मधुमक्खियों की क्षति से जुड़ी हैं गंभीर समस्याएं – भारत डोगरा

देश व दुनिया दोनों स्तरों पर समाचार आ रहे हैं कि अनेक देशों व क्षेत्रों में मधुमक्खियों की संख्या में भारी कमी आ रही है। इसका एक स्पष्ट प्रतिकूल असर यह नज़र आता है कि अच्छी गुणवत्ता के प्राकृतिक शहद की उपलब्धि में कमी होगी। बाज़ार में इसकी डिब्बाबंद उपलब्धि अधिक नज़र आएगी पर इसमें शुद्धता व पौष्टिकता की कमी होगी, कृत्रिम पदार्थों की मिलावट अधिक होगी।

इस प्रतिकूल परिणाम के अतिरिक्त एक अन्य दुष्परिणाम इससे भी कहीं अधिक गंभीर है, वह है परागण में कमी। अनेक खाद्य फसलों व पौधों के परागण में मधुमक्खियों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि मधुमक्खियों में अत्यधिक कमी आएगी तो इसका निश्चय ही खेती व बागवानी,फसलों व पौधों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यह एक ऐसी गंभीर क्षति है जिसकी पूर्ति अन्य किसी तरीके से नहीं हो सकती है।

यह क्षति तो तभी कम हो सकती है जब मधुमक्खियों की, विशेषकर स्थानीय प्रजातियों की, रक्षा की जाए। प्राय: यह देखा गया कि परागण की जो प्राकृतिक भूमिका बहुत स्वाभाविक ढंग से और मुस्तैदी से स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियां निभाती हैं, वह बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खियां नहीं निभा सकतीं। उदाहरण के लिए, कई बार ठंडी जलवायु के देशों (जैसे इटली) की मधुमक्खियों को गर्म जलवायु के देशों (जैसे भारत) में यह कह कर लाया गया है कि इससे शहद का बेहतर उत्पादन हो सकेगा, पर हकीकत में नए इलाके की गर्म जलवायु में ये मधुमक्खियां परागण में अधिक रुचि ही नहीं लेती हैं या स्वभावगत तत्परता नहीं दिखाती हैं।

भारत के कुछ भागों में बाहरी मधुमक्खियों की प्रजातियों को लाने पर भी कुछ समस्याएं आर्इं। केरल व दक्षिण भारत के कुछ भागों में एपिस मेलीफेरा मधुमक्खी को बाहर से लाने पर एक वायरसजन्य बीमारी फैली जिससे स्थानीय मधुमक्खियां बड़ी संख्या में मारी गई। दूसरी ओर, स्थानीय परिवेश में अनुकूलन न होने के कारण बाहरी प्रजाति की मधुमक्खियां भी मरने लगीं। बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खी के पालन पर खर्च अधिक होता है, अत: छोटे किसान व निर्धन परिवार इसे नहीं अपना पाते।

यह भी देखा गया है कि मधुमक्खियों में विविधता स्थानीय पौधों की प्रजातियों की जैव विविधता से जुड़ी हुई है। इस तरह स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियों के क्षतिग्रस्त होने से पौधों की जैव विविधता की बहुत क्षति हो रही है।

कर्नाटक के वैज्ञानिक डॉ. चन्द्रशेखर रेड्डी ने एक अनुसंधान में पाया कि राज्य में बाहरी प्रजातियों की जो मधुमक्खियों कृत्रिम ढंग से स्थापित की गर्इं थी उनमें से 95 प्रतिशत खत्म हो गर्इं या विफल हो गर्इं। जो बचीं उन्हें भी बहुत चीनी खिलाकर व दवा के बल पर जीवित रखा गया। पश्चिमी घाट में कई अनुकूल पौधे होने के बावजूद ये मधुमक्खियां वहां भी बहुत कम शहद तैयार कर पार्इं।

मधुमक्खियों सम्बंधी इन विसंगति भरी नीतियों में सुधार करने के लिए यहां के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता पांडुरंग हेगड़े ने परंपरागत शहद का कार्य करने वाले गांववासियों को जोड़कर मधुमक्खी रक्षा अभियान (सेव हनी बी कैम्पैन) आरंभ किया है।

इस तरह के अभियान विश्व के कुछ अन्य भागों में भी सक्रिय हो रहे हैं। इनकी एक मुख्य मांग यह भी है कि कृषि में रासायनिक कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों व जंतुनाशकों का उपयोग न्यूनतम किया जाए क्योंकि इनका ज़हरीला संपर्क मधुमक्खियों के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध होता है। जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों का प्रसार भी मधुमक्खियों के लिए बहुत हानिकारक माना गया है।

ग्लायफोसेट कीटनाशक से स्वास्थ्य के गंभीर खतरों के बारे में जानकारियां समय-समय पर मिलती रही हैं। भारत में भी इसका उपयोग होता है। ग्लायफोसेट का उपयोग जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के साथ भी नज़दीकी तौर से जुड़ा रहा है। ऐसे खरपतवारनाशकों का उपयोग खेतों के अतिरिक्त शहरों के बाग-बगीचों आदि में भी हो रहा है। ग्लायफोसेट को प्रतिबंधित करने की मांग विश्व स्तर पर ज़ोर पकड़ रही है।

पारिस्थितिकी में मधुमक्खियों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इन विभिन्न सावधानियों को ध्यान में रखते हुए मधुमक्खियों की रक्षा की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। यदि प्राकृतिक वनों की रक्षा हो व जैविक खेती का प्रसार हो तो इससे मधुमक्खियों की रक्षा में बहुत सहायता मिलेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीटनाशक के उपयोग से पहले ही मच्छरों में प्रतिरोध

न दिनों अफ्रीकी घरों में मलेरिया वाहक मच्छरों से निपटने के लिए एक विशेष कीटनाशक के उपयोग की योजना बनाई जा रही है। लगभग 2 वर्ष पूर्व विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने क्लॉथियानिडीन के छिड़काव को घरों के भीतर मच्छर नियंत्रण का एक मुख्य हथियार माना था। वैसे तो क्लॉथियानिडीन का उपयोग लंबे समय से फसलों से कीटों का सफाया करने के लिए किया जा रहा था लेकिन कीटों में प्रतिरोध विकसित होने से इसकी प्रभावशीलता खत्म हो रही है। घरों में इसके उपयोग की योजना बनाते हुए इसके प्रति मच्छरों में पहले से मौजूद प्रतिरोध के सबूतों की तलाश की जा रही है।   

सेंटर फॉर रिसर्च इन इंफेक्शियस डिसीज़ेस, कैमरून के वैज्ञानिकों ने इसके प्रमाण खोज निकाले हैं। उन्होंने हाल ही में कैमरून की राजधानी याउंडे के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों से कुछ मच्छरों पर अध्ययन किया जिनमें दो प्रमुख मलेरिया वाहक भी शामिल थे। bioRxivप्रीप्रिंट के माध्यम से वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक अतिसंवेदनशील परीक्षण में एनॉफिलीस कोलुज़ी (Anopheles coluzzii) प्रजाति के मच्छरों को एक घंटे तक क्लॉथियानिडीन के संपर्क में रखने पर सभी मच्छरों का सफाया हो गया जबकि एनॉफिलीस गेम्बिए(Anopheles coluzzii) प्रजाति की 55 प्रतिशत आबादी पर इस कीटनाशक का कोई असर नहीं हुआ।

