फास्ट फूड हमारी भूख
शांत करने में मदद करता है। ऐसा ही जुगाड़ भंवरे भी करते हैं। जब मादा भंवरे शीतनिद्रा
(हाइबरनेशन) से जागते हैं तो उन्हें अपनी नई कॉलोनी बनाने के लिए ढेर सारे पराग और
मकरंद की ज़रूरत होती है। यदि भंवरे समय से पूर्व शीतनिद्रा से जाग जाते हैं तो पर्याप्त
मात्रा में पराग जमा करने के लिए आसपास पर्याप्त फूल नहीं खिले होते हैं। साइंस पत्रिका
में प्रकाशित शोध बताता है कि भंवरों ने इस समस्या का विचित्र समाधान खोजा है – वे
फूलों को जल्दी खिलाने के लिए पौधों की पत्तियों में छेद कर देते हैं और फूल वास्तव
में निर्धारित समय से कुछ सप्ताह पहले ही खिल उठते हैं।
ईटीएच ज़्यूरिच के
शोधकर्ताओं ने भंवरों में पौधों की गंध के प्रति प्रतिक्रिया सम्बंधी एक अध्ययन के
दौरान गौर किया था कि भंवरे पौधों की पत्तियों पर अर्ध-चंद्राकार छेद कर रहे हैं। पहले
तो शोधकर्ताओं को लगा कि वे पत्तियों का रस चूस रहे हैं। लेकिन भंवरे पत्तियों पर इतनी
देर नहीं ठहरे कि पर्याप्त रस ले सकें और ना ही वे पत्तियों का कोई हिस्सा अपनी कॉलोनी
में ले गए।
विचित्र अवलोकन यह
था कि जिन भंवरों की कॉलोनियों में कम भोजन उपलब्ध था उन्होंने पत्तियों में अधिक छेद
किए थे। इसके आधार पर शोधकर्ता सोचने लगे कि कहीं ये छेद फूलों को जल्दी खिलाने के
लिए तो नहीं किए जा रहे? यह तो पहले से पता
है कि कुछ पौधों में क्षति या तनाव के चलते फूल जल्दी खिलते हैं। लेकिन किसी ने यह
नहीं सोचा था कोई परागणकर्ता इस तरह से क्षति पहुंचाएगा।
माजरे को समझने के
लिए वैकासिक जीव विज्ञानी मार्क मेशर और उनके साथियों ने ग्रीनहाउस में प्रयोग किया।
पहले उन्होंने 3 तीन दिन से पराग
से वंचित भंवरों को राई (ब्रौसिका निग्रा) के दस पौधों पर छोड़ा। उन्होंने पाया कि भवंरों
ने हर पौधे में 5-10 छेद किए और इन पौधों
में औसतन 17 दिन बाद फूल खिल गए जबकि
जो पौधे भंवरों के संपर्क में नहीं आए थे उनमें औसतन 33 दिन बाद फूल खिले। टमाटर के पौधों पर दोहराने पर उनमें फूल
सामान्य से 30 दिन पहले खिल गए।
इसी कड़ी के अगले अध्ययन
के आधार पर लगता है कि भूख भवरों को पत्तियों में छेद करने को प्रेरित करती है क्योंकि
पराग ले चुके भंवरों की तुलना में पराग से वंचित भंवरों ने पत्तियों में चार गुना अधिक
छेद किए। और वसंत की शुरुआत में फूलों के खिलने के पहले, भंवरों ने पत्तियों में अधिक छेद किए लेकिन जैसे-जैसे वसंत आगे
बढ़ा और अधिक पराग मिलने लगा तो भंवरों ने पत्तियों में कम छेद किए। यह विचित्र व्यवहार
भंवरों की दो जंगली प्रजातियों में देखा गया।
क्या पत्तियों को
होने वाली क्षति-मात्र ही पौधों को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करती है? यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया
जिसमें उन्होंने पत्तियों में हू-ब-हू वैसे ही छेद बनाए जैसे भंवरे बनाते हैं। उन्होंने
पाया कि सामान्य पौधों की तुलना में इन पौधों में जल्दी फूल आ गए, लेकिन भंवरों द्वारा छेद किए गए पौधों की तुलना
में देर से फूल आए। इससे लगता है कि भंवरों की लार में ऐसे रसायन होते होंगे जो पौधे
को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करते हैं।
बहरहाल शोधकर्ता इस बात पर हैरान हैं कि भंवरों में यह व्यवहार कैसे विकसित हुआ होगा। ऐसा लगता नहीं कि भंवरे यह युक्ति सीखते होंगे क्योंकि उनका कुल जीवन बहुत छोटा होता है। और यदि यह जन्मजात है तो समझना मुश्किल है कि उनमें यह शुरू कैसे हुआ। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2020/05/21145522/bee-piercing-leaf_web.jpg?width=778
कुछ
लोगों का अनुभव है कि जब उनके कुत्ते किशोरावस्था में पहुंचते हैं तो वे अचानक
उनके हुक्म मानना बंद कर देते हैं। यह भी कहा जाता है कि किशोर उम्र के कुत्तों का
व्यवहार शिशु, वयस्क
या वृद्ध कुत्तों से भिन्न होता है। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक
ताज़ा अध्ययन बताता है कि मानव किशोरों की तरह कुत्ते भी किशोरावस्था के दौरान अति
संवेदनशील होते हैं।
न्यू
कासल युनिवर्सिटी की जीव व्यवहार विज्ञानी लुसी एशर बताती हैं कि मनुष्यों के साथ
कुत्तों के पिल्लों का लगाव बिल्कुल मानव शिशु जैसा होता है। लेकिन अधिकांश
मालिकों को लगता है कि कुत्तों की उम्र 8 महीने की (श्वान-किशोरावस्था) होने पर उनके कुत्तों का व्यवहार बदल जाता है। मानव किशोरों
की तरह किशोर कुत्ते भी अपने मालिकों की उपेक्षा और अवज्ञा करने लगते हैं। इस
व्यवहार पर मालिक तरह-तरह की प्रतिक्रिया
देते हैं: कुछ उन्हें सज़ा देते हैं, कुछ उपेक्षा करते
हैं, तो
कुछ उन्हें दूर भेज देते हैं।
किशोरावस्था
कैसे कुत्तों का व्यवहार बदलती है, यह जानने के लिए एशर और उनकी टीम ने 70 कुत्तों पर नज़र रखी। अध्ययनकर्ताओं ने उनके मालिकों को उनके
साथ लगाव और ध्यान खींचने वाले व्यवहार (जैसे मालिक से सटकर
बैठना या किसी व्यक्ति के प्रति विशेष लगाव) और उपेक्षित होने पर
व्यवहार (जैसे पीछे छूट जाने पर सिहरन या कंपकंपी) के आधार पर अंक देने को कहा। ये दोनों तरह के व्यवहार चिंता
और भय के द्योतक हैं।जिन पिल्लों को दोनों में से किसी भी एक पैमाने पर अधिक अंक
मिले थे उनकी किशोरावस्था भी जल्दी शुरू हुई (लगभग
5 माह की उम्र में) जबकि
कम अंक वाले पिल्लों की किशोरावस्था 8 माह की उम्र यानी
देर से शुरू हुई। यह देखा गया है कि जिन लड़कियों के अपने अभिभावकों से रिश्ते
अच्छे नहीं होते उनकी किशोरावस्था जल्दी शुरू हो जाती है। मनुष्यों की तरह, जिन कुत्तों के
उन्हें पालने वालों के साथ सम्बंध अच्छे नहीं थे उनके प्रजनन चक्र में अंतर आया।
यह भी देखा गया कि जो किशोर कुत्ते अपने पालकों के विछोह से दुखी थे उन्होंने अपने
