आप सूंघकर बीमारी पता कर सकते हैं

सूंघने की शक्ति कई खतरों को टालने में मदद करती है; जैसे हम खराब खाना खाने से बचने के लिए उसे सूंघकर देखते हैं या हम गैस रिसने या कुछ जलने जैसी गंध के प्रति सचेत रहते हैं। तो क्या हम सूंघकर बीमारी की आहट नहीं भांप सकते?

वैज्ञानिकों का कहना है कि दुरुस्त घ्राण इंद्रियों वाला कोई भी व्यक्ति किसी ‘बीमारी की गंध’ पहचान सकता है। वैज्ञानिकों ने देखा है कि कई बीमारियों की अपनी एक विशेष गंध होती है, जिसे पहचान कर आप बता सकते हैं कि कोई व्यक्ति उस बीमारी से पीड़ित है या नहीं। जैसे डायबिटीज़ के रोगी के मूत्र से सड़े हुए सेब जैसी गंध आती है, टायफाइड के कारण शरीर की गंध ब्रेड जैसी हो सकती है, यहां तक कि पीत-ज्वर के कारण आपका शरीर कसाई की दुकान (कच्चे मांस) की तरह गंध मार सकता है।

दरअसल, हमारा शरीर हवा में लगातार वाष्पशील रासायनिक पदार्थ छोड़ता रहता है, जो हमारी सांस और त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशिष्ट गंध हो सकती है। हमारे चयापचय तंत्र में उम्र, आहार, या किसी बीमारी के कारण आए बदलाव के कारण बाहर निकलने वाले वाष्पशील अणु बदल सकते हैं, जिसके चलते गंध भी अलग हो सकती है। फिर, हमारी आंत और त्वचा पर रहने वाले सूक्ष्मजीव भी चयापचय उप-उत्पादों के विघटन से विभिन्न गंधयुक्त अणु पैदा कर सकते हैं।

कुल मिलाकर हमारा शरीर गंध का एक कारखाना है। और यदि हम गंधों पर ध्यान दें, अपनी घ्राण शक्ति का भरपूर उपयोग करें और उसे प्रशिक्षित करें तो संभवत: हम बीमारियों की गंध पहचान पाएंगे।

कुछ समय पहले ऐसा ही एक मामला सामने आया था, जिसमें पता चला था कि एक महिला पार्किंसन रोग की गंध सूंघ सकती है। गौरतलब है कि समय रहते पार्किंसन का पता करना बेहद मुश्किल है, और जब तक इस बीमारी के लक्षण सामने आते हैं और इसकी पुष्टि हो पाती है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। दरअसल, इस महिला के पति को पार्किंसन से ग्रसित पाया गया था। लेकिन पति में पार्किंसन का पता चलने के छह साल पहले से ही इस महिला को अपने पति में से कुछ अजीब सी गंध आने लगी थी – यह गंध थोड़ी लकड़ी, थोड़ी कस्तूरी जैसी थी। बाद में महिला जब पार्किंसन के रोगियों से भरे वार्ड में गई तो उन्हें अहसास हुआ कि ऐसी गंध सिर्फ उनके पति से ही नहीं, बल्कि सभी पार्किंसन रोगियों से आती है।

उनकी इस क्षमता को परखा गया। इसके लिए उन्हें छह पार्किंसन-पीड़ित और छह स्वस्थ लोगों की टी-शर्ट सुंघाई गई, और उन्हें पार्किंसन रोगियों की टी-शर्ट पहचानना था। उन्होंने छह के छह पार्किंसन पीड़ितों की टी-शर्ट की सही पहचान की, लेकिन उन्होंने कंट्रोल (यानी स्वस्थ व्यक्तियों वाले) समूह में से भी एक व्यक्ति को पार्किसन पीड़ित बताया।

तब तो यह लगा था कि उन्होंने पहचानने में गड़बड़ी की है, लेकिन आठ महीने बाद वास्तव में उस व्यक्ति को पार्किंसन से पीड़ित पाया गया।

लेकिन इस तरह की विशिष्ट क्षमता वाले किसी व्यक्ति को हमेशा बीमारी की पहचान के लिए बुलाना कहां तक संभव है? साथ ही यह भी समस्या है कि गंध की अदला-बदली भी हो सकती है: एक-दूसरे के कपड़े पहनने से, खचाखच भरी बस या ट्रेन में चिपक-चिपक कर बैठे हुए लोगों से।

इनमें से कुछ चुनौतियों से निपटने के लिए मैनचेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी की एनालिटिकल केमिस्ट पर्डिटा बैरेन की टीम ने यह पहचानने का प्रयास किया है कि पार्किंसन की गंध के लिए कौन से अणु ज़िम्मेदार हैं। उन्हें ऐसे तीन अणु (आईकोसेन, हिपुरिक एसिड और ऑक्टाडेकेनल) मिले जो पार्किंसन पीड़ितों में अधिक होते हैं और एक अणु (पेरिलिक एल्डिहाइड) ऐसा मिला जो उनमें कम होता है। इन अणुओं के मिश्रण से उन्होंने पार्किंसन की विशिष्ट गंध बनाई। इसकी मदद से उन्होंने एक ऐसा परीक्षण बनाया जो गंध से लोगों में पार्किंसन की पहचान कर सके। प्रयोगशाला जांच में उनका यह परीक्षण 95 प्रतिशत सटीक रहा। अब वे इसे लोगों के उपयोग लायक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं।

लेकिन हमने जहां से बात शुरू की थी वापिस उसी पर आते हैं कि क्या हम जैसे साधारण लोग सूंघकर बीमारी पहचान सकते हैं? अध्ययनों ने पाया है कि हमारी घ्राण शक्ति बहुत शक्तिशाली है। हमारे मस्तिष्क के घ्राण बल्बों में न्यूरॉन्स की संख्या को देखकर पता चलता है कि मनुष्यों की सूंघने की क्षमता चूहों से बेहतर हो सकती है जबकि हम चूहों और कुत्तों की घ्राण शक्ति के कायल हैं और कई मामलों में उनकी इस क्षमता का उपयोग भी करते हैं। बस हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम गंधों पर उतना गौर नहीं करते जितना करना चाहिए। फिर हमारे पास ‘गंध कैसी है’ इसका विवरण देने वाली भाषा भी सीमित है।

लेकिन ऐसा देखा गया है कि यदि हम बारीकी से गौर करें तो हम बीमारी पहचान सकते हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में प्रतिभागियों ने शरीर की गंध और तस्वीरों के आधार पर बीमार और स्वस्थ लोगों की पहचान कर ली थी। तो हम भी अपनी या अपनों की गंध पर बारीकी से गौर करने की और शरीर का हाल जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/6b93590f-ff23-4ced-8570-b4a15650b41e/h_15314701_4x3.jpg