यह मलेरिया वाहक मच्छरों में क्लॉथियानिडीन के प्रतिरोध की पहली रिपोर्ट है। अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता कॉलिन्स कामडेम के अनुसार यदि इस प्रकार का डैटा पहले मौजूद होता तो WHO इस कीटनाशक को कभी स्वीकृति न देता। अध्ययन से यह भी पता चलता है कि एक कीटनाशक को उपयोग में लाने से पहले प्रतिरोध के लिए मलेरिया वाहक परीक्षण कितना महत्वपूर्ण है। पिछले 2 दशक में कीटनाशक लेपित मच्छरदानी और घरों में छिड़काव से मलेरिया मृत्यु दर और रुग्णता में कमी आई है। इन कार्यक्रमों में 4 वर्गों के कीटनाशकों का उपयोग किया गया लेकिन सबसे अधिक निर्भरता प्राकृतिक रूप से निर्मित पायरेथ्रोइड्स पर रही। ये सस्ते हैं और मनुष्यों सहित अन्य स्तनधारियों के लिए हानिकारक भी नहीं हैं।

वास्तव में मच्छरों में पायरेथ्रोइड्स प्रतिरोध विकसित होने से WHO द्वारा क्लॉथियानिडीन को मंज़ूरी दी गई। इसके पूर्व कृषि कीटनाशकों के रूप में निकोटीन आधारित नियोनिकोटिनोइड्स के उपयोग की भी काफी आलोचना हुई है। क्लॉथियानिडीन भी इसी वर्ग का कीटनाशक है। परागणकर्ताओं पर इसके दुष्प्रभाव के चलते युरोप में कृषि उपयोग के लिए इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। जबकि कैमरून और अफ्रीका के अन्य क्षेत्रों में कीटनाशक के रूप में इनका काफी अधिक उपयोग किया जा रहा है। कामडेम के अनुसार कृषि क्षेत्रों में नियोनिकोटिनॉइड कीटनाशक-अवशेषों से ही मच्छरों में इनके विरुद्ध प्रतिरोध विकसित हुआ है।  

हालांकि कई बड़ी कंपनियां घरों में छिड़काव के लिए मिश्रित कीटनाशक तैयार कर रही हैं लेकिन कामडेम इन सभी का परीक्षण मच्छरों पर करने की सलाह देते हैं। अब तक WHO द्वारा इस अध्ययन की समीक्षा नहीं की गई है लेकिन संभवत: क्लॉथियानिडीन प्रतिरोध अन्य कीटनाशकों की तुलना में कम व्यापक लगता है और इसलिए यह अभी तो एक उपयोगी विकल्प है लेकिन ऐसा कब तक रहेगा, कहना मुश्किल है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सपनों का विश्लेषण करते एल्गोरिदम

म में से कई लोगों को अजीबो-गरीब सपने आते हैं। मनोविज्ञानी इन सपनों का विश्लेषण करके मरीज़ को तनाव की स्थिति से उबरने में मदद करते हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने एक ऐसा एल्गोरिदम विकसित किया है जो सपनों का विश्लेषण कर मरीज़ों के तनाव और मानसिक समस्या का कारण पहचानने में मदद कर सकता है।

वैसे तो सपनों के आधार पर निष्कर्ष निकालना प्राचीन काल से चला आ रहा है। लेकिन आजकल के अधिकांश मनोविज्ञानी ‘सातत्य परिकल्पना’ के तहत मानते हैं कि सपने हमारे जागते जीवन की निरंतरता होते हैं। वे सपनों को अलग-अलग वर्गों में छांटते हैं और उनमें किसी तरह का पैटर्न देखने की कोशिश करते हैं। इसमें समय लगता है। इस समय को घटाने के लिए नोकिया बेल लैब के कंप्यूटेशनल सोशल साइंटिस्ट लुसा मारिया एइलो और उनके साथियों ने एक एल्गोरिदम तैयार किया है। इस एल्गोरिदम की मदद से उन्होंने 24,000 से अधिक सपनों का विश्लेषण किया। इन सपनों के विवरण उन्होंने सपनों के सार्वजनिक डैटाबेस DreamBank.net से लिए थे।

यह एल्गोरिदम सपनों के विवरणों की भाषा को छोटे-छोटे हिस्सो में तोड़ता है: पैराग्राफ को वाक्यों में, वाक्यों को वाक्यांश में, और वाक्यांश को शब्दों में। फिर, हर शब्द का एक-दूसरे से सम्बंध पता करने के लिए एक वृक्ष बनाता है। वृक्ष का प्रत्येक शब्द एक पत्ती और शब्दों को जोड़ने वाली शाखाएं व्याकरण के नियम दर्शाती हैं। एल्गोरिदम इन शब्दों को अलग-अलग वर्गों में बांटता है (जैसे लोग या जानवर) और उन्हें सकारात्मक या नकारात्मक भावनाओं से जोड़ता है। शब्दों के बीच आक्रामक, दोस्ताना या लैंगिक सम्बंध भी देखे जाते हैं।

फिर, मनोविज्ञानियों के बीच लोकप्रिय एक कोडिंग प्रणाली का उपयोग कर एल्गोरिदम हर सपने के लिए स्कोर की गणना करता है, जैसे आक्रामकता का औसत, या नकारात्मक और सकारात्मक भावनाओं का अनुपात। रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मनोविज्ञानियों द्वारा दिए गए स्कोर और एल्गोरिदम द्वारा दिए गए स्कोर 76 प्रतिशत मेल खाते थे।

शोधकर्ताओं के अनुसार यह एल्गोरिदम मनोविज्ञानियों को असामान्य सपनों की पहचान करने में मदद कर सकता है, जिनसे मरीज़ के तनाव या मानसिक समस्या का कारण पता लगाया जा सकता है। एल्गोरिदम स्वस्थ व्यक्ति के सपनों के औसत स्कोर से मरीज़ों के सपनों के स्कोर की तुलना करके असामान्य सपनों की पहचान करता है। इसके अलावा, एल्गोरिदम यह भी बताता है कि अलग-अलग लिंग, आयु या मन:स्थिति के सपने किस तरह अलग-अलग होते हैं।

इस सम्बंध में हारवर्ड विश्वविद्यालय के रॉबर्ट स्टिकगोल्ड का कहना है कि यह तकनीक उपयोगी साबित हो सकती है। लेकिन विभिन्न जनांकिक समूहों के अपने सपनों का वर्णन करने के तरीके में अंतर के होने के कारण, सपनों में अंतर दिख सकते हैं। जैसे, ज़रूरी नहीं कि महिलाएं सपने में पुरुषों से अधिक भावनाओं का अनुभव करती हों, लेकिन वे सपनों को बताते वक्त अधिक भावुक शब्दों का उपयोग कर सकती हैं। इसलिए सपनों और सपनों के वर्णन में फर्क पहचानने की ज़रूरत है। स्टिकगोल्ड यह भी कहते हैं कि सपने देखने वाले के बारे में जाने बिना सपनों को जीवन से जोड़ना मुश्किल है। एइलो इससे सहमत हैं और मानते हैं कि यह एल्गोरिदम चिकित्सकों के मददगार औज़ार के रूप में काम करेगा, उनकी जगह नहीं लेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आवश्यक वस्तु अधिनियम और खाद्य सुरक्षा – सोमेश केलकर