पालकों की बात नहीं मानी जबकि अन्य व्यक्ति की बात मानी। यह व्यवहार मानव किशोरों
की असुरक्षा की भावना से मेल खाता है।
एक
अन्य अध्ययन में अध्ययनकर्ताओं ने अन्य 69 गाइड
कुत्तों का 5 महीने और 8 महीने
की उम्र के दौरान अध्ययन किया। उन्होंने उनके मालिक और एक अजनबी को उन्हें ‘बैठने’ का आदेश देने को
कहा। सभी पिल्ले जब पूर्व-किशोरावस्था में थे, तब वे दोनों
व्यक्तियों के आदेश पर तुरंत बैठ गए। लेकिन जब यही पिल्ले किशोरावस्था में पहुंचे
तो ‘बार-बार’ उन्होंने अपने पालक का आदेश मानने से इन्कार किया जबकि
अनजान व्यक्ति की बात मान ली। जिन कुत्तों का अपने मालिकों से सुरक्षात्मक रूप से
लगाव नहीं था उन्होंने अजनबियों के आदेश अधिक माने। यह व्यवहार भी मानव किशोरों की
याद दिलाता है।
285 गाइड कुत्तों पर किए गए एक अध्ययन के डैटा के आधार पर
शोधकर्ताओं का कहना है कि अन्य उम्र की तुलना में किशोर कुत्तों को ‘प्रशिक्षित’ करना अधिक मुश्किल
होता है।
टीम का मानना है कि किशोर कुत्तों और मानव किशोरों के व्यवहार में समानता को देखते हुए मनुष्यों में किशोरावस्था के अध्ययन के लिए कुत्ते अच्छे मॉडल हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://lsa.umich.edu/content/michigan-lsa/psych/en/news-events/all-news/faculty-news/dogs-get-difficult-when-they-reach-adolescence–just-like-human-/_jcr_content/featuredImage.transform/big/image.1589477354841.jpg
सांडा
पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पाई जाने वाली छिपकली है, जो मरुस्थलीय खाद्य शृंखला
में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परंतु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते
यह घोर संकट का सामना कर रही है।
सांडे
का तेल, भारत
के विभिन्न हिस्सों मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक
प्रचलित औषधि है। वैसे,
इस तेल का कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र है एवं इस तेल के
रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाए गए हैं। इस अंधविश्वास
के कारण इस जीव का बड़ी संख्या में अवैध शिकार किया जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप
सांडों की आबादी तेज़ी से घट रही है।
सांडा
के नाम से जाना जाने वाला यह सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क
प्रदेशों में पाई जाने वाली एक छिपकली है। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae
वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मज़बूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती है।
सांडा का अंग्रेजी नाम Spiny-tailed
lizard है जो इसे इसकी पूंछ पर पाए जाने वाले कांटेदार शल्क के
अनेक छल्लों की शृंखला के कारण मिला है।
विश्व
भर में सांडे की 20 प्रजातियां पाई जाती हैं। यह उत्तरी
अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं
उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क
प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली
इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम Saarahardiwickii है। यह मुख्यत: अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा एवं गुजरात के कच्छ ज़िले के शुष्क
घास के मैदानों में पाई जाती है। कुछ शोध पत्रों के अनुसार सांडे की कुछ छोटी
आबादियां उत्तर प्रदेश,
उत्तरी कर्नाटक तथा पूर्वी राजस्थान में भी पाई जाती हैं।
वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार सांडे का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय
गतिविधियों का परिणाम हो सकता है क्योंकि वन्य जीव व्यापार में अनेकों जीवों को
उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता है।
सांडे
की भारतीय प्रजाति में नर (40 से 49 से.मी.) सामान्यत: आकार में मादा (34 से 40 से.मी.) से बड़े होते हैं तथा
अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं। नर की पूंछ उसके शरीर की
लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर पर नुकीली होती है जबकि मादा की पूंछ शरीर की
लंबाई से छोटी तथा सिरे पर मोटी होती हैं।
पश्चिमी
राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पाई जाने वाली सांडे की
आबादी में त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान
की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के शल्क में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों
ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परंतु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में
ऐसा नहीं होता।
भारतीय
सांडे को भारत में पाई जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल
के नमूनों की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत: वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक
सीमित रहता है लेकिन शिशु सांडा वनस्पति के साथ कीटों, मुख्यत: भृंग,
चींटी, दीमक, एवं टिड्डों, का सेवन भी करते
हैं। बारिश में एकत्रित किए गए कुछ वयस्क सांडों के मल में भी कीटों का मिलना इनकी
अवसरवादिता को दर्शाता है।
मरुस्थल
में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए सांडे भी अन्य मरुस्थलीय जीवों के समान
भूमिगत मांद में रहते हैं। सांडे की मांद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार
समान होता है तथा यह अन्य मरुस्थलीय जीवों की मांद से अलग दिखाई पड़ती है। मांद
अक्सर टेढ़ी-मेढ़ी, सर्पिलाकार तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती है। मांद का आंतरिक तापमान बाहर की तुलना
में काफी कम होता है।
