सांडा: मरुस्थलीय भोजन शृंखला का आधार – चेतन मिशर

सांडा पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पाई जाने वाली छिपकली है, जो मरुस्थलीय खाद्य शृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परंतु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते यह घोर संकट का सामना कर रही है।

सांडे का तेल, भारत के विभिन्न हिस्सों मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक प्रचलित औषधि है। वैसे, इस तेल का कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र है एवं इस तेल के रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाए गए हैं। इस अंधविश्वास के कारण इस जीव का बड़ी संख्या में अवैध शिकार किया जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप सांडों की आबादी तेज़ी से घट रही है।

सांडा के नाम से जाना जाने वाला यह सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क प्रदेशों में पाई जाने वाली एक छिपकली है। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मज़बूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती है। सांडा का अंग्रेजी नाम Spiny-tailed lizard है जो इसे इसकी पूंछ पर पाए जाने वाले कांटेदार शल्क के अनेक छल्लों की शृंखला के कारण मिला है।

विश्व भर में सांडे की 20 प्रजातियां पाई जाती हैं। यह उत्तरी अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम Saarahardiwickii है। यह मुख्यत: अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा एवं गुजरात के कच्छ ज़िले के शुष्क घास के मैदानों में पाई जाती है। कुछ शोध पत्रों के अनुसार सांडे की कुछ छोटी आबादियां उत्तर प्रदेश, उत्तरी कर्नाटक तथा पूर्वी राजस्थान में भी पाई जाती हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार सांडे का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय गतिविधियों का परिणाम हो सकता है क्योंकि वन्य जीव व्यापार में अनेकों जीवों को उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता है।

सांडे की भारतीय प्रजाति में नर (40 से 49 से.मी.) सामान्यत: आकार में मादा (34 से 40 से.मी.) से बड़े होते हैं तथा अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं। नर की पूंछ उसके शरीर की लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर पर नुकीली होती है जबकि मादा की पूंछ शरीर की लंबाई से छोटी तथा सिरे पर मोटी होती हैं।

पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पाई जाने वाली सांडे की आबादी में त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के शल्क में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परंतु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में ऐसा नहीं होता।

भारतीय सांडे को भारत में पाई जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल के नमूनों की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत: वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक सीमित रहता है लेकिन शिशु सांडा वनस्पति के साथ कीटों, मुख्यत: भृंग, चींटी, दीमक, एवं टिड्डों, का सेवन भी करते हैं। बारिश में एकत्रित किए गए कुछ वयस्क सांडों के मल में भी कीटों का मिलना इनकी अवसरवादिता को दर्शाता है।

मरुस्थल में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए सांडे भी अन्य मरुस्थलीय जीवों के समान भूमिगत मांद में रहते हैं। सांडे की मांद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार समान होता है तथा यह अन्य मरुस्थलीय जीवों की मांद से अलग दिखाई पड़ती है। मांद अक्सर टेढ़ी-मेढ़ी, सर्पिलाकार तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती है। मांद का आंतरिक तापमान बाहर की तुलना में काफी कम होता है।

यह छिपकली दिनचर होती है तथा मांद में आराम करते समय अपनी कांटेदार पूंछ से प्रवेश द्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों, विशेषकर परभक्षी जीवों, को रोकने के लिए प्रवेश द्वार को मिट्टी से बंद भी कर देती है।

मांद बनाना रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है। पैदा होने के कुछ ही समय बाद सांडे के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ मांद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य सरीसृपों के समान सांडे भी अत्यधिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की चयापचय क्रिया को धीमी कर शरीर में संचित वसा पर ही जीवित रहते हैं। वैसे कच्छ के घास के मैदानों में शिशु सांडों को दिसम्बर-जनवरी में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका कारण कच्छ में सर्दियों में तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता है।

सांडों का प्रजनन काल फरवरी से शुरू होता है और छोटे शिशुओं को जून-जुलाई तक घास के मैदानों में उछल-कूद करते देखा जा सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय में भी ये छिपकलियां दिनचर बनी रहती हैं। गर्मी के दिनों में तेज़ धूप खिलने पर ये दोपहर तक ही सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल छाए रहें तो शाम तक भी सक्रिय रहते हैं।

सांडा मरुस्थलीय खाद्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरामिड के सबसे निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लायकोजन और वसा की अधिक मात्रा के चलते ये रेगिस्तान में कई परभक्षी जीवों का प्रमुख भोजन हैं। सांडे को भूमि तथा हवा दोनों तरफ से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल में पाए जाने वाले परभक्षी जीवों की विविधता सांडों की बड़ी आबादी का ही परिणाम है। हैरियर और फाल्कन जैसे शिकारी पक्षियों को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते देखा जा सकता है। बड़े शिकारी पक्षी ही नहीं, किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात सांडों का शिकार करने से नहीं चूकते।

पक्षियों के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इस उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत को प्राप्त करने का अवसर नहीं गंवाते। थार रेगिस्तान में विषहीन दोमुंहा सांप (Red sand-boa) अक्सर सांडे को मांद से बाहर खदेड़ते हुए देखा जा सकता है। दोमुंहे द्वारा मांद में हमला करने पर सांडे के पास अपने पंजों से ज़मीन पर मज़बूत पकड़ बनाने एवं मांद के संकरेपन के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय नहीं होता। हालांकि सांडे को मांद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए आसान काम नहीं होता लेकिन यह प्रयास व्यर्थ नहीं है क्योंकि एक सफल शिकार का इनाम ऊर्जा युक्त भोजन होता है। शाम को सक्रिय होने वाली मरु-लोमड़ी भी अक्सर सांडे को मांद से खोदकर शिकार करते देखी जा सकती है।

परभक्षी जीवों की ऐसी विविधता के कारण सांडे ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके विकसित किए हैं। हालांकि इसके पास कोई आक्रामक सुरक्षा प्रणाली तो नहीं हैं परंतु इसका छलावरण, फुर्ती एवं सतर्कता इसके प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सूखी घास के समान होता है जो आसपास के परिवेश में अच्छी तरह घुल-मिल जाता है।

यदि छलावरण काम नहीं करता, तो शिकारियों से बचने के लिए यह अपनी गति पर निर्भर रहता है। सांडा की पीछे की टांगें मज़बूत तथा उंगलियां लंबी होती हैं जो इसे उच्च गति प्राप्त करने में मदद करती है। इसके अलावा, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद सतर्क रहती है, विशेष रूप से जब शिशुओं के साथ हो। वयस्क छिपकली आगे के पैरों के बल सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पर नज़र रखती है। सांडा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढते हैं और मामूली-सी हलचल से ही खतरा भांप कर निकट की मांद मे भाग जाते हैं।

सांडे अक्सर समूहो में रहते हैं तथा अपनी मांद एक-दूसरे से निश्चित दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरों को मादाओं के लिए मुकाबला करते देखा जा सकता है। नर अपने इलाके को लेकर सख्त क्षेत्रीयता प्रदर्शित करते हैं तथा अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।

अवैध शिकार एवं खतरे

अलबत्ता, मनुष्यों से सांडा को बचाने में छलावरण, गति और सतर्कता पर्याप्त प्रतीत नहीं होती हैं। सांडे के इलाकों में इनके अंधाधुंध शिकार की घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं। इस छिपकली को पकड़ने के लिए शिकारी भी कई तरीके इस्तेमाल करते हैं। सबसे सामान्य तरीके में सांडे की मांद में गरम पानी भरकर या मांद को खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता है।

एक अन्य तरीके में शिकारी सांडे की मांद के प्रवेश द्वार पर एक रस्सी का फंदा लगा देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब सांडा अपनी मांद से बाहर निकलता है तो फंदा उसके सिर से निकलते हुए पैरों तक आ जाता हैं तथा जैसे ही सांडा वापस मांद में जाने की कोशिश करता है, फंदा उसके शरीर पर कस जाता है। फिर सांडे को पकड़कर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है ताकि वह भाग न सके।

सांडे को भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 2 में रखा गया है, जो इसके शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है। यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संधि के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल है। हालांकि वन्य जीवों के व्यापार के मुद्दे पर कार्यरत संस्था ट्राफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में 1997 से 2001 के बीच सांडों की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार में भारतीय सांडे का हिस्सा का मात्र दो प्रतिशत था, लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय स्तर पर शिकार के गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारतीय सांडे का छोटा हिस्सा इसके कम शिकार का द्योतक नहीं है, अपितु इसकी अधिक स्थानीय खपत दर्शाता है।

हाल ही में बैंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार सांडे के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग है। पकड़े गए गिरोह का सम्बंध राजस्थान के जैसलमेर ज़िले से था, जहां पर सांडे अभी भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इस तरह के गिरोहों का नेटवर्क कितना फैला हुआ है, कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडों को अक्सर कई स्थानीय बाज़ारों में खुले बिकते भी देखा जाता है। प्रशासन की सख्ती के साथ-साथ आम जनता में जागरूकता सांडों के सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा भारतीय चीते के समान यह अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डॉक्यूमेंटरी में सिमटकर रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चोरनी चींटियां अन्य चींटियों के बच्चे खाती हैं

क्सर चींटियां खाने के सामान में चुपके से घुस जाती हैं और उसका नाश कर डालती हैं। लेकिन चींटियों के घर में भी चोरी होती है। खसखस के आकार की चोरनी चींटी (थीफ एंट), अपने से बड़ी चींटियों के बच्चों को अपना भोजन बनाती है। इकॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि अन्य चींटी प्रजातियों को चोरनी चींटियों की इस हरकत की इतनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, कि पूरी खाद्य शृंखला तहस-नहस हो जाती है।

उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में चोरनी चींटियों की कई प्रजातियां हैं। अधिकांश भूमिगत रहती हैं। ये चींटियां बड़ी चींटियों की बांबी में सुरंग बनाती हैं और अपने से 24 गुना तक बड़ी अन्य चींटियों के बच्चे चुराकर खा जाती हैं। वे वयस्क चींटियों को दूर रखने के लिए उन पर ज़हरीला विष छिड़क देती हैं।

चोरनी चींटियों के काफी संख्या में मौजूद होने के बावजूद, उनके छोटे आकार और भूमिगत रहने के कारण वे अधिकतर वैज्ञानिकों के द्वारा उपेक्षित ही रही हैं। युनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा के छात्र लियो ओहयामा देखना चाहते थे कि जब ये चोरनी चींटियां न हों तो क्या होगा? इसके लिए उन्होंने स्टेट पार्क की रेतीली मिट्टी में 18-18 वर्ग मीटर के 20 प्लॉट तैयार किए। इनमें से 10 प्लॉटों में 14 महीनों तक हर महीने प्लास्टिक ट्यूब में कीटनाशक युक्त चारा रखा। इस ट्यूब के निचले भाग में ऐसी जाली लगाई गई थी कि बड़ी चींटियां इस छेद से अंदर ना जा पाएं।

उन्होंने पाया कि कीटनाशक युक्त भोजन रखने से चोरनी चींटियों की संख्या में 71 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों की संख्या में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उन्होंने यह भी पाया कि अध्ययन के दूसरे वर्ष में मई और जून के दौरान, जब चींटियों की संख्या सबसे अधिक होती है, चोरनी चींटियों की संख्या में 82 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

ऐसा लगता है कि चोरनी चींटियां कुछ ही प्रजातियों को अधिक लक्ष्य करती हैं। क्योंकि जब चोरनी चींटियों की संख्या में कमी आई थी तब पिरामिड चींटी (Dorymyrmexbureni) की संख्या लगभग दुगनी हो गई थी, जबकि निशाचर चींटियों (Nylanderiaarenivaga) की श्रमिक चींटियों की संख्या में 98 प्रतिशत वृद्धि हुई थी। ओहयामा का कहना है कि ये नतीजे बताते हैं कि ये शिकार की गतिविधियां अत्यधिक जटिल हैं और लंबे समय में विकसित हुई होंगी और इस दौरान कुछ चींटियों ने बचाव के तरीके भी विकसित किए होंगे।

युनिवर्सिटी ऑफ कॉनकॉरिडा के समुदाय पारिस्थितिकीविद ज़्यां-फिलिप लेसार्ड का सुझाव है कि इस प्रयोग को लंबे समय तक करके देखना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये प्रभाव लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके अलावा अध्ययन में सिर्फ चींटियों की संख्या, जो काफी बदलती रहती है, की बजाय कॉलोनी के घनत्व को देखना चाहिए था।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19: वैकल्पिक समाधान – भारत डोगरा

विश्व स्तर पर कोविड-19 के कारण कई देशों में लॉकडाउन लगने व इस कारण बढ़ते आजीविका संकट व अन्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत सहित विश्व के कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस वैश्विक संकट का सामना करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण वैकल्पिक सुझाव दिए हैं।

आठ वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में एक समीक्षा लेख कोविड-19 पेंडेमिक ए रिव्यू ऑफ दी करंट एविडेंस शीर्षक से लिखा है। इन वैज्ञानिकों में डॉ. प्रणब चटर्जी, नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी आठ वैज्ञानिक प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं। यह समीक्षा लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा गया है व विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।

ऊपर से आए आदेशों पर आधारित समाधान के स्थान पर इस समीक्षा लेख ने समुदाय आधारित, जन-केंद्रित उपायों में अधिक विश्वास जताया है। लॉकडाउन आधारित समाधान को एक अतिवादी सार्वजनिक स्वास्थ्य का कदम बताते हुए इस समीक्षा लेख ने कहा है कि इसके लाभ तो अभी अनिश्चित हैं, पर इसके दीर्घकालीन नकारात्मक असर को कम नहीं आंकना चाहिए। ऐसे अतिवादी कदमों का सभी लोगों पर सामाजिक, मनौवैज्ञानिक व आर्थिक तनाव बढ़ाने वाला असर पड़ सकता है जिसका स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। अत: ऊपर के आदेशों से जबरन लागू किए गए क्वारंटाइन के स्थान पर समुदायों व सिविल सोसायटी के नेतृत्व में होने वाले क्वारंटाइन व मूल्यांकन की दीर्घकालीन दृष्टि से कोविड-19 जैसे पेंडेमिक के समाधान में अधिक सार्थक भूमिका है।

आगे इस समीक्षा लेख ने कहा है कि ऊपर से लगाए प्रतिबंधों के अर्थव्यवस्था, कृषि व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल दीर्घकालीन असर बाद में सामने आ सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के तकनीकी व चिकित्सा समाधानों पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मज़बूत करने व समुदायों की क्षमता मज़बूत करने के जन केंद्रित उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इन वैज्ञानिकों ने कोविड-19 की विश्व स्तर की प्रतिक्रिया को कमज़ोर और अपर्याप्त बताते हुए कहा है कि इससे वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की तैयारी की कमज़ोरियां सामने आई हैं व पता चला है कि विश्व स्तर के संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी अभी कितनी अधूरी है। इस समीक्षा लेख ने कहा है कि कोविड-19 का जो रिस्पांस विश्व स्तर पर सामने आया है वह मुख्य रूप से एक प्रतिक्रिया के रूप में है व पहले की तैयारी विशेष नज़र नहीं आती है। शीघ्र चेतावनी की विश्वसनीय व्यवस्था की कमी है। अलर्ट करने व रिस्पांस व्यवस्था की कमी है। आइसोलेशन की पारदर्शी व्यवस्था की कमी है। इसके लिए सामुदायिक तैयारी की कमी है। ऐसी हालत में खतरनाक संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी को बहुत कमज़ोर ही माना जाएगा।

इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम तरीके से बचाना है तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो अपितु पहले से व आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। यदि ऐसी तैयारी विकसित होगी तो लोगों की कठिनाइयों व समस्याओं को अधिक बढ़ाए बिना समाधान संभव होगा।

इस समीक्षा लेख में दिए गए सुझाव निश्चय ही महत्वपूर्ण है व इन पर चर्चा भी हो रही है। मौजूदा नीतियों को सुधारने में ये सुझाव महत्वपूर्ण हैं। जन-केंद्रित, समुदाय आधारित नीतियां अपनाकर बहुत-सी हानियों और क्षतियों से बचा जा सकता है।

जर्मनी के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल माइक्रोबॉयोलॉजी एंड हाइजीन के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा. सुचरित भाकड़ी ने हाल ही में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने कोविड-19 के संक्रमण से निबटने के उपायों पर अति शीघ्र पुन: विचार करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि बहुत घबराहट की स्थिति में जो बहुत कठोर कदम उठाए गए हैं उनका वैज्ञानिक औचित्य ढूंढ पाना कठिन है। मौजूदा आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि किसी मृत व्यक्ति में कोविड-19 के वायरस की उपस्थिति मात्र के आधार पर इसे ही मौत का कारण मान लेना उचित नहीं है।

इससे पहले वैश्विक संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि कोविड-19 के विरुद्ध जो बेहद कठोर कदम उठाए गए हैं उनमें से कुछ बेहद असंगत, विवेकहीन और खतरनाक हैं जिसके कारण लाखों लोगों की अनुमानित आयु कम हो सकती है। इन कठेर कदमों का विश्व अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर हो रहा है जो अनगनित व्यक्तियों के जीवन पर बहुत बुरा असर डाल रहा है। स्वास्थ्य देखभाल पर इन कठोर उपायों के गहन प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं। पहले से गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीज़ों की देखभाल में कमी आ गई है या उन्हें बहुत उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। उनके पहले से तय ऑपरेशन टाल दिए गए हैं व ओपीडी बंद कर दिए गए हैं।

येल युनिवर्सिटी प्रिवेंशन रिसर्च सेंटर के संस्थापक-निदेशक डॉ. डेविड काट्ज़ ने न्यूयार्क टाइम्स में 20 मार्च 2020 को प्रकाशित लेख इज़ अवर फाइट अगेंस्ट कोरोना वायरस वर्स देन द डिसीज़? में कहा है कि “मेरी गहन चिंता है कि सामाजिक व आर्थिक स्तर पर एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ रहा है और सामान्य जीवन लगभग समाप्त हो गया है, स्कूल व बिज़नेस बंद हैं, अनेक अन्य बड़े प्रतिबंध हैं – इसका कुप्रभाव लंबे समय तक ऐसा नुकसान करेगा जो वायरस से होने वाली मौतों से बहुत ज़्यादा होगा। बेरोज़गारी, निर्धनता और निराशा से जन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा।”