मुक्त बाज़ार की मुनाफाखोर प्रवृत्ति से उपभोक्ताओं को बचाने के उद्देश्य से साल 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) पारित किया गया था। सरकार ने तय किया था कि कुछ वस्तुएं जीवन यापन के लिए आवश्यक मानी जाएं और उनके मूल्य में अचानक बहुत अधिक परिवर्तन नहीं होना चाहिए, जैसा कि अक्सर मुक्त बाज़ार में होता है। ईसीए के माध्यम से सरकार किसी वस्तु के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण को नियंत्रित करती है।

हालांकि ईसीए में आवश्यक वस्तु की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, अधिनियम की धारा 2(क) में कहा गया है कि आवश्यक वस्तुएं अधिनियम की ‘अनुसूची’ में निर्दिष्ट वस्तुएं हैं। दूसरे शब्दों में, सरकार के पास आवश्यकता पड़ने पर इस सूची में वस्तुओं को जोड़ने या हटाने का अधिकार है। उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी फैलने पर 13 मार्च 2020 को मास्क और सैनिटाइज़र आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किए गए और इस सूची में 30 जून 2020 तक रहे।

हाल ही में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आलू, प्याज़, तिलहन, खाद्य तेल, दाल और अनाज जैसी वस्तुओं को नियंत्रण-मुक्त करने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन के अध्यादेश को मंज़ूरी दी है। अध्यादेश 2020 नाम से जाना जाने वाला यह अध्यादेश 5 जून 2020 से लागू हो गया है। यह अध्यादेश सरकार को कुछ वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का अधिकार देता है। सरकार केवल विशेष परिस्थितियों में इन वस्तुओं की आपूर्ति नियंत्रित कर सकती है।

भारत के वित्त मंत्री ने संकेत दिया था कि उक्त अधिनियम में संशोधन किया जाएगा और अकाल या आपदा जैसी विशेष परिस्थितियों में ही भंडारण की सीमा लागू की जाएगी। क्षमता के आधार पर उत्पादकों और आपूर्ति शृंखला के मालिकों/व्यापारियों के लिए भंडारण करने की कोई सीमा नहीं रहेगी और निर्यातकों के लिए निर्यात मांग के आधार पर भंडारण सीमा नहीं रहेगी।

यह भी कहा गया है कि कुछ कृषि आधारित उपज जैसे दाल, प्याज़, आलू वगैरह को नियंत्रण-मुक्त कर दिया जाएगा ताकि किसान इनके बेहतर मूल्य प्राप्त कर सकें।

आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 में संशोधन करके एक नई उपधारा 1क जोड़ी गई है। इसके तहत अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल जैसे कृषि खाद्य पदार्थों को महंगाई, युद्ध, अकाल या गंभीर प्राकृतिक आपदा जैसी असामान्य परिस्थितियों में नियंत्रित करने की व्यवस्था है। यह सरकार द्वारा भंडारण को नियंत्रित करने का आधार भी बताती है। सरकार बढ़ती कीमतों के आधार पर भंडारण को नियंत्रित कर सकती है। लेकिन सिर्फ कृषि उपज वस्तुओं के खुदरा मूल्य में 100 प्रतिशत वृद्धि होने की स्थिति में और खराब ना होने वाली कृषि वस्तुओं के खुदरा मूल्य में 50 प्रतिशत की वृद्धि होने की स्थिति में ही भंडारण की सीमा नियंत्रित कर सकती है। हालांकि, सार्वजनिक वितरण प्रणाली इन प्रतिबंधों से मुक्त रहेगी।

इस निर्णय के पीछे तर्क दिया गया है कि ईसीए कानून तब बना था जब लंबे समय से खाद्य उत्पादन में अत्यधिक कमी के कारण भारत खाद्य पदार्थों के अभाव का सामना कर रहा था। उस समय, भारत खाद्य आपूर्ति के लिए आयात और अन्य देशों की सहायता पर निर्भर था। ऐसी स्थिति में सरकार खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और कालाबाज़ारी रोकना चाहती थी, जो कीमतें बढ़ाकर कृत्रिम महंगाई पैदा करते हैं। चूंकि अब भारत में उपरोक्त वस्तुओं का आधिक्य है, इसलिए अब इस तरह के नियंत्रण आवश्यकता नहीं है।

शायद भरे हुए अन्न भंडार ग्रहों से हमें यह भ्रम हो कि हमने खाद्य सुरक्षा की समस्या हल कर ली है, लेकिन वास्तव में अनाज के आधिक्य की यह स्थिति अस्थायी है। आधिक्य इसलिए भी नज़र आता है क्योंकि भारत में प्रति व्यक्ति मांस, पोल्ट्री उत्पाद, प्रोटीन, फल और सब्ज़ियों की खपत बहुत कम है, जो भारत की अधिकतर आबादी की कम क्रय शक्ति का सीधा-सीधा परिणाम है। जब भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी से उबरेगी, जो हाल के दिनों में देखी गई है, तो उपरोक्त वस्तुओं की हमारी मांग एक दशक से भी कम समय में दो गुना बढ़ जाएगी। ऐसे में सनकी जलवायु परिवर्तन भविष्य को संभालने का काम और भी मुश्किल कर देता है, जिसकी वजह से उत्पादन में भारी उतार-चढ़ाव बार-बार अर्थव्यवस्था को डांवाडोल कर देते हैं।

वर्तमान में भारत की 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर है। यदि वर्तमान स्थिति एक वर्ष से अधिक समय तक बनी रही तो, खाद्यान्न अधिकता के भारत के सपने चूर-चूर हो जाएंगे, किसान मांग की पूर्ति नहीं कर पाएंगे और सरकार मुफ्त राशन वितरण प्रणाली को सुचारु रूप से चला नहीं पाएगी।

किसान हमारे समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों में से एक है। इस नाते उन्हें हमेशा समर्थन की आवश्यकता होगी। अधिकांश किसानों के लिए आत्मनिर्भर होना संभव नहीं है। हमें स्वयं से यह सवाल करना चाहिए कि हम किसानों की किस तरह से मदद करें कि देश पोषण की दृष्टि से आत्मनिर्भर बन सके। नीति निर्माता यह तर्क देते हैं कि भारत ने काफी पहले ही खाद्य सुरक्षा हासिल कर ली थी। लेकिन वास्तव में, जनता के हित के लिए क्या खाद्य सुरक्षा ही खुशहाली का पैमाना होना चाहिए? वास्तव में जब हम लोगों को भुखमरी से मुक्त करने की बात करते हैं, तो लोगों की पोषण पूर्ति बेहतर पैमाना होगा। मात्र खाद्य सुरक्षा हासिल करने की तुलना में पोषण की ज़रूरत पूरा करने के लिए एक अलग तरह की रणनीति की आवश्यकता है। आइए इनमें से कुछ रणनीतियों पर नज़र डालते हैं, जो भारत को खाद्य सुरक्षा के ढर्रे से बाहर ला सकती हैं और पोषण पूर्ति के लिए समग्र दृष्टिकोण दे सकती हैं।