टीकों में सहायक पदार्थों का उपयोग

टीकों के विज्ञान में एक दिलचस्प रहस्य छिपा है जिसे एडजुवेंट (सहायक पदार्थ) कहते हैं। 1920 के दशक में फ्रांसीसी पशुचिकित्सक गैस्टन रेमन ने पाया था कि टीकों में ब्रेड का चूरा, कसावा या ऐसा ही कोई योजक मिलाने से टीके बेहतर काम करते हैं। सहायक पदार्थों की इस भूमिका को देखते हुए कुछ टीकों में इनका उपयोग किया जा रहा है। साथ ही नए टीके तैयार करने के लिए एडजुवेंट पर शोध जारी है ताकि लंबे समय तक कारगर टीके विकसित किए जा सकें।

टीके का मतलब है कि रोगजनक का मृत या दुर्बल रूप या उसके द्वारा बनाया जाने वाला विष शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसे एंटीजन के रूप में पहचान लेता है और जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसके फलस्वरूप सूजन पैदा होती है। इसके साथ ही, प्रतिरक्षा कोशिकाएं एंटीजन को लिम्फ नोड्स तक पहुंचाती हैं, जहां अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है। प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: सूजन के ज़रिए ही काम करता है और कोशिश यही रहती है कि यह सूजन यथेष्ट मात्रा में पैदा हो।

एडजुवेंट प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया में सुधार करते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि टीकों से सूजन ठीक मात्रा में उत्पन्न हो – न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम।

हालांकि, कुछ टीके प्रतिरक्षा उत्पन्न करने का अच्छा काम करते हैं, लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने की क्षमता वाले जटिल रोगजनकों, जैसे एचआईवी, इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया, के लिए टीके विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने प्रतिरक्षा प्रणाली की जटिलताओं में गहराई से उतरकर ऐसे टीके बनाने का प्रयास किया जो व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। एडजुवेंट इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रेमन ने देखा था कि जब घोड़ों में टीके के स्थान के आसपास संक्रमण विकसित होता है तो उनमें अधिक शक्तिशाली एंटी-डिप्थीरिया सीरम बनता है। जल्द ही वे उसी प्रतिक्रिया को बढ़ाने और प्रतिरक्षा में सहायता करने के लिए टीकों में ब्रेड का चूरा वगैरह चीज़ें मिलाने लगे।

इसे आगे बढ़ाते हुए एल्युमीनियम लवण जैसे एडजुवेंट्स का विकास हुआ। एडजुवेंट पर काम कर रहे एमआईटी के डेरेल इरविन का विचार है कि एमआरएनए टीकों में संयोगवश चुने गए लिपिड नैनोकण शायद एडजुवेंट के समान कार्य करते हैं। कुछ टीकों में सहायक पदार्थ इस आधार पर चुने जाते हैं कि उनमें संक्रामक बैक्टीरिया के कुछ घटक होते हैं। ऐसे अणुओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के ज़रिए एडजुवेंट सूजन बढ़ाते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया मज़बूत होती है।

अंतत: एडजुवेंट प्रतिरक्षा कोशिकाओं की जीन गतिविधि को पुन: प्रोग्राम कर पाएंगे, जिससे एक साथ कई बीमारियों से सुरक्षा मिल सकेगी। चूहों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि एडजुवेंट युक्त तपेदिक का बीसीजी टीका विभिन्न संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इस शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का लक्ष्य ऐसे एडजुवेंट विकसित करना है जो दीर्घकालिक एंटीवायरल प्रतिरक्षा प्रेरित कर सकें और विभिन्न रोगजनकों के खिलाफ व्यापक सुरक्षा प्रदान करें।

इरविन का मानना है कि एडजुवेंट पर अधिक अनुसंधान से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध टीकों के निर्माण में मदद मिल सकती है। ट्यूमर द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन और एडजुवेंट के मिश्रण के परीक्षण मेलेनोमा और अग्न्याशय के कैंसर के विरुद्ध प्रतिरक्षा को उत्तेजित करने में प्रभावी रहे हैं।

विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में एडजुवेंट सूजन पर हमारी समझ विकसित होने पर एचआईवी, मलेरिया, कैंसर, इन्फ्लूएंज़ा और सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन जैसे संक्रामक खतरों सहित कई बीमारियों से एक साथ निपटने के लिए समाधान मिल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/2341016f-79a8-46e2-8d2b-076591129c73/ScienceSourceImages_2464093_HighRes_16x9.jpg

जब हंसी मज़ाकिया न हो

ई के पहले रविवार को विश्व ठहाका दिवस होगा। इस अवसर पर अखबारों से लेकर व्हाट्सएप संदेश व अन्य (सोशल) मीडिया प्लेटफॉर्म हंसने के फायदे के बारे बताएंगे। बताया जाएगा कि हंसना हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, यह हमारी धमनियों को तंदुरुस्त रखता है, आईवीएफ की सफलता दर को बढ़ाता है, तनाव से राहत देता है, यहां तक कि कैंसर को ठीक भी कर देता है।

लेकिन हंसना एक बीमारी भी हो सकती है जो बे-वक्त, बे-मौके पर फूटकर व्यक्ति को शर्मिंदा कर सकती है/परेशानी में डाल सकती है। अधिक हंसी जीर्ण सिरदर्द का कारण भी बन सकती है। यहां तक कि हंसी के बेकाबू दौरे पड़ सकते हैं।

हंसने के कारण उपजी ऐसी ही एक स्थिति है ‘परिस्थितिजन्य सिरदर्द’। एक 52 वर्षीय महिला परिस्थितिजन्य सिरदर्द यानी अत्यधिक हंसने के कारण उपजे सिरदर्द से 32 वर्षों से पीड़ित थी। मस्तिष्क का स्कैन करने पर पता चला कि उसके मस्तिष्क में तीन जगहों पर मस्तिष्क-मेरु द्रव के थक्के जमा हैं। जब वह हंसती थी तो हंसी के कारण द्रव के दबाव में होने वाले परिवर्तन के कारण सिरदर्द होने लगता था। हालांकि खांसने-छींकने पर भी उसे सिरदर्द होने लगता था। लेकिन हंसी भी सिरदर्द का कारण तो बनती थी।

इससे अलग, द्विध्रुवी विकार (बायपोलर डिसऑर्डर) से पीड़ित एक व्यक्ति को हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाने के कारण मिर्गी के दौरे पड़ते थे। टीवी पर कॉमेडी शो देखते हुए जब भी वह कोई चुटकुला सुनता, हंसी आती और हंसते-हंसते जब वह लोट-पोट होने लगता तो उसके हाथ कांपने लगते और उसे ऐसा लगता जैसे उसकी चेतना शून्य हो रही है। एक दिन में पड़ने वाले मिर्गी के दौरों की संख्या और कॉमेडी शो की लंबाई और शो कितना हंसोड़ था के बीच सम्बंध था; औसतन  दिन में पांच बार। पहले तो डॉक्टरों को लगा कि दौरे उसके द्विध्रुवी विकार के कारण पड़ते हैं। लेकिन जब उन्होंने ईईजी के माध्यम से दो दिनों तक उसकी मस्तिष्क तरंगों को नापा तो पता चला कि मिर्गी के दौरों का सम्बंध उसकी लोट-पोट होकर हंसने वाली हंसी से था।

