कुछ लोग कितना भी व्यायाम कर लें, डाइटिंग
कर लें लेकिन उनका वज़न है कि कम ही नहीं होता। वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग होते
हैं कि वे कितना भी खा लें, चर्बी उनके शरीर पर चढ़ती ही
नहीं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने मोटापे की आनुवंशिकी के एक विस्तृत अध्ययन में
ऐसे दुर्लभ जीन संस्करणों की पहचान की है जो वज़न बढ़ने से रोकते हैं।
आम तौर पर आनुवंशिकीविद ऐसे उत्परिवर्तनों की तलाश करते हैं जो किसी न किसी
बीमारी का कारण बनते हैं। लेकिन शरीर में ऐसे जीन संस्करण भी मौजूद होते हैं जो
स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं, और इन जीन संस्करणों को
पहचानना मुश्किल होता है क्योंकि इसके लिए बड़े पैमाने पर जीनोम अनुक्रमण करने की
ज़रूरत पड़ती है।
हर साल तकरीबन 28 लाख लोगों की मृत्यु अधिक वज़न या मोटापे की वजह से होती है।
मोटापा विभिन्न रोगों जैसे टाइप-2 मधुमेह, हृदय
रोग,
कुछ तरह के कैंसर और गंभीर कोविड-19 के जोखिम को बढ़ाता है।
आहार और व्यायाम वज़न कम करने में मदद कर सकते हैं, लेकिन
आनुवंशिकी भी इसे प्रभावित करती है। अत्यधिक मोटापे से ग्रसित लोगों पर हुए
अध्ययनों में कुछ आम जीन संस्करण पहचाने गए थे जो मोटापे की संभावना बढ़ाते हैं –
जैसे MC4R जीन की ‘खण्डित’ प्रति जो भूख
के नियमन से जुड़ी है। अन्य अध्ययनों में हज़ारों ऐसे जीन संस्करण पहचाने गए थे जो
स्वयं तो वज़न को बहुत प्रभावित नहीं करते, लेकिन
ये संयुक्त रूप से मोटापे की संभावना बढ़ाते हैं।
हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यूएस और यूके के 6,40,000 से अधिक लोगों के
जीनोम का अनुक्रमण किया। उन्होंने जीनोम के सिर्फ एक्सोम यानी उस हिस्से पर ध्यान
केंद्रित किया जो प्रोटीन्स के लिए कोड करता है। उन्होंने ऐसे जीन तलाशे जो
दुबलेपन या मोटापे से जुड़े थे। इस तरह उन्हें 16 जीन मिले। इनमें से पांच जीन कोशिका
की सतह के जी-प्रोटीन युग्मित ग्राही के कोड हैं। ये पांचों जीन मस्तिष्क के उस
हिस्से,
हायपोथैलेमस, में व्यक्त होते हैं जो भूख और
चयापचय को नियंत्रित करता है। इनमें से एक जीन (GPR75) में एक उत्परिवर्तन मोटापे को सबसे अधिक प्रभावित करता
है।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, इस उत्परिवर्तन वाले व्यक्तियों में वज़न बढ़ाने वाले जीन की एक प्रति निष्क्रिय
थी जिसकी वजह से उनके वज़न में औसतन 5.3 किलोग्राम की कमी आई थी और सक्रिय जीन वाले
लोगों की तुलना में इनके मोटे होने की संभावना आधी थी।
GPR75 जीन वज़न बढ़ने को किस तरह
प्रभावित करता है, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों
में इस जीन को निष्क्रिय किया और फिर उन्हें उच्च वसा वाला भोजन खिलाया।
अपरिवर्तित नियंत्रण समूह की तुलना में परिवर्तित चूहों का वज़न 44 प्रतिशत कम बढ़ा।
इसके अलावा उनमें रक्त शर्करा का बेहतर नियंत्रण था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक
संवेदनशील थे।
लेकिन GPR75 के ऐसे उत्परिवर्तन दुर्लभ
हैं जो जीन की एक प्रति को अक्रिय करते हैं – ऐसा 3,000 में से केवल एक ही व्यक्ति
में होता है। लेकिन चूहों पर किए गए प्रयोग से स्पष्ट है कि इसका प्रभाव काफी अधिक
होता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि मोटापा कम करने के लिए GPR75 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है; GPR75 ग्राहियों को निष्क्रिय करने वाले अणु मोटापे से जूझ रहे
लोगों की मदद कर सकते हैं।
शोध का यह तरीका अन्य बीमारियों जैसे टाइप-2 मधुमेह या अन्य चयापचय सम्बंधी विकारों के अध्ययन के लिए भी उपयोगी हो सकता है। लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर अनुक्रमण ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/scale_1280p_0.jpg?itok=wZlkk0Dv
पिछला एक वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा दौर रहा है। एक ओर तो
महामारी का दंश तथा दूसरी ओर लॉकडाउन के कारण मानसिक तनाव। साथ ही समस्त शिक्षण का
ऑनलाइन हो जाना। इस एक वर्ष में प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा एवं शोध
कार्य प्रभावित हुए हैं। पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम
कि स्कूल कैसा दिखता है।
लेकिन इस वर्ष मार्च में अमेरिका के कई क्षेत्रों में स्कूल दोबारा से शुरू
करने के विचार पर गरमागरम बहस छिड़ गई है। अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड
प्रिवेंशन (सीडीसी) ने वायरस संचरण को रोकने के सुरक्षात्मक प्रयासों के साथ स्कूल
दोबारा से खोलने का सुझाव दिया लेकिन इस घोषणा से अभिभावक, स्कूल
कर्मचारी और यहां तक कि वैज्ञानिक भी असंतुष्ट नज़र आए। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय
की संक्रामक रोग शोधकर्ता मोनिका गांधी ने स्कूल खोलने का पक्ष लिया तो उन्हें
काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन पर बच्चों की जान से खिलवाड़ करने जैसे आरोप
लगे।
जैसे-जैसे यह शैक्षिक सत्र समाप्त हो रहा है, कई
देशों में स्कूल प्रबंधन अपने पुराने अनुभव के आधार पर नए सत्र की तैयारी कर रहे
हैं। वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य महकमा उनका मार्गदर्शन करे। यूके में बच्चों ने
मार्च-अप्रैल में स्कूल जाना शुरू कर दिया। फ्रांस में तीसरी लहर के कारण कुछ समय
के लिए तो स्कूल बंद रहे लेकिन मई में दोबारा शुरू कर दिए गए। अमेरिका में भी जून
के अंत तक लगभग आधे से अधिक शाला संकुल खोल दिए गए थे और सभी स्कूलों में
प्रत्यक्ष शिक्षण शुरू कर दिया गया।
लेकिन सच तो यह है कि विश्व भर में 77 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अभी तक भी
पूर्णकालिक रूप से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। इसके अलावा 19 देशों के 15 करोड़
बच्चों के पास प्रत्यक्ष शिक्षण तक भी पहुंच नहीं है। ऐसे बच्चे या तो वर्चुअल ढंग
से पढ़ रहे हैं या फिर पढ़ाई से पूरी तरह कटे हुए हैं। ऐसी संभावना भी है कि यदि
स्कूल खुल भी जाते हैं तो कई बच्चे वापस स्कूल नहीं जा पाएंगे।
युनेस्को ने पिछले वर्ष अनुमान व्यक्त किया था कि महामारी के कारण लगभग 2.4
करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ देंगे। न्यूयॉर्क में युनिसेफ के शिक्षा प्रमुख रॉबर्ट
जेनकिंस का मत है कि स्कूल शिक्षण के अलावा भी बहुत सारी सेवाएं प्रदान करते हैं।
अत: स्कूल सबसे आखरी में बंद और सबसे पहले खुलना चाहिए। अजीब बात है कि कई देशों
में माता-पिता परिवार के साथ बाहर खाना खाने तो जा सकते हैं लेकिन उनके बच्चे स्कूल
नहीं जा पा रहे हैं।
हालांकि,
इस सम्बंध में काफी प्रमाण मौजूद हैं कि स्कूलों को सुरक्षित
रूप से खोला जा सकता है लेकिन यह बहस अभी भी जारी है कि स्कूल खोले जाएं या नहीं
और वायरस संचरण को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय अपनाए जाएं। संभावना है कि कई
देशों में सितंबर में नए सत्र में स्कूल शुरू होने पर यह बहस एक बार फिर शुरू हो
जाएगी।
जहां अमेरिका और अन्य सम्पन्न देशों में किशोरों और बच्चों को भी टीका लग चुका
है वहीं कम और मध्यम आय वाले देशों में टीकों तक पहुंच अभी भी सीमित ही है।
टीकाकरण के लिए इन देशों में बच्चों को अभी काफी इंतज़ार करना है। और वायरस के
नए-नए संस्करण चिंता का विषय बने रहेंगे।
पिछले वर्ष सार्स-कोव-2 के बारे में हमारी पास बहुत कम जानकारी थी और ऐसा माना
गया कि बीमारी का सबसे अधिक जोखिम बच्चों पर होगा इसलिए मार्च में सभी स्कूलों को
बंद कर दिया गया। लेकिन जल्द ही वैज्ञानिकों ने बताया कि बच्चों में गंभीर बीमारी
विकसित होने की संभावना कम है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या बच्चे भी संक्रमित