यह
छिपकली दिनचर होती है तथा मांद में आराम करते समय अपनी कांटेदार पूंछ से प्रवेश
द्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों, विशेषकर परभक्षी
जीवों, को
रोकने के लिए प्रवेश द्वार को मिट्टी से बंद भी कर देती है।
मांद
बनाना रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है। पैदा
होने के कुछ ही समय बाद सांडे के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ मांद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य
सरीसृपों के समान सांडे भी अत्यधिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिद्रा में
चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की चयापचय क्रिया को धीमी कर शरीर में संचित
वसा पर ही जीवित रहते हैं। वैसे कच्छ के घास के मैदानों में शिशु सांडों को
दिसम्बर-जनवरी में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका
कारण कच्छ में सर्दियों में तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता है।
सांडों
का प्रजनन काल फरवरी से शुरू होता है और छोटे शिशुओं को जून-जुलाई
तक घास के मैदानों में उछल-कूद करते देखा जा
सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय में भी ये छिपकलियां दिनचर बनी रहती हैं। गर्मी के
दिनों में तेज़ धूप खिलने पर ये दोपहर तक ही सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल
छाए रहें तो शाम तक भी सक्रिय रहते हैं।
सांडा
मरुस्थलीय खाद्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरामिड के सबसे
निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लायकोजन और वसा की अधिक मात्रा के चलते ये
रेगिस्तान में कई परभक्षी जीवों का प्रमुख भोजन हैं। सांडे को भूमि तथा हवा दोनों
तरफ से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल में पाए जाने वाले परभक्षी
जीवों की विविधता सांडों की बड़ी आबादी का ही परिणाम है। हैरियर और फाल्कन जैसे
शिकारी पक्षियों को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते देखा जा सकता है। बड़े शिकारी
पक्षी ही नहीं,
किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात सांडों का शिकार करने से
नहीं चूकते।
पक्षियों
के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इस उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत को प्राप्त
करने का अवसर नहीं गंवाते। थार रेगिस्तान में विषहीन दोमुंहा सांप (Red
sand-boa) अक्सर सांडे को मांद से बाहर खदेड़ते हुए
देखा जा सकता है। दोमुंहे द्वारा मांद में हमला करने पर सांडे के पास अपने पंजों
से ज़मीन पर मज़बूत पकड़ बनाने एवं मांद के संकरेपन के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय
नहीं होता। हालांकि सांडे को मांद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए
आसान काम नहीं होता लेकिन यह प्रयास व्यर्थ नहीं है क्योंकि एक सफल शिकार का इनाम
ऊर्जा युक्त भोजन होता है। शाम को सक्रिय होने वाली मरु-लोमड़ी
भी अक्सर सांडे को मांद से खोदकर शिकार करते देखी जा सकती है।
परभक्षी
जीवों की ऐसी विविधता के कारण सांडे ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके
विकसित किए हैं। हालांकि इसके पास कोई आक्रामक सुरक्षा प्रणाली तो नहीं हैं परंतु
इसका छलावरण, फुर्ती
एवं सतर्कता इसके प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सूखी घास के
समान होता है जो आसपास के परिवेश में अच्छी तरह घुल-मिल
जाता है।
यदि
छलावरण काम नहीं करता,
तो शिकारियों से बचने के लिए यह अपनी गति पर निर्भर रहता
है। सांडा की पीछे की टांगें मज़बूत तथा उंगलियां लंबी होती हैं जो इसे उच्च गति
प्राप्त करने में मदद करती है। इसके अलावा, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद
सतर्क रहती है,
विशेष रूप से जब शिशुओं के साथ हो। वयस्क छिपकली आगे के
पैरों के बल सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पर नज़र
रखती है। सांडा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढते हैं और मामूली-सी हलचल से ही खतरा भांप कर निकट की मांद मे भाग जाते हैं।
सांडे
अक्सर समूहो में रहते हैं तथा अपनी मांद एक-दूसरे से निश्चित
दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरों को मादाओं के लिए मुकाबला करते
देखा जा सकता है। नर अपने इलाके को लेकर सख्त क्षेत्रीयता प्रदर्शित करते हैं तथा
अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।
अवैध
शिकार एवं खतरे
अलबत्ता, मनुष्यों से सांडा
को बचाने में छलावरण,
गति और सतर्कता पर्याप्त प्रतीत नहीं होती हैं। सांडे के
इलाकों में इनके अंधाधुंध शिकार की घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं। इस छिपकली को
पकड़ने के लिए शिकारी भी कई तरीके इस्तेमाल करते हैं। सबसे सामान्य तरीके में सांडे
की मांद में गरम पानी भरकर या मांद को खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता
है।
एक
अन्य तरीके में शिकारी सांडे की मांद के प्रवेश द्वार पर एक रस्सी का फंदा लगा
देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब
सांडा अपनी मांद से बाहर निकलता है तो फंदा उसके सिर से निकलते हुए पैरों तक आ
जाता हैं तथा जैसे ही सांडा वापस मांद में जाने की कोशिश करता है, फंदा उसके शरीर पर
कस जाता है। फिर सांडे को पकड़कर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है ताकि वह भाग न
सके।
सांडे
को भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 2 में रखा गया है, जो इसके शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है।
यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