हंसी मस्तिष्क के दो अलग-अलग क्षेत्रों में हलचल से आती है: टेम्पोरल लोब, जो भावनात्मक पहलुओं को संभालता है; और फ्रंटल कॉर्टेक्स, जो क्रियाकारी हिस्से (चलना, दौड़ना, कूदना, फेंकना, झेलना, पकड़ना वगैरह) को संभालता है। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि हंसने के कारण क्रियाकारी क्षेत्र में हलचल होने से मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। उपचार लेने से समस्या ठीक तो हो गई लेकिन यदि, खुदा न ख्वास्ता, उनका अनुमान ठीक न निकलता तो शायद उसे टीवी देखना बंद करना पड़ता।

हंसी के कारण एक और जो समस्याप्रद स्थिति बनती है वह है पैथालॉजिकल लाफ्टर। पैथालॉजिकल लाफ्टर से पीड़ित शख्स को अचानक ही वक्त-बेवक्त, मौके-बेमौके ही हंसी आ जाती है। ऐसे ही एक मामले में एक शख्स को अपने परिवार के साथ शराड का खेलते हुए हंसी का दौरा पड़ा। आगे चलकर किसी के अंतिम संस्कार में, यहां तक कि अपनी बीमार मां से मिलते वक्त भी हंसी का दौरा पड़ गया। इसके चलते उसे काफी शर्मिंदगी महसूस हुई और उसने लोगों से मेल-जोल ही छोड़ दिया। मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर पाया गया कि मस्तिष्क कोशिकाओं को जोड़ने वाले सफेद पदार्थ में घाव थे। साथ ही, मध्य मस्तिष्क और टेम्पोरल लोब में भी घाव थे। पैथोलॉजिकल लॉफ्टर का कारण तो पता नहीं चल पाया है लेकिन ऐसे मौकों पर एकदम तुरंत हंसी आने के बजाय थोड़ी देर बाद हंसी (विलंबित हंसी) आने के आधार पर लगता है कि इसका कारण सिर्फ घाव नहीं हैं। विलंबित हंसी आने से लगता है कि स्वायत्त क्रियाकारी केंद्र बनने में समय लगता है। जिससे लगता है कि नई तंत्रिका गतिविधि या नए हंसी नियंत्रण केंद्र बन रहे हैं।

ये ऐसे कुछ मामले थे जो हंसी से सम्बंधित समस्याओं को दर्शाते थे। लेकिन इन्हें पढ़कर हंसना मत छोड़िए। बस, जब लगे कि आपका हंसना आपके लिए कोई गंभीर समस्या पैदा कर रहा है तो डॉक्टर से मिलिए। वरना हंसिये-हंसाइए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.dizzyandvertigo.com/wp-content/webp-express/webp-images/uploads/2020/06/1_agdtfequieqvrr0osvypqw_optimized-1024×678.jpeg.webp

चिकित्सा में महत्व के चलते जोंक पतन – ज़ुबैर सिद्दिकी

धुनिक युरोप के इतिहास में जाने-माने ट्यूलिप उन्माद और रियल एस्टेट का जुनून सवार होने के बाद 19वीं सदी में जोंक चिकित्सा की एक नई सनक सवार हुई थी। लेकिन खून चूसने वाले ये अकशेरुकी प्राणि, युरोपीय चिकित्सकीय जोंक (Hirudo medicinalis), चिकित्सा सम्बंधित उन्माद के चलते विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। वैसे इन नन्हें जंतुओं ने मौसम की भविष्यवाणी में भी अपना नाम दर्ज कराया था।

वास्तव में चिकित्सीय उपचार के लिए जोंक का उपयोग सबसे पहले मिस्र में किया गया और आगे चलकर यूनान, रोम और भारत में भी इनका उपयोग होने लगा। जोंक को मुख्य रूप से शरीर के विभिन्न द्रवों को संतुलित करने के उद्देश्य से खून चुसवाने के लिए उपयोग किया जाता था। जबकि यूनानी चिकित्सक, विभिन्न अन्य रोगों, जैसे गठिया, बुखार और बहरेपन, के इलाज में भी जोंक का उपयोग किया करते थे। ये नन्हें जीव बड़ी आसानी से अपने तीन बड़े जबड़ों से त्वचा पर चिपक जाते थे और लार में प्राकृतिक निश्चेतक और थक्कारोधी गुण की मदद से रक्त चूसने लगते थे। इस तरह से रोगी को बिलकुल दर्द नहीं होता था और उपचार के बाद बस एक हल्का निशान रह जाता था जो समय के साथ  ठीक हो जाता था। 

लंबे समय से चली आ रही यह पद्धति उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तब काफी सुर्खियों में रही जब पेरिस स्थित वाल-डी-ग्रे के प्रमुख चिकित्सक डॉ. फ्रांस्वा-जोसेफ-विक्टर ब्रूसे ने युरोपीय चिकित्सकीय जोंक उपचार को एक रामबाण उपचार के रूप में प्रचारित किया। ब्रूसे का मानना था कि सभी बीमारियों का मूल कारण है सूजन, और इसके इलाज के लिए रक्तस्राव सबसे उचित उपचार है। चूंकि यह सुरक्षित था और इसके लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता भी नहीं थी, इसलिए जोंक की मांग में निरंतर वृद्धि होती गई। यहां तक कि कैंसर से लेकर मानसिक बीमारी सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज में जोंक का खूब उपयोग किया जाने लगा।

इनकी मांग इतनी अधिक थी कि 1830 से 1836 तक फ्रांस्वा ब्रूसे के अस्पताल में ही 20 लाख से अधिक जोंकों का उपयोग किया गया जबकि फ्रांस के अन्य अस्पतालों में चरम लोकप्रियता के वर्षों में सालाना 5,000 से 60,000 जोंकों का उपयोग किया गया।

जोंक को रक्त निकालने के लिए एक बार में 20 से 45 मिनट तक चिपकाया जाता था। चूंकि एक जोंक केवल 10 से 15 मिलीलीटर तक ही खून चूस सकती है, इसलिए विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए अलग-अलग डोज़ भी तय किए जाते थे – जैसे निमोनिया के लिए 80 जोंक और पेट की सूजन के लिए 20 से 40 जोंक।

यह काफी दिलचस्प बात है कि विक्टोरिया युग में जोंक ने चिकित्सा के साथ फैशन और कला को भी प्रभावित किया था। महिलाओं की पोशाकों पर जोंक के चित्र काढ़े जाते थे और औषधालय बड़े-बड़े पात्रों में जोंक का प्रदर्शन करते थे। और तो और, ब्रिटेन के सर्वोच्च अधिकारी लॉर्ड चांसलर थॉमस एर्स्किन जोंक को अपने सबसे प्रिय पालतू जानवर के रूप में पालने लगे थे।

जोंक के प्रति यह दीवानगी जोंक की आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित करने लगी। कुछ सरकारों ने इन्हें विलुप्ति से बचाने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानून लागू किया और जोंक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के साथ इनके संग्रहण को भी नियंत्रित किया। 1848 में, रूस ने जोंक के प्रजनन काल के दौरान जोंक संग्रह पर प्रतिबंध लगाया था। जोंक को कृत्रिम रूप से पालने व संवर्धन की भी कोशिशें की गईं।