हो सकते हैं और क्या वे अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का
मानना था कि बच्चों को स्कूल भेजने से महामारी और अधिक फैल सकती है। लेकिन जल्दी
ही यह बहस वैज्ञानिक न रहकर राजनीतिक हो गई।
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जुलाई 2020 में सितंबर से
स्कूल शुरू करने की बात कही। वैज्ञानिक समुदाय स्कूल खोलने के पक्ष में था। ट्रम्प
के प्रति अविश्वास के चलते स्कूल दोबारा से शुरू करने की बात का समर्थन करना
मुश्किल हो गया। अन्य देशों में भी इस तरह की तकरार देखने को मिली। अप्रैल 2020
में डेनमार्क में प्राथमिक स्कूल शुरू करने पर अभिभावकों के विरोध का सामना करना
पड़ा। फ्रांस में अधिकांश स्कूल खुले रहे लेकिन नवंबर माह में विद्यार्थियों ने
विरोध किया कि कक्षाओं के अंदर कोविड-19 से सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किए जा
रहे हैं। कुछ ज़िलों में सामुदायिक प्रसार के कारण शिक्षक भी स्कूल से गैर-हाज़िर
रहे। इसी तरह बर्लिन में इस वर्ष जनवरी में आंशिक रूप से स्कूल खोलने की योजना को
अभिभावकों,
शिक्षकों और सरकारी अधिकारियों के विरोध के बाद रद्द कर
दिया गया।
इस बीच टीकाकारण में प्राथमिकता का भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा। मार्च-अप्रैल
में स्कूल खुलने के बाद भी अधिकांश शिक्षकों का टीकाकारण नहीं हुआ था। इस कारण
स्कूल शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों पर बीमार होने का जोखिम बना रहा और इसके चलते
कक्षा में शिक्षकों की अनुपस्थिति भी रही।
इसके अलावा,
शोधकर्ताओं ने दावा किया कि दूरस्थ शिक्षा से कई देशों के श्वेत
और अश्वेत विद्यार्थियों के बीच असमानताओं में वृद्धि होगी। सिर्फ यही नहीं इससे
विकलांग और भिन्न सक्षम बच्चों के पिछड़ने की भी आशंका है। महामारी से पहले भी यूएस
की शिक्षा प्रणाली अश्वेत लोगों को साथ लेकर चलने में विफल रही है।
अब महामारी को एक वर्ष से अधिक हो चुका है और शोधकर्ताओं के पास कोविड-19 और
उसके संचरण के बारे में काफी जानकारी है। हालांकि, कुछ
बच्चे और शिक्षक कोविड-19 से पीड़ित अवश्य हुए लेकिन स्कूलों का वातावरण ऐसा नहीं है
जहां व्यापक स्तर पर कोविड-19 के फैलने की संभावना हो। देखा गया है कि स्कूल में
संक्रमण की दर समुदाय में संक्रमण की तुलना में काफी कम हैं।
अमेरिका के स्कूलों में कोविड-19 पर कई व्यापक अध्ययन किए गए हैं। इनमें से
शरद ऋतु में उत्तरी कैरोलिना में 90,000 से अधिक विद्यार्थियों और शिक्षकों का
अध्ययन शामिल है। इस अध्ययन की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सामुदायिक संक्रमण दर के
आधार पर स्कूलों में लगभग 900 मामलों का अनुमान लगाया था लेकिन विश्लेषण करने पर
स्कूल-संचारित 32 मामले ही सामने आए। इन परिणामों के बाद भी अधिकांश स्कूल बंद
रहे। एक अन्य अध्ययन में विस्कॉन्सिन के ग्रामीण क्षेत्र के 17 स्कूलों का अध्ययन
किया गया। शरद ऋतु के 13 सप्ताह के दौरान जब संक्रमण काफी तेज़ी से फैल रहा था तब
स्कूल कर्मचारियों और विद्यार्थियों में कुल 191 मामलों का पता चला जिनमें से केवल
सात मामले स्कूल से उत्पन्न हुए थे। इसके अलावा नेब्राास्का में किए गए एक
अप्रकाशित अध्ययन में पता चला था कि साल भर संचालित 20,000 से अधिक छात्रों और
कर्मचारियों वाले स्कूल में पूरी अवधि के दौरान संचरण के केवल दो मामले ही सामने
आए।
हालांकि,
आलोचकों का कहना है कि इस अध्ययन में बिना लक्षण वाले
बच्चों की पहचान नहीं की गई थी, इसलिए वास्तविक संख्या अधिक हो
सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन आंकड़ों को यदि दुगना या तिगुना भी कर दिया
जाए तब भी स्कूल की संक्रमण दर सामुदायिक संक्रमण दर से काफी कम रहेगी। नॉर्वे के
एक स्कूल में 5 से 13 वर्ष की आयु के 13 संपुष्ट मामलों की पहचान के बाद उन बच्चों
के 300 निकटतम संपर्कों का भी परीक्षण किया गया। संपर्क में आए केवल 0.9 प्रतिशत
बच्चों में और 1.7 प्रतिशत वयस्कों में वायरस संक्रमण के मामले पाए गए।
साल्ट लेक सिटी में शोधकर्ताओं ने ऐसे 700 से अधिक विद्यार्थियों और स्कूल
कर्मचारियों का कोविड-19 परीक्षण किया जो 51 कोविड पॉज़िटिव विद्यार्थियों में से
किसी भी एक के संपर्क में आए थे। इनमें से केवल 12 मामले पॉज़िटिव पाए गए जिनमें से
केवल पांच मामले स्कूल से सम्बंधित थे। इससे पता चलता है कि वायरस से संक्रमित
विद्यार्थियों के माध्यम से स्कूल में संक्रमण नहीं फैला है। न्यूयॉर्क में किए गए
इसी तरह के अध्ययन में भी ऐसे परिणाम मिले।
हालांकि,
सुरक्षात्मक उपायों के अभाव में संचरण दर काफी अधिक हो सकती
है। जैसे इरुााइल में मई 2020 में स्कूल खोलने पर मात्र दो सप्ताह में ही एक
माध्यमिक शाला में बड़ा प्रकोप उभरा। यहां विद्यार्थियों में 13.2 प्रतिशत और स्कूल
कर्मचारियों एवं शिक्षकों में 16.6 प्रतिशत की संक्रमण दर दर्ज की गई। जून के मध्य
तक इन लोगों के निकटतम संपर्कों में 90 मामले देखने को मिले।
कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि स्कूल के बच्चे वायरस संक्रमण नहीं फैला
रहे हैं। फिर भी यह कहना तो उचित नहीं है कि बच्चों में किसी प्रकार का कोई जोखिम
नहीं है। इस रोग से कुछ बच्चों की मृत्यु भी हुई है। मार्च 2020 से फरवरी 2021 के
बीच सात देशों में कोविड-19 से सम्बंधित मौतों में 231 बच्चे शामिल थे। अमेरिका
में जून तक यह संख्या 471 थी। अध्ययनों में यह भी देखा गया कि संक्रमित बच्चों में
काफी लंबे समय तक लक्षण बने रहे। लिहाज़ा कुछ विशेषज्ञ बच्चों को इस वायरस के
प्रकोप से दूर रखने का ही सुझाव देते हैं।
लेकिन बच्चों का स्कूल से दूर रहना भी किसी जोखिम से कम नहीं है। बच्चों का
सामाजिक अलगाव और ऑनलाइन शिक्षण काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। कुछ हालिया अध्ययनों से
पता चला है कि दूरस्थ शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे अकादमिक रूप से पिछड़ रहे
हैं। स्कूल शिक्षा के अलावा भी बहुत कुछ प्रदान करता है। यह बच्चों को सुरक्षा
प्रदान करता है,
मुफ्त खाना और अपना दिन गुज़ारने के लिए एक सुरक्षित स्थान
देता है। स्कूल में आने वाले बच्चों पर घरेलू हिंसा या यौन शोषण के लक्षण भी
शिक्षक और स्कूल काउंसलर समझ जाते हैं और आवश्यक हस्तक्षेप भी कर पाते हैं।
कामकाजी अविभावकों के लिए स्कूल बंद होना किसी आपदा से कम नहीं है। ऐसे में उनको
अपनी ज़िम्मेदारियां निभाना काफी मुश्किल हो गया है। ऐसी परिस्थिति में भी स्कूल का
खुलना काफी ज़रूरी हो गया है।
गौरतलब है कि जिन देशों में टीकाकारण कार्यक्रम तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं वहां
कुछ प्रतिबंधों और सुरक्षात्मक उपायों के साथ स्कूल खुलने की संभावना है। हालांकि, वायरस के नए संस्करणों से काफी अनिश्चितता बनी हुई है। डेल्टा संस्करण अल्फा
संस्करण की तुलना में 40 से 60 प्रतिशत अधिक संक्रामक बताया जा रहा है। यूके में
इस संस्करण के मामले काफी तेज़ी से बढ़े हैं। इसमें चिंताजनक बात यह है कि पांच से
12 वर्ष के बच्चों में इसका प्रभाव अधिक पाया गया है।
स्कूलों में वायरस के अधिक संक्रामक संस्करणों के प्रसार को रोकने के लिए
मास्क पहनने और बेहतर वेंटिलेशन जैसे तरीके अपनाए जा सकते हैं। अलबत्ता, इन सुरक्षात्मक उपायों को लेकर असमंजस की स्थिति है। जैसे, पहले सीडीसी ने स्कूलों में छह फुट की दूरी रखने की सलाह दी थी लेकिन मार्च
में कुछ अध्ययनों के आधार पर इसे आधा कर दिया गया। यूके में केवल यथासंभव दूरी
बनाए रखने के दिशानिर्देश जारी किए गए। देखा जाए तो वसंत ऋतु में विस्कॉन्सिन के
स्कूलों में कक्षा में तीन फुट से भी कम दूरी पर बच्चों को बैठाया गया। इसके बाद