1. वर्तमान समय से कई दशक आगे तक की पोषण ज़रूरतों का अनुमान लगाया जा सकता है, वर्तमान स्थिति की तुलना में तब तक जनसंख्या और अर्थव्यवस्था दोनों में ही स्थिरता आ चुकी होगी।

2. भारत की पोषण सम्बंधी आवश्यकता को पूरा करने के लिए पशुपालन और फसलों के उत्पादन की योजना तैयार की सकती है और इन क्षेत्रों को भारत के कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों और जलवायु परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए बांटा जा सकता है। इसके लिए प्रत्येक क्षेत्र के लिए उपयुक्त फसलों की सूची बनाई जा सकती है।

3. क्षेत्र के अनुसार बनाई गई उत्पादन योजनाओं के आधार पर किसी क्षेत्र विशेष के लिए चिंहित फसलों और तौर-तरीकों को अपनाने के लिए जोखिम को कवर करने और समर्थन मूल्य देने की प्रोत्साहन योजना बनाई जा सकती है, लेकिन किसानों को जो वे उगाना चाहते हैं उसे उगाने की स्वतंत्रता भी होनी चाहिए।

4. वर्तमान में उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को उर्वरकों, बिजली तथा अन्य कृषि इनपुट्स पर सबसिडी दी जाती है। इस रवैये को बदलकर कृषि पारिस्थितिक सेवाओं के लिए भुगतान करने की ओर कदम बढ़ाना होगा, जैसे वर्षाजल का दोहन, वृक्षारोपण, मिश्रित फसलें वगैरह।

5. सरकार को चाहिए कि वह खाद्यान्न उत्पादन की वास्तविक लागत पता लगाए। उपभोक्ताओं को सस्ते मूल्य पर भोजन उपलब्ध कराने के चक्कर में किसानों के हितों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

6. सरकार कृषि बाज़ार सूचना प्रणाली में भी निवेश कर सकती है। यह सरकार को उत्पादन और मूल्य-वृद्धि का प्रबंधन करने में मदद कर सकता है। इसे कृषि मंत्रालय से अलग रखा जाना चाहिए; कृषि मंत्रालय किसानों को कृषि सम्बंधी सलाह नियमित रूप से देने पर ध्यान केंद्रित करे।

7. सरकार कृषि अनुसंधान और विकास में अधिक निवेश कर सकती है, जिसमें इंफ्रास्ट्रक्चर की बजाय मानव-पूंजी विकास को प्राथमिकता दी जाए। यह ना केवल रोज़गार के नए अवसर पैदा करेगा बल्कि उत्पाद की गुणवत्ता की ज़रूरत की पूर्ति भी करेगा और अधिक पैदावार के लिए नई तकनीक विकसित करने में भी मदद करेगा।

8. सरकार अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों की मांग को कम करने के लिए उन पर अधिक कर लगा सकती है। और तंबाकू या शराब की तरह इनके विज्ञापन पर रोक लगा सकती है। भारतीय लोगों में स्वस्थ खानपान की आदत को बढ़ावा देने के लिए एक जागरूकता कार्यक्रम शुरू किया जा सकता है। इसके दो फायदे होंगे: लोग स्वास्थ्यकर खाने के प्रति प्रोत्साहित होंगे जो किसानों के हित में होगा और इससे सरकार का वार्षिक स्वास्थ्य व्यय भी कम होगा।

आवश्यक वस्तु अधिनियम और खाद्य सुरक्षा विधेयक में संशोधन अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के साथ-साथ किसानों की मदद करने का दावा करते हैं, लेकिन कृषि उपज के आधिक्य की मृग-मरीचिका बरकरार है। यदि हमने किसानों और उपभोक्ताओं की समस्याओं को हल करने के बारे में अपना दृष्टिकोण नहीं बदला तो किसानों और सरकार पर बोझ बढ़ता ही जाएगा। खाद्य समस्या को स्थायी रूप से हल करने का एकमात्र तरीका कृषि उपज को नियंत्रण-मुक्त करना ही नहीं है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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केवल गाड़ियों से नहीं, सड़कों से भी प्रदूषण होता है

र्मियों के मौसम में बाहर जाते समय अक्सर हमें डामर से नव-निर्मित सड़क की गंध महसूस होती है। लेकिन बात सिर्फ गंध तक ही सीमित नहीं है। हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ताज़ा डामर भी वायु प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका के कई हिस्सों में वायु गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है। यह वास्तव में वाहनों और बिजली संयंत्रों से नियंत्रित और साफ निकासी के कारण संभव हो पाया है। लेकिन इसके बावजूद वायु प्रदूषण के कारण दमा और ह्रदय सम्बंधी समस्याएं उभर रही हैं।

ऐसे में वैज्ञानिकों ने लॉस एंजेल्स और उसके आसपास के क्षेत्रों से वायु प्रदूषण के सभी ज्ञात स्रोतों का अध्ययन किया। सारे स्रोतों से होने वाले प्रदूषण का योग वास्तविक प्रदूषण से मेल नहीं खा रहा था। अध्ययन में शामिल येल युनिवर्सिटी के पर्यावरण इंजीनियर ड्रयू जेंटनर बताते हैं कि वे अपने अध्ययन में डामर से होने वाले वायु प्रदूषण को अनदेखा कर रहे थे। वास्तव में कच्चे तेल या इसी तरह के पदार्थों से बनी चीज़ों में अर्ध-वाष्पशील कार्बनिक यौगिक होते हैं जो किसी न किसी तरह से वायु प्रदूषण का कारण बनते हैं। जेंटनर की टीम ने दो तरह के ताज़ा डामर एकत्रित किए और उनको प्रयोगशाला की भट्टी में गर्म किया। टीम ने छत पर उपयोग किए जाने वाले डामर के पटरों और तरल डामर का भी परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि पुरानी सामग्री की तुलना में नई सामग्री से अधिक रसायनों का उत्सर्जन होता है। वे यह भी देखना चाहते थे कि समय के साथ इस उत्सर्जन में कैसे बदलाव आता है। 

साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सामान्य डामर की सतह पर सबसे अधिक अर्ध-वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन 140 डिग्री सेल्सियस तापमान पर होता है। जैसे-जैसे डामर ठंडा होता है उत्सर्जन में कमी आती है लेकिन 60 डिग्री सेल्सियस पर यह स्थिर हो जाता है और इसका प्रभाव भी अधिक रहता है। निष्कर्ष बताते हैं कि डामर लंबे समय तक वायु प्रदूषण का स्रोत हो सकता है।

टीम ने उत्सर्जन के लिए धूप को भी काफी महत्वपूर्ण माना है। मध्यम प्रकाश में उत्सर्जन में 300 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। यह उत्सर्जन हवा में छोटे कण (एयरोसोल) के रूप में उपस्थित रहता है जो सांस के ज़रिए शरीर में प्रवेश करने पर काफी हानिकारक हो सकता है। गर्म मौसम में ज़्यादा प्रदूषण होता है।  

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि डामर से निकलने वाले छोटे कणों की सालाना मात्रा 1000 से 2500 टन के करीब होती है जबकि पेट्रोल और डीज़ल गाड़ियों से यह 900 से 1400 टन के बीच निकलता है। ऐसे में यह प्रश्न काफी महत्वपूर्ण है कि डामर से होने वाला उत्सर्जन कितने समय तक जारी रहता है। जेंटनर के अनुसार इसका निरंतर मापन ज़रूरी है। हालांकि अभी तक डामर से होने वाले प्रदूषण की जानकारी अधूरी है लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों में से एक है। यह डैटा वायु प्रदूषण के अध्ययन के मॉडल्स के लिए काफी महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में कंपनियां डामर के कारण होने वाले उत्सर्जन को कम करने की दिशा में काम करेंगी।(स्रोत फीचर्स)

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सूचना एवं संचार टेक्नॉलॉजी के प्रमुख पड़ाव – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

जिन दिनों मैं स्कूल में पढ़ा करता था उन दिनों कंप्यूटर एक गैराज के बराबर जगह घेरने वाली मशीन थे, जिनका उपयोग सिर्फ इंजीनियर करते थे। और अब 50 वर्षों बाद, मैं और 50 करोड़ अन्य भारतीय मोबाइल स्मार्ट फोन के रूप में इसे अपनी जेब में रख सकते हैं! यह क्रांति कैसे हुई?