लेकिन इनके संवर्धन तथा व्यावसायीकरण में कई चुनौतियां थीं। आम तौर पर उपयोग की गई जोंक को खाइयों या तालाबों में फेंक दिया जाता था, जिससे प्रजातियों का अत्यधिक दोहन होता था। इसी के साथ कृषि के लिए जल निकासी और दलदली भूमि के पुनर्विकास ने उनकी आबादी को और कम कर दिया। कई प्रयासों के बावजूद, 20वीं सदी की शुरुआत तक कई स्थानों पर चिकित्सीय जोंक लुप्तप्राय हो गए थे।

दरअसल, जोंक उपचार से कुछ फायदे थे तो कुछ नुकसान भी थे। जहां इस उपचार के बाद रोगी दर्द से राहत, सूजन में कमी और रक्त परिसंचरण में सुधार महसूस करते थे, थ्रम्बोसिस जैसी समस्याओं में राहत पाते थे, वहीं इससे खून की कमी, एनीमिया, संक्रमण और एलर्जी जैसी समस्याओं की संभावना रहती थी। इससे सिफिलस, तपेदिक और मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैल सकती थी। इसके अलावा, कई रोगियों ने जोंक के प्रति भय और घृणा के कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव किया।

जोंक के लुप्तप्राय होने को छोड़ भी दिया जाए तो इनके उपयोग में कमी का एक कारण चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास है जिसने कई बीमारियों के लिए अधिक प्रभावी उपचार प्रदान किए। इसके अलावा रोगाणु सिद्धांत तथा चिकित्सा विज्ञान में सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता के उदय होने से संक्रामक रोगों की घटनाओं और प्रसार में कमी आई। हालांकि 20वीं सदी के मध्य तक जोंक उपचार को काफी हद तक छोड़ दिया गया था लेकिन कुछ देशों में वैज्ञानिक अनुसंधान और विनियमन के साथ जोंक उपचार को एक मूल्यवान पूरक चिकित्सा के रूप में देखा जा रहा है। आजकल जोंक का प्रजनन युरोप और यूएसए की कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है। 

मौसम भविष्यवाणी

दरअसल, जेनर ने अपनी कविता में बारिश के आगमन कई ऐसे कुदरती संकेतों का ज़िक्र किया था – जैसे मोर का शोर मचाना, सूर्यास्त का पीला पड़ जाना वगैरह। लेकिन मेरीवेदर का ध्यान कविता के उस हिस्से पर गया जहां जेनर ने कहा था, “जोंक परेशान हो जाती है, अपने पिंजड़े के शिखर पर चढ़ जाती है।

जॉर्ज मेरीवेदर नामक एक ब्रिटिश चिकित्सक और आविष्कारक ने जोंक को औषधीय उपयोग से परे देखा। एडवर्ड जेनर की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने एक ऐसा उपकरण (टेम्पेस्ट प्रोग्नॉस्टिकेटर) बनाया जो जोंक की कथित रहस्यमयी क्षमता का उपयोग कर तूफानों की भविष्यवाणी करता था।

मेरीवेदर द्वारा तैयार किए गए तूफान-सूचक में बारह बोतलों को एक घेरे में जमाया गया था। प्रत्येक बोतल में कुछ इंच बारिश का पानी भरा गया था और प्रत्येक बोतल में एक-एक जोंक रखी गई थी। जोंक को इस तरह रखा गया था कि वे एक-दूसरे को देख सकती थीं और एकांत कारावास की पीड़ा से मुक्त रहती थीं।

सामान्य परिस्थितियों में सभी जोंक बोतल में नीचे पड़ी रहती थीं लेकिन बारिश आने से पहले वे ऊपर चढ़ने लगती थीं। और ऊपर चढ़कर जब वे बोतल के मुंह तक पहुंच जाती थीं, तब वहां लगी एक छोटी व्हेलबोन पिन सरक जाती थी और उपकरण के केंद्र में लगी घंटी बजने लगती थी। जितनी अधिक जोंकें ऊपर की ओर बढ़ती थीं उतनी ही अधिक बार घंटी बजती थी। वैसे मेरीवेदर ने यह भी देखा कि कुछ जोंक बढ़िया संकेत देती थीं जबकि अन्य निठल्ली पड़ी रहती थीं और अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थीं।

मेरीवेदर ने महीने भर अपने उपकरण का परीक्षण किया और व्हिटबाय फिलॉसॉफिकल सोसाइटी को आसन्न तूफानों की सूचना भेजते रहे। हालांकि उन्होंने अपनी असफलताओं की सूचना नहीं दी थी। एक अखबार के मुताबिक इस उपकरण ने अक्टूबर 1850 के विनाशकारी तूफान की सटीक भविष्यवाणी की थी, जिसके बाद इसे मान्यता मिली और 1851 में हाइड पार्क में इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।

हालांकि, मेरीवेदर का यह तूफान सूचक उतना व्यावहारिक नहीं था जितना वे सरकार को विश्वास दिला रहे थे। यह उपकरण न तो तूफान की दिशा बताता था और न ही इससे तूफान आने का सटीक समय पता चलता था। इसके अलावा, उपकरण की सबसे बड़ी कमी थी जोंक के लिए मासिक आहार की व्यवस्था और हर पांचवे दिन इसके पानी को बदलना। ऐसे में इसका नियमित रखरखाव थोड़ा मुश्किल काम था और विशेष रूप से जहाज़ों पर मौसम पूर्वानुमान के लिए यह अव्यावहारिक था। इसकी तुलना में स्टॉर्म ग्लास अधिक व्यावहारिक विकल्प के रूप में उभरा।

स्टॉर्म ग्लास एक कांच का उपकरण है जिसमें आम तौर पर कपूर, कुछ रसायन, पानी, एथेनॉल और हवा का मिश्रण होता है। ऐसा माना जाता था कि तरल में क्रिस्टल और बादल के बनने से मौसम में आगामी बदलावों का संकेत मिलता है। हालांकि, यह जोंक की तुलना में कम प्रभावी था लेकिन उपयोग में अधिक व्यवहारिक होने के कारण इसे दशकों तक उपयोग किया जाता रहा। मेरीवेदर का मूल तूफान भविष्यवक्ता तो शायद कहीं खो गया है, लेकिन लगभग एक सदी बाद 1951 में प्रदर्शनी के लिए इसकी कई प्रतिकृतियां बनाई गई थीं।

युरोपीय औषधीय जोंक और तूफान सूचक की आकर्षक कथाएं 19वीं सदी के विज्ञान और सामाजिक विचित्रताओं को एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। विलुप्त होने की कगार से लेकर मौसम के भविष्यवक्ता के एक संक्षिप्त कार्यकाल तक, जोंक ने उन क्षेत्रों का भ्रमण किया जिन्होंने इतिहास को आकार दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.istockphoto.com/id/538037191/vector/antique-illustration-the-leechs-chamber.jpg?s=612×612&w=0&k=20&c=EFV-NDQ0wc-pB1x4dXBM3ywJkXNiHZxmWJM56IVP8uA=
https://i0.wp.com/erickimphotography.com/blog/wp-content/uploads/2018/09/parasite-leech.jpg?resize=640%2C542
https://i.guim.co.uk/img/static/sys-images/Guardian/Pix/pictures/2015/4/17/1429281109315/133923f2-5719-46f1-9719-54499d383542-2060×1236.jpeg?width=700&quality=85&auto=format&fit=max&s=179d117689d392448c9a7bca2f562609