सेंटर फॉर इन्फेक्शियस डिसीज़ रिसर्च एंड पॉलिसी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय के निदेशक मिशेल टी. आस्टरहोम ने वाशिंगटन पोस्ट में 21 मार्च 2020 के फेसिंग कोविड-19 रिएलिटी ए नेशनल लॉकडाउन इज़ नो क्योर में कहा है कि “यदि हम सब कुछ बंद कर देंगे तो बेरोज़गारी बढ़ेगी, डिप्रेशन आएगा, अर्थव्यस्था लड़खड़ाएगी। वैकल्पिक समाधान यह है कि एक ओर संक्रमण का कम जोखिम रखने वाले व्यक्ति अपना कार्य करते रहें, व्यापार एवं औद्योगिक गतिविधियों को जितना संभव हो चलते रहने दिया जाए लेकिन जो व्यक्ति संक्रमण की दृष्टि से ज़्यादा जोखिम की स्थिति में हैं वे सामाजिक दूरी बनाए रखने जैसी तमाम सावधानियां अपना कर अपनी रक्षा करें। इसके साथ स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमताओं को बढ़ाने की तत्काल ज़रूरत है। इस तरह हम धीरे-धीरे प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी कर पाएंगे और हमारी अर्थव्यवस्था भी बनी रहेगी जो हमारे जीवन का आधार है।”

जर्मन मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. फ्रेंक उलरिक मोंटगोमेरी ने कहा है, “मैं लॉकडाउन का प्रशंसक नहीं हूं। जो कोई भी इसे लागू करता है उसे यह भी बताना चाहिए कि पूरी व्यवस्था कब इससे बाहर निकलेगी। चूंकि हमें मानकर यह चलना है कि यह वायरस तो हमारे साथ लंबे समय तक रहेगा, अत: मेरी चिंता है कि हम कब सामान्य जीवन की ओर लौट सकेंगे।”

वर्ल्ड मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लियोनिद इडेलमैन ने हाल ही में वर्तमान संकट के संदर्भ में कहा कि सम्पूर्ण लॉकडाउन से फायदे की अपेक्षा नुकसान अधिक होगा। यदि अर्थव्यवस्था बाधित होगी तो बेशक स्वास्थ्य रक्षा के संसाधनों में भी कमी आएगी। इस तरह समग्र स्वास्थ्य व्यवस्था को फायदे की जगह नुकसान ही होगा।

जाने-माने वैज्ञानिकों के इन बयानों का एक विशेष महत्व यह है कि अति कठोर उपायों के स्थान पर ये हमें संतुलित समाधान की राह दिखाते हैं। विशेषकर समुदाय आधारित व जन-केंद्रित समाधानों के जो सुझाव हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और उन पर अधिक ध्यान देना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कॉम्ब जेली का जाड़ों का भोजन उन्हीं के बच्चे

स्थानीय स्तर पर समुद्री अखरोट के नाम से विख्यात कंघे जैसे आकार वाली गिजगिजिया या कॉम्ब जेली (Mnemiopsisleidyi) जीव मूलत: उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक महासागर की वासी है। लेकिन हाल के दशकों में मालवाहक जहाज़ों के बेलास्ट पानी (जहाजों को स्थिर रखने के लिए भरे गए पानी) में सवार होकर ये युरोपीय सागरों में फैल गई हैं। बाल्टिक सागर के पश्चिमी हिस्से में गर्मियों के आखिर में इनकी आबादी में उछाल आता है और ये मछलियों के अंडे और लार्वा और छोटे क्रस्टेशियन जीवों सहित समुद्री खाद्य शृंखला के आधार जीवों का खाकर सफाया कर डालती है। लेकिन सर्दियों के लिए जमा करके रखने हेतु भी इन्हें ढेर सारा भोजन चाहिए। कम्युनिकेशन बॉयोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार उस समय इनके भोजन का सबसे बड़ा स्रोत उनकी अपनी संतानें होती हैं।

डेनमार्क के नज़दीक फ्योर्ड क्षेत्र में इनके अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि ज़रूरत पड़ने पर वयस्क कॉम्ब जेली अपनी ही प्रजाति के लार्वा को खा लेते हैं। इन अवलोकनों के बाद शोधकर्ताओं ने कॉम्ब जेली पर प्रयोगशाला में अध्ययन किया और वहां भी उन्हें यही परिणाम मिले।

गर्मियों में अपनी ही संतानों को खाने की उनकी यह प्रवृत्ति इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकती है कि क्यों गर्मियों के अंत में कॉम्ब जेली इतने अधिक लार्वा पैदा करती है, जबकि आने वाले जाड़े में इन लार्वा के जीवित बचने की संभावना भी नहीं होती। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि गर्मियों के अंत में बड़ी संख्या में लार्वा का भक्षण वयस्क कॉम्ब जेली को 2-3 हफ्ते का पोषण उपलब्ध कराता है। इस तरह उन्हें सर्दियों में 80 दिनों तक जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन का भंडार मिल जाता है।

हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि वे पूरी तरह से इस ऊर्जा संतुलन को समझ नहीं पाए हैं। क्योंकि एक ओर तो वयस्क कॉम्ब जेली को लार्वा पैदा करने में बहुत ऊर्जा लगती है, और ये लार्वा सर्दियों में जीवित भी नहीं रह पाते। दूसरी ओर, ये लार्वा खाद्य शृंखला के निचले स्तर से काफी सारा भक्षण करके इन वयस्कों के लिए भोजन का स्रोत बन जाते हैं, जो वयस्कों को जाड़ों में काम आता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पारंपरिक विश्वास और आज का विज्ञान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा अभियान के केंद्रीय प्रभारी मंत्री ने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) से संपर्क करके यह सुझाव दिया था कि परिषद कोरोनावायरस के संक्रमण (कोविड-19) के इलाज में गंगाजल के उपयोग पर शोध करे। इस पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्पष्ट किया कि इस सम्बंध में उपलब्ध डैटा इतना पुख्ता नहीं है कि इसके नैदानिक परीक्षण शुरू किए जा सकें और इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया – क्या बात है!

लाखों लोग गंगा नदी को दुनिया की सबसे पवित्र और पूजनीय नदी मानते हैं। समुद्र तल से 3.9 कि.मी. या 13,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित, हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर के गौमुख से निकलने के बाद, रास्ते में कई धाराओं का जल अपने में समाहित करते हुए, हरिद्वार के पास देवप्रयाग में आकर यह गंगा नदी कहलाती है। गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों – उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होते हुए 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं। गंगा के किनारे बसे लोग (ज़्यादातर हिंदू, लेकिन कुछ अन्य भी) इसे पूजते हैं, इसमें स्नान करते हैं, और पूजा और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए इसका जल अपने घरों में रखते हैं (गंगाजल विदेशों में बेचा भी जाता है जैसे कैलिफोर्निया की भारतीय दुकानों में मैंने खुद देखा है)। गंगा मैया के प्रति लोगों की श्रद्धा और भक्ति ऐसी ही है।

पवित्र और अपवित्र

यह दुर्भाग्य है कि सदियों से हरिद्वार क्षेत्र में ही मानव अवशिष्ट निपटान और व्यवसायिक कारणों से गंगा का जल प्रदूषित होता जा रहा है। एप्लाइड वॉटर साइंस पत्रिका में आर. भूटानिया और उनके साथियों ने 2016 में जल गुणवत्ता सूचकांक के संदर्भ में हरिद्वार में गंगा नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का आकलन शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसे पढ़कर निराशा ही होती है। गंगा के प्रदूषण पर सबसे ताज़ा अध्ययन न्यूयॉर्क टाइम्स के 23 दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस आलेख में आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा गंगा के संदूषण और इसमें हानिकारक बैक्टीरिया, जो वर्तमान में उपयोग की जाने वाली एंटीबयोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी भी हैं, की उपस्थिति के बारे में प्रस्तुत रिपोर्ट का सार प्रस्तुत किया गया है। दूसरे शब्दों में, जहां से गंगा बहना शुरू होती है ठेठ वहीं से  इसका जल (गंगाजल) मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जैसे-जैसे यह आगे बहती है कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा इसमें डाल दिया जाता है, जिससे इसके पानी की गुणवत्ता और सुरक्षा और भी कम हो जाती है। और, हाल ही में पुण्य नगरी वाराणसी की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान लॉकडाउन के दौरान गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में 40-50 प्रतिशत सुधार हुआ है (इंडिया टुडे, 6 अप्रैल 2020)।

हमने यह लौकिक अनाचार होने कैसे दिया? निश्चित रूप से, गंगा जल का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग श्रद्धालु हैं; यहां तक कि कई उद्योगों के प्रमुख या मालिक भी गंगा को पवित्र मानते होंगे। और तो और, समय-समय पर इसके जल का पूजा में उपयोग करते होंगे। लेकिन फिर भी वे इसे प्रदूषित करते हैं। (यहां यह ज़रूरी नहीं कि ‘लौकिक’ शब्द इन लोगों के विश्वास को नकारता है बल्कि यह लोगों के सांसारिक सरोकार दर्शाता है, और यह  ‘अच्छाई बनाम बुराई’ या ‘देवता बनाम शैतान’ का मामला नहीं है)। दरअसल, ‘इससे मुझे क्या फायदा होगा’ वाला रवैया लोकाचार की दृष्टि से (और शायद नैतिक रूप से भी) गलत है। इस दोहरेपन के चलते लगता नहीं कि गंगा मैया का भविष्य स्वच्छ और सुरक्षित है।