भी परीक्षण में केवल दो ही मामले सामने आए।
बंद जगहों में मास्क के उपयोग को लेकर भी दुविधा है। मार्च में इंग्लैंड में
स्कूल खुलने पर सिर्फ माध्यमिक शाला के विद्यार्थियों को मास्क पहनना आवश्यक था
लेकिन यूके डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन ने 17 मई को बच्चों तथा शिक्षकों और स्कूल
कर्मचारियों को मास्क न लगाने का सुझाव दिया। फिर जिन स्कूलों में मामले बढ़ने लगे
वहां एक बार फिर मास्क का उपयोग करने की घोषणा की गई। इसी तरह अमेरिका के अलग-अलग
ज़िलों तथा राज्यों में भी मास्क के उपयोग को लेकर विभिन्न निर्णय लिए गए। मई में
सीडीसी ने मास्क के उपयोग में बदलाव करते हुए बताया कि टीकाकृत लोगों को मास्क का
उपयोग करने की ज़रूरत नहीं है।
फिर भी कुछ विशेषज्ञों का मत है कि एहतियात के तौर पर मास्क का उपयोग किया
जाना चाहिए। क्योंकि अमेरिका में बिना टीकाकृत लोगों में अभी भी संक्रमण का जोखिम
काफी अधिक है और बच्चों का अभी तक टीकाकरण नहीं हो पाया है। इसलिए अभी भी सावधानी
बरतना आवश्यक है। कुछ विशेषज्ञों को उम्मीद है कि स्कूलों का बंद होना स्कूल प्रणाली
की पुन: रचना करने का मौका देगा। इस महामारी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की व्यापक
खामियों को उजागर किया है।
युनिसेफ के जेनकिंस के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन को रचनात्मक तरीके सीखने व अपनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार से वे प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए वर्चुअल शिक्षण प्रदान कर सकते हैं, सवाल छुड़ाने जैसे महत्वपूर्ण कौशल को कैसे पढ़ाएंगे, शिक्षण के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक-भावनात्मक विकास को कैसे सम्बोधित करेंगे। देखा जाए तो हमें कुछ बदलाव लाने का मौका मिला है। इस अवसर से फायदा न उठा पाना हमारे लिए काफी शर्म की बात होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.npr.org/assets/img/2020/07/31/schoolreopening-promo_wide-e6eec4f6547cf3793ae8536e89b49771770a61bc-s800-c85.jpg
हर वर्ष मलेरिया से लगभग चार लाख लोगों की मौत होती है।
दवाइयों तथा कीटनाशक युक्त मच्छरदानी वगैरह से मलेरिया पर नियंत्रण में मदद मिली
है लेकिन टीका मलेरिया नियंत्रण में मील का पत्थर साबित हो सकता है। मलेरिया के एक
प्रायोगिक टीके के शुरुआती चरण में आशाजनक परिणाम मिले हैं।
नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस टीके में जीवित मलेरिया
परजीवी (प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम) का उपयोग किया गया है। टीके के साथ ऐसी
दवाइयां भी दी गई थीं जो लीवर या रक्तप्रवाह में पहुंचने वाले परजीवियों को खत्म
करती हैं। टीकाकरण के तीन माह बाद प्रतिभागियों को मलेरिया से संक्रमित किया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि टीके में प्रयुक्त संस्करण से लगभग 87.5 प्रतिशत लोगों को
सुरक्षा प्राप्त हुई जबकि अन्य संस्करणों से 77.5 प्रतिशत लोगों को सुरक्षा मिली।
जीवित परजीवी पर आधारित टीकों में इसे महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है।
वर्तमान में कई मलेरिया टीके विकसित किए जा रहे हैं। इनमें से सबसे विकसित RTS,S टीका है जिसकी प्रभाविता और
सुरक्षा का पता लगाने के लिए तीन अफ्रीकी देशों में पायलट कार्यक्रम के तहत 6.5
लाख से अधिक बच्चों को टीका दिया जा चुका है। इसके अलावा R21 नामक एक अन्य टीके का हाल ही में 450 छोटे बच्चों पर
परीक्षण किया गया जिसमें 77 प्रतिशत प्रभाविता दर्ज की गई। एक व्यापक अध्ययन जारी
है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को ट्रिगर करने के लिए इन दोनों ही टीको
में एक ही मलेरिया प्रोटीन, सर्कमस्पोरोज़ॉइट प्रोटीन, का उपयोग किया गया है। यह प्रोटीन परजीवी की स्पोरोज़ॉइट अवस्था के बाह्य आवरण
पर पाया जाता है। मच्छरों से मानव शरीर में यही अवस्था प्रवेश करती है।
पिछले कई दशकों से टीका निर्माण के लिए संपूर्ण स्पोरोज़ॉइट्स का उपयोग करने के
तरीकों की खोज चल रही है। संपूर्ण परजीवी के उपयोग से प्रतिरक्षा प्रणाली को कई
लक्ष्य मिल जाते हैं। वायरसों के मामले में यह रणनीति कारगर रही है लेकिन मलेरिया
के संदर्भ में सफलता सीमित रही है। एक अध्ययन में देखा गया कि दुर्बलीकृत
स्पोरोज़ॉइट्स टीके के बाद व्यक्ति को परजीवी के अलग संस्करण से संक्रमित करने पर
मात्र 20 प्रतिशत सुरक्षा मिली।
कई वैज्ञानिकों का तर्क था कि जीवित परजीवी शरीर में खुद की प्रतिलिपियां
बनाएगा और इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक प्रोटीन पैदा करेगा, इसलिए प्रतिरक्षा भी अधिक उत्पन्न होनी चाहिए। इस संदर्भ में प्रयास जारी
हैं।
नए टीके में शोधकर्ताओं ने 42 लोगों में जीवित स्पोरोज़ॉइट्स इंजेक्ट किए। साथ
ही उन्हें दवाइयां भी दी गर्इं ताकि परजीवी को लीवर या रक्त में बीमारी पैदा करने
से रोका जा सके। यह तरीका काफी प्रभावी पाया गया और परजीवी के दक्षिण अमेरिका में
पाए जाने वाले एक अन्य संस्करण के विरुद्ध भी प्रभावी साबित हुआ। फिलहाल माली में
वयस्कों पर परीक्षण किया जा रहा है।
आशाजनक परिणाम के बावजूद बड़े पैमाने पर स्पोरोज़ॉइट टीकों का उत्पादन सबसे बड़ी
चुनौती है। स्पोरोज़ॉइट्स को मच्छरों की लार ग्रंथियों से प्राप्त करना और उनको
अत्यधिक कम तापमान पर रखना आवश्यक है जो वितरण में एक बड़ी बाधा है। पूर्व में इतने
बड़े स्तर पर मच्छरों का उपयोग करके कोई भी टीका नहीं बनाया गया है।
लेकिन मैरीलैंड स्थित एक जैव प्रौद्योगिकी कंपनी सनारिया स्पोरोज़ॉइट्स का उत्पादन मच्छरों के बिना करने के प्रयास कर रही है। कंपनी का प्रयास है कि जीन संपादन तकनीकों की मदद से मलेरिया परजीवी को जेनेटिक स्तर पर कमज़ोर किया जा सके ताकि टीके के साथ दवाइयां न देनी पड़ें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-01806-1/d41586-021-01806-1_19314502.jp
कोरोनावायरस का डेल्टा संस्करण
सबसे पहले दिसंबर 2020 में महाराष्ट्र में
देखे जाने के बाद कुछ ही महीनों में दिल्ली में इसके विनाशकारी परिणाम देखने को मिले
और अप्रैल के अंत तक इसके प्रतिदिन लगभग 30,000 मामले दर्ज हुए। इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव
बायोलॉजी के प्रमुख अनुराग अग्रवाल के अनुसार यह संस्करण काफी प्रभावी रहा जिसने अल्फा
संस्करण को बाहर कर दिया है।
वैसे दिल्ली में अधिकांश लोगों
के पहले से संक्रमित होने या टीकाकरण हो जाने के चलते बड़े प्रकोप की संभावना नहीं थी
लेकिन डेल्टा संस्करण की अधिक संक्रामकता और प्रतिरक्षा से बच निकलने की क्षमता के
कारण ये सुरक्षा अप्रभावी प्रतीत हुई। यह संस्करण दिल्ली से निकलकर अन्य देशों में
भी काफी तेज़ी से फैल गया और एक नई लहर के जोखिम को बढ़ा दिया।
यूके में 90 प्रतिशत मामलों में डेल्टा संस्करण पाया गया है।
इस कारण एक बार फिर कोविड-19 के मामलों में वृद्धि
हुई है जिसके चलते विभिन्न देशों में सुरक्षा के उपाय बढ़ा दिए गए। यह चेतावनी दी गई
है कि अगस्त के अंत तक युरोपीय यूनियन के कुल मामलों में 90 प्रतिशत डेल्टा संस्करण के होंगे। इसे ‘चिंताजनक संस्करण’ की
श्रेणी में रखा गया है।
संभावना है कि गर्मियों के
मौसम में यह अत्यधिक फैलेगा और विशेष रूप से उन युवाओं को लक्षित करेगा जिनका टीकाकरण
नहीं हुआ है। ऐसे हालात में गैर-टीकाकृत लोगों के लिए यह जानलेवा भी हो सकता है। ऐसे
में इसके प्रभाव, उत्परिवर्तन के पैटर्न
जैसे पहलुओं को समझना आवश्यक है।
इसमें सबसे पहले बात आती है
टीकों की। इंग्लैंड और स्कॉटलैंड से प्राप्त डैटा से संकेत मिलते हैं कि फाइज़र-बायोएनटेक
और एस्ट्राज़ेनेका टीके अल्फा संस्करण की तुलना में इस नए संस्करण के प्रति थोड़ी कम