बायोटेक जोखिमों से सुरक्षा की नई पहल

जैव प्रौद्योगिकी के दुरुपयोग के बढ़ते खतरों को देखते हुए जैव सुरक्षा विशेषज्ञों के एक वैश्विक समूह ने एक अंतर्राष्ट्रीय जैव सुरक्षा पहल (इंटरनेशनल बायोसिक्यूरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइन्स – IBBIS) की शुरुआत की है। इस गैर-मुनाफा संगठन का लक्ष्य डीएनए संश्लेषण और जीन संपादन जैसी आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी तकनीकों से जुड़े जोखिमों को कम करना है। इसके ज़रिए जाने-अनजाने किए जा रहे हानिकारक रोगजनकों या विषाक्त पदार्थों के निर्माण पर रोक लगाई जा सकेगी।

हालिया समय में बायोटेक तकनीकों की सुलभता ने उनके दुरुपयोग की चिंताओं को बढ़ाया है। हालांकि, वैज्ञानिक समुदाय हमेशा से खुलेपन का हिमायती रहा है लेकिन आधुनिक तकनीकों के उद्भव से खतरनाक वायरस और अन्य सूक्ष्मजीवों के निर्माण की क्षमता ने सुरक्षा उपायों की आवश्यकता पर ध्यान आकर्षित किया है। वर्तमान में दुनियाभर की कंपनियों द्वारा ऑन-डिमांड डीएनए संश्लेषण सेवाएं प्रदान करने तथा क्रिस्पर और कृत्रिम बुद्धि जैसी तकनीकों से आशंका है कि जैव-आतंकवादी इन तकनीकों का फायदा उठा सकते हैं।

IBBIS का पहला प्रोजेक्ट डीएनए संश्लेषण कंपनियों के लिए ऐसे मुफ्त सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराना है जिनकी मदद से संदिग्ध गतिविधियों वाले, हानिकारक जीन अनुक्रमों वाले ऑर्डरों और ग्राहकों की अच्छे से स्क्रीनिंग की जा सके। संदेह होने पर कंपनियां ऐसे ऑर्डरों को मना कर सकती हैं या अधिकारियों को सतर्क कर सकती हैं। वैसे तो कई स्क्रीनिंग साधन मौजूद हैं, लेकिन उन्हें व्यापक रूप से अपनाया नहीं जा रहा है।

IBBIS का एक उद्देश्य हितधारकों के बीच विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देना है। पारदर्शी और सुलभ समाधान पेश करके, इस पहल का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों और राजनीतिक संदर्भों में समझ और कार्यान्वयन में अंतर को कम करना है।

न्यूक्लिक एसिड प्रदाताओं के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं को स्थापित करने के प्रयासों के लेकर IBBIS के विभिन्न प्रयासों की सराहना की जा रही है। IBBIS की एक योजना ऐसे सॉफ्टवेयर पैकेज विकसित करने की है जिनकी मदद से जीव वैज्ञानिक पांडुलिपियों का स्क्रीनिंग करके देखा सके कि कहीं उनमें रोगजनक या टॉक्सिक बनाने की विधि का खुलासा तो नहीं किया गया है।

IBBIS के कार्यकारी निदेशक पियर्स मिलेट वैज्ञानिक समुदाय के ज़िम्मेदार व्यवहार को प्रोत्साहित करने के महत्व पर ज़ोर देते हैं। पारदर्शिता, सहयोग और जवाबदेही को बढ़ावा देकर, IBBIS का लक्ष्य वैश्विक जैव सुरक्षा प्रयासों को बढ़ाना और जैव प्रौद्योगिकी से जुड़े जोखिमों को कम करना है। IBBIS का दृष्टिकोण वैश्विक सुरक्षा के संभावित खतरों को कम करते हुए समाज की भलाई के लिए जैव प्रौद्योगिकी के सुरक्षित और ज़िम्मेदार उपयोग सुनिश्चित करना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zbgqqpm/full/_20240214_on_digitaldna-1708012703127.jpg

बैक्टीरिया की ‘याददाश्त’!

हा जाता है कि ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले’। लेकिन पिछली बातों को याद रखना कई मामलों में फायदेमंद होता है, जैसे यदि हम पहले कभी गर्म चीज़ से जले हैं तो हम इस स्मृति के आधार पर आगे सतर्क रहते हैं और अन्य को भी सावधान करते हैं। ये स्मृतियां हमारे जीवन को सुरक्षित बनाती हैं।

अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि बैक्टीरिया भी अपने पिछले अनुभवों को याद रखते हैं: एशरिशिया कोली (ई.कोली.) बैक्टीरिया अपने आसपास मौजूद पोषक तत्व का स्तर याद रखते हैं। साथ ही वे इन स्मृतियों को अपनी आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित भी करते हैं, जो संभवत: उनकी संतति को एंटीबायोटिक दवाओं से बचने में मदद करता है।

आम तौर पर हमें लगता है कि एक-कोशिकीय सूक्ष्मजीव अकेले-अकेले बस अपना-अपना काम करते रहते हैं। लेकिन बैक्टीरिया अक्सर मिल-जुल काम करते हैं जो उन्हें अधिक सुरक्षित रखता है। स्थायी ‘घर’ (बायोफिल्म) की तलाश में बैक्टीरिया के झुंड अक्सर घूमते हैं। झुंड में रहने से बैक्टीरिया को यह फायदा होता है कि वे एंटीबायोटिक के असर को बेहतर ढंग से झेल पाते हैं।

टेक्सास विश्वविद्यालय के सौविक भट्टाचार्य जब ई. कोली बैक्टीरिया में झुंड के व्यवहार का अध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने उनकी कॉलोनियों में ‘अजीब से पैटर्न’ देखे। फिर जब उन्होंने इन कालोनियों से एक-एक बैक्टीरिया को अलग करके देखा तो उन्होंने पाया कि बैक्टीरिया अपने पिछले अनुभवों के आधार पर अलग-अलग व्यवहार कर रहे थे। कॉलोनी में जिन बैक्टीरिया ने पहले झुंड बनाए थे, उनके दोबारा झुंड में आने की संभावना उन बैक्टीरिया की तुलना में अधिक थी जिन्होंने पहले झुंड नहीं बनाए थे। और यह प्रवृत्ति कम से कम उनकी अगली चार पीढ़ियों (जो दो घंटे में अस्तित्व में आ गईं थी) ने भी दिखाई थी।

ई. कोली के जीनोम में फेर-बदल करने पर शोध दल ने पाया कि उनकी इस क्षमता के पीछे दो जीन्स हैं जो मिलकर लौह के ग्रहण और नियमन को नियंत्रित करते हैं। बैक्टीरिया के लिए लौह अहम पोषक तत्व है। लौह का स्तर कम होने पर बैक्टीरिया में अपने झुंड की जगह बदलने की प्रवृत्ति दिखी, जो उनमें सहज रूप से निहित थी। ऐसा अनुमान है कि लौह स्तर कम होने पर बैक्टीरिया का झुंड आदर्श लौह स्तर वाले नए स्थान की तलाश में था।

