वैज्ञानिक प्रकाशनों में एक्रोनिम और संक्षिप्त रूप – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब भी मैं अखबार का बिज़नेस पेज पढ़ता हूं तो मुझे कुछ एक्रोनिम (यानी संक्षिप्त रूप) मिलते हैं जिनका अर्थ मुझे पता नहीं होता, जैसे NCLT या MCLR। इनका मतलब जानने के लिए मुझे इंटरनेट का सहारा लेना पड़ता है (NCLT यानी नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल और MCLR यानी मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड्स-बेस्ड लेंडिंग रेट)। हालांकि उस पेशे से जुड़े लोगों के लिए ये शब्द रोज़मर्रा की बात हैं। ज़ाहिर है, ये व्यवसाय की भाषा के अंग हैं, मेरी भाषा के नहीं। इसी प्रकार से, हममें से कितने लोग सरकार द्वारा उपयोग किए जाने वाले एक्रोनिम जैसे PMCARES fund, या ATAL, या AYUSH का पूरा या विस्तारित रूप जानते हैं? ज़रा पता करें। ATAL तो वास्तव में एक एक्रोनिम का भी एक्रोनिम है।

प्रसंगवश बता दूं कि एब्रेविएशन या लघु-रूप का मतलब होता है किसी लंबे शब्द को छोटे रूप में लिखना जैसे प्रोफेसर को प्रो. डॉक्टर को डॉ.। दूसरी ओर एक्रोनिम का मतलब होता है कई शब्दों के प्रथम अक्षरों से मिलकर बना एक शब्द, जैसे डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड का DNA, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन का CBI, या न्यू डेल्ही टेलीविज़न लिमिटेड का NDTV।

अफसोस कि ये एक्रोनिम वैज्ञानिक शोध पत्रों और प्रस्तुतियों में खूब देखने को मिलते हैं। और इनका उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। यह बात तो समझ आती है कि खगोल भौतिकी के एक्रोनिम जीव विज्ञानियों की समझ में ना आएं, लेकिन यह स्थिति तो जीव विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के अंदर भी बन जाती है!

एड्रियन बार्नेट और ज़ो डबलडे ने ईलाइफ पत्रिका में हाल ही में एक पेपर प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है मेटा-अनुसंधान: वैज्ञानिक साहित्य में एक्रोनिम का बढ़ता उपयोग। यह पेपर जीव वैज्ञानिकों और चिकित्सा वैज्ञानिकों को ध्यान में रखकर लिखा गया है और पठनीय है। (लिंक – DOI: https://doi.org/10.7554/eLife.60080)

मेटा-अनुसंधान पूर्व में किए गए शोध कार्यों के अध्ययन को कहते हैं। उस विषय पर पूर्व शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट, उनको दोहराने की संभाविता, और मूल्यांकन। इस तरह के मेटा-विश्लेषण काफी उपयोगी होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी दवा की यथेष्ट खुराक तय करने के लिए।

उपरोक्त मेटा-विश्लेषण जो कहता है उसे मैं यहां उद्धृत कर रहा हूं: “हर साल प्रकाशित होने वाले वैज्ञानिक शोध पत्रों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे ये शोध पत्र तेज़ी से अपने आप में विशिष्ट और जटिल होते जा रहे हैं। जानकारियों का यह अंबार ज्ञान-अज्ञान के बीच एक विरोधाभास पैदा कर रहा है जिसमें जानकारी तो बढ़ती है लेकिन ऐसा ज्ञान नहीं बढ़ता जिसे अच्छे उपयोग में लाया जा सके! ऐसे वैज्ञानिक शोध पत्र लिखना, जो पढ़ने-समझने में स्पष्ट हों, इस खाई को पाटने में मदद कर सकते हैं और वैज्ञानिक अनुसंधानों की उपयोगिता बढ़ा सकते हैं।”

एक्रोनिम का अत्यधिक उपयोग वैज्ञानिक शोध पत्रों को पढ़ने और उनके संदेश समझने में मुश्किलें पैदा करता है। उक्त शोधकर्ताओं ने 1950 से 2019 के बीच पबमेड के ज़रिए प्राप्त जीव विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र में प्रकाशित कुल 2.40 करोड़ शोध पत्र और 1.8 करोड़ सार-संक्षेप देखे।

शोधकर्ताओं ने पाया कि इनमें से 11 लाख शोध पत्रों में एकदम निराले एक्रोनिम उपयोग किए गए थे। यहां एक्रोनिम से तात्पर्य ऐसे संक्षिप्त रूपों से है जिनमें आधे या आधे से अधिक अक्षर कैपिटल अक्षर हों – इस परिभाषा के अनुसार mRNA और BRCA1 एक्रोनिम हैं, लेकिन N95 (मास्क जो हम पहनते हैं) वह नहीं है। एक्रोनिम के उपयोग की भरमार अस्पष्टता, गलतफहमी और अकार्यक्षमता पैदा करती है। उदाहरण के लिए एक्रोनिम UA के चिकित्सा जगत में 18 अलग-अलग मतलब हैं। (उनमें से कुछ हैं: यूरैसिल एडेनाइन, अंबिलिकल एक्टिविटी, यूरिन एनालिसिस, युनिवर्सल एनेस्थीसिया)।

लेखक कई ऐसे शोधपत्रों का भी हवाला देते हैं जिनमें एक-एक वाक्य में कई एक्रोनिम होते हैं जो समझने में बाधा डालते हैं: जैसे Applying PROBAST showed that ADO, B-AE-D, B-AE-D-C, extended ADO, updated BODE , and a model developed by Bertens et al were derived in studies assessed as being at low risk of bias.

मैंने बहुत कोशिश की मगर इसका मतलब नहीं समझ सका। इसलिए मैंने अपने जीव विज्ञान के साथियों को चुनौती दी कि वे मुझे इसका मतलब समझाएं। (मैंने यह पद्यांश देश के 8 युवा साथियों को भेजा, और कहा कि जो सबसे पहले इसका मतलब मुझे समझाएगा उसे इसके बदले एक गिलास वाइन या एक कप कॉफी और मेरे लेख में इसका श्रेय मिलेगा। जिन्होंने सबसे पहले, 18 घंटों के भीतर, जवाब दिया वे थीं पोस्टग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ की मन्नीलुथरा गुप्तसर्मा। मैं उनका धन्यवाद करता हूं और उनकी डॉक्टरेट थीसिस मार्गदर्शक के रूप में खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं!)