सुरक्षा प्रदान करते हैं। लेकिन कोविड-19 के बारे में बहुत कम जानकारी के कारण वि·ा भर में उपयोग किए जाने वाले अन्य टीकों द्वारा
सुरक्षा प्रदान करने के संदर्भ में कोई स्पष्टता नहीं है।
डेल्टा संस्करण के संदर्भ
में दो बातों, अधिक संक्रामकता और
प्रतिरक्षा को चकमा देने, को महत्वपूर्ण माना
जा रहा है। माना जा रहा है कि डेल्टा संस्करण मूल संस्करण के मुकाबले दुगनी रफ्तार
से फैल सकता है।
इसके साथ ही, अल्फा संस्करण की तुलना में डेल्टा संस्करण से बिना
टीकाकृत लोगों के अस्पताल में पहुंचने की संभावना ज़्यादा है। अस्पताल में भर्ती होने
का जोखिम दुगना तक हो सकता है।
वैज्ञानिक डेल्टा संस्करण
की घातकता को समझने का प्रयास कर रहे हैं। वे वायरस की सतह के स्पाइक प्रोटीन (जो वायरस
को मानव कोशिका से जुड़ने में मदद करता है) के जीन में नौ उत्परिवर्तनों के सेट पर अध्ययन
कर रहे हैं। ऐसा एक उत्परिवर्तन P681R है जो ऐसे स्थान पर एमिनो एसिड में बदलाव करता
है जो वायरस के कोशिका-प्रवेश की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण चरण है। अल्फा संस्करण
के उत्परिवर्तन ने इसे अधिक कुशल बनाया था जबकि डेल्टा संस्करण में यह और सुगम हो गया
है। यानी ये परिवर्तन वायरस को अधिक संक्रामक बनाते हैं।
वैसे जापानी शोधकर्ताओं द्वारा
प्रयोगशाला में बनाए गए कूट-वायरस में किए गए ऐसे ही उत्परिवर्तनों से संक्रामकता में
कोई वृद्धि नहीं हुई। भारत में भी समान उत्परिवर्तनों वाले अन्य कोरोनावायरस डेल्टा
जैसे सफल साबित नहीं हुए। लगता है कि इसके जीनोम में कुछ अन्य परिवर्तन भी हो रहे हैं।
कुछ वैज्ञानिक यह समझने की
कोशिश कर रहे हैं कि डेल्टा संस्करण प्रतिरक्षा को चकमा कैसे देता है। सेल में प्रकाशित
एक पेपर में एक स्पॉट को ‘सुपरसाइट’ के रूप में पहचाना गया है। बीमारी से स्वस्थ हो
चुके लोगों में अति-प्रबल एंटीबॉडी इसी सुपरसाइट को लक्षित करती हैं। डेल्टा के विशिष्ट
उत्परिवर्तनों के चलते एंटीबॉडी को वायरस से जुड़ने के लिए सीधा रास्ता समाप्त हो जाता
है। कई एक अन्य उत्परिवर्तन भी एंटीबॉडीज़ को
चकमा देने में मदद करते हैं। इसे समझने के लिए डेल्टा संस्करण के स्पाइक प्रोटीन में
परिवर्तनों की और गहराई से जांच करना होगी।
वैज्ञानिकों का मत है कि नए
संस्करण को तेज़ी से फैलने से रोकने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम ज़रूरी हैं। टीकाकरण के
प्रयासों में तेज़ी लाने की आवश्यकता है, विशेष रूप से ऐसे क्षेत्रों में जहां डेल्टा संस्करण के मामलों में तेज़ी से वृद्धि
हो रही है। इसके साथ ही कोविड-19 से बचने के लिए आवश्यक
सावधानियां जारी रखना भी ज़रूरी है।
ऐसे प्रयासों से जानें तो बचेंगी ही बल्कि वायरस को और अधिक विकसित होने से भी रोका जा सकेगा। उत्परिवर्तन के माध्यम से वायरस ज़्यादा संक्रामक और घातक हो सकता है, इसलिए यदि इसे फैलने का मौका मिला तो भविष्य में और ज़्यादा खतरनाक वायरस सामने आ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.dnaindia.com/sites/default/files/styles/full/public/2021/06/17/980048-covid-protocol-ians.jpg
यह गहरी चिंता का विषय है कि भारत में मुंह का कैंसर तेज़ी से बढ़ रहा है। वैश्विक कैंसर वेधशाला (ग्लोबो-कैन) के अनुसार वर्ष 2012-18 के बीच ही इसके मामलों में 114 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भारत व उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान व बांग्लादेश अब विश्व स्तर पर मुंह के कैंसर के सबसे बड़े केंद्र माने जाते हैं। भारत में पुरुषों को होने वाले कैंसर में 11 प्रतिशत मामले मुंह के कैंसर के हैं जबकि महिलाओं को होने वाले कैंसर में मुंह के कैंसर 4 प्रतिशत से कुछ अधिक हैं। एक अध्ययन के अनुसार बांग्लादेश में प्रति वर्ष कैंसर के कुल नए मामलों में से 20 प्रतिशत मुंह के कैंसर के होते हैं। पाकिस्तान में भी ऐसी ही स्थिति है। यह गंभीर चिंता का विषय है कि दक्षिण एशिया में यह कैंसर इतना क्यों बढ़ गया है, और बढ़ रहा है।
टाटा मेमोरियल सेंटर के हाल
के अध्ययन के अनुसार मुंह के कैंसर के इलाज पर वर्ष 2020 में भारत में 2386 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इससे पता चलता है कि यह इलाज कितना महंगा पड़ रहा है। इसके
ठीक होने की अधिक संभावना आरंभ में ही होती है, पर प्राय: दक्षिण एशिया में इसका निदान व इलाज बाद के चरणों
में होता है। इसका कारण यह है कि अपेक्षाकृत निर्धन लोग इससे अधिक प्रभावित होते हैं।
स्पष्ट है कि बचाव पर ही अधिक
ध्यान देना बेहतर है क्योंकि बचाव के उपायों को भलीभांति अपना कर मुंह के कैंसर के
खतरे को काफी कम किया जा सकता है। इस रोग के बढ़ने के मुख्य कारणों की पहचान करके कमी
लाने का प्रयास करना चाहिए।
इस रोग का सबसे बड़ा कारण विभिन्न
रूपों में तंबाकू का उपयोग है, जैसे सिगरेट,
बीड़ी, गुटखा, आदि। मुंह के कैंसर के 80 प्रतिशत मामलों में तंबाकू की कुछ न कुछ भूमिका
होती है, हालांकि बहुत से मामलों में
साथ में अन्य कारक भी होते हैं। भारत में तंबाकू का उपयोग (या दुरुपयोग) करने वाले
60 प्रतिशत लोग धूम्र रहित तंबाकू
(पावडर या किसी सूखे रूप में) का उपयोग करते हैं। गुटखे का उपयोग बहुत तेज़ी से बढ़ा
है तथा दक्षिण एशिया में मुंह के कैंसर में गुटखे की मुख्य भूमिका है।
गुटखे में तंबाकू के अलावा
कई अन्य पदार्थ होते हैं। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों पर एक अदालत द्वारा केंद्रीय
समिति से जांच करवाई गई थी। समिति ने इसके स्वास्थ्य गंभीर संकटों के मद्दे नज़र इस
पर प्रतिबंध की संस्तुति की। कुछ राज्य सरकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिबंध लगाए,
पर यह करोड़ों का व्यवसाय बन चुका है। अत: इसमें
कठिनाई आई व बिक्री जारी रखने के रास्ते निकाल लिए गए। एक रास्ता यह था कि तंबाकू व
अन्य पदार्थों को अलग-अलग पाउचों में बेचा जाए।
गुटखे में तंबाकू,
प्रोसेस्ड चूना, कत्था, सुपारी, मिठास-ताज़गी-सुगंध के पदार्थ होते हैं। तीखापन बढ़ाने
के लिए अनेक हानिकारक पदार्थों के होने के आरोप लगते रहे हैं। प्रतिदिन करोड़ों की संख्या
में इसके पाउच इधर-उधर फेंके जाने, इसे थूकने से गंदगी
व स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं। गुटखे को देर तक मुंह में रखने, चूसते रहने की आदत कई लोगों पर इतनी हावी हो जाती
है कि वे दिन की शुरुआत तक इससे करते हैं।
मुंह के कैंसर के अतिरिक्त
गुटखे से अनेक दर्दनाक स्थितियां व स्वास्थ्य समस्याएं भी जुड़ी हैं। जैसे ओरल सबम्यूकस
फायब्राोेसिस। इस स्थिति में मुंह खोलने की क्षमता निरंतर कम होती जाती है व अंत में
ऐसी स्थिति आ सकती है कि कुछ पीने के लिए मात्र एक नली ही कठिनाई से मुंह में डाली
जा सकती है।
तंबाकू के अतिरिक्त मुंह के
कैंसर की एक बड़ी वजह शराब का सेवन है। बहुत लंबे समय तक धूप में रहना भी होंठ के कैंसर
का कारण बन सकता है। मुख की स्वच्छता की कमी भी कैंसर का कारण बन सकती है, विशेषकर उन वृद्धों में जो लगभग 15 वर्ष से बत्तीसी उपयोग कर रहे हैं। पांचवा कारण
एच.पी.वी.-16 (एक यौन संचारित वायरस)
है। अंतिम कारण है सब्ज़ी व फल कम खाना तथा जंक फूड अधिक मात्रा में खाना।
इन सभी कारकों को कम करने के प्रयासों से मुख कैंसर में कमी आएगी। अलबत्ता, सबसे अधिक भूमिका तंबाकू, गुटखे व शराब को कम करने की है। यह ऐसी राह है जिससे अनेक अन्य समस्याएं भी कम होंगी। अत: इस बचाव की राह को जन अभियान का रूप देते हुए मुख कैंसर में कमी लाने की ओर बढ़ना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व आबादी के बुढ़ाने की दर में तेज़ी से बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप
वर्ष 2019 में विश्व की लगभग 9.1 प्रतिशत आबादी (70.3 करोड़ लोग) 65 वर्ष या उससे
अधिक उम्र की थी। और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक यह संख्या बढ़कर डेढ़ अरब (आबादी का
15.3 प्रतिशत) हो जाएगी। जैसे-जैसे आबादी की औसत उम्र बढ़ रही है, दृष्टि सम्बंधी विकारों का दबाव भी बढ़ रहा है। इन विकारों को टाला जा सकता है
यदि अंधेपन या मध्यम से लेकर गंभीर दृष्टि दोष के कुछ आम कारण – जैसे मोतियाबिंद, निकट या दूर दृष्टि दोष, ग्लूकोमा (कांचबिंदु) और
मधुमेहजनित रेटिनोपैथी – को प्रारंभिक अवस्था में पहचानने और उपचार करने का तंत्र
मौजूद हो। नेत्र रोगों से बचाव और उन्हें बहाल करने के लिए उपचार मुहैया कराना
बहुत ही नेक कार्य होगा। वास्तव में, विश्व के कई देश इस दिशा
में जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं, वे बड़ी मुस्तैदी के साथ दृष्टि
को बहाल करने में जुटे हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि यह कितना बड़ा कार्य है।
फरवरी 2021 में लैंसेट में नेत्र रोग के वैश्विक बोझ पर प्रकाशित एक
बड़े अध्ययन में पिछले 30 सालों के आंकड़े बताते हैं कि भले ही इस दौरान अंधेपन की
समस्या को कम करने के प्रयासों में काफी प्रगति हुई है, लेकिन
अब भी इस दिशा में काफी काम करने की ज़रूरत है। लक्ष्य अभी दूर है, और अलग-अलग देशों की स्थिति में काफी भिन्नता है।
वर्तमान में पूरे विश्व में 50 वर्ष से अधिक उम्र के 1.5 करोड़ से अधिक लोग
मोतियाबिंद से ग्रसित हैं। इसके अलावा लगभग साढ़े आठ करोड़ लोग लेंस सम्बंधी विकारों
से पीड़ित हैं,
जिनका उपचार उचित चश्मा पहनाकर किया जा सकता है। यह आवश्यक
है कि अधिक से अधिक देश अपने क्षेत्र में इन समस्याओं को दूर करने के प्रयास करें
ताकि अनावश्यक ही अंधेपन का शिकार हो रहे लोगों की संख्या में कमी आए और अधिक से
अधिक लोग 20-20 दृष्टि का आनंद ले सकें।
प्रायद्वीपीय भारत (जिसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र का पूर्वी
हिस्सा,
तेलंगाना, तमिलनाडु, पुडुचेरी,
आंध्र प्रदेश और ओडिशा आते हैं) की आबादी लगभग 36 करोड़ है।
इनमें से लगभग 13 लाख लोग नेत्रहीन हैं, और 76 लाख लोग
इलाज-योग्य नेत्र समस्याओं, जैसे मोतियाबिंद और कमज़ोर नज़र, से पीड़ित हैं। यदि हम विभिन्न तरीकों से (या स्तरों पर) उपचार मुहैया करवाकर
अनावश्यक अंधापन कम करने के लिए एक कारगर प्रणाली स्थापित कर पाएं तो यह अंधेपन के
भार को कम करने की दिशा में बड़ी प्रगति होगी।
दरअसल,
प्रायद्वीपीय भारत में तीन उल्लेखनीय केंद्र हैं – मदुरै
स्थित अरविंद आई केयर सिस्टम, चेन्नई (और बैंगलुरु) स्थित
शंकर नेत्रालय और हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान। पहले दो केंद्र
शहर और उसके उपनगरों में नेत्रहीन लोगों का उपचार (देखभाल) करते हैं, और अरविंद आई केयर सिस्टम तमिलनाडु के कई ज़िलों में चलित सुविधाओं के माध्यम से
देखभाल और ज़रूरतमंदों के लिए मुफ्त इलाज मुहैया कराता है। इसी तरह शंकर नेत्रालय
भी चेन्नई व उसके उपनगरों में और बैंगलुरू व उसके उपनगरों में चलित सुविधा के
माध्यम से उपचार और ज़रूरतमंद गरीबों को मुफ्त उपचार देता हैं। एल. वी. प्रसाद
नेत्र संस्थान ने समूचे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा राज्यों
(और महाराष्ट्र के नांदेड़) के लिए ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड प्रणाली
(स्तरित प्रणाली) स्थापित की है। इस पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर 208 से अधिक
ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण ‘दृष्टि केंद्र’ स्थापित किए गए हैं। इनमें से
प्रत्येक केंद्र लगभग 500-500 स्थानीय लोगों की मुफ्त नेत्र देखभाल कर रहे हैं।
जैसे चश्मा उपलब्ध करवाकर, मोतियाबिंद उपचार के लिए
नज़दीकी रोग विशेषज्ञ से उपचार कराने की सलाह देकर वगैरह। समुदायों से संपर्क की
महत्वपूर्ण कड़ी ‘दृष्टि रक्षकों’ की एक बड़ी फौज है। इन्हें अपने क्षेत्रों में
लोगों के साथ जुड़ने और उनके साथ नेत्र स्वास्थ्य और देखभाल पर बात करने के लिए
प्रशिक्षित किया गया है।
पिरामिड के दूसरे स्तर पर, 21 ग्रामीण नेत्र देखभाल
चिकित्सालय खोले गए हैं जो ज़िला स्तर पर लोगों की देखभाल या उपचार करते हैं। तीसरे
स्तर पर तीन केंद्र स्थापित किए गए हैं (हरेक की अपनी शाखाएं हैं)। ये केंद्र इलाज
के नियमित कार्यों के अलावा नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान भी करते हैं।
और पिरामिड के शीर्ष पर हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान है जो
विभिन्न स्तरों पर किए जा रहे कार्यों पर लगातार (चौबीसों घंटे) निगरानी रखता है, और ज़रूरत पड़ने पर उनमें सुधार करता है।
सबसे अधिक सराहनीय यह है स्थानीय व्यापारी और अन्य सभी स्तरों पर मौजूद
सेवाभावी लोग ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड के कार्यों में मदद के लिए तत्पर
हैं – ग्रामीण स्तर (पिरामिड के सबसे निचले स्तर) पर लगभग 1000 लोग और ज़िला स्तर
के द्वितीयक केंद्रों पर लगभग दर्जन भर लोग कार्य कर रहे हैं। ये स्थानीय स्तर के
गेट्स या टाटा फाउंडेशन हैं, हम उनके इस परोपकार के तहेदिल
से आभारी हैं।
भारत के अन्य नेत्र विज्ञान केंद्रों की क्या स्थिति है? मुंबई स्थित आदित्य ज्योत केंद्र मुंबई, खास कर धारावी (जहां दो वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक लाख लोग रहते हैं) में सेवा देता है। प्रोजेक्ट प्रकाश दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, अहमदाबाद, हरियाणा और अन्य जगहों पर कार्य कर रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे पिरामिड मॉडल का विश्लेषण कर रहे हैं, उसे बेहतर बना रहे हैं। और स्थानीय भौगोलिक व जनांकिक स्थितियों के आधार पर इसमें बदलाव कर इसे लागू करेंगे। हम उनका स्वागत करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करते हैं। दरअसल, हमें समूचे भारत में अधिकाधिक पिरामिडों की ज़रूरत है ताकि देश में कोई भी अनावश्यक ही अंधा न हो; पूरा भारत 20-20 दृष्टि का आनंद ले! (स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 संक्रमण से उबरने के बाद कई लोग लंबे समय तक तमाम
लक्षणों से जूझ रहे हैं। इसे दीर्घ कोविड कहा जाने लगा है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन
की तंत्रिका वैज्ञानिक एथेना अक्रामी ने 3,500 से अधिक लोगों पर किए अध्ययन में
दीर्घ कोविड के 205 लक्षण पाए हैं। इनमें थकान, सूखी
खांसी,
सांस में तकलीफ, सिरदर्द और मांसपेशीय
दर्द वगैरह शामिल हैं। थकान, काम के बाद अस्वस्थता और
संज्ञानात्मक विकार जैसे लक्षण छह महीने तक बने रहे। वैसे लक्षणों की तीव्रता
लगातार एक जैसी नहीं रहती, लोग बीच-बीच में थोड़ा बेहतर
महसूस करते हैं।
महामारी की शुरुआत में गंभीर मामलों से निपटने की प्राथमिकता में दीर्घ कोविड
की अनदेखी हुई। लेकिन मई 2020 में, पीड़ितों का एक फेसबुक ग्रुप
बना जिसमें वर्तमान में 40,000 से अधिक लोग जुड़े हैं।
अब दीर्घ कोविड सार्वजनिक-स्वास्थ्य समस्या के रूप में पहचाना जा चुका है।
जनवरी में WHO ने कोविड-19 उपचार के
दिशानिर्देशों में जोड़ा है कि दीर्घ कोविड के मद्देनज़र कोविड-19 के रोगियों की
संक्रमण उपरांत देखभाल तक पहुंच होनी चाहिए।
कई फंडिंग एजेंसियां भी दीर्घ कोविड के विभिन्न अध्ययनों को वित्तीय समर्थन
देने के लिए आगे आई हैं। यूके बायोबैंक ने स्व-परीक्षण किट उपलब्ध कराने की योजना
बनाई है ताकि कोविड-19 से संक्रमितों की पहचान की जा सके और उन्हें अध्ययनों में
शामिल किया जा सके।
दीर्घ कोविड से सम्बंधित चार बड़े सवालों पर नेचर पत्रिका ने प्रकाश
डालने की कोशिश की है।
दीर्घ कोविड कितने लोगों में होता है, कौन अधिक जोखिम में है?