हालांकि यह मालूम था कि कुछ बैक्टीरिया अपने आसपास के भौतिक पर्यावरण (जैसे टिकाऊ सतह) को याद रखते हैं और यह जानकारी अपनी संतानों को दे सकते हैं लेकिन इस अध्ययन में यह नई बात मालूम चली कि बैक्टीरिया पोषक तत्वों की उपस्थिति को भी याद रखते हैं। टिकाऊ, सुरक्षित और उपयुक्त स्थान तलाशने के लिए बैक्टीरिया इन स्मृतियों का उपयोग करते हैं और बायोफिल्म बनाते हैं।

बहरहाल, यह देखने की ज़रूरत है कि क्या अन्य सूक्ष्मजीव भी लौह स्तर को याद रखते हैं? बैक्टीरिया लौह स्तर अनुपयुक्त पाने पर कैसे अपना व्यवहार बदलते हैं? शोधकर्ताओं का मानना है कि इस मामले में अधिक अध्ययन रोगजनक संक्रमणों से निपटने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/0F434734-9FBC-41AE-B7FBEC987181FC0F_source.jpeg?w=1200

ऑक्सीमीटर रंगभेद करते हैं

हाल ही में, कैलिफोर्निया की चिकित्सक डॉ. नोहा एबोलेटा के नेतृत्व में एक समूह ने पल्स ऑक्सीमीटर की बिक्री को चुनौती दी है। पाया गया है कि ये उपकरण अश्वेत त्वचा वाले व्यक्तियों में रक्त-ऑक्सीजन का स्तर गलत बताते हैं। डॉ. एबोलेटा के नेतृत्व में रूट्स कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर द्वारा ऑक्सीमीटर की बिक्री को तब तक रोकने की मांग की जा रही है जब तक कि इन उपकरणों में आवश्यक सुधार नहीं कर लिए जाते या उनकी सीमाओं के बारे में चेतावनी लेबल नहीं लगा दिया जाता।

गौरतलब है कि पल्स ऑक्सीमीटर आम तौर पर उंगली के सिरे पर लगाए जाते हैं और ये त्वचा के माध्यम से अंदर प्रकाश चमकाकर रक्त में ऑक्सीजन के स्तर का आकलन करते हैं। लेकिन ये आकलन त्वचा में उपस्थित मेलेनिन नामक रंजक से प्रभावित होते हैं जो अश्वेत त्वचा में अधिक होता है।

दशकों चले अध्ययनों में सामने आया है कि ये उपकरण अश्वेत त्वचा वाले व्यक्तियों में ऑक्सीजन का स्तर अधिक बताते हैं, जो स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों को प्रभावित करता है। इस मुद्दे को कोविड-19 महामारी के दौरान अधिक प्रमुखता मिली जब सटीक ऑक्सीजन स्तर का आकलन करना अति आवश्यक था। चूंकि यह ऑक्सीमीटर अश्वेत व्यक्तियों के खून में वास्तविकता से अधिक ऑक्सीजन बताता था, इसलिए उन्हें सही चिकित्सा नहीं मिल पाती थी या देर से मिलती थी।

लेकिन चिकित्सा उपकरण उद्योग और अमेरिकी सरकार इस समस्या को लेकर काफी धीमी गति से काम कर रही है। इन उपकरणों को मुख्य रूप से श्वेत आबादी के हिसाब से तैयार किया गया है व परखा गया है। यह अश्वेत लोगों के निदान में अशुद्धियों का प्रमुख कारण है।

कैलिफोर्निया काउंटी अदालत में दायर किया गया मुकदमा काफी महत्वपूर्ण है। यह सभी के लिए इस समस्या से निपटने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है और इस मुद्दे को प्रमुखता से सार्वजनिक मंच पर रखता है।

इस संदर्भ में मेडट्रॉनिक और मासिमो जैसे दिग्गज चिकित्सा-उपकरण निर्माता तो खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) के दिशानिर्देशों के पालन का हवाला देते हुए अपनी प्रौद्योगिकियों का बचाव कर रहे हैं। इस मामले में आलोचकों का तर्क है कि इन दावों का समर्थन करने वाले अध्ययन अक्सर प्रयोगशाला में किए गए हैं, जबकि वास्तविक दुनिया के परिदृश्य विभिन्न चुनौतियां पेश करते हैं।

इस मामले में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 2020 के एक अध्ययन में कोविड-19 से ग्रसित लोगों में पल्स ऑक्सीमीटर की रीडिंग में महत्वपूर्ण विसंगतियां सामने आईं। इन विसंगतियों में विशेष रूप से अश्वेत रोगी सबसे अधिक प्रभावित पाए गए। नतीजतन सीनेटरों से कार्रवाई की मांग के बाद 2022 में एफडीए की बैठक हुई जिसमें इन उपकरणों की सीमाओं को स्वीकार किया गया। फरवरी में एक और बैठक की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w400/magazine-assets/d41586-024-00089-6/d41586-024-00089-6_23611476.jpg

ग्रामीण महिला पशु चिकित्सक – भारत डोगरा

टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के नदिया गांव में रहने वाली भारती अहरवार को जब पता चला कि एक संस्था, सृजन, क्षेत्र की कुछ महिलाओं को बकरियों को रोग-मुक्त रखने व उनके इलाज के लिए प्रशिक्षण दे रही है तो उसने ‘सृजन’ और ‘दी गोट ट्रस्ट’ नामक संस्था द्वारा सह-आयोजित प्रशिक्षण पहले क्षेत्रीय स्तर पर व फिर लखनऊ स्तर पर लिया।

इस प्रशिक्षण से भारती को एक नया आत्म-विश्वास मिला। अब उसे ‘पशु-सखी’ या बकरियों की पैरा डाक्टर के रूप में नई पहचान मिली, मान्यता मिली, दवा व वैक्सीन मिले। लेकिन जब वह अपनी पशु-सखी की युनिफार्म में इलाज के लिए निकलती तो कुछ लोग मज़ाक उड़ाते, फब्तियां कसते। पर इसकी परवाह न करते हुए भारती ने अपना कार्य पूरी निष्ठा से जारी रखा व अधिक दक्षता प्राप्त करती रही। उसने बकरी स्वास्थ्य के लिए विशेष शिविरों का आयोजन भी किया।

धीरे-धीरे गांव के लोग उसके कार्य का महत्व समझने लगे। बकरी में बीमारी होने पर संक्रमण तेज़ी से फैलता है। पी.पी.आर. और एफ.एम.डी. बीमारियों से बचाव व डीवर्मिंग ज़रूरी है। यदि इस सबके लिए गांव में ही ‘पशु-सखी’ की सेवाएं मिल जाएं तो इधर-उधर भटकना नहीं पडे़गा। गांववासियों की नज़रों में स्वीकृति व सम्मान बढ़ने के साथ भारती का कार्य भी बढ़ा व आय भी।

