करता है, जैसे आक्रामकता का औसत, या नकारात्मक और सकारात्मक भावनाओं का अनुपात। रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मनोविज्ञानियों द्वारा दिए गए स्कोर और एल्गोरिदम द्वारा दिए गए स्कोर 76 प्रतिशत मेल खाते थे।

शोधकर्ताओं के अनुसार यह एल्गोरिदम मनोविज्ञानियों को असामान्य सपनों की पहचान करने में मदद कर सकता है, जिनसे मरीज़ के तनाव या मानसिक समस्या का कारण पता लगाया जा सकता है। एल्गोरिदम स्वस्थ व्यक्ति के सपनों के औसत स्कोर से मरीज़ों के सपनों के स्कोर की तुलना करके असामान्य सपनों की पहचान करता है। इसके अलावा, एल्गोरिदम यह भी बताता है कि अलग-अलग लिंग, आयु या मन:स्थिति के सपने किस तरह अलग-अलग होते हैं।

इस सम्बंध में हारवर्ड विश्वविद्यालय के रॉबर्ट स्टिकगोल्ड का कहना है कि यह तकनीक उपयोगी साबित हो सकती है। लेकिन विभिन्न जनांकिक समूहों के अपने सपनों का वर्णन करने के तरीके में अंतर के होने के कारण, सपनों में अंतर दिख सकते हैं। जैसे, ज़रूरी नहीं कि महिलाएं सपने में पुरुषों से अधिक भावनाओं का अनुभव करती हों, लेकिन वे सपनों को बताते वक्त अधिक भावुक शब्दों का उपयोग कर सकती हैं। इसलिए सपनों और सपनों के वर्णन में फर्क पहचानने की ज़रूरत है। स्टिकगोल्ड यह भी कहते हैं कि सपने देखने वाले के बारे में जाने बिना सपनों को जीवन से जोड़ना मुश्किल है। एइलो इससे सहमत हैं और मानते हैं कि यह एल्गोरिदम चिकित्सकों के मददगार औज़ार के रूप में काम करेगा, उनकी जगह नहीं लेगा।(स्रोत फीचर्स)

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