ब्लैक होल की पहली तस्वीरें

गोलविदों के एक अंतर्राष्ट्रीय समूह ने हाल ही में ब्लैक होल का सबसे पहला प्रत्यक्ष चित्र प्राप्त किया है। यह उपलब्धि उनको चार महाद्वीपों पर स्थापित आठ रेडियो वेधशालाओं के समन्वय से हासिल हुई। इन वेधशालाओं ने मिलकर काम किया तो ये पृथ्वी के आकार की एक विशाल आभासी दूरबीन बन गर्इं।

एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स के विशेष अंक में प्रकाशित शोध पत्रों में टीम ने M87 निहारिका के केंद्र में स्थित एक विशाल ब्लैक होल की चार छवियां प्रस्तुत की हैं। M87 एक निहारिका है जो पृथ्वी से 550 लाख प्रकाश वर्ष दूर कन्या (virgo) निहारिका-समूह के भीतर स्थित है। चारों छवियों में केंद्र में एक अंधेरा दायरा है और उसके चारों ओर प्रकाश का एक छल्ला नज़र आ रहा है।

ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होता है कि इससे, कुछ और तो क्या, प्रकाश भी नहीं निकल सकता। लिहाज़ा, ब्लैक होल अदृश्य होते हैं। लेकिन अगर कोई ब्लैक होल प्रकाश-उत्सर्जक पदार्थ (जैसे प्लाज़्मा) से घिरा हो, तो वह पदार्थ ब्लैक होल या उसकी परिधि रेखा (आउटलाइन) की एक छाया का निर्माण करेगा। इस आउटलाइन को ब्लैक होल का इवेंट होराइज़न कहते हैं। इन चित्रों से टीम ने अनुमान लगाया है कि उक्त ब्लैक होल सूरज से लगभग 6.5 अरब गुना अधिक वज़नी है। इन चार चित्रों के बीच थोड़ा-थोड़ा अंतर इस बात का संकेत देता है कि यह पदार्थ लगभग प्रकाश की गति से ब्लैक होल के आसपास घूम रहा है।

चित्रों की एक विशेषता यह भी है कि प्रकाश का छल्ला चारों तरफ एक समान नहीं है। एक तरफ यह थोड़ा ज़्यादा चमकीला है। यह ठीक आइंस्टाइन की भविष्यवाणी के अनुरूप है।

ये चित्र इवेंट होराइज़न टेलीस्कोप (ई.एच.टी) द्वारा लिए गए हैं जिसमें आठ रेडियो टेलिस्कोप हैं। ये टेलीस्कोप एक दूसरे से दूर-दूर ऊंचाई वाले स्थानों पर स्थापित हैं। ये रेडियो तरंगों का उत्सर्जन करने वाली खगोलीय वस्तुओं का निरीक्षण करते हैं। ब्लैक होल आकाश में किसी भी अन्य रेडियो रुाोत की तुलना में अत्यंत छोटा और काला होता है। इसे देखने के लिए बहुत कम तरंग दैर्ध्य का उपयोग करना होता है।

ब्लैक होल का चित्र बनाने के लिए उच्च कोणीय विभेदन की आवश्यकता होती है। टेलीस्कोप का कोणीय विभेदन उसकी डिश के आकार के साथ बढ़ता है। दिक्कत यह है कि पृथ्वी का सबसे बड़ा टेलीस्कोप भी इतना बड़ा नहीं है जिससे ब्लैक होल को देखा जा सके। लेकिन जब एक-दूसरे से काफी दूरी पर स्थित बहुत सारे टेलीस्कोप को एक साथ तालमेल बनाकर एक ही पिंड पर केंद्रित किया जाए तो वे एक बहुत बड़े रेडियो डिश के रूप में काम कर सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उम्दा चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं।

वैसे तो ब्लैक होल को चित्रित करने के प्रयास काफी समय से किए जा रहे हैं लेकिन वर्ष 2007 में डोलमैन की टीम ने परीक्षण के लिए ई.एच.टी. का इस्तेमाल किया। आज ई.एच.टी. 11 वेधशालाओं की एक शृंखला है। उम्मीद है कि ई.एच.टी. से ब्लैक होल का अवलोकन खगोल भौतिकी के एक नए युग की शुरुआत करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक खोजी की अनोखी यात्रा – डॉ. अरविंद गुप्ते

7 जुलाई 2003 को एक खोजी 50 करोड़ किलोमीटर लम्बी यात्रा पर 20 हज़ार किलोमीटर प्रति घंटा की गति से चल पड़ा। यह यात्री कोई मनुष्य नहीं, अमेरिका द्वारा मंगल ग्रह की ओर भेजा गया यान अपॉर्चुनिटी (संक्षेप में ऑपी) था। साढ़े पांच महीनों की लम्बी यात्रा के दौरान ऑपी सोता रहा और जनवरी 2004 को वह अपने लक्ष्य के पास पहुंचा। फिर उसे भेजने वाले वैज्ञानिकों ने उसकी गति छह मिनटों में शून्य कर दी। इसके बाद वह तेज़ी से मंगल ग्रह पर गिरने लगा। किंतु इसके पहले कि वह लाल ग्रह से टकराता, उसके पैराशूट और झटकों से बचाने वाले एअर बैग खुल गए और वह मंगल की सतह पर आराम से उतर गया।

मंगल ग्रह पर उल्का पिंड टकराते रहते हैं और छोटे-बड़े गड्ढे बनते रहते हैं। ऐसे ही एक गड्ढे में उतरने के चार घंटे बाद ऑपी को नींद से जगाया गया। जब ऑपी ने अपनी आंखें खोली तब उसकी आंखों से दिख रहे दृश्य को देख वैज्ञानिक हैरान रह गए। उस गड्ढे की दीवार तलछटी चट्टानों से बनी थी। तलछटी चट्टानें केवल समुद्र जैसे बड़े जलाशयों में ही बनती हैं। पानी में निलंबित गाद पेंदे में बैठ जाती है और धीरे-धीरे चट्टानों में बदल जाती है। ऐसा नज़ारा पृथ्वी को छोड़ कहीं और नहीं देखा गया था। ऑपी ने उतरते ही सिक्सर लगा दिया था। वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि यह तलछट किसी खारे पानी के समुद्र के सूखने से बनी थी। किसी भी ग्रह-उपग्रह पर जीवन लायक परिस्थितियों की खोज इस बात पर निर्भर करती है कि क्या उस ग्रह पर पानी है या कभी था।

ऑपी को कुछ लक्ष्य दिए गए थे:

1. चट्टानों और मिट्टियों का परीक्षण करके यह पता लगाना कि क्या मंगल पर कभी पानी था?