की संधि के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल है। हालांकि वन्य जीवों के व्यापार के
मुद्दे पर कार्यरत संस्था ट्राफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
में 1997 से 2001 के
बीच सांडों की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार में भारतीय सांडे का हिस्सा का मात्र
दो प्रतिशत था,
लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय स्तर पर शिकार के गंभीर खतरों
का सामना करना पड़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारतीय सांडे का छोटा हिस्सा
इसके कम शिकार का द्योतक नहीं है, अपितु इसकी अधिक स्थानीय खपत दर्शाता है।
हाल ही में बैंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार सांडे के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग है। पकड़े गए गिरोह का सम्बंध राजस्थान के जैसलमेर ज़िले से था, जहां पर सांडे अभी भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इस तरह के गिरोहों का नेटवर्क कितना फैला हुआ है, कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडों को अक्सर कई स्थानीय बाज़ारों में खुले बिकते भी देखा जाता है। प्रशासन की सख्ती के साथ-साथ आम जनता में जागरूकता सांडों के सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा भारतीय चीते के समान यह अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डॉक्यूमेंटरी में सिमटकर रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
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अक्सर
चींटियां खाने के सामान में चुपके से घुस जाती हैं और उसका नाश कर डालती हैं।
लेकिन चींटियों के घर में भी चोरी होती है। खसखस के आकार की चोरनी चींटी (थीफ एंट), अपने से बड़ी
चींटियों के बच्चों को अपना भोजन बनाती है। इकॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित
एक अध्ययन बताता है कि अन्य चींटी प्रजातियों को चोरनी चींटियों की इस हरकत की
इतनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, कि पूरी खाद्य शृंखला तहस-नहस हो जाती है।
उत्तरी
व दक्षिणी अमेरिका में चोरनी चींटियों की कई प्रजातियां हैं। अधिकांश भूमिगत रहती
हैं। ये चींटियां बड़ी चींटियों की बांबी में सुरंग बनाती हैं और अपने से 24 गुना तक बड़ी अन्य चींटियों के बच्चे चुराकर खा जाती हैं। वे
वयस्क चींटियों को दूर रखने के लिए उन पर ज़हरीला विष छिड़क देती हैं।
चोरनी
चींटियों के काफी संख्या में मौजूद होने के बावजूद, उनके छोटे आकार और
भूमिगत रहने के कारण वे अधिकतर वैज्ञानिकों के द्वारा उपेक्षित ही रही हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा के छात्र लियो ओहयामा देखना चाहते थे कि जब ये
चोरनी चींटियां न हों तो क्या होगा? इसके लिए उन्होंने स्टेट पार्क की रेतीली
मिट्टी में 18-18 वर्ग मीटर के 20 प्लॉट
तैयार किए। इनमें से 10 प्लॉटों में 14 महीनों तक हर महीने प्लास्टिक ट्यूब में कीटनाशक युक्त चारा
रखा। इस ट्यूब के निचले भाग में ऐसी जाली लगाई गई थी कि बड़ी चींटियां इस छेद से
अंदर ना जा पाएं।
उन्होंने
पाया कि कीटनाशक युक्त भोजन रखने से चोरनी चींटियों की संख्या में 71 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों की संख्या में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उन्होंने यह भी पाया कि अध्ययन के
दूसरे वर्ष में मई और जून के दौरान, जब चींटियों की संख्या सबसे अधिक होती है, चोरनी चींटियों की
संख्या में 82 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
ऐसा
लगता है कि चोरनी चींटियां कुछ ही प्रजातियों को अधिक लक्ष्य करती हैं। क्योंकि जब
चोरनी चींटियों की संख्या में कमी आई थी तब पिरामिड चींटी (Dorymyrmexbureni) की संख्या लगभग दुगनी हो गई थी, जबकि निशाचर
चींटियों (Nylanderiaarenivaga) की श्रमिक चींटियों की संख्या में 98 प्रतिशत
वृद्धि हुई थी। ओहयामा का कहना है कि ये नतीजे बताते हैं कि ये शिकार की
गतिविधियां अत्यधिक जटिल हैं और लंबे समय में विकसित हुई होंगी और इस दौरान कुछ
चींटियों ने बचाव के तरीके भी विकसित किए होंगे।
युनिवर्सिटी ऑफ कॉनकॉरिडा के समुदाय पारिस्थितिकीविद ज़्यां-फिलिप लेसार्ड का सुझाव है कि इस प्रयोग को लंबे समय तक करके देखना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये प्रभाव लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके अलावा अध्ययन में सिर्फ चींटियों की संख्या, जो काफी बदलती रहती है, की बजाय कॉलोनी के घनत्व को देखना चाहिए था।(स्रोत फीचर्स)
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स्थानीय
स्तर पर समुद्री अखरोट के नाम से विख्यात कंघे जैसे आकार वाली गिजगिजिया या कॉम्ब
जेली (Mnemiopsisleidyi) जीव मूलत: उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक महासागर की वासी है। लेकिन हाल के दशकों
में मालवाहक जहाज़ों के बेलास्ट पानी (जहाजों को स्थिर
रखने के लिए भरे गए पानी) में सवार होकर ये
युरोपीय सागरों में फैल गई हैं। बाल्टिक सागर के पश्चिमी हिस्से में गर्मियों के
आखिर में इनकी आबादी में उछाल आता है और ये मछलियों के अंडे और लार्वा और छोटे
क्रस्टेशियन जीवों सहित समुद्री खाद्य शृंखला के आधार जीवों का खाकर सफाया कर
डालती है। लेकिन सर्दियों के लिए जमा करके रखने हेतु भी इन्हें ढेर सारा भोजन
चाहिए। कम्युनिकेशन बॉयोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार उस समय इनके
भोजन का सबसे बड़ा स्रोत उनकी अपनी संतानें होती हैं।
डेनमार्क
के नज़दीक फ्योर्ड क्षेत्र में इनके अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि ज़रूरत