फिलहाल पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह कुछ ही लोगों को क्यों होता है
और अधिक जोखिम किसे है। अधिकांश शुरुआती अध्ययन उन लोगों पर ही हुए थे जो गंभीर
कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती हुए थे। कोलंबिया युनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल
सेंटर की कार्डियोलॉजिस्ट अनी नलबंडियन और उनके साथियों ने नौ अध्ययनों के आधार पर
पाया कि कोविड-19 से उबरने के बाद 32.6 से 87.4 प्रतिशत रोगियों में कम से कम एक
लक्षण कई महीनों तक बना रहता है।
लेकिन वास्तव में कोविड-19 से संक्रमित अधिकांश लोग इतने बीमार नहीं पड़ते कि
उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़े। ऐसे लोग अध्ययनों से छूट जाते हैं। इसलिए यूके
के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (ONS) ने अप्रैल 2020 के बाद से कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए 20,000 से अधिक लोगों पर
नज़र रखी। ONS ने पाया कि उबरने के 12 हफ्ते
बाद भी 13.7 प्रतिशत लोगों ने कम से कम एक लक्षण अनुभव किया। आम तौर पर संक्रमण
मुक्त होने के बाद 4 हफ्ते से अधिक समय तक लक्षण बने रहते हैं तो इसे दीर्घ कोविड
कहा जाता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह स्थिति अधिक दिखती है – 23
प्रतिशत महिलाओं और 19 प्रतिशत पुरुषों में संक्रमण के पांच सप्ताह बाद भी लक्षण
मौजूद थे।
इसके अलावा अधेड़ लोगों में भी इसका जोखिम अधिक है। ONS के अनुसार, 35 से 49 वर्ष की आयु के 25.6
प्रतिशत लोगों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण बरकरार थे। युवाओं व वृद्ध लोगों में
ये कम दिखे। हालांकि अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि बुज़ुर्गों में दीर्घ कोविड कम
दिखने की एक वजह यह हो सकती है कि अधिकतर संक्रमित बुज़ुर्गों की मृत्यु हो जाती
है। 2-11 वर्ष के लगभग 10 प्रतिशत संक्रमित बच्चों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण
दिखे हैं।
अभी तक की समझ के आधार पर, अधिक जोखिम में कौन है इसका
पूर्वानुमान करने में उम्र, लिंग और संक्रमण के पहले
सप्ताह में लक्षणों की गंभीरता महत्वपूर्ण लगते हैं।
लेकिन कई अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। खासकर यह स्पष्ट नहीं है कि दीर्घ कोविड
से महज 10 प्रतिशत लोग ही क्यों प्रभावित होते हैं? लेकिन
यदि मात्र 10 प्रतिशत लोग भी प्रभावित होते हैं, तो भी
यह आंकड़ा लाखों में होगा।
दीर्घ कोविड क्यों होता है?
वैसे तो दीर्घ कोविड के विविध लक्षणों पर विस्तृत अध्ययन किए जा रहे हैं, लेकिन यह होता क्यों है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं चला है। देखा गया है कि
दीर्घ कोविड कई अंगों को प्रभावित करता है, इससे
लगता है कि यह बहु-तंत्रीय विकार है।
अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ हफ्तों बाद यह वायरस शरीर से लगभग खत्म हो
जाता है इसलिए यह संभावना तो कम है कि संक्रमण ही इतना लंबा चल रहा है। लेकिन
वायरस के अवशेष (जैसे प्रोटीन अणु) ज़रूर महीनों तक शरीर में बने रह सकते हैं। भले
ही ये अवशेष कोशिकाओं को संक्रमित न करें, लेकिन
हो सकता है कि वे शरीर के कामकाज में कुछ बाधा डालते हों।
इसके अलावा एक संभावना यह है कि दीर्घ कोविड प्रतिरक्षा प्रणाली के अति सक्रिय
होने और शरीर के बाकी हिस्सों पर हमला करने की वजह से होता है। यानी दीर्घ कोविड
एक ऑटोइम्यून बीमारी हो सकती है। अलबत्ता, यह
कहना जल्दबाज़ी होगी कि इनमें से कौन-सी परिकल्पना सही है। यह भी हो सकता है कि
अलग-अलग लोगों के लिए कारण अलग-अलग हों।
इसके कारण को बेहतर समझने के लिए पोस्ट हॉस्पिटलाइज़ेशन कोविड-19 स्टडी (PHOSP-COVID) के तहत यूके के 1000 से अधिक
रोगियों के रक्त के नमूनों में शोथ, हृदय सम्बंधी समस्याओं और अन्य
परिवर्तनों का पता लगाया जा रहा है। इसके अलावा, शोधकर्ताओं
के एक दल ने कोविड-19 से पीड़ित 300 लोगों के हर चार महीने के अंतराल पर रक्त और
लार के नमूने लेकर उनमें शोथ, रक्त का थक्का बनाने वाली
प्रणाली में बदलाव और वायरस की मौजूदगी के प्रमाण तलाशे। अध्ययन में उन्होंने रक्त
में साइटोकाइन्स (जो प्रतिरक्षा का नियमन करते हैं) का स्तर परिवर्तित पाया। इससे
लगता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली असंतुलित थी। इसके अलावा ऐसे प्रोटीन संकेतक भी
मिले जो तंत्रिका तंत्र सम्बंधी विकार की ओर इशारा करते हैं। शोधकर्ता इस काम में
मशीन लर्निंग की भी मदद ले रहे हैं।
इसी कड़ी में PHOSP-COVID अध्ययन में शामिल रेचेल इवांस
और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके 1077 लोगों में
शारीरिक दुर्बलता, दुÏश्चता जैसी मानसिक-स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों और संज्ञानात्मक क्षति को जांचा।
उन्होंने इसमें उम्र और लिंग जैसी बुनियादी जानकारी शामिल की और जैव रासायनिक डैटा
(जैसे सी-रिएक्टिव प्रोटीन) का स्तर भी रिकॉर्ड किया। गणितीय विश्लेषण की मदद से
देखा गया कि क्या एक जैसे लक्षण वाले रोगियों के समूह दिखाई देते हैं? कोविड-19 की गंभीरता, या अंगों की क्षति के स्तर और
दीर्घ कोविड की गंभीरता के बीच बहुत कम सम्बंध पाया गया।
विश्लेषण में दीर्घ कोविड के भिन्न-भिन्न लक्षणों वाले चार समूहों की पहचान
हुई। तीन समूहों में अलग-अलग स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलता थी, जबकि संज्ञानात्मक समस्या नहीं या बहुत कम थी। चौथे समूह के लोगों में मध्यम
स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलताएं थी, लेकिन
संज्ञानात्मक समस्याएं अत्यधिक थीं।
क्या यह संक्रमण-उपरांत लक्षण है?
कुछ वैज्ञानिक के लिए दीर्घ कोविड की स्थिति कोई हैरत की बात नहीं थी। संक्रमण
ठीक होने के बाद लंबे समय तक लक्षण बने रहना कई मामलों में देखा गया है। दरअसल
मायेल्जिक एन्सेफलाइटिस या क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (ME/CFS) वायरस संक्रमणों के बाद उपजी एक स्थिति है जिसमें लोग
सिरदर्द,
थोड़े से काम के बाद काफी थकान जैसे लक्षणों का अनुभव करते
हैं।
वायरस या बैक्टीरिया से संक्रमित हो चुके 253 लोगों पर हुए एक अध्ययन में देखा
गया था कि लगभग 12 प्रतिशत लोगों में 6 महीने बाद भी थकान, मांसपेशीय-कंकालीय
दर्द,
तंत्रिका सम्बंधी समस्या और मनोदशा में गड़बड़ी जैसे लक्षण
मौजूद थे। यानी दीर्घ कोविड संक्रमण-उपरांत लक्षण हो सकता है।
लेकिन दीर्घ कोविड के लक्षण ME/CFS से काफी अलग हैं। उदाहरण के लिए दीर्घ कोविड वाले लोगों में सांस की तकलीफ ME/CFS वाले लोगों की तुलना में अधिक
दिखती है।
क्या किया जा सकता है?