कई विश्लेषकों ने इसके संभावित समाधान सुझाए हैं:

(1) एक पेपर में 3 से ज़्यादा एक्रोनिम का उपयोग ना करें।

(2) केवल सुस्थापित एक्रोनिम का उपयोग करें। और उन एक्रोनिम का उपयोग ना करें जो भ्रम पैदा कर सकते हैं; जैसे, HR जिसका मतलब हार्ट रेट या हैज़ार्ड रेशियो हो सकता है। उचित होगा कि पूरा शब्द ही लिखें।

(3) जब भी किसी नवनिर्मित एक्रोनिम का उपयोग करें तो यह स्पष्ट करें कि इसका मतलब क्या है और इसकी आवश्यकता क्यों है।

(4) लघु-रूप शब्द के प्रयोग करने के सम्बंध में, जहां तक संभव हो लघु-रूप शब्द ना लिखें। अक्सर लोगों या नीति निर्माताओं के लिए की गई वैज्ञानिक समीक्षा, और चिकित्सकीय शोध में कई एक्रोनिम और लघु-रूप शब्द उपयोग किए जाते हैं। तो बेहतर होगा कि इनमें शुरुआत या अंत में इन शब्दों की एक सूची दे दी जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सस्ते परमाणु बिजली घर की सुरक्षा पर सवाल

क कंपनी – न्यूस्केल – यूएस न्यूक्लियर रेग्यूलेटरी कमीशन (NRC) से परमाणु बिजली घर (रिएक्टर) की एक नई डिज़ाइन के लिए स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयास कर रही है। कंपनी के अनुसार यह रिएक्टर पारंपरिक विशालकाय रिएक्टर से छोटा, सुरक्षित और सस्ता है। लेकिन समीक्षा प्रक्रिया के 4 साल पूरे होने पर इस डिज़ाइन में कई सुरक्षा सम्बंधी समस्याएं पता चली हैं। डिज़ाइन के बारे में दावा किया गया है कि आपात स्थिति में यह रिएक्टर, संचालक के हस्तक्षेप के बिना, अपने आप बंद हो जाएगा। आलोचकों को इस दावे में खामियां नज़र आई हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के न्यूक्लियर इंजीनियर माइकल कोरेडिनी का कहना है कि ये समस्याएं किसी भी रिएक्टर के बारे में उठने वाली सामान्य समस्याएं हैं। वहीं युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के भौतिक विज्ञानी एम. वी. रामन कहते हैं कि ये समस्याएं दर्शाती हैं कि कंपनी ने अपने आधुनिक रिएक्टर के सुरक्षित होने का दावा बढ़ा-चढ़ा कर किया था।

न्यूस्केल द्वारा तैयार इस डिज़ाइन में प्रत्येक रिएक्टर एक स्टील कंटेनमेंट पात्र के अंदर पानी से भरे एक पूल में स्थापित होता है। पात्र और रिएक्टर के बीच खाली जगह रहती है। जब रिएक्टर का कोर अत्यधिक गर्म हो जाता है या रिएक्टर में रिसाव होने लगता है तो सुरक्षा वाल्व इस खाली स्थान में भाप छोड़ने लगता है। भाप की ऊष्मा पूल में भरे पानी को गर्म करती है और स्वयं ठंडी होकर होकर पानी बन जाती है। एकत्रित पानी वापस कोर में बहने लगता है जो कोर को सुरक्षित रूप से जलमग्न रखता है। न्यूस्केल को अपने इस डिज़ाइन पर इतना विश्वास था कि उसने संयंत्र के आसपास 32 किलोमीटर के दायरे को आपातकाल प्रबंधन क्षेत्र रखे बिना इसे लगाने की अनुमति मांगी थी।

लेकिन NRC की रिएक्टर सुरक्षा सलाहकार समिति (ACRS) ने इस डिज़ाइन में खामी पाई है। दरअसल रिएक्टर को ठंडा रखने के लिए बोरान युक्त पानी उपयोग किया जाता है जो न्यूट्रॉन को सोख लेता है। लेकिन आपात स्थिति में केंद्र की ओर जाने वाला संघनित पानी, आसवन क्रिया के कारण, बोरान-विहीन हो जाता है। बोरान की कमी से रिएक्टर में नाभिकीय अभिक्रिया दोबारा शुरू हो सकती है जो कोर को पिघला सकती है। न्यूस्केल ने इस खामी के पाए जाने के बाद रिएक्टर के डिज़ाइन में बदलाव कर कोर की ओर जाने वाले पानी में बोरान की उपस्थिति सुनिश्चित की है।

ACRS को अन्य खामियां भी दिखी हैं। जैसे, नया स्टीम जनरेटर, जो रिएक्टर पात्र के अंदर स्थित है जिससे विनाशकारी कंपन पैदा होने की आंशका है। इन समस्याओं के बावजूद ACRS नेNRC सुरक्षा मूल्यांकन रिपोर्ट जारी करने और न्यूस्केल डिज़ाइन को प्रमाणित करने की सिफारिश की है। अगले महीने NRC की इस डिजाइन को मंज़ूरी देती हुई सुरक्षा मूल्यांकन रिपोर्ट प्रकाशित करने की योजना है, और साल के अंत तक इसके ‘नियमों’ का मसौदा जारी होने की उम्मीद है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैज्ञानिक साक्ष्यों की गलतबयानी – प्रतिका गुप्ता