पड़ने पर वयस्क कॉम्ब जेली अपनी ही प्रजाति के लार्वा को खा लेते हैं। इन अवलोकनों
के बाद शोधकर्ताओं ने कॉम्ब जेली पर प्रयोगशाला में अध्ययन किया और वहां भी उन्हें
यही परिणाम मिले।
गर्मियों
में अपनी ही संतानों को खाने की उनकी यह प्रवृत्ति इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर
सकती है कि क्यों गर्मियों के अंत में कॉम्ब जेली इतने अधिक लार्वा पैदा करती है, जबकि आने वाले जाड़े
में इन लार्वा के जीवित बचने की संभावना भी नहीं होती। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि
गर्मियों के अंत में बड़ी संख्या में लार्वा का भक्षण वयस्क कॉम्ब जेली को 2-3 हफ्ते का पोषण उपलब्ध कराता है। इस तरह उन्हें सर्दियों में
80 दिनों तक जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन
का भंडार मिल जाता है।
हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि वे पूरी तरह से इस ऊर्जा संतुलन को समझ नहीं पाए हैं। क्योंकि एक ओर तो वयस्क कॉम्ब जेली को लार्वा पैदा करने में बहुत ऊर्जा लगती है, और ये लार्वा सर्दियों में जीवित भी नहीं रह पाते। दूसरी ओर, ये लार्वा खाद्य शृंखला के निचले स्तर से काफी सारा भक्षण करके इन वयस्कों के लिए भोजन का स्रोत बन जाते हैं, जो वयस्कों को जाड़ों में काम आता है।(स्रोत फीचर्स)
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हमारा
मस्तिष्क अलग-अलग किस्म की स्मृतियों को मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों में सहेजता है। जैसे दृश्य सम्बंधी स्मृतियां
मस्तिष्क के दाएं हिस्से में सुरक्षित रहती हैं तो शब्दिक स्मृतियां मस्तिष्क के
बाएं हिस्से में। ऐसा ही स्मृति विभाजन हमें सॉन्ग बर्ड्स और ज़ेब्रा फिश में भी
देखने को मिलता है। और अब प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित
अध्ययन बताता है कि चींटियों का नन्हा-सा मस्तिष्क भी अलग-अलग तरह की स्मृतियां अलग-अलग
हिस्सों में सहेजता है। इस प्रक्रिया को पार्श्वीकरण कहते हैं।
यह
जानने के लिए कि क्या चींटियों का मस्तिष्क दृश्य स्मृतियों को मस्तिष्क के अलग
हिस्से में सहेजता है,
पहले तो शोधकर्ताओं ने जंगली चींटियों (फॉर्मिका रूफा) को ठीक उस तरह
प्रशिक्षित किया जैसे इवान पावलॉव ने कुत्तों को प्रशिक्षित किया था। उन्हें एक
संकेत दिया जाता और फिर उसके साथ भोजन मिलता था।
उन्होंने
दर्जनों चींटियों के साथ यह प्रयोग किया। प्रयोग यह था कि जब भी चींटियां नीले रंग
की वस्तु देखें तो या तो उनके दाएं एंटीना पर, या बाएं एंटीना पर, या दोनों एंटीना पर
मीठे पानी की एक बूंद लगाई गई। इस तरह उन्होंने चींटियों में नीले रंग की वस्तु से
प्यास का सम्बंध बनाया।
इसके
बाद शोधकर्ताओं ने 10 मिनट, 1 घंटे और 24 घंटे बाद उनकी स्मृति का परीक्षण किया। वे देखना चाहते थे
कि नीली वस्तु दिखाने पर क्या चींटियां मीठे पानी के लिए अपना मुंह खोलती हैं जो
प्यास का द्योतक होगा।
शोधकर्ताओं
ने पाया कि जिन चींटियों का दायां एंटीना छूकर प्रशिक्षित गया था उन्होंने 10 मिनट बाद के परीक्षण में मीठे पानी के लिए तुरंत
प्रतिक्रिया दी,
1 घंटे के बाद सुस्त प्रतिक्रिया दी लेकिन
उसके बाद कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। और जिन चींटियों का बायां एंटीना छूकर
प्रशिक्षित किया गया था उन चींटियों ने 10 मिनट
और 1 घंटे बाद तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन
24 घंटे बाद प्यास की प्रतिक्रिया दी। इससे तो
लगता है कि चींटियों के मस्तिष्क का एक हिस्सा अल्पकालीन स्मृतियों को और दूसरा
हिस्सा दीर्घकालीन स्मृतियों को सहेजता है।
कीटों में यह पहली बार देखा गया है कि अल्प और दीर्घकालीन दृश्य स्मृतियां मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से में सहेजी जाती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है यह कीटों की एक ऐसी विशेषता हो सकती है जो उन्हें ऊर्जा और स्मृति सहेजने की क्षमता की बचत करने में मदद करती हो।(स्रोत फीचर्स)
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रोएंदार
पूंछ और पूंछ पर काले-भूरे
छल्लों की खासियत वाले लीमर अपने नर प्रतिद्वंदी को दूर रखने के लिए पूंछ झटकने की
अजीबो-गरीब
आदत के लिए जाने जाते हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन
बताता है कि प्रजनन काल में नर लीमर पूंछ झटककर अपनी संभावित मादा साथी को आमंत्रण
देने के लिए गंध फैलाते हैं।
वैसे
तो अधिकांश कीट मादा को रिझाने या आकर्षित करने के लिए गंध युक्त रसायन स्रावित
करते हैं जिन्हें फेरोमोन कहते हैं। ऐसा ही व्यवहार चूहों में भी देखा गया है।
लेकिन टोक्यो युनिवर्सिटी के बायोकेमिस्ट काज़ुशिगे तोहारा जानना चाहते थे कि क्या
प्राइमेट्स (जिसमें
मनुष्य भी शामिल हैं) भी
ऐसा ही व्यवहार करते हैं?
मैडागास्कर
में पाए जाने वाले लीमर (Lemur catta) अन्य प्राइमेट्स से
थोड़े भिन्न होते हैं। नर लीमर की कलाई पर ग्रंथियां पाई जाती हैं जो फेरोमोन की
तरह गंधयुक्त रसायन स्रावित करती हैं। ये रसायन हवा के संपर्क में आने पर वाष्प बन
कर उड़ जाते हैं। गंध के वाष्प बन कर उड़ने के पहले ही लीमर अपनी पूंछ को कलाई से
रगड़ लेते हैं और फिर पूंछ झटककर अपनी गंध फैलाते हैं। साल के अधिकांश समय तो लीमर
कड़वी व चमड़े जैसी गंध वाले रसायन स्रावित करते हैं ताकि अन्य नर इनसे दूर रहें।
लेकिन प्रजनन काल में ये एक मीठी-सी महक छोड़ते हैं।
अपने
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लीमर्स की कलाई की ग्रंथियों से स्रावित रसायन को
एकत्रित किया और उसमें मौजूद घटकों का पता लगाया। विश्लेषण में उन्होंने पाया कि स्रावित