2. उतरने के स्थान के आसपास की भूमि पर उपस्थित खनिजों, चट्टानों और मिट्टी का परीक्षण करके उनके संघटन का निर्धारण करना।

3. यह निर्धारित करना कि किन भूगर्भीय प्रक्रियाओं ने ग्रह की सतह को आकृति दी है और उसकी रासायनिक बनावट को प्रभावित किया है। इन प्रक्रियाओं में पानी या हवा से अपरदन, तलछटीकरण, ज्वालामुखीय गतिविधि आदि शामिल हैं।

4. मंगल ग्रह का चक्कर लगाने वाले उपग्रहों द्वारा किए गए अवलोकनों का सत्यापन करना।

5. लौह-युक्त खनिजों की खोज करना और ऐसे विशिष्ट खनिजों की पहचान करके उनकी मात्रा का निर्धारण करना जिनमें पानी हो सकता है या जो पानी में बने थे, जैसे लौह के कार्बन-युक्त यौगिक।

6. चट्टानों और मिट्टियों का परीक्षण करके यह पता करना कि उनका निर्माण किन प्रक्रियाओं से हुआ था।

7. उन भूगर्भिक संकेतों को खोजना जिनसे यह पता चले कि जब मंगल ग्रह पर पानी था तब पर्यावरणीय परिस्थितियां कैसी थीं और यह मूल्यांकन करना कि क्या वे परिस्थितियां जीवन के लिए अनुकूल थीं।

ऑपी से 20 दिन पहले अमेरिका का दूसरा खोजी यान (स्पिरिट) मंगल ग्रह की दूसरी बाजू पर उतर चुका था, किंतु यहां हम केवल ऑपी की ही चर्चा करेंगे। उपरोक्त भारी-भरकम कार्य के लिए ऑपी को केवल 90 सोल यानी पृथ्वी के लगभग 3 माह का समय दिया गया था। (मंगल ग्रह का एक दिन पृथ्वी के 24 घंटे और 40 मिनिट के बराबर होता है और इसे सोल कहते हैं।)

पहले लगभग दो महीनों तक (56 सोल) ऑपी उतरने की जगह के आसपास ही घूमता रहा। उसने अपने कई कैमरों से लगातार फोटो लिए, एक बरमे से ज़मीन में छेद किए, एक पहिए को ज़मीन पर रगड़ कर नाली खोद डाली और विभिन्न खनिजों के वर्णक्रमों का मापन किया।

57वें सोल पर ऑपी अपने गड्ढे से बाहर निकला और एक किलोमीटर दूर दूसरे, अधिक गहरे गड्ढे की ओर चल पड़ा। बड़े गड्ढे में उतरने के बाद उसने और खोजबीन की। इसके बाद ऑपी को निर्देश दिया गया कि वह उस गड्ढे की खोजबीन करे जो स्वयं उसके उष्णतारोधी आवरण के गिरने की वजह से बना था। इस आवरण ने उसे मंगल पर उतरते समय जल जाने से बचाया था। रास्ते में उसे एक उल्कापिंड मिल गया जो निश्चित रूप से किसी अन्य ग्रह से आ कर या अंतरिक्ष में अकेले भटकते हुए मंगल से टकरा गया था। फिर ऑपी ने मंगल के कई चंद्रमाओं में से एक (फोबोस) का फोटो खींचा।

सोल 946 पर ऑपी विक्टोरिया नामक विशाल गड्ढे के पास पहुंचा। ऑपी को इस यात्रा में कई संकटों का सामना करना पड़ा। एक बार वह रेत में फंस गया। कई सोल बाद वह मुश्किल से निकल पाया। फिर उसे मोड़ने वाली मोटरों में से एक खराब हो गई। उसके हाथ के जोड़ ने काम करना बंद कर दिया। फिर विक्टोरिया गड्ढे में उसे भयंकर तूफान का सामना करना पड़ा जिसके चलते उसके सौर पैनल मिट्टी से ढंक गए और पृथ्वी तथा सूर्य से उसका सम्पर्क कट गया। किंतु फिर एक ऐसा तूफान आया जिसने पैनलों पर जमी मिट्टी को उड़ा दिया। अब ऑपी को सौर ऊर्जा मिलने लगी और वह फिर चल पड़ा। आगे जाने पर ऑपी को एक घाटी दिखाई दी जिसके तल की ओर उतरते समय एक और तूफान आया और ऑपी के सौर पैनल फिर मिट्टी से ढंक गए और उसका पृथ्वी और सूर्य से सम्पर्क टूट गया। इस बार वैज्ञानिकों की लाख कोशिशों के बावजूद पैनलों से मिट्टी हटाई नहीं जा सकी और 12 फरवरी 2019 को अंतत: ऑपी को मृत घोषित कर दिया गया।