सेहतमंद तो सभी रहना चाहते हैं। खासकर चाहते हैं कि वृद्धावस्था बिना किसी शारीरिक तकलीफ के गुज़र जाए। ऐसे में हर कोई अपने उत्पादों के ज़रिए आपको अच्छी सेहत देने की पेशकश कर रहा है। कोई अपने एनर्जी ड्रिंक से आपको चुस्त-दुरुस्त बनाने की बात कहता है तो कोई इम्यूनिटी बढ़ाने की बात करता है। फिटनेस क्लब, योगा, मेडिटेशन सेंटर ये सब आपसे दिन के कुछ वक्त कुछ अभ्यास करवा कर आपको स्वस्थ रखने की बात कहते हैं। वे आपको इस बात का पूरा यकीन दिलाते हैं कि उनके उत्पाद अपनाकर या उनके सुझाए कुछ अभ्यास कर आप तंदुरुस्त रह सकते हैं।

स्वस्थ रहने की तो बात समझ आती है लेकिन मुश्किल तब शुरू होती है जब ये सभी वैज्ञानिक तथ्यों, प्रमाणों का सहारा लेते हुए स्वयं को सत्य साबित करने की कोशिश करते हैं। अपने मतलब सिद्धि के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर या बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं या पूरा-पूरा सच बताते नहीं है। इसका एक उदाहरण भावातीत ध्यान का प्रचार-प्रसार करने वाली एक साइट द्वारा एक शोध पत्र को लेकर की गई रिपोर्टिंग (https://tmhome.com/benefits/study-tm-meditation-increase-telomerase/) में देखते हैं।

दरअसल साल 2015 में हावर्ड युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं ने प्लॉस वन पत्रिका में एक अध्ययन प्रकाशित किया था (https://journals.plos.org/plosone/article%3Fid=10.1371/journal.pone.0142689)। इस अध्ययन में वे देखना चाहते थे कि जीवन शैली में बदलाव रक्तचाप की स्थिति और टेलोमरेज़ जीन की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करते हैं ।

टेलोमरेज़ एक एंज़ाइम है जिसकी भूमिका टेलोमेयर के पुनर्निर्माण में होती है। टेलोमेयर गुणसूत्र के अंतिम छोर पर होता है और कोशिका विभाजन के समय सुनिश्चित करता है कि गुणसूत्र को किसी तरह की क्षति ना पहुंचे या उसमें कोई गड़बड़ी ना हो। हर बार कोशिका विभाजन के समय टेलोमेयर थोड़ा छोटा होता जाता है और जब टेलोमेयर बहुत छोटा हो जाता है तो कोशिका का विभाजन रुक जाता है। 

यह देखा गया है कि तनाव, जीवन शैली और टेलोमेयर में गड़बड़ी उच्च रक्तचाप और ह्रदय रोग जैसी समस्याओं से जुड़े हैं। इसलिए शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में स्तर-1 के उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों की जीवन शैली में बदलाव कर उसके प्रभावों की जांच की। उन्होंने प्रतिभागियों को दो समूह में बांटा। एक समूह के प्रतिभागियों को 16 हफ्तों तक भावातीत ध्यान करवाया गया और इसके साथ-साथ तनाव कम करने के लिए बुनियादी स्वास्थ्य शिक्षा कोर्स कराया गया (SR)। और दूसरे समूह को विस्तृत स्वास्थ्य शिक्षा कोर्स (EHE) कराया गया जिसमें प्रतिभागियों ने खान-पान पर नियंत्रण रखा, शारीरिक व्यायाम किया और कुछ प्रेरक ऑडियो-वीडियो देखे। अध्ययन में दोनों ही समूहों, SR और EHE, के प्रतिभागियों के रक्तचाप में लगभग समान कमी दिखी और टेलोमरेज़ बनाने वाले दो जीन (hTERT और hTR) की अभिव्यक्ति में एक-समान अधिकता देखी गई थी।

लेकिन इस साइट (tmhome.com), जो कि भावातीत ध्यान के प्रचार के उद्देश्य से ध्यान पर केंद्रित सामग्री प्रकाशित करती है, ने इस शोध की रिपोर्टिंग इस तरह पेश की ताकि लगे कि ध्यान करने से लोगों को फायदा हुआ, उनका रक्तचाप कम हुआ और उनमें टेलोमरेज़ बनाने वाले जीन्स की अधिक अभिव्यक्ति देखी गई। ज़ाहिर है, साइट के संचालकों को उम्मीद थी लोग भावातीत ध्यान को अपनाएंगे।

अलबत्ता, रिपोर्टिंग में दूसरे समूह (जिसने ध्यान नहीं किया था) के लोगों को हुए समान फायदों की बात नज़रअंदाज कर दी गई, शायद जानबूझकर।

यदि शोध को ध्यानपूर्वक पढ़ें तो पाते हैं कि इस शोध में शोधकर्ता यह संभावना जताते हैं कि टेलोमरेज़ जीन की अभिव्यक्ति या तो रक्तचाप कम होने का सूचक हो सकती है या इसे कम करने का कारण। लेकिन रिपोर्टिंग में इसे भी तोड़-मरोड़ कर पेश करते हुए टेलोमरेज़ जीन की अभिव्यक्ति में वृद्धि को रक्तचाप में कमी के कारण के रूप में प्रस्तुत किया गया।

शोधकर्ताओं की एक यह परिकल्पना भी थी कि जीवन शैली में बदलाव से टेलोमेयर की लंबाई पर प्रभाव पड़ेगा। लेकिन उन्हें टेलोमेयर की लंबाई में कोई फर्क नहीं दिखा। इसके स्पष्टीकरण में वे कहते हैं कि थोड़े समय (सिर्फ 16 हफ्ते) के बदलाव टेलोमेयर की लंबाई में फर्क देखने के लिए पर्याप्त नहीं हैं; इस तरह का फर्क देखने के लिए साल भर से अधिक समय तक अध्ययन की ज़रूरत है। लेकिन इस तरह की बातों का रिपोर्टिंग में उल्लेख नहीं है। अलबत्ता, रिपोर्ट उन पूर्व में हुए इसी तरह के अध्ययनों का ज़िक्र करती है जिनमें स्वास्थ्य पर ध्यान के प्रभाव जांचे गए थे ताकि ध्यान के फायदे और भी पुख्ता मान लिए जाएं।