रसायन में मादा को आकर्षित करने के लिए तीन घटक ज़िम्मेदार हैं और तीनों ही घटक
एल्डिहाइड हैं, जो कई तरह की गंध के
लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इनमें से एक घटक कीटों द्वारा मादा को आमंत्रित करने के
लिए स्रावित किया जाने वाला फेरोमोन है और दूसरे घटक की गंध नाशपाती जैसी है।
शोधकर्ताओं
ने यह भी पाया कि मादाएं सिर्फ प्रजनन काल में और तीनों रसायन के उपस्थित होने पर
ही इन गंध के स्थान को सूंघती या चाटती हैं। जिससे लगता है कि यह गंध प्रजनन काल
में लीमर को साथी ढूंढने में मदद करती है। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने देखा कि जिस
नर में जितना अधिक टेस्टोस्टेरोन होता है, गंध
उतनी अधिक मीठी होती है।
युनिवर्सिटी
ऑफ विस्कॉन्सिन के मनोवैज्ञानिक चार्ल्स स्नोडाउन बताते हैं कि इसमें खास बात यह
है कि अधिकतर फेरोमोन में एक ही रसायन होता है जबकि लीमर्स द्वारा उत्सर्जित
फेरोमोन में तीन तरह के रसायन मौजूद हैं और महत्व तीनों के मिश्रण का है।
हालांकि
यह अध्ययन बहुत सीमित समूह पर किया गया है और अध्ययन का अधिकांश डैटा एक ही नर
लीमर से प्राप्त हुआ है इसलिए इसका सम्बंध प्रजनन से पक्का नहीं है।
बहरहाल यह अध्ययन इस सवाल की ओर ध्यान दिलाता है कि क्या गंध प्राइमेट्स में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। (स्रोत फीचर्स)
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20वीं शताब्दी की
शुरुआत तक लगभग 5 लाख
गैंडे एशिया और अफ्रीका में घूमते थे। कई दशकों से लगातार हो रहे शिकार और
प्राकृतिक आवास के नष्ट होने से सभी राष्ट्रीय उद्यानों में भी गैंडों की संख्या
बेहद कम हो चुकी है।
अफ्रीका
के पश्चिमी काले गैंडे और उत्तरी सफेद गैंडे हाल के वर्षों में जंगल से विलुप्त हो
गए हैं। गैंडों के संरक्षण में जुटे वैज्ञानिकों और अन्य कार्यकर्ताओं को तब झटका
लगा जब केन्या के एक संरक्षण स्थल पर 24 घंटे गार्ड की निगरानी में रखे गए अंतिम तीन उत्तरी सफेद
गैंडों में से एक 44 वर्ष
की आयु में मर गया। शोधकर्ताओं की अंतर्राष्ट्रीय टीम अनेक वर्षों से इन गैंडों को
प्रजनन कराने का भरसक प्रयास कर रही थी। कुछ समय पहले ही इन विट्रो-निषेचन की तकनीक से
गैंडे के दो अंडाणुओं को प्रयोगशाला में सफलता पूर्वक निषेचित करने से वैज्ञानिकों
ने गैंडों को बचाने के लिए एक बार फिर उम्मीद जगा दी है।
ऐसा
माना जाता है कि अफ्रीका के उत्तरी सफेद गैंडे 2007-08 में जंगलों से विलुप्त हो चुके थे। इन
गैंडों की एक छोटी-सी
आबादी चिड़ियाघरों में ही शेष बची थी। परंतु समस्या यह थी कि चिड़ियाघर में बचे
गैंडे किसी कारण से प्रजनन करने में सक्षम नहीं थे। 2014 में बचे शेष तीन उम्रदराज़ गैंडों में से
अकेला नर भी मर गया। नर के मर जाने के पूर्व भी दोनों मादाओं को प्राकृतिक तथा
कृत्रिम तरीके से गर्भधारण करने के लिए प्रोत्साहित किया गया पर नतीजा शून्य रहा।
इसी वर्ष अगस्त माह में वैज्ञानिकों ने दोनों बची हुई मादाओं से 10 अंडाणु शरीर के बाहर
निकालने में सफलता प्राप्त की। मरने के पूर्व नरों से एकत्रित किए गए शुक्राणुओं
के द्वारा अंडों को निषेचित किया जा सकता है। योजना के अनुसार दोनों मादा गैंडों
से कुल 10 अंडाणु
प्राप्त किए गए।
क्रेमोना, इटली में स्थित एवांटिया प्रयोगशाला के इस
कार्य से जुड़े एक वैज्ञानिक ने बताया कि 10 में से केवल 7 अंडाणु ही शुक्राणु द्वारा निषेचन के लिए
उपयुक्त पाए गए। अंत में केवल दो अंडाणु भ्रूण में बदले। दोनों भ्रूणों को भविष्य
में उपयुक्त मादा गैंडों में प्रत्यारोपित करने के पूर्व बर्फ में जमा कर संरक्षित
कर लिया गया है।
यद्यपि
भ्रूण को सरोगेट मां में स्थापित कर जन्म तक देखभाल करने की तकनीक मनुष्यों में
बेहद सामान्य हो गई है परंतु गैंडे में इस प्रकार के प्रयोग पहली बार किए जा रहे
हैं। वैज्ञानिक सरोगेट मां के रूप में स्वस्थ दक्षिणी सफेद मादा को भी खोज रहे
हैं। वैज्ञानिकों के पास दो भ्रूण संरक्षित हैं।
गैंडों में भ्रूण प्रत्यारोपण एक बेहद कठिन कार्य है। आशा करते हैं कि वैज्ञानिकों के प्रयास से गैंडे की प्रजाति को बचाया जा सकेगा। यद्यपि उत्तरी सफेद गैंडों की पूरी तरह वापसी के लिए उपरोक्त प्रयोगों को कई बार दोहराने की ज़रूरत होगी। वैज्ञानिकों के पास केवल दो बूढ़ी गैंडा मादाएं शेष हैं जिनसे अभी और अंडाणु प्राप्त किए जा सकते हैं। केवल चार नरों से प्राप्त शुक्राणुओं की उपलब्धि के कारण आनुवंशिक विविधता बहुत कम रह गई है। यदि मृत गैंडों की जमी हुई (फ्रोज़न) कायिक कोशिकाओं के जीन्स को भी मिला लिया जाए तो जीन समूह 12 गैंडों का हो जाता है। अगर इन मृत गैंडों की संग्रहित जीवित स्टेम कोशिकाओं को प्रेरित कर अंडाणुओं और शुक्राणुओं में बदल दिया जाए तो काम और आसान हो जाएगा। वैज्ञानिक जुटे हुए हैं और आशा करें कि एक दिन उत्तरी सफेद गैंडे का शिशु पुन: दौड़ता दिखेगा।(स्रोत फीचर्स)
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किसी
प्रजाति के लिए हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस किसी अन्य प्रजाति को संक्रमित करने
के लिए काफी तेज़ी से विकसित हो सकते हैं। कोरोनावायरस इसका सबसे नवीन उदाहरण है।
एक जानलेवा बीमारी का जनक यह वायरस जानवरों से मनुष्यों में आ पहुंचा है और शायद
मनुष्यों से जानवरों में भी पहुंच रहा है।
इस
तरह के प्रजाति-पार
संक्रमण पशु पालन के स्थानों पर या बाज़ार में शुरू हो सकते हैं जहां संक्रामक
जीवों के संपर्क को बढ़ावा मिलता है। ऐसी परिस्थिति में विभिन्न रोगजनक
सूक्ष्मजीवों के बीच जीन्स का लेन-देन हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है सामान्य जंतु-मनुष्य संपर्क के