इस प्रकार, वैज्ञानिकों द्वारा जीवन की अवधि केवल 90 सोल माने जाने के बावजूद यह बहादुर यंत्र 5111 सोल (पंद्रह वर्ष से अधिक) तक जीवित रहा और मंगल ग्रह की और आगे होने वाली खोजों के लिए मज़बूत नींव रखकर हमेशा के लिए सो गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्षुद्रग्रह रीयूगू पर विस्फोटक गिराया

पिछले वर्ष, अंतरिक्ष खोजी यान हयाबुसा-2 ने क्षुद्रग्रह रीयूगू पर गोली से हमला करने जैसे कई अतिरंजित जांच की हैं। लेकिन हाल ही में अब तक की सबसे साहसी आतिशबाज़ी का प्रदर्शन किया गया है। इस खोजी यान ने क्षुद्रग्रह की सतह पर एक छोटा गड्ढा बनाने के लिए विस्फोटक गिराया है।

मिशन से जुड़ी टीम ने अभी तक विस्फोट की पुष्टि नहीं की है। यदि यह कामयाब रहा तो यह क्षुद्रग्रह की कुछ अंदरुनी परतों को उजागर करेगा जिसको खोजी यान उतरने के बाद एकत्रित करेगा। यह कार्यवाही 5 अप्रैल, 2019 को अंजाम दी गई। खोजी यान ने क्षुद्रग्रह की सतह से 500 मीटर ऊपर पहुंचकर एक विस्फोटक गिराया गया। फिर थोड़ा ऊपर जाने के बाद एक उपकरण की मदद से कैमरा भी गिराया गया।

सगामिहारा स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस एंड एस्ट्रोनॉटिकल साइंस (आईएसएएस) के इंजीनियर ओसामु मोरी के अनुसार विस्फोटक गिराने वाला प्रयोग थोड़ा अलग था। रीयूगू के कमज़ोर गुरुत्वाकर्षण के कारण बम को सतह तक पहुंचने में लगभग 40 मिनट लगे। इसी बीच अंतरिक्ष यान क्षुद्रग्रह के पीछे एक सुरक्षित क्षेत्र में पहुंच गया। इस तरह विस्फोट के कारण यान को नुकसान नहीं पहुंचा। एक कैमरा अभी भी लक्षित जगह के ऊपर स्थित है जो तस्वीरें मुख्य यान को भेजेगा जिनसे पुष्टि की जा सकेगी कि विस्फोट से कितना बड़ा गड्ढा बना है। इस प्रयोग से खगोलविदों को क्षुद्रग्रह की सतह के नीचे की सामग्री का अध्ययन करने का अवसर मिलेगा जिससे सौर मंडल के शुरुआती समय की जानकारी मिल सकती है।

आने वाले हफ्तों में खोजी यान थोड़ी ऊंचाई से गड्ढे की तस्वीरें लेगा। इसके बाद यान को आगे की जांच के लिए गड्ढे में उतारकर नमूना एकत्र किया जाएगा। यह रियूगू से एकत्र किया गया दूसरा नमूना होगा। इससे पहले यान ने एक गोली से हमला करके थोड़ा मलबा एकत्रित किया था।

हयाबुसा-2 वर्ष 2014 के अंत में पृथ्वी से रवाना होकर जून 2018 में रियूगू पहुंचा। सितंबर और अक्टूबर में दो अलग-अलग चरणों में, इसने सतह पर तीन छोटी-छोटी जांच कीं। हयाबुसा का 2019 के अंत से पहले पृथ्वी पर वापस लौटना निर्धारित है। एक साल बाद, फिर से एक प्रवेश कैप्सूल प्रयोगशाला में अध्ययन हेतु नमूने लेगा।

अंतरिक्ष एजेंसियां पहले भी ऐसे प्रयोग कर चुकी हैं। 2005 में, नासा के डीप इम्पैक्ट मिशन ने टेम्पल 1 नामक धूमकेतु पर उच्च गति पर एक टक्कर करवाई थी। चांद की सतह पर टक्कर करवाई गई हैं और उनके प्रभावों का अध्ययन किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

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ब्लैक होल की मदद से अंतरिक्ष यात्रा

किसी कल्पित एलियन सभ्यता द्वारा यात्रा करने के तरीके क्या होंगे? कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक खगोल विज्ञानी ने कुछ अटकल लगाई है। उनके अनुसार एलियन इसके लिए बायनरी ब्लैक होल पर लेज़र से गोलीबारी करके ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं। गौरतलब है कि बायनरी ब्लैक होल एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं। दरअसल, यह नासा द्वारा दशकों से इस्तेमाल की जा रही तकनीक का ही उन्नत रूप है।

फिलहाल अंतरिक्ष यान सौर मंडल में ग्रेविटी वेल का उपयोग गुलेल के रूप में करके यात्रा करते हैं। पहले तो अंतरिक्ष यान ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करते हैं और अपनी गति बढ़ाने के लिए ग्रह के करीब जाते हैं। जब गति पर्याप्त बढ़ जाती है तो इस ऊर्जा का उपयोग वे अगले गंतव्य तक पहुंचने के लिए करते हैं। ऐसा करने में वे ग्रह के संवेग को थोड़ा कम कर देते हैं, लेकिन यह प्रभाव नगण्य होता है।

यही सिद्धांत ब्लैक होल के आसपास भी लगाया जा सकता है। ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है। लेकिन यदि कोई फोटॉन ब्लैक होल के नज़दीक एक विशेष क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो वह ब्लैक होल के चारों ओर एक आंशिक चक्कर पूरा करके उसी दिशा में लौट जाता है। भौतिक विज्ञानी ऐसे क्षेत्रों को ‘गुरुत्व दर्पण’ और ऐसे लौटते फोटॉन को ‘बूमरैंग फोटॉन’  कहते हैं।