ऐसा नहीं था कि ध्यान से कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन समस्या उसकी प्रस्तुति के अर्ध-सत्य में है जो यह यकीन दिलाने की कोशिश करती है कि स्वास्थ्य सम्बंधी फायदे सिर्फ ध्यान को अपनाकर मिल सकते हैं। यह सही है कि अध्ययन के दौरान ध्यान करने वाले लोगों को फायदा मिला लेकिन पूरा सत्य यह है कि अन्य तरह से नियंत्रण करने वाले लोगों को भी उतना ही फायदा मिला था। और दोनों समूहों के बीच टेलोमेयर जीन की अभिव्यक्ति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं देखा गया। अनुसंधान की ऐसी गलतबयानी!(स्रोत फीचर्स)

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स्तनपान माताओं को सुरक्षा प्रदान करता है

पूर्व अध्ययनों से पता है कि महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान वज़न बढ़ने और इंसुलीन प्रतिरोध बढ़ने के कारण आजीवन टाइप-2 मधुमेह का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन अब अध्ययनों से पता चला है कि स्तनपान कराने से यह जोखिम कम होता है और धीरे-धीरे खत्म हो जाता है।

इसके कारण तो स्पष्ट नहीं थे लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी माइकल जर्मन का विचार था कि इसके पीछे पैंक्रियाज़ की बीटा कोशिकाओं की भूमिका हो सकती है क्योंकि लंबे समय तक सुरक्षा के लिए ज़रूरी होता है कि रक्त शर्करा को नियंत्रित करने वाले तंत्र के कुछ हिस्सों में परिवर्तन हो जाएं। बीटा कोशिका में परिवर्तन सबसे कारगर होता है क्योंकि यही इंसुलीन का निर्माण करती हैं। इंसुलीन ग्लूकोज़ को रक्त से शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करता है। लेकिन टाइप-2 मधुमेह में कोशिकाएं इंसुलीन प्रतिरोधी हो जाती हैं और उनमें पर्याप्त ग्लूकोज़ को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है। इसके चलते पैंक्रियाज़ अधिक इंसुलीन बनाने लगते हैं। अंतत: जब इसके बावजूद भी पर्याप्त अतिरिक्त इंसुलीन नहीं बन पाता तो रक्त शर्करा का स्तर बढ़ता रहता है। 

हालिया अध्ययन में जर्मन और कोरिया एडवांस्ड इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के हेल किम ने अन्य समूहों के सहयोग से कुछ गर्भवती महलाओं का चयन किया। ये महिलाएं गर्भावस्था सम्बंधित मधुमेह की समस्या से पीड़ित थीं। अध्ययन में आधी महिलाओं ने स्तनपान कराया जबकि शेष ने नहीं। प्रसव के दो माह बाद ग्लूकोज़ सहनशीलता परीक्षण में दोनों समूह की महिलाओं में रक्त शर्करा के स्तर में अधिक फर्क नहीं पाया गया (स्तनपान करने वाली महिलाओं में फास्टिंग ग्लूकोज़ में कमी पाई गई)। लेकिन प्रसव के साढ़े तीन साल बाद, स्तनपान कराने वाली महिलाओं में रक्त शर्करा तो काफी कम थी ही, बीटा कोशिकाओं का काम भी बेहतर था।  

जर्मन और किम पहले दर्शा चुके थे कि बीटा कोशिकाएं सेरोटोनिन का निर्माण कर सकती हैं। अब एक नई तकनीक से पता चला है कि बीटा कोशिका में सेरोटोनिन की सांद्रता स्तनपान कराने वाले चूहों में 200 गुना अधिक होती है। जंतुओं पर किए गए कई प्रयोगों के बाद टीम ने अनुमान लगाया कि स्तनपान कराने वाले मनुष्य या चूहे एक विशेष हार्मोन का निर्माण करते हैं जो बीटा कोशिकाओं को सेरोटोनिन निर्माण का निर्देश देता है। इसके परिणामस्वरूप बीटा कोशिकाओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि होती है और इंसुलीन का निर्माण होता है। इसके अलावा, स्तनपान करने वाले चूहों में सेरोटोनिन एंटीऑक्सीडेंट का काम करता है जो बीटा कोशिकाओं को स्वस्थ रखने में मदद करता है।      

अन्य शोधकर्ता इस अध्ययन को काफी दिलचस्प मानते हैं क्योंकि इसके माध्यम से कुछ नए डैटा प्राप्त हुए हैं जो पहले उपलब्ध नहीं थे। साथ ही, इस अध्ययन के आंकड़ों से जुड़े कई सवाल भी उठ रहे हैं। एक टिप्पणी यह है कि इस अध्ययन में गर्भकालीन मधुमेह की दर, स्तनपान एवं स्तनपान न कराने वाले समूहों के उपचार के बीच अंतर तथा स्तनपान की अवधि और गहनता की कोई जानकारी नहीं दी गई है। इन सभी का टाइप-2 मधुमेह में महत्वपूर्ण योगदान रहता है।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोनावायरस का प्रतिरक्षा प्रणाली पर हमला

कोविड-19 पर अनिश्चितताओं के बीच एक सवाल उभर कर आ रहा है कि क्या इस बीमारी से ठीक होने वाले लोग कोरोनावायरस के प्रति टिकाऊ दूरगामी प्रतिरक्षा विकसित कर पाएंगे? इस सम्बंध में रैगन इंस्टिट्यूट ऑफ एमजीएच, एमआईटी के इम्यूनोलॉजिस्ट शिव पिल्लई और हार्वर्ड के एक शोध समूह ने कोविड-19 से मरने वाले लोगों के शव-परीक्षण में देखा कि उनके शरीरों में कथित जर्मिनल केंद्र अनुपस्थित थे।