डॉल्फिनघड़ियाल से सीख

वापस विज्ञान पर आते हैं। जैसा कि उल्लेख है गंगा में अत्यधिक ज़हरीले रोगाणु (और हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट) मौजूद हैं, लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसमें रहने वाली मछलियों की 140 प्रजातियां, उभयचरों की 90 प्रजातियां, सरीसृप, पक्षी, और गंगा नदी की प्रसिद्ध डॉल्फिन और घड़ियाल (मछली खाने वाले मगरमच्छ) इस प्रदूषित पानी का सामना कर पाते हैं, खासकर अब, जब यह कोविड-19 वायरस से भी संदूषित है। क्या उनके पास विशेष प्रतिरक्षा है, और क्या वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने के लिए इनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाते हैं? यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे मानव की रक्षा के लिए अपनाया जाना चाहिए।

ऐसे ही कुछ दिलचस्प अवलोकन लामा, ऊंट और शार्क जैसे जानवरों की प्रतिरक्षा के अध्ययनों में सामने आए हैं। साइंस पत्रिका के 1 मई 2020 के अंक में मिच लेसली बताते हैं कि जीव विज्ञानियों ने लामा के रक्त और आणविक सुपरग्लू की मदद से वायरस से लड़ने का एक नया तरीका खोजा है। यह देखा गया है कि लामा, ऊंट और शार्क की प्रतिरक्षा कोशिकाएं लघु एंटीबॉडी छोड़ती हैं जो सामान्य एंटीबॉडी से लगभग आधी साइज़ की होती हैं। मुख्य बात यह है कि ये जानवर लघु एंटीबॉडी बनाते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में आसानी से संश्लेषित किया जा सकता है और वायरस के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस बारे में विस्तार से बताता एक शोध पत्र हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉल्फिन के संदर्भ में सी. सेंटलेग और उनके साथियों का पेपर अधिक प्रासंगिक है। यह अध्ययन भूमध्यसागर और अटलांटिक सागर के केनेरी द्वीप के डॉल्फिन्स पर किया गया है। भूमध्य सागर अत्यधिक प्रदूषित है जबकि केनरी द्वीप का पानी शुद्ध है।

मुझे लगता है कि हम इन अध्ययनों से सीख सकते हैं। गंगा नदी की डॉल्फिन और घड़ियालों पर शोध करके उनकी लघु-एंटीबॉडी की पहचान कर सकते हैं, उन्हें लैब में संश्लेषित कर सकते हैं, और इन्हें कोविड-19 और ऐसे अन्य वायरसों से मनुष्य की सुरक्षा के लिए अपना सकते हैं। हैदराबाद स्थित डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी प्रयोगशाला, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी में यह शोध किया सकता है।

संगम कैसे हो

उपरोक्त मंत्री के विपरीत आयुष मंत्रालय के प्रभारी मंत्री का अनुरोध है कि अश्वगंधा, मुलेठी, गिलोय और पॉलीहर्बल औषधि (जिसे आयुष 64 कहते हैं) की कोविड-19 के खिलाफ रोग-निरोधन की प्रभाविता जांचने के लिए एक नियंत्रित रैंडम अध्ययन करवाया जाए। यह अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि पर्याप्त प्रमाण हैं कि पारंपरिक जड़ी-बूटियों और पादप रसायनों में चिकित्सकीय गुण होते हैं, और दवा कंपनियां उनके सक्रिय रसायनों को खोजकर, संश्लेषित करके उपयोग करती हैं। बहुविद एम. एस. वलियाथन पिछले दो दशकों से आयुर्वेद चिकित्सकों, जैव रसायनविदों,कोशिका जीव विज्ञानियों, आनुवंशिकीविदों और नैनोप्रौद्योगिकीविदों के साथ मिलकर आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके पारंपरिक औषधियों के प्रभावों को परखने का काम कर रहे हैं। (जैसे आप उनका 1 मार्च 2016 के प्रोसीडिंग्स ऑफ दी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में प्रकाशित पदक व्याख्यान ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान : पहला दशक’ पढ़ सकते हैं। इसमें वे आधुनिक विज्ञान की मदद से आयुर्वेद पर किए गए प्रयोगों, और उनके प्रमाणित परिणामों के बारे में बताते हैं।) 2012 में प्लॉस वन पत्रिका में वी. द्विवेदी का ऐसा ही एक पेपर ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर मॉडल पर पारंपरिक आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभावों का चिकित्सीय अनुप्रयोगों से सम्बंध प्रकाशित हुआ था। तो इस तरह से परंपरा और आज के विज्ञान का संगम संभव, वे साथ आ सकते हैं।

आयुष शायद कोविड-19 से लड़ सकता है, गंगा जल तो मात्र इसे धारण कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी के अगले दो वर्ष

वैसे तो कोई नहीं जानता कि कोविड-19 महामारी के अगले अंकों में क्या होने वाला है लेकिन अधिकांश विशेषज्ञ सहमत हैं कि यह महामारी लगभग दो साल जारी रहेगी। युनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के शोधकर्ताओं द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में वर्ष 1700 से लेकर अब तक की 8 फ्लू महामारियों की जानकारी के साथ कोविड-19 महामारी का डैटा भी शामिल किया गया है। 

इस रिपोर्ट के अनुसार SARS-CoV-2 (नया कोरोनावायरस) इन्फ्लुएंज़ा के वायरस की एक किस्म तो नहीं है लेकिन इसमें और फ्लू महामारी के वायरसों के बीच कुछ समानताएं हैं। दोनों ही श्वसन मार्ग के वायरस हैं जिनकी लोगों में कोई पूर्व प्रतिरक्षा उपस्थित नहीं है। दोनों ही लक्षण-रहित लोगों से अन्य लोगों में फैल सकते हैं। लेकिन अंतर यह है कि कोविड-19 वायरस अन्य फ्लू वायरस की तुलना में अधिक आसानी से फैलता नज़र आ रहा है और SARS-CoV-2 संक्रमणों का एक ज़्यादा बड़ा हिस्सा लक्षण-रहित लोगों से फैलाव के कारण हो रहा है।

इसके आसानी से फैलने की क्षमता को देखते हुए लगभग 60 प्रतिशत से 70 प्रतिशत आबादी को प्रतिरक्षा विकसित करना होगा, तभी हम हर्ड इम्यूनिटी यानी झुंड प्रतिरक्षा से लाभांवित हो पाएंगे। हालांकि इसमें अभी काफी समय लगेगा क्योंकि अभी कुल आबादी की तुलना में बहुत कम लोग इससे संक्रमित हुए हैं।

रिपोर्ट में कोविड-19 के भविष्य को लेकर तीन संभावित परिदृश्य प्रस्तुत किए गए हैं।

परिदृश्य 1: इस परिदृश्य में, वर्तमान कोविड-19 तूफान के बाद कुछ छोटे-छोटे सैलाबों की शृंखलाएं आएंगी। ये दो साल की अवधि तक निरंतर आती रहेंगी और धीरे-धीरे 2021 तक खत्म हो जाएंगी।

परिदृश्य 2: एक संभावना यह है कि 2020 के वसंत में प्रारंभिक लहर के बाद सर्दियों के मौसम में एक बड़ा सैलाब उभरे, जैसा कि 1918 की फ्लू महामारी में हुआ था। हो सकता है इसके बाद एक-दो छोटी लहरें 2021 में भी सामने आएं।

परिदृश्य 3: कोविड-19 की शुरुआती वसंती लहर के बाद इसके संक्रमण की रफ्तार कम हो जाए और आगे कोई विशेष पैटर्न नज़र न आए।

रिपोर्ट के अनुसार नई लहरों का सामना करने के लिए समय-समय पर अलग-अलग क्षेत्रो में आवश्यकतानुसार नियंत्रण के उपाय करने होंगे और छूट देना होगा ताकि स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ न पड़े। फिलहाल जो भी परिदृश्य उभरकर आता हो, हमें कम से कम 18 से 24 महीनों तक कोविड-19 की सक्रियता के लिए तैयार रहना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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चींटियां स्मृतियां मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में संजोती हैं

मारा मस्तिष्क अलग-अलग किस्म की स्मृतियों को मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों में सहेजता है। जैसे दृश्य सम्बंधी स्मृतियां मस्तिष्क के दाएं हिस्से में सुरक्षित रहती हैं तो शब्दिक स्मृतियां मस्तिष्क के बाएं हिस्से में। ऐसा ही स्मृति विभाजन हमें सॉन्ग बर्ड्स और ज़ेब्रा फिश में भी देखने को मिलता है। और अब प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि चींटियों का नन्हा-सा मस्तिष्क भी अलग-अलग तरह की स्मृतियां अलग-अलग हिस्सों में सहेजता है। इस प्रक्रिया को पार्श्वीकरण कहते हैं।

यह जानने के लिए कि क्या चींटियों का मस्तिष्क दृश्य स्मृतियों को मस्तिष्क के अलग हिस्से में सहेजता है, पहले तो शोधकर्ताओं ने जंगली चींटियों (फॉर्मिका रूफा) को ठीक उस तरह प्रशिक्षित किया जैसे इवान पावलॉव ने कुत्तों को प्रशिक्षित किया था। उन्हें एक संकेत दिया जाता और फिर उसके साथ भोजन मिलता था।