बूमरैंग फोटॉन पहले से ही प्रकाश की गति से चल रहे होते हैं, इसलिए  ब्लैक होल के पास पहुंचकर उनकी गति नहीं बढ़ती बल्कि उन्हें ऊर्जा प्राप्त हो जाती है। फोटॉन जिस ऊर्जा के साथ गुरुत्व दर्पण में प्रवेश लेते हैं, उससे अधिक उर्जा उनमें आ जाती है। इससे ब्लैक होल के संवेग में ज़रूर थोड़ी कमी आती है।

कोलंबिया के खगोलविद डेविड किपिंग ने आर्काइव्स प्रीप्रिंट जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में बताया है कि यह संभव है कि कोई अंतरिक्ष यान किसी बायनरी ब्लैक होल सिस्टम पर लेज़र से फोटॉन की बौछार करे और जब ये फोटॉन ऊर्जा प्राप्त कर लौटें तो इनको अवशोषित कर अतिरिक्त ऊर्जा को गति में परिवर्तित कर दे। पारंपरिक लाइटसेल की तुलना में यह तकनीक अधिक लाभदायक होगी क्योंकि इसमें ईंधन की आवश्यकता नहीं है।

लेकिन इस तकनीक की भी सीमाएं हैं। एक निश्चित बिंदु पर अंतरिक्ष यान ब्लैक होल से इतनी तेज़ी से दूर जा रहा होगा कि वह अतिरिक्त गति प्राप्त करने के लिए पर्याप्त प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित नहीं कर पाएगा। अंतरिक्ष यान से पास के किसी ग्रह पर लेज़र को स्थानांतरित करके इस समस्या को हल करना संभव है: लेज़र को इस तरह सटीक रूप से निशाना लगाया जाए कि यह ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण से निकल कर अंतरिक्ष यान से टकराए।

किपिंग के अनुसार हो सकता है आकाशगंगा में कोई ऐसी सभ्यता हो जो यात्रा के लिए इस तरह की प्रणाली का उपयोग कर रही हो। (स्रोत फीचर्स)

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शुक्र पृथ्वी का सबसे नज़दीकी ग्रह नहीं है!

ब हम पृथ्वी के सबसे करीबी ग्रह की बात करते हैं तो हमारा जवाब शुक्र ग्रह होता है। लेकिन इसका सही जवाब है बुध। इसमें कोई शक नहीं कि शुक्र अपनी कक्षा में परिक्रमा करते हुए पृथ्वी के सबसे करीब आ जाता है लेकिन फिज़िक्स टुडे पत्रिका की एक टिप्पणी के अनुसार, बुध सबसे लंबे समय तक पृथ्वी के सबसे नज़दीक रहता है।

अलाबामा विश्वविद्यालय के पीएच.डी. छात्र टॉम स्टॉकमैन, अमेरिकी सेना के इंजीनियरिंग शोध संस्थान के गैब्रियल मनरो और नासा के सैमुअल गॉर्डनर के अनुसार कुछ लापरवाही, अस्पष्टता या समूह के विचारों से प्रभावित होकर विज्ञान संचारकों ने ग्रहों के बीच की औसत दूरी के बारे में एक त्रुटिपूर्ण धारणा के आधार पर यह प्रसारित कर दिया कि शुक्र हमारा सबसे नज़दीकी ग्रह है। दो ग्रहों के बीच की दूरी की गणना करते समय आम तौर पर सूर्य से उन दो ग्रहों की औसत दूरियों को घटाया जाता है। दिक्कत यहीं है। इस तरीके से दो ग्रहों के बीच की दूरी की गणना उसी स्थिति में की जाती है जब वे एक दूसरे के सबसे करीब होते हैं। लेकिन शुक्र और पृथ्वी कभी-कभी सूर्य से विपरीत दिशाओं में होते हैं क्योंकि दोनों ग्रह अलग-अलग गति से चलते हैं। इस स्थिति में उनकी दूरी औसत दूरी से बहुत अधिक होती है।

इस टिप्पणी में शोधकर्ताओं ने ग्रहों के बीच की दूरी मापने के लिए एक नई गणितीय तकनीक तैयार की है जिसे पॉइंट-सर्किल मेथड कहते हैं। इस विधि में प्रत्येक ग्रह की कक्षा पर कुछ बिंदुओं के बीच की दूरी का औसत पता की जाती है। इसका फायदा यह होता है कि विभिन्न समयों पर दूरी का भी ध्यान रखा जाता है।

इस विधि से गणना करने पर बुध अधिकतर समय पृथ्वी के सबसे करीब पाया गया। इतना ही नहीं बुध ग्रह, शनि एवं नेप्च्यून और अन्य सभी ग्रहों के भी सबसे निकटतम ग्रह था। शोधकर्ताओं ने पिछले 10,000 सालों के लिए हर 24 घंटे में ग्रहों की कक्षाओं में स्थिति के आधार पर गणना की है।

हालांकि सभी लोग ‘निकटतम’ ग्रह की इस नई परिभाषा से सहमत नहीं हैं। यह ‘निकटतम’ को परिभाषित करने का एक दिलचस्प तरीका ज़रूर है, मगर कई लोगों का कहना है कि इसमें दम नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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90 दिनों का अंतरिक्ष अभियान जो 15 वर्षों तक चला – प्रदीप

मारे सौरमंडल में मंगल ही इकलौता ऐसा ग्रह है जो कई मायनों में पृथ्वी जैसा है और भविष्य में पृथ्वी से बाहर मानव बस्ती बसाने के लिए भी सबसे उपयुक्त पात्र यही ग्रह नज़र आता है। इसके बारे में हमारे ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ वैज्ञानिकों और जनसाधारण की इसके प्रति रुचि में भी निरंतर वृद्धि हुई है। अंतरिक्ष खोजी अभियानों के लिहाज़ से भी अन्य ग्रहों-उपग्रहों और तारों की तुलना में मंगल सर्वाधिक उपयोगी और उपयुक्त ग्रह है। इसलिए पिछली सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुए ज़्यादातर अंतरिक्ष के खोजी अभियानों का लक्ष्य मंगल ही रहा है। इस सदी की शुरुआत में मंगल अन्वेषण के मामले में जिस खोजी अभियान ने सबसे ज़्यादा सुर्खियां बटोरीं और जिसने वैज्ञानिकों और जनसाधारण को सबसे ज्यादा आकर्षित किया, वह निश्चित रूप से नासा का ‘अपॉर्चुनिटी रोवर मिशन’ था।