दौरान कोई सूक्ष्मजीव प्रजाति की सीमा-रेखा पार कर जाए।
जंतुओं
से मनुष्यों में पहुंचने वाले रोगों को ज़ुऑनोसेस कहा जाता है। इनमें 3 दर्ज़न से अधिक रोग
तो ऐसे हैं जो सिर्फ स्पर्श से हमें संक्रमित कर सकते हैं जबकि 4 दर्ज़न से अधिक ऐसे
हैं जो जीवों के काटने से हमें मिलते हैं। इनमें कुछ रोग ऐसे भी हैं जो मनुष्यों
से जीवों में पहुंचते हैं। यहां एक से दूसरी प्रजातियों में फैलने वाली कुछ
जानलेवा बीमारियों पर चर्चा की गई है।
नया
कोरोनावायरस
नए
कोरोनावायरस (SARS-CoV-2) की पहचान दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत के सी-फूड बाज़ार में हुई
थी। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि यह चमगादड़ से आया है। उस बाज़ार में चमगादड़
नहीं बेचे जाते थे, इसलिए वैज्ञानिकों
ने माना कि इस वायरस के मानवों में संक्रमण के पीछे एक अज्ञात तीसरा जीव होना
चाहिए। कुछ अध्ययनों के आधार पर कहा जा रहा है कि यह मध्यवर्ती जीव पैंगोलिन हो
सकता है। लेकिन नेचर पत्रिका के अनुसार अवैध रूप से तस्करी किए गए पैंगोलिन से
प्राप्त नमूने SARS-CoV-2 से इतना मेल नहीं
खाते हैं जिससे इसकी पुष्टि एक मध्यवर्ती जीव के रूप में की जा सके। इसके पूर्व के
अध्ययनों में सांपों को इसका संभावित स्रोत माना गया था लेकिन सांपों में
कोरोनावायरस के संक्रमण की पुष्टि नहीं की गई है।
इन्फ्लुएंज़ा
महामारियां
वर्ष
1918 में
इन्फ्लुएंज़ा ने कुछ ही महीनों में 5 करोड़ लोगों की जान ली थी। विश्व की एक-तिहाई आबादी को संक्रमित करने वाला यह
इन्फ्लुएंज़ा वायरस (H1N1) पक्षी-मूल का था। मुख्य रूप से बुज़ुर्गों और
कमज़ोर प्रतिरक्षा तंत्र वाले लोगों की जान लेने वाले साधारण फ्लू के विपरीत H1N1 ने युवा व्यस्कों
को अपना शिकार बनाया था। ऐसा लगता है कि बुज़ुर्गों में पिछले किसी H1N1 संक्रमण के कारण
प्रतिरक्षा उत्पन्न हुई थी, और इस वजह से 1918 की महामारी में उन
पर ज़्यादा असर नहीं हुआ।
H1N1 वायरस (H1N1pdm09) का नवीनतम हमला 2009 में हुआ था जिसमें
अमेरिका में 6.08 करोड़
मामले सामने आए थे और 12,496
लोगों की मौत हुई थी। विश्व भर में मौतों की संख्या डेढ़ से
पौने छ: लाख
के बीच थी। यह वायरस सूअरों के झुंड में उत्पन्न हुआ था जहां आनुवंशिक पदार्थ की
अदला-बदली
के दौरान इन्फ्लुएंज़ा वायरसों का पुनर्गठन हुआ। यह प्रक्रिया उत्तरी अमेरिकी और
यूरेशियन सूअरों में प्राकृतिक रूप से होती रहती है।
प्लेग
14वीं सदी में ब्लैक
डेथ के नाम से मशहूर इस एक बीमारी के सामने कई सभ्यताओं ने घुटने टेक दिए थे।
युरोप से लेकर मिस्र और एशिया तक अनगिनत लोग मारे गए थे। उस समय 36 करोड़ की आबादी वाले
विश्व में 7.5 करोड़
लोग मारे गए थे। प्लेग एक बैक्टीरिया-जनित रोग है जो यर्सिनिया पेस्टिस नामक बैक्टीरिया
के कारण होता है। यह बैक्टीरिया चूहों (और शायद बिल्लियों) में रहता है और संक्रमित पिस्सुओं के काटने
से मनुष्यों में फैल जाता है। यह एक जानलेवा रोग है और आज भी यदि इसका इलाज न किया
जाए तो जानलेवा होता है।
14वीं शताब्दी का
प्लेग जिस बैक्टीरिया के कारण फैला था वह गोबी रेगिस्तान में वर्षों तक निष्क्रिय
रहने के बाद चीन के व्यापार मार्गों के माध्यम से युरोप,
एशिया और अन्य देशों में फैल गया। इसके लक्षणों में बुखार,
ठण्ड लगना, कमज़ोरी,
लसिका ग्रंथियों में सूजन और दर्द शामिल हैं। कई समाजों को
इससे उबरने में सदियां लगी थीं।
दंश
से फैलते रोग
कई
जंतु-वाहित
बीमारियां जानवरों द्वारा काटने से फैलती हैं। मच्छरों द्वारा मानव शरीर में
परजीवी के संक्रमण से मलेरिया रोग काफी जानलेवा सिद्ध होता है। एक रिपोर्ट के
अनुसार मच्छरों के काटने से वर्ष 2018 में लगभग 22.8 करोड़ लोग संक्रमित हुए जबकि 40 लाख से अधिक लोगों की मौत हो गई। इनमें
सबसे अधिक संख्या अफ्रीकी देशों में रहने वाले बच्चों की थी।
मच्छरों
से फैलने वाले डेंगू बुखार से सालाना 40 करोड़ लोग संक्रमित होते हैं, जिनमें
से 10 करोड़
लोग बीमार होते हैं और 22,000
लोग मारे जाते हैं। यह रोग एडीज़ वंश के मच्छर द्वारा काटने
से होता है।
पालतू
प्राणि और चूहे
पालतू
प्राणियों से होने वाली बीमारियों में रेबीज़ सबसे जानी-मानी है। इससे हर वर्ष लगभग 55,000 लोगों की मृत्यु
होती है। इनकी सबसे अधिक संख्या एशिया और अफ्रीका के देशों में होती है। आम तौर पर
यह रोग संक्रमित पालतू कुत्ते के काटने से होता है हालांकि जंगली जानवरों में
रैबीज़ के वायरस पाए जाते हैं।
एक
और बीमारी है जो जानवर के काटे बगैर भी हो जाती है। चूहों जैसे प्राणियों में
मौजूद हैन्टावायरस उनके मल, मूत्र वगैरह में
होता है और यदि ये पदार्थ कण रूप में हवा में फैल जाएं तो वायरस सांस के साथ
मनुष्यों में पहुंच जाता है। यह मुख्य रूप से डीयर माइस से फैलता है। यह वायरस एक
व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचरण नहीं करता है। इसके मुख्य लक्षणों में ठण्ड
लगना, बुखार, सिरदर्द
आदि शामिल हैं। वैसे तो यह बीमारी बिरली है लेकिन इसकी मृत्यु दर 36 प्रतिशत है।
एचआईवी./एड्स
सीडीसी
के अनुसार एड्स का वायरस (एचआईवी) मध्य अफ्रीका के एक
चिम्पैंज़ी से आया है। यह वायरस (मूलत: एसआईवी) मनुष्यों में इन जीवों के शिकार ज़रिए पहुंचा है। यह
मनुष्यों में इन जीवों के संक्रमित खून से आया जिसने मानवों में विकसित होकर
एचआईवी का रूप ले लिया। अध्ययनों के अनुसार यह मनुष्यों में 18वीं सदी से मौजूद है।
एचआईवी
प्रतिरक्षा तंत्र को तहस-नहस
कर देता है जिससे जानलेवा बीमारियों और कैंसर का रास्ता खुल जाता है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वर्ष 2018 में 7.7 लाख लोगों की मृत्यु एचआईवी के कारण हुई जबकि इसी वर्ष के
अंत तक 3.7 करोड़