जर्मिनल केंद्र एक तरह से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पाठशालाएं हैं। ये केंद्र तिल्ली और लसिका ग्रंथियों में पाए जाते हैं। यहां प्रतिरक्षा कोशिकाएं किसी रोगजनक के विरुद्ध लंबे समय तक चलने वाली एंटीबॉडी प्रतिक्रिया देना सीखती हैं। हालांकि यह निष्कर्ष हल्के लक्षण या लक्षण-रहित लोगों पर लागू नहीं होते लेकिन इनसे सबसे गंभीर मामलों में कोविड-19 प्रगति की व्याख्या करने और टीका विकसित करने में मदद मिल सकती है। इससे यह भी पता चलता है कि कुछ लोगों में एंटीबॉडी-प्रतिक्रिया अल्प अवधि के लिए भी हो सकती है और व्यक्ति को यह संक्रमण दोबारा भी हो सकता है।

इसके लिए पिल्लई और उनके सहकर्मियों ने कोविड-19 से मरने वाले 11 लोगों की तिल्ली और वक्ष की लसिका ग्रंथियों का विश्लेषण किया जहां फेफड़ों की प्रतिरक्षा कोशिकाएं पहुंचती हैं। इन की तुलना समान आयु वर्ग के 6 अन्य लोगों से की गई जिनकी मृत्यु किसी अन्य कारण से हुई थी। सामान्य हालात में तिल्ली और लसिका ग्रंथियां एंटीबॉडी बनाने वाली बी-कोशिकाओं को नव-निर्मित जर्मिनल केंद्रों में एकत्रित करती हैं। इन विशिष्ट सूक्ष्म संरचनाओं में कोशिकाएं परिपक्व होती हैं और वायरस के प्रति एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को परिष्कृत करती हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार कोविड-19 से मरने वाले लोगों के शव-परीक्षण में ये जर्मिनल केंद्र नहीं पाए गए। एक पूर्व परीक्षण में भी यही पाया गया था ।            

देखा गया है कुछ कोविड-19 संक्रमणों में साइटोकाइन्स नामक जैव-रसायनों का तूफान आ जाता है। यह शोथ व गंभीर रोग का कारण बन जाता है। वैसे साइटोकाइन्स संक्रमणों की प्रतिक्रिया में बी-कोशिकाओं और प्रतिरक्षा प्रणाली के अन्य किरदारों को संदेश भेजते हैं। पिल्लई की टीम ने कोविड-19 मृतकों की लसिका ग्रंथियों में एक प्रकार के साइटोकाइन (TNF-α) की मात्रा में वृद्धि पाई। शोधकर्ताओं ने टाइप-टी कोशिका की भी कमी पाई जो जर्मिनल केंद्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संभवत: TNF-α ही टी-कोशिकाएं बनने से रोकता है।

अन्य इम्यूनोलॉजिस्ट की तरह पिल्लई का भी ऐसा मानना है कि सार्स-कोव-2 के विरुद्ध ठीक तरह से तैयार किया गया टीका टिकाऊ एंटीबॉडी प्रक्रिया दे सकता है। लेकिन उनका मानना है कि टीका विकसित करने वाले समूहों के लिए इस अध्ययन के निष्कर्ष काफी महत्वपूर्ण हो सकते हैं। पिल्लई के अनुसार यदि लसिका ग्रंथियों में अत्यधिक TNF- α का निर्माण हुआ तो शायद टीकाकरण लंबे समय तक सुरक्षा नहीं दे पाएगा।(स्रोत फीचर्स)

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चमगादड़ों की हज़ारों किलोमीटर की उड़ान

क नए अध्ययन से पता चला है कि उड़न लोमड़ी कहे जाने वाले ऑस्ट्रेलिया के सबसे बड़े चमगादड़ विश्व के सबसे अथक खानाबदोशों में से हैं। ये एक वर्ष में लगभग 6000 किलोमीटर का सफर करते हैं जो किसी भी अन्य थलचर स्तनधारी जीव से अधिक है। इसकी तुलना केवल व्हेल या प्रवासी पक्षियों से ही की जा सकती है।

इन चमगादड़ों का वज़न लगभग 1 किलोग्राम और पंखों का फैलाव 1 मीटर तक होता है। लेकिन अन्य चमगादड़ों की तरह शिकार करने की बजाय वे रात में फूलों के मकरंद, पराग और बीजों की तलाश करते हैं और दिन में पेड़ों पर डटे रहते हैं। पूर्व में शोधकर्ताओं का अनुमान था कि ये चमगादड़ स्थानीय हैं और अपना ठिकाना एक विशेष जगह को ही चुनते हैं लेकिन पूर्वी ऑस्ट्रेलिया की तीन प्रजातियों के 201 चमगादड़ों पर उपग्रह ट्रांसमीटर लगाने पर सभी अनुमान गलत साबित हुए। बीएमसी बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार ये चमगादड़ एक वर्ष में 1487 से लेकर 6073 किलोमीटर तक का सफर तय करते हैं।

इन सभी प्रजातियों में से ब्लैक फ्लाइंग फॉक्स (Pteropusalecto) की विचरण सीमा सबसे कम, उसके बाद ग्रे-हेडेड फ्लाइंग फॉक्स (P. poliocephalus) की उससे अधिक और सबसे अधिक लिटिल रेड फ्लाइंग फॉक्स (P. scapulatus) की पाई गई। लिटिल रेड फ्लाइंग फॉक्स प्रति वर्ष औसतन 5000 किलोमीटर का फासला तय करता है। यह दूरी रेनडियर जैसे जांबाज़ स्तनधारी प्रवासियों की तुलना में कहीं अधिक है। रेनडियर प्रति वर्ष 1200 किलोमीटर तक की यात्रा करते हैं और अफ्रीकी बारहसिंघे अपनी प्रत्येक यात्रा में लगभग 2900 किलोमीटर का फासला तय करते हैं।  

गौरतलब है कि फ्लाइंग फॉक्स किसी मौसमी रास्ते का पालन नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर से दक्षिण के 1300 किलोमीटर के सफर में वे कई स्थानों पर अपना ठिकाना बनाते हैं और इनकी आबादी में नए प्रवासियों का उतार-चढ़ाव होता रहता है। अध्ययन में पता चला कि कुल मिलाकर चमगादड़ 755 ठिकानों पर रुके जो पिछली जानकारी की तुलना में दो गुना से भी अधिक हैं।