क्या आप जानते हैं कि सूचना एवं संचार टेक्नॉलॉजी (या आईसीटी) के ये महत्वपूर्ण आविष्कार किसने किए? हाल ही में वी. राजारामन द्वारा लिखी गई एक उल्लेखनीय सूचनाप्रद और शिक्षाप्रद पुस्तक का विषय यही है। राजारामन बैंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के सुपरकंप्यूटर एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर में पढ़ाते थे। उनकी यह किताब पीएचआई लर्निंग, दिल्ली द्वारा प्रकाशित की गई है।

इस किताब में प्रो. राजारामन ने 15 उन महत्वपूर्ण आविष्कारों और आविष्कारकों का इतिहास बताया है, जिनसे छोटे, द्रुत, बहु-उपयोगी कंप्यूटर बनाना संभव हुआ। मुझे लगता है कि अब जब कंप्यूटर आधारित शिक्षा नई शिक्षा नीति (एनईपी) का हिस्सा बन गई है, तो यह महत्वपूर्ण है कि छात्र और शिक्षक इन 15 आविष्कारों और आविष्कारकों की कहानी ना केवल इन आविष्कारों के इतिहास और विकास के रूप में पढ़ें बल्कि इन्हें प्रेरणा के रूप में भी देखें।

प्रो. राजारमन के अनुसार किसी भी आविष्कार में कुछ ज़रूरी गुण होने चाहिए:

1. आइडिया नया होना चाहिए;

2. वह किसी ज़रूरत को पूरा करे;

3. उत्पादकता में सुधार हो;

4. कंप्यूटिंग के तरीके और कंप्यूटर के उपयोग में बदलाव आए;

5. इससे नवाचार हो;

6. आविष्कार लंबे समय के लिए हो, निरंतर उपयोग किया जाए और क्षणिक न हो;

7. इसे ऐसे नए उद्योगों को जन्म देना चाहिए जो आगे चलकर नवाचार करें और इस प्रक्रिया में कुछ पुराने उद्योग में शायद ठप हों;

8. इनसे हमारी जीवन शैली में बदलाव होना चाहिए, परिणामस्वरूप सामाजिक परिवर्तन होना चाहिए।

यह ज़रूरी नहीं है कि एक बेहतरीन आविष्कार इन सभी बिंदुओं को पूरा करे, इनमें से अधिकांश बिंदुओं को पूरा करना पर्याप्त होगा।

दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई आविष्कार पिछले 55 वर्षों के दौरान हुए हैं – 1957 में बनी कंप्यूटर भाषा FORTRAN से लेकर 2011 की डीप लर्निंग तक। इस किताब में आविष्कारों का संक्षिप्त इतिहास, उनका विवरण और आविष्कारकों के बारे में बताया गया है। इस लेख में हम इन नवाचारों में से पहले सात नवाचार देखेंगे, और बाकी सात अगले लेख में।

इनमें पहला नवाचार है कंप्यूटर भाषा FORTRAN या फॉर्मूला ट्रांसलेशन, जो वर्ष 1957 में जॉन बैकस और उनकी टीम द्वारा विकसित की गई थी। यह डिजिटल कंप्यूटरों की बाइनरी भाषा (दो अंकों – 0 और 1 – पर आधारित भाषा) को हमारे द्वारा समझी और उपयोग की जाने वाली भाषा में बदलती है। शुरुआत में इसका उपयोग आईबीएम कंप्यूटर और बाद में अन्य कंप्यूटर में भी किया गया। मुझे याद है, आईआईटी कानपुर में प्रो. राजारामन ने किस तरह हम सभी छात्रों और शिक्षकों (और अन्य कई लाख लोगों को अपने व्याख्यानों और पुस्तकों के माध्यम से)  FORTRAN सिखाई थी। FORTRAN ने गैर-पेशेवर लोगों के लिए भी कंप्यूटर का उपयोग संभव बनाया – प्रोग्रामिंग करने और समस्या-समाधान करने में। अन्य लोगों ने विशेष उपयोग के लिए इसी तरह की अन्य प्रोग्रामिंग भाषाएं बनार्इं लेकिन वैज्ञानिक आज भी FORTRAN उपयोग करते हैं।

दूसरा है, एकीकृत परिपथ (इंटीग्रटेड सर्किट या आईसी)। जब आईसी का आविष्कार नहीं हुआ था तब वैक्यूम ट्यूब की मदद से संकेतों की तीव्रता बढ़ाई जाती थी यानी उन्हें परिवर्धित किया जाता था। ये वैक्यूम ट्यूब बड़े होते थे और उपयोग करने पर गर्म हो जाते थे। 1947 में जब जॉन बार्डीन और उनके साथियों ने ट्रांज़िस्टर का आविष्कार किया तो ये परिवर्धक छोटे हो गए और इनकी बिजली खपत कम हो गई।

इस कार्य ने सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति ला दी। इनकी मदद से जैक किल्बी (और कुछ महीनों बाद रॉबर्ट नॉयस) ने एक सिलिकॉन चिप पर पूर्णत: एकीकृत जटिल इलेक्ट्रॉनिक परिपथ बनाकर दिखा दिया।

किताब में उल्लेखित तीसरा नवाचार है, डैटाबेस और उसका व्यवस्थित रूप में प्रबंधन। उदाहरण के लिए, हमारे आधार कार्ड में कई तरह का डैटा (उम्र, लिंग, पता, फिंगरप्रिंट वगैरह) होता है, जिसे एक साथ संक्षिप्त रूप में रखा जाता है। इस तरह की डैटाबेस प्रणाली को रिलेशनल डैटाबेस मैनेजमेंट सिस्टम या RDBMS कहते हैं। पहले इन फाइलों को मैग्नेटिक टेप में संग्रहित किया जाता था, फिर फ्लॉपी डिस्क आर्इं, और अब सीडी और पेन ड्राइव हैं।