उन्होंने दर्जनों चींटियों के साथ यह प्रयोग किया। प्रयोग यह था कि जब भी चींटियां नीले रंग की वस्तु देखें तो या तो उनके दाएं एंटीना पर, या बाएं एंटीना पर, या दोनों एंटीना पर मीठे पानी की एक बूंद लगाई गई। इस तरह उन्होंने चींटियों में नीले रंग की वस्तु से प्यास का सम्बंध बनाया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने 10 मिनट, 1 घंटे और 24 घंटे बाद उनकी स्मृति का परीक्षण किया। वे देखना चाहते थे कि नीली वस्तु दिखाने पर क्या चींटियां मीठे पानी के लिए अपना मुंह खोलती हैं जो प्यास का द्योतक होगा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन चींटियों का दायां एंटीना छूकर प्रशिक्षित गया था उन्होंने 10 मिनट बाद के परीक्षण में मीठे पानी के लिए तुरंत प्रतिक्रिया दी, 1 घंटे के बाद सुस्त प्रतिक्रिया दी लेकिन उसके बाद कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। और जिन चींटियों का बायां एंटीना छूकर प्रशिक्षित किया गया था उन चींटियों ने 10 मिनट और 1 घंटे बाद तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन 24 घंटे बाद प्यास की प्रतिक्रिया दी। इससे तो लगता है कि चींटियों के मस्तिष्क का एक हिस्सा अल्पकालीन स्मृतियों को और दूसरा हिस्सा दीर्घकालीन स्मृतियों को सहेजता है।

कीटों में यह पहली बार देखा गया है कि अल्प और दीर्घकालीन दृश्य स्मृतियां मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से में सहेजी जाती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है यह कीटों की एक ऐसी विशेषता हो सकती है जो उन्हें ऊर्जा और स्मृति सहेजने की क्षमता की बचत करने में मदद करती हो।(स्रोत फीचर्स)

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ऑटिज़्म अध्ययन को एक नई दिशा

प्रोफेशनल बर्नऑउट यानी काम के बोझ से उपजे तनाव और काम के प्रति अरुचि से तो हम वाकिफ हैं। लेकिन ऑटिज़्म इन एडल्टहुड पत्रिका में प्रकाशित एक ताज़ा शोध कहता है कि ऑटिस्टिक लोगों को बर्नआउट महज़ अधिक काम के दबाव से नहीं होता बल्कि ऑफिस में गैर-ऑटिस्टिक लोगों के साथ काम करते वक्त अपने ऑटिस्टिक व्यवहार को छिपाने का जो अभिनय करना पड़ता है वह एकदम थकाऊ होता है। इसके चलते उनमें ध्वनि और प्रकाश को बर्दाश्त करने की क्षमता में कमी आती है और वे अपने हुनर भी गंवा बैठते हैं।

पोर्टलैंड स्टेट युनिवर्सिटी के डोरा रेमेकर और साथियों ने अपने अध्ययन में ऑटिस्टिक लोगों के साक्षात्कार लिए और सोशल मीडिया पर लिखी टिप्पणियों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि हमें ऑटिस्टिक-हितैषी कार्यस्थलों की ज़रूरत है जहां लोगों को अपने ऑटिस्टिक व्यवहार को छिपाना ना पड़े। रेमेकर बताते हैं कि अक्सर ऑटिस्टिक व्यक्ति पर ही इस समस्या से निपटने का दबाव होता है। बल्कि कार्यस्थलों पर ऐसे माहौल की ज़रूरत है जो ऑटिस्टिक व्यक्ति को उसी रूप में स्वीकार करें जैसे वे हैं, और काम में लचीलापन दें।

रेमेकर ने ऑटिज़्म अध्ययन को एक नई दिशा दी है। ऑटिज़्म के परंपरागत अध्ययन ऑटिज़्म के कारण और इलाज की पड़ताल करते हैं और बच्चों पर केंद्रित रहते हैं। इसके विपरीत इस अध्ययन ने ऑटिज़्म की व्यवहारगत मुश्किलों की ओर ध्यान दिलाया है और इसमें ऑटिस्टिक वयस्कों को शामिल किया गया है, जिन्होंने अपने अनुभव अध्ययन में जोड़े। ऐसे ही एक अन्य अध्ययन में यह देखने की कोशिश की जा रही है कि कैसे शिक्षक और कर्मचारी कॉलेज में ऑटिस्टिक छात्रों के अनुभवों को बेहतर बना सकते हैं।

वैसे तो कई अध्ययन हाशिएकृत लोगों को ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं लेकिन अब भी अध्ययन में ऑटिस्टिक लोगों को शामिल करना आसान नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि अध्ययन करने वालों में यदि ऑटिस्टिक व्यक्ति होंगे तो हो सकता है कि उनके पूर्वाग्रहों के चलते अध्ययनों की वस्तुनिष्ठता में कमी आए। इस पर अध्ययन की सह-लेखिका निकोलेडिस का कहना है कि ऑटिस्टिक लोगों ने ही उनके सर्वेक्षण उपकरणों में तब्दीली करने में मदद की। जैसे एक सवाल था: ‘आप इस गतिविधि को ____ प्रतिशत समय करते हैं।’ बौद्धिक विकलांगता वाले ऑटिस्टिक लोगों ने प्रतिशत के साथ काम करने में असुविधा व्यक्त की इसलिए उनकी टीम ने प्रतिशत के स्थान पर रंगभरे चित्रों का उपयोग किया। उनका कहना है कि यदि ऑटिस्टिक लोगों के साथ किए गए अध्ययन में सामान्य साधन उपयोग किए होते तो परिणाम सही नहीं आते।

इसी तरह की पहल पिछले वर्ष शुरू हुए जर्नल ऑटिज़्म इन एडल्टहुड ने की है, जिसकी मुख्य संपादक निकोलेडिस हैं और एक संपादक स्व-घोषित ऑटिस्टिक रेमेकर हैं। कई लोग इसकी नीतियों से हैरान हो सकते हैं। जैसे इसमें प्रकाशन के लिए आने वाले हर अध्ययन की कम से कम एक समीक्षा ऑटिस्टिक समीक्षक द्वारा की जाती है। ऑटिस्टिक समीक्षक शोध पत्र की भाषा और जानकारी की बोधगम्यता पर टिप्पणी करते हैं। यह पहली बार है कि ऑटिस्टिक लोगों की बात को सुना गया है, अहम माना गया है। ऑटिस्टिक वयस्कों का अपने लिए बोलने का अधिकार और कर्तव्य बनता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी का अंत कैसे होगा

कोरोनावायरस वुहान के नज़दीक पाए जाने वाले चमगादड़ की एक प्रजाति से किसी तरह एक अन्य मध्यवर्ती प्रजाति से मनुष्यों में प्रवेश कर गया। लेकिन अभी तक किसी को नहीं पता कि यह महामारी खत्म कैसे होगी। अलबत्ता, पूर्व की महामारियों से भविष्य के संकेत मिलते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की महामारीविद और जीवविज्ञानी सारा कोबे और अन्य विशेषज्ञों के अनुसार पूर्व के अनुभवों से पता चलता है कि आने वाला समय इस बात पर निर्भर करता है कि रोगाणु का विकास किस तरह होता है और उस पर मनुष्यों की जैविक और सामाजिक दोनों तरह की प्रतिक्रिया क्या रहती है।    

वास्तव में वायरस निरंतर उत्परिवर्तित होते रहते हैं। किसी भी महामारी को शुरू करने वाले वायरस में इतनी नवीनता होती है कि मानव प्रतिरक्षा प्रणाली उन्हें जल्दी पहचान नहीं पाती। ऐसे में बहुत ही कम समय में बड़ी संख्या में लोग बीमार हो जाते हैं। भीड़भाड़ और दवा की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि होती है। अधिकतर मामलों में तो प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा विकसित एंटीबॉडीज़ लंबे समय तक बनी रहती हैं, प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं और व्यक्ति से व्यक्ति में संक्रमण को रोक देती हैं। लेकिन इस तरह के परिवर्तनों में कई साल लग जाते हैं, तब तक वायरस तबाही मचाता रहता है। पूर्व की महामारियों के कुछ उदाहरण देखते हैं।

रोग के साथ जीवन

आधुनिक इतिहास का एक उदाहरण 1918-1919 का एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा प्रकोप है। उस समय डॉक्टरों और प्रशासकों के पास आज के समान साधन उपलब्ध नहीं थे और स्कूल बंद करने जैसे नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती थी कि उन्हें कितनी जल्दी लागू किया जाता है। लगभग 2 वर्ष और महामारी की 3 लहरों ने 50 करोड़ लोगों को संक्रमित किया था और लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मारे गए थे। यह तब समाप्त हुआ था जब संक्रमण से उबर गए लोगों में प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षा पैदा हो गई।

इसके बाद भी एच1एन1 स्ट्रेन कुछ हल्के स्तर पर 40 वर्षों तक मौसमी वायरस के रूप में मौजूद रहा। और 1957 में एच2एन2 स्ट्रेन की एक महामारी ने 1918 के अधिकांश स्ट्रेन को खत्म कर दिया। एक वायरस ने दूसरे को बाहर कर दिया। वैज्ञानिक नहीं जानते कि ऐसा कैसे हुआ। प्रकृति कर सकती है, हम नहीं।

कंटेनमेंट

2003 की सार्स महामारी का कारण कोरोनावायरस SARS-CoV था। यह वर्तमान महामारी के वायरस (SARS-CoV-2) से काफी निकटता से सम्बंधित था। उस समय की आक्रामक रणनीतियों, जैसे रोगियों को आइसोलेट करने, उनसे संपर्क में आए लोगों को क्वारेंटाइन करने और सामाजिक नियंत्रण से इस रोग को हांगकांग और टोरंटो के कुछ इलाकों तक सीमित कर दिया गया था।