चूंकि ये चमगादड़ बीज फैलाने और परागण के लिए महत्वपूर्ण हैं, इनके विचरण से मानव गतिविधि या आग से खंडित जंगलों को जोड़ने में मदद मिलती है। लेकिन इनके अनिश्चित और दूर-दराज़ के भ्रमण के चलते संरक्षण और रोग प्रबंधन का काम जटिल हो जाता है क्योंकि ये मुद्दे स्थानीय अधिकार क्षेत्र में आते हैं न कि राष्ट्रीय। अब शोधकर्ता इस विचरण के कारणों का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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चींटियां कई जंगली पौधे उगाती हैं

चींटियां कई जंगली पौधों के बीज फैलाती हैं। इस सेवा के बदले में पौधे चींटियों के लिए अपने बीज के आवरण पर एक पोषण-युक्त हिस्सा, इलेयोसम, जोड़ देते हैं। यह न सिर्फ चींटियों के बच्चों के लिए पोषण उपलब्ध कराता है बल्कि इसकी मदद से चींटियों को बीजों को पकड़ने में भी मदद मिलती है। लेकिन इकोलॉजिकल सोयायटी ऑफ अमेरिका की ऑनलाइन वार्षिक बैठक में यह बात सामने आई है कि बीज और चींटियों के बीच रिश्ता इस लेन-देन से अधिक है।

एक तो यह पता चला है कि चींटियां सिर्फ बीजों को ढोकर अपनी बांबी तक ले जाने का काम नहीं करती हैं बल्कि वे कुशल बागवान की तरह इनके उगने में भी मदद करती हैं। यह देखा गया है कि जिन जंगलों में चींटियां कम हो जाती हैं, वहां ये बीज उपयुक्त उपजाऊ मिट्टी तक पहुंच नहीं पाते। यानी यदि चींटियां न रहीं तो ये पौधे भी खतरे में पड़ जाएंगे।

अब तक यही माना जाता था कि ये चींटियां बीज को अपनी बांबी तक ले जाती हैं और वहां उनके बच्चे इनके इलेयोसम को खा डालते हैं और बीज को छोड़ दिया जाता है जहां उगने के लिए अनुकूल परिस्थिति मिल जाती है। लेकिन टेनेसी विश्वविद्यालय के चार्ल्स क्विट को लगा कि शायद बात इतनी ही नहीं है।

यह देखा गया है कि अन्य चींटियों की तरह बीज-वाहक चींटियां भी खुद को और अपनी साथी चींटियों को साफ रखने के लिए सूक्ष्मजीव-रोधी रसायनों का रुााव करती हैं। क्विट के मन में सवाल आया कि ये सूक्ष्मजीवनाशक (विसंक्रामक) रसायन बीजों के सूक्ष्मजीव समुदाय और उनके स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालते होंगे? इसका जवाब तलाशने के लिए उनकी टीम ने तीन इस तरह के पौधों – जंगली अदरक, ब्लडरूट और ट्विनलीफ – के बीजों के छिलके पर मौजूद सूक्ष्मजीवों के डीएनए को अलग करके अनुक्रमित किया। इनके बीजों को फैलाने का काम चींटियां करती हैं। उन्होंने देखा कि पहले तो प्रत्येक प्रजाति के बीज में एक जटिल और अनूठा सूक्ष्मजीव संसार था, लेकिन चींटी द्वारा बीज ले जाने के बाद बीजों का सूक्ष्मजीव संसार सीमित हो गया और सभी प्रजातियों के बीजों का सूक्ष्मजीव संसार लगभग एक-जैसा हो गया। शोधकर्ताओं के अनुसार सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन बीजों के फैलाव के बाद के भक्षण, सुप्तावस्था, जीवनक्षमता, अंकुरण के समय और नए-नवेले पौधों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता होगा।

यह भी पाया गया कि चींटियां कुछ बीजों को प्राथमिकता देती हैं। शोधकर्ताओं ने जब चींटियों को ट्रिलियम की विभिन्न प्रजातियों के बीज दिए तो चींटियों ने कुछ प्रजातियों के बीजों को चुना जबकि अन्य बीजों को छोड़ दिया।

चींटियां बीजों को किस आधार पर वरीयता देती हैं यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने इलेयोसम का मास स्पेक्ट्रोस्कोपी और अन्य तकनीकों की मदद से विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि चींटियां पौधे द्वारा बनाए गए ओलीक एसिड और अन्य यौगिकों के विशिष्ट संयोजन और सांद्रता के आधार पर बीज चुनती हैं। इस तरह चींटियों का स्वाद या चुनाव पौधों की प्रजातियों के विस्तार को प्रभावित कर सकता है।

शोधकर्ता बताते हैं कि मानव गतिविधियां भी बीज-चींटी साझेदारी को प्रभावित करती हैं। कई लोगों को लगता था कि चींटियां जंगल की सफाई जैसे हस्तक्षेप के बाद पुन: अपने स्थान पर लौट आती हैं। लेकिन होल्डन वृक्ष उद्यान की इकॉलॉजिस्ट केटी स्टबल ने अपने अध्ययन में पाया कि जिन जंगलों को मानव द्वारा कभी साफ नहीं किया गया था उन जंगलों की तुलना में जिन जंगलों को दशकों पहले साफ किया गया था उनमें आक्रामक केंचुए अधिक थे और और बीज-वाहक चींटियों की संख्या कम थी। इससे पता चलता है पूर्व में हुए हस्तक्षेप के प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रहते हैं। इन प्रभावों से यह समझा जा सकता है कि क्यों द्वितीयक वन कम घने होते हैं और वहां वे पेड़-पौधे दुर्लभ होते हैं जिनके बीजों की वाहक चींटियां होती हैं।

इसी तरह, उत्तर-पूर्वी उत्तर अमेरिका के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि कभी साफ ना किए गए जंगलों की तुलना में द्वितीयक वनों में बीज-वाहक चींटियों की संख्या कम थी।