चौथा नवाचार है, लोकल एरिया नेटवर्क (या LAN)। इससे पहला परिचय हवाई के नॉर्मन अब्रेमसन समूह ने करवाया था। उन्होंने पूरे द्वीप के कंप्यूटर्स को आपस में जोड़ने के लिए ALOHA net नामक बेतार प्रसारण प्रणाली (वायरलेस ब्रॉडकास्ट सिस्टम) का उपयोग किया था। बाद में रॉबर्ट मेटकाफ और डेविड बोग्स ने इस प्रोटोकॉल में कुछ तब्दीलियां कीं और इसे ईथरनेट कहा गया। इससे केबल कनेक्शन के माध्यम से कंप्यूटर्स के बीच संदेश और फाइलों को साझा करना और उनका आदान-प्रदान संभव हुआ। अब हम, कार्यालयों में LAN का उपयोग हार्ड-कॉपी को ई-फाइल में बदलने के लिए, और विश्वविद्यालय में विभिन्न विभागों के कंप्यूटर्स को आपस में जोड़ने जैसे कामों के लिए करते हैं।

पांचवां नवाचार है, निजी या पर्सनल कंप्यूटर (पीसी) का विकास। इसने घर से काम करना और पढ़ना संभव बनाया है। पीसी डिज़ाइन करने वाले पहले व्यक्ति थे स्टीव वोज़नियाक जिन्होंने 1970 के दशक में इसे बनाया था, और स्टीव जॉब्स ने इसका शानदार बाज़ारीकरण किया था। 1981 तक पीसी समोसे-कचोड़ियों की तरह बज़ार में बिकने लगे और 1980 के दशक के अंत तक, ऐपल, आईबीएम और अन्य कंपनियां माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ बाज़ार पर छा गर्इं।

हमें अपना फोन या कंप्यूटर खोलने के लिए एक पासकोड चाहिए होता है, जो सुरक्षित होता है और सिर्फ हमें पता होता है। जब कोई प्रेषक या बैंक हमें गोपनीय संदेश भेजते हैं तो वे एक सुरक्षित पासकोड (जैसे, ओटीपी) भी भेजते हैं। यह कूटलेखन प्रेषक और रिसीवर के संदेशों की गोपनीयता बनाए रखता है। यह सार्वजनिक कुंजी कूटलेखन छठा नवाचार है।

हमारे कंप्यूटर में अब एक बिल्ट-इन प्रोग्राम है जिससे आप तस्वीरें, वीडियो ले सकते हैं और व्हाट्सएप, फेसटाइम या इसी तरह की अन्य ऐप्लिकेशन के ज़रिए इन्हें भेज सकते हैं। यह कंप्यूटर ग्राफिक्स नामक सातवें नवाचार से संभव हो सका है। प्रो. राजारामन ने इसके बारे में विस्तार से बताया है। इसके अलावा, उन्होंने मल्टीमीडिया डैटा के संक्षेपण के बारे में भी बताया है जिसने इंटरनेट पर ऑडियो-वीडियो का आदान-प्रदान संभव किया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों कम जानलेवा हो रहा है कोविड-19?

कोरोना महामारी के शुरुआती दौर की तुलना में कोविड-19 से होने वाली मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है। यह परिवर्तन विशेष रूप से युरोप में देखा गया है लेकिन इसके पीछे के कारणों पर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के जैसन ओक और उनके सहयोगियों ने बताया है कि इंग्लैंड में जून से अगस्त माह के दौरान विभिन्न डैटा सेट के अनुसार संक्रमण से मृत्यु दर (आईएफआर) में 55 से 80 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई है। 17 अगस्त से शुरू होने वाले सप्ताह में ब्रिटेन में 7000 से अधिक संक्रमितों में से 95 लोगों की मृत्यु हुई (आईएफआर 1.4) जबकि अप्रैल के पहले हफ्ते में 40,000 पॉज़िटिव मामलों में से 7164 लोगों की मृत्यु हुई थी (आईएफआर 17.9)।  

आईएफआर का पता पॉज़िटिव मामलों को मृत्यु की संख्या से विभाजित कर लगाया जाता है लेकिन ओक इन आकड़ों को सही आईएफआर नहीं मानते क्योंकि एक तो संक्रमण और उससे होने वाली मौतों के बीच कुछ सप्ताह का फर्क रहता है और समय के साथ परीक्षण में भी बदलाव होता है। फिर भी इन आंकड़ों से मोटा-मोटा अंदाज़ तो मिलता ही है। ओक और उनके सहयोगियों ने आईएफआर में बदलाव का अनुमान लगाने के लिए अधिक परिष्कृत विधि का उपयोग किया है। उन्होंने पाया कि पूरे युरोप में पैटर्न यही रहा है। लेकिन इसका कारण स्पष्ट नहीं है।

आंकड़ों के आधार पर एक कारण यह हो सकता है कि अप्रैल माह के दौरान संक्रमितों में युवा लोगों का अनुपात कम था और 10-16 अगस्त के बीच संक्रमितों में 15-44 वर्ष के लोगों का का अनुपात अधिक था। मान्यता यह है कि युवाओं में मौत का जोखिम कम रहता है। लेकिन ओक इसे पर्याप्त व्याख्या नहीं मानते हैं। अभी भी पाए जाने वाले पॉज़िटिव मामलों में वृद्ध लोगों की संख्या काफी अधिक है।

कुछ शोधकर्ता अस्पतालों में बेहतर उपचार व्यवस्था को भी घटती मृत्यु दर का कारण मानते हैं।   

इसी संदर्भ में नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के पॉल टमब्या का दावा है कि कोरोनावायरस का उत्परिवर्तित संस्करण (D614G) इस बीमारी की जानलेवा प्रकृति को कम कर रहा है। इस नए संस्करण से संक्रमण दर में तो वृद्धि हुई है लेकिन जान का जोखिम कम हो गया है। अन्य शोधकर्ता सहमत नहीं हैं।

जैसे, इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एरिक वोल्ज़ के नेतृत्व में ब्रिटेन के 19,000 रोगियों से लिए गए वायरस के नमूनों के जीनोम पर अध्ययन किया गया। इस अध्ययन की अभी समकक्ष समीक्षा तो नहीं हुई है लेकिन वोल्ज़ के अनुसार वायरस के D614G संस्करण के कम जानलेवा होने के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं।(स्रोत फीचर्स)

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अमीबा भूलभुलैया में रास्ता ढूंढ सकते हैं

भूलभुलैया में जाना और खुद से बाहर निकलना मुश्किल भी होता है और रोचक भी। देखा गया है कि चूहे भी भूलभुलैया से बाहर निकल आते हैं। और मज़ेदार बात यह है कि एक नए अध्ययन में पता चला है कि चूहे ही नहीं, अमीबा जैसे एक-कोशिकीय जीव और एक इकलौती कैंसर कोशिका भी भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेती है। वे रासायनिक संकेतों की मदद से अपने आकार से सैकड़ों गुना बड़ी और पेचीदा भूलभुलैया से बाहर निकल सकते हैं।

प्रत्येक कोशिका चाहे वह कैंसर कोशिका हो, त्वचा कोशिका हो, या बैक्टीरिया सरीखे एक-कोशिकीय जीव हों, सामान्यत: जानते हैं कि उन्हें किस दिशा में आगे बढ़ना है। वे अपने पर्यावरण में मौजूद आकर्षी रसायनों को पहचानकर उनकी दिशा में आगे बढ़ते हैं। इसे कीमोटैक्सिस (रसायन-संचालित गति) कहते हैं। कोशिकाओं का यह बुनियादी दिशाज्ञान छोटी दूरी, लगभग आधे मिलीमीटर तक के लिए तो बढ़िया काम करता है लेकिन मुश्किल और लंबा रास्ता तय करने के लिए कोशिकाएं सिर्फ रासायनिक संकेतों के भरोसे नहीं रह सकतीं। उन्हें इन रसायनों को प्रोसेस करके सही रास्ता निर्धारित करना पड़ता है। कोशिकाएं यह करती कैसे हैं?