टीकमगढ़ ज़िले की माया घोष एक वरिष्ठ पशु-सखी हैं जिनकी गिनती इस कार्यक्षेत्र में सबसे पहले आने वाली महिलाओं में होती है। माया घोष ने अपने स्थानीय व लखनऊ के प्रशिक्षण के बाद अपने गांव बिजरावन में बकरी पालन का सर्वेक्षण किया। इससे स्पष्ट हुआ कि थोड़े से प्रवासी मज़दूरों जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अन्यथा लगभग सभी घरों में औसतन 5 से 10 बकरियां हैं। कांटी गांव की ‘पशु-सखी’ हीरा देवी ने बताया कि प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जब उन्होंने कार्य आरंभ किया तो आसपास के कुछ लोगों ने उनकी योग्यता पर संदेह प्रकट किया। इस स्थिति में उन्होंने एक बीमार बकरी को खरीद लिया और उसे अपने इलाज से पूरी तरह ठीक कर दिया। इसके बाद लोग उनके पास बकरियों के इलाज के लिए पहुंचने लगे और यह सिलसिला अभी तक चल रहा है।

सृजन के सहयोग से किसानों का एक उत्पादक संगठन बना है जिसके द्वारा बकरियों के लिए स्वस्थ आहार बनाया जाता है जिसमें अनेक पौष्टिक तत्त्व मिले होते हैं। वैसे बकरी खुले में चर कर अपना पेट भरती है, पर कुछ अतिरिक्त पौष्टिक आहार मिलने से उनका स्वास्थ्य और सुधर जाता है। इस पौष्टिक आहार की बिक्री भी पशु-सखी द्वारा की जाती है। दवाएं उपलब्ध करवाने में भी किसान उत्पादक संगठन की सहायता मिलती है।

लगभग 10 पशु सखियों के प्रशिक्षण से शुरू हुए इस प्रयास से आज इस जिले में 76 प्रशिक्षित पशु-सखियां हैं जो अपना जीविकोपार्जन बढ़ाने का कार्य बहुत आत्मविश्वास से कर रही हैं और गांव-समुदाय के लिए बहुत सहायक भी सिद्ध हो रही हैं। यहां के अधिकांश गांवों में लगभग तीन-चौथाई परिवारों के पास बकरियां हैं, पर अचानक फैली बीमारियों में अनेक बकरियों के समय-समय पर मर जाने से लोग परेशान थे। अब पशु-सखियों के कारण यह समस्या कम हुई है व स्वस्थ बकरी विकास की संभावना बढ़ी है।

इसी तरह का कार्य कुछ अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। एक उत्साहवर्धक स्थिति यह बनी है कि कुछ सरकारी अधिकारियों ने इस सफलता को नज़दीकी स्तर पर देखने के बाद इसे अपने-अपने स्तर पर भी आगे बढ़ाने के लिए कहा है। उन्होंने माना है कि यह एक उल्लेखनीय सफलता है जिसे आगे बढ़ना चाहिए।

इसके अलावा, व्यापारियों द्वारा बकरी पालकों को पहले कम कीमत देकर ठगा जाता था पर अब इस मामले में भी सुधार हो रहा है ताकि बकरी पालक को उचित मूल्य मिले। सरकार की, विशेषकर दलितों व आदिवासियों के लिए, बकरियों को बहुत कम कीमत पर उपलब्ध वाली योजनाएं हैं व उनसे भी समुचित सहायता प्राप्त की जा सकती है।

जहां बकरियों को मुख्य रूप से बिक्री के लिए पाला जाता है, वहां इनसे, अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही सही, विशिष्ट पौष्टिक गुणों वाला दूध भी प्राप्त हो जाता है तथा बकरियों से खाद भी उच्च गुणवत्ता की प्राप्त होती है। अपेक्षाकृत निर्धन परिवारों के लिए पशु पालन की सबसे सहज आजीविका बकरी पालन के रूप में ही है व पशु-सखियों ने स्वस्थ बकरीपालन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह एक अनुकरणीय मॉडल है जो अन्य स्थानों पर भी बकरी पालन को बेहतर बना सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://pressinstitute.in/wp-content/uploads/2023/10/img-6.jpg

स्मृति ह्रास से कैसे निपटें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

स्सी की उम्र पार कर गए मुझ जैसे कई वरिष्ठ नागरिक अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं जिन्हें वे पहले मिल चुके होते हैं या बहुत अच्छी तरह से जानते थे। अक्सर वे ऐसी स्थिति में हैरान या शर्मिंदा हो जाते हैं जब उनकी मुलाकात ऐसे किसी व्यक्ति से हो जाती है और वे पूछ बैठते हैं कि “अंकल आप कैसे हैं?”, “अंकल, क्या आपको याद है मैं आपके घर आया था?” या, “हैलो मेरे दोस्त, कितने अरसे बाद मिले हो; कैसे हो तुम?”

इस प्रकार के अस्थायी ब्लैकआउट आम बात हैं। इस बारे में मेरे युवा सहकर्मी डॉ. दुर्गादास कस्बेकर ने कुछ प्रासंगिक और मज़ेदार उद्धरण सुनाए।

उनमें से एक सर नॉर्मन विसडम का है, जो लिखते हैं: “जैसे-जैसे आप बूढ़े होते हैं, तीन चीज़ें घटित होती हैं। पहली कि आपकी याददाश्त जाने लगती है, और बाकी दो मुझे याद नहीं हैं।”

ऐसा ही कुछ अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने भी लिखा था: “मैं जितना बूढ़ा होता जाता हूं, उतने ही अच्छे से मुझे वे चीज़ें याद रहती हैं (या याद आती हैं) जो पहले कभी हुई ही नहीं थीं!

विपरीत स्थिति

इसके एकदम विपरीत कई बहुत बूढ़े व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने जीवन में घटी हर घटना और हर वह शख्स याद रहता है जिससे वे मिले थे। इसका एक बेहतरीन उदाहरण डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन हैं, जिनका हाल ही में 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने अपने प्रयासों से 50 वर्षों के भीतर भारत को खाद्य-आयात करने वाले देश से खाद्य-निर्यात करने वाले देश में बदल दिया। डॉ. स्वामीनाथन की स्मृति अद्भुत थी, उन्हें लोग और घटनाएं बहुत अच्छे से याद रहती थीं। निश्चित ही वे नॉर्मन विसडम और मार्क ट्वेन के कथनों के जवाब थे!