यदि चींटियां विलुप्त हो गईं तो मुमकिन है कि इन चीटियों पर निर्भर पौधे और उन पौधों पर निर्भर जीवों की प्रजातियां भी नष्ट हो जाएंगी। यदि पेड़-पौधों को बहाल करना है तो हमें इनके बीजों को फैलाने वाली प्रजातियों को भी बहाल करने के बारे में सोचना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंगल कटाई और महामारी की संभावना

काफी समय से इकॉलॉजीविदों को आशंका रही है कि मनुष्यों द्वारा जंगल काटे जाने और सड़कों आदि के निर्माण से जैव विविधता में आई कमी के चलते कोविड-19 जैसी महामारियों का जोखिम बढ़ जाता है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे कुछ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, जीवित रहने वाली प्रजातियों, जैसे चमगादड़ और चूहे, में ऐसे घातक रोगजनकों की मेज़बानी करने की संभावना बढ़ रही है जो मनुष्यों में छलांग लगा सकते हैं। गौरतलब है कि 6 महाद्वीपों पर लगभग 6800 पारिस्थितिक समुदायों पर किए गए विश्लेषण से सबूत मिले हैं कि जैव विविधता में ह्रास और बीमारियों के प्रकोप में सम्बंध है लेकिन आने वाली महामारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।

युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इकोलॉजिकल मॉडलर केट जोन्स और उनके सहयोगी काफी समय से जैव विविधता, भूमि उपयोग और उभरते हुए संक्रामक रोगों के बीच सम्बंधों पर काम कर रहे हैं और ऐसे खतरों की चेतावनी भी दे रहे हैं लेकिन हालिया कोविड-19 प्रकोप के बाद से उनके अध्ययन को महत्व मिल पाया है। अब इसकी मदद से विश्व भर के समुदायों में महामारी के जोखिम और ऐसे क्षेत्रों का पता लगाया जा रहा है जहां भविष्य में महामारी उभरने की संभावना हो सकती है।

इंटरगवर्मेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (आईपीबीईएस) ने इस विषय पर एक ऑनलाइन कार्यशाला आयोजित की है ताकि निष्कर्ष सितंबर में होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मलेन में प्रस्तुत किए जा सकें। कुछ वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, वायरस विज्ञानियों और पारिस्थितिक विज्ञानियों के समूह भी सरकारों से वनों की कटाई तथा वन्य जीवों के व्यापार पर नियंत्रण की मांग कर रहे हैं ताकि महामारियों के जोखिम को कम किया जा सके। उनका कहना है कि मात्र इस व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से काम नहीं बनेगा बल्कि उन परिस्थितियों को भी बदलना होगा जो लोगों को जंगल काटने व वन्य जीवों का शिकार करने पर मजबूर करती हैं। 

जोन्स और अन्य लोगों द्वारा किए गए अध्ययन कई मामलों में इस बात की पुष्टि करते हैं कि जैव विविधता में कमी के परिणामस्वरूप कुछ प्रजातियों ने बड़े पैमाने पर अन्य प्रजातियों का स्थान ले लिया है। ये वे प्रजातियां हैं जो ऐसे रोगजनकों की मेज़बानी करती हैं जो मनुष्यों में फैल सकते हैं। नवीनतम विश्लेषण में जंगलों से लेकर शहरों तक फैले 32 लाख से अधिक पारिस्थितिक अध्ययनों के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि वन क्षेत्र के शहरी क्षेत्र में परिवर्तित होने तथा जैव विविधता में कमी होने से मनुष्यों में रोग प्रसारित करने वाले 143 स्तनधारी जीवों की तादाद बढ़ी है।     

इसके साथ ही जोन्स की टीम मानव आबादी में रोग संचरण की संभावना पर भी काम कर रही है। उन्होंने पहले भी अफ्रीका में एबोला वायरस के प्रकोप के लिए इस प्रकार का मूल्यांकन किया है। इसके लिए विकास के रुझानों, संभावित रोग फैलाने वाली प्रजातियों की उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक कारकों के आधार पर कुछ रिस्क मैप तैयार किए हैं जो किसी क्षेत्र में वायरस के फैलने की गति को निर्धारित करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीम ने कांगो के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रकोपों का सटीक अनुमान लगाया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि भूमि उपयोग, पारिस्थितिकी, जलवायु, और जैव विविधता जैसे कारकों के बीच सम्बंध स्थापित कर भविष्य के खतरों का पता लगाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर भी कैंसर का शिकार होते थे

डायनासौर पर अध्ययन करते हुए जीवाश्म वैज्ञानिकों को डायनासौर की एक विकृत हड्डी का जीवाश्म मिला था। यह हड्डी एक सींग वाले शाकाहारी सेंट्रोसौरस के पैर के निचले हिस्से की फिबुला हड्डी थी। यह जीव लगभग 7.6 करोड़ वर्ष पहले वर्तमान के दक्षिणी अल्बर्टा (कनाडा) में पाया जाता था। इस स्थान पर आजकल एक डायनासौर पार्क है।

पहले तो पुराजीव वैज्ञानिकों को लगा कि हड्डी का विचित्र आकार फ्रेक्चर के बाद हड्डी के ठीक से ना जुड़ पाने के कारण बना है लेकिन दी लैंसेंट ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित एक नए अध्ययन में इस जीवाश्म की आंतरिक संरचना की तुलना एक मनुष्य के अस्थि ट्यूमर से की गई है। अध्ययन में पाया गया कि यह डायनासौर एक विशेष किस्म के कैंसर (ऑस्टियोसरकोमा) से पीड़ित था। इस प्रकार का कैंसर मनुष्यों में मुख्य रूप से किशोरों और युवाओं पर हमला करता है। इससे कमज़ोर हड्डियों के अपरिपक्व ऊतकों के ट्यूमर विकसित होते हैं जो अक्सर पैर की लंबी हड्डी में पाए जाते हैं।

गौरतलब है कि इससे पहले भी वैज्ञानिकों को जीवाश्मों में कैंसर के प्रमाण मिले हैं। टायरेनोसॉरस रेक्स के जीवाश्म में ट्यूमर, डक-बिल्ड डैड्रोसौर के जीवाश्म में गठिया रोग और 24 करोड़ वर्ष पुराने कछुए के जीवाश्म में ऑस्टियोसरकोमा की पहचान की गई है। लेकिन यह पहली बार है कि कोशिकीय स्तर पर डायनासौर में कैंसर के निदान की पुष्टि हुई है।    