यह पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने लंबा फासला तय करने वाली दो तरह की कोशिकाओं – अमीबा (डिक्टियोस्टेलियम डिसोइडम) और चूहों के अग्न्याशय की कैंसर कोशिका – पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने विभिन्न सूक्ष्म भूलभुलैया तैयार कीं, इनमें पर्याप्त मोड़ और रास्तों के विकल्प थे। इन भूलभुलैया के आखिरी छोर पर आकर्षी रसायन भरे गए थे। और ऐसे ही आकर्षी रसायन भूलभुलैया के अंदर भी भरे गए थे ताकि कोशिकाएं अपना रासायनिक रास्ता (चिन्ह) बना सकें। ये भूलभुलैया लगभग वैसी ही जटिल थीं जैसी ज़मीन के अंदर की सुरंगें अथवा रक्त नलिकाओं का जाल होता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि दोनों तरह की कोशिकाएं विभिन्न 0.85 मिलीमीटर लंबी भूलभुलैया से सफलतापूर्वक बाहर निकल आईं । साइंसपत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक सबसे लंबी भूलभुलैया (हैम्पटन कोर्ट पैलेस की प्रतिकृति) को सिर्फ अमीबा सुलझा पाए। कैंसर कोशिकाएं बहुत धीमी गति से आगे बढ़ती हैं, इसलिए शोधकर्ताओं का विचार है कि हो सकता है कि इतनी लंबी भूलभुलैया को पार करने के दौरान वे बीच में ही नष्ट हो गई होंगी।

इसके अलावा, भूलभुलैया में अमीबा की पहली टोली रसायनों को प्रोसेस कर भूलभुलैया के बंद-सिरों (जिनमें सीमित मात्रा में आकर्षी रसायन था) और बाहर निकलने के खुले रास्तों के बीच अंतर कर पार्इं। लेकिन इनके पीछे आने वाली कोशिकाओं की टोली यह अंतर नहीं कर पाई। प्रकृति में, आम तौर पर आगे वाली कोशिकाएं अपनी अनुगामी कोशिकाओं को रास्ते का अनुसरण करने के संकेत देती हैं। लेकिन प्रयोग में वैज्ञानिकों ने आगे वाली कोशिकाओं में बदलाव कर इन संकेतों को बाधित कर दिया था। इसलिए जब आगे वाली कोशिकाएं रसायनों को संसाधित कर आगे बढ़ीं (यानी रास्ते से रसायन हटा दिए गए), तो पीछे आने वाली कोशिकाएं रास्ता भटक गईं ।(स्रोत फीचर्स)

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मच्छरों के युगल गीत – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

दिन भर कठोर परिश्रम करने के बाद आप चैन की नींद लेने के लिए बिस्तर पर लेटकर नींद में गोते लगाने ही वाले थे कि कानों में मच्छरों की भिनभिनाहट ने आपको बैचेन कर दिया। क्या मच्छर आपके कान में भिनभिनाहट करके यह देखना चाहते थे कि आप सो गए हैं या नहीं? मच्छरों की भिनभिनाहट एक प्रकार का गाना है जिससे वे विपरीत सेक्स के सदस्य की पहचान करते हैं। मच्छरों की भिनभिनाहट भले ही हमारी नींद उड़ा देती है किंतु मच्छरों के लिए यह रोमांस का आमंत्रण गीत है।

तीन जोड़ी पैर वाले सभी सदस्यों को कीट परिवार (इनसेक्टा) में रखा गया है। इस परिवार के बहुत से सदस्य अपने प्रेम का प्रस्ताव आवाज़ उत्पन्न करके करते हैं। जब पूरा शहर या गांव सो जाता है तो शांत वातावरण में या बगीचों में इनकी आवाज़ आप बहुत अच्छी तरह से सुन सकते हैं।

जैसे हमारे कान में पर्दा, ऑसिकल एवं कॉकलिया होते हैं, जो सुनने में मदद करते हैं, वैसे ही कीटों के पास भी सुनने के अंग होते हैं जो हमसे भिन्न हैं परंतु हैं बेजोड़।

मच्छरों की भिनभिनाहट पंखों के फड़फड़ाने के कारण पैदा होती है। मच्छरों को अपनी छोटी-सी ज़िंदगी में केवल दो ही कार्य संपन्न करने होते हैं। एक तो भोजन ढूंढना और दूसरा प्रजनन के लिए साथी खोजना। अगर दृष्टि अच्छी नहीं है तो भोजन के लिए शिकार एवं प्रजनन के लिए मनपसंद साथी खोजना मुश्किल कार्य हो जाता है।

वैज्ञानिकों को लगता है कि उद्विकास में मादा मच्छरों ने अपने शिकार का खून पीना जब प्रारंभ किया तो वे गंध पर ज़्यादा आश्रित हो गए। ऐसा शिकार जिसके शरीर से तेज़ गंध आती थी या जो ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते थे वे प्राणी मच्छरों को ज़्यादा आकर्षित करते थे। गंध पर ज़्यादा निर्भरता के कारण कालांतर में मच्छरों की आंखे ज़्यादा बेहतर विकसित नहीं हुई। और इसलिए विपरीत सेक्स को खोजने के लिए पंखों की भिनभिनाहट का उपयोग होने लगा। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि छोटे-से मच्छर में श्रवण अंगों में 15,000 श्रवण कोशिकाएं होती है जबकि उससे कहीं बड़े आकार के मनुष्यों में मात्र 17,500। इतने छोटे-से मच्छर में इतनी सारी श्रवण कोशिकाएं अपने साथी को ढूंढने का कार्य अपेक्षाकृत आसान कर देती हैं।

शाम होते ही आसमान में नर मच्छरों के झुंड एकत्रित हो जाते हैं। मादा के इंतज़ार में एकत्रित नर हवा में गोते लगाते रहते हैं। एक नर मच्छर के पंख फड़फड़ाने से उच्च आवृत्ति की भिनभिनाहट उत्पन्न होती है क्योंकि मादा मच्छर की तुलना में नरों का आकार छोटा होता है और छोटे पंख तेजी से फड़फड़ाते हैं। मच्छर के एंटीना मनुष्य के कान के समान सुनने का कार्य करते हैं। मादा मच्छरों की भिनभिनाहट को ग्रहण करने के लिए नर के एंटीना बड़े और बहुत झबरीले होते हैं।

नर की तुलना में मादा मच्छरों का आकार बड़ा होता है तो उनके पंख भी बड़े होते हैं और उनके धीमे-धीमे फड़फड़ाने से कम आवृत्ति की आवाज उत्पन्न होती है। मादा मच्छर में एंटीना छोटा तथा बेहद कम बालों से ढंका होता है, इसलिए मादाओं की सुनने की शक्ति कम होती है।