चूंकि इस विकार को अभी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है इसलिए उपचार/मदद सम्बंधी
विकल्प काफी सीमित हैं। जर्मनी, इंगलैंड वगैरह कुछ देशों में
दीर्घ कोविड से पीड़ित लोगों के लिए क्लीनिक खोले जा रहे हैं। यह एक अच्छी पहल है, लेकिन इस विकार से निपटने के लिए कई क्षेत्रों के विशेषज्ञों की ज़रूरत है
क्योंकि दीर्घ कोविड शरीर के कई हिस्सों को प्रभावित करता है। दीर्घ कोविड से
पीड़ित हर व्यक्ति में औसतन 16-17 लक्षण दिखाई देते हैं, लेकिन
अक्सर क्लीनिकों में सभी के उपचार की व्यवस्था नहीं होती।
इसकी सामाजिक और राजनीतिक चुनौती सबसे बड़ी है। दीर्घ कोविड से जूझ रहे लोगों
को आराम की ज़रूरत है, अक्सर कई महीनों तक वे बहुत काम नहीं कर
सकते और ऐसे में उन्हें सहयोग की आवश्यकता है। खास तौर से श्रमिक वर्ग के लिए यह
एक बड़ी चुनौती हो सकती है। एक सुझाव है कि उनकी स्थिति को विकलांगता के रूप में
पहचाना जाना चाहिए।
कुछ लोग इसकी दवा खोजने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। यूके के HEAL-COVID नामक अध्ययन का उद्देश्य
दीर्घ कोविड की स्थिति बनने से रोकना है। इसमें कोविड-19 के अस्पताल में भर्ती
रोगियों को ठीक होने के बाद विशिष्ट दवाइयां दी जाएंगी।
और अंत में यह सवाल कि कोविड-19 के टीके इसमें क्या भूमिका निभा सकते हैं? बेशक ये टीके कोविड-19 के खिलाफ कारगर हैं लेकिन क्या वे दीर्घ कोविड से भी
बचाव करते हैं?
हालिया अध्ययन में दीर्घ कोविड से पीड़ित 800 लोगों पर टीके के प्रभाव जांचे
गए। इनमें से 57 प्रतिशत लोगों के लक्षणों में सुधार दिखा, 24
प्रतिशत में कोई परिवर्तन नहीं दिखे और 19 प्रतिशत लोगों की हालत टीके की पहली
खुराक के बाद और बिगड़ गई। अनुमान है कि यदि संक्रमण पश्चात वायरस के कुछ अवशेष
शरीर में छूट भी गए हैं तो टीका उनका खात्मा कर सकता है या प्रतिरक्षा प्रणाली में
आए असंतुलन को ठीक कर सकता है।
कुल मिलाकर दुनिया भर के शोधकर्ता दीर्घ कोविड को समझने और लोगों को उससे उबारने की जद्दोजहद में हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nature.com/articles/d41586-021-01511-z
कोविड-19 टीकों की कमी का सामना करते हुए कुछ देशों ने एक
अप्रमाणित रणनीति अपनाई और टीके की खुराक के लिए अलग-अलग टीकों का उपयोग किया। आम
तौर पर अधिकांश टीकों की दो खुराक दी जाती है। लेकिन कनाडा और कई युरोपीय देश कुछ
रोगियों में दो खुराकों के लिए अलग-अलग टीकों के उपयोग की सिफारिश कर रहे हैं। और, शुरुआती आंकड़े बता रहे हैं कि मजबूरी की यह रणनीति वास्तव में लाभदायक हो सकती
है।
तीन अध्ययनों में रक्त के नमूनों की जांच करने पर पता चला है कि एस्ट्राज़ेनेका
टीके की एक खुराक के बाद दूसरी खुराक के लिए फाइज़र-बायोएनटेक टीके का उपयोग करने
से मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित होती है। इनमें से दो अध्ययनों से यह भी
पता चला है कि मिश्रित टीकों से फाइज़र-बायोएनटेक की दो खुराकों के बराबर सुरक्षा
मिलेगी जो सबसे प्रभावी कोविड-19 टीकों में से एक है।
यदि टीकों का मिला-जुला उपयोग सुरक्षित और प्रभावी होता साबित है तो अरबों
लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। क्लीनिकल रिसर्च स्पेशलिस्ट क्रिस्टोबल
बेल्डा-इनिएस्ता के अनुसार तब दूसरी खुराक के लिए उसी टीके की उपलब्धता की चिंता
नहीं रहेगी। उनके नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में 448 लोगों में एस्ट्राज़ेनेका
और बायोएनटेक टीकों के मिले-जुले उपयोग में दूसरी खुराक के दो सप्ताह बाद मामूली
साइड इफेक्ट और मज़बूत एंटीबॉडी प्रतिक्रिया देखी गई।
इसी तरह बर्लिन स्थित चैरिटी युनिवर्सिटी हॉस्पिटल में 61 स्वास्थ्य
कार्यकर्ताओं को 10 से 12 सप्ताह के अंतराल से दो खुराकें दी गर्इं। इन सभी
कार्यकर्ताओं में स्पाइक एंटीबॉडी पाई गई जो तीन सप्ताह के अंतराल में
फाइज़र-बायोएनटेक टीके की दोनों खुराकें प्राप्त होने के बाद पाई गई थीं और कोई
साइड इफेक्ट भी नहीं हुआ। इसके अलावा, एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को
बढ़ावा देने वाली और शरीर को संक्रमित कोशिकाओं से छुटकारा दिलाने वाली टी-कोशिकाओं
की प्रतिक्रया भी पूरी तरह फाइज़र-बायोएनटेक से टीकाकृत लोगों से अधिक पाई गर्इं।
जर्मनी की टीम ने एक छोटे अध्ययन में लगभग समान परिणाम सामने पाए हैं।
इन निष्कर्षों के बाद वैज्ञानिकों का मत है कि दो अलग-अलग टीकों की खुराकें
अधिक शक्तिशाली साबित हो सकती हैं। गौरतलब है कि दो टीकों को मिलाकर उपयोग करने से
प्रतिरक्षा प्रणाली को रोगजनकों को पहचानने के कई तरीके मिल सकते हैं। वैज्ञानिकों
के अनुसार mRNA आधारित टीके एंटीबॉडी
प्रतिक्रिया को तेज़ करते हैं और वेक्टर-आधारित टीके टी-कोशिका प्रतिक्रियाओं को शुरू
करते हैं। इसलिए दो प्रकार के टीकों का उपयोग करने पर बेहतर परिणाम मिलते हैं।
अलबत्ता,
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है और
लंबे समय के अध्ययनों की ज़रूरत है। फिलहाल वैज्ञानिक लगभग 100 लोगों में आठ
विभिन्न प्रकार के टीकों को अदल-बदल कर लगाने का प्रयास कर रहे
हैं और साथ ही दो खुराकों के बीच के अंतराल में भी परिवर्तन करके अध्ययन किया
जाएगा।
फिर भी, ये निष्कर्ष नीति परिवर्तन के लिए सहायक सिद्ध हुए हैं। स्पेन ने 60 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिए मिश्रित टीकों के उपयोग करने की अनुमति दी है। कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, नॉर्वे और डेनमार्क जैसे देश जिन्होंने एस्ट्राज़ेनेका टीकों पर आयु सीमा निर्धारित की थी उन्होंने भी इस तरह के सुझाव दिए हैं। आगे चलकर और अधिक टीके शामिल किए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/vials_1280p_0.jpg?itok=iEYFoEVj
स्कूल के दिनों की सुखद यादों में हमें अक्सर परख नलियों, बुन्सन बर्नर की मदद से किए गए रसायन विज्ञान के प्रयोग भी याद आते हैं। रसायन
विज्ञान अणुओं के गुणों का अध्ययन है। हर सजीव या निर्जीव चीज़ अणुओं से बनी होती
है। लेकिन स्कूल में पढ़ाए गए साधारण रसायन, जैसे
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (जिसमें दो परमाणु होते हैं – एक हाइड्रोजन; एक क्लोरीन),
जैविक रसायन विज्ञान की जटिलताओं के सामने बौने पड़ जाते
हैं। किसी प्रोटीन अणु में हज़ारों परमाणु हो सकते हैं।
अणुओं का अनुरूपण
रासायनिक सिद्धांतों के बढ़ते ज्ञान के कारण ‘परख नली’ से आगे बढ़कर अणुओं का
सैद्धांतिक अध्ययन, उनकी संरचना और अन्य अणुओं से उनकी परस्पर
क्रिया का अध्ययन संभव हो गया है। उदाहरण के लिए जिस तरह अनुरूपण (सिमुलेशन) गेम
में कंप्यूटर के पर्दे पर विमान के उड़ने-उतरने का अनुरूपण किया जाता है, उसी तरह जटिल जैविक अणुओं की परस्पर क्रिया का भी पर्याप्त सटीकता के साथ
अनुरूपण किया जा सकता है। अनुरूपण चाहे विमान की उड़ान का हो या अणुओं का, अनुरूपण की गणितीय विधियों को भौतिकी के मूलभूत नियमों से जोड़ा जाता है।
देखा जाए तो कोई भी प्रोटीन एक-दूसरे से जुड़े अमीनो एसिड (20 अमीनो एसिड, जिनमें से प्रत्येक अमिनो एसिड 10 से 27 परमाणुओं से बना होता है) की एक सीधी शृंखला
ही तो है,
जो बड़े करीने से एक अद्वितीय आकार में तह की गई होती है।