13 फरवरी 2019 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपॉर्चुनिटी रोवर मिशन की समाप्ति की घोषणा की। हालांकि इसका निर्धारित जीवनकाल केवल 90 दिनों का था, फिर भी इसने लगभग 15 वर्षों तक अपनी भूमिका कुशलतापूर्वक निभाई। अपनी अनुमानित उम्र को 60 गुना से अधिक करने के अलावा, रोवर ने मंगल की धरती पर 45 किलोमीटर से अधिक की यात्रा की, जबकि योजना अनुसार इसे मंगल पर एक किलोमीटर ही चलना था।

अपॉर्चुनिटी रोवर को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल एयरफोर्स स्टेशन से 7 जुलाई 2003 को प्रक्षेपित किया गया था। इसके लगभग सात महीने बाद 24 जनवरी, 2004 को अपॉर्चुनिटी रोवर  मंगल ग्रह के मेरिडियानी प्लायम नामक क्षेत्र में उतरा था। अपॉर्चुनिटी का जुड़वां स्पिरिट रोवर उससे 20 दिन पहले ही मंगल की सतह पर उतरा था और मई 2011 में अपने मिशन को पूरा करने से पहले स्पिरिट ने लगभग 8 किलोमीटर की दूरी तय की। इन दोनों रोबोटों ने इन्हें बनाने वालों की उम्मीदों से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया।

अंतरिक्ष के खोजी अभियानों की विशेषज्ञ और दी प्लेनेटरी सोसाइटी की सीनियर एडिटर एमिली लकड़ावाला के मुताबिक अपॉर्चुनिटी रोवर से आम लोगों के लिए बड़ा बदलाव यह आया है कि मंगल अब एक सक्रिय ग्रह बन गया है, एक ऐसी जगह जिसे आप हर रोज़ खोज सकते हैं। अपॉर्चुनिटी ने मंगल की सतह पर उतरने के बाद अपनी आधी ज़िंदगी वहां घूमते हुए बिताई। चपटी सतह पर घूमते-घूमते यह एक बार रेत के टीले में कई हफ्तों तक फंसा रहा। वहीं पर भूगर्भीय उपकरणों की मदद से इसने मंगल ग्रह पर कभी तरल रूप में पानी होने की पुष्टि की। इससे वहां सूक्ष्मजीवों के पनपने की संभावना को बल मिला। मंगल पर अपने जीवन के दूसरे चरण में अपॉर्चुनिटी एंडेवर क्रेटर की कगारों पर चढ़ गया और इसने वहां से शानदार तस्वीरें खींचीं।  इसके साथ ही इसने जिप्सम की भी खोज कर डाली जिससे मंगल पर कभी तरल रूप में पानी की मौजूदगी की बात को और मज़बूती मिली।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय में रोवर्स साइंस पेलोड के मुख्य अन्वेषक स्टीव स्क्विरेस के मुताबिक यदि अपॉर्चुनिटी और स्पिरिट दोनों की खोजों को जोड़कर देखें तो पता चलता है कि आज निर्जन, वीरान और ठंडा दिखाई देने वाला यह ग्रह, जिसका पर्यावरण जीवन के अनुकूल नहीं है, सुदूर अतीत में कितना अलग था। अपॉर्चुनिटी ने 15 साल के अपने जीवन में मंगल की सतह की 2,17,000 से अधिक विहंगम तस्वीरें पृथ्वी पर भेजीं। 

मंगल पर पिछले साल जून में रेतीला तूफान आया था। इससे अपॉर्चुनिटी के ट्रांसमिशन पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस तूफान के कारण सौर ऊर्जा संचालित रोवर से हमारा संपर्क टूट गया और करीब आठ महीने तक इससे कोई संपर्क नहीं हो पाया। रोवर ने आखिरी बार 10 जून 2018 को पृथ्वी के साथ संपर्क किया था। अभियान की टीम के अनुसार, संभावना यह है कि अपॉर्चुनिटी रोवर ने ऊर्जा की कमी के कारण काम करना बंद कर दिया। हालांकि टीम के सदस्यों ने रोवर से तकरीबन 800 बार संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता न मिलने पर इसे मृत घोषित करने का फैसला किया गया। अपॉर्चुनिटी के प्रोजेक्ट मैनेजर जॉन कल्लास ने कहा, “अलविदा कहना कठिन है, लेकिन समय आ गया है। इसने इतने सालों में शानदार प्रदर्शन किया है जिसकी बदौलत एक दिन आएगा, जब हमारे अंतरिक्ष यात्री मंगल की सतह पर चल सकेंगे।”

बहरहाल, मंगल की खोज निरंतर जारी है। नासा का इनसाइट लैंडर मंगल पर सफलतापूर्वक लैंडिंग कर चुका है और जल्दी ही लाल ग्रह की वैज्ञानिक जांच-पड़ताल शुरू करने जा रहा है। क्यूरियॉसिटी रोवर छह साल से अधिक समय से गेल क्रेटर की खोजबीन कर रहा है। और नासा का मार्स 2020 रोवर और युरोपियन स्पेस एजेंसी का एक्समर्स रोवर दोनों जुलाई 2020 में लॉन्च होंगे, और इस तरह यह पहला रोवर मिशन बन जाएगा, जिसे मुख्य रूप से लाल ग्रह पर अतीत के सूक्ष्मजीवी जीवन के संकेतों की तलाश के लिए बनाया गया होगा। अलविदा अपॉर्चुनिटी! (स्रोत फीचर्स)