गौरतलब है कि यह कंटेनमेंट इसलिए सफल रहा था क्योंकि इस वायरस के लक्षण काफी जल्दी नज़र आते थे और यह वायरस केवल अधिक बीमार व्यक्ति से ही किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित कर सकता था। अधिकांश मरीज़ लक्षण प्रकट होने के एक सप्ताह बाद ही संक्रामक होते थे। यानी यदि लक्षण प्रकट होने के बाद उस व्यक्ति को अलग-थलग कर दिया जाता तो संक्रमण आगे नहीं फैलता था। कंटेनमेंट का तरीका इतना कामयाब रहा कि इसके मात्र 8098 मामले सामने आए और सिर्फ 774 लोगों की ही मौत हुई। 2004 से लेकर आज तक इसका कोई और मामला सामने नहीं आया है।     

टीका

विशेषज्ञों के अनुसार 2009 में स्वाइन फ्लू का वायरस 1918 के एच1एन1 वायरस के समान ही था। हम काफी भाग्यशाली रहे कि इसकी संक्रामक और रोगकारी क्षमता बहुत कम थी और छह माह के अंदर ही इसका टीका विकसित कर लिया गया था।

गौरतलब है कि खसरा या चेचक के टीके के विपरीत, फ्लू के टीके कुछ वर्षों तक ही सुरक्षा प्रदान करते हैं। इन्फ्लुएंज़ा वायरस जल्दी-जल्दी उत्परिवर्तित होते रहते हैं, और इसलिए इनके टीकों को भी हर साल अद्यतन करने और नियमित रूप से लगाने की ज़रूरत होती है।

वैसे महामारी के दौरान अल्पकालिक टीके भी काफी महत्वपूर्ण होते हैं। 2009 के वायरस के खिलाफ विकसित टीके ने अगले जाड़ों में इसके पुन: प्रकोप को काफी कमज़ोर कर दिया था। टीके की बदौलत ही 2009 का वायरस ज़्यादा तेज़ी से 1918 के वायरस की नियति को प्राप्त हो गया। जल्दी ही इसे मौसमी फ्लू के रूप में जाना जाने लगा जिसके विरुद्ध अधिकतर लोग संरक्षित हैं – या तो फ्लू के टीके से या पिछले संक्रमण से उत्पन्न एंटीबॉडी द्वारा।  

वर्तमान महामारी

वर्तमान महामारी की समाप्ति को लेकर फिलहाल तो अटकलें ही हैं लेकिन अनुमान है कि इस बार पूर्व की महामारियों में उपयोग किए गए सभी तरीकों की भूमिका होगी – मोहलत प्राप्त करने के लिए सामाजिक-नियंत्रण, लक्षणों से राहत पाने के लिए नई एंटीवायरल दवाइयां और टीका।

सामाजिक दूरी जैसे नियंत्रण के उपाय कब तक जारी रखने होंगे यह तो लोगों पर निर्भर करता है कि वे कितनी सख्ती से इसका पालन करते हैं और सरकारों पर निर्भर करता है कि वे कितनी मुस्तैदी से प्रतिक्रिया देती हैं। कोबे का कहना है कि इस महामारी का नाटक 50 प्रतिशत तो सामाजिक व राजनैतिक है। शेष आधा विज्ञान का है।

इस महामारी के चलते पहली बार कई शोधकर्ता एक साथ मिलकर, कई मोर्चों पर इसका उपचार विकसित करने पर काम कर रहे हैं। यदि जल्दी ही कोई एंटीवायरल दवा विकसित हो जाती है तो गंभीर रूप से बीमार होने वाले लोगों या मृत्यु की संख्याओं को कम किया जा सकेगा।

स्वस्थ हो चुके रोगियों में SARS-CoV-2 को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडीज़ की जांच तकनीक से भी काफी फायदा मिल सकता है। इससे महामारी खत्म तो नहीं होगी लेकिन गंभीर रूप से बीमार रोगियों के उपचार में एंटीबॉडी युक्त रक्त का उपयोग किया जा सकता है। ऐसी जांच के बाद वे लोग काम पर लौट सकेंगे जो इस वायरस को झेलकर प्रतिरक्षा विकसित कर पाए हैं।  

संक्रमण को रोकने के लिए टीके की आवश्यकता होगी जिसमें अभी भी लगभग 1 साल का समय लग सकता है। एक बात स्पष्ट है कि टीका बनाना संभव है। और फ्लू के वायरस की अपेक्षा SARS-CoV-2 का टीका बनाना आसान होगा क्योंकि यह कोरोनावायरस है और इनके पास मानुष्य की कोशिकाओं के साथ संपर्क करके अंदर घुसने के रास्ते बहुत कम होते हैं। वैसे यह खसरे के टीके की तरह दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान तो नहीं करेगा लकिन फिलहाल तो कोई भी टीका मददगार होगा। 

जब तक दुनिया के हर स्वस्थ व्यक्ति को टीका नहीं लग जाता, कोविड-19 स्थानीय महामारी बना रहेगा। यह निरंतर प्रसारित होता रहेगा और मौसमी तौर पर लोगों को बीमार भी करता रहेगा, कभी-कभार गंभीर रूप से। अधिक समय तक बना रहा तो यह बच्चों को छुटपन में ही संक्रमित करने लगेगा। बचपन में बहुत गंभीर लक्षण प्रकट नहीं होते और ऐसा देखा जाता है कि बचपन में संक्रमित बच्चे वयस्क अवस्था में फिर से संक्रमित होने पर उतने गंभीर बीमार नहीं होते। अधिकांश लोग टीकाकरण और प्राकृतिक प्रतिरक्षा के मिले-जुले प्रभाव से सुरक्षित रहेंगे। लेकिन अन्य वायरसों की तरह SARS-CoV-2 भी लंबे समय तक हमारे बीच रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 महामारी बनाम डिजिटल महामारी – अनुराग मेहरा

लेख की शुरुआत मैं एक गुज़ारिश के साथ करना चाहता हूं। हम अचानक ही मुश्किल और अनिश्चित दौर से घिर गए हैं। अनजाने भविष्य का डर और आशंका बेचैनी पैदा कर रहे हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस डर को बढ़ाने में हमारा कोई योगदान ना हो, हमें ध्यान देना चाहिए कि हम दूसरों के साथ कैसी जानकारी साझा कर रहे हैं, खासकर सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप्स के ज़रिए। जब भी आप कुछ देखें या पढ़ें तो अपने आप से ये सवाल ज़रूर करें: क्या मुझे इस जानकारी पर भरोसा है? अगर यह जानकारी किसी खास विषय से सम्बंधित है तो क्या मैं इसे परखने के लिए पर्याप्त जानकार हूं? क्या दी गई जानकारी के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं? क्या कहीं और भी यह बात कही गई है? विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) या स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में क्या कहता है? क्या आपने व्हाट्सएप पर प्राप्त सरकारी आदेश का उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर जारी आदेश से मिलान किया है? यदि थोड़ी भी शंका हो तो हमें संदेश साझा करने और आगे बढ़ाने से बचना चाहिए। वरना हम लोगों को गलत जानकारी देंगे जो उन्हें जोखिम में डाल सकती है।

कोविड-19 महामारी कई लोगों के लिए एक वरदान के रूप में आई है कि वे अपने अज्ञान को समझ व ज्ञान रूपी हथियार का रूप देकर, प्राय: सांस्कृतिक गर्व का मुलम्मा चढ़ाकर दुनिया के समक्ष पेश कर सकें। डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने कई लोगों को विशेषज्ञ, विद्वान, डॉक्टर और सर्वज्ञ बना दिया है। मोबाइल फोन और कुछ अन्य माध्यमों के ज़रिए वे इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग बेतुकी और भ्रामक जानकारी फैलाने में कर रहे हैं। इनमें कई बार ऐसी बकवास भी शामिल होती है जो आज़माने वालों के लिए घातक हो सकती है।

कोरोनोवायरस (SARS-CoV-2), कोविड-19 की शारीरिक महामारी के साथ जुड़ी जानकारी की महामारी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। सबसे अधिक बेतुकी बातें संक्रमण के इलाज और इससे बचाव के उपायों के बारे में कही जा रही हैं। जिससे एक सवाल यह उठता है: गड़बड़ क्या है और ऐसा क्यों हो रहा है? सरल स्तर पर देखें तो, सनसनीखेज़ सामग्रियां डर और उम्मीद के चलते फैल रही हैं, और जीवित रहने के लिए हमारे दिमाग की एक प्रवृत्ति खतरों को बड़े रूप में देखने की है। ऐसा अक्सर महामारी, आपदाओं और युद्ध के समय होता है। पर इस समय हालात को अधिक जटिल और खतरनाक बनाने वाले तीन कारक हैं: पहला, इंटरनेट पर मौजूद असत्यापित अथाह ‘ज्ञान’ के भंडार तक आसान पहुंच; दूसरा, डिजिटल मीडिया की बदौलत प्रसार की तीव्र गति और आसान पहुंच; और तीसरा, सामाजिक और राजनैतिक ध्रुवीकरण जो साज़िश की परिकल्पनाओं को तथा भयंकर पक्षपाती अभिमान से भरे छद्म वैज्ञानिक कथनों को जन्म देता है।