इसके लिए वैज्ञानिकों ने उच्च-रेज़ोल्यूशन कंप्यूटरीकृत टोमोग्राफी (सीटी) स्कैन की मदद से पूरे जीवाश्म की जांच की और इसकी पतली कटानों का माइक्रोस्कोप से अध्ययन किया ताकि कोशिकाओं की संरचना को ठीक तरह से समझा जा सके। निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने पाया कि यह ट्यूमर काफी विकसित हो चुका था जो मनुष्यों के समान उस जीव के लिए काफी घातक रहा होगा। क्योंकि यह जीवाश्म सेंट्रोसौरस के अन्य नमूनों के साथ मिला था इसलिए ऐसी संभावना है कि इसकी मृत्यु कैंसर से नहीं बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ बाढ़ में डूबने की वजह से हुई होगी। बहरहाल शोधकर्ताओं को लगता है कि इस खोज के बाद आधुनिक तकनीकों से असामान्य जीवाश्मों की जांच पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जैव विकास में कैंसर की उत्पत्ति को समझा जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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सोने से भी महंगा उल्का पिंड

23 अप्रैल 2019 की रात करीब नौ बजे कोस्टा रिका के आसमान में नारंगी-हरी रोशनी फूटी। कैंपोस मुनोज़ ने देखा कि उनके घर की छत की नालीदार जस्ते की चादर में अंगूर के बराबर छेद हो गया था, एक प्लास्टिक मेज़ टूट-फूट गई थी और फर्श पर कोयले जैसे काले रंग के कुछ टुकड़े बिखरे पड़े थे। वास्तव में उस रात वॉशिंग मशीन के बराबर का एक उल्का पिंड कोस्टा रिका के ऊपर टूटकर बिखरा था।

वैसे तो हर साल पृथ्वी पर हज़ारों उल्का पिंड टूटकर बिखरते हैं। लेकिन ऐसे उल्का पिंड बहुत थोड़े से हैं, जिन्हें गिरते हुए देखा गया और जिनका नाम उनके गिरने की जगह पर रखा गया हो। इस तरह के सिर्फ 1196 उल्का पिंड दर्ज हुए हैं। लेकिन यह उल्का पिंड, जिसके टुकड़ों को एगुआस ज़र्कास नाम दिया गया है, कुछ अलग ही था। चट्टानों के मान से तो वह लगभग जीवित कहा जाएगा।

एगुआस ज़र्कास एक कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट है जो प्रारंभिक सौर मंडल का अवशेष है। अपने नाम के मुताबिक यह उल्का कार्बन में समृद्ध है। ना सिर्फ अजैविक कार्बन बल्कि अमीनो एसिड जैसे जटिल जैविक अणु भी इसमें मौजूद है जो प्रोटीन निर्माण की इकाइयां होते हैं। इनसे पता लगाने में मदद मिलती है कि अंतरिक्ष में रासायनिक अभिक्रियाओं ने कैसे जीवन के शुरुआती रूप को जन्म दिया।

एगुआस ज़र्कास एक प्रसिद्ध कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट मर्चिसन की तरह दिखता है जो 1969 में ऑस्ट्रेलिया के मर्चिसन में गिरा था। मर्चिसन में वैज्ञानिक अब तक लगभग 100 अलग-अलग अमीनो एसिड की पहचान कर चुके हैं जिनमें से कई पृथ्वी के जीवों के अमीनो एसिड से मेल खाते हैं लेकिन कई अमीनो एसिड ज्ञात जीवन के अमीनो एसिड से भिन्न हैं। और तो और, मर्चिसन में न्यूक्लियो-क्षार भी मिले थे जो डीएनए जैसे जेनेटिक अणुओं की इकाइयां हैं।

एगुआस ज़र्कास के टुकड़े मर्चिसन से 50 साल बाद के हैं, जिससे वैज्ञानिकों को इसे संरक्षित करने और पड़ताल करने के लिए आधुनिक तकनीकें इस्तेमाल करने में आसानी होगी। इस उल्का से उन कार्बनिक यौगिकों की भी पड़ताल की जा सकती है जो मर्चिसन उल्का से वाष्पित हो चुके हैं। इसके अलावा इनमें ना केवल अमीनो एसिड और शर्करा बल्कि प्रोटीन की भी पड़ताल की जा सकती है, जिनकी अब तक किसी भी उल्का पिंड में पुष्टि नहीं हुई है।

यह उल्का जानकारियां हासिल करने की दृष्टि से जितनी महत्वपूर्ण है, इसे पाने के लिए इसके सौदागरों में उतनी ही अधिक होड़ थी। दरअसल अलग-अलग देशों में उल्का के लिए अलग-अलग कानून हैं। जैसे डेनमार्क में इन्हें जीवाश्म की तरह माना जाता है जिस पर सरकार का अधिकार होता है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चिली, फ्रांस, न्यूज़ीलैंड और मेक्सिको में इन्हें सांस्कृतिक खजाने के रूप में देखा जाता है जिसे बिना इजाज़त बाहर नहीं ले जाया जा सकता। लेकिन कोस्टा रिका, यूएस सहित कई जगहों पर उल्का आसानी से खरीदे-बेचे जा सकते हैं और अन्य जगहों पर भेजे जा सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के घर पर ये गिरे या जिन्होंने इन्हें इकट्ठा किया उन्होंने इसके टुकड़े 50-100 डॉलर प्रति ग्राम (सोने की कीमत से भी अधिक) पर बेचे। इस तरह के रवैये पर डायरेक्टरेट ऑफ जियोलॉजी एंड माइन्स की इलियाना बॉशिनी लोपेज़ को लगता है कि कोस्टा रिका को जल्द ही इस तरह के व्यापार पर रोक लगानी चाहिए और अंतरिक्ष से गिरने वाले चीज़ों के सम्बंध में कानून बनाना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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