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परमाणु की एक पुरानी गुत्थी सुलझी

भौतिकी की एक गुत्थी रही है जिसे भौतिक शास्त्री 1983 से जानते हैं। यह तो जानी-मानी बात है कि परमाणु में एक केंद्रक होता है जिसके अंदर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन नामक कण होते हैं और इलेक्ट्रॉन केंद्रक के आसपास चक्कर काटते हैं। गुत्थी यह रही है कि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन का व्यवहार केंद्रक के अंदर और बाहर बहुत अलग-अलग होता है।

यह थोड़ी विचित्र बात है क्योंकि चाहे केंद्रक के अंदर हों या बाहर प्रोटॉन और न्य़ूट्रॉन तो वही रहते हैं। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन क्वार्क्स नामक कणों से बने होते हैं और इन कणों को साथ-साथ रखने का काम स्ट्रॉन्ग बल करते हैं। अवलोकन यह है कि जैसे ही क्वार्क्स केंद्रक के अंदर पहुंचते हैं, उनकी गति बहुत धीमी पड़ जाती है। क्वार्क्स की गति का निर्धारण मुख्य रूप से स्ट्रॉन्ग बल द्वारा होता है। दूसरी ओर, केंद्रक में न्यूट्रॉन व प्रोटॉन को साथ रखने का काम करने वाला बल अत्यंत दुर्बल होता है। तीसरा कोई बल होता नहीं जो क्वार्क्स को धीमा करे, लेकिन तथ्य यही है कि केंद्रक के अंदर क्वार्क्स की गति धीमी पड़ जाती है। भौतिकी समुदाय इसे ईएमसी प्रभाव कहता है। यह नाम उस समूह के नाम पर रखा गया है जिसने इसकी खोज की थी – युरोपियन म्युऑन कोलेबोरेशन। तो सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है।

केंद्रक में उपस्थित किन्हीं भी दो कणों को बांधकर रखने वाला बल करीब 80 लाख इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बराबर होता है। दूसरी ओर न्यूट्रॉन या प्रोटॉन के अंदर क्वार्क्स को आपस में जोड़े रखने वाला बल 10,000 लाख इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बराबर होता है। तो ऐसा तो नहीं हो सकता कि क्वार्क्स को आपस में बांधे रखने वाले इतने सशक्त बल को केंद्रक का हल्का-सा बल प्रभावित कर दे।

सापेक्षता का सिद्धांत कहता है कि किसी भी वस्तु के साइज़ पर उसकी गति का असर पड़ता है। यह असर कम गति से हलचल कर रही स्थूल वस्तुओं के संदर्भ में इतना कम होता है कि पता ही नहीं चलता। मगर क्वार्क्स के पैमाने पर यह काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। जैसे सोने के केंद्रक को देखें तो उसके अंदर उपस्थिति प्रोटॉन व न्यूट्रॉन स्वतंत्र प्रोटॉन व न्यूट्रॉन की अपेक्षा 20 प्रतिशत तक छोटे होते हैं।

इस ईएमसी प्रभाव की व्याख्या के लिए भौतिक शास्त्रियों ने तमाम मॉडल विकसित किए हैं मगर आज तक कोई भी मॉडल इस विसंगति की संतोषजनक व्याख्या नहीं कर सका है। अब एमआईटी के भौतिक शास्त्री ओर हेन और उनकी टीम ने इसकी एक व्याख्या प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि अधिकांश परिस्थितियों में केंद्रक में उपस्थित प्रोटॉन और न्यूट्रॉन एक दूसरे पर व्याप्त नहीं होते। किंतु कभी-कभी वे एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। शोधकर्ताओें का कहना है कि किसी भी क्षण केंद्रक के 20 प्रतिशत प्रोटॉन/न्यूट्रॉन इस अवस्था में रहते हैं। ऐसा होने पर क्वार्क्स के बीच ऊर्जा का विशाल प्रवाह होता है और यह प्रवाह उनकी संरचना और व्यवहार को बदल देता है। यही ईएमसी प्रभाव का कारण है। टीम ने कुछ प्रयोग भी किए और उनके परिणाम उपरोक्त व्याख्या के अनुरूप ही मिले हैं। कुल मिलाकर हेन की टीम का मत है कि ईएमसी प्रभाव कुछ न्यूट्रॉन/प्रोटॉन की इस विशेष अवस्था का परिणाम है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माइक्रोवेव में रखे अंगूर से चिंगारियां

माइक्रोवेव ओवन में रखे जाने पर अंगूर से चिंगारियां निकलते हुए दिखाने वाले कई वीडियो इंटरनेट पर मौजूद हैं। इन वीडियो में एक अंगूर को दो हिस्सों में इस तरह काटते हैं कि अंगूर का छिलका दोनों टुकड़ों से जुड़ा रहे। फिर इसे माइक्रोवेव में रख दिया जाता है। ये टुकड़े आपस में जहां से जुड़े रहते हैं कुछ देर बाद वहां से चमक पैदा करती गैस निकलती है। ऐसा होने का कारण यह बताया जाता है कि अंगूर के दो टुकड़े माइक्रोवेव विकिरण के लिए एंटिना का काम करते हैं और अंगूर के छिलके की नमी इन दोनों टुकड़ों के बीच चालक का। दोनो एंटिना के बीच अंगूर के छिलके से होते हुए विद्युत बहती है और चमक पैदा होती है।