इनमें सबसे प्रचलित हैं खांसी और ज़ुकाम या सामान्य प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए आज़माए जाने वाले घरेलू नुस्खों का विस्तार। इनमें से कुछ उपाय तो गर्म पानी से गरारे करने और गर्मागरम रसम पीने जैसे साधारण सुझाव हैं। इनका एक अन्य स्तर है स्व-परीक्षण; जैसे एक संदेश कहता है कि यदि आप 10 सेकंड के लिए अपनी सांस रोक सकते हैं तो आप संक्रमित नहीं हैं। इंटरनेट गलत सूचनाओं से भरा पड़ा है, जिनसे आप चलते-चलते टकरा जाएंगे। गलत सूचनाओं तक संयोगवश पहुंचना कहीं आसान है बनिस्बत प्रामाणिक जानकारी तक पहुंचने के, जिसे खोजना पड़ता है और प्रामाणिकता को परखने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं।

गलत सूचनाएं अक्सर आधिकारिक दिखने वाले दस्तावेज़ों और सील-ठप्पों के साथ पेश की जाती हैं। इनमें से कुछ नामी पेशेवरों के हवाले से आती हैं; जैसे एक प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट को यह कहते सुना गया था कि जिन व्यक्तियों में संक्रमण के लक्षण दिख रहे हैं उन्हें, परीक्षण किट की कमी के चलते, आठ दिनों के बाद ही परीक्षण के लिए जाना चाहिए। इसके अलावा फेसबुक, ट्विटर और सबसे कुख्यात व्हाट्सएप पर कई हास्यास्पद चीज़ें चल रही हैं। जैसे लहसुन कोरोनावायरस को ठीक कर सकता है, या हर 15 मिनट में गर्म पानी पीने से संक्रमण से बचा जा सकता है। सबसे अधिक रोमांचक सलाह शराब और गांजा का सेवन करने की है; दावा है कि दोनों ही वायरस को मार सकते हैं। अमेरिका में काफी प्रचलित सलाह है कि ‘चमत्कारी मिनरल घोल’ यानी ब्लीच वायरस का सफाया कर सकता है। प्रसंगवश बता दें कि यह आपका भी सफाया हमेशा के लिए कर देगा।

मेसेजेस ने इस विचार को भी बढ़ावा दिया है कि मास्क लगाने से वायरस से पूरी तरह सुरक्षित रहा जा सकता है – यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि यह विचार एक मिथ्या आत्मविश्वास पैदा करता है और फिर आपसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार करवाता है। इसके चलते उन लोगों के लिए मास्क की कमी भी हो गई जिन्हें इनकी वाकई ज़रूरत थी। और अंत में, निश्चित ही यह झूठी घोषणा थी कि सरकार ने पूरे इलाके में छिड़काव करके हवा में ही वायरस के खात्मे का इंतजाम किया है।

यह तब और भी चिंताजनक हो जाता है जब ये मूर्खतापूर्ण बातें आधिकारिक नीति बन जाती हैं: स्वास्थ्य मंत्रालय सलाह देता है कि आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक उपचार कोरोनोवायरस के ‘लक्षणों से निपटने’ में मददगार हैं! जबकि इस तरह के दावों का रत्ती भर वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। फिर भी ये सरकार की ओर से ज़ारी किए गए हैं। विशेषज्ञों द्वारा इस पर आपत्ति उठाने पर मंत्रालय ने ‘स्पष्टीकरण’ दिया है कि यह सलाह ‘सामान्य’ वायरस संक्रमण के संदर्भ में जारी की गर्इं है।

यदि कोई इन ‘उपचारों’ को अपना ले तो परिणाम भयावह होंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कोरोनोवायरस के इलाज के लिए क्लोरोक्वीन और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के उपयोग की वकालत की है। जब उनसे इस बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब दिया कि “मैं एक ऐसा आदमी हूं जो बहुत सकारात्मक सोच रखता हूं, विशेष रूप से इन दवाओं के मामले में। यह सिर्फ एक एहसास है, सिर्फ एक एहसास है। मैं एक स्मार्ट आदमी हूं।”

इन दवाओं की प्रभाविता के बारे में केवल कहे-सुने प्रमाण उपलब्ध हैं और इन्हें लेकर परीक्षण चल रहे हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा पहले ही इस ‘उपचार’ की पैरवी ने मुश्किल खड़ी कर दी है: इन दवाओं की जमाखोरी से इनकी उपलब्धता उन लोगों के लिए कम हो गई है जिन्हें अन्य बीमारियों के इलाज में इनकी ज़रूरत है। लोग कोरोनोवायरस से अपने को बचाने के लिए अब खुद ही इन अत्यधिक ज़हरीली दवाओं का सेवन रहे हैं, जिसके कारण एरिज़ोना और नाइजीरिया में मौतें भी हो चुकी हैं। इसी तरह के हालात भारत में भी बन सकते हैं।

साज़िश परिकल्पनाओं की भी कोई कमी नहीं है। एक प्रचलित बयान यह है कि कोरोनावायरस 5-जी मोबाइल तकनीक के परिणामस्वरूप उपजा है; यह वायरस के माध्यम से लोगों को बीमार करता है। मलेशियाई सरकार को अपने नागरिकों को आश्वस्त करना पड़ा कि यह वायरस लोगों को रक्त-पिपासु दैत्य में नहीं बदलेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका में दक्षिणपंथी लोगों ने सोशल मीडिया पर इस तरह की पोस्ट की बाढ़ लगा दी है कि कोरोनावायरस ट्रम्प विरोधी हिस्टीरिया पैदा करने की और ‘देश को अस्थिर करने’ की साज़िश है। इस डर को हवा दी जा रही है कि डब्लूएचओ ‘राष्ट्रों को नियंत्रित कर रहा है और कई लोगों को मारने के लिए जबरन टीके लगाए जाएंगे।’ इसका एक परिणाम इस रूप में सामने आ रहा है कि दक्षिण-पंथी रुझान वाले नागरिक इस महामारी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, और लापरवाही भरा व्यवहार कर रहे हैं, जैसे बाहर खाना खाना या हाथ मिलाना (यह साबित करने के लिए कि वे सख्त हैं)।

ज़्यादा गहरे स्तर पर दक्षिणपंथी लोग “वायरस के कारण और उसकी उत्पत्ति के बारे में साज़िश-सिद्धांत पेश कर रहे हैं, और इन मनगढ़ंत कहानियों का उपयोग आप्रवासियों, अल्पसंख्यकों या उदारवादी लोगों को बलि का बकरा बनाने हेतु कर रहे हैं।” चीनी मूल के अमेरिकी नागरिकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें तो सामने आ भी चुकी हैं क्योंकि ट्रम्प ने “चीनी वायरस” शब्द प्रचलित कर दिया है। भारत में भी, पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों पर इसी तरह के नस्लवादी हमले किए गए हैं। चीन को एक दैत्य साबित करने के लिए कहा जा रहा है कि वह अपने ही नागरिकों के प्रति अमानवीय और क्रूर व्यवहार कर रहा है, और ऐसी (झूठी) रिपोर्टें पेश की जा रही हैं कि चीन संक्रमित लोगों को मार रहा है।

लेकिन यह पुराना सवाल बरकरार है: लोग इन बकवास बातों में क्यों आ जाते हैं? एक अन्य लेख में इस बात की चर्चा की गई है कि कैसे क्राउडसोर्सिंग द्वारा बकवास भी ‘ज्ञान’ बन जाता है। मोटे तौर पर कहा जाए तो विभिन्न कारणों से आबादी के एक बड़े हिस्से के लोगों में समीक्षात्मक कौशल की कमी के चलते कितनी भी हास्यास्पद या बकवास बात ‘विश्वसनीय’ बन जाती है। सही शिक्षा तक लोगों की पहुंच के अभाव और आधारभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों की जानकारी की कमी के कारण उनके पास लगातार मिल रही इन सूचनाओं की वैधता जांचने का कोई तरीका नहीं होता। इसके अलावा सवाल करने की मानसिकता की अनुपस्थिति, जो वैज्ञानिक स्वभाव का अंतर्निहित हिस्सा है, के कारण वे जो भी देखते, पढ़ते और सुनते हैं उसकी गहन पड़ताल नहीं कर पाते।

यहां स्पष्ट रूप से दो तरह के परिदृश्य हैं

पहली श्रेणी उन लोगों की है जो तार्किकता से शुरुआत तो करते हैं लेकिन एक समय बाद प्रामाणिक से दिखने वाले नकली दस्तावेज़ों या वैज्ञानिक लगने वाले तर्कों में फंस जाते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण यह बयान है कि होम्योपैथी कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए सभी अद्भुत दवाएं उपलब्ध करा रही है। इस तरह के दावे वैसी ही भाषा शैली का उपयोग करते हैं जैसी कि आधुनिक चिकित्सा में उपयोग की जाती है, जिससे होम्योपैथी चिकित्सा बिल्कुल इसके समान और इसका विकल्प लगने लगती है। यह उस छद्म विज्ञान को ढंक देती है जिस पर होम्योपैथी आधारित है। कोरोनोवायरस महामारी के इलाज और उसके टीके सम्बंधी ये दावे इस संक्रमण के खिलाफ अजेयता का भ्रम पैदा कर सकते हैं।