प्रत्येक अमीनो एसिड पर आवेश (धनात्मक, ऋणात्मक, उदासीन) या उसके जुड़ने (या चिपकने) की क्षमता भिन्न होती है। अमीनो एसिड की इस
शृंखला के कुछ हिस्से अणु की गहराई में दबे होते हैं। और बाकी हिस्से सतह पर होते
हैं। सतह पर मौजूद अमीनो एसिड ही अन्य प्रोटीन्स से लेन-देन करते हैं – ये कोई
संरचना बनाने,
ग्राही तथा एंटीबॉडी आदि से जुड़ने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अब हम वास्तविक दुनिया का रुख करते हैं। हममें से कई लोगों
ने कोविड-19 महामारी की प्रगति पर लगातार नज़र रखी है, और
इसके थमने या धीमा होने के संकेतों पर नज़र रखी है। हमने नई शब्दावली सीखी है, और कंटीले स्पाइक वाले गेंदनुमा वायरस की डरावनी छवि के आदी भी हो गए हैं।
वर्तमान में हम इस वायरस के नवीन और अधिक चिंताजनक संस्करणों का सामना कर रहे
हैं। प्रत्येक संस्करण को या तो उसके भौगोलिक उत्पत्ति, या
डब्ल्यूएचओ नामकरण पद्धति (अल्फा, बीटा, आदि)
से मिले नाम,
या ज़्यादा सटीक E484K, D614G जैसे नामों से पुकारा जाता है। E484K, D614G जैसी ये संख्याएं हमें प्रोटीन में अमीनो एसिड की रैखीय शृंखला का ध्यान
दिलाती हैं। इस मामले में यह वायरस की सतह पर मौजूद स्पाइक प्रोटीन है।
स्पाइक प्रोटीन संक्रमण शुरू करता है – यह हमारे फेफड़ों और अन्य ऊतकों की
कोशिकाओं की सतह पर मौजूद ग्राहियों से जुड़ जाता है। यह प्रोटीन अणु 1273 अमीनो
एसिड की एक शृंखला है, और तीन अलग-अलग अणु मिलकर वायरस का
‘स्पाइक’ बनाते हैं। वायरस संस्करण E484K में संख्या 484 अमीनो एसिड की इस शृंखला
के 484वें स्थान की द्योतक है। E इस स्थान पर पहले संस्करण में मौजूद ऋणात्मक आवेश वाले अमीनो एसिड ग्लूटामेट
का संकेत है जो मेज़बान ग्राही से जाकर जुड़ता है। पूरा नाम दर्शाता है कि इस
संस्करण में ऋणावेशित E
(ग्लूटामेट) का स्थान अब धनावेशित अमीनो एसिड K (लाइसीन) ने ले लिया है। यह वाला उत्परिवर्तन बीटा और गामा
संस्करणों में पाया गया है।
उत्परिवर्तन का प्रभाव
गौरतलब है कि उत्परिवर्तन में ऋणात्मक आवेश वाले ग्लूटामेट का स्थान धनात्मक
आवेश वाले लाइसीन ने ले लिया है। क्या यह हम मनुष्यों के लिए अच्छी खबर है? उपलब्ध मैदानी आंकड़ों से पता चलता है कि वायरस का यह संस्करण अधिक संक्रामक
है। और तो और,
वायरस का यह संस्करण वायरस के खिलाफ बनी एंटीबॉडी से बच
निकलने में भी सक्षम है।
सुर्खियों में छाए डेल्टा संस्करण में E484Q उत्परिवर्तन
हुआ है। इसमें Q का
मतलब ग्लूटामाइन है, जो ग्लूटामेट (E) से बहुत अलग नहीं है लेकिन Q उदासीन और ध्रुवीय है।
एक अन्य उत्परिवर्तन है L452 R। यह उत्परिवर्तन भी स्पाइक के ग्राही से बंधने वाले स्थान पर हुआ है। इसमें L का मतलब है ल्यूसीन जो कि अनावेशित और
‘चिपचिपा’ अमीनो एसिड है, और R धनावेशित आर्जिनीन है।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि वायरस के कई चिंताजनक संस्करणों के स्पाइक
प्रोटीन के ग्राही से जुड़ने वाले हिस्से में सिर्फ एक या दो अमीनो एसिड में
परिवर्तन नहीं हुए हैं। यूके में पहली बार देखे गए अल्फा संस्करण में कुल 23
उत्परिवर्तन हैं। इनमें से नौ उत्परिवर्तन स्पाइक प्रोटीन के किसी अन्य भाग में
हुए हैं और कुछ अन्य उत्परिवर्तन वायरस के अन्य भागों में हुए हैं, जिन्हें अच्छी तरह समझा नहीं जा सका है।
यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के परिवर्तन – विशाल अणु में एक या दो प्रतिस्थापन – का काफी कुशल और काफी विश्वसनीय कंप्यूटर मॉडल तैयार किया जा सकता है। जब भी वायरस प्रोटीन का नया संस्करण सामने आता है तो इस तरह की मॉडलिंग करके हम उसके बारे में त्वरित अनुमान लगा सकते हैं। इसके अलावा, मॉडलिंग हमें वायरस के प्रोटीन से मज़बूती से जुड़ने वाली औषधियों के अणुओं को डिज़ाइन करने और उन्हें परिष्कृत करने में मदद कर सकता है। उदाहरण के लिए, कोरोनावायरस में एक एंज़ाइम होता है (प्रोटीएज़ वर्ग का एंज़ाइम), जो नए वायरस कण बनने से पहले स्पाइक प्रोटीन में कांट-छांट करके उसे सही आकार देता है। यदि औषधि अणु इस एंज़ाइम से कसकर बंध जाए, तो वह इस कांट-छांट को रोक कर वायरस की वृद्धि बाधित करेगा। आणविक मॉडलिंग से हज़ारों संभावित औषधियों में कुछ सर्वाधिक कारगर अणुओं को पहचानने में मदद मिलती है, जिनकी कारगरता फिर प्रयोगशाला में जांची जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/5c31ej/article34799223.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/Figure-1-new
महामारी की शुरुआत से वैज्ञानिक कोविड-19 के उपचार के लिए
एंटीबॉडी विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। फिलहाल कई एंटीबॉडी क्लीनिकल परीक्षण
के अंतिम दौर में हैं और कइयों को अमेरिका और अन्य देशों की नियामक एजेंसियों
द्वारा आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है।
अलबत्ता,
डॉक्टरों के बीच एंटीबॉडी उपचार अधिक लोकप्रिय नहीं है।
गौरतलब है कि फिलहाल एंटीबॉडी इंट्रावीनस मार्ग (रक्त शिराओं) से दी जाती हैं न कि
सीधे सांस मार्ग जबकि वायरस मुख्य रूप से वहीं पाया जाता है। इस वजह से काफी अधिक
मात्रा में एंटीबॉडी का उपयोग करना होता है। एक अन्य चुनौती यह है कि सार्स-कोव-2
वायरस के कुछ संस्करण ऐसे भी हैं जो एंटीबॉडीज़ को चकमा देने में सक्षम हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के हेल्थ साइंस सेंटर के
एंटीबॉडी इंजीनियर ज़ीचियांग एन और उनकी टीम ने ऐसी एंटीबॉडी विकसित कीं जिन्हें
सीधे श्वसन मार्ग में पहुंचाया जा सके जहां उनकी ज़रूरत है। इसके लिए टीम ने स्वस्थ
हो चुके लोगों की हज़ारों एंटीबॉडीज़ की जांच की और अंतत: ऐसी एंटीबॉडीज़ पर ध्यान
केंद्रित किया जो सार्स-कोव-2 के उस घटक की पहचान कर पाएं जो वायरस को कोशिकाओं
में प्रवेश करने में मदद करता है। इनमें से सबसे प्रभावी IgG एंटीबॉडीज़ पाई गर्इं जो संक्रमण के बाद अपेक्षाकृत देर से
प्रकट होती हैं लेकिन विशिष्ट रूप से किसी रोगजनक के खिलाफ कारगर होती हैं।
इसके बाद टीम ने सार्स-कोव-2 को लक्षित करने वाले IgG अंशों को IgM नामक एक अन्य अणु से जोड़ा। IgM संक्रमण के प्रति काफी शुरुआती दौर में प्रतिक्रिया देता है। इस तरह से तैयार
किए गए IgM ने सार्स-कोव-2 के 20
संस्करणों के विरुद्ध मात्र IgG की तुलना में अधिक शक्तिशाली प्रभाव दर्शाया। नेचर में प्रकाशित
रिपोर्ट के अनुसार जब विकसित किए गए IgM को चूहों के श्वसन मार्ग में संक्रमण के 6 घंटे पहले या 6 घंटे बाद डाला गया
तो दो दिनों के भीतर चूहों में वायरस का संक्रमण कम हो गया।
लेकिन फिलहाल ये प्रयोग चूहों पर किए गए हैं और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या
ये एंटीबॉडी मनुष्यों में उसी तरह से काम करेंगी।
एन का मत है कि यह एंटीबॉडी एक तरह का रासायनिक मास्क है जिसका उपयोग सार्स-कोव-2
के संपर्क में आए व्यक्ति कर सकते हैं। यह उन लोगों के लिए रक्षा का एक और कवच हो
सकता है जो टीका लगने के बाद पूरी तरह सुरक्षित नहीं हुए हैं।
IgM अणु अपेक्षाकृत टिकाऊ होते हैं, इसलिए इनको नेज़ल स्प्रे के रूप में आपातकालीन उपयोग के लिए रखा जा सकता है। फिलहाल कैलिफोर्निया आधारित IgM बायोसाइंस नामक एक बायोटेक्नॉलॉजी कंपनी द्वारा एन के साथ मिलकर इस एंटीबॉडी के क्लीनिकल परीक्षण की योजना है। (स्रोत फीचर्स)
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