कनाडा स्थित ट्रेन्ट विश्वविद्यालय के आरोन स्लेपकोव का कहना है कि इंटरनेट पर बताया जा रहा यह कारण सही नहीं है। आरोन के अनुसार वास्तव में होता यह है कि अंगूर के दो टुकड़े दर्पणनुमा केविटी (गड्ढा) बनाते हैं जिनका केन्द्र दोनों टुकड़ों का जुड़ा हुआ हिस्सा (छिलका) होता है। ये केविटी माइक्रोवेव विकिरण को अवशोषित करती हैं और केंद्र पर फोकस कर देती हैं। इसके कारण केन्द्र बहुत गर्म हो जाता है। तब अंगूर के छिलके में मौजूद सोडियम और पोटेशियम के परमाणु आवेशित हो जाते हैं और आवेशित गैस (प्लाज़्मा) का निर्माण करते हैं। जिससे चमक पैदा होती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आरोन और उनके साथियों ने थर्मल इमेजिंग और कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद ली। उन्होंने साबूत अंगूर, अंगूर के टुकड़ों और हाइड्रोजेल मोतियों को माइक्रोवेव में अलग-अलग स्थितियों में रखकर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र की थर्मल इमेजिंग की। देखा गया कि प्लाज़्मा पैदा करने के पीछे दो टुकड़ों के बीच का छिलका मुख्य कारण नहीं है। वास्तव में अंगूर का साइज़ और पर्याप्त नमी विकिरण को अवशोषित करने में भूमिका निभाते हैं। अंगूर के अलावा ब्लैकबेरी, गूज़बेरी और हाइड्रोजेल मोती को माइक्रोवेव में आपस में सटाकर रखने पर भी यही प्रभाव होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सौर मंडल के दूरस्थ पिंड की खोज

धिकांश लोगों के लिए ठंड का समय काफी अनुत्पादक होता है। लेकिन कुछ लोग इस मौसम का इस्तेमाल सौर मंडल में दूरस्थ पिंडों की खोज के लिए करते हैं। कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने शहर में हो रही भारी बर्फबारी के चलते इस मौके का फायदा उठाया। खराब मौसम के चलते एक सार्वजनिक व्याख्यान कुछ देर स्थगित होने के कारण उन्होंने दूरबीन से प्राप्त सौर मंडल के सीमांत दृश्यों को देखना शुरू किया। उनकी टीम पहले से ही परिकल्पित नौवें विशालकाय ग्रह की खोज में लगी थी।

दूरबीन के दृश्यों को देखते हुए उन्होंने 140 खगोलीय इकाई की दूरी पर एक धुंधला पिंड देखा। गौरतलब है कि खगोलीय इकाई पृथ्वी से सूर्य की दूरी के बराबर होती है। यह पिंड हमारे सौर मंडल का अभी तक ज्ञात सबसे दूरस्थ पिंड है जो प्लूटो से लगभग 3.5 गुना अधिक दूर है। शेपर्ड ने 21 फरवरी को बताया कि यदि इस पिंड की पुष्टि हो जाती है, तो यह दिसंबर में खोजे गए 120 खगोलीय इकाई दूर स्थित बौने ग्रह की खोज का रिकॉर्ड तोड़ देगा। उस बौने ग्रह को ‘फारआउट’ (अत्यंत दूर) नाम दिया गया था तो हो सकता है इसे ‘फारफारआउट’ (अत्यंत-अत्यंत दूर) कहा जाए।

पिछले एक दशक में शेपर्ड और उनके सहयोगियों – नॉर्थ एरिज़ोना विश्वविद्यालय के चाड टØज़िलो और हवाई विश्वविद्यालय के डेव थोलेन ने दुनिया के कुछ सबसे शक्तिशाली और विस्तृत परास वाली दूरबीनों की मदद से रात के आकाश को व्यवस्थित रूप से छाना है। उनके प्रयासों से सूर्य से 9 अरब किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित पिंडों में से 80 प्रतिशत को ताड़ लिया गया है।

यह सिर्फ सूची को बढ़ाते जाने की बात नहीं है। इनकी मदद से नौवे ग्रह के प्रभाव को जाना जा सकता है। फारआउट की तरह, फारफारआउट की कक्षा भी अभी तक ज्ञात नहीं है। जब तक इसकी कक्षा के बारे में जानकारी नहीं मिलती तब तक यह बता पाना मुश्किल है कि ये पिंड कब तक सौर मंडल में दूर रहकर अन्य विशाल ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल से मुक्त रहेंगे। यदि ऐसा होता है, तो ये दोनों शेपर्ड की हालिया खोजों में से एक गोबलिन के समकक्ष हो सकते हैं।

फारआउट और फारफारआउट की कक्षाओं को निर्धारित करने में कई साल लगेंगे। तब तक शेपर्ड अपनी पसंदीदा दूरबीनों से लगभग हर अमावस्या की रात को खोज करने के लिए जुटे रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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उन्नीसवीं सदी की रिकार्डेड आवाज़ सुनी गई – ज़ुबैर

आजकल आवाज़/ऑडियो रिकॉर्ड करना और उसको दोबारा सुनना काफी आसान हो गया है। बस अपने सेलफोन में एक ऐप इंस्टाल कीजिए और मन चाहे तब आप कुछ भी रिकॉर्ड कीजिए और जब मन चाहे उसको सुन भी लीजिए। लेकिन क्या आवाज़ रिकॉर्ड करना और उसको बार-बार सुनना हमेशा से इतना आसान था या फिर काफी तकनीकी मशक्कत के बाद हम इस स्तर पर पहुंचे हैं।

ऑडियो रिकॉर्डिंग के इतिहास को देखा जाए तो इस क्षेत्र में सबसे पहला प्रयास थॉमस एडिसन ने किया था। उन्होंने 1877 में टिन की पन्नी के फोनोग्राफ का आविष्कार करके 1878 में इसे बेचना शुरू किया था। तो वे कौन से उपकरण और प्रणाली थी जिसकी मदद से सबसे पहली रिकार्डिंग की गई? सबसे पहले क्या रिकॉर्ड किया गया? और क्या सबसे पहली रिकार्डिंग अभी भी कहीं मौजूद है?