लोग इससे संक्रमित पाए गए। एचआईवी संक्रमित लोगों में टीबी से मृत्यु दर काफी अधिक
होती है। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में शारीरिक तरल पदार्थ (जैसे खून,
स्तनपान, वीर्य,
योनि स्राव आदि) के आदान प्रदान से पहुंचता है।
मस्तिष्क
पर नियंत्रण
एक
विचित्र परजीवी टोक्सोप्लाज़्मा गोंडाई ने विश्व भर में लगभग 2 अरब लोगों को अपना शिकार बनाया है। यह
परजीवी शीज़ोफ्रीनिया का कारण होता है। इसका प्राथमिक मेज़बान बिल्लियां हैं। यह
रोगाणु बिल्ली की आंत में विकसित होते हैं। इसके अंडे बिल्ली के मल के साथ बाहर
आते हैं और इनके छोटे-छोटे
कण हवा के माध्यम से नाक के ज़रिए मनुष्यों में प्रवेश कर जाते हैं।
मनुष्य
में प्रवेश करने के बाद ये अंडे शरीर के उन अंगों में छिप जाते हैं जहां
प्रतिरक्षा तंत्र का अभाव होता है, जैसे मस्तिष्क,
ह्मदय, और कंकाल की
मांसपेशियां। इन अंगों में अंडे सक्रिय परजीवी टैकीज़ोइट में तबदील हो जाते हैं और
अन्य अंगों में फैलने व संख्यावृद्धि करने लगते हैं।
इनको
मस्तिष्क पर नियंत्रण करने वाला जीव इसलिए कहा जाता है क्योंकि इससे संक्रमित
चूहों में बिल्लियों का डर खत्म हो जाता है और वे बिल्लियों के मूत्र की गंध की ओर
आकर्षित होने लगते हैं। ऐसे में वे बिल्ली का आसान शिकार बन जाते हैं और परजीवी को
बिल्ली की आंत में पहुंचने का एक आसान रास्ता मिल जाता है।
मनुष्यों
में इनके संक्रमण का कोई खास लक्षण दिखाई नहीं देता है। हालांकि कुछ मामलों में
सामान्य फ्लू और लसिका नोड्स पर सूजन की शिकायत होती है जो कुछ हफ्तों से लेकर
महीनों तक रहती है। कभी-कभार
दृष्टि गंवाने से लेकर मस्तिष्क क्षति जैसी गंभार समस्याएं हो सकती हैं।
सिस्टीसर्कोसिस
सिस्टीसर्कोसिस
की समस्या फीता कृमि (टीनिया
सोलियम) के
अण्डों के शरीर में प्रवेश करने से होती है। इसका लार्वा मांसपेशियों और मस्तिष्क
में पहुंच कर गठान बना देता है। मनुष्यों में यह सूअर के मांस का सेवन करने से भी
पहुंचता है। यह छोटी आंत के अस्तर से जुड़कर दो महीनों में एक व्यस्क कृमि में
विकसित हो जाता है। इसका सबसे खतरनाक रूप मस्तिष्क में गठान के रूप में सामने आता
है। इसके लक्षणों में सिरदर्द, दौरे,
भ्रमित होना, मस्तिष्क
में सूजन, संतुलन बनाने में
समस्या, स्ट्रोक या मृत्यु
शामिल हैं।
एबोला
यह
रोग एबोला वायरस के पांच में से एक प्रकार के कारण होता है। यह मध्य अफ्रीका में
गोरिल्ला और चिम्पैंज़ियों के लिए एक बड़ा खतरा है। सीडीसी के अनुसार मनुष्यों में
यह चमगादड़ या गैर-मानव
प्राइमेट्स के द्वारा फैली है। इसकी पहचान पहली बार कांगो में एबोला नदी के किनारे
हुई थी। यह वायरस संक्रमित प्राणियों के रक्त या शरीर के अन्य तरल पदार्थों से
फैलता है। मनुष्यों के बीच यह निकट संपर्क से फैलता है।
इसके
लक्षण काफी भयानक होते हैं। अचानक बुखार, कमज़ोरी,
मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द,
और गले में खराश शुरुआती लक्षण हैं,
जिसके बाद उल्टी, दस्त,
शरीर पर दाने, गुर्दों
और लीवर की तकलीफ और कुछ मामलों में आंतरिक और बाहरी रक्तस्राव। मृत्यु दर 90 प्रतिशत तक हो सकती
है।
लाइम
रोग
यह रोग एक काली टांग वाले पिस्सू द्वारा मनुष्यों में बैक्टीरिया संक्रमण के कारण होता है। यह रोग मुख्य रूप से बोरेलिया बर्गडोरफेरी प्रजाति और कभी कभी एक अन्य प्रजाति बी. मेयोनाई से भी होता है। इसके लक्षणों में बुखार, सिरदर्द, थकान और त्वचा पर चकत्ते शामिल हैं। उपचार न किया जाए तो यह शरीर के जोड़ों से ह्मदय और तंत्रिका तंत्र तक फैल जाता है। हर वर्ष इसके लगभग 30,000 मामले सामने आते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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वाइल्डलाइफ
कंज़र्वेशन सोसायटी ने हाल ही में घोषणा की है कि न्यूयॉर्क के एक चिड़ियाघर ब्रॉन्क्स
ज़ू की एक 4-वर्षीय
बाघिन (नादिया) कोविड-19 पॉज़िटिव निकली है।
गौरतलब है कि न्यूयॉर्क अत्यधिक संक्रमित क्षेत्र है।
यह
मलायन बाघिन, बिल्ली कुल के छ: अन्य साथियों (जिनमें नादिया की एक
बहन, दो अमूर बाघ और तीन अफ्रीकी शेर शामिल हैं) के साथ सूखी खांसी
से पीड़ित थी। हालांकि इन अन्य प्राणियों की जांच नहीं की गई है किंतु ज़ू के
अधिकारी मानकर चल रहे हैं कि ये सब SARS-CoV-2 से संक्रमित हैं जो कोविड-19 का कारण है।
दरअसल,
इस बाघिन की जांच ऐहतियात के तौर पर की गई थी और अधिकारियों
की कहना है कि उन्हें इस बाघिन के अध्ययन से जो भी जानकारी मिलेगी वह कोरोनावायरस
से हमारी विश्वव्यापी लड़ाई में मददगार ही होगी।
वाइल्डलाइफ
कंज़र्वेशन सोसायटी का मत है कि चिड़ियाघर का एक कर्मचारी कोविड-19 से पीड़ित था और संभवत: उसने ही इन
बिल्लियों को संक्रमित किया है। इसके बाद से सभी कर्मचारियों के लिए सुरक्षा के
उपाय लागू कर दिए गए हैं।
यह
देखा गया है कि संक्रमित जानवरों की भूख कम हुई है लेकिन चिड़ियाघर के अनुसार उनकी
हालत ठीक है। चिड़ियाघर के पशु चिकित्सक इन बाघ-शेरों की देखभाल व उपचार में लगे हैं।
एक
अच्छी बात यह है कि बिल्ली कुल के अन्य प्राणियों में फिलहाल कोविड-19 के लक्षण नहीं दिखे
हैं।
यह देखा जा चुका है कि पालतू बिल्लियां संक्रमित हुई हैं। पता चला है कि उनकी श्वसन कोशिकाओं की सतह पर लगभग वैसे ही ग्राही पाए जाते हैं, जैसे मनुष्य की कोशिकाओं पर होते हैं, जो वायरस को कोशिका में प्रवेश करने में मदद करते हैं। वैसे अभी इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि बिल्लियां यह वायरस मनुष्यों में फैला सकती हैं। बहरहाल, न्यूयॉर्क के विभिन्न चिड़ियाघरों को बंद कर दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)
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