यद्यपि हम मच्छरों की भिनभिनाहट को सुनकर मच्छरों की भिन्न प्रजातियों में अंतर नहीं कर पाते हैं किंतु प्रत्येक मच्छर प्रजाति की भिनभिनाहट अलग होती है। मच्छरों की कुल 3500 प्रजातियों में से लगभग 20-25 प्रजातियां ही मनुष्यों में रोगाणुओं की वाहक बन कर बीमारियां फैलाने का कार्य करती हैं। केवल मलेरिया से ही प्रति वर्ष विश्व में दस लाख लोग मरते हैं।

स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के कुछ वैज्ञानिकों ने मच्छरों की विविधता को जानने के लिए एबज़ प्रोजेक्ट प्रारंभ किया है। प्रोजेक्ट का डैटा है मच्छरों की आवाज़ की ऑडियो रिकॉर्ड की हुई फाइल। हम सभी अपने आसपास मच्छरों की भिनभनाहट को मोबाइल में रिकॉर्ड कर फाइल सम्बंधित प्रोजेक्ट को भेज सकते हैं। इस प्रकार हम सभी के द्वारा भेजी गई आवाज़ से मच्छर की प्रजाति को पहचान कर मच्छर विविधता ज्ञात की जा सकती है। किसी स्थान पर कौन-सी मच्छर प्रजाति बहुलता में है यह पता लगााकर उस स्थान पर मच्छरों से होने वाली बीमारी के सह-सम्बंध को ज्ञात किया जा सकता है।

मच्छरों की भिनभिनाहट कैसे रिकॉर्ड की जाती है? इसके लिए, जाली में मच्छरों को एकत्रित करके उन्हें ठंडे स्थान पर रखा जाता है। ठंड या कम तापमान निश्चेतक का कार्य करता है और मच्छर हिलना-डुलना बंद कर देते हैं। आलपिन के मोटे हिस्से पर गोंद या फेवीक्विक की एक बूंद लगाकर मच्छर के सिर से चिपकाकर सूखने के लिए रख दिया जाता है। गर्म स्थान पर आलपिन से चिपके मच्छर भिनभिनाने लगते हैं और उनकी आवाज को रिकॉर्ड कर यह भी देखा जाता है कि इस भिनभिनाहट की आवृत्ति कितनी है। आप मदद करना चाहें तो निम्नलिखित में से किसी वेबसाइट पर जाएं:

https://news.stanford.edu/2017/10/31/tracking-mosquitoes-cellphone/
https://web.stanford.edu/group/prakash-lab/cgi-bin/mosquitofreq/how-you-can-help/

यदि सिर से चिपके नर एवं मादा मच्छर को पास लाया जाता है तो नर मच्छर मादा मच्छर की आवाज़ एंटीना से पहचानकर अपने पंखों की गति को कम कर मादा की भिन-भिन की आवृत्ति से मिलाने की कोशिश करता है। कुछ ही देर में नर ऐसा कर लेते हैं। दोनों के सुरों का मिलना और युगल गीत गाने का मतलब दोनों ने एक-दूसरे को पसंद कर लिया है। युगल गीत के बाद प्रजनन होता है। मच्छर का दुर्भाग्य है कि वे अपने जीवन काल में केवल एक बार ही प्रजनन कर सकते हैं। मादा मच्छर को प्रजनन के बाद अंडों के विकास के लिए प्रोटीन की खुराक की आवश्यकता होती है जो गर्म खून वाले प्राणियों के रक्त से पूरी होती है। भरपेट रक्त पीने के बाद दो सप्ताह के जीवनकाल में मादा लगभग 200 अंडे देती है।

मच्छर-वाहित बीमारियों से निपटने के लिए कई तरह के उपाय एक साथ करने पर कारगर हो सकते हैं। यंत्रों द्वारा विपरीत लिंग की भिनभिनाहट उत्पन्न कर युगल को आकर्षित करके मारने के तरीके मच्छरों को प्रजनन करने से रोक सकते हैं और उनकी संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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गर्भाशय मुख शुक्राणुओं में भेद करता है

संतानोत्पत्ति में बाधा कई कारणों से आ सकती है। कभी-कभी तो डॉक्टर भी इसे समझ नहीं पाते। और अब, प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित में एक अध्ययन में शोधकर्ता बताते हैं कि जिन स्त्री-पुरुष जोड़ियों के ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन (HLA) के जीन्स आपस में कम समानताएं रखते हैं उनमें महिलाओं के गर्भाशय ग्रीवा के म्यूकस (या श्लेष्मा) में शुक्राणु अधिक जीवित रह पाते हैं। और जिन जोड़ियों के जीनोटाइप में अधिक समानता होती है उनमें गर्भाशय ग्रीवा के म्यूकस में शुक्राणु जीवित बचने संभावना कम होती है। (बता दें कि HLA एक तरह का प्रोटीन है जिसकी मदद से प्रतिरक्षा प्रणाली बाहरी चीज़ों की पहचान करती है। और, म्यूकस गर्भाशय ग्रीवा में मौजूद ग्रंथियों द्वारा स्रावित द्रव है।)

पूर्व में हुए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि संभवत: शुक्राणु की सतह पर HLA मौजूद होते हैं और यही HLA महिलाओं के गर्भाशय ग्रीवा के म्यूकस में भी पाए गए थे, जो इस बात की संभावना बढ़ाते हैं कि अंडाणु और शुक्राणु की समानता संतानोत्पत्ति में एक कारक हो सकती है।

कई जीवों में युग्मक (यानी अंडाणु और शुक्राण) स्तर पर, सभी नर-मादा जोड़ियां समान रूप से एक-दूसरे के सुसंगत नहीं होतीं। संतानोत्पत्ति में बाधा का कारण जानने के लिए आम तौर पर डॉक्टर या तो पुरुष के शुक्राणुओं की गुणवत्ता की जांच करते हैं या महिला में समस्या की जांच करते हैं। लेकिन चिकित्सा में युग्मक स्तर पर अनुकूलता पता करने के लिए कोई नियमित परीक्षण नहीं है। और युग्मक अनुकूलता के बारे में हमारा ज्ञान भी सीमित है।

इसे विस्तार से समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ ईस्टर्न फिनलैंड के जीव विज्ञानी केकैलाइनन और उनके सहयोगियों ने नौ महिलाओं के ग्रीवा म्यूकस के और आठ पुरुषों के शुक्राणु के नमूने लिए। फिर हरेक नमूने के HLA का क्षार-अनुक्रम पता किया। और फिर ग्रीवा म्यूकस के नमूनों और शुक्राणु के नमूनों की सारी संभव जोड़ियां बनाईं और इसमें शुक्राणु की दशा का अवलोकन किया। उन्होंने पाया कि जिन पुरुष-महिला में आनुवंशिक समानता कम थी उन जोड़ियों में शुक्राणु के जीवित रहने की संभावना अधिक थी। इससे लगता है कि प्रतिरक्षा अनुकूलता प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर सकती है।

बहरहाल इस बारे में व्यापक स्तर पर अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है कि क्या HLA की आनुवंशिक संरचना निषेचन को प्रभावित करती है। इसमें शुक्राणु के उन लक्षणों की भी पड़ताल की जा सकती है जिससे निषेचन की सफलता प्रभावित होती है। फिलहाल शोधकर्ता पता कर रहे हैं कि शुक्राणु की जीवन क्षमता HLA की आनुवंशिक संरचना से किस प्रकार प्रभावित होती है।(स्रोत फीचर्स)

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