आज से कुछ साल पहले स्मिथसोनियन संग्रहालय से एक ऐसी टिन की पन्नी मिली जिसमें ऑडियो संग्रह था। अब समस्या थी कि इस टिन की पन्नी को चलाने के लिए वह उपकरण मौजूद नहीं था जिसकी मदद से इसको दोबारा सुना जा सके। और अगर ऐसा कोई उपकरण होता भी तो इस टिन पन्नी की हालत इतनी खराब थी कि अगर इसे चलाया जाता तो इसके बरबाद हो जाने की आशंका काफी अधिक थी।

इसी दौरान लॉरेंस बर्कले नेशनल लेबोरेटरी, कैलिफोर्निया में भौतिक विज्ञानी कार्ल हैबर और उनकी टीम पन्नी का त्रि-आयामी चित्र तैयार करने में कामयाब रहे। इसकी स्थलाकृति को ध्वनि में परिवर्तित करने के लिए गणितीय विश्लेषण और मॉडलिंग की तकनीकों का उपयोग किया गया। इससे यह पता चला कि यदि सुई उस पन्नी पर चलती तो किस प्रकार ध्वनि की ध्वनि पैदा होती। और यह सारा पन्नी को छुए बिना किया गया क्योंकि यह पन्नी इतनी पुरानी, नाज़ुक और टूटी-फूटी थी कि इसको आज के आधुनिक तरीकों से चलाना असंभव था।

पन्नी पर यह रिकॉर्डिंग मूलत: फोनोग्राफ द्वारा बनाई गई थी, जिसकी सुई पन्नी पर ऊपर-नीचे चलती थी जिससे ध्वनि तरंगों को रिकॉर्ड किया जाता था। इसमें एक सिलेंडर भी था जिसको हाथ से घुमाया जाता था। आवाज़ को दोबारा सुनने के लिए सुई उससे जुड़े पर्दे को कंपन प्रदान करती जिससे ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती। यह पर्दा लाउडस्पीकर से जुड़ा रहता था जिसके माध्यम से आवाज़ को सीधे या इयरफोन के माध्यम से सुना जा सकता था।

लेकिन कई बार उपयोग करने के बाद सुई पन्नी को चीरफाड़ देती, जिसके बाद लोग इन्हें कबाड़ी को बेच देते थे या स्मृति चिन्ह के रूप में भेंट कर देते थे। दरअसल यह पन्नी प्राचीन वस्तुएं संग्रह करने वाले एक व्यक्ति की पुत्री ने उपलब्ध कराई थी। कार्ल हैबर द्वारा इसको स्कैन और साफ करने के बाद भी रिकॉर्डिंग में जो शोरगुल सुनाई दे रहा है वह संभवत: पन्नी को मोड़कर रखने के कारण पड़ी सिलवटों के कारण है। इस रिकॉर्डिंग में एक व्यक्ति के हंसने की आवाज़ है और ‘मैरी हैड ए लिटिल लैम्ब’ और ‘ओल्ड मदर हबर्ड’ गीतों पाठ भी सुनाई दिया। माना जाता है कि यह पहली बार था जब 1878 में सेंट लुइस में थॉमस एडिसन के फोनोग्राफ द्वारा रिकॉर्ड की गई आवाज़ को न्यू यॉर्क स्थित जी. ई. थियेटर में सार्वजनिक रूप से सुनाया गया था।

कार्ल हैबर के पास वह उपकरण नहीं था जिससे इस आवाज़ को सुना जा सके लेकिन उन्होंने मॉडलिंग और सिमुलेशन पर आधारित एक तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसकी मदद से किसी भी प्रकार की रिकॉर्डिंग को दोबारा जीवंत किया जा सकता है। उनके अनुसार यह अमेरिका ही नहीं दुनिया में कहीं भी की गई सबसे पुरानी रिकॉर्डिंग है।

इस लेख में जिस रिकॉर्डिंग की चर्चा की गई है उसे इस लिंक पर जाकर सुना जा सकता है: https://www.theatlantic.com/technology/archive/2012/10/scientists-recover-the-sounds-of-19th-century-music-and-laughter-from-the-oldest-playable-american-recording/264147/

रिकॉर्डिग में लगता है कि स्वयं एडिसन की आवाज़ है लेकिन इसे लेकर विवाद है। स्मिथसोनियन संग्रहालय के निरीक्षक क्रिस हंटर का मानना है कि यह आवाज एक अखबारी व्यंग्य लेखक थॉमस मेसन की है, जो अपने उपनाम आई.एक्स. पेक (अंग्रेज़ी में ‘I expect’) का उपयोग करते थे। कहते हैं थॉमस एडिसन थोड़ा ऊंचा सुनते थे और उनका उच्चारण भी काफी अलग था। एडिसन की पहली रिकॉर्डिंग अब मौजूद नहीं है, और यदि मौजूद है भी तो कोई नहीं जानता कि कहां है।

इन पन्नियों में एडिसन की आवाज़ है या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन एक बात तो सच है कि रिकॉर्डिंग तकनीक ने जीवन के कई पहलुओं को आकार दिया है। रिकॉर्डेड ध्वनि ने संगीत उद्योग को जन्म दिया मगर साथ ही जनजातीय अनुसंधान, मैदानी रिकॉर्डिंग, पत्रकारिता के साक्षात्कार, ऐतिहासिक शोध में नई क्षमताएं पैदा कीं। इन सबकी शुरुआत की तलाश की जाए तो खोज एडिसन और उनकी पन्नियों पर जाकर खत्म होगी। एडिसन ने अपने इस आविष्कार की मदद से वास्तव में दुनिया को बदलकर रख दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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