‘जनता कर्फ्यू’ के मामले में सोशल मीडिया पर एक छद्म वैज्ञानिक व्याख्या काफी प्रचलित है: किसी एक स्थान पर कोरोनोवायरस 12 घंटे जीवित रहता है और जनता कर्फ्यू 14 घंटे का है। इसलिए सार्वजनिक स्थलों या बिंदुओं को, जहां कोरोनावायरस पड़ा रह गया होगा, यदि 14 घंटे तक छुआ नहीं जाएगा तो इससे कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी। यह ना केवल अजीबो-गरीब तर्क है बल्कि यह वायरस के जीवन काल के तथ्य के आधार पर भी गलत है। इस प्रकार के कर्फ्यू वायरस के संपर्क में आने में कमी ला सकते हैं, और आपातकालीन उपायों के हिसाब से यह एक अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन यह नहीं होगा कि ‘कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी’।

व्हाट्सएप पर एक और बेतुका तर्क दिया जा रहा है कि भारत के 130 करोड़ लोग यदि एक समय, एक साथ ताली और शंख बजाएंगे तो इतना कंपन पैदा होगा कि वायरस अपनी सारी शक्ति खो देगा। यदि कुछ ट्वीट्स की मानें तो ऐसा करके हमें पहले ही बड़ी सफलता मिल चुकी है क्योंकि “नासा SD13 तरंग डिटेक्टर ने ब्राहृाण्ड स्तरीय ध्वनि तरंग डिटेक्ट की हैं और हाल ही में बनाए गए बायो-सैटेलाइट ने दिखाया है कि कोविड-19 स्ट्रेन घट रहा है और कमज़ोर हो रहा है” और वह भी सामूहिक शंखनाद के कुछ मिनटों बाद।

इससे ज़्यादा ऊटपटांग बात कोई हो नहीं सकती। दूसरी ओर, सामाजिक दूरी का विचार, जिसे सरकारें जी-जान से बढ़ावा देने में जुटी हैं, तब हवा में उड़ गया जब कई लोग राजनेताओं के आव्हान से उत्साहित होकर संक्रमण से लड़ने वाले कार्यकर्ताओं के सम्मान में लोग ताली-थाली बजाने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर एक साथ जमा हो गए। लेकिन ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है, हम वास्तव में अपने आसपास इन कार्यकर्ताओं को नहीं चाहते क्योंकि इनके संक्रमित होने की संभावना है। मकान मालिकों ने एयरलाइन कर्मचारियों और यहां तक कि चिकित्सा पेशेवरों को घर खाली करने को कहा है – यह काफी निराशाजनक स्थिति दिखती है कि हम दूसरों की ज़िंदगी को महत्व नहीं देते हैं, उनकी भी जो संकट के समय हमारी सेवा करते हैं। जिन लोगों को क्वारेंटाइन किया गया है उनके प्रति सहानुभूति में कमी और उनकी निजता पर आक्रमण और भी शर्मनाक है।

हम वास्तव में सबसे भौंडा इतिहास बनते देख रहे हैं

दूसरा, हमारे यहां कई ऐसे लोग हैं जो निहित रूप से अंधविश्वासों और अतार्किक विश्वासों के प्रति संवेदी हैं। इसके लिए विचित्र धार्मिकता से लेकर इन विश्वासों को मानने वाली संस्कृति में परवरिश जैसे कई कारण ज़िम्मेदार हैं। इन मामलों में ज्ञान और जानकारी बुज़ुर्गों, समुदाय प्रमुखों और धार्मिक गुरुओं से आंख मूंदकर प्राप्त की जाती है, उस पर सवाल नहीं उठाए जाते; दिमागों को सवाल उठाने या प्रमाण खोजने के लिए तैयार नहीं किया जाता। इसलिए इन लोगों को जो कुछ भी सूचनाएं मिलती हैं, उसे मान लेते हैं, और इससे भी अधिक तत्परता से उन सूचनाओं को मान लेते हैं जो किसी भी किस्म के अधिकारियों – राजनीतिक नेताओं, धार्मिक हस्तियों – से प्राप्त हुई हैं। ‘गो कोरोना गो’ का एक वीडियो बीमारी से लड़ने में एक आशावादी मनोस्थिति बनाने का अच्छा साधन हो सकता है लेकिन यह वीडियो एक मुगालता भी पैदा करता है कि कोरोनोवायरस को जाप से, खासकर सामूहिक जाप से भगाया जा सकता है।

कोरोनावायरस सम्बंधी इस तरह की बेतुकी बयानबाज़ी करने वाले अधिकतर वे लोग हैं जो धार्मिक और राष्ट्रवादी गौरव से भरे होते हैं। यह वक्त, जो महान राजनीतिक ध्रुवीकरण और तीव्र सामाजिक आक्रोश का गवाह है, ने सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आख्यानों से पूर्ण दंभ के उग्रवादी रूप को जन्म दिया है।

इसी के चलते, गोमूत्र का उपयोग कीटाणुनाशक के रूप में किया जा रहा है और बिना सोचे-समझे लोगों पर इसका छिड़काव किया जा रहा है। दक्षिणपंथी राजनेताओं का दावा है कि गोमूत्र और गोबर कोरोनोवायरस का इलाज कर सकते हैं, और हवन वायरस को मार सकता है। इनमें से कुछ ने विशेष सभाओं का आयोजन किया जहां आमंत्रित लोगों को गोमूत्र पीने के लिए दिया गया। कई ज्योतिष हमें बताते हैं कि हम अस्तित्व के संकट का सामना क्यों कर रहे हैं, और यह कब दूर होगा। एक अन्य दावा कहता है कि प्राचीन भारतीय योग के श्वसन का तरीका कोरोनावायरस के संक्रमण से बचा सकता है, और यह भी कि आयुर्वेदिक चिकित्सा में प्रयुक्त अश्वगंधा ‘मानव प्रोटीन से कोरोना प्रोटीन को जुड़ने नहीं देगी।’ इंडोनेशिया में मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया है कि वजू करना वायरस को मार सकता है।

जो लोग इनमें से किसी भी कथन को गंभीरता से लेते हैं और मानते हैं कि उनके पास कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए उपाय है तो हो सकता है कि वे खुद को और दूसरों को गंभीर खतरे में डाल रहे हैं।

हमें घेरती जा रही इस अज्ञानता के और भी अधिक भयावह और दीर्घकालिक प्रभाव हैं। आक्रामक शाकाहार-श्रेष्ठता के उन्माद में स्वनामधन्य ज्ञान उड़ेला जा रहा है: कोरोनावायरस की उत्पत्ति चीन के ‘मांस बाज़ार’ से हुई, जहां मारे गए जंगली जानवरों की विभिन्न प्रजातियां एक साथ होती हैं, जिससे वायरस एक प्रजाति से होते हुए दूसरी प्रजाति और अंतत: मनुष्य में आ गया। यह बात मांसाहार की कटु आलोचना के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। मांस खाने वालों को दोष देते हुए कतिपय सभ्यता की श्रेष्ठता के दावे किए जा रहे हैं और सभ्यता के घोर अनुयायी मांग कर रहे हैं कि चीनी राष्ट्रपति कोरोनावायरस की प्रतिमा से क्षमा याचना करें कि उन्होंने मांस खाया। संक्रमित मटन बाज़ार दिखाने वाले वीडियो भावनाओं को और भड़का रहे हैं। इस प्रकार कोरोनावायरस मांस खाने वालों के खिलाफ प्रकृति का प्रतिशोध बन गया है। इससे भारत में मुर्गियों की कीमत बहुत कम हो गई है, और यह उद्योग आर्थिक संकट झेल रहा है।

सिर्फ अनुशंसित वेबसाइटों (जैसे डब्ल्यूएचओ) से जानकारी प्राप्त करने की सलाह और गुज़ारिश किसी भी तरह से लोगों को गलत सूचना मानने और आगे बढ़ाने से रोक नहीं रही है। हमें यह याद रखना चाहिए कि बहुत सी गलत सूचनाएं जानबूझकर बरगलाने के लिए प्रचारित की जाती हैं, अक्सर दक्षिणपंथी सांस्कृतिक लोगों द्वारा। जब तक हम इस सूचना की महामारी के “प्रसार की शृंखला” को नहीं तोड़ेंगे तब तक यह जारी रहेगी।

लिहाज़ा, डिजिटल मीडिया कई मायनों में उन मासूम लोगों के लिए एक उपहार है जो उनको बताई गई किसी भी बकवास पर, और उसे रचने वालों पर यकीन कर लेते हैं। फेसबुक से लेकर यूट्यूब तक के तमाम प्लोटफार्म, जिन पर कोई भी कुछ भी कह या लिख सकता है, वास्तव में इन्हें उपयोग करने वाले सर्वज्ञाताओें (चाहें नादान हों या किसी मत के) के लिए मुफ्त में उपलब्ध हथियार की तरह है जिसे किसी पर भी चलाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि पहले के ज़माने में दुनिया में किसी तरह की मूर्खता नहीं थी लेकिन मूर्खता को सर्वव्यापी बनाने के साधन अनुपस्थित थे, जिससे किसी बेतुकेपन के निर्माण और प्रसार की गति सीमित थी।

बड़ी टेक कंपनियां गलत सूचना के प्रसार को रोकने की कोशिश कर रही हैं लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे खुद के बनाए गए विशालकाय जाल को नियंत्रित कर पाएंगी। आधुनिक तकनीक और दुनिया के असमीक्षात्मक, रूढ़िवादी सोच की जुगलबंदी हमें यह याद दिलाती है कि जो समाज अंधविश्वास को बढ़ावा देता है वह छद्म विज्ञान में लौट जाता है और तार्किकता को कम करता है। इस परिस्थिति का उपयोग सांस्कृतिक और राजनीतिक लड़ाई में हथियार के रूप में किया जाता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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