ऐसी ही एक और मिसाल बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी सी. डी. गोपीनाथ की है, जिन्होंने 1951-52 में क्रिकेट में पदार्पण किया था और अब वे 93 वर्ष के हैं।

लेकिन प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक इतना खुशनसीब नहीं होता। तो हम भूलने की बीमारी से कैसे निपट सकते हैं? कुछ युक्तियां इस नए कौशल को सीखने में उपयोगी हो सकती हैं; नियमित दिनचर्या अपनाएं; कार्यों की योजना बनाएं, कामों की सूची बनाएं, और कैलेंडर एवं नोट्स जैसे मेमोरी टूल का उपयोग करें; अपना बटुआ, चाबियां, फोन और चश्मा हर दिन नियत जगह पर ही रखें; ऐसी गतिविधियां करें जिनमें दिमाग और शरीर दोनों व्यस्त रहते हैं; स्मृति ह्रास से निपटने के लिए अपने समुदाय में कोई काम स्वैच्छिक तौर पर करें – जैसे किसी स्कूल में या किसी इबादतगाह में; परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताएं; पर्याप्त नींद लें – सामान्यत: हर रात सात-आठ घंटे की; व्यायाम करें और अच्छा खाएं; उच्च रक्तचाप से बचें या नियंत्रित रखें; शराब पीने से बचें या कम कर दें; और यदि आप लगातार कई हफ्तों से मायूसी (अवसाद) महसूस कर रहे हैं तो डॉक्टर से परामर्श लें। व्यक्तिगत रूप से, मैंने इन सभी युक्तियों को अपनाने का प्रयास किया है, और इन्हें बहुत उपयोगी पाया है।

स्मृति ह्रास को धीमा करने और दिमाग को चुस्त और सक्रिय रखने के अन्य विभिन्न तरीके क्या हैं? आश्चर्य होगा कि आज के कंप्यूटर वीडियो गेम के ज़माने में स्मृति ह्रास को धीमा रखने के मामले में वर्ग पहेली ने कंप्यूटर गेम्स को मात दे दी है। यह रिपोर्ट कोलंबिया युनिवर्सिटी के डॉ. डी. पी. देवानंद और ड्यूक युनिवर्सिटी के मुरली दोरईस्वामी द्वारा हाल ही में 107 लोगों के साथ किए गए एक कंट्रोलशुदा रैंडम परीक्षण की है।

व्यक्तिगत तौर पर, मुझे वर्ग पहेलियां भरना, पांच, छह और सात अक्षरों के गड्ड-मड्ड मिश्रण से सार्थक शब्द बनाना (sufmao से famous) और सुडोकू हल करना बहुत उपयोगी लगता है। अन्य वरिष्ठ नागरिक अखबारों में छपे ऐसे और अन्य तरह के खेल, पहेलियां आज़मा सकते हैं। तो, मेरे बुज़ुर्ग मित्रों, स्मृति ह्रास को धीमा करने के लिए उपरोक्त सभी 11 युक्तियां अपनाएं और जो पहेलियां हल करना पसंद हो उन्हें हल करें!(स्रोत फीचर्स)

3  5    4
 7 6  3 2
       1 
  1 9  2 
 39   48 
 2  7 5  
 1       
8 3  5 9 
4    3  5

इस लेख में पहेलियां हल करने का सुझाव दिया गया है। ऐसी ही एक पहेली सुडोकु है। करके देखिए। नियम तो आपको पता ही होंगे – हरेक छोटे चौखाने में 1 से 9 तक के अंक भरने हैं, लेकिन प्रत्येक आड़ी और खड़ी पंक्ति और प्रत्येक बड़े चौखाने में कोई अंक दोहराया नहीं जाएगा।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2022/07/19/well/05Well-BetterMemory/05Well-BetterMemory-superJumbo.jpg

नेपाल में आंखों की रहस्यमयी बीमारी

नेपाल में, मानसून के मौसम की समाप्ति अक्सर नेत्र चिकित्सकों के लिए परेशानी का सबब बन जाती है। इस दौरान एक विचित्र नेत्र संक्रमण – सीज़नल हाइपरएक्यूट पैनुवाइटिस (शापू) – की शुरुआत होती है। यह मुख्य रूप से बच्चों को प्रभावित करती है। इसमें आम तौर पर बिना किसी दर्द के एक आंख लाल हो जाती है और नेत्रगोलक में दबाव कम हो जाता है। 24-48 घंटों के भीतर इलाज न किया जाए तो दृष्टि जा सकती है।

नेपाली शोधकर्ता इस रहस्यमय रोग की उत्पत्ति को समझने के प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए पर्यावरण सर्वेक्षण, जीनोमिक अनुक्रमण और विशिष्ट रिपोर्टिंग प्रणाली स्थापित की गई है। लेकिन फंडिंग एक चुनौती बनी हुई है। और इस वर्ष शापू नए क्षेत्रों में सामने आई है। और लक्षणों की गंभीरता का पूर्वानुमान भी मुश्किल हो गया है।

शापू की जानकारी सबसे पहले 1979 में मिली थी और नेत्र रोग विशेषज्ञ मदन पी. उपाध्याय ने इसे यह नाम दिया था। उपाध्याय के अनुसार इस समस्या के मामले हर दो साल में ज़्यादा होते हैं। इसमें अक्सर नेत्रगोलक सिकुड़ जाता है और दृष्टि क्षीण हो जाती है। इसके इलाज में एंटीबायोटिक्स, स्टेरॉयड और अन्य औषधियों की नाकामी के चलते चिकित्सक एक प्रभावी समाधान खोजने में भिड़े हैं।

वर्ष 2021 तक हर साल शापू के केवल कुछ ही मामले दर्ज होते थे। लेकिन 2021 में 150 से अधिक मामले सामने आने से 2023 में बेहतर तैयारी की गई। एक समर्पित रिपोर्टिंग तंत्र ने देश भर में शापू के प्रसार को ट्रैक करने में मदद की। पता चला कि शापू काफी विस्तृत क्षेत्र में फैल चुकी है।

प्रयोगशाला में कल्चर के माध्यम से संक्रमण को पहचानने के परिणाम अनिर्णायक रहे हैं। कई रोगियों ने लक्षणों का अनुभव करने से पहले ‘सफेद पतंगे’ से संपर्क में आने का उल्लेख किया। पूर्व में किए गए एक सर्वेक्षण में भी शापू और तितलियों/सफेद पतंगों के संपर्क के बीच उल्लेखनीय सम्बंध पाया गया था।

इसके मद्देनज़र कीटविज्ञानी शापूग्रस्त ज़िलों का सर्वेक्षण कर रहे हैं और उन क्षेत्रों से डैटा एकत्र कर रहे हैं जहां पतंगों की विशेष उपस्थिति दर्ज की गई है। इन क्षेत्रों के तापमान, आर्द्रता, वनस्पति और ऊंचाई जैसे कारकों का भी अध्ययन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, जैव रासायनिक विश्लेषण की योजना है ताकि यह पता चल सके कि क्या कोई विशिष्ट कीट-विष आंख में समस्या पैदा कर रहा है।

शोधकर्ता संदिग्ध सूक्ष्मजीव की पहचान के लिए बैक्टीरिया और वायरस से आनुवंशिक सामग्री की जांच करने की योजना बना रहे हैं। इसमें प्रभावित और अप्रभावित आंखों के साथ-साथ परिवार के सदस्यों से नमूने एकत्र किए जा रहे हैं। इन प्रयासों से शापू को समझने में प्रगति तो हुई है लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।

चिंताजनक बात यह भी है इस वर्ष कुछ ऐसे रोगी भी सामने आए हैं जिनका सफेद पतंगों से कोई संपर्क नहीं रहा है। उम्मीद है कि जल्द ही रहस्यमयी बीमारी के स्रोत का पता लगाकर बच्चों की आंखों की रोशनी की रक्षा की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw1024/magazine-assets/d41586-023-03414-7/d41586-023-03414-7_26